(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य “एक-एक जुड़ शक्ति बढ़ेगी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 111 ☆
☆ एक-एक जुड़ शक्ति बढ़ेगी ☆
मैनेजमेंट के सिद्धांत देखने और सुनने में जितने सहज लगते हैं, उतने होते नहीं है। किसी को निकाल कर दूसरे को उसकी जगह दे देना जहाँ कुछ प्रश्न खड़े करता है तो वहीं लोगों में छुपी प्रतिभाओं को भी सामने लाता है। जब हम किसी के निर्देशन पर कार्य करते हैं तो ढाक के तीन पात की प्रक्रिया ही दिखाई देती है। इस सम्बंध में भगवान बुद्ध द्वारा अपने शिष्यों को सुनाई गयी ये कथा याद आती है कि नेक लोग बिखर जाएँ जिससे चारों ओर नेकी फैले जबकि दुष्ट इसी जगह बस जाएँ जिससे कटुता चारो ओर न फैले।
वैसे भी शीर्ष मैनेजमेंट यही चाहता है कि ज्यादा बुद्धिमान दूर ही रहे ताकि कोल्हू के बैल की तरह कार्य होता रहे। खैर ये सब तो चलता रहेगा। आम सदस्य से यही अपेक्षा की जाती है कि- आओ तो वेलकम जाओ तो भीड़ कम। आना- जाना तो प्रकृति का कार्य है। मौसम की तरह रंग रूप बदलकर स्वयं को निखारते हुए स्किल पर कार्य करते रहना चाहिए। जो भी कार्य हो उसमें कोई दूसरा सानी न हो इतना अभ्यास होना चाहिए। इस सबके साथ ही एक प्रश्न और अनायास दिमाग में दस्तक देता है कि क्या कारण है जो लोग कामचोर होते हैं उन्हें कोई क्यों नहीं हटाता?
इसका जबाव भी प्रश्नकर्ता खुद ही दे देता है कि सकारात्मक चिंतन करो, ज्यादा होशियारी मँहगी पड़ेगी। अपने काम से काम रखो। सही भी है आपको इज्जत और वेतन इसी लिए मिलता है कि कार्य पर फोकस हो न कि आने-जाने वालों पर। विस्तृत कार्यों की रूप रेखा का प्रबंधन करने हेतु सिद्धांतो का अनुसरण करना ही होगा। आप इतनी बड़ी लकीर खींचिए की लोग आपको रोल मॉडल मानकर चलें। कहते हैं एकता में बड़ी शक्ति होती है। लकड़ी के गठ्ठर को देखिए कैसे सिर पर सवारी करता हुआ एक से दूसरी जगह जाता है।
आइए एक- एक कदम बढ़ाते हुए एकजुटता के साथ चलें। साथ ही संकल्प लें कि दुनिया को श्रेष्ठ विचारों द्वारा अवश्य बदलेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – भरोसा उठ गया है।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
मुलांनी शब्दांच्या फटाक्यांची मोठीच्या -मोठी लड पेटवून आपल्या अंगावर फेकलीय, असं त्यांना वाटलं. वृद्धाश्रम ,….लाईफस्टाईल….. हक्काची नोकर….ओल्ड स्टफ..
व्हाय ओन्ली मी ?….हे काय चाललं होतं सगळ्यांचं? कानात शिशाचा गरम रस ओतणारे शब्द!…. त्यांना दरदरून घाम फुटला. झोपेतून जाग्या त्या केव्हाच झाल्या होत्या. पण आता त्यांना खरी जाग आली. तोंडावर गोड गोड बोलणारी, फोनवरून त्यांची खूप काळजीनं विचारपूस करणारी, ती हीच का आपली अपत्यं? त्यांना प्रश्न पडला. त्यांचं खरं रूप समोर आलं होतं. मुखवटा बदलणारी माणसं!… खरंतर केतकी स्वभावानं अशी नाही, पण भावंडांच्या नादानं ती पण त्यांच्यासारखंच बोलू लागलीय. सगळ्यांना दूर राहणारी आई हवी आहे.पण त्यांच्या घरात नकोय. तिचा सहवास त्यांना नकोय.
हॉलमध्ये जाण्यापूर्वी तोंडावर पाण्याचे हबके मारून त्या फ्रेश झाल्या. खरंतर मगाशी जे सगळं कानावर पडत होतं, तेव्हा डोळ्यातून अश्रू यायला हवे होते. अपमानाचं दुःख अनावर व्हायला हवं होतं… पण त्यांना जाणवलं की आपल्या डोळ्यातलं पाणीच आटून गेलय. हसरा इमोजी चेहऱ्यावर चढवून त्या बाहेर आल्या.
“अगं सांभाळून,. हातात काठी का नाही घेतलीस?.. अजून नीट बॅलन्सिंग होत नाहीये.” म्हणत केदार आधार द्यायला पुढे झाला.
‘आयुष्याचं बॅलन्सिंगच चुकलंय बेटा, आता मनाचा तोल सांभाळतच जगायचय’ त्यांच्या मनात आलं…. पण उघडपणे त्या म्हणाल्या,” किती भाग्यवान आहे मी. तुमच्यासारखी प्रेमळ, गुणी, मातृभक्त मुलं मला लाभलीत. छान गेले इथले दिवस. आजचा दिवस तर मी कधीच विसरणार नाही. खरंच आज मला कृतकृत्य झाल्यासारखं वाटतंय.”
दुसऱ्या दिवशी हॉस्पिटलमधून परतताना त्यांनी निश्चयच केला, आता लवकरात लवकर खऱ्या अर्थाने स्वतःच्या पायावर उभं रहायचं. कितीही जड वाटत असलं तरी नातीत गुंतलेलं आपलं मन… आणि आपलं सामान दोन्ही आवरायला त्यांनी सुरुवात केली.
“आई, फिजिओला कोणती वेळ देऊ?” केतकी प्रेमळपणे(?) विचारत होती. “नाही- नको, मी आता गावी परतावं म्हणतेय. आता औषधाचा मारा पण थांबलाय आणि हॉस्पिटलच्या चकरा पण”… त्यांनी दृढनिश्चयानं सांगून टाकलं.
“अगं एवढ्यात ? रहा नं अजून थोडे दिवस. तू गेलीस की आम्हा तिघांनाही अजिबात करमणार नाही. केतकीच्या नाटकी आग्रहाकडं त्यांनी लक्ष दिलं नाही.
गावी येऊन पोहोचल्या. त्यांना आठवलं ते जातानाचं एवढं मोठं सामान…. सगळ्यांच्या आवडीनिवडी लक्षात घेऊन केलेले तर तऱ्हेचे खाद्यपदार्थ… मसाले, लोणची, पापड..आणखी कायबाय… खूप काही… आणि त्याच्या दुप्पट आकाराचं उत्साह आणि प्रेमानं भरलेलं मन…. पण आता मन पण रितं आणि हात पण!
ठरवल्याप्रमाणे स्टेशनवर सीमा घ्यायला आली होती. तसं पाहिलं तर ती समोरच्या केळकर वहिनींची सून पण दोघीत अगदी सख्ख्या बहिणींगत घट्ट नातं! ड्राईव्ह करता करता सीमाची बडबड पण चालू होती,” बरं झालं ताई तू आलीस. आता दोन-तीन महिन्यात तुला आपली तब्येत घट्ट मुट्ट करायची आहे. अबोलीच्या लग्नाची सगळी महत्त्वाची जबाबदारी मी तिच्या लाडक्या विभा मावशीवर टाकणार आहे… बरं ,घर शेवंता कडून चकाचक करून घेतलंय. दोन महिन्यांसाठी डबेवाला पण ठरवून ठेवलाय. फिजिओची अपॉइंटमेंट घेऊन ठेवलीय. आणखी काही लागलं तर मॅडम, सेवेला मी हजर आहेच.”
विभाताईंना खूप हसू आलं, “अगं, हो- हो, जरा दमानं घे.. आता इथेच राहणार आहे मी. आणि तू जवळ असताना मला गं कसली काळजी?”अगदी निश्चिंतपणे त्या म्हणाल्या. स्वतःच्या हक्काच्या घरात येऊन त्यांनी मोकळा श्वास घेतला. पुढचे काही दिवस त्यांच्या घरात खूप वर्दळ होती. मैत्रिणी, फॅमिली फ्रेंड्स.. सगळे आवर्जून आले .फोनवरूनच आपुलकीने विचारून त्यांना कशाची गरज आहे ते ते घेऊन आले. आपल्या फ्रॅक्चर झालेल्या पायाचं वर्णन, मुलांचं, नातवंडांचं तोंड भरून कौतुक करत…. त्या हसत हसत बोलत होत्या पण त्यांचं मन आतून खदखदत होतं.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय अप्रतिम रचना “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो…”।)
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)
☆ व्यंग्य # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सत्र याने सेशन जो पोस्ट का भी होता है और प्रशिक्षण कार्यक्रम का भी. इस बीच भी एक अल्पकालीन टी ब्रेक होता है जो भागार्थियों याने पार्टिसिपेंट्स को अगली क्लास के लिये ऊर्जावान बनाता है. होमोजीनियस बैच जल्दी घुल मिल जाते हैं क्योंकि उनका माईंडसेट, आयु वर्ग, अनुभव और लक्ष्य एक सा रहता है. भले ही ये लोग आगे भविष्य में पदों की अंतिम पायदान पर एक दूसरे से कट थ्रोट कंपटीशन करें पर इन सब का वर्तमान लगभग एक सा रहता है, सपने एक से रहते हैं प्लानिंग एक सी रहती है और रनिंग ट्रेक भी काफी आगे तक एक सा ही रहता है. यही बैच के साथ बहुत सी बातों का एक सा होना बाद में, कहीं आगे बढ़ जाने की संतुष्टि या पीछे रह जाने की कुंठा का जनक भी होता है. पर शुरुआत की घनिष्ठता का स्वाद ही अलग होता है जो स्कूल और कॉलेज के क्लासमेट जैसा ही अपनेपन लिए रहती है. एक ही बैच से प्रमोट हुये लोग बाद में भी विभिन्न प्रशिक्षण केंद्रों में टकराते रहते हैं पर यह टकराव ईगो का नहीं, सहज मित्रता का होता है. ये अंतरंगता, व्यक्ति से आगे बढ़कर परिवार को भी समेट लेती है जो विभिन्न पारिवारिक और सांस्कृतिक आयोजन में भी दृष्टिगोचर होती रहती है. इस सानिध्य और नज़दीकियों को उसी तरह सहज रूप से देखा जाना चाहिए जैसा विदेशों में, हमवतनों का साथ मिलने पर जनित घनिष्ठता में पाया जाता है.
दूसरे प्रशिक्षणार्थी विषम समूह के होते हैं जो विभिन्न तरह के असाइनमेंट संबंधित या कार्यक्रम संबंधित सत्र अटेंड करने आते हैं. इस बैच के आयुवर्ग की रेंज बड़ी होती है जो कभी कभी टीवी सीरियल्स के पात्रों के समान भी बन जाती है जहाँ अंकल और भतीजे एक साथ, एक ही क्लास में पढ़ते हैं. इनमें आयु, सेवाकाल, माइंडसेट, और प्रशिक्षण को सीरियसली लेने के मापदंड अलग अलग होते हैं. हर व्यक्ति अपने आपको वो दिखाने की कोशिश करता है जो अक्सर वो होता नहीं है और दूसरी तरफ पर्देदारी भी नज़र आती है. इनका मानसिक तौर पर एक होना, तराजू पर मेंढकों को तौलने के समान हो जाता है पर ये मेंढक भी मधुशाला में हिट आर्केस्ट्रा के वादक बन जाते हैं. इनकी महफिलों की तनातनी भी अगर हुई भी तो अगले दिन के लंच तक खत्म हो जाती है क्योंकि तलबगार तो सीमित ही रहते हैं जिनकी सहभागिता शाम को ज़रूरी बन जाती है. इनके पास खुद के किस्से भी इतने रहते हैं कि सभासदों को इनकी संगत की आदत पड़ जाती है. जब कोई एक, महफिलों में अपने बॉस की बधिया उधेड़ रहा होता है तो श्रोताओ को उसमें अपना बॉस नज़र आने लगता है और “ताल से ताल मिला” गाना चलने लगता है.
अब तो वाट्सएप का दौर है वरना प्रशिक्षण कार्यक्रमों में व्यक्ति कुछ पाये या न पाये, उसके पास जोक्स का स्टाक जरूर बढ़ जाता था. कुछ कौशल सुनाने वालों का भी रहता था कि इनकी चौपाल हमेशा खिलखिलाहटों से गुलज़ार रहती थीं. अपनी दिलकश स्टाइल में हर तरह के जोक्स सुनाने वाले ये कलाकार धीरे धीरे विशेष सम्मान के पात्र बन जाते थे और इनके साथ कभी कभी एक बार भी प्रशिक्षण पाने वाले हमेशा इनको याद रखते थे.
प्रारंभिक दो सत्र के बाद एक घंटे का लंच अवर होता था जो पूरे बैच को 1947 के समान दो भाग में विभाजित कर देता था. पर ये विभाजन धर्म के आधार पर नहीं बल्कि आहार के आधार पर होता था सामिष और निरामिष याने वेज़ और नॉन वेज़. पहले ये सुविधा रात्रिकालीन होती थी पर केंद्र में कुछ अनुशासन भंग की घटनाओं के कारण मध्याह्न में उपलब्ध कराई जाने लगी. पर यह बात ध्यान से हट गई कि नॉनवेज आहार के बाद नींद के झोंके अधिक तेज़ गति से आते हैं.
पोस्ट लंच सेशन सबसे खतरनाक सेशन होता है जब सुनाने वालोँ और सुनने वालों के बीच ज्ञान की देवी सरस्वती से ज्यादा निद्रा देवी प्रभावी होती हैं. ये सुनाने वालों के कौशल की भी परीक्षा होती है जब उन्हेँ सुनाने के साथ साथ जगाने वालों का दायित्व भी वहन करना पड़ता है. वैसे यह भी एक शोध का विषय हो सकता है कि सुनाने वालों को क्या नींद परेशान नहीं करती. जितनी अच्छी नींद का आना इस सत्र में पाया जाता है, रिटायरमेंट के बाद व्यक्ति बस वैसी ही नींद की चाहत करता है. जब आपकी यात्रा में लेटने की सुविधा न हो तब भी यही नींद कमबख्त, अपना रोद्र रूप दिखाती है. प्रशिक्षक की निष्ठुरता यहीं पर दिखाईवान होती है. “अरे सर, कौन सा इनको याद रहता है जो आप इनकी अर्धनिद्रा में सुनाने की कोशिश करते हैं”. इनको तो आगे जाकर सब भूल ही जाना है. प्रशिक्षु सब भूल जाता है पर ये पोस्ट लंच सेशन हमेशा उसकी यादों में जागते रहते हैं. कुछ महात्मा, फोटोसन ग्लास पहन कर भी क्लास अटैंड करके नींद का मजा लेना शुरु करते थे पर खर्राटे सब भेद खोल देते हैं. अनुभवी पढ़ाने वाले गर्दन के एंगल और शरीर के हिलने डुलने से भी समझ जाते हैं कि विद्यार्थी, ज्ञानार्जन की उपेक्षा कर निद्रावस्था की ओर बढ़ने वाला है तो वे उसे आगे बढ़ने से किसी न किसी तरह रोक ही लेते हैं.
प्रशिक्षण सत्र जारी रहेगा, अतःपढ़कर सोने से पहले लाईक और/या कमेंट्स करना ज़रूरी है.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २५- भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
कारीबू केनिया
मसाई लोकांचे छोटे घर बघायला गेलो. अगदी कोंदट, अंधारी जागा होती. त्यातच गवताचे पार्टिशन घातले होते. एका बाजूला मधोमध पेटती चूल व चुलीच्या दोन्ही बाजूंना झोपण्यासाठी मातीचे कट्टे होते. एका कट्ट्यावर छोटी मुलं व दुसऱ्या कट्ट्यावर आई-बाबा अशी झोपायची व्यवस्था होती. मागच्या भिंतीला छोटासा झरोका होता. जेवणासाठी लाकडी भांडी होती. जरा मोठी झालेली मुलं गवती पार्टिशनच्या पलीकडे अथवा आपल्या दुसऱ्या आयांकडे झोपतात. बाहेर आल्यावर तिथल्या पुरुषाने सिडार वृक्षाच्या लाकडावर सॅ॑डपेपर वूड घासून अग्नी तयार करून दाखविला.
बाजार बघायला गेलो. तिथे मण्यांच्या माळा, बांगड्या, लाकडी कंगवे, टोपल्या, मातीचे प्राणी, रंगविलेली बाउल, त्यांनी गुंडाळली होती तसली कापडं विकायला ठेवली होती. थोडी दूर असणारी नदी म्हणजे खळाळत वाहणारा गढूळ पाण्याचा ओढा होता. इथे अंघोळ, कपडे धुणे वगैरे चालते.
‘मसाई’ हाच मसाई लोकांचा धर्म आहे. प्राचीन परंपरांची जोखडं आपल्या खांद्यावरून उतरवायला ते तयार नाहीत. एका पुरुषाला कितीही लग्ने करण्याचा अधिकार आहे. मसाई स्त्रीचे आयुष्य अत्यंत कष्टप्रद आहे. स्त्री सतत बाळंतपणाच्या चक्रातून जात असते. त्यामुळे स्त्रिया कुपोषित, मुले कुपोषित व बालमृत्यूचे प्रमाणही अधिक आहे. जितकी अधिक मुले तितकी अधिक श्रीमंती अशी समजूत आहे.
पहाटे सुरू होणारा मसाई स्त्रीचा दिवस, मध्यरात्र झाली तरी संपत नाही. एकेका स्त्रीला पंधरा-पंधरा गाईंचे दूध काढावे लागते. दूध हे तिथले मुख्य अन्न आहे. कुटुंबातील सर्वांचे दूध घेऊन झाले की उरलेले दूध स्त्रीच्या वाट्याला येते.तिला लांबवर जाऊन डोक्यावरून पिण्याचे पाणी आणावे लागते. जंगलात जाऊन चुलीसाठी लाकूडफाटा गोळा करणे हे तिचेच काम! त्यावेळी जंगलातील हत्ती, रानटी म्हशी, सिंह, साप यांची भीती असते. एका वेळी ३०-४० किलो सरपण तिला आणावे लागते कारण घर उबदार ठेवणे आणि घरातला अग्नी सतत पेटता ठेवणे ही तिचीच जबाबदारी! राख, चिखल, गवत वापरून घर बांधण्याचे, गळके घर दुरुस्त करण्याचे कामही स्त्रियाच करतात. स्वयंपाक करणे, घर सारवणे, कपडे धुणे, गाई धुणे, गाभण गाईंवर, आजारी गाईंवर लक्ष ठेवणे, परंपरागत झाडपाल्याची औषधे गोळा करणे, कधी लांबच्या बाजारात जाऊन गाय देऊन मका, बीन्स, बटाटे खरेदी करणे अशी तिची खडतर दैनंदिन असते. भरीला नवऱ्याची मारझोडही असतेच.
एवढ्या मालमत्तेची देखभाल केली तरी या मालमत्तेवर मसाई स्त्रीचा कोणताही हक्क नसतो. त्या समाजात घटस्फोट मान्य नाही. स्त्रीचे परत लग्न होत नाही. नवऱ्याच्या अनेक बायकातील एक आणि मुलांना जन्म देणारी असे तिचे स्थान आहे. जेवणात गाई, शेळ्या- मेंढ्या यांचे मांस वापरले जाते. मारलेल्या जनावरांचे मांस, हाडे, कातडी यांची नीट व्यवस्था तिला करावी लागते. या साऱ्यातून वेळ काढून ती हौसेने स्वतःसाठी, मुलांसाठी व नवऱ्यासाठीसुद्धा मण्यांच्या, खड्यांच्या माळा बनविते. ब्रेसलेट, बांगड्या, कानातले दागिने बनविणे हे उद्योगसुद्धा करते. एवढेच नाही तर दर दहा वर्षांनी स्थलांतर केले जाते त्याचीही जबाबदारी तिच्याकडेच असते.
आजही अनेक अघोरी प्रकार तिथे पाहायला मिळतात. आठवड्यातून एकदा एका गायीच्या मानेजवळील शीर कापून तिचे रक्त दुधात घालून सर्वांनी घेण्याची प्रथा आहे. त्या गाईच्या जखमेवर झाडपाल्याचे औषध लावून तिला नंतर रानात सोडून देतात. आणखी एक अघोरी प्रथा म्हणजे मुली ११ ते १३ वर्षांच्या असताना म्हणजेच त्या वयात येताना त्यांचा योनीविच्छेद(Female circumcision ) करण्यात येतो. म्हणजे स्त्रीच्या योनीतील लैंगिक अवयव थोडा अथवा पूर्णपणे काढून टाकण्यात येतो. हे काम इतर स्त्रिया धारदार शस्त्राने, कसलीही भूल वगैरे न देता करतात. त्यावेळी जी मुलगी ओरडेल ती भित्री समजली जाते. स्त्रीची कामेच्छा कमी व्हावी या हेतूने ही पूर्वपार चालत आलेली प्रथा आहे. यात जंतुसंसर्ग होऊन, अतिरक्तस्त्राव होऊन किती स्त्रियांचा बळी जात असेल ते त्या मसाईनाच माहित!
नैरोबीला एका हॉटेलच्या आवारात एक सरळसोट उंच, हिरवा, जाड बुंध्याचा वृक्ष आणि त्याला अगदी लगटून वाढलेले फड्या निवडुंगाचे उंच झाड वेगळे वाटले म्हणून कुतूहलाने बघत मी उभी होते. तेंव्हा तिथल्या वेटरने माहिती दिली की या मोठ्या झाडाने त्या फड्या निवडुंगालाच आपले खाद्य बनविले आहे. परत नीट बघितल्यावर लक्षात आले की त्या निवडुंगाच्या काट्यासकट दोन फांद्या अर्ध्या- अर्ध्या संपल्या आहेत. असं वाटलं की मसाई जमातीतील अमानुष प्रथा, परंपरा, रुढी यांच्या राक्षसी झाडाने मसाई स्त्रीची काटेरी वाटसुद्धा गिळून टाकली आहे. तिचा जीवनरस शोषून घेतला आहे.
सरकारतर्फे मसाईंना समाजाच्या मुख्य प्रवाहात आणण्यासाठी अनेक प्रयत्न करण्यात येतात. त्यांच्या वसाहतीला जवळ पडेल अशी शाळा बांधण्यात येते. मुलींना शाळेत न पाठविल्यास तुरुंगवासाची शिक्षा आहे. प्रत्यक्षात आम्ही पाहिले तेंव्हा मुली लहान भावंडांना सांभाळीत होत्या आणि शाळेतून नुकताच परत आलेला, समुहप्रमुखाचा युनिफॉर्ममधील मुलगा छान, स्वच्छ, चुणचुणीत वागत- बोलत होता. त्यांच्यातील काही धडपड्या महिलांनी अनेक कष्ट, हाल- अपेष्टा, पुरुषांचा मार सोसून शिक्षण घेतले आहे. आपल्या व्यथा, आपल्यातील वाईट प्रथा उघड्या केल्या आहेत. स्वयंसेवी संस्थांच्या मदतीने काही काम सुरू केले आहे. मसाई स्त्रियांना भाजीपाला, फळे लावायला शिकविणे, शिवण शिकविणे, लिहा- वाचायला शिकविणे, प्राथमिक आरोग्याचे शिक्षण देणे अशी त्यांची अनेक उद्दिष्टे आहेत. अशा प्रकारच्या शिबिरांमध्ये रेडक्रॉसचे डॉक्टर कुटुंब नियोजनाच्या गोळ्या देतात. आपली बायको असे औषध वापरत आहे हे नवऱ्याच्या लक्षात आल्यास तिला अमानुष मार पडतो.
नुसत्या भाल्याने सिंहाची शिकार करणारे मसाई पुरुष अजून तरी बाह्य जगाच्या दबावाला पुरेसा प्रतिसाद देत नाहीत. सरकारलाही थोडे त्यांच्या कलाने घ्यावे लागते. स्वतःचे आरामशीर, आळशी आयुष्य सोडायला मसाई पुरुष सहजासहजी तयार होणार नाहीतच. जर त्यांच्या मुलांना चांगल्या शिक्षणाच्या संधी मिळाल्या तर कालांतराने मसाई स्त्रीचे जीवन सुसह्य होऊ शकेल.
केनियामधील दुसऱ्या एका लॉजच्या कंपाउंडला षटकोनी लांबट आकाराचा, निवडुंगाचा खूप मोठा जाड बुंधा असलेला वृक्ष बघायला मिळाला. त्याच्या शेंड्यावर पिवळट फुलांचे मोठे गुच्छ आले होते. गाईड म्हणाला की या झाडावर पंचवीस- तीस वर्षांनी अशी फुलं येतात. मसाई स्त्रीच्या काटेरी वाटेवर काही वर्षांनी तरी आनंदाची फुलं फुलतील का? मसाई स्त्रियांच्या वाट्याला आलेले दुर्दैवी जीवन बघून खिन्न मनाने त्यांचा निरोप घेतला.