हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #235 ☆ संतोष के दोहे – तर्पण ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 235 ☆

☆ संतोष के दोहे – तर्पण  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जीते  जी  भी  चाहत  रखना

उनके  दिल  में  राहत रखना

*

तभी  मिलेगा  पुण्य  आपको

माँ बाप  से न अदावत रखना

*

कष्ट  दिया  गर  तुमने उनको

संघर्षों   की   ताकत   रखना

*

स्वर्ग  समान चरण  हैं  उनके

श्रद्धा   और   इबादत  रखना

*

तर्पण  होगा  सार्थक तब  ही

कभी न कोई शिकायत रखना

*

मिलेगा  “संतोष”  तुम्हे   जब

नेकी  और   शराफत   रखना

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १५ — पुरुषोत्तम योग — (श्लोक १ ते १0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १५ — पुरुषोत्तम योग — (श्लोक १ ते १0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

श्रीभगवानुवाच 

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ । 

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥ १ ॥ 

कथिती भगवंत 

विचित्र संसाराचा वृक्ष अव्यय अश्वत्थ 

मुळे वरती शाखा खाली पर्णरूपि छंद

जाणुन घेता या तरुराजा होई सर्वज्ञानी

वेद जाणिले अंतर्यामी तोचि ब्रह्मज्ञानी ॥१॥

*

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । 

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥ २ ॥ 

*

विषयभोगी संसारवृक्ष शाखा पसरल्या वरती खाली

तयासि वेढूनिया टाकले त्रिगुणांनी सभोवताली

मुळे मनुष्यलोकाची कर्मबंधांची तीही वरती खाली

सर्वत्र ती पसरली समस्त लोका व्यापून राहिली ॥२॥

*

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा । 

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३ ॥ 

*

न दिसे येथे रूप तयाचे वर्णन केले तसे

आदी न यासी अंतही नाही त्यासी स्थैर्य नसे

वासना रूपी मुळे तयाची घट्ट नि बळकट

संसाराश्वत्थाला या वैराग्य शस्त्राने छाट ॥३॥

*

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्त्न्ति भूयः । 

तमेव चाद्यम पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥ 

*

शोध घ्यावा त्या परमेशाचा आदी पुरुषाचा

मनन चिंतन करुनिया तयाचे निदिध्यास त्याचा

तया पासुनी विस्तारली ही प्रवृत्ती संसाराची

तेथे जाता नाही भीति पुनश्च परतुनी यायाची ॥४॥

*

 निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । 

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ॥ ५ ॥

*

अहंकार ना मोहही नष्ट आसक्ती दोषा जिंकले

कामना नष्ट सुखदुःखांच्या द्वंद्वांतुनिया मुक्त जाहले

परमेशस्वरूपी स्थिति जयांची निरुद्ध नित्य राहे

ज्ञानीयांसी त्या अविनाशी परमपद खचित प्राप्त आहे ॥५॥

*

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । 

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ६ ॥ 

*

जननमरणा फेऱ्यातुन मुक्ती प्राप्त करिता परमपदाला

स्वतेजी मम परमधामा सूर्य चंद्र ना अग्नी प्रकाश द्यायाला ॥६॥

*
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । 

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७ ॥ 

*

जीवांश या देहातला माझाच अंश सनातन 

प्रकृतिस्थित मनषष्ठेंद्रिया घेतो आकर्षुन ॥७॥

*

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः । 

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌ ॥ ८ ॥ 

*
पवन वाहतो गंधितातुनी गंध लहरीसवे

देह त्यागता जीवात्मा नेई मनैंद्रियासी सवे

पुनर्पाप्ती करिता कायेची नेई अपुल्या संगे

सकल गुणांना पूर्वेंद्रियांच्या स्थापी आत्म्या संगे ॥८॥

*

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । 

अधिष्ठायं मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ ९ ॥ 

*

जीवात्मा हा विषय भोगतो इंद्रियांकरवी

कर्ण नेत्र रसना घ्राण स्पर्श मनाकरवी ॥९॥

*

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌ ।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १० ॥ 

*

 देहत्यागा समयी वा देहात वास करता

भोग भोगता विषयांचा वा त्रिगुणे युक्त असता

आत्मस्वरूप आकलन न होई मूढा अज्ञानी

विवेकी परी जाणुन असती ज्ञानदृष्टीचे ज्ञानी ॥१०॥

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 26 – “आधुनिक महाभारत: वॉट्सएप युग का महायुद्ध” ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना “आधुनिक महाभारत: वॉट्सएप युग का महायुद्ध”।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 26 – “आधुनिक महाभारत: वॉट्सएप युग का महायुद्ध”☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कलियुग में अगर महाभारत होती, तो हस्तिनापुर की जगह “वॉट्सएप नगर” होता और कुरुक्षेत्र की जगह “ग्रुपचैट”। कौरवों और पांडवों के बीच की लड़ाई अब तलवार और तीर-कमान से नहीं, बल्कि स्मार्टफोन और डेटा पैक से लड़ी जाती।

कहानी कुछ यूं है कि हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र अपने मोबाइल से चिपके रहते हैं, पर उन्हें एक छोटी सी दिक्कत है – वो टेक्स्ट पढ़ नहीं सकते, क्योंकि आँखें कमजोर हो गई हैं। उनकी जगह उनका सचिव संजय हर मैसेज पढ़कर सुनाता है, चाहे वो मीम हो या कोई फ़ॉरवर्डेड जोक।

दुर्योधन अब अपने भाइयों के साथ वॉट्सएप पर एक ग्रुप बनाता है – “कौरव आर्मी”। इस ग्रुप में दिन-रात षड्यंत्र चलते हैं कि कैसे पांडवों को ‘ब्लॉक’ किया जाए। वहीं दूसरी ओर, पांडवों का एक ग्रुप है “धर्मराज पार्टी”, जिसमें युधिष्ठिर हर मैसेज को सत्यापन के बाद ही फ़ॉरवर्ड करते हैं। अर्जुन का स्टेटस हर दिन बदलता रहता है – कभी “वारियर मोड”, तो कभी “चिलिंग विद कृष्णा”।

भीष्म पितामह ग्रुप में बैठे निष्क्रिय हैं। वो कुछ बोलते नहीं, बस सब पढ़ते रहते हैं। उनका विश्वास है कि जब तक कोई उन्हें “मौन मोड” से बाहर नहीं बुलाएगा, तब तक वो सिर्फ़ दर्शक बने रहेंगे।

कृष्ण की भूमिका अब “ग्रुप एडमिन” की हो गई है। वो अर्जुन को गीता का उपदेश नहीं दे रहे, बल्कि उसे “डिलीट फॉर एवरीवन” और “म्यूट ग्रुप” जैसे फीचर्स समझा रहे हैं। अर्जुन थोड़े असमंजस में है – “हे केशव, मैं किसे ब्लॉक करूं? कौरवों को या अपने डेटा प्लान को?”

युद्ध शुरू होता है – नहीं, तलवार से नहीं, बल्कि “वायरल वीडियो” और “मीम वॉर” से। दोनों ओर से तेज़ी से मैसेज भेजे जाते हैं, कोई ‘ट्रेंडिंग’ करने में जुटा है, तो कोई ‘कमेंट सेक्शन’ में शांति स्थापित करने में। भीम को कोई चिंता नहीं, वो सिर्फ़ ‘फूड डिलीवरी’ ग्रुप में एक्टिव हैं और खाने के मेन्यू पर चर्चा कर रहे हैं।

आखिरकार, युद्ध का परिणाम यह निकलता है कि कौरवों का डेटा पैक खत्म हो जाता है और पांडवों को जीत मिलती है। पर असली सवाल यह है कि इस महायुद्ध के बाद कौन जीता? शायद मोबाइल कंपनियाँ, जिनकी कमाई इस “डिजिटल महाभारत” में सबसे ज्यादा हुई!

इस आधुनिक महाभारत का यही निष्कर्ष है – जहां पहले धनुष-बाण थे, अब इमोजी और वॉट्सएप स्टीकर्स हैं। और अंत में, धर्म की जीत नहीं, बल्कि ‘नेटवर्क कवरेज’ की जीत होती है!

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 308 ☆ आलेख – “मोबाइल वोटिंग की अभिनव चुनाव प्रणाली” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 308 ☆

?  आलेख – मोबाइल वोटिंग की अभिनव चुनाव प्रणाली ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स इंडिया देश की 100 वर्षो से पुरानी संस्था है। यह प्राइवेट तथा शासकीय विभिन्न विभागों, इंजीनियरिंग शिक्षा की संस्थाओं, इंजीनियरिंग की सारी फेकल्टीज के समस्त इंजीनियर्स का एक समग्र प्लेटफार्म है। जो विश्व व्यापी गतिविधियां संचालित करता है। नालेज अपडेट, सेमिनार आयोजन, शोध जर्नल्स का प्रकाशन, इंजीनियर्स को समाज से जोड़ने वाले अनेक आयोजन हेतु पहचाना जाता है। यही नहीं स्टूडेंट्स चैप्टर के जरिए अध्ययनरत भावी इंजीनियर्स के लिए भी संस्था निरंतर अनेक आयोजन करती रहती है।

इंस्टिट्यूशन सदैव से नवाचारी रही है।

लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रति वर्ष चुने गए प्रतिनिधि संस्था का संचालन करते हैं। संस्था के सदस्य सारे देश में फैले हुए हैं अतः चुनाव के लिए ओ टी पी आधारित मोबाइल वोटिंग प्रणाली विकसित की गई है।

जब देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या सीमित थी तो इंस्टिट्यूशन ने बी ई के समानांतर ए एम आई ई डिग्री की दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से परीक्षा लेने की व्यवस्था की। अब इंजीनियरिंग कालेजों की पर्याप्त संख्या के चलते AMIE में नए इनरोलमेंट तो नहीं किए जा रहे किंतु पुराने विद्यार्थियों हेतु परीक्षा में नवाचार अपनाते हुए, प्रश्नपत्र जियो लोकेशन, फेस रिक्गनीशन, ओ टी पी के तिहरे सुरक्षा कवच के साथ आन लाइन भेजने की अद्भुत व्यवस्था की गई है। सात दिनों, सुबह शाम की दो पारियों में लगभग 50 से ज्यादा पेपर्स, सरल कार्य नही है।

मुझे अपने कालेज के दिनों में इस संस्था के स्टूडेंट चैप्टर की अध्यक्षता के कार्यकाल से अब फैलो इंजीनियर्स होने तक लगातार सक्रियता से जुड़े रहने का गौरव हासिल है। मैने भोपाल स्टेट सेंटर से नवाचारी साफ्टवेयर से चुनाव में चेयरमैन बोर्ड आफ स्क्रुटिनाइजर्स और परीक्षा में केंद्र अध्यक्ष की भूमिकाओं का सफलता से संचालन किया है।

इंस्टिट्यूशन के चुनाव तथा परीक्षा के ये दोनो साफ्टवेयर अन्य संस्थाओं के अपनाने योग्य हैं, इससे समय और धन की स्पष्ट बचत होती है। आज पेपर लीक्स, चुनावों में धांधलियां आम शिकायतें हैं, इन साफ्टवेयर से इस पर रोक लगाई जा सकती है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

FIE Civil

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #191 – कहानी – “बाबा का घर” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी  “बाबा का घर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 191 ☆

कहानी — बाबा का घर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

दीनानाथ अपने दोस्त केशवराम के घर आए हुए थे. उसी समय केशवराम अपने मकान के कागज पर हस्ताक्षर कर रहे थे. यह देख कर दीनानाथ कुर्सी से उठ बैठे. केशवराम के पास पहुंच गए. तुरंत हाथ पकड़ कर बोले, ” केशव ! भूल कर हस्ताक्षर मत करना.”

यह सुन कर केशवराम का पेन हाथ में रूक गया, ” अरे भाई ! क्या हुआ ? ” उन्हों ने दीनानाथ की आंखों में बरसती चिंगारी देख कर कहा,  ” ये सब संपत्ति इन्हीं की है. आज नहीं रो कल इन्ही के पास जाना है. फिर .. ”

” ना भाई ना ! जिदंगी में भूल कर ऐसा मत करना, ”  कहते हुए दीनानाथ ने हाथ से कागज और कलम छीन ली,  ” अन्यथा तूझे भी मेरी तरह अनाथ आश्रम में दिन काटना पड़ेंगे,” यह कहते हए उन की आंखों से आंसू निकल पड़े.

पास ही योगेश खड़ा था. उस ने दीनानाथ को पकड़ कर बिस्तर पर बैठाया. फिर उन से कहा, ” अरे बाबा ! सभी तो आप गिर जाते .” कहते हुए योगेश सीधा खड़ा हो गया.

” मुझे हाथ मत लगा योगेश, ” दीनानाथ ने कहा,  ” सभी बेटे एक जैसे होते हैं. शुरूशुरू में ऐसी ही बातें करते हैं.”

इस पर दूर खड़ी कोमलांगी से रहा नहीं गया. वह बोली, ”  बाबा ! आप गलत सोच रहे हैं. वह बात नहीं है….”  उस ने कुछ कहना चाहा कि दीनानाथ बीच में ही बोले, ”  मुझे पता है कि बात क्या है,”  कहने के साथ उन्हों ने केशवराम को देख कर कहा,  ” भाभीजी नहीं दिख रही है. यदि वे होती तो ….”

योगेश ने आगे बात बढ़ाना ठीक नहीं समझा. उस ने अपनी पत्नी से कहा, ”  कोमल ! बाबा के लिए चाय बना ला.”  वह नहीं चाहता था कि बात का बतंगड बने. बिना बात के कोमलांगी दीनानाथ से उलझ पड़े. 

कोमलांगी उठी. चाय बनाने चली गई. योगेश ने वहां रूकना उचित नहीं समझा. वह पत्नी के पीछे चल दिया, ” मैं पानी ले कर आता हूं बाबा .”

उस के जाते ही दीनानाथ ने कहा, ” केशव ! तूझे मेरी कसम. कभी इन के चारे मत लगना. नहीं तो तूझे भी मेरी तरह अनाथ आश्रम में शरण लेनी पडेगी,” कहते हुए व्यथित मन से दीनानाथ चले गए.

वे बहुत दुखी थे. उन के दिल में समाए घाव हरे हो गए थे. उन के मन में एक ही वाक्य निकला- सभी औलादें ऐसी ही होती है. जो जन्म देता है उसे ही दुत्कार कर भगा देती है.

तभी उन के मन ने कहा. वे गलत हो सकते हैं. जो सोच रहे हैं वह सही हो जरुरी नहीं है. . यह भी जरूरी नहीं कि सब औलादें ऐसी हो. मगर  नहीं,  उन का मन इस बात की गवाही नहीं दे रहा था. योगेश भला लड़का होगा. वे भी उस की तरह अपने पिता को आश्रम में भेज देगा .

नहींनहीं. केशव ऐसी गलती नहीं करेगा. वह मेरी बात मानेगा. बिना सोचेसमझे कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं करेगा.

मगर,  वह अपनी औलाद के विरूद्ध कैसे जा सकता हैं. औलाद चाहेगी तो उसे दस्तखत करना पड़ेंगे. तब उस की कसम भी कोई मायने नहीं रखेगी . फिर जरूरी नहीं है कि सब ओलादें एक जैसी ही हो. यह सोचते हुए वे अनाथालय के दरवाजे तक आ गए.

” क्या हुआ काका ! आज चुपचाप चले जा रहे हो ? कोई रामराम और श्यामश्याम नहीं की. ” गेट के दरवाजे पर बैठे रामूकाका ने जोर से आवाज दी.

दीनानाथ स्वभाव के विरुद्ध चुपचाप अन्दर जा रहे थे.

” कुछ नहीं भाई,”  दीनानाथ ने बिना रूके ही कहा, ” आज मुड़ ठीक नहीं है.” कह कर वे सीधे अपने कमरे में चले गए. बिस्तर के पास एक आराम कुर्सी पड़ी थी. उस पर बैठ गए. मन में विचारों का तूफान उमड़ने लगा.

यह उन का दोष नहीं है. कहीं दूर बैठा हुआ दिमाग बोला. जिस की आवाज सुन कर वे चौंक उठे.

” क्या कहा ?” वे स्वयं से बोल उठे.

यही कि यह करीयुग है. करों ओर भरो. भूल गए. एक अनजान आवाज ने उन्हें टोका. वह शायद उन के अंदर से आ रही थी. जो जैसा करता है वैसा भरता है. यदि तुम अपने पिता की सेवा नहीं करोगे तो पुत्र आप की सेवा नहीं करेगा.

नहींनहीं ! वह मेरा दोष नहीं था. वे विचारमग्न हो गए. मेरी पत्नी से मेरी मां की लड़ाई होती रहती थी. उन के बीच बनी नहीं. बस उसी से बचने के लिए मैं ने अलग घर ले लिया था. उन की सेवा तो करना चाहता था. मगर, सेवा कर नहीं पाया.

पत्नी नहीं जाने देना चाहती थी. इस वजह से. अन्यथा मैं तो मातापिता को चाहता था. उस के अंतर्मन ने उसे कचोटा. वह उस का विरोध करने लगा.

इस तरह बहुत देर तक विचारों के प्रवाह में वह गोते लगाते रहे . उन्हें कब नींद आ गई. पता ही नहीं चला.

यह बात बीते एक वर्ष हो गया था. वे भूल चुके थे. उन का कोई दोस्त था केशवराम . वे  दोबार उस के घर गए. किसी से पता चला कि वे घर बेच कर जा चुके थे. दीनानाथ ने अनुमान लगा लिया. केशवराम ने उस की बात नहीं मानी. उस ने संपत्ति के कागज पर हस्ताक्षर कर लिए.

योगेश ने संपत्ति बेच दी होगी. इसलिए वे दूसरे जगह चले गए. केशवराम उसे मिलना नहीं चाहता था. वह किस मुंह से उस के पास आता,  इसलिए वह दूसरी जगह चला गया होगा. यह सोच कर उन्हों ने धीरेधीरे केशवराम को भूला दिया.

अचानक दो साल बाद,  एक दिन दरवाजे पर एक गाड़ी आ कर रूकी. उस में से एक बूढ़ा व्यक्ति उतरा . वह सीधा उन्हीं की ओर चला आ रहा था. सफेद धोतीकुर्ता और हाथ में छड़ी लिए उसी चाल से चल रहा था. उस ने बड़ी ध्यान से देखा. चेहरा पहचाना हुआ लगा रहा था.

पास आने पर मालुम हुआ, ” अरे केशव ! तू,” वह चौंक कर खड़ा हो गया.

” हां दीनानाथ मैं ! ” केशवराम ने उन के कधे पर हाथ रख कर कहा,” तू ने ठीक कहा था. आजकल की औलादें ठीक नहीं होती है.”

” क्या ! ” दीनानाथ ने कहा, ” आखिर तूझे मेरी बात समझ में आ गई.”

” हां यार,” केशवराम ने कहा, ” इसीलिए तूझे लेने आया हूं. तेरी भाभी तूझे बहुत याद कर रही है. कहती है कि दीनानाथ को बुला लाओ.”

” क्या !” दीनानाथ ने चकित होते हुए कहा, ” मैं तो समझा ​था कि भाभी…”

” वह अभी जिंदा है,”  केशवराम ने कहा ओर दीनानाथ का हाथ पकड़ कर वह कार की ओर खींच लाया. दोनों गाड़ी में बैठे. गाड़ी चल दी.

”यार ! ये गाड़ी !”

” इस के मालिक की है,”  केशवराम ने कहा, ” तू सही कहता था औलादें अच्छी ….”

”… नहीं होती है,” दीनानाथ ने केशवराम की बात पूरी की.’ ‘ तूने मेरी बात नहीं मानी. संपत्ति के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे.”

” हां यार ! उस संपत्ति के अच्छी पैसे आ रहे थे. बेटे को व्यापार के लिए पैसे की जरूरत थी. इसलिए मजबूरन मुझे वह संपत्ति बेचना पड़ी.”

” ओह !  फिर तू कहा चला गया था ?  ” दीनानाथ बोले, ” तूझे मेरे पास इस अनाथालय में आ जाना चाहिए था. ”

” नहीं यार ! वक्त खराब चल रहा था. मुझे बच्चे के साथ जाना पड़ा. वहां बहुत काम था- वही करना पड़ा. तेरी भाभी को भी काम करना पड़ा. हम ने बहुत मुसीबत देखी हैं .”

” वह तो देखना ही थी.”  दीनानाथ ने कहा, ” तू ने मेरी बात नहीं मानी थी. औलादों को कभी संपत्ति नहीं देना चाहिए. जब तक संपत्ति रहती है तब तक वे सेवा करते हैं. अन्यथा बाद में भगा देते हैं.”

” तू ठीक कहता है. ” केशवराम ने जवाब दिया, ” यह तेरा अनुभव है. यह गलत कैसे हो सकता है. मगर, परिस्थिति और स्वभाव एक जैसा नहीं होता है. ”

दीनानाथ ने कहा, ” मैं समझा नहीं,”

“ घर के अंदर चलते हैं. फिर समझाता हूँ,” केशवराम ने कहा.

तभी ड्राइवर ने ब्रेक लगाया. गाड़ी एक मोड़ पर मुड़ रही थी. सामने एक गेट था. जिस पर बड़े अक्षर में लिखा हुआ था— बाबा का घर— केशवनाथ.

उस पर निगाहें जाते ही दीनानाथ चौंक उठे, ” अरे केशव ! यह क्या लिखा है ?”

” बाबा का घर— केशवनाथ !”

” मगर,  तेरा नाम तो केशवराम है. फिर यह क्या है ?” दीनानाथ को कुछ समझ में नहीं आ रहा था , ”  क्या यह घर तेरा घर है ?”

” नहीं !”

” फिर किस का है ?”

” हमारा. यानी केशवराम का केशव और दीनानाथ का नाथ यानी केशवनाथ का घर .”

” क्या !” दीनानाथ आवाक रह गए.

” यह मेरे पुत्र का तौहफा है हम दोनों के लिए,” केशवराम के यह कहते ही दरवाजे पर कोमलांगी और उस की सास यानी दीनानाथ की भाभी स्वागत की थाली लिए खड़े थे.

” भाई साहब ! आप का इस नए घर में स्वागत है !” भाभी मुस्करा कर स्वागत कर रही थी.

यह सुन कर दीनानथ के आंखों में से ख़ुशी के आंसू निकल पड़े. उन्हों ने अपने दोनों हाथ कोमलांगी की ओर आशीर्वाद की मुद्रा में उठा दिए.

कोमलांगी आरती करने के बाद उन के चरण स्पर्श करने के लिए झुक गई थी. दीनानाथ के आंसूओं ने उस के हृदय का सारा मैल धो दिया था. उन का हाथ कोमलांगी के सिर पर चल गया, ” ऐसे मातापिता ओर बेटाबहू सभी को मिले.” वे केवल इतना ही बोल पाए. उन का गला रुंध गया.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14/04/2019

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 224 ☆ बाल कविता – मकड़ी रानी चली सैर को… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 224 ☆ 

बाल कविता – मकड़ी रानी चली सैर को ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मकड़ी रानी चली सैर को,

दीवारों के ऊपर।

जिस कोने में मिली गंदगी

बुने जाल से है घर।

भूख लगी थी उसे जोर की

ढूँढे मक्खी , मच्छर।

हुई सुबह से शाम उसे पर,

नहीं मिला है अवसर।

 *

सोच रही वह लेटी- लेटी,

कैसे भूख मिटाऊँ।

पेट किलोलें करता मेरा

प्रभु से आस लगाऊँ।

 *

शिकार को निकली चुपके से

दिखीं चींटियाँ उसको।

पकड़ीं उसने कई चींटियाँ

लिए चली वह घर को।

 *

भूख मिटाई, तृप्त हुई वह

श्रम से मिलता खाना।

समझ गई जीने का ढंग वह

जीवन कटे सुहाना।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ३० ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ३० ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

थोड्याच दिवसात येऊ घातलेलं तिचं बाळंतपण, आर्थिक ओढग्रस्तता.. सगळंच माझ्या मनातल्या संशयाला पुष्टी देणारंच होतं. पण तो संशयाचा कांटा मनात रुतण्यापूर्वीच मी क्षणार्धात उपटून तो दूर भिरकावून दिला. नाही… सुजाता असं कांही करणं शक्य नाही… ! मी माझ्या मनाला बजावून सांगितलं. पण तरीही ते साडेआठशे रुपये गेले कुठं हा प्रश्न मात्र माझं मन कुरतडत राहिला.

“सुहास, इतर कुठल्यातरी रिसीटमधे चूक असेल.. काहीतरी गफलत असेल. त्या कॅशमधे चूक असणं शक्यच नाही… “

“सगळ्या रिसिटस् दोन दोनदा चेक करून खात्री करून घेतलीय सर. सगळं बरोबर होतं. त्यादिवशी सगळेजण खूप उशीरपर्यंत याच व्यापात होतो. पण आता काळजीचं कांही कारण नाहीय सर. त्या संध्याकाळी आम्ही प्राॅब्लेम साॅल्व्ह करुन मगच घरी गेलो सर. आता प्रॉब्लेम मिटलाय. पैसेही वसूल झालेत. “

मी दचकून बघतच राहिलो क्षणभर.

“प्रॉब्लेम मिटलाय? पैसे वसूल झालेत?म्हणजे?कसे?कुणी भरले?”

“मी ‘लिटिल् फ्लाॅवर’ला त्याच दिवशी संध्याकाळी फोन करून सांगितलं सर. तुम्ही मीटिंगसाठी कोल्हापूरला गेलायत हेही सांगितलं. त्यांनी लगेच पैसे पाठवले सर. “

ऐकून मला धक्काच बसला. काय बोलावं, कसं रिअॅक्ट व्हावं समजेचना. मिस् डिसोझांना फोन करण्यासाठी रिसिव्हर उचलला खरा पण हात थरथरू लागला. फोन न करताच मी रिसिव्हर ठेवून दिला.

माझ्या अपरोक्ष नको ते नको त्या पद्धतीने घडून गेलं होतं. सुहास गर्देने बाहेर जाऊन स्वतःचं काम सुरू केलं, पण जाताना त्याच्याही नकळत त्यानं मलाच आरोपीच्या पिंजऱ्यात उभं केलंय असंच वाटू लागलं. मी शांतपणे डोळे मिटून खुर्चीला डोकं टेकवून बसून राहिलो. पण स्वस्थता नव्हती.

माझ्या मिटल्या नजरेसमोर मला सगळं स्वच्छ दिसू लागलं होतं… ! हो. हे असंच घडणाराय.. !माझ्यासमोर उभं राहून मिस् डिसोझा संशयग्रस्त नजरेने माझ्याकडे पहातायत असा मला भास झाला… न्.. मी भानावर आलो. खुर्ची मागे सरकवून ताडकन् उठलो.

काहीतरी करायलाच हवं… पण काय? मन सून्न झालं होतं. काय करावं तेच सुचत नव्हतं. आणि.. आणि अचानक.. अस्वस्थ मनात अंधूक प्रकाश दाखवू पहाणारा एक धूसर विचार सळसळत वर झेपावला… आणि केबिनचं दार ढकलून मी बाहेर आलो…!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #251 – कविता – बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #251 ☆

☆ बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जीवन को जीने के

सुख-दुख को पीने के

सब के होते अपने अलग-अलग ढंग

जिये कोई बाहर, तो कोई अंतरंग।

नंगे भूखे रहकर भी कोई गा लेते

खुशियों को पा लेते

ऐशो-आराम जिन्हें

नहीं कोई काम जिन्हें

फिर भी बेचैन रहे

क्षण भर न चैन रहे

धेला-आना, पाई

रेत में खोजे रांई

जीवन पर्यंत लड़े, जीवन की जंग

जिए कोई बाहर, तो कोई अंतरंग।

ए.सी.कारों में बीमारों से, कर रहे भ्रमण

चालक इनके सरवण

बंद कांच सारे हैं

शंकित बेचारे हैं

ठाठ-बाट भारी है

फिर भी लाचारी है

है फरेब की फसलें

बिगड़ रही है नस्लें

बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग

जिए कोई बाहर तो कोई अंतरंग।

भुनसारे उठकर जो, देर रात सोते हैं

सपनों को ढोते हैं

खुशमिजाज वे भी हैं

खाने को जो भी है

खा लेते चाव से

सहज हैं स्वभाव से

ज्यादा का लोभ नहीं

खोने का क्षोभ नहीं

चेहरों पर मस्ती का दिखे अलग रंग

जिये कोई बाहर तो कोई अंतरंग।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 75 ☆ राम ने है देह त्यागी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “राम ने है देह त्यागी…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 75 ☆ राम ने है देह त्यागी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

फिर नदी के शांत जल में

राम ने है देह त्यागी ।

 

अब नहीं होता कोई

ऋषि आहत क्रोंच्च बध से

नहीं लिखता चरित मानस

अब कोई तुलसी अबध से

 

भोगती वनवास जनता

नहीं सम्मोहन से जागी।

 

प्रतीक्षा में हैं पड़ीं

उद्धार को शापित शिलाएँ

हारता पुरुषार्थ पल-पल

टूटतीं बस प्रत्यंचाएँ

 

फिर किसी हलधर जनक का

हो गया है मन विरागी।

 

नाभि कुंडों में भरा है

हर किसी रावण के अमृत

और शक्ति के पुजारी

कर रहे उनको ही उपकृत

 

भूमिजा भू में समायी

अयोध्या फिर हुई अभागी।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 79 ☆ गैर मुमकिन है हार हो तेरी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “गैर मुमकिन है हार हो तेरी“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 79 ☆

✍ गैर मुमकिन है हार हो तेरी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

यूँ बसर हमने ज़िन्दगीं की है

हर नफ़स गम से दोस्ती की है

 *

मैं न काफ़िर हूँ फिर भी तुझसे मिल

इश्क़ में तेरी वन्दगी की है

 *

ग़म ख़ुशी जो भी दो कबूल मुझे

मैंने शिद्दत से आशिक़ी की है

 *

मिट गई जेहल की अमावस्या

इल्म की जबसे रोशनी की है

 *

जीत कैसे चुनाव में मिलती

तुमने सौगात में कमी की है

 *

गैर मुमकिन है हार हो तेरी

तूने दिल से अगर सई की है

 *

आप को क्यों बुरा लगा इतना

बात उसने बड़ी खरी की है

 *

यूँ न बेकार बैठते ए अरुण

तुमने तालीम कागज़ी की है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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