हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 27 ☆ मुक्तक ।। बच्चे ही भारत के भविष्य भाग्य विधाता।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका बाल साहित्य में एक भावप्रवण मुक्तक । बच्चे ही भारत के भविष्य भाग्य विधाता)

☆ मुक्तक ।। बच्चे ही भारत के भविष्य भाग्य विधाता।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

भविष्य का भारत  ही  तो  आज  का बच्चा है।

ढाल लो जैसे  भी  उसको कि मन का सच्चा है।।

जिस साँचे  में  डालोगे उसे बन जायेगा वैसा ही।

अभी पका नहीं कि आज भी मिट्टी सा कच्चा है।।

[2]

बहुत  सारे  विकल्प आपके पास आजमाने  को।

उसको   सुसंस्कृत  संस्कारी  जैसा  बनाने को।।

चाहो  तो  आधुनिकता की अंधी दौड़ में झोंक दो।

यही उचित समय है उन्हें शौर्य गाथायें सुनाने को।।

[3]

बच्चा आगे बनेगा हठी बात यह आज तय करेगा।

जो कुछ  सिखायेंगे आज वो वैसी ही लय भरेगा।।

बच्चे  देश के  कर्णधार  भारत के भाग्य विधाता।

आज की शिक्षा सहारे ही चुनौतियों से वो लड़ेगा।।

[4]

आज के नौनिहाल ही  कल  के  राष्ट्र निर्माता हैं।

आज  डालिये  अच्छी आदतें  कि भविष्यदाता हैं।।

स्वस्थ,  सुडौल,  आज से  ही उनको बनाये आप ।

बच्चे भारत नव निर्माण के सच्चे भाग्य विधाता हैं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 92 ☆ ’जग तो है मेला’…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “जग तो है मेला …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 92 ☆ जग तो है मेला…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अकेला भी आदमी जीता तो है संसार में

जिंदगी पर काटनी पड़ती सदा दो चार में।

 

कटके दुनियाँ से कहीं कटती नहीं है जिन्दगी

सुख कहीं मिलता तो मिलता है वो सबके प्यार में।

 

लोभ में औ’ स्वार्थ में खुद को समेटे आदमी

ऐंठ करके समझता है सुख है बस अधिकार में।

 

पर वहाँ तो खोखलापन और बस अलगाव है

सुख तो बसता प्रेम के रिश्तों भरे परिवार में।

 

भुलाने की लाख कोई कोशिश करे पर आप ही

याद आते अपने हर एक पर्व औ’ त्यौहार में।

 

जहां होते चार बर्तन, खनकते भी हैं कभी

सबकी रुचियाँ-सोच होते हैं अलग घर-बार में।

 

मन में जो भी पाल लेते मैल, वे घुटते हैं पर

क्योंकि कोई भाव कब स्थिर रहे बाजार में।

 

जो जहां हो खुश रहें सब, हरे हों, फूले फले

समय पर मिलते रहें क्या रखा है तकरार में।

 

कमाई कोई किसी की छीन तो लेता नहीं

खुशियाँ फलती फूलती हैं प्रेम के व्यवहार में।

 

चर दिन की जिंदगी है कुछ समय का साथ है

एक दिन खो जाना सबकों एक घने अंधियार में।

 

है समझदारी यही सबको निभा, सबसे निभें

जग तो मेला है जो उठ जाता घड़ी दो-चार में।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 101 – ये मिट्टी किसी को नही छोडेगी! ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #101 🌻 ये मिट्टी किसी को नही छोडेगी! 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा बहुत ही महत्त्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्त्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया!

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नही क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!

एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के पास से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय मे उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन मे गाड़ दिया और कहा कि जिसे भी वो खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधि से चौरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लेंवे और ध्यान रखे उसे बिना कुछ खाये पिये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वो शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!

उस पर लिखा था – “हॆ राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है, तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हे इसी मिट्टी मे मिलना है!

सावधान राहगीर, जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना कि  जैसै ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों मे तुम्हे अकेले ही भटकना है और हॆ राहगीर ये कभी न भूलना की “मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग अलग है।””

फिर राजा जैसै तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर के रख दिया।

राजा ने सारे महल जनता को दे दिये और “अंतिम घर” की तैयारियों मे जुट गया!

हमें एक बात हमेशा याद रखना की इस मिट्टी ने जब रावण जैसै सत्ताधारियों को नही बख्शा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है इसलिये ये हमेशा याद रखना कि मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नही छोड़ने वाली है!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 113 – हे बंध रेशमाचे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 113 – हे बंध रेशमाचे ☆

ताई माझी हिरकणी

झेप तिची वाघीणीची।

बाणा कणखर तरी

मनी प्रित राजसाची।

 

अशी लाघवी निर्मळ

जोडी लाभली प्रेमळ।

लाभे मृगनयनीला

दोन पाडसं सोज्वळ।

 

करी पक्वान्न सुरस

प्रेमे भरवी आवडी।

सखे हातात ग तुझ्या

असे अमृताची गोडी

 

भाऊबंध नातीगोती

संगे साथी नि सोबती

बंध रेशमाचे जोडी

दोन ह्रदये जाणती ।

 

नसो उणे इथे काही

जोडी राहो जन्मांतरी।

मार्ग उजळो यशाचा

साथ लाभो सौख्यांतरी।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “गारवा” – लेखिका सौ राधिका भांडारकर ☆ परिचय – सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “गारवा” – लेखिका सौ राधिका भांडारकर ☆ परिचय – सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

पुस्तक परिचय

पुस्तकाचे नाव – गारवा (काव्यसंग्रह)

कवियत्री – सौ. राधिका भांडारकर, पुणे

प्रकाशक – ॲड. जयमाला भगत, अजिंक्य प्रकाशन, वाशीम

मुद्रक – अजिंक्य एंटरप्राईझेस,वाशीम

अक्षर जुळवणी – अरविंद मनवर

प्रस्तावना – सौ. शोभा अवसरे (+91 98704 94993)

मुखपृष्ठ – कु. सायरा वाघमोडे ॲटलांटा (वय वर्ष्ये ९)

मूल्य – रू.१५०/—

सौ राधिका भांडारकर

माझ्या हातात सौ. राधिका भांडारकर यांचा गारवा हा नवा काव्यसंग्रह आला आणि जसजशी मी एकेक कविता वाचत गेले तसतशी मी त्यांत डुबूनच गेले.

एकूण ३३ कवितांचा हा संग्रह. ह्यात राधिकाताईंनी जीवनातील विविध विषय हाताळले आहेत. त्यात जीवनाविषयीचे तत्वज्ञान आहे, माणसांच्या प्रवृत्तींचे वर्णन आहे, जबाबदार नागरिक म्हणून त्यांची कर्तव्ये आहेत, सामाजिक प्रश्न आहेत, आईची माया आहे, बदललेला काळ आहे, ईश्वरी शक्तीचा विश्वासही आहे.

बहुतांशी कविता मुक्त छंदात असल्या तरी काही कविता षडाक्षरी, अष्टाक्षरी, दशाक्षरी, अक्षरछंदातही आहेत. यावरून नियमबद्ध कविता लिहिण्याचाही त्यांना चांगलाच सराव असल्याचे दिसून येते.

भासमय आणि तुझे आहे तुजपाशी ह्या कवितांतून माणसाच्या प्रवृत्ती दिसून येतात. असमाधानी वृत्तीमुळे मृगजळामागे तो कसा धावतो नि त्याची फसगत होऊन नैराश्य पदरी येते हे त्यांनी साध्या सरळ सोप्या भाषेत दाखवून  दिले आहे. त्या लिहितात…..

आपुले आपुल्यापाशी

परि नजर पल्याडी

ऊन पाण्याचाच खेळ

वाट खोटी वाकडी

खरंतर प्रत्येकच कवितेतील त्यांची भाषा सहज सुलभ असल्यामुळे कविता अधिक जवळची वाटते. कुठेही क्लिष्टता नाही, भाषेचे अवडंबर नाही.

ईश्वरी शक्तीचा आशीर्वाद शिरावर असल्यानंतर केलेल्या कष्टाचे चीज होऊन सुखासमाधानाचे, आनंदाचे भरभराटीचे दिवस दिसतात हे सांगताना आशीर्वादया कवितेत त्या लिहितात…

आता काही कमी नाही

आयुष्यात कष्ट केले

आनंदाने केले सारे

त्याचे मात्र चीज झाले

आता खरे जाणवते

यशाकडे पाहताना

आशीर्वाद होता त्याचा

मन भरे म्हणताना

पदरया कवितेत पदराची बहुरूपे दाखवून जीवनाची वास्तवता कवियत्रीने वाचकांना सादर केली आहे.

पदर खांद्यावर

पदर डोक्यावर

तो कधी जरतारी

तर कधी ठिगळे लावलेला

सार्‍या संसाराची मदार या पदरावर असते. हलक्या फुलक्या शब्दांतून अतिशय गहन विचार या कवितेत मांडला आहे.

एखादी गोष्ट करायची नसली तर वेळ मिळत नाही ही सोयीस्कर सबब सर्वसाधारणपणे आपण सगळेच देत असतो. वेळच मिळत नाही ह्या कवितेत कवियत्री वेळ मिळत नसतो, तो काढायचा असतो आणि त्यासाठी नियोजनाची आवश्यकता असते हा फार मोलाचा संदेश देतात.

मुलगा नसल्याची खंत आज आपण इतके प्रगत असलो तरी पुष्कळच कुटुंबात दिसून येते, किंबहुना समाजालाच त्याची जास्त चिंता असल्याचे दिसून येते. तीह्या त्यांच्या कवितेत राधिकाताईंनी समाजाला सडेतोड उत्तर दिले आहे. त्या लिहितात…

दोन लेकी लेक नाही?

प्रश्न भारी मनमोडी

यांना कसे समजावे

कन्या तिची माया वेडी

राधिकाताईंचा पिंड कथा लेखिकेचा.त्यामुळे त्यांना कथा कशी सुचते,त्याची निर्मीति कशी होते हे त्या सहजपणे त्यांच्या नादखुळा आणि शब्दगंगा ह्या दोन कवितांतून सांगून जातात.

ह्या पुस्तकात तीह्या शिर्षकाच्या दोन कविता आहेत. एक ती कन्या आणि दुसरी ती कविता. दुसर्‍या ती मध्ये साहित्यिक राधिकाताई दिसतात.

एक वादळ आलं

शब्दांच्या लाटा घेऊन

मनाच्या कागदावर फुटलं

आणि मन रितं केलं लिहून

साहित्य निर्मीतीची ही प्रक्रिया असं मन उफाळून आल्याशिवाय होऊच शकत नाही.

दप्तर ही अशीच मनाला चटका लावणारी कविता. कवियत्रीला आईच्या मायेचा ओलावा दिसतो तिच्या जपून ठेवलेल्या फाटक्या दप्तरात.

घरात पाव्हणे रावणे येणं, लेकी बाळी येणं, नातवंडांनी घर निनादून जाणं, ह्यासारखा आनंद कोणता? असे पाहुणे येती आणि क्षण ह्या दोन कविता वाचताना लक्षात येते.

“सारथी”, “धरावी कास”, “असे आणि तसे”, इत्यादी कवितांतून राधिकाताईं माणसांनी कसे जगावे, विवेक, सकारात्मकता, सत्यप्रियता वगैरे गोष्टी सुखी जीवनासाठी किती आवश्यक आहेत ते त्यांच्या सहज सुलभ शैलीतून वाचकांपर्यंत पोहोचवितात, त्यांना अमूल्य संदेश देतात.

धरावी कास या कवितेत सकारात्मक वृत्तीचे महत्व त्या सांगतात……

*अपयशामागून

यश हासते

सामोरी जाता

ओंजळी भरते

अगदी मोजक्या शब्दात किती महान तत्वज्ञान त्या सांगून जातात.

आयुष्यात पती~पत्नी हे नाते अतिशय पवित्र, प्रेमळ असते. पण तरीसुद्धा कधी कधी कसलातरी सल मनाला डाचत असतो. कुठे तरी काही कारणास्तव मन विषण्ण होते. अशीच मनोवस्था दाखविणारी तुकडेही दशाक्षरी काव्यरचना!

स्त्री कितीही शिकली तरी तिला स्वतःला बर्‍याचदा एका चौकटीत बंदिस्त करून घ्यावे लागते हे राधिकाताई त्यांच्या दार या कवितेत वाचकांना दाखवून देण्याचा प्रयत्न करतात.

तू असा मी अशी या कवितेत सेवा निवृत्त पती पत्नीचे नाते अगदी सहजरित्या वाचकांपुढे उभे केले आहे. तुझं नि माझं जमेना पण एकमेकांवाचून चालेना अशी गत ह्या सहजीवनात असते. वरवर कविता हलकी फुलकी वाटली तरी ती फार सखोल आहे.

गारवा ही कविता पहिल्या पावसाचे वर्णन करणारी. पावसाच्या आगमनाने हवेत जसा गारवा येतो तसाच तो मनालाही येतो हे भाव व्यक्त करणारी कविता.

आपल्या अवती भवती असणारी माणसं,नात्याचे बंध,जीवनात येणारे विविध अनुभव, कधी आनंदी तर कधी खिन्न असणारे मन, अशा परिस्थितीत ह्या संग्रहातील कविता वाचल्यानंतर एक प्रकारची ऊर्जा मिळाल्यासारखे वाटते, शांत वाटते म्हणून हा मनाला भासणारा गारवाच आहे.

सर्वच कविता वाचनीय आहेत, अधिकाधिक लोकांनी वाचाव्यात अशाच आहेत.

राधिकाताईंना माझ्या खूप खूप शुभेच्छा!त्यांची ही साहित्यसेवा अखंडित अशीच चालत राहो, त्यांनी लावलेला साहित्याचा हा नंदादीप दिवसानुगणिक उजळत राहो.

पुस्तक परिचय – सुश्री अरुणा मुल्हेरकर 

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #143 ☆ सहनशक्ति बनाम दण्ड ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सहनशक्ति बनाम दण्ड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 143 ☆

☆ सहनशक्ति बनाम दण्ड

‘युगों -युगों से पुरुष स्त्री को उसकी सहनशीलता के लिए ही दण्डित करता आ रहा है, ‘ महादेवी जी का यह कथन कोटिश: सत्य है, जिसका प्रमाण हमें गीता के इस संदेश से भी मिलता है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है’, क्योंकि उसकी सहनशीलता उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। इसलिए एक सीमा तक तो सहनशक्ति की महत्ता स्वीकार्य है, परंतु उसे आदत बना लेना कारग़र नहीं है। इसलिए मानव में विरोध व प्रतिकार करने का सामर्थ्य होना आवश्यक है। वास्तव में वह व्यक्ति मृत के समान है, जो ग़लत बात को ग़लत ठहरा कर विरोध नहीं जताता। इसके प्रमुखत: दो कारण हो सकते हैं– आत्मविश्वास की कमी और असीम सहनशीलता। यह दोनों स्थितियां ही भयावह और मानव के लिए घातक हैं। आत्मविश्वास से विहीन मानव का जीवन पशु-तुल्य है, क्योंकि जो आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर सकता; वह परिवार, समाज व देश के लिए क्या करेगा? वह तो धरती पर बोझ है; न उसकी घर-परिवार में इज़्ज़त होती है, न ही समाज में उसे अहमियत प्राप्त होती है। अत्यधिक सहनशीलता के कारण वह शत्रु अर्थात् प्रतिपक्ष के हौसले बुलंद करता है। परिणामत: समाज में आलसी व कायर लोगों की संख्या में इज़ाफा होने लगता है। प्राय: ऐसे लोग संवेदनहीन होते हैं और उनमें साहस व पुरुषत्व का अभाव होता है।

नारी को सदैव दोयम दर्जे का प्राणी स्वीकारा जाता है, क्योंकि उसमें अपना पक्ष रखने का साहस नहीं होता और वह शांत भाव से समझौता करने में विश्वास रखती है। इसके पीछे कारण कुछ भी रहे हों; पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक या उसका समर्पण भाव– सभी नारी को उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं, जहां वह निरंतर ज़ुल्मों की शिकार होती रहती है। पुरुष दंभ के सम्मुख वह प्रतिकार व विरोध में अपनी आवाज़ नहीं उठा सकती। इस प्रकार पुरुष उस पर हावी होता जाता है और समझ बैठता है कि वह पराश्रिता है; उसमें साहस व आत्म-विश्वास की कमी है। सो! वह उसके साथ मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। इस प्रकार यह सिलसिला चल निकलता है। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार अर्थात् विवशता बन जाते हैं और उसके जीने का मक़सद व उपादान बन जाते हैं, जिसे वह नियति स्वीकार अपना जीवन बसर करती रहती है।

यदि हम उक्त तथ्य पर दृष्टिपात करें, तो नियति व स्वीकार्यता-बोध मात्र हमारी कल्पना है, जिसे हम सहजता व स्वेच्छा से अपना लेते हैं। यदि व्यक्ति प्रारंभ से ही ग़लत बात का प्रतिरोध करता है और अपने कर्म को अंजाम देने से पहले सोच-विचार करता है, उसके हर पहलू पर दृष्टिपात करता है– शत्रु के बुलंद हौसलों पर ब्रेक लग जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं, 2007 में प्रकाशित स्वरचित काव्य-संग्रह की अंतिम कविता की पंक्तियां– ‘बहुत ज़ुल्म कर चुके/ अनगिनत बंधनों में बाँध चुके/ मुझ में साहस ‘औ’ आत्म- विश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ जी हाँ! यह संदेश है नारी जाति के लिए कि वह सशक्त, सक्षम व समर्थ है। वह आगामी आपदाओं का सामना कर सकती है। परंतु वह पिता, पुत्र व पति के बंधनों में जकड़ी, ज़ुल्मों को मौन रहकर सहन करती रही, क्योंकि उसने अंतर्मन में संचित शक्तियों को पहचाना नहीं था। परंतु अब वह स्वयं को पहचान चुकी है और आकाश की बुलंदियों को छूने में समर्थ है। आज की नारी ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो/ आसमान को’ में झलकता है उसका अदम्य साहस व अटूट विश्वास, जिसके सहारे वह हर कठिन कार्य को कर गुज़रती है और ऐलान करती है कि ‘असंभव शब्द का उसके शब्दकोश में स्थान है ही नहीं; यह शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में पाया जाता है।’

परंतु 21वीं सदी में भी महिलाओं की दशा अत्यंत शोचनीय व दयनीय है। वे आज भी पिता, पति व पुत्र द्वारा प्रताड़ित होती है, क्योंकि तीनों का प्रारंभ ‘प’ से होता है। सो! वे उनके अंकुश से आजीवन मुक्त नहीं हो पाती। घरेलू हिंसा, अपनों द्वारा उसकी अस्मिता पर प्रहार, फ़िरौती, दुष्कर्म, तेज़ाब कांड व हत्या के सुरसा की भांति बढ़ते हादसे उनकी सहनशक्ति के ही दुष्परिणाम हैं। यदि बुराई को प्रारंभ में ही दबाकर समूल नष्ट कर दिया जाता तो परिदृश्य कुछ और ही होता। महिलाएं पहले भी दलित थीं, आज भी हैं और कल भी रहेंगी। उनके अतीत, वर्तमान व भविष्य में कोई परिवर्तन संभव नहीं हो सकता; जब तक वे साहस जुटाकर ज़ुल्म करने वालों का सामना नहीं करेंगी।

वैसे यह नियम बच्चों, युवाओं व वृद्धों सब पर लागू होता है। उन्हें आगामी आपदाओं, विषम व असामान्य परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए, क्योंकि हौसलों के सम्मुख कोई भी टिक नहीं सकता। ‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ सोहनलाल द्विवेदी जी इस कविता के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि यदि आप तूफ़ान से डर कर व लहरों के उफ़ान को देख कर अपनी नौका को बीच मंझधार नहीं ले जाओगे तो नौका कैसे पार उतर पाएगी? संघर्ष रूपी अग्नि में तप कर ही सोना कुंदन बनता है। इसलिए कठिन परिस्थितियों के सम्मुख कभी भी घुटने नहीं टेकने चाहिएं तथा मैदान-ए-जंग में मन में इस भाव को प्रबल रखने की दरक़ार है कि ‘तुम कर सकते हो।’ यदि निश्चय दृढ़ हो, हौसले बुलंद हों, दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। नैपोलियन बोनापार्ट भी यही कहते थे कि असंभव शब्द मूर्खों के शब्द कोश में होता है। इस नकारात्मक भाव को अपने ज़हन में प्रविष्ट न होने दें –’जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि तथा नज़रें बदलते ही नज़ारे बदल जाते हैं और नज़रिया बदलते ज़िंदगी।’ यदि नारी यह संकल्प कर ले कि वह अकारण प्रताड़ना सहन नहीं करेगी और उसका साहसपूर्वक विरोध करेगी, ‘तो क्या’ और अब मैं तुम्हें दिखाऊँगी कि ‘मैं क्या कर सकती हूं।’ उस स्थिति में पुरुष भयभीत हो जायेगा और अपने मिथ्या सम्मान की रक्षा हेतु मर्दांनगी नहीं दिखायेगा। धीरे-धीरे दु:ख भरे दिन बीत जायेंगे व खुशियों की भोर होगी, जहाँ समन्वय, सामंजस्य ही नहीं; समरसता भी होगी और ज़िंदगी रूपी गाड़ी के दोनों पहिए समान गति से दौड़ेंगे। 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

14 जुलाई 2022.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #142 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 142 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … ☆

चलते – चलते थकें नहीं, बस इतनी सी आस।

सर पर इतना बोझ है, तनिक नहीं अहसास।।

 

सुख – दुख जीवन में बहुत, रहते अक्सर खास।

जिम्मेदारी का हमें,  होता   है    अहसास।।

 

करते है हम कामना, बदले कभी न भाव ।

सेवा करना धर्म है, आए नहीं दुर्भाव।।

 

परेशानी है जीवन में, जीवन इसका नाम।

चलना है रुकना नहीं,  नहीं करना आराम।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #130 ☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं आपकी  “एक बुन्देली पूर्णिका। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 131 ☆

☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सीख बड़न की सुनतै नइयां

लाख  बताओ  गुनतै  नइयां

 

खूब   पेर  रए माँ-बाप   खों

उनखों कछु समझतई नइयां

 

ऐ की ओ खों ओ की ऐ  खों

काम भलो कछु करतै नइयां

 

परे   फेर   में    राजनीति  के

दिमाग  नहचूँ  उतरतै  नइयां

 

धरो   रुपैया     खूब    फूंकते

उनसें  कबहुँ  जुडतई   नइयां

 

वोट  बेंच  कें  दारू  पी   गए

इनखों  तननक शरमै  नइयां

 

मेंगाई   जा  सांस  न   ले  रईं

“संतोष” निहचें गिरतै  नइयां

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #135 ☆ नाती जपूया…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 135 – विजय साहित्य ?

☆ नाती जपूया… ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

आद्य गुरू मायबाप

स्थान त्यांचे अंतरात

नाती जपूया प्रेमाने

भावस्पर्शी काळजात …१

 

आज्जी आजोबा घराचे

सौख्य समृध्दी दालन

तत्त्वनिष्ठ संस्कारांचे

ध्येयवादी संकलन … २

 

काका, काकू, मामा,मामी

आत्या मावशीचा बोल

कधी धाक , कधी लाड

भावनांचा समतोल …३

 

मित्र मैत्रिणीचे नाते

काळजाचा गोतावळा

सुख दुःख समाधान

असे उरी कळवळा …४

 

नाते बंधु भगिनींचे

वैचारिक छत्रछाया

घास अडतसे ओठी

धावतसे प्रेममाया … ५

 

नाते सहजीवनाचे

लेणे सासर माहेर

नाती जपूया प्रेमाने

देऊ काळीज आहेर…६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ स्थळ…. भाग – 3 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? जीवनरंग ❤️

☆ स्थळ…. भाग – 3 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

 (दीपा काकूला सांगते,”या मुलांना आपल्या चिंता कळतच नाही)

गावात शिरल्यावर लोकेशने नेमका पत्ता विचारण्यासाठी गाडीचा चा वेग कमी केला.

रिक्षावाल्यांना विचार, पादचाऱ्यांना विचार, रस्त्यावर बसलेले भाजीवाले .. फुल वाले.. बरंच मागेपुढे केल्यावर आणि काही दिलेल्या खुणा सापडल्यावर, लोकेशन मुलीच्या वडिलांना फोन लावला.

” जवळच आहात. आता डावीकडे वळून हनुमानाच्या मंदिरापर्यंत या. तिथेच थांबा. मी सुयश ला पाठवतो.”

घर  रस्त्यापासून बरच आतल्या भागात होतं. नवी जुनी घरं होती. घरांच्या बांधणीवरुन, आजूबाजूच्या वातावरणावरून ,तिथे राहणाऱ्या लोकांची जीवनपद्धती ,वर्ग सर्वसाधारणपणे ओळखता येत होते.

लोकेश ची लांबलचक मर्सीडीझ त्या गल्लीच्या कोपऱ्यावर अगदीच विसंगत वाटत होती.

सुयश तिथे उभा होता स्कूटर घेऊन.

लोकेशन खिडकी उघडली. 

सुयश तत्परतेने म्हणाला,” या काका इथे जवळच आहे घर. माझ्या मागून या.”

” गाडी जाईल ना ?”

“हो आरामात. पार्किंगला जागा आहे.” 

काय गंमत असते ना सगळेच पहिल्यांदा भेटत होते. कुणीच कुणाला ओळखत नव्हते.

घर पहिल्याच मजल्यावर होतं. दरवाजातच आई वडील उभे होते. उंबरठ्याबाहेर रांगोळी होती. दाराच्या चौकटीत तोरण होतं, भिंतीला लागून चार-पाच कुंड्या होत्या. त्यात तुळस, मोगरा, जास्वंद फुलले होते. 

” या या!  घर सापडायला काही त्रास झाला नाही ना? इथे आता सगळं नव्याने बांधकाम चाललंय. गेल्या दहा वर्षांत प्रचंड कायापालट झालाय इथला.”

अग! पाणी आण ग!”

सुयशने न पटकन कोपर्‍यातले टेबल मध्ये ठेवलं. आईने पाण्याचे ग्लास त्यावर ठेवले.

” कसा झाला प्रवास? तसा रस्ता चांगला आहे.  हायवे चौपदरी असल्यामुळे वेगाने येता येते. आता नवीन सरकार आल्यापासून, रस्त्यांची कामे फार चांगल्या रीतीने चालू आहेत. वगैरे वगैरे      

लोकेश तसा  मोकळा आहे. त्यांने त्या लहानशा घरात फेरफटका मारून घेतला.

” छान आहे काका तुमचं घर. हा भिंतीवरचा फॅमिली फोटो वाटतं तुमचा? वा काय मस्त हवा  उजेड!”

अशा रातीने, हवापाणी, सरकार, सुधारणा, आगामी निवडणुका, यावर गप्पा झाल्या. नंतर एकदम विषय संपल्या सारखे झाले. मुख्य विषयाची काही सुरुवात होत नव्हती. दडपण खूपच होते. आई, सुयश आत  बाहेर करत होते. 

क्रमश:…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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