हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 125 ☆ नव गीत ~ क्यों करे? ~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत  “~ क्यों करे?~”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 125 ☆ 

☆ नव गीत ~ क्यों करे? ~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

*

चर्चा में

चर्चित होने की चाह बहुत

कुछ करें?

क्यों करे?

*

तुम्हें कठघरे में आरोपों के

बेड़ा हमने।

हमें अगर तुम घेरो तो

भू-धरा लगे फटने।

तुमसे मुक्त कराना भारत

ठान लिया हमने।

‘गले लगे’ तुम,

‘गले पड़े’ कह वार किया हमने।

हम हैं

नफरत के सौदागर, डाह बहुत

कम करें?

क्यों करे?

*

हम चुनाव लड़ बने बड़े दल

तुम सत्ता झपटो।

नहीं मिले तो धमकाते हो

सड़कों पर निबटो।

अंग हमारे, छल से छीने 

बतलाते अपने।

वादों को जुमला कहते हो

नकली हैं नपने।

माँगो अगर बताओ खुद भी,

जाँच कमेटी गठित  

मिल करें?

क्यों करे?

*

चोर-चोर मौसेरे भाई

संगा-मित्ती है।

धूल आँख में झोंक रहे मिल

यारी पक्की है। 

नूराकुश्ती कर, भत्ते तो

बढ़वा लेते हो।

भूखा कृषक, अँगूठी सुख की

गढ़वा लेते हो।

नोटा नहीं, तुम्हें प्रतिनिधि

निज करे।  

क्यों करे?

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१४-१२-२०१८, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #154 ☆ भोजपुरी गीत  – इहै प्लास्टिक एक दिन‌ सबके मारी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 154 ☆

☆ भोजपुरी गीत  – इहै प्लास्टिक एक दिन‌ सबके मारी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

आज का मानव समाज सुविधा भोगी हो चला है साधन और सुविधाओं के चक्कर में मानव समाज मौत के मुहाने पर खड़ा है। गाहे-बगाहे न सड़ने वाले बजबजाते प्लास्टिक कचरे के तथा उसकी दुर्गंध से हर व्यक्ति परिचित हैं, ऐसे में आने वाले भयावह खतरे से सावधान रहने का संदेश यह भोजपुरी रचना देती है।उम्मीद है सभी भोजपुरी भाषा भाषी इस रचना को आत्मसात कर समसामयिक रचना का संदेश लोकहित में प्रसारित करेंगे।

पोलिएथ्रिन*  के आयल जमाना,

साधन आ सुविधा के खुलल खजाना।

पोलीथीन प्लास्टिक नाम बा एकर,

सड़वले से कचरा सड़े नाही जेकर।

साधन आ सुविधा इ केतना बनवलस,

केतना गिनाई नाम बहुतै कमइलस।

कपड़ा अ लत्ता दवाई मिठाई,

गाड़ी मोटर टीवी अ गद्दा रजाई।।

।।इहै प्लस्टिक एक दिन सबके मारी।।1।।

 

प्लास्टिक क पत्तल अ प्लास्टिक क दोना,

वोही क ओढ़ना वोही क बिछौना।

वो से छुटल नाहीं कौनो कोना,

जहां देखा प्लास्टिक बिकै बनिके सोना।

प्लस्टिक से सुविधा मिलै ढ़ेर सारी,

मिलै वाले दुख से ना केहू उबारी।

।।इहै प्लस्टिक एक दिन सबके मारी।।2।।

 

इ बाताबरन में प्रदूषण बढ़ाई,

न कौनों बिधि ओकर कचरा ओराइ।

ऐही खातिर आदत, तूं आपन सुधारा,

दूसर विकल्प खोजा, कइला किनारा।

समझा अ बूझा सब कर जीवन संवारा,

नाहीं त कवनो दिन बनबा बेचारा।

देखा इ सुरसा जस मुंह बवलस भारी,

धरती हुलिया कबौ ई बिगारी।

।।इहै प्लास्टिक एक दिन सबके मारी।।3।।

* प्लास्टिक का वैज्ञानिक नाम 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

(1-09-2021)

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत 🌹

(विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

🌹🌹

हरिकृष्ण कामथ पर डाक विभाग  ने जारी किया एनवलप

सप्रे संग्रहालय की अनुशंसा पर  डाक विभाग  ने हाल में ही स्वतंत्रता सेनानी हरिविष्णु कामथ पर  स्पेशल एनवलप  जारी किया।

🌹🌹

जयशंकर प्रसाद :’महानता के आयाम’ पुस्तक का लोकार्पण

जयशंकर प्रसाद  पर प्रसिद्ध  साहित्यकार  एवं आलोचक डा.करूणाशंकर उपाध्याय द्वारा लिखित  पुस्तक का विमोचन  हिन्दी भवन में हुआ। कार्यक्रम  की अध्यक्षता पूर्व प्रशासनिक  अधिकारी एवं अक्षरा के संपादक मनोज श्रीवास्तव  ने की। अपने उद्बोधन में उन्होंने कहा कि-  “लेखक ने यह कृति लिखकर आलोचना को एक नई दृष्टि दी है।”  पुस्तक  पर साहित्यकार  प्रो. रामेश्वर  शुक्ल, प्रो.आनंद  प्रकाश त्रिपाठी, आनंद  कुमार सिंह, एवं सुधीर शर्मा ने अपने विचार  रखे।

🌹🌹

यंग थिंकर्स  फोरम  द्वारा 61वीं पुस्तक परिचर्चा का आयोजन  स्वामी विवेकानंद  लायब्रेरी में किया गया। इस अवसर पर निखिल समदरिया एवं सीताराम  गोयल की पुस्तक  ‘हिन्दु समाज संकटों के घेरे में ‘पर रागेश्वरी आँजना ने चर्चा की। हिंदुज्म फ्रिक्वेंसी आस्कड  कोश्चन ‘पर भी चर्चा हुई।

🌹🌹

भारत में उर्दू साहित्य  और भारतीयता विषय पर  लंदन में शोधपत्र प्रस्तुत करेगे डा.अंजुम

भोपाल के मशहूर शायर और साहित्यकार  डा.अंजुम बाराबंकवी लंदन  में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम  में ‘भारत में उर्दू  साहित्य  एवं भारतीयता’ विषय  पर अपना शोधपत्र भी प्रस्तुत करेगे। उनके द्वारा संपादित  पुस्तक  ‘सिग्नेचर’ का भी विमोचन किया जावेगा।

🌹🌹

अब एमपी कल्चर एप पर मिलेगी साहित्यिक  और सांस्कृतिक  कार्यक्रमों की जानकारी

राज्यपाल मंगवाई पटेल ने ‘एमपी ‘एप का बटन दबाकर उद्घाटन  किया। इस मौके पर संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री उषा ठाकुर भी उपस्थित  थी। संचालक अदिति कुमार ने एप की विस्तृत  जानकारी दी।

इस अवसर परसंस्कृति विभाग के प्रतिष्ठित  सम्मान भी दिये गये। राष्ट्रीय कबीर सम्मान  डा. शोध पत्र दुबे को, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान  डॉ. सदानंद  प्रसाद गुप्त को, इकबाल सम्मान  सैयद तकी को तथा राष्ट्रीय  श्रमजीवी सम्मान  डा.श्री राम परिहार को दिये गये।

🌹🌹

अखिल भारतीय  कलामंदिर की शरद /बंसत काव्य गोष्ठी सम्पन्न  हुई जिसके विशिष्ट  अतिथि कवि ऋषि श्रंगारी थे। अध्यक्षता रघुनन्दन  शर्मा ने की। गोष्ठी में संस्था के अध्यक्ष  गोरी शंकर  गौरीश, सीमा हरि, हरिवल्लभ  जी, विश्व नाथ, अशोक कुमार,  अशोक धमेनियाँ, अशोक व्यास, शिवकुमार, कमलकिशोर दुबे, दिनेश जी,मनोरमा पंत एवं मधु शुक्ला  ने सरस  कविताएं पढी।

🌹🌹

 

लघुकथा शोध संस्थान  के पुस्तक  पखवाड़े के द्वितीय  चरण में  छः पुस्तकों की समीक्षा हो चुकी है-

तख्त की ताकत- लेखक हेमन्त  शिवनारायण  उपाध्याय  समीक्षक  कांता राय

पोटली – लेखिका  सीमा व्यास  समीक्षक  अन्तरा करवड़

अध्यक्ष  – अशोक भाटिया

मुख्य अतिथि – सुभाष  नीरव

कठघरे में हम सब – लेखक गोकुल सोनी

कथ्य तथ्य – डा.गिरिजेश सक्सेना

समीक्षक  द्वय – उपमा शर्मा, जया केतकी

अध्यक्ष  – हरि जोशी

मुख्य अतिथि – दयाराम  वर्मा

जिन्दगी के हिसाबों की एक किताब  लेखिका -नीहारिका रश्मि

नासमझ मन भज मन -लेखिका डा.मालती बंसत 

समीक्षक  -घनश्याम  मैथिल,  मनोरमा पंत

अध्यक्ष  -डा.मोहन तिवारी  मुख्य  अतिथि -गोकुल सोनी

🌹 🌹

साभार – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – सोनेरी किरणे धरतीवर – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?सोनेरी किरणे धरतीवर? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

रविराज अस्ताला जाता

धरतीवर तम हळुहळू येतो

 पांधरूनी काळी शाल जगी

कुशीतली उब सकलांना देतो

निद्रीस्त  होती, विश्रांती घेती

श्रमणारे जीव आपोआप

काही ठिकाणी अंधारातच

चोरटेपणाने फिरते पाप

 पूर्वदिशेला दिनकर येता

 तमस हळू निघूनी जातो

 सोनेरी किरणे धरतीवर

 कणकण उजळीत रहातो

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #175 – 61 – “लोगों को जोड़ सके वो मेहरबान चाहिए…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “लोगों को जोड़ सके वो मेहरबान चाहिए…”)

? ग़ज़ल # 61 – “लोगों को जोड़ सके वो मेहरबान चाहिए…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मुझे न कट्टर हिंदू न मुसलमान चाहिए,

उदार हिंदू और उदार मुसलमान चाहिए।

नफ़रत भरे दिलों में खिलता कँटीला खार,

मुझे प्यार भरे गुलों का गुलिस्तान चाहिए।

उतार कर फेंको धर्मों का अहंकारी नक़ाब,

मुझे सभ्य समानता का संविधान चाहिए।

जो हो चुका वो बदलने वाला नहीं अब,

नहीं काल्पनिक अखंड हिंदुस्तान चाहिए।

आपस में लड़े तो मारे जाएँगे हम सभी,

लोगों को जोड़ सके वो मेहरबान चाहिए।

नफ़रती पौधों की नर्सरी में खिलते काँटे,

काँटों में फूल उगा दे वो क़द्रदान चाहिए।

न हों आबाद खार ओ खस की महफ़िलें,

दिलों में गीत ग़ज़ल का अरमान चाहिए।

अंगड़ाई लें राम रहीम के दोआबी तराने,

ख़ंजर जिसे प्यारे नहीं वो शैतान चाहिए।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 53 ☆ मुक्तक ।। बहुत कुछ करके जाना है बस चार दिन की कहानी जिंदगानी में ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।बहुत कुछ करके जाना है बस चार दिन की कहानी जिंदगानी में।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 53 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।बहुत कुछ करके जाना है बस चार दिन की कहानी जिंदगानी में।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

सपनों का टूटना और बनना ही तो जिंदगानी है।

ख्वाबों का बिखरना संवरना ही तो निशानी है।।

हमारे अंतरद्वंद आत्मविश्वास की परीक्षा है यह।

प्रभु की कितनी  ही  बेमिसाल कारस्तानी है।।

[2]

जिंदगी चार दिन की बस जैसे आनी जानी है।

मतकरो काम हो जिससे किसी को परेशानी है।।

जिंदगी आजमाती है हर तरह के इम्तिहान से।

यूं ही नहीं बनती दुनिया किसी की दीवानी है।।

[3]

समय की धारा में यह  उम्र यूं बह जाती है।

करते अच्छा काम तो  यादगार कहलाती है।।

हाथ की लकीरों नहीं अपने हाथ इसे बनाना।

यूं ही चले गए तो इक कसक सी रह जाती है।।

[4]

जाना तो है एक दिन पर निशान छोड़कर जाना।

हरेक पासअपने दिल का मेहमान छोड़कर जाना।।

बना कर जाना एक कोना हर दिल दिमाग में।

कुछ और नहीं अपनी पहचान छोड़कर जाना।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 117 ☆ ग़ज़ल – “यहाँ जो आज हैं नाजिर…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “यहाँ जो आज हैं नाजिर…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #118 ☆  ग़ज़ल  – “यहाँ जो आज हैं नाजिर…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

खुशी मिलती हमेशा सबको, खुद के ही सहारों में।

परेशानी हुआ करती सभी को इन्तजारों में।।

 

किसी के भी सहारे का, कभी भी कोई भरोसा क्या,

न रह पाये यहाँ वे भी जो थे परवरदिगारों में।।

 

यहाँ जो आज हैं नाजिर न रह पाएंगे कल हाजिर

बदलती रहती है दुनियां नये दिन नये नजारों में।।

 

किसी के कल के बारे में कहा कुछ जा नहीं सकता

बहुत  बदलाव आते हैं समय के संग विचारों में।।

 

किसी के दिल की बातों को कोई कब जान पाया है?

किया करती हैं बातें जब निगाहें तक इशारों में।।

 

बड़ा मुश्किल है कुछ भी भाँप पाना थाह इस दिल की

सचाई को छुपायें रखता है जो अंधकारों में।।

 

हजारों बार धोखे उनसे भी मिलते जो अपने हैं

समझता आया दिल जिनको कि अपने जाँनिसारों में।।

 

भला इससे यही है अपने खुद पै भरोसा करना

बनिस्बत बेवजह होना खड़े खुद बेकरारों में।।

 

जो अपनी दम पै खुद उठ के बड़े होते हैं दुनिया में

उन्हीं को मान मिलता है चुनिन्दा कुछ सितारों में।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 138– वणव्यात चांदण ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 138 – वणव्यात चांदण ☆

तुझ्या हास्यानं रे  फुललं वैशाख वणव्यात चांदणं।

विसरले सारे दुःख अन् उघडे पडलेले गोंदणं ।।धृ।।

गेला सोडून रे धनी गेल डोईचं छप्पर।

भरण्या पोटाची गार भटकंती ही दारोदार।

लाभे दैवानेच तुला समजदारीचं देणं।।१।।

कुणी देईना रे काम कशी रे दुनियादारी।

नजरेच्या विषापरी सापाची ही जात बरी।

याला पाहून रे फुले तुझ्या हास्याचं चांदणं।।२।।

रोजचाच नवा गाव रोज तोच नवा खेळ।

दमडी दमडीत रे कसा बसेल जीवनाचा मेळ।

कसा आणू दूध भात कसा आणू रे खेळणं।।३।।

नसे पायात खेटर पायपीट दिसभर।

घेऊ कशी सांग राजा तुला झालरी टोपरं।

करपलं झळांनी या गोजिरं, हे बालपणं।।४।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ पाय आणि वाटा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ पाय आणि वाटा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

पुस्तक – पाय आणि वाटा

लेखक – श्री सचिन वसंत पाटील

प्रकाशक – हर्मिस प्रकाशन

पृष्ठे – १०० 

मूल्य – १५० रु.          

‘पाय आणि वाटा’ हा श्री सचिन वसंत पाटील यांचा ललित लेख संग्रह. दुर्दैवाने त्यांना एका अपघातात दोन्ही पाय गमवावे लागले. पाय असताना ज्या वाटा त्यांनी तुडवल्या, त्याच्या हृदयस्थ आठवणी म्हणजे ‘पाय आणि वाटा’. मनोगतात ते लिहितात, ‘माझी कहाणी सुरू होते वर्तमानात, पाय नसलेल्या अवस्थेत. मग ती वीस वर्षामागील एका बिंदूवर स्थिरावते आणि त्यामागील वीस वर्षात फिरून, हुंदडून येते. तेव्हा पाय असलेला मी तुम्हाला भेटत रहातो, तुकड्यातूकड्यातून…कधी निखळ, निरागस, तर कधी रानभैरी, उडाणटप्पू होऊन… शब्दाशब्दातून.

एका दुर्दैवी क्षणी सचीनना अपघात झाला आणि ते अंधाराच्या खोल खाईत भिरकावले गेले. शेतावर चारा आणायला गेलेले असताना, एका अवघड वळणावर बैलगाडी पलटली. वैरणीने भरलेली गाडी त्यांच्या पाठीवर पडली. यामुळे त्यांच्या मज्जारज्जूला जोराचा धक्का बसला. आणि त्यांच्या कमरेखालचा भाग कायमचा लुळा पांगळा झाला. डॉक्टरांनी वस्तुस्थितीची कल्पना दिली. ते यापुढे कधीही चालू शकणार नव्हते. स्वत:च्या पायावर उभे राहू शकणार नव्हते. पण त्या विकल निराशेतही ते स्वप्न बघत, समोरचा वॉकर धरून ते चालताहेत. आयुष्याच्या अंधार्‍या रस्त्यावरून ते कणाकणाने पुढे सरकताहेत. या काळात एकमेव विरंगुळा म्हणजे पुस्तके वाचणे. पुस्तकांनीच त्यांना शिकवलं, संकट माणसाला जगणं शिकवतात. मग त्यांनी ठरवलं, संकटांना भ्यायचं नाही. खंबीर मनाने सामोरं जायचं. ते म्हणतात, ‘पुस्तकं वाचली, म्हणून मी वाचलो.’

श्री सचिन वसंत पाटील

वाचनातून सचिनना लेखनाची प्रेरणा मिळाली. लेखन ही काही सोपी गोष्ट नव्हती त्यांच्यासाठी. झोपून, एका कुशीवर वळून लिहावं लागे पण जिद्दीने त्यांनी आपले लेखन चालू ठेवले. त्यातून त्यांचे ‘सांगावा’, ‘अवकळी विळखा’ आणि ‘गावठी गिच्चा’ हे तीन कथासंग्रह प्रकाशित झाले. अनेक साहित्यिक, अभ्यासक, समीक्षक यांनी त्यावर लिहिलय. या पुस्तकांवरील समीक्षेची दोन पुस्तके प्रकाशित झाली आहेत. या तीनही पुस्तकांना अनेक पुरस्कारही प्राप्त झाले आहेत. अलिकडेच त्यांचे ‘पाय आणि वाटा’ हे ललित संग्रहाचे चौथे पुस्तक प्रसिद्ध झाले आहे.  अलिकडे लेखन करणं त्यांना पहिल्यापेक्षा सोपं झालय. आता ते लेखनासाठी लॅपटॉपचा उपयोग कारतात, पण तेही सोपं नाही. आताही त्यांना झोपूनच लेखन करावं लागतं. पोटावर झोपायचं. पुढे लॅपटॉप ठेवायचा. आणि टाईप करायचं. हीदेखील मोठी कसरत आहे. दिवसभरात ते जास्तीत जास्त दोन पाने लिहू शकतात. या लेखन मर्यादेमुळे पुष्कळसं सुचत असलं, तरी ते कागदावर उतरत नाही. मात्र त्यांनी जे काही लिहीलंय, ते उत्तम लिहीलंय.

‘पाय आणि वाटा’ या ललित लेखसंग्रहातील वातावरण अस्सल ग्रामीण आहे. अस्सल ग्रामीण जीवन, अस्सल ग्रामीण भाषेतून यात व्यक्त झाले आहे. खानदानी ग्रामसुंदरीचा डौल, रुबाब आणि ठसका यात आहे. त्यांची शब्दकळा लावण्यामयी आहे. ‘राखण’ या पाहिल्याच लेखात त्यांनी वर्णन केलय, ‘जमिनीच्या पोटातला गर्भ दिसामासांनी वाढायचा’. …. ‘शाळवाच्या धाटातून, केळीच्या कोक्यागत कणसं बाहेर पडायची. कणसांची राखण करणार्‍यांना पाखरं लांब गेली, असं वाटायचं. पण कुठलं? म्हवाच्या माशा उठल्यागत पुन्हा थवा यायचा. हळू हळू मोठा होत रानावर उतरायचा. एकेका थव्यात दोन-अडीचशे पाखरं असायची. असे असंख्य थवे.’ प्रत्यक्ष दृश्य डोळ्यापुढे उभं करण्याचं सामर्थ्य त्यांच्या वर्णनात आहे.

‘राखण’ हा पुस्तकातला पहिला लेख.  यात राखणीचं निमित्त काढून हुंदडायला गेलेल्या मुलांसोबत आपणही फिरतो. डोळ्यांनी सारं सारं पहातो. पंचेंद्रियांनी अनुभवतो. लेखाच्या शेवटी ते आठवणीतून वास्तवात येतात. लिहितात – ‘जनावरांच्या कालव्यानं मी जागा होतो. भोवतीच्या पडक्या भिंती मला भानावर आणतात. पण मनात हिरवं रान नाचत असतं. डोळ्यात हिरवी साय. मला आजही आशा आहे, मी माझ्या पायावर परत उभा राहीन. पुन्हा हातात गोफण घेऊन शाळवानं पिकलेलं रान राखीन.’ हा आशावादच त्यांना जगण्याचे बळ देतो.

‘करडईची भाजी’ हा लेख कथेलाच गळामिठी घालतो. हाच लेख नव्हे, तर अनेक लेख कथेच्या जवळपास जाणारे आहेत. या संदर्भात त्यांच्याशी बोलले, तेव्हा ते म्हणाले, ‘ललित लेखांमध्ये ‘मी’ आहे. माझे अस्तित्व आहे. माझे अनुभव आहेत. कथा विविध पात्रांच्या आहेत. त्यांच्या जीवनातील प्रसंग, त्यांचे अनुभव, त्यांची स्वभाव वैशिष्ट्ये त्यात आहेत. तिथे मी असेन, तर केवळ साक्षीभावानेच.’ ‘करडईची भाजी’ या लेखात, एक दहा-बारा वर्षाचा मुलगा बुट्टीत करडईची भाजी घेऊन विकायला निघालेला लेखकाला भेटतो. लेखक त्याला दहा रुपये देऊन दोन पेंडया विकत घेतो. त्यामुळे तो खूश होतो. त्याचे हास्य पाहून लेखकाला त्याचं बालपण आठवलं. ‘पाय हरवलेल्या अंधेर नगरीतून आठवणींच्या नितळ विहीरीच्या खोल पायर्‍या मी उतरू लागलो.’ असे ते लिहितात. त्यावेळी ते सहावीत होते. परीक्षेची फी भरायला घरात पैसे नव्हते. शेवटी आई म्हणते, ‘रानात करडा खूप उगवलाय. त्यो काढून पेंडया बांधून वीक जा’ आणि  त्याचे काम सुरू होते. चार आण्याला पेंडी. फी होती आठरा रुपये. एक दिवस गोठा साफ करातांना एक कालवड लाथ मारते. वेदना होतात. मांडीवर बॉलगत लालभडक टण्णू उठतो. दु:ख असतंच पण भाजी विकायला जाता येणार नाही, याचं जास्त दु:ख होतं. अखेर पाय सुधारतो. पंध्रा दिवसात फीचे पैसे जमा होतात. लेखाचा शेवट करताना त्यांनी लिहिलय, ‘आज वीस-बावीस वर्षांनंतर त्या भाजी विकणार्‍या मुलाला पाहून ते सगळं आठवलं. आज विकण्यासारखी भाजी माझ्या शेतात भरपूर आहे पण ती गवभर फिरून विकायला माझ्याकडं पाय नाहीत.‘

‘झुक झुक आगीनगाडी’मध्ये मध्ये मामाच्या गावाचे वर्णन येते. कुरूंदवाड मामाचं गाव. तीन बाजूने पाण्याने वेढलेलं गाव. बेटासारखं गाव. उशाशी कृष्णा आणि पायथ्याशी पंचगंगा घेऊन वसलेलं गाव. गावातील रमणीय निसर्गाचं वर्णन यात येतं. मामाचंही वर्णन यात येतं. ’तो आभाळाएवढा उंच वाटायचा. आपल्या मामाइतका मोठा माणूस जगात कोणी नाही, असा वाटायचं. आपण मागेल ती वस्तू देणारा. म्हंटलं तर जादूगार म्हंटलं तर सांताक्लॉज . मनातली वस्तू न मागता देणारा …’ असं मामाचं वर्णन यात येतं. गावाच्या रमणीय निसर्गाचं वर्णनही यात येतं आणि कालमानाने झालेल्या बदलाचंही. आपलंही गाव कसं बदललं आहे, याचंही वर्णन पुढे एका स्वतंत्र लेखात त्यांनी केलय.

‘पोस्टाचं पत्र हरवलं’मध्ये बदलत्या काळानुसार पत्रलेखन कमी झाल्याची खंत ते व्यक्त करतात. अक्षर चांगलं असल्यामुळे गल्लीतील लोक त्यांच्याकडून पत्र लिहून घेत.त्यांनी सांगितल्या मुद्याला कल्पनेचा मालमसाला लावून ते पत्र लिहित. ते म्हणतात, ‘माझ्या लेखनाची सुरुवात या दरम्यान कुठे तरी झाली असावी.’ यात पायाचा आंगठा आणि तर्जनीत खडू घरून काढलेल्या नाचर्‍या मोराची आठवण येते आणि आता ते पाय कुठे गेले, या बिंदुशी येऊन स्थिरावते.

‘ती बैलगाडी’, ‘घोडी’, ‘पाठीराखा’ अशी सुरेख शब्दचित्रे यात आहेत. ‘पाठीराखा’मध्ये आपल्या मोठ्या भावाबद्दल त्यांनी अतीव उमाळ्याने लिहिले आहे. लहानपणी रस्त्यावर पळतो, म्हणून अडवणारा भाऊ, अपघातानंतार चालता यावं म्हणून धडपडणारा भाऊ, ऑपरेशन चालू असताना रकतासाठी डोनर शोधणारा भाऊ, हॉस्पिटलचे बील भागवण्यासाठी पैशाची जुळणी करणारा भाऊ, अशी त्याची अनेक रूपे त्यांनी यात वर्णन केली आहेत. तो जवळ असेल, तर कशाचीच भीती नाही, असा ठाम विश्वास आणि तो जवळ नसल्यामुळेच अपघात झाला, असं त्यांना वाटत रहातं. आजही पाय नसल्याचं दु:ख एकीकडे वागवतानाच आपला भाऊ आपल्याजवळ आहे, हे सुख आपल्यापाशी आहे, याचा आनंद ते व्यक्त करतात.

‘कोरडे डोळे ‘ मध्ये आपल्याला भेटतो, एक कंजारभाटाचा मुलगा. त्यांची पाच-सात झोपड्यांची वस्ती कुणी जाळून टाकलीय. बायका- मुले, बापये तेवढे वाचलेत. बाकी सारं सामान जाळून गेलय. त्यातच त्या मुलाचे दप्तरही जळून गेलय. तो रोज शाळेत येतो. कोरड्या डोळ्यांनी काळ्या फळ्याकडे पहातो. जमेल तसं मनात उतरवून घेतो. नंतर कधी तरी तो शाळेत येइनासा होतो. लेखक देवाकडे मागणं मागतो,  शिकायची इच्छा असलेल्या कुठल्याही मुलाला शाळा सोडायला लागू नये. बाकी काही नुकसान झालं, तरी त्याची पुस्तकं तेवढी जळू देऊ नकोस.’

‘झाड आणि वाट’ मध्ये भेटतात, भुंडा माळ, त्यातून गेलेली वाट, वाटेवरच्या वाळणावरचं डौलदार आंब्याचं गच्च हिरवंगार झाड आणि त्या झाडाचा म्हातारा मालक. तो रोज त्या झाडाच्या बुंधयाशी पाण्याचा डेरा भरून ठेवतोय. उन्हाच्या रखरखीतून वाट तुडवत येणारा तृषार्त ते पाणी पिऊन तृप्त होतोय. पुढे कालमानाने जग बदललं. इरिगेशनचं पाणी आलं आणि भुंड्या माळाचं भाग्य बदललं. तो हिरवागार झाला. तिथे द्राक्षाची लागवड झाली. वाट डांबरी झाली. बाकी सारं चांगलं झालं. या सार्‍यात आंब्याचं झाड गेलं, एवढंच वाईट झालं.

‘पाय आणि वाटा’ हा संग्रहातला शेवटचा लेख. आपल्या पायांनी चाललेल्या वाटांच्या आठवणी यात आहेत. त्यात कुरणाची वाट आहे. बुधगावची वाट आहे. वाडीवाट आहे. रानाची वाट आहे. गावाकडून साखर कारखान्याकडे बेंद भागातून जाणारी मधली वाट आहे. त्या त्या वाटेवरचे प्रसंग, व्यक्ती यांच्या आठवणी यात आहेत आणि सगळ्यात विदारक आठवण म्हणजे एकदा त्या वाटेवरून जाताना त्यांना झालेला अपघात, जो त्यांचे पायच घेऊन गेला. ते लिहितात, ‘आता कधी गाडीवरून त्या वाटेवर जायची वेळ आली, तर दिसतात, त्या वाटेवर हरवलेल्या पावलांचे ठसे….’

‘पाय आणि वाटा’ या पुस्तकात गतिमानता आहे. दृश्यात्मकता आहे, भावनोत्कटता आहे. कुठे कुठे कथात्मकताही आहे. शब्दकळा लावण्यमयी आहे. एक चांगले पुस्तक वाचल्याचा आनंद हे पुस्तक नक्कीच देते.

पुस्तक लेखक –  श्री सचिन वसंत पाटील

विजय भारत चौक, कर्नाळ, ता. मिरज, जि. सांगली. पिन- ४१६४१६. भ्रमणध्वणी – 8275377049, ईमेल – [email protected]

पुस्तक परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #168 ☆ हॉउ से हू तक ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख हॉउ से हू तक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 168 ☆

☆ हॉउ से हू तक

‘दौलत भी क्या चीज़ है, जब आती है तो इंसान खुद को भूल जाता है, जब जाती है तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-दौलत, पैसा व पद-प्रतिष्ठा का नशा अक्सर सिर चढ़कर बोलता है, क्योंकि इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् इंसान अपनी सुधबुध खो बैठता है … स्वयं को भूल जाता है। तात्पर्य यह है कि धन-सम्पदा पाने के पश्चात् इंसान अहं के नशे में चूर रहता है और उसे अपने अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। उस स्थिति में उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता…सब पराए अथवा दुश्मन नज़र आते हैं। वह दौलत के नशे के साथ-साथ शराब व ड्रग्स का आदी हो जाता है। सो! उसे समय, स्थान व परिस्थिति का लेशमात्र भी ध्यान तक नहीं रहता और संबंध व सरोकारों का उसके जीवन में अस्तित्व अथवा महत्व नहीं रहता। इस स्थिति में वह अहंनिष्ठ मानव अपनों अर्थात् परिवार व बच्चों से दूर…बहुत…दूर चला जाता है और वह अपने सम्मुख  किसी के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता। वह मर्यादा की सभी सीमाओं को लाँघ जाता है और रास्ते में आने वाली बाधाओं के सिर पर पाँव रख कर आगे बढ़ता चला जाता है और उसकी यह दौड़ उसे कहीं भी रुकने नहीं देती।

धन-दौलत का आकर्षण न तो कभी धूमिल पड़ता है; न ही कभी समाप्त होता है। वह तो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ता चला जाता है। यह प्रसिद्ध कहावत है…’पैसा ही पैसे को खींचता है।’ दूसरे शब्दों में इंसान की पैसे  की हवस कभी समाप्त नहीं होती…सो! उसे उचित-अनुचित में भेद नज़र आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। धन कमाने का नशा उस पर इस क़दर हावी होता है कि वह राह में आने वाले  आगंतुकों-विरोधियों को कीड़े-मकोड़ों की भांति रौंदता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। इस मन:स्थिति में वह पाप-पुण्य के भेद को नकार; अपनी सोच व निर्णय को सदैव उचित ठहराता है।

इस दुनिया के लोग भी धनवान अथवा दौलतमंद  इंसान को सलाम करते हैं अर्थात् करने को बाध्य होते हैं…  और यह उनकी नियति होती है। परंतु दौलत के खो जाने के पश्चात् ज़माना उसे भूल जाता है, क्योंकि  यह तो ज़माने का चलन है। परंतु इंसान माया के भ्रम में सांसारिक आकर्षणों व दुनिया-वी चकाचौंध में इस क़दर खो जाता है कि उसे अपने आत्मज भी अपने नज़र नहीं आते; दुश्मन प्रतीत होते हैं। एक लंबे अंतराल के पश्चात् जब वह उन अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, तो वे भी उसे नकार देते हैं। अब उनके पास उस अहंनिष्ठ इंसान के लिए समय का अभाव होता है। यह सृष्टि का नियम है कि जैसा आप इस संसार में करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। यह तो हुई आत्मजों अर्थात् अपने बच्चों की बात, जिन्हें अच्छी परवरिश व सुख- सुविधाएं प्रदान करने के लिए वह दिन-रात परिश्रम करता रहा; ठीक-ग़लत काम करता रहा…परंतु उन्हें समय व स्नेह नहीं दे पाया, जिसकी उन्हें दरक़ार थी; जो उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

‘फिर ग़ैरों से क्या शिक़वा कीजिए… दौलत के समाप्त होते ही अपने ही नहीं, ज़माने अर्थात् दुनिया भर के लोग भी उसे भुला देते हैं, क्योंकि वे संबंध स्वार्थ के थे;  स्नेह सौहार्द के नहीं।’ मैं तो संबंधों को रिवाल्विंग चेयर की भांति मानती हूं। आपने मुंह दूसरी ओर घुमाया; अवसरवादी बाशिंदों के तेवर भी बदल गए, क्योंकि आजकल संबंध सत्ता व धन-संपदा से जुड़े होते हैं… सब कुर्सी को सलाम करते हैं। जब तक आप उस पर आसीन हैं, सब ठीक चलता है; आपको झूठा मान-सम्मान मिलता है, क्योंकि लोग आपसे हर उचित-अनुचित कार्य की अपेक्षा रखते हैं। वैसे भी समय पर तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है… सो! इंसान की तो बात ही अलग है।

लक्ष्मी का तो स्वभाव ही चंचल है, वह एक स्थान पर ठहरती ही कहाँ है। जब तक वह मानव के पास रहती है, सब उससे पूछते हैं ‘हॉउ आर यू’ और लक्ष्मी के स्थान परिवर्तन करने के पश्चात् लोग कहते हैं ‘हू आर यू।’ इस प्रकार लोगों के तेवर पल-भर में बदल जाते हैं। ‘हॉउ’ में स्वीकार्यता है—अस्तित्व-बोध की और आपकी सलामती का भाव है, जो यह दर्शाता है कि वे लोग आपकी चिंता करते हैं…विवशता-पूर्वक या मन की गहराइयों से… यह और बात है। परंतु ‘हॉउ’ को ‘हू’ में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता। ‘हू’ अस्वीकार्यता बोध…आपके अस्तित्व से बे-खबर अर्थात् ‘कौन हैं आप?’ ‘कैसे से कौन’ प्रतीक है स्वार्थपरता का; आपके प्रति निरपेक्षता के भाव का; अस्तित्वहीनता का तथा यह प्रतीक है मानव के संकीर्ण भाव का, क्योंकि उगते सूर्य को सब सलाम करते हैं और डूबते सूर्य को निहारना भी लोग अपशकुन मानते हैं। आजकल तो वे बिना काम अर्थात् स्वार्थ के ‘नमस्ते’अथवा ‘दुआ सलाम’ भी नहीं करते।

इस स्थिति में चिन्ता तथा तनाव का होना अवश्यंभावी है। वह मानव को अवसाद की स्थिति में धकेल देता है; जिससे मानव लाख चाहने पर भी उबर नहीं पाता। वह अतीत की स्मृतियों में अवगाहन कर संतोष का अनुभव करता है। उसके सम्मुख प्रायश्चित करने के अतिरिक्त दूसरा विकल्प होता ही नहीं। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है, तो दु:ख उसके धैर्य की…दोनों स्थितियों अथवा परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाले व्यक्ति का जीवन सफल कहलाता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि सुख में व्यक्ति फूला नहीं समाता; उस के कदम धरा पर नहीं पड़ते…वह अहंवादी हो जाता है और दु:ख के समय वह हैरान-परेशान होकर अपना धैर्य खो बैठता है। वह अपनी नाकामी अथवा असफलता का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ता है। इस उधेड़बुन में वह सोच नहीं पाता कि यह संसार दु:खालय है और सुख बिजली की कौंध की मानिंद जीवन में दस्तक देता है…परंतु बावरा मन उसे स्थायी समझ कर अपनी बपौती स्वीकार बैठता है और उसके जाने के पश्चात् वह शोकाकुल हो जाता है।

सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा आता है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारों का रहना असंभव है; उसी प्रकार दोनों का एक छत्र-छाया में रहना भी असंभव है। परंतु सुख-दु:ख को साक्षी भाव से देखना अथवा सम रहना आवश्यक है। दोनों अतिथि हैं–जो आया है, उसका लौटना भी निश्चित है। इसलिए न किसी के आने की खुशी, न किसी के जाने का ग़म-शोक मनाना चाहिए। हर स्थिति में सम रहने का भाव सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए सुख में अहं को शत्रु समझना आवश्यक है और दु:ख में अथवा दूसरे कार्य में धैर्य का दामन छोड़ना स्वयं को मुसीबत में डालने के समान है। जीवन में कभी भी किसी को छोटा समझ कर किसी की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि आवश्यकता के समय पर हर व्यक्ति व वस्तु का अपना महत्व होता है। सूई का काम तलवार नहीं कर सकती। मिट्टी, जिसे आप पाँव तले रौंदते हैं; उसका एक कण भी आँख में पड़ने पर इंसान की जान पर बन आती है। सो! जीवन में किसी तुच्छ वस्तु व व्यक्ति की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए… उसे स्वयं से अर्थात् उसकी प्रतिभा को ग़लती से भी कम नहीं आँकना चाहिए।

पैसे से सुख-सुविधाएं तो खरीदी जा सकती हैं, परंतु मानसिक शांति नहीं। इसलिए दौलत का अभिमान कभी मत कीजिए। पैसा तो हाथ का मैल है; एक स्थान पर कभी नहीं ठहरता। परमात्मा की कृपा से पलक-झपकते ही रंक राजा बन सकता है; पंगु पर्वत लाँघ सकता है और अंधा देखने लग जाता है। इस जन्म में इंसान को जो कुछ भी मिलता है; उसके पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है…फिर अहं कैसा? गरीब व्यक्ति अपने कृतकर्मों का फल भोगता है…फिर उसकी उपेक्षा व अपमान क्यों? इसलिए मानव को हर स्थिति में सामंजस्य बनाए रखना चाहिए…यही सफलता का मूल है। समन्वय, सामंजस्यता का जनक है, उपादान है; जो जीवन में समरसता लाता है। यह कैवल्य अर्थात् अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें ‘हॉउ आर यू’ और ‘हू आर यू’ का वैषम्य भाव समाप्त हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares