हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #154 ☆ व्यंग्य – कल्चर करने वाले ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘कल्चर करने वाले ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 154 ☆

☆ व्यंग्य – कल्चर करने वाले

अविनाश बाबू संपत्ति वाले आदमी हैं। दो तीन फैक्ट्रियां है। कई कंपनियों में शेयर हैं। उमर ज़्यादा नहीं है।आठ दस साल पहले शादी हुई थी। तीन-चार साल पत्नी के साथ प्यार-मुहब्बत में, घूमते घामते  गुज़र गये। फिर दो बच्चे हो गये। उन्हें सँभालने के लिए आया, नौकरानियाँ हैं। मगर आठ दस साल में जीवन का रस सूख चला। सबसे बड़ी समस्या समय काटने की थी। धंधे में कुछ ज़्यादा देखने-सँभालने को नहीं था। मैनेजर, कर्मचारी सब कामकाज बड़ी कुशलता से सँभालते थे। अविनाश और श्रीमती अविनाश क्या करें? कितना सोयें, कितना खायें, कितना ताश खेलें? उबासियाँ लेते लेते जबड़े दुखने लगते। दिन पहाड़ सा लगता और रात अंतहीन अंधेरी गुफा सी। अविनाश जी की तोंद भी काफी बढ़ गयी थी।

अंत में एक दिन श्रीमती अविनाश ने अपनी समस्या श्रीमती दास के सामने रखी। श्रीमती दास उनकी पड़ोसिन थीं। उनके पति एक साधारण अधिकारी थे, लेकिन श्रीमती दास बड़ी सोशल और क्रियाशील महिला थीं। वे हमेशा किसी न किसी आयोजन में इधर से उधर भागती रहती थीं। शहर के सभी महत्वपूर्ण महिलाओं- पुरुषों से उनका परिचय था। सवेरे नौ बजे वे कंधे पर अपना बैग लटका कर निकल पड़तीं और अक्सर दोपहर के भोजन के लिए भी लौट कर न आतीं। उनके पति भी बेचारे बड़े धीरज से उनका साथ निबाहते थे, यह तो मानना ही होगा।

श्रीमती अविनाश की समस्या सुनकर श्रीमती दास ने ठुड्डी पर तर्जनी रखकर आश्चर्य व्यक्त किया, बोलीं, ‘हाय, ताज्जुब है कि आपको समय काटने की समस्या है। शहर में इतने प्रोग्राम होते रहते हैं, आप इनमें जाना तो शुरू करिए। लोग तो आपको सर-आँखों पर बिठाएंगे। समय काटने की प्रॉब्लम चुटकियों में हल हो जाएगी।’

दो दिन बाद ही श्रीमती दास अविनाश दंपति को एक संगीत कार्यक्रम में ले गयीं। वहाँ शहर के कई महत्वपूर्ण लोगों से उनका परिचय कराया। श्री और श्रीमती अविनाश को संगीत का सींग-पूँछ तो कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन उन सब भले लोगों के बीच में बैठना उन्हें अच्छा लगा। कुल मिलाकर उनकी वह शाम अच्छी कटी।

उसके बाद गाड़ी चल पड़ी। आये दिन शहर में कोई न कोई कार्यक्रम होता और श्रीमती दास अविनाश दंपति को वहां ले जातीं। फिर तो अविनाश दंपति के पास खुद ही कई निमंत्रण-पत्र आने लगे। श्रीमती दास ने उन्हें कई संस्थाओं का सदस्य बनवा दिया। श्री अविनाश की हैसियत को देखते हुए वे कुछ ही समय में कई संस्थाओं के अध्यक्ष बन गये। अब उनकी व्यस्तता बहुत बढ़ गयी। जहाँ भी श्री अविनाश जाते श्रीमती अविनाश उनके साथ जातीं।

शोहरत कुछ और बढ़ी तो श्री अविनाश कई उत्सवों के अध्यक्ष बनाये जाने लगे। वे कई जगह उद्घाटन के लिए जाते और अच्छा-खासा भाषण झाड़ते। धीरे-धीरे वे शहर के जाने-माने उद्घाटनकर्ता बन गये।

शुरू शुरू में ऐसे मौकों पर उनका हौसला पस्त हो जाता था क्योंकि उद्घाटन के बाद भाषण देना पड़ता था, जो श्री अविनाश के लिए उन दिनों टेढ़ी खीर थी। ऐसे समय श्रीमती दास उनके काम आतीं। वे लच्छेदार भाषा में सुंदर-सुंदर भाषण तैयार कर देतीं और श्री अविनाश जेब से निकाल कर पढ़ देते। धीरे-धीरे वे समझ गये कि सभी भाषणों में खास-खास बातें वही होती हैं, सिर्फ अवसर के हिसाब से थोड़ी तब्दीली करनी पड़ती है। भगवान की कृपा से जल्दी ही उनमें इतनी योग्यता आ गयी कि अब किसी भी मौके पर बिना तैयारी के फटाफट भाषण देने लगे। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि उन्होंने भाषण-मंच पर पहुँचकर ही पूछा कि आयोजन किस खुशी में है, और तुरंत भाषण दे डाला।

अविनाश दंपति के समय का अब पूरा सदुपयोग होने लगा। अब वे रात को देर से लौटते, व्हिस्की का छोटा सा ‘निप’ लेते, और सो जाते। बढ़िया नींद आती। उनका अनिद्रा का रोग जड़ से खत्म हो गया। सवेरे नौ बजे उठते जो मन प्रसन्न रहता। स्वभाव की चिड़चिड़ाहट खत्म हो गयी। नौकर-नौकरानियों पर मेहरबान रहते। नौकर  नौकरानियाँ भी मनाते कि हे प्रभु, जैसे हमारे मालिक-मालकिन का स्वभाव सुधरा, ऐसइ सब नौकरों के मालिकों का सुधरे।

अब श्रीमती दास ने श्रीमती अविनाश को सुझाव दिया कि श्री अविनाश तो काम से लग गये, अब वे महिलाओं के कुछ आयोजन अपने घर पर किया करें। इससे महिलाओं में उनका अलग स्थान बनेगा। श्रीमती अविनाश को प्रस्ताव पसंद आ गया। इसके बाद महिलाओं की बैठक श्रीमती अविनाश के घर पर होने लगी। चाय और सुस्वादु नाश्ते के साथ महिलाओं के विभिन्न कार्यक्रम होते। कभी कवयित्री सम्मेलन होता, तो कभी नाटक अभिनय। और कुछ न होता तो गप ही लड़ती। ज़िंदगी बड़ी रंगीन हो गयी।

फिर श्रीमती दास की सलाह पर श्रीमती अविनाश कुछ समाजसेवा के कार्यक्रम भी करने लगीं। कभी सभी महिलाएँ गरीब मुहल्लों में निकल जातीं और वहाँ महिलाओं को सफाई की ज़रूरत और उसके तरीके सिखातीं। कभी गरीबों के बच्चों को बिस्कुट टॉफी बाँट आतीं। उस दिन सभी महिलाएँ बहुत सुख और संतोष का अनुभव करतीं। उन्हें लगता उन्होंने समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। ऐसे सब कर्तव्यों की खबर अखबार में ज़रूर भेजी जाती और वह मय फोटो के छपती। श्रीमती अविनाश ऐसे सब अखबारों की कटिंग सहेज कर रखतीं।

श्रीमती अविनाश कविताएँ सुनते सुनते खुद भी कविता करने लगीं। जब भी फुरसत मिलती, वे कुछ लिख डालतीं। कभी फूलों पर, कभी आकाश पर, गरीबों की ज़िंदगी पर। श्रीमती दास और अन्य महिलाएँ उनकी कविताओं को सुनकर सिर धुनतीं और गरीबों की हालत का मार्मिक चित्रण सुनकर आँखों में आँसू भर भर लातीं।

इस तरह अविनाश दंपति की ज़िंदगी की झोली खुशियों से भर गयी। कोई अभाव नहीं रह गया। समय पूरा-पूरा बँट गया, कुछ ‘कल्चरल’ कार्यक्रमों को, कुछ गरीब-दुखियों को। अब श्रीमती अविनाश हर नयी मिलने वाली को नेक सलाह बिन माँगे देती हैं, ‘भैनजी, ‘लाइफ’ को ‘हैप्पी’ बनाना है जो ‘कल्चर’ ज़रूर करना चाहिए। बिना ‘कल्चर’ किये ‘लाइफ’ का मज़ा नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 105 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 105 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 105) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 105 ?

☆☆☆☆☆

खूबसूरती हमेशा दिल, और

और  सीरत  में  होती  है…

लोग  बेवजह  ही  उसे  सूरत

और लिबास में ढूंढा करते हैं..!

Beauty always lies in

the heart and ethos…

People needlessly search for

it in the face and attire…!

☆☆☆☆☆ 

मैं ख़ुद भी एहतियातन

उस गली से कम गुज़रता हूँ,

कोई मासूम भला मेरे लिए

क्यों बदनाम हो जाए…!

I myself barely pass through

that street, as a precaution,

Why must an innocent person

become infamous because of me.

☆☆☆☆☆

अपने हिस्से का रंजो गम कभी

कोई तकसीम न कर पाया…

कितना भी दौलतमंद हो इंसान

कभी सुकून न खरीद पाया…!

No one could ever pass on

his share of pain and sorrow

No matter how rich a person

is, he can never buy peace…!

☆☆☆☆☆

 सुना है बहुत बारिश है तुम्हारे शहर में,

देखना, कहीं भीग मत जाना, क्योंकि

अगर पानी के साथ गलतफहमियाँ 

धुल गईं तो याद बहुत आयेंगे हम…!

 

Heard that it’s pouring in your city

Just, avoid getting wet in the rains

if misunderstandings get washed away

You will miss me inconsolably…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 151 ☆ सादी पोशाक के सैनिक – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

संजय उवाच # 151 ☆ सादी पोशाक के सैनिक 🇮🇳 – 1 ?

आज़ादी का अमृत महोत्सव चल रहा है। 13 अगस्त से ‘हर घर तिरंगा’ अभियान भी आरंभ हो चुका है। देश का सम्मान है तिरंगा। इस तिरंगे को प्राप्त करने के लिए अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना बलिदान दिया है। राष्ट्रध्वज की शान बनाए रखने के लिए 1947 से अब तक हज़ारों सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए हैं।  सैनिक शब्द के साथ ही सेना की पोशाक पहने ऐसे पुरुष या स्त्री का चित्र उभरता है जिसके लिए हर नागरिक के मन में अपार आदर और विश्वास है।

सेना की पोशाक पहन सकने का सौभाग्य हरेक को प्राप्त नहीं होता। इस सौभाग्य का अधिकारी सैनिक तो सदा वंदनीय है ही, साथ ही देश के हर नागरिक में भी एक सैनिक बसता है, फिर चाहे उसने सेना की पोशाक पहनी हो या नहीं। सादी पोशाक के ऐसे ही एक सैनिक का उल्लेख आज यहाँ  करेंगे जिसने पिछले दिनों अपनी कर्तव्यपरायणता से देश और मानवता की सर्वोच्च सेवा की।

पैंतालीस वर्षीय इस सेवादार का नाम था जालिंदर रंगराव पवार। जालिंदर, सातारा के खटाव तहसील के पलशी गाँव के निवासी थे। वे  महाराष्ट्र राज्य परिवहन महामंडल की बस में ड्राइवर की नौकरी पर थे। 3 अगस्त 2022 को वे पुणे से 25 यात्रियों को बस में लेकर म्हसवड नामक स्थान के लिए निकले। अभी लगभग 50 किलोमीटर की दूरी ही तय हुई थी कि उन्हें तेज़ चक्कर आने लगे। क्षण भर में आने वाली विपदा को उन्होंने अनुभव कर लिया। गति किसी तरह धीमी करते हुए महामार्ग से हटाकर बस एक तरफ रोक दी। बस रुकते ही स्टेयरिंग पर सिर रख कर सो गए और उसके बाद फिर कभी नहीं उठे। बाद में जाँच से पता चला कि तीव्र हृदयाघात के कारण उनकी मृत्यु हुई थी। अपने जाने की आहट सुनते ही बस में सवार  यात्रियों की जान का विचार करना, बस को हाईवे से हटाकर रास्ते के किनारे खड़ा कर भीषण दुर्घटना की आशंका को समाप्त करना, न केवल अकल्पनीय साहस है अपितु मनुष्यता का उत्तुंग सोपान भी है। 

सैनिक अपने देश और देश के नागरिकों की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान देता है। जालिंदर रंगनाथ पवार ने भी अपने कर्तव्य का निर्वहन किया, नागरिकों के जीवन की रक्षा की और मृत्यु से पूर्व सैनिक-सा जीवन जी लिया।

आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए सीमा पर अपना बलिदान देने वाले सैनिकों, आतंकवादियों से मुठभेड़ करते हुए हमें बचाने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले सैनिकों, सेना की पोशाक में राष्ट्र की रक्षा के लिए खड़े सैनिकों को नमन करने के साथ-साथ सादी पोशाक के इन सैनिकों को भी सैल्युट अवश्य कीजिएगा।

आज़ादी के अमृत महोत्सव की शुभकामनाएँ। जय हिंद।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 105 ☆ दोहा सलिला – राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित दोहा सलिला – राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 105 ☆ 

☆ दोहा सलिला – राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक… ☆

दोहा सलिला-

ब्रम्ह अनादि-अनन्त है, रचता है सब सृष्टि

निराकार आकार रच, करे कृपा की वृष्टि

*

परम सत्य है ब्रम्ह ही, चित्र न उसका प्राप्त

परम सत्य है ब्रम्ह ही, वेद-वचन है आप्त

*

ब्रम्ह-सत्य जो जानता, ब्राम्हण वह इंसान

हर काया है ब्रम्ह का, अंश सके वह मान

*

भेद-भाव करता नहीं, माने ऊँच न नीच

है समान हर आत्म को, प्रेम भाव से सींच

*

काया-स्थित ब्रम्ह ही, ‘कायस्थ’ ले जो जान

छुआछूत को भूलकर, करता सबका मान

*

राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक

ईश्वर को प्यारा वही, जिसकी करनी नेक

*

निर्बल की रक्षा करे, क्षत्रिय तजकर स्वार्थ

तभी मुक्ति वह पा सके, करे नित्य परमार्थ

*

कर आदान-प्रदान जो, मेटे सकल अभाव

भाव ह्रदय में प्रेम का, होता वैश्य स्वभाव

*

पल-पल रस का पान कर, मनुज बने रस-खान

ईश तत्व से रास कर, करे ‘सलिल’ गुणगान

*

सेवा करता स्वार्थ बिन, सचमुच शूद्र महान

आत्मा सो परमात्मा, सेवे सकल जहान

*

चार वर्ण हैं धर्म के, हाथ-पैर लें जान

चारों का पालन करें, नर-नारी है आन

*

हर काया है शूद्र ही, करती सेवा नित्य

स्नेह-प्रेम ले-दे बने, वैश्य बात है सत्य

*

रक्षा करते निबल की, तब क्षत्रिय हों आप

ज्ञान-दान, कुछ सीख दे, ब्राम्हण हों जग व्याप

*

काया में रहकर करें, चारों कार्य सहर्ष

जो वे ही कायस्थ हैं, तजकर सकल अमर्ष

*

विधि-हरि-हर ही राम हैं, विधि-हरि-हर ही श्याम

जो न सत्य यह मानते, उनसे प्रभु हों वाम

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१५-६-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #136 ☆ हिंदी भक्ति काल की ज्ञानाश्रयी शाखा के अनूठे कवि कबीर☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 136 ☆

☆ ‌ हिंदी भक्ति काल की ज्ञानाश्रयी शाखा के अनूठे कवि कबीर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

कबीर साहब का जन्म तत्कालीन काशी क्षेत्र वर्तमान में वाराणसी के लहरतारा नामक स्थान में सन् 1398 में हुआ। जन्म के पश्चात् इन्हें लावारिस हालत में तालाब के किनारे पाया गया था। इनका लालन-पालन नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपति ने किया था। वह समय भारत की गुलामी का था।

देश पर मुग़ल साम्राज्य था। तथा हिंदू धर्म अपने पराभव काल में था। यह वह समय था जब  था हिंदू सभ्यता तथा सांस्कृतिक विरासत के प्रतीकों को तोडा गया, उनकी संपत्ति को लूटा गया तथा पददलित किया गया। लेकिन उसी समय देश के संतों महात्माओं ने धर्म और संस्कृति की मर्यादा की रक्षा के लिए सांस्कृतिक जन चेतना जागृत करने के लिए कलम को हथियार बना कर लोगों के भीतर एक चेतना पैदा की। एक तरफ जहां भक्तिकालीन कवियों ने लोगों में भक्तिभाव जगाया। सगुण भक्ति की काव्य धारा प्रवाहित किया, तो वहीं पर कुछ कवियों ने निर्गुण की उपासना की। एक ओर सूरदास, कबीर दास, तुलसी दास, रविदास जैसे कवि थे तो दूसरी ओर रहीम, रसखान जैसे मुसलमान कवि जो इस्लाम केदीन को मानते हुए भी कृष्ण के भक्ति रस में खुद को आकंठ डुबा चुके थे और हृदय से परम उदार शालीनता के प्रतीक बन गए थे। तो वहीं पर कुछ दरबारी कवि भी हुए जो राजाओं महाराजाओं के अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्ति गान तक सीमित हो गए। आल्हा तथा रासों विधा की रचनाएं दी, जिसमें जगह जगह अतिशयोक्तिपूर्ण प्रस्तुति है। लेकिन भक्तिकालीन कवियों में कबीर की रचनाओं में खरापन दिखाई देता है, उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया है।

समाज के अंतिम पायदान पर खड़े कबीर साहब को ना तो कुछ पाने की अभिलाषा थी ना कुछ खोने का भय। इस लिए जो भी लिखा निर्भय हो कर लिखा। इनकी रचना की मूल विधाएं साखी, सबद, रमैनी तथा दोहे थे। भाषा शैली पंचमेल खिचड़ी थी। इनकी रचनाओं में हिंदी भाषा के अपभ्रंश, पंजाबी गुरुमुखी तथा स्थानीय भाषा के शब्द दृष्टिगोचर होते हैं।  उनकी लेखन शैली में उलटबांसी, अध्यात्म चिंतन, कूट कूट कर भरा हुआ है। उनकी जीवनशैली खांटी फक्कड पन भरी थी, तथा वे घुमक्कड़ प्रकृति के थे, जिसका प्रभाव उनके लेखन की भाषा शैली में स्पष्ट दिखाता है।

उनके लेखन का सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार का अंदाज जहां रूढिवादियों को तिलमिला देता है वहीं समाज के पुरोधाओं को विचार करने के लिए विवश भी करता है। उनके प्रहार के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है।–

पाहन पूजे हरि मिले, मैं तो पूजूं पहार

याते चाकी भली जो पीस खाए संसार

तथा  कलयुगी गुरु शिष्य परंपरा की विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि—-

गुरू लोभी सिष लालची, दोनों खेले दाव।

दोनों बूङे बापुरे, चढ़ि पाथर की नाव॥

तो वहीं पर गुरु सत्ता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

मानव जीवन में गुरु की महत्ता  पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि—–

गुरु कुंभार शिष्य कुंभ है, घड़ि घड़ि काढ़े खोट।

भीतर हाथ पसार के, बाहर मारे चोट।

अर्थात् गुरु व्यक्ति भीतर व्यक्तित्व गढ़ता है।उनकी रचनाओं में समाज को दिशा दिखाने वाले संदेश प्रतिध्वनित होते हैं। उनका भी उदाहरण देखें——-

दुर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय।

मरे बैल की चाम सो लोह भसम हो जाए।।           

अथवा

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।

वह मूर्ति पूजा के विरोधी थे, उनका दृष्टि कोण उदारवादी तथा विस्तृत था वह संकुचित दृष्टि कोण के विरुद्ध थे। वह माला नहीं मन फेरने की बात करते थे। तथा दिखावे और बाह्याडंबर के विरुद्ध थे, लेकिन धर्म कर्म के विरोधी नहीं थे।

जप माला छापा तिलक, सरै ना एकौ काम।

मन-काँचे नाचै वृथा, सांचे रांचे राम।

कबीर माला काठ की, कहीं समझावे तोही।

मन ना फिरावे आपना, कहा फिरावे मोहि।

मूड़ मुड़ाए हरि मिलै तौ सब कोई लेइ मुड़ाय ।

बार – बार के मूड़ते , भेड़ न बैकुंठ जाय ।

तो वहीं पर अध्यात्म का संदेश देते हुए कहते हैं कि– 

संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे । 

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी , माया रहै न बाँधी ॥ 

उन्होंने अध्यात्म की नई परिभाषा गढ़ते हुए ईश्वर के घर की दूरी नापने की आध्यात्मिक नई परिभाषा देते हुए सावधानी का संदेश दिया।

कबिरा हरि घर दूर है, जैसे पेड़ खजूर।

चढै सो चाखे प्रेम रस, गिरै सो चकनाचूर।।

तो वहीं पर और गहराई में उतर कर लिखते हैं कि

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

तो वहीं खोजते खोजते खुद के खो जाने की बात करते हैं।

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥

अर्थात् भक्ति मार्ग पर अपने अस्तित्व को मिटाने की बात करते हैं। प्रकारांतर से कबीर साहब के मत का समर्थन रविदास जी की रचना में भी दृष्टि गोचर होता है।

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी में भी देखा जा सकता है। अर्थात् चंदन के संपर्क में आकर पानी सुवासित हो जाता है और चंदन घिस कर माथे का तिलक बन जाता है। अर्थात् आत्मा और परमात्मा का मिलन उपयोगी बन जाता है आत्मा के लिए ।

वहीं पर गोस्वामी तुलसीदास जी की रचनाएं भी उनके मत की पुष्टि करते जान पड़ते हैं जैसे—-

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।

जौ बिरंचि संकर सम होई ।।

 तो वहीं पर—–

ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी।।

श्री गुरु पद नख मनि गन ज्योति । सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।  

तो वहीं पर  तुलसी दास जी के दोहे प्रकारांतर से वहीं संदेश देते प्रतीत होते हैं जैसे—–

तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ।

लेकिन कबीर के राम तुलसी के सगुण रूपी राम नहीं है, वे तो राम के रूप को अनुभूति की विषय वस्तु बना देते हैं तथा राम को अनुभवगम्य बताते हुए कहते हैं कि

जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।

पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥

तो वहीं पर अपनी जन्मभूमि की गरिमा बढ़ाते हुए उसे मोक्ष भूमि कहते हुए लिखते हैं कि—–

जौ काशी तन तजै कबीरा ,तो रामै कौन निहोटा।

और अपने सत्करमों के परीक्षण हेतु मगहर में जा कर अपना शरीर का त्याग कर अपनी आत्मसत्ता को पूर्ण में एकाकार कर उसी में खो जाते हैं।

वहीं गोस्वामी तुलसीदास जी ने  भी कबीर के मत की पुष्टि करते हुए लिखा—–

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।

कर बिनु करम करइ बिधि नाना।। 

से की है तो आगे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं——

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा

गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।

अर्थात् सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है, एक शरीर है तो दूसरी आत्मा। सगुण जहां शरीर है ‌वहीं निर्गुण निराकार आत्मचेतन सत्ता। शरीर के बिना आत्मचेतना विलुप्त है तो शरीर के भीतर आत्मचेतना प्रकट हो गतिशील रूप में दृश्य मान हो जाती है। इस प्रकार कबीर साहित्य हमें यथार्थ दर्शन के साथ मतैक्यता के भी दर्शन कराता है।

 © सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ परसदारची सकाळ ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? परसदारची सकाळ ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆ 

अशी सकाळ गावाकडची

आहे का कधी पाहिली ?

याच जागी सकाळपासून 

राबत असे घरची माऊली !

पडे हिरव्या पाना वेली मधुनी

सडा सूर्य किरणांचा सोनेरी,

मातीच्या धगधगत्या चुलीवर

रटरटते गुरगुट्याची न्याहरी !

छायाचित्र  – प्रकाश चितळे, ठाणे.

© प्रमोद वामन वर्तक

ठाणे.

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #152 – ग़ज़ल-38 – “जमाने ने रहम नहीं किया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “जमाने ने रहम नहीं किया …”)

? ग़ज़ल # 38 – “जमाने ने रहम नहीं किया …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

अपने अहसासों को लफ़्ज़ पहना रहा हूँ,

अपने ज़ख्मों को खुद ही सहला रहा हूँ।

 

क्या ज़िक्र करूँ ख़ुदगर्ज़ रिश्तेदारों का,

उन्हें अब उनका चेहरा दिखा रहा हूँ।

 

वक़्त ने पाल पोसकर बड़े करम किए,

अब उसी का अक्स बनता जा रहा हूँ।

 

दोस्तों ने सयानेपन में कसर नहीं छोड़ी,

उन्ही के अन्दाज़ में दोस्ती निभा रहा हूँ।

 

जमाने ने रहम नहीं किया ‘आतिश’ पर,

वक़्त ए रूखसत तौफ़ीक़ आज़मा रहा हूँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

 

भोपाल, मध्य प्रदेश

 

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 29 ☆ मुक्तक ।।हमें फहराना है माँ भारती का जयगान तिरंगा।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।।हमें फहराना है माँ भारती का जयगान तिरंगा।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 29 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।हमें फहराना है माँ भारती का जयगान तिरंगा 🇮🇳।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

वन्देमातरम केआवाह्न का  तिरंगा।

जय हिंद के    पैगाम   का  तिरंगा।।

विश्व विजयी    तिरंगा  फहराना है।

वृहतम लोकतंत्र सम्मान का तिरंगा।।

[2]

अमृत महोत्सव की वो  शान तिरंगा।

75 वर्षआज़ादी का गुणगान तिरंगा।।

घर घर तिरंगा हर घर तिरंगा लहराये।

भारत उच्च मस्तकआलीशान तिरंगा।।

[3]

तेरा मेरा सबका ही अभिमान  तिरंगा।

जिसे सब करते वह    सलाम  तिरंगा।।

आज़ादी उत्सव मनाना तिरंगा हाथ में।

राष्ट्र अस्मिता प्रतीक  पहचान   तिरंगा।।

[4]

अमृत महोत्सव का   अभियान तिरंगा।

हम सबकी ही आन बान शान  तिरंगा।।

मातृ भूमि के हर कोने फहराना हमको।

माँ भारती का वन्दन जय गान   तिरंगा।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 94 ☆ ’’शुभ भावना…!” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  शुभ भावना…!। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 94 ☆ शुभ भावना…!” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जिनके मन में अपनों के प्रति स्नेह कम दुर्भाव है 

यह समझना चाहिए कि उनका गलत स्वभाव है

 मिलकर रहने से बढा करती है ममता भावना 

आज लेकिन सब घरों में ममता का ही अभाव है 

 

आने जाने से ही मन में बढ़ता जाता प्यार है 

प्यार ही संसार में हर खुशी का आधार है

मधुर वाणी जीत लेती सहज ही सद्भावना

प्रेम से ही चल रहा संसार का व्यवहार है

 

जहां भी संसार में होती कमी है स्नेह की

वहीं झट उत्पन्न होती है व्यथा संदेह की

प्रेम पूरित मन सभी की चाहता शुभकामना 

बात कुछ करती नहीं है किसी से विद्वेष की 

 

स्नेह जल में मन सरोवर में सदा खिलते कमल 

सुखद औ आनंददायी मनोहर पावन विमल 

जिनके दर्शन देते रहते मन को सुख औ शांति भी 

कभी कोई दुर्भाव उस मन में न हो सकता प्रबल

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 103 – ननद-भाभी और रक्षाबंधन ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #103 🌻 ननद-भाभी और रक्षाबंधन 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बहन ने अपनी भाभी को फोन किया और जानना चाहा …”भाभी, मैंने जो भैया के लिए राखी भेजी थी, मिल गयी क्या आप लोगों को” ???

भाभी : “नहीं दीदी, अभी तक तो नहीं मिली”।

बहन : “भाभी कल तक देख लीजिए, अगर नहीं मिली तो मैं खुद जरूर आऊंगी राखी लेकर, मेरे रहते भाई की कलाई सूनी नहीं रहनी चाहिए रक्षाबंधन के दिन”।

अगले दिन सुबह ही भाभी ने खुद अपनी ननद को फोन किया : “दीदी आपकी राखी अबतक नहीं मिली, अब क्या करें बताईये”??

ननद ने फोन रखा, अपने पति को गाड़ी लेकर साथ चलने के लिए राजी किया और चल दी राखी, मिठाई लेकर अपने मायके ।

दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लगभग पांच घंटे बाद बहन अपने मायके पहुंची।

फ़िर सबसे पहले उसने भाई को राखी बांधी, उसके बाद घर के बाक़ी सदस्यों से मिली, खूब बातें, हंसी मजाक औऱ लाजवाब व्यंजनों का लंबा दौर चला  ।

अगले दिन जब बहन चलने लगी तो उसकी भाभी ने उसकी गाड़ी में खूब सारा सामान रख दिया… कपड़े, फल, मिठाइयां वैगेरह।

विदा के वक़्त जब वो अपनी माँ के पैर छूने लगी तो माँ ने शिकायत के लहजे में कहा… “अब ज़रा सा भी मेरा ख्याल नहीं करती तू, थोड़ा जल्दी जल्दी आ जाया कर बेटी, तेरे बिना उदास लगता है मुझें, तेरे भाई की नज़रे भी तुझें ढूँढ़ती रहती हैं अक़्सर”।

बहन बोली- “माँ, मैं समझ सकती हूँ आपकी भावना लेकिन उधर भी तो मेरी एक माँ हैं और इधर भाभी तो हैं आपके पास, फ़िर आप चिंता क्यों करती हैं, जब फुर्सत मिलेगा मैं भाग कर चली आऊंगी आपके पास”।

आँखों में आंसू लेकर माँ बोली- “सचमुच बेटी, तेरे जाने के बाद तेरी भाभी बहुत ख्याल रखती है मेरा, देख तुझे बुलाने के लिए तुझसे झूठ भी बोला, तेरी राखी तो दो दिन पहले ही आ गयी थी, लेकिन उसने पहले ही सबसे कह दिया था कि इसके बारे में कोई भी दीदी को बिलकुल बताना मत, राखी बांधने के बहाने इस बार दीदी को जरुर बुलाना है, वो चार सालों से मायके नहीं आयीं”।

बहन ने अपनी भाभी को कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया और रोते हुए बोली… “भाभी, मेरी माँ का इतना भी ज़्यादा ख़याल मत रखा करो कि वो मुझें भूल ही जाए”।

भाभी की आँखे भी डबडबा गईं।

बहन रास्ते भर गाड़ी में गुमसुम बेहद ख़ामोशी से अपनी मायके की खूबसूरत, सुनहरी, मीठी यादों की झुरमुट में लिपटी हुई बस लगातार यही प्रार्थना किए जा रही थी… “हे ऊपरवाले, ऐसी भाभी हर बहनों को मिले!”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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