हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 104 – शरण ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #104 🌻 शरण 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक गरीब आदमी की झोपड़ी पर…रात को जोरों की वर्षा हो रही थी. सज्जन था, छोटी सी झोपड़ी थी. स्वयं और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे. आधीरात किसी ने द्वार पर दस्तक दी।

उन सज्जन ने अपनी पत्नी से कहा – उठ! द्वार खोल दे. पत्नी द्वार के करीब सो रही थी. पत्नी ने कहा – इस आधी रात में जगह कहाँ है? कोई अगर शरण माँगेगा तो तुम मना न कर सकोगे?

वर्षा जोर की हो रही है. कोई शरण माँगने के लिए ही द्वार आया होगा न! जगह कहाँ है? उस सज्जन ने कहा – जगह? दो के सोने के लायक तो काफी है, तीन के बैठने के लायक काफी हो जाएगी. तू दरवाजा खोल!

लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो नहीं लौटाना है. दरवाजा खोला. कोई शरण ही माँग रहा था. भटक गया था और वर्षा मूसलाधार थी. वह अंदर आ गया. तीनों बैठकर गपशप करने लगे. सोने लायक तो जगह न थी.

थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक दी. फिर गरीब आदमी ने अपनी पत्नी से कहा – खोल ! पत्नी ने कहा – अब करोगे क्या? जगह कहाँ है? अगर किसी ने शरण माँगी तो?

उस सज्जन ने कहा – अभी बैठने लायक जगह है फिर खड़े रहेंगे. मगर दरवाजा खोल! जरूर कोई मजबूर है. फिर दरवाजा खोला. वह अजनबी भी आ गया. अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे. इतना छोटा झोपड़ा! और खड़े हुए चार लोग!

और तब अंततः एक कुत्ते ने आकर जोर से आवाज की. दरवाजे को हिलाया. गरीब आदमी ने कहा – दरवाजा खोलो. पत्नी ने दरवाजा खोलकर झाँका और कहा – अब तुम पागल हुए हो!

यह कुत्ता है. आदमी भी नहीं! सज्जन बोले – हमने पहले भी आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था, अपने हृदय के कारण खोला था!! हमारे लिए कुत्ते और आदमी में क्या फर्क?

हमने मदद के लिए दरवाजा खोला था. उसने भी आवाज दी है. उसने भी द्वार हिलाया है. उसने अपना काम पूरा कर दिया, अब हमें अपना काम करना है. दरवाजा खोलो!

उनकी पत्नी ने कहा – अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं है! उसने कहा – अभी हम जरा आराम से खड़े हैं, फिर थोड़े सटकर खड़े होंगे. और एक बात याद रख! यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें जगह की कमी हो!

यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है!! जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती, जगह दिलों में होती है!

अक्सर आप पाएँगे कि गरीब कभी कंजूस नहीं होता! उसका दिल बहुत बड़ा होता है!!

कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है ही नहीं. पकड़े तो पकड़े क्या? जैसे जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे कंजूस होने लगता है, उसमें मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता है .

जरूरतमंद को अपनी क्षमता अनुसार शरण दीजिए. दिल बड़ा रखकर अपने दिल में औरों के लिए जगह जरूर रखिये.

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 117 – बाळ गीत – सुंदर माझी शाळा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 117 – बाळ गीत – सुंदर माझी शाळा

सुंदर माझी शाळा, लाविते लळा ।

वाजवूनी घंटा ही खुणावते बाळा ।।धृ।।

 

मोठ्या या मैदानी जमले ताई भाऊ।

खूप खूप नाचू आणि गाणी गाऊ ।

नियमित या सारे नको कानाडोळा ।।१।।

 

मधोमध फुले कशी छान फुलबाग।

फुलपाखरां मागे मुलांची ही रांग ।

फुला भोवती होती मुले सारी गोळा ।।२।।

 

ताईनेही आता सोडून दिली छडी।

म्हणतच नाही घाला हाताची घडी।

खूप खूप खेळणी वाटेल ते खेळा ।।३।।

 

जवळ घेत मला बोले लाडेलाडे ।

म्हणत नाहीत नुसते पाठ करा पाढे।

बिया मणी खडे केले आम्ही गोळा ।।४।।

 

अकं अक्षर गाडी जोरदार पळते ।

चित्राची गोष्ट कशी झटपट कळते।

शब्द डोंगराकडे आता थोडे वळा ।।५।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – किती दिवस श्रावण आहे? – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – किती दिवस श्रावण आहे?   ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

श्रावण  महिना संपायला

का लागतोय उशिर

किती दिवस राहीलेत बघतो

मनपसंत  खायला उंदीर

सुरवाती बर वाटल

 जिभेने लपलप दुध प्यायला

कधी कधी चपातीही मिळे

 कुसकरून  मस्त  खायला

पण आता नको वाटत तेच

तोंडाचीच गेलीय चव

किती दिवस श्रावण  आहे

म्हटल कॅलेंडर तरी पहाव

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #147 ☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम संवेदनाएं। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 147 ☆

☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं

सांसों की नमी ज़रूरी है, हर रिश्ते में/ रेत भी सूखी हो/ तो हाथों से फिसल जाती है। प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं; अगर देने लग जाओ/ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं–जैसे जीने के लिए एहसासों की ज़रूरत है; संवेदनाओं की दरक़ार है। वे जीवन का आधार हैं, जो पारस्परिक प्रेम को बढ़ाती हैं; एक-दूसरे के क़रीब लाती हैं और उसका मूलाधार हैं एहसास। स्वयं को उसी सांचे में ढालकर दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करना ही साधारणीकरण कहलाता है। जब आप दूसरों के भावों की उसी रूप में अनुभूति करते हैं; दु:ख में आंसू बहाते हैं तो वह विरेचन कहलाता है। सो! जब तक एहसास ज़िंदा हैं, तब तक आप भी ज़िंदा मनुष्य हैं और उनके मरने के पश्चात् आप भी निर्जीव वस्तु की भांति हो जाते हैं।

सो! रिश्तों में एहसासों की नमी ज़रूरी है, वरना रिश्ते सूखी रेत की भांति मुट्ठी से दरक़ जाते हैं। उन्हें ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक है– सबके प्रति प्रेम की भावना रखना; उन्हें सम्मान देना व उनके अस्तित्व को स्वीकारना…यह प्रेम की अनिवार्य शर्त है। दूसरे शब्दों में जब आप अहं का त्याग कर देते हैं, तभी आप प्रतिपक्ष को सम्मान देने में समर्थ होते हैं। प्रेम के सम्मुख तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। रिश्ते-नाते विश्वास पर क़ायम रह सकते हैं, अन्यथा वे पल-भर में दरक़ जाते हैं। विश्वास का अर्थ है, संशय, शंका, संदेह व अविश्वास का अभाव–हृदय में इन भावों का पदार्पण होते ही शाश्वत् संबंध भी तत्क्षण दरक़ जाते हैं, क्योंकि वे बहुत नाज़ुक होते हैं। ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। भरोसा जहाँ ज़िंदगी की सबसे महंगी शर्त है, वहीं त्याग व समर्पण का मूल आधार है। जब हमारे अंतर्मन से प्रतिदान का भाव लुप्त हो जाता है; संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। इसलिए जीवन में देना सीखें। यदि कोई आपका दिल दु:खाता है, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि लोग उसी पेड़ पर पत्थर मारते हैं, जिस पर मीठे फल लगते हैं। सो! रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं। इसलिए अपनों से कभी मत ग़िला-शिक़वा मत कीजिए।

‘जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए।’ हर पल, हर दिन प्रसन्न रहें और जीवन से प्यार करें; यह जीवन में शांत रहने के दो मार्ग हैं। जैन धर्म में भी क्षमापर्व मनाया जाता है। क्षमा मानव की अद्भुत् व अनमोल निधि है। क्रोध करने से सबसे अधिक हानि क्रोध करने वाले की होती है, क्योंकि दूसरा पक्ष इस तथ्य से बेखबर होता है। रहीम जी ने भी ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ के माध्यम से यह संदेश दिया है। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। इसे कभी मुरझाने मत दें। इसलिए कहा जाता है कि वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें। स्नेह का धागा व संवाद की सूई उधड़ते रिश्तों की तुरपाई कर देते हैं। सो! संवाद बनाए रखें, अन्यथा आप आत्मकेंद्रित होकर रह जाएंगे। सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाएंगे– एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर। ‘सोचा ना था, ज़िंदगी में ऐसे फ़साने होंगे/ रोना भी ज़रूरी होगा, आंसू भी छुपाने होंगे’ अर्थात् अजनबीपन का एहसास जीवन में इस क़दर रच-बस जाएगा और आप उस व्यूह से चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाएंगे।

आज का युग कलयुग अर्थात् मशीनी युग नहीं, मतलबी युग है। जब तक आप दूसरे के मन की करते हैं; तो अच्छे हैं। एक बार यदि आपने अपने मन की कर ली, तो सभी अच्छाइयां बुराइयों में तबदील हो जाती हैं। इसलिए विचारों की खूबसूरती जहां से मिले; चुरा लें, क्योंकि चेहरे की खूबसूरती तो समय के साथ बदल जाती है; मगर विचारों की खूबसूरती दिलों में हमेशा अमर रहती है। ज़िंदगी आईने की तरह है, वह तभी मुस्कराएगी, जब आप मुस्कराएंगे। सो! रिश्ते बनाए रखने में सबसे अधिक तक़लीफ यूं आती है कि हम आधा सुनते हैं; चौथाई समझते हैं; बीच-बीच में बोलते रहते हैं और बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं। सो! उससे रिश्ते आहत होते हैं। यदि आप रिश्तों को लंबे समय तक बनाए रखना चाहते हैं, तो जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार लें, क्योंकि उपेक्षा, अपेक्षा और इच्छा सब दु:खों की जननी हैं और वे दोनों स्थितियां ही भयावह होती हैं। मानव को इनके चंगुल से बचकर रहना चाहिए। हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को संजोकर रखना चाहिए और साहस व धैर्य का दामन थामे आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जहां कोशिशों का क़द बड़ा होता है; उनके सामने नसीबों को भी झुकना पड़ता है। ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।’ आप निरंतर कर्मरत रहिए, आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। रिश्तों को बचाने के लिए एहसासों को ज़िंदा रखिए, ताकि आपका मान-सम्मान बना रहे और आप स्व-पर व राग-द्वेष से सदा ऊपर उठ सकें। संवेदना ऐसा अस्त्र है, जिससे आप दूसरों के हृदय पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और उसके घर के सामने नहीं; उसके घर अथवा दिल में जगह बना सकते हैं। संवेदना के रहने पर संबंध शाश्वत बने रह सकते हैं। रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिए। परंतु जहां सम्मान न हो; जोड़ने भी नहीं चाहिएं। आज के रिश्तों की परिभाषा यह है कि ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध व रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ सचमुच यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

16.7.22.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #147 ☆ भावना के मुक्तक… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के मुक्तक।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 147 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक… 

शहीदों ने जो फरमाया वतन के काम आया है।

लहू का तेरे कतरा तो यही पैगाम लाया है।

किए है प्राण निछावर देश की खातिर हमने तो।

हर घर में तिरंगा आज तो फिर से लहराया है।।

🇮🇳

वतन के काम आया है लहू का तेरे कतरा  तो

शहीदों की शहादत में लिखा है नाम  तेरा   तो

तुम्हें शत शत नमन मेरे वतन के हो चमन तो तुम

तेरा सम्मान करते है करे  एलान तेरा तो।।।।

🇮🇳

वतन की याद आती है हमारा मन नहीं लगता।

हरा भरा है ये जीवन हमें सावन नहीं लगता।

वतन के वास्ते तुमने किया अपने को ही अर्पण।

तुम्हारे बिन ये जीवन तो हमें उपवन नहीं लगता।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #134 ☆ संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 134 ☆

☆ संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सारे बंधन टूटते, खुलें प्रेम के द्वार

कृष्ण प्रकट होकर करें, खुशियों का संचार

 

रक्षा करते धर्म की, करें दुष्ट संहार

हर्षित हैं माँ देवकी, पा कृष्णा उपहार

 

चकित हुईं माँ देवकी, देख चतुर्भुज रूप

शिशु रूप में आईये, हे प्रभु जी सुर भूप

 

बाल रूप में प्रकट हो, भरें खूब किलकार

मुदित हुईं माँ देवकी, अनुपम रूप निहार

 

बजी श्याम की बाँसुरी, झंकृत मोहक तान

राधा बेसुध दौड़तीं, संध्या निशा विहान

 

बाल कन्हैया के दिखें, नित नित अभिनव रूप

अंगुली चूसें पाँव की, अनुपम लगे स्वरूप

 

यमुना जी यह चाहतीं,  प्रभु पद रख लूँ माथ

चरण कमल स्पर्श कर, मैं भी बनूँ सनाथ

 

चंदन सी महके सदा, ब्रज की रज शृंगार

अवसर जब हमको मिले, ब्रज रज करें पखार

 

धन्य धन्य ब्रज भूमि है, श्याम लिए अवतार

मन में भरिये आस्था, रखिये दिव्य विचार

 

श्याम चरण रज चाहते, दूर करें सब दोष

हम अज्ञानी स्वार्थी, हमको दें “संतोष”

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #139 ☆ श्रावण डहाळी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 139 – विजय साहित्य ?

☆ श्रावण डहाळी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(रोज एक श्रावण कविता)

आली श्रावणाची सय

देई कवितेस थारा

शुष्क देहात नांदतो

आठवांचा ओला वारा..!

 

बघ श्रावणाची मौज

करी चित्राला साकार

प्रतिबिंब जाणिवांचे

रेखाटतो चित्रकार….!

 

झाला श्रावण अनंग

जपे भावनांचा रंग

उलगडे अनवट

कलावंत अंतरंग…!

 

बघ श्रावण सौंदर्य

राखी झाडाशी ईमान

सुकलेल्या कायेतून

देते झाडा जीवदान…!

 

एक श्रावण डहाळी

जोजवते तीन काळ

गर्द हिरव्या क्षणांची

तिच्या काळजात माळ…!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

१९/८/२०२२

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆ शालन, मालन आणि मोरू ! (भाग 2) ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? चं म त ग ! 😅

😅 शालन, मालन आणि मोरू ! (भाग 2) 😂 श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

तर मंडळी, आपला मोरू पंतांचा बायकोला नवीन साडी घेण्याचा कानमंत्र घेवून, अगदी आनंदाने आपल्या खोलीकडे निघाला. त्या आनंदाच्या भरात समोरून येणाऱ्या दोन तीन चाळकऱ्यांना त्याने धडका पण दिल्या आणि त्या सगळ्यांना सॉरी म्हणत म्हणतच तो आपल्या खोलीकडे मार्गक्रमण करू लागला. कधी एकदा शालनला नवीन साडी घ्यायला जाऊया हे सांगतोय, असं त्याला होऊन गेलं होतं.

तेवढ्यात, आपल्याच विचाराच्या तंद्रित चालत असलेला मोरू आणि समोरून येणाऱ्या लेले काकूंची इतक्या जोरात धडक झाली, की काकूंच्या डोक्यावरची पाण्याची कळशी पूर्ण रिकामी होऊन, मोऱ्याला जेंव्हा नखशिखान्त अंघोळ झाली, तेंव्हा कुठे तो भानावर आला.  “मोऱ्या काय केलंस हे ?” “सॉरी काकू !” असं बोलून तो कपडे झटकत झटकत खोलीकडे जाऊ लागणार तेवढयात लेले काकूंनी त्याच्या बकोटीस धरून, “अरे लक्ष कुठे होतं तुझं? का सकाळी सकाळी श्रावणी सोमवारची भोले नाथाची भांग चढवून आलायस ?” असं रागात विचारलं. “काही तरीच काय काकू ? मी म्हटलं ना तुम्हांला सॉरी” असं म्हणून मोऱ्या परत जायला लागला तेंव्हा लेले काकू त्याला म्हणाल्या, “मोऱ्या गधडया आज श्रवणातला शेवटचा सोमवार.” “बरं मग ?” “अरे मग, काय मग ? आज माझा कडक उपवास असतो आणि मी स्वतः पाच कळशा पाणी डोक्यावर वाहून, आपल्या चाळीतल्या शंकराच्या देवळात त्या भोळ्याला स्नान घालते, गेली कित्येक वर्ष, कळलं ?” “अरे व्वा काकू, छानच करता तुम्ही हे. आता तो भोळा शंकर तुमची ही सेवा मान्य करून तुम्हांला नक्कीच प्रसन्न होऊन, एखादा चांगलासा वर देईल बघा.” असं उपरोधीक स्वरात मोऱ्या लेले काकूंना म्हणाला. पण त्याच्या असल्या बोलण्याकडे काकूंनी काणा डोळा करीत त्याला म्हटलं “अरे तो काय देईल अथवा न देईल यात मला काडीचा इंटरेस्ट नाही.” त्यांच हे बोलणं ऐकून मोऱ्या म्हणाला, “मग बरंच झालं की काकू!  माणसाने असंच निस्वार्थी मनाने आपलं कर्म करीत जावं, फळाची अपेक्षा कधी करू नये.”

काकूंच्या कळशीतल्या थंडगार पाण्यात भिजल्यामुळे मोऱ्याला आता बऱ्यापैकी थंडी वाजू लागली होती. शिवाय शालनला कधी एकदा साडी शॉपिंगची बातमी सांगतोय असं त्याला होऊन गेलं होतं. म्हणून तो धीर करून लेले काकूंना म्हणाला “बरं येतो आता काकू, आधीच उशीर झालाय.” असं म्हणून तो पुन्हा वळणार तोच लेले काकूंनी त्याची वाट परत अडवली !

“आता आणखी काय काकू ? अहो, मी आता हे ओले कपडे बदलले नाहीत ना, तर मला नक्कीच न्यूमोनिया होईल बघा !” “मोऱ्या मला सांग, अंघोळ करतोस तू ?” “म्हणजे काय काकू, रोजच करतो मी अंघोळ.” “मी रोजच विचारत नाहीये, आज केलीस कां अंघोळ ?” असं जरा काकूंनी आवाज चढवून विचारल्यावर मजल्यावरचे शेजारी पाजारी काकूंचा तो सुपरिचित आवाज ऐकून त्या दोघां भोवती लगेच गोळा झाले. चाळकरी गोळा झालेले बघून, नाही म्हटलं तरी मोऱ्या थोडा घाबरला. या चाळकऱ्यांना सक्काळी सक्काळी घरातली कामं नसतात कां ? असा सुद्धा एक प्रश्न त्याच्या मनांत डोकावून गेला. पण तो प्रश्न त्याने लगेच झटकून, आता लेले काकूंच्या तावडीतून आपली लवकरात लवकर सुटका करून घेण्यासाठी, त्याने परत सॉरी म्हणण्यासाठी तोंड उघडले, पण त्याला पुढे बोलू न देता लेले काकू कडाडल्या “मोऱ्या काय विचारत्ये मी ? अरे आज अंघोळ केल्येस कां नाही ?” “नाही काकू, अजून माझी अंघोळ व्हायची आहे. त्याच काय झालं, आपल्या पिकनिक…” त्याला मधेच तोडत लेले काकू म्हणाल्या “मग बरंच झालं !” लेले काकूंच ते बोलणं ऐकून मोऱ्या आश्चर्याने म्हणाला, “काय बरं काय झालं काकू ?”  “अरे तू अजून अंघोळ केली नाहीस ते बरंच झालं असं म्हणत्ये मी !” “कां काकू ?” त्यावर लेले काकू मोऱ्याला समजावणीच्या सुरात म्हणाल्या “मोऱ्या माझ्या डोक्यावरची कळशी तुझ्या डोक्यावर पूर्ण रिकामी झाल्यामुळे आता तुझी अंघोळ झाल्यातच जमा आहे. तेंव्हा आता एक काम कर.” लेले काकूंच्या तोंडातून ‘एक काम कर’ हे शब्द ऐकून मोऱ्याचा चेहरा पडला. त्याने नाईलाजाने काकूंना विचारलं  “कसलं काम काकू ?” “आता या ओल्या कपड्यानिशी मला एक एक करून  नळावरून पाच कळशा पाणी आणून दे, भोळ्या शंकराच्या अभिषेकसाठी. मी तुझी खाली देवळाजवळ वाट बघत्ये, जा पळ लवकर !” असं बोलून मोऱ्याला तोंडातून एक अवाक्षर सुद्धा काढायची संधी न देता, लेले काकूंनी खाली पडलेली आपली कळशी मोऱ्याच्या हातात जबरदस्तीने ठेवली आणि त्या मागे वळून न बघता जिन्याच्या पायऱ्या उतरून तरातरा जाऊ लागल्या.

लेले काकूंच्या या वागण्याचा मोऱ्याला इतका राग आला, पण त्याचा नाईलाज होता. चूक त्याचीच होती. त्याने आजूबाजूला हसणाऱ्या चाळकऱ्यांकडे एकदा रागाने पाहिले आणि तो हातातली कळशी घेवून गपचूप पाणी आणण्यासाठी वळला.

काकूंच्या या पाच कळशा पाणी पाहोचविण्याच्या कामात अडकल्यामुळे आणि नळावर पाणी भरण्यासाठी गर्दी असल्यामुळे, मोऱ्याचे आणखी पुढचे दोन तास खर्ची पडले.  एकदाची मोऱ्याची ती कामगिरी फत्ते झाल्यावर, दमला भागला मोरू आपल्या खोलीकडे वळला आणि खोलीत शिरता शिरता आनंदाने म्हणाला, “अगं ऐकलंस का शालन, आज संध्याकाळी की नाही आपण दोघं….” आणि पुढचे शब्द त्याच्या तोंडातून बाहेरच आले नाहीत मंडळी. तो घरात शिरला आणि त्याच लक्ष चहा पीत खुर्चीवर बसलेल्या एका तरुणीकडे गेलं. शालन तिच्या बाजूला उभी होती आणि त्या दोघींच्या गप्पा अगदी रंगात आल्या होत्या. त्यानं त्या तरुणीला या आधी कधीच पाहिलं नव्हतं, म्हणून त्याने आत येत येत शालनला विचारलं “या कोण शालन ?” “अहो ही माझी शाळेतली मैत्रीण मालन !” असं म्हणून शालन आणि मालन दोघीही हसायला लागल्या. पण शालनच्या तोंडातून ‘मालन’ हे नांव ऐकल्या ऐकल्या मोऱ्याच अवसान पार गळालं.  त्यावर शालन त्याला म्हणते कशी “अहो पंतांनी माझ्या आणि हिच्या नावाची केलेली गफलत परवा बोलता बोलता मी सहज मालनला सांगितली आणि….” शालनला पुढे बोलू न देता मालन मोऱ्याला म्हणाली “अहो भावजी, पंतांच्या या गफलतिचा फायदा घेवून मीच शालनला म्हटलं, आपण जरा भावजींची गंम्मत करू या का ?” “आणि मी सुद्धा या गोष्टीला तयार झाले आणि तुमची जरा…..” आता शालनला थांबवत मोऱ्या म्हणाला, “काय मस्त ऍक्टिंग केलीस गं तू शालन.  मला पिकनिकला जायला आत्ताच्या आत्ता १,५००/- रुपये द्या नाहीतर घटस्फोट द्या. मला अजिबातच संशय आला नाही तुझा, तू ऍक्टिंग करत्येस म्हणून ! बरं पण तुम्ही दोघी मैत्रिणी बसा गप्पा मारत, मी आलोच अंघोळ करून.” असं म्हणून मोऱ्या आत वळला आणि खो खो करून हसतच सुटला.

मंडळी, आता तुम्ही म्हणाल यात मोऱ्याला खो खो हसण्यासारखं काय झालं असेल ? तर त्याच उत्तर असं आहे, की शालन आणि मालनच्या या गंम्मतीच गुपित त्याला आता कळल्यामुळे, तो शालनला घेणार असलेल्या नवीन साडीचे दोन तीन हजार वाचले नाही का ? अहो, तुम्ही पण मोऱ्याच्या जागी असतात तर असेच खूष होऊन हसला असतात नां ? मग !

© प्रमोद वामन वर्तक

२६-०८-२०२२

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 99 ☆ क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा क्लीअरेंस।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 99 ☆

☆ लघुकथा – क्लीअरेंसडॉ. ऋचा शर्मा ☆

सर ! इस फॉर्म पर आपके साईन चाहिए क्लीअरेंस करवाना है  – विभाग प्रमुख से एक छात्रा ने कहा।

ठीक है। आपने विभाग के ग्रंथालय की सब पुस्तकें वापस कर दीं ?

सर! मैंने  पुस्तकें ली ही नहीं थी। जरूरत ही नहीं पड़ी।

अच्छा, पिछले वर्ष पुस्तकें ली थीं आपने ?

नहीं सर, कोविड था ना, ऑनलाईन परीक्षा हुई तो गूगल से ही काम चल गया। सर पाठ्यपुस्तकें  भी नहीं खरीदनी पड़ी, बी.ए.के तीन साल ऐसे ही निकल गए  – छात्रा  बड़े उत्साह से बोल रही थी। सर, जल्दी साईन कर दीजिए प्लीज, ऑफिस बंद हो जाएगा।

सर मन में धीरे से बुदबुदाए – कैसा क्लीअरेंस है यह ? पुस्तकें पढ़नी चाहिए ना! और साईन कर दिया। पास बैठे एक शिक्षक बोले – सर!  मैं तो कब से कह रहा हूँ किताबें कॉलेज के ग्रंथालय को वापस कर देते हैं, कोई पढ़ता तो है नहीं, झंझट ही खत्म। कुछ बोले बिना विभाग प्रमुख ने उनकी ओर गौर से देखा मानों पूछ रहे हों आप ?

 शिक्षक महोदय भी नजरें चुरा रहे थे।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 114 ☆ पूछ से पूँछ तक ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक एक विचारणीय एवं समसामयिक ही नहीं कालजयी रचना “पूछ से पूँछ तक”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 114 ☆

☆ पूछ से पूँछ तक ☆ 

उत्सव समाप्त की विधिवत घोषणा भी नहीं हो पायी थी कि एक बड़ा खेमा विरोध में खड़ा हो गया। उसकी समस्या थी कि उसे पर्याप्त सम्मान नहीं दिया गया, केवल एक की  ही पूँछ पकड़े साहब घूमते रहे, अब क्या किया जाए, प्रकृति ने तो इसे मानव से विलुप्त कर दिया है ठीक वैसे ही जैसे डायनासौर को, पर अभी भी  कुछ  लोग इसका भरपूर  उपयोग कर रहे हैं।

विरोधी ग्रुप ने खूब हाथ-पैर  पटके पर उम्मीद की किरण दिखाई ही नहीं दे रही थी, खैर उम्मीद पर तो दुनिया कायम  है वे लोग  समानांतर  संगठन बनाने लगे।

उनका नेता भी कोई कुटिल ही होना था क्योंकि  बिना इसके न तो रामायण पूरी हुई न महाभारत सो ये क्रम कैसे रुके, अच्छा भी है ये सब होते रहने से कुछ कड़वाहट भी फैलती है जिससे मीठे की बीमारी से बचाव होता है।

जब व्यक्ति  स्वान्तः सुखाय की दृष्टि धारण कर लेता है तो उसे स्वार्थी की संज्ञा समाज द्वारा दे दी जाती है।

अब प्रश्न ये उठता है कि क्या  स्व + अर्थ  =  स्वार्थ की कसौटी क्या होनी चाहिए इसका निर्धारण कौन करेगा। सभी अपने दृष्टिकोण से  सोचते हैं, तर्क देते हैं और खुद ही फैसला सुना देते हैं। स्वार्थी होना कोई बुरी बात नहीं है यदि उससे किसी का नुकसान न हो  रहा हो तो।

जितना  भी विकास हुआ है उसमें मनुष्य की जिज्ञासू प्रवृत्ति से कहीं ज्यादा  स्वयं का हित ही समाहित रहा है। जब-जब केवल अपना हित चाहा प्रत्यक्ष रूप से तब-तब विरोध के स्वर मुखरित हुए।

यदि आपके विचारों से समाजोपयोगी कार्य हो रहे हैं तो अवश्य करें, जब तक एक जुट होकर सार्थक प्रयास नहीं होंगे तब तक स्वार्थ  सिद्धि में लगे लोग इसके सही अर्थ को न समझ पायेंगे न समझा पायेंगे।

छोड़ दो तुम स्वार्थ सारे।

थाम लो  नेहिल   सहारे।।

बीत   जायेगी   ये  रैना।

बात  सच्ची  मान  प्यारे।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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