(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित “~ सॉनेट ~ तुलसी ~”)
साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत
(विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)
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अखिल भारतीय कला मंदिर के अध्यक्ष श्री गौरीशंकर द्वारा महापौर मालती राय के साथ साहित्यिक उद्यान के प्रारूप पर विशद चर्चा। ज्ञात हो कि कलामंदिर के वार्षिक साहित्यिक अलंकरण समारोह के अवसर पर मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री श्री विश्वास सारंग ने साहित्यकारों के लिये “साहित्यिक पार्क की उद्घोषणा की थी।
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‘लघुकथा शोध संस्थान, भोपाल द्वारा कांता राय के निर्देशन में प्रायोजित ‘पुस्तक पखवाड़े’ में चौदह साहित्यकारों की पुस्तकों पर समीक्षात्मक चर्चा की जा चुकी हैं जिनके रचनाकार हैं, उर्मिला शिरीष ,अशोक भाटिया, अरूण अर्नवखरे, राजनारायण बोहरे, बलराम धाकड़, पद्मा शर्मा, कुमार सुरेश ,द्विजेन्द्र कुमार संगत, संतोष दुबे, मुकेश वर्मा एवं मधुलिका सक्सेना ।
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प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘पत्रिका ‘में साहित्य के सितारे नामक स्तंभ में मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत साहित्यकार अर्जुनदास खत्री ,गोकुल सोनी और घनश्याम मैथिल का विस्तृत परिचय का प्रकाशन हुआ ।
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साहित्यिक संवाद समूह द्वारा तात्कालिक गजल प्रतियोगिता में हरिवल्लभ शर्मा ने प्रथम स्थान प्राप्त किया ।
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लेखिका संघ के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम ‘आनलाइन ज्ञान’ में संयोजक अनीता सक्सेना के निर्देशन में “प्रकाशन हेतु रचना कैसे भेजे “ विषय पर चर्चा की गई ।चर्चाकार थी ‘बालभास्कर’ की संपादिका इंदिरा त्रिवेदी ,।इस परिचर्चा में 3o लेखिकाओं ने भाग लिया ।
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साभार – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश)
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “चेहरा मोहरा पहनावा सजधज महज़ छल…”।)
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। जिंदगी चल कि अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 48 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।। जिंदगी चल कि अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “जलने वाले दीपों की व्यथा …” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #114 ☆ ग़ज़ल – “’जलने वाले दीपों की व्यथा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
बहुतों को जमाने में अपनी किस्मत से शिकायत होती है
क्योंकि उनका उल्टा-सीधी करने की जो आदत होती है।।
जलने वाले दीपों की व्यथा लोगों की समझ कम आती है
सबको अपनी औ’ अपनों की ही ज्यादा हिफाजत होती है।।
नापाक इरादों को अपने सब लोग छुपाये रखते हैं
औरों की सुहानी दुनियां को ढाने की जहालत होती है।।
अनजान के छोटे कामों की तक खुल के बड़ाई की जाती
पर अपने रिश्तेदारों से अनबन व अदावत होती है।।
कई बार किये उपकारों तक का कोई सम्मान नहीं होता
पर खुद के किये गुनाहों तक की बढ़चढ़ के वकालत होती है।।
अपनी न बता औरों की सदा ताका-झांकी करते रहना
बातों को बताना बढ़चढ़ के बहुतों की ये आदत होती है।।
केवल बातों ही बातों से बनती है कोई बात नहीं
बनती है समय जब आता औ’ ईश्वर की इनायत होती है।।
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों में जाने से मिला भगवान कहाँ ?
मिलते हैं अकेले में मन से जब उनकी इबादत होती है।।
जो लूटते औरों को अक्सर एक दिन खुद ही लुट जाते हैं
दौलत तो ’विदग्ध वहाँ बसती जिस घर में किफायत होती है।।
(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है । देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)
साहित्य की दुनिया से अब कोई क्षेत्र अछूता नहीं रहा । साहित्य हमारे समाज का ऐसा आइना है जो सीसीटीवी की तरह सब कुछ सामने रख देता है । हमें अपने वरिष्ठ साहित्यकारों को सदैव स्मरण करते रहना चाहिए । जिन पीढ़ियों ने अपने साहित्यकारों को स्मरण किया वे सराहनीय हैं । अनिता राकेश ने मोहन राकेश को सदैव याद करवाया तो गगन गिल भी निर्मल वर्मा को स्मरण करते कोई न कोई कार्यक्रम रखती हैं । राजेंद्र यादव को उनकी बेटी रचना यादव हर वर्ष साहित्यिक आयोजन कर याद करती हैं । इसी क्रम में पिछले दिनों दो कार्यक्रम हुए जिनका उल्लेख बहुत जरूरी है ।
धर्मवीर भारती :धर्मयुग के झरोखे से : धर्मयुग पत्रिका के यशस्वी संपादक और खुद श्रेष्ठ लेखक धर्मवीर भारती को मुम्बई में व्यंग्य यात्रा के संपादक डाॅ प्रेम जनमेजय व धर्मवीर भारती की धर्मपत्नी डाॅ पुष्पा भारती ने स्मरण किया एक पुस्तक का विमोचन कर व दो रचनाकारों को सम्मानित कर । दोनों रचनाकार तो उनके साथ काम ही करते थे –आबिद सुरती जिनका धर्मयुग में बिल्कुल अंत में ढब्बू जी बहुत लोकप्रिय कार्टून कोना था । दूसरे धर्मयुग में ही सहायक संपादक और आजकल नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव हैं । पुस्तक का विमोचन किया गया –धर्मवीर भारती, धर्मयुग के झरोखे से, जिसमें धर्मयुग के स्वर्णकाल की स्वर्णिम यादों को अनेक लेखकों ने संस्मरणों के रूप में लिखा है जिसका संपादन डां प्रेम जनमेजय ने किया है और मुम्बई के ही प्रलेक प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है । यह बहुत ही उचित और सही तरीका है ऐसे यशस्वी संपादक को याद करने का ! वैसे डाॅ प्रेम जनमेजय अपने गुरु डाॅ नरेंद्र कोहली को भी ऐसे ही याद करते हैं ।
सिरसा में पूरन मुद्गल को याद किया : हरियाणा के सिरसा में भी पच्चीस दिसम्बर को ऐसे ही चर्चित रचनाकार पूरन मुद्गल को उनके परिवार की ओर से साहित्यिक आयोजन कर स्मरण किया गया । पूरन मुद्गल हरियाणा के ऐसे रचनाकार रहे जो न केवल लघुकथा बल्कि संस्मरणों की पुस्तक -शब्द के आठ कदम के लिए चर्चित रहे । उनकी बड़ी बेटी डाॅ शमीम शर्मा उनकी ही प्रेरणा से लेखिका बनीं और लघुकथा के हस्ताक्षर जैसा संकलन दिया और हास्य-व्यंग्य भी लिखती हैं । सिरसा के युवक साहित्य सदन में भगत सिंह के विचारों की सान पर आज का भारत व्याख्यान का आयोजन किया गया क्योंकि पूरन मुद्गल भगत सिंह के विचारों से बहुत प्रभावित थे । एम एम जुनेजा को आमंत्रित किया गया था । अध्यक्षता स्वर्ण सिंह विर्क ने की और हरभगवान चावला का कविता पाठ । वीरेंद्र भाटिया ने पूरन मुद्गल मेरी नजर में के माध्यम से परिचय दिया तो बेटी डाॅ शमीम शर्मा व विशाल वत्स रहे इस आयोजन के पीछे ! यह आयोजन हर वर्ष होता है । यह आयोजन होता रहे ।
साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी
(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सौ ज्योत्स्ना तानवडे यांच्या संकल्पनेतून साकारलेलला *’देव’माणूस हा स्मृति संग्रह नुकताच वाचनात आला आणि त्याविषयी आवर्जून लिहावं असं वाटलं म्हणून —
सौ. ज्योत्स्ना तानवडे यांनी अत्यंत कृतज्ञतापूर्वक भावनेने, त्यांचे परमपूज्य वडील कै. श्री. बाळकृष्ण अनंत देव तथा श्री आप्पासाहेब देव, माळशिरस. यांच्या जन्मशताब्दी वर्षाच्या निमित्ताने या पुस्तक रूपाने एक आगळीवेगळी श्रद्धांजली त्यांना अर्पण केली आहे.
‘देव’माणूस ही स्मरणपुस्तिका आहे आणि या पुस्तकात जवळजवळ ५८ हितसंबंधितांनी कै. आप्पासाहेब देव यांच्या आठवणींना उजाळा दिला आहे.
ही भावांजली वाचताना कै. आप्पासाहेब देव या महान, ऋषीतुल्य, समाजाभिमुख, लोकमान्य व्यक्तीचे अलौकिक दर्शन होते. वास्तविक तसे म्हटले तर ही स्मरणपुस्तिका सौ. ज्योत्स्ना तानवडे यांचा समस्त परिवार, नातेवाईक, स्नेही, मित्रमंडळी अथवा त्यांच्या संबंधितांतल्या व्यक्तींचा स्मृती ठेवा असला तरी माझ्यासारख्या अनोळखी व्यक्तींसाठी सुद्धा हे पुस्तक जिव्हाळ्याचे ठरते हे विशेष आहे. अर्थातच त्याचे कारण म्हणजे या सर्वांच्या आठवणींच्या माध्यमातून झिरपणाऱ्या एका अलौकिक व्यक्तीच्या दिव्यत्वाच्या प्रचितीने खरोखरच आपलेही कर सहजपणे जुळले जातात. हा देवमाणूस सर्वांचाच होऊन जातो.
नित्य स्मरावा!
उरी जपावा !!
मनी पूजावा !!!
अशीच भावना वाचणाऱ्यांची होते. म्हणूनच हे पुस्तक केवळ त्यांच्याच परिवाराचे न उरता ते सर्वांचेच होते.
नावातही देव आणि व्यक्तिमत्वातही देवच म्हणून हा ‘देव’माणूस!कै. बाळकृष्ण अनंत देव* तथा आप्पासाहेब देव यांचा २९/०५/१९२२ ते १५/०२/१९८८ हा जीवन काल. त्यांचे बाळपण, वंशपरंपरा, शालेय जीवन, जडणघडण, सहजीवन, पारिवारिक, व्यावसायिक, सामाजिक जीवनाविषयीचा त्यांच्या कुटुंबीयांनी आणि संबंधितांनी स्मृतिलेखनातून घेतलेला हा आढावा अतिशय वाचनीय, हृद्य आणि मनाला भारावून टाकणारा आहे.
सोलापूर जिल्ह्यातल्या माळशिरस या गावी स्थित राहून वकिलीचा पेशा सांभाळून स्वतःच्या समाजाभिमुख, कलाप्रेमी, धार्मिक वृत्तीने गाव आणि गावकरी यांच्या विकासासाठी अत्यंत तळमळीने झटणाऱ्या, धडपडणाऱ्या एका लोकप्रिय अनभिषिक्त राजाची, लोकनेत्याची एक सुंदर कहाणी, निरनिराळ्या व्यक्तींनी सादर केलेल्या आठवणीतून साकार होत जाते.
सौ.ज्योत्स्ना तानवडे
वडिलांच्या आठवणीत रमलेली ज्योत्स्ना लिहिते, “…तुमचे व्यक्तिमत्व होतेच चतुरस्त्र! किती रुपे आठवावी तुमची! वकिली कोट घालून कोर्टात बाजू मांडणारे तुम्ही, शाळेत झेंडावंदन करणारे! सोवळे नेसून खणखणीत आवाजात महिम्न म्हणणारे तुम्ही, पांढरा पोषाख, कपाळी बुक्का, गळ्यात टाळ घालून वारीत अभंग म्हणणारे तुम्ही,. मुलांनातवंडांच्या गराड्यात,चांदण्यात ओसरीवर पेटी वाजवणारे, कटाव गाणारे तुम्ही… तुमचे व्यक्तिमत्व खूपच खास होते…”
मोहिनी देव त्यांची सून सांगते,
” मला आयुष्यात कुठल्याही गोष्टीचा अभिमान वाटला नाही. वाटला फक्त ती. आप्पासाहेब यांची सून म्हणवून घेण्याचा…”
आप्पासाहेब एक दुर्मिळ व्यक्तिमत्व, एक आधुनिक धर्मात्मा, एक देव माणूस, एक स्वयंभू व्यक्तिमत्व, एक ऊर्जा स्त्रोत, अनाथांची माऊली, अशी भावपूर्ण संबोधने देऊन अनेकांनी त्यांना भावांजली अर्पण केली आहे. ते वाचताना मन हरखून जाते.
मोहन पंचवाघ त्यांच्याबद्दल म्हणतात,
“… त्यांचा पहाडी आवाज, बुद्धिमत्ता, कोर्ट कामाची एकूणच पद्धती यामुळे अख्ख्या माळशिरस मध्ये त्यांचा दरारा, दबदबा, वचक होता. पण त्यांच्याबद्दल सर्वांच्या मनात आदरयुक्त भावना होती. त्यांच्याकडे समस्या घेऊन जाणारी व्यक्ती कधीही विन्मुख परत गेली नाही….”
मदन भास्करे म्हणतात,
” असंख्य पक्षकारांना धीर आणि न्याय देण्याचे महान पुण्य कर्म आप्पासाहेबांनी जीवनभर केले. कित्येकांकडून त्यांनी एक पैसाही फी म्हणून घेतली नाही. उलट कोर्ट फी सुद्धा वेळ आली तर ते स्वतःच भरत. असा हा महात्मा!….”
सर्वांच्या स्मृती लेखनामध्ये उत्स्फूर्तपणा जाणवतो. अत्यंत जिव्हाळ्यांने, आपलेपणाने आणि प्रामाणिकपणे व्यक्त झालेली शुद्ध मने इथे आढळतात. म्हणून हे पुस्तक म्हणजे विचारांची, आचारांची, संस्कारांची चालती बोलती गाथाच वाटते.
या पुस्तकात एका आदर्श व्यक्तीची कहाणी वाचत असताना, अदृश्यपणे त्यांच्या पाठीशी सावलीसारखी वावरणारी एक दिव्य व्यक्ती म्हणजे कै. मालतीबाई देव— या लोकनायकाची सहचारिणी. एक सुंदर, हसतमुख, प्रसन्न, कलाप्रेमी, सुसंस्कृत, धार्मिक, पतीपरायण, सामाजिक जाणीवा जपणारी, सुगरण आणि सुगृहिणी. अनेक भूमिकांतून व्यक्त होणारं, *सौ. मालतीबाई देव हे व्यक्तिमत्वही तितकच मनावर बिंबतं . आणि प्रत्येकाच्या आठवणीतून त्याचा उल्लेख झाल्याशिवाय राहात नाही.एक शून्य पुढे टाकल्यानंतर संख्येची किंमत जशी वाढते तद्वतच *कै. मालतीबाई देव यांचं अस्तित्व कै. आप्पासो देव यांच्या जीवनात होतं.
हे पुस्तक वाचून झाल्यावर मी ज्योत्स्नाला म्हटले,
“ही स्मरणपुस्तिका केवळ तुमच्या पुरती नसून ती परिचित अपरिचित सर्वांसाठीच, आपली वाटणारी आहे”
हे स्मरण पुस्तक प्रसिद्ध करण्यामागे ज्योत्स्नाची भूमिका, पुढच्या पिढीला या आदर्श व्यक्तिमत्त्वांची सदैव ओळख रहावी आणि त्यातून त्यांचीही मने संस्कारित व्हावीत ही तर आहेच. पण आज आपण समाजातलं जे तुटलेपण, संवादाचं, नात्यांचं हरवलेपण अनुभवत आहोत त्यासाठीही अशा पुस्तकांचे वाचन, माणसाला जीवनाविषयी, जगण्याविषयी विचार करायला लावणारं, मागे वळून पाहायला लावणारं, आपल्या संस्कृती, परंपरा याविषयीच्या महानतेचा पुनर्विचार करायला लावणारं ठरतं.
आणि खरोखरच समारोपात जेव्हा ज्योत्स्ना म्हणते,
आठवताना स्मृती साऱ्या
कंठ पुन्हा दाटून येतो
त्यांच्या पोटी पुन्हा जन्म दे
विठुरायाला विनवितो …
तेव्हा या ओळींवरच आपले श्रद्धांजली पूर्वक अश्रूही नकळत ओघळतात .
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अपेक्षा व उपेक्षा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 164 ☆
☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆
‘अत्यधिक अपेक्षा मानव के जीवन को वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित कर मानसिक रूप से दरिद्र बना देती है।’ महात्मा बुद्ध मन में पलने वाली अत्यधिक अपेक्षा की कामना को इच्छा की परिभाषा देते हैं। विलियम शेक्सपीयर के मतानुसार ‘अधिकतर लोगों के दु:ख एवं मानसिक अवसाद का कारण दूसरों से अत्यधिक अपेक्षा करना है। यह पारस्परिक रिश्तों में दरार पैदा कर देती है।’ वास्तव में हमारे दु:ख व मानसिक तनाव हमारी ग़लत अपेक्षाओं के परिणाम होते हैं। सो! दूसरों से अपेक्षा करना हमारे दु:खों का मूल कारण होता है, जब हम दूसरों की सोच को अपने अनुसार बदलना चाहते हैं। यदि वे उससे सहमत नहीं होते, तो हम तनाव में आ जाते हैं और हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है; जो हमारे विघटन का मूल कारण बनता है। इससे पारिवारिक संबंधों में खटास आ जाती है और हमारे जीवन से शांति व आनंद सदा के लिए नदारद हो जाते हैं। सो! मानव को अपेक्षा दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए।
अपेक्षा व उपेक्षा एक सिक्के के दो पहलू हैं। यह दोनों हमें अवसाद के गहरे सागर में भटकने को छोड़ देते हैं और मानव उसमें डूबता-उतराता व हिचकोले खाता रहता है। उपेक्षा अर्थात् प्रतिपक्ष की भावनाओं की अवहेलना करना; उसकी ओर तवज्जो व अपेक्षित ध्यान न देना दिलों में दरार पैदा करने के लिए काफी है। यह सभी दु:खों का कारण है। अहंनिष्ठ मानव को अपने सम्मुख सब हेय नज़र आते हैं और इसीलिए पूरा समाज विखंडित हो जाता है।
मनुष्य इच्छाओं, अपेक्षाओं व कामनाओं का दास है तथा इनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। अक्सर हम दूसरों से अधिक अपेक्षा व उम्मीद रखकर अपने मन की शांति व सुक़ून उनके आधीन कर देते हैं। अपेक्षा भिक्षाटन का दूसरा रूप है। हम उसके लिए कुछ करने के बदले में प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं और बदले में अपेक्षित उपहार न मिलने पर उसके चक्रव्यूह में फंस कर रह जाते हैं। वास्तव में यह एक सौदा है, जो हम भगवान से करने में भी संकोच नहीं करते। यदि मेरा अमुक कार्य सम्पन्न हो गया, तो मैं प्रसाद चढ़ाऊंगा या तीर्थ-यात्रा कर उनके दर्शन करने जाऊंगा। उस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि वह सृष्टि-नियंता सबका पालनहार है; उसे हमसे किसी वस्तु की दरक़ार नहीं। हम पारिवारिक संबंधों से अपेक्षा कर उनकी बलि चढ़ा देते हैं, जिसका प्रमाण हम अलगाव अथवा तलाक़ों की बढ़ती संख्या को देखकर लगा सकते हैं। पति-पत्नी की एक-दूसरे से अपेक्षाओं की पूर्ति ना होने के कारण उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी हो जाता है कि वे एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करते और तलाक़ ले लेते हैं। परिणामत: बच्चों को एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ता है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हुए अपने-अपने हिस्से का दर्द महसूसते हैं, जो धीरे-धीरे लाइलाज हो जाता है। इसका मूल कारण अपेक्षा के साथ-साथ हमारा अहं है, जो हमें झुकने नहीं देता। एक अंतराल के पश्चात् हमारी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है और हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं।
मानव को अपेक्षा अथवा उम्मीद ख़ुद से करनी चाहिए, दूसरों से नहीं। यदि हम उम्मीद ख़ुद से रखते हैं, तो हम निरंतर प्रयासरत रहते हैं और स्वयं को लक्ष्य की पूर्ति हेतू झोंक देते हैं। हम असफलता प्राप्त होने पर भी निराश नहीं होते, बल्कि उसे सफलता की सीढ़ी स्वीकारते हैं। विवेकशील पुरुष अपेक्षा की उपेक्षा करके अपना जीवन जीता है। अपेक्षाओं का गुलाम होकर दूसरों से उम्मीद ना रखकर आत्मविश्वास से अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहता है। वास्तव में आत्मविश्वास आत्मनिर्भरता का सोपान है।
क्षमा से बढ़ कर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा सबसे बड़ा धन है, जो पाप को पुण्य में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। क्षमा अपेक्षा और उपेक्षा दोनों से बहुत ऊपर होती है। यह जीने का सर्वोत्तम अंदाज़ है। हमारे संतजन व सद्ग्रंथ इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कहते हैं। जब हम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लेंगे, तो हमें किसी से अपेक्षा भी नहीं रहेगी और ना ही नकारात्मकता का हमारे जीवन में कोई स्थान होगा। नकारात्मकता का भाव हमारे मन में निराशा व दु:ख का सबब जगाता है और सकारात्मक दृष्टिकोण हमारे जीवन को सुख-शांति व आनंद से आप्लावित करता है। सो! हमें इन दोनों मन:स्थितियों से ऊपर उठना होगा, क्योंकि हम अपना सारा जीवन लगा कर भी आशाओं का पेट नहीं भर सकते। इसलिए हमें अपने दृष्टिकोण व नज़रिए को बदलना होगा; चिंतन-मनन ही नहीं, मंथन करना होगा। वर्तमान स्थिति पर विभिन्न आयामों से दृष्टिपात करना होगा, ताकि हम अपनी संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठ सकें तथा अपेक्षा उपेक्षा के जंजाल से मुक्ति प्राप्त कर सकें। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें तथा निराशा को अपने हृदय मंदिर में प्रवेश ने पाने दें तथा प्रभु कृपा की प्रतीक्षा नहीं, समीक्षा करें, क्योंकि परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। सो! हमें उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देनी चाहिए और सदा उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हमें हर घटना को एक नई सीख के रूप में लेना चाहिए, तभी हम मुक्तावस्था में रहते हुए जीते जी मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। इस स्थिति में हम केवल अपने ही नहीं, दूसरों के जीवन को भी सुख-शांति व अलौकिक आनंद से भर सकेंगे। ‘संत पुरुष दूसरों को दु:खों से बचाने के लिए दु:ख सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने का हर उपक्रम करते हैं।’ बाल्मीकि जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। सो! अपेक्षा व उपेक्षा का त्याग कर जीवन जीएं। आपके जीवन में दु:ख भूले से भी दस्तक नहीं देगा। आपका मन सदा प्रभु नाम की मस्ती में खोया रहेगा–मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाएगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।