मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #147 ☆ स्वाद त्याचा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 147 ?

☆ स्वाद त्याचा…

मी सुदाम्या गुंतलो पोह्यात आहे

स्वाद त्याचा आजही स्मरणात आहे

 

मार्ग मैत्रीचा बदलणे शक्य नाही

ती अजुनही वाहते धमन्यात आहे

 

मैत्रि म्हणजे जीवनाचा मंत्र मित्रा

फक्त इतके ठेवले ध्यानात आहे

 

संकटी धावून येतो मित्र माझ्या

म्हणुन त्याचे नाव ह्या ओठात आहे

 

भेद काही आजही आहेत कायम

अन् तरीही प्रेम हे दोघात आहे

 

कैक दशके लोटली आहे तरी ही

तीच मैत्री आजही बहरात आहे

 

तीच विट्टी तोच दांडू त्याच गोट्या

पाहतो सारे तुझ्या डोळ्यात आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 97 – गीत – तुम्हीं बताओ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – तुम्हीं बताओ…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 97 – गीत – तुम्हीं बताओ✍

तुम्हीं बताओ जीवन घन

कैसे बीतेगा    जीवन।

 

तुम थीं कोई बात नहीं थी

 उजियारी थी, रात नहीं थी

तुम्हीं सम्हाँले थीं जीवन को

मेरी तो औकात नहीं थी।

अंधाधुंध चल पड़ी आँधियाँ

उजड़ गया साधों का उपवन

तुम ही बताओ जीवन धन

कैसे बीतेगा जीवन।

 

तुम थीं तो थी पूरनमासी

नहीं दुख था नहीं उदासी

चहल-पहल थी पूरे घर में

खुशियाँ दिन चौखट की दासी

उन्मन उन्मन रहता है मन

जाने कैसे लग गया गहन

तुम ही बताओ जीवन धन

कैसे बीतेगा जीवन।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 99 – “वे अव्यक्त हुये जाते हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “वे अव्यक्त हुये जाते हैं…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 99 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “वे अव्यक्त हुये जाते हैं”|| ☆

दिखते पिता इस तरह

बैठे आगे कमरे में

कभी किसीके लहजे

में तो घर के चेहरे में

 

टँगी गंध है रही खूँटियों

पर कुछ जिस्मानी

उनके कपड़ों से आती

है जानी पहचानी

 

वहीं हृदय के घाव रहे

बेशक बिन मरहम के

विवश पड़ा हो कोई

चौपाया ज्यों कचरे में

 

धुँधली हुई निगाह पाँव

में आ बैठा कम्पन

जिससे पता चला

करता बाकी है स्पंदन

 

कभी बोलते तो ऐसा

सब लोग सुना करते

कोई शख्स कुँये से

बोले काफी गहरे में

 

छडी पास में बुझी बुझी

सी दिखती कोने में

वे अव्यक्त हुये जाते

हैं जीवित होने में

 

पर कराहना उनका

जैसे बतला जाता है

कोई कंकड़ कहीं

गिरा हो पानी ठहरे में

 

रहते थे चुप चाप घरेलू इन

सम्बन्धो पर

चले गये बिन कहे चार

लोगों के कन्धों पर

 

समझ नपाये उन्हें  कभी

जाने अनजाने ही

उलझे रहे निदान खोजते

इसी ककहरे मे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-07-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 146 ☆ जंगल का कानून ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  – “जंगल का कानून”।)  

☆ व्यंग्य # 146 ☆ जंगल का कानून ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

बड़े बड़े पेट  एवं मोटे-मोटे हाथ पांव वाले मांसाहारी नेताओं और अमीरों की कुदृष्टि से परेशान होकर जंगल के सारे शेरों ने अपनी आपातकालीन बैठक में सोशल मीडिया और टीवी चैनल में टाइगर जाति पर की जा रही ऊटपटांग बयानबाजी पर निंदा प्रस्ताव रखा। शेर शांत है, शेर का मुंह खुला है, शेर के दांत दिख रहे हैं, शेर अब दहाड़ने लगा है, शेर अब पहले जैसा नहीं रहा, पहले वाले शेर में अलग बात थी… जैसी बातों से मीडिया मार्केट गरम है, और टीवी चैनल वाले अच्छी कमाई कर रहे हैं अपनी टीआरपी बढ़ा रहे हैं।  बैठक में एक शेरनी ने आरोप लगाया कि ये हाथ मटकाने वाले लोग बेवजह तंग करने पर उतारू हैं, कुछ मांसाहारी बड़े लोग  भोली-भाली विदेशी शेरनी को बुरी नजर से देखते हैं और अंट संट कमेंट्स करते हैं सोशल मीडिया में ऐसी घटनाएं दिनों दिन बढ़ रही हैं। 

शेरों के मुखिया ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि  पहले जैसी इंसानियत नहीं रही, अब बात बात में बतड़ंग हो जाता है, टीवी चैनल की डिबेट में ये लोग जानवरों जैसे लड़ते हैं, और हमारी टाइगर कौम को एक विचारधारा से जोड़ कर कुछ भी कहते हैं….शेर का मुंह चाहे खुला हो या अधखुला, शांत हो या खूंखार, बन्द मुह से चबाता हो, चाहे बिना चबाए गुटक जाता हो। शेर के ऊपर आप राजनीति करने वाले कौन होते हो। शेर  शेर है चाहे वो ख़ुश रहे, चाहे अवसादग्रस्त, शांत रहें या उग्र। तुम लोग कौन होते हो  जो चाहते हो कि  उसका चेहरा भी वैसा दिखना  चाहिए जैसा हम कल्पना करते है, सोचते है। शेर को शेर ही रहने दो यार।

कितना मुह खोलना है, कि बन्द रखना है,बोलना है कि नही, दहाड़ना है या मुह मोड़ना है, मुह दिखाना है या मुह छिपाना, दाँत निपोरना या जीभ दिखाना ये सब आप इंसान से करा सकते है जंगल के राजा से नही…. समझे कि नहीं।

इन सब कारणों से जंगल के राजा ने नया कानून प्रस्तावित किया है कि जब भी जंगल में टाइगर देखने ऐसे मांसाहारी और राजनीति करने वाले लोग आयेंगे तो कोई भी शेर शेरनी इनको दर्शन नहीं देगा, और धोखे से देखने की कोशिश की तो गुर्रा कर उन्हें डरायेंगे। जानवर का मांस खाना अच्छी बात नहीं है। और शराब पीकर मांस खाते हुए ये लोग बहुत बुरी बुरी बात करते हैं जिससे जंगल की हवा प्रदूषित होती है। ये सब दो चार दिन को ऐश करने यहां आते हैं और जंगल का वातावरण खराब कर जाते हैं। मीटिंग के अंत में निंदा प्रस्ताव में कहा गया कि मांसाहारी और ऊंटपटांग राजनीति करने वालों  से शेर जाति घृणा करती है और जंगल बचाने की अपील करती है। 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 90 ☆ # पल पल बदलती दुनिया में …  # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# पल पल बदलती दुनिया में…  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 90 ☆

☆ # पल पल बदलती दुनिया में… # ☆ 

पल पल बदलती दुनिया में

ना जाने क्या कल होगा ?

फुलों से भरा  होगा दामन

या कांटों का कोई छल होगा ?

 

नभ में गरज रहे बादल

धरा फैलाये है आंचल

तपती देह की प्यास बुझाने

अंबर से टपकेगा वर्षा का जल

क्या खूब होगी बारिश या

तरसाता यह बादल होगा ?

 

काली काली घटाएं छाई है

वसुधा से मिलने आई है

तड़प देख कर अचला की

निर्मल जल लाई है

प्रणय में हिमखंड टूटेंगे या

अवरोध पवन का प्रबल होगा ?

 

बरसात में साथी छूट रहे हैं

रिश्ते नाते सब टूट रहे हैं

धोखे हैं कदम कदम पर

दोस्त बनकर लूट रहे हैं 

गले मिलों तो जरा संभलकर

ना जाने कौन कातिल होगा ?

 

पल पल बदलती दुनिया में

ना जाने क्या कल होगा ?

फूलों से भरा होगा दामन

या कांटों का कोई छल होगा ? /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भास की आभास तुझा… ☆ सौ. कल्पना मंगेश कुंभार ☆

सौ. कल्पना मंगेश कुंभार

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भास की आभास तुझा… ☆ सौ. कल्पना मंगेश कुंभार ☆

गंधाळलेले श्वास

आसपास तुझेच भास

बेधुंद बरसणारा पाऊस

अन् दरवळणारा मातीचा वास..

 

पाऊस सुरू झाला

की दरवर्षी असं होत

तू नसतोस कुठेही

तरीही चराचर तुझंच होत ..

 

चिंब भिजलेल्या क्षणांना

मग पाझर फुटतो

डोळ्यात थोपवलेला पाऊस मात्र

पापण्यातच गोठतो ..

 

ओठावर झरू लागते

आर्त विराणी

पाऊसही गाऊ लागतो

गजल पुराणी..

 

पुन्हा भारावते मन

शोधू लागते तुला

शब्दांच्या ही पलीकडे जाऊन

कवितेत गुंफते तुला..

 

अव्यक्त भाषा थेंबांनी

मग पाऊसच बोलू पहातो

तुझ्या माझ्या विरहाचे

आर्त स्वर छेडू पहातो..

 

तरीही श्वास चालूच रहातो

तुझ्याविना जगू पहातो

दूर दूर क्षितिजापल्याड

एक तारा हळूच निखळतो..

 

© सौ. कल्पना मंगेश कुंभार

शाळा : हुतात्मा बाबू गेनू विद्यामंदिर क्र 28, इचलकरंजी

मोबाईल : 9822038378

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 89 ☆ प्रीत तुझी माझी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 89 ? 

प्रीत तुझी माझी.… ☆

(सहा-अक्षरी रचना…)

प्रीत तुझी माझी

सहज खुलावी

आपल्या प्रीतीला

दृष्ट न लागावी…

 

प्रीत तुझी माझी

बोलकी असावी

मनाची भावना

मनाने जानावी…

 

प्रीत तुझी माझी

बंध घट्ट व्हावे

गुज मनातले

तुजला कळावे…

 

प्रीत तुझी माझी

केवडा सुगंधी

निर्मळ सोज्वळ

शुद्ध ही उपाधी…

 

प्रीत तुझी माझी

मोगरा फुलला

ये मिठीत सखे

संध्या समयाला…

 

प्रीत तुझी माझी

राज हे मनीचे

मागणे मागतो

दान दे प्रेमाचे…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 26 – परिव्राजक –४. हिमालयाच्या वाटेवर ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 26 – परिव्राजक –४. हिमालयाच्या वाटेवर ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

आज आपले ओळखपत्र/आय डी प्रुफ, सगळीकडे दाखवावे लागते. ती एक सिक्युरिटी चेक सिस्टिम आहे.यावरून तुम्ही कोण आहात? कुठले आहात? कुठून कुठे चालला आहात? असे कुठे विचारले तर राग यायचे काहीच कारण नाही. आपल्याच देशात आपल्याच सुरक्षिततेसाठी हे आहे. प्रवास करतांना किंवा पर्यटनाला जातांना आधार कार्ड, पासपोर्ट, पॅन कार्ड,ड्रायविंग लायसन्स नाहीतर अगदीच इलेक्ट्रिक बिल्ल इत्यादी आपल्याला दाखवावे लागते. पण अशी पद्धत आजची नवी नाही. स्वामी विवेकानंदांना अमेरिकेत शिकागोला गेले तेंव्हा ही परिचय पत्र न्यावे लागले होते बरोबर आणि ते भारतात सुद्धा फिरले तेंव्हाही व्यवस्थे साठी ज्यांच्या कडे जायचे त्यांना कोणाचे तरी ओळखपत्र घेऊन जावे लागत होते.

हिमालयात भ्रमणासाठी जातांना ते आधी हिमालय ते तिबेट असा प्रवास करणार होते. त्यामुळे नेपाळ मध्ये असलेल्या आपल्या मित्राचे रीतसर परिचय पत्र घेऊन जायचे म्हणजे तिबेट मध्ये प्रवेश मिळण्यात अडचण येणार नाही.कारण अखंडानंदांना तशी एकदा अडचण आली होती. पण काही कारणामुळे हा मार्ग  बदलून त्यांनी अल्मोरा मार्गाने जायचे ठरवले. पहिला मुक्काम भागलपूर मध्ये झाला.  

भागलपुर मध्ये पोहोचल्यावर थकले भागलेले स्वामीजी व अखंडांनंद गंगेच्या काठी उभे होते. शेजारीच राजा शिवचन्द्र यांचे निवास होते. तेजस्वी संन्याशांकडे तिथले एक प्रतिष्ठित कुमार नित्यानंद सिंग यांचे लक्ष गेले. त्यांनी ती रात्र दोघांना घरी ठेऊन घेतले आणि दुसऱ्या दिवशी त्यांना बाबू मन्मथनाथ यांच्याकडे घेऊन गेले. त्यांना वाटले असतील कोणी साधूबैरागी त्यामुळे फार लक्ष दिलं नाही. आणि जेवणं झाल्यावर बौद्ध धर्मावरील इंग्रजीतल पुस्तक वाचत बसले. स्वामीजींनी विचारले की, कोणतं पुस्तक वाचताहात? मन्मथबाबूंनी नाव सांगून विचारलं तुम्हाला इंग्रजी येतं का? स्वामीजी म्हणाले थोडंफार येतं. यानंतर जो संवाद झाला त्यात स्वामीजींनी बौद्ध धर्मावर चर्चा करतांना अनेक इंग्रजी ग्रंथांचे संदर्भ दिले. मन्मथबाबू  चकित झाले. त्यांच्या लक्षात आलं हा तरुण संन्यासी आपल्यापेक्षा हजार पटींनी हुशार आहे.

आणखी एक दिवस, योगसाधनेवर चर्चा झाली. यावर स्वामीजींनी व्यक्त केलेले विचार मन्मथबाबूंनी यापूर्वी आर्य समाजाच्या स्वामी दयानन्द सरस्वतीं कडून ऐकलेल्या विचारांशी मिळतेजुळते होते. पण यावेळी अजूनही नवीन ऐकायला मिळाले त्यांना. त्यानंतर त्यांनी उपनिषदांचा विषय काढला. स्वत:जवळची उपनिषदावरची पुस्तके समोर ठेवली आणि त्यातील एकेक वचने काढून अर्थ विचारू लागले. स्वामीजींनी दिलेल्या उत्तरामुळे मन्मथबाबू चकितच झाले. स्वामीजींची तर याबाबत मोठी तपस्या आणि साधना होती हे त्यांना माहिती नव्हते.

एकदा स्वामीजी असेच गुणगुणत होते. बाबूंनी लगेच विचारलं तुम्हाला गाणं येतं का? स्वामीजी उत्तरले,” अगदी थोडंफार येतं.” बाबूंनी आग्रह केल्यामुळे स्वामीजींनी काही गीतं म्हटली. बाबू आश्चर्याने स्तिमित झाले. अरे या संन्याशाला जितकं गहन शास्त्राचं ज्ञान आहे तितकाच संगीतासारख्या कलेवर सुद्धा त्यांचं प्रभुत्व आहे . झालं दुसऱ्याच दिवशी मन्मथबाबूंनी भागलपुर मधल्या संगीतप्रेमींना घरी बोलवलं. त्यात काही संगीत उस्ताद पण होते. रात्री नऊ पर्यन्त कार्यक्रम संपेल असे त्यांना वाटले. पण संगीत श्रवणाच्या आनंदात कोणाला जेवणाखाण्याचे व वेळेचे भान नव्हते उरले. रात्री दोन वाजता कार्यक्रम संपला. सर्वजण तिथेच थांबले आणि दुसऱ्या दिवशी गेले. केवळ आठ दिवसाच्या वास्तव्यात स्वामीजींचे निरासक्त, निसंग, वैराग्यशीलता ,विनम्रता हे विशेष गुण आणि त्यांचे,चर्चांमधून, प्रतिक्रियातून आणि काही प्रसंगातून विविधरंगी आणि समृद्ध व्यक्तिमत्व आपल्याला दिसतं.

एव्हढ्याशा काळातल्या अनुभवावरून मन्मथबाबूंच्या मनावर स्वामीजींच्या व्यक्तिमत्वाचा खोलवर ठसा उमटला. खरं म्हणजे ते कट्टर ब्राह्मसमाजी होते. पण या काळात ते आतून बाहेरून पूर्ण बदलले आणि पुन्हा हिंदू धर्माचे चाहते झाले. एव्हढे की पुढे आयुष्यभर दोघांचाही खर्च स्वत: करून स्वामीजींच्या सहवासात वृंदावनला कायमचे राहण्यास तयार झाले. पण स्वामीजींनी त्याला नम्रतेने नकार दिला. इथल्या नाथनगरमध्ये असलेल्या जैन मंदिराला स्वामीजींनी भेट दिली. तिथल्या जैन आचार्यांशी जैन तत्वज्ञानवर चर्चा केली. मन्मथबाबूंकडे राहणारे मथुरानाथ सिन्हा म्हणतात की, ” धर्म आणि तत्वज्ञान यावर झालेल्या चर्चेतून ज्ञान आणि अध्यात्मिकता  हे जणू स्वामीजींचे श्वासोच्छवास आहेत आणि त्यांच्या सर्व विवेचनात उत्कट आणि नि:स्वार्थी देशप्रेमाची भावना आहे.

मन्मथबाबू आपल्याला सोडत नाहीत असे पाहून स्वामीजींनी ते घरात नसताना जाण्याचे ठरवले तेंव्हा, बाबू घरी आल्यावर ते पाहून अस्वस्थ झाले आणि लगेच त्यांच्या मागोमाग त्यांना गाठायला निघाले. पण स्वामीजी हिमालयात अल्मोऱ्या पर्यन्त गेले होते. हे ऐकून ते अल्मोऱ्या पर्यन्त गेले तरीही स्वामीजींना ते गाठू शकले नाहीत. शेवटी निराश होऊन मन्मथबाबू भागलपुरला परत आले. स्वामींजीच्या आठवड्याच्या सहवासातून मन्मथबाबूंसारख्या थोडी आध्यात्मिक संवेदनशीलता असलेल्या सुशिक्षित व्यक्तीवर केव्हढा प्रभाव पडला होता याच हे बोलकं उदाहरण आहे. जे स्वामीजींना भेटत ते त्यांचेच होऊन जात.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 20 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 20 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

२७.

प्रकाश? अरे, कुठं आहे प्रकाश?

सतत चेतलेल्या इच्छेच्या अग्नीने तो फुल्ल!

 

दीप आहे, पण थरथरणारी ज्योत नाही,

हे ह्रदयस्था! हे माझे दैव आहे!

तुझा दुरावा मरणप्राय वाटतो!

 

दु:ख तुझ्या दाराशी क्वचित येतं

 

त्याचा संदेश आहे, तुझा स्वामी जागा आहे.

रात्रीच्या अंधारातून

तो तुला प्रेमसंकेत देतो आहे.

 

आभाळ भरून आलंय,

पाऊस संततधार कोसळतोय.

 

माझ्या अंत: करणात कसली कालवाकालव होते

त्याचा अर्थ उमगत नाही.

 

क्षणात चमकून जाणारी वीज

माझ्या नजरेला अंधारी आणते.

रात्र- संगीताकडे नेणारा मार्ग

माझं काळीज शोधू लागतं.

 

कुठाय प्रकाश?

ज्वलंत इच्छेच्या ज्योतीनं तो चेतव.

विजांचा लखलखाट होतोय.

आकाशाच्या पोकळीतून सुसाट वारा वाहतोय.

काळ्या दगडासारखी रात्र काळीकुट्ट आहे,

अंधारातच सारी रात्र जायला नको.

 

प्रेमाचा दीप आयुष्य उजळू दे.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #149 ☆ कहानी – जेबकतरे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय कहानी  ‘जेबकतरे ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 149 ☆

☆ कहानी – जेबकतरे 

उस दिन मुझे जबलपुर से सतना तक ट्रेन से सफर करना था। ट्रेन में रिज़र्वेशन की सुविधा नहीं थी। बस, टिकट खरीद लो और जहाँ जगह मिले, बैठ जाओ। प्लेटफॉर्म पर लहराती हुई भीड़ को देखकर मुझे लगा आज का सफर बहुत मुश्किल होगा।

ट्रेन आयी और चढ़ने के लिए धक्का-मुक्की शुरू हो गयी। मुझे डिब्बे में प्रवेश करना बहुत कठिन लग रहा था, लेकिन तभी एक परिचित डिब्बे के अंदर दिख गये और उनकी मदद से डिब्बे में प्रवेश मिल गया।

जल्दी ही खिड़की के सामने प्लेटफॉर्म पर एक नाटक हुआ। कुछ लोग दस बारह साल के दो छोकरों को कहीं से पकड़ कर लाये और उनके साथ मारपीट करने लगे। उन लोगों का कहना था कि छोकरे जेबकतरे हैं। मारपीट के साथ वे उनसे कुछ पूछताछ भी कर रहे थे। इतने में ही कहीं से दो आदमी प्रकट हुए। उन्होंने दोनों छोकरों को उन लोगों के हाथों से छुड़ाकर उन्हें एक एक लात लगायी। छोकरे छूटते ही एक दिशा में भाग गये। उनके पीछे वे दोनों आदमी भी चले गये और छोकरों को पकड़ने वाले देखते रह गये। इसके बाद डिब्बे के भीतर और बाहर टिप्पणियाँ हुईं कि दोनों आदमी छोकरों से मिले हुए थे और उन्होंने जानबूझकर उन्हें भगाया था।

ट्रेन चलने के बाद डिब्बे में जेबकतरों के किस्से शुरू हो गये। एक साहब ने बताया कि अब जेबकतरे पकड़े जाने पर ब्लेड से पकड़ने वाले का हाथ भी चीर देते हैं और भाग जाते हैं। एक सज्जन ने लखनऊ का किस्सा सुनाया कि वहाँ के जेबकतरों की प्रसिद्धि सुनकर कैसे एक साहब अपनी जेब में नकली सोने के सिक्कों को लेकर घूमते रहे और शाम को डींग मारने लगे, और कैसे वहाँ के जेबकतरे ने उन्हें बताया कि उनकी जेब से नकली सिक्के निकालकर और परख कर वापस उनकी जेब में रख दिये गये थे।

फिर तो किस्से में किस्से जुड़ते गये और ‘जेबकतरा-पुराण’ बनता गया। लोगों ने मुग़ल बादशाहों के ज़माने से लेकर वर्तमान जेबकतरों तक का यशोगान किया। हम सब तन्मय होकर सुनते रहे और रोमांचित होते रहे।

एकाएक डिब्बे के दरवाजे़ की तरफ शोर हुआ और सब का ध्यान उस तरफ बँट गया। पता चला कोई जेबकतरा जेब काटने की कोशिश करता पकड़ा गया है। खड़े हुए लोगों की जु़बान पर चढ़कर बातें हम तक आने लगीं। पता लगा कि उसने किसी की जेब में हाथ डाला था कि पकड़ में आ गया।

बड़ी देर तक गर्मा-गर्मी की आवाज़ें  आती रहीं। तेज़ बातों के साथ आघातों की आवाजे़ं में भी आ रही थीं, जिन से ज़ाहिर होता था कि जेबकतरे की पूजा घूँसों से की जा रही है।

जब बहुत देर हो गयी तो मेरी उत्सुकता जागी। किसी तरह लोगों के बीच से जगह बनाता मैं उस हिस्से में पहुँचा जहाँ लोगों की एक मोटी गाँठ इकट्ठी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने लोगों के बीच से झाँका। उस गाँठ के बीच में एक साँवला युवक था, कमीज़ पतलून पहने। उसके सिर के बाल बहुत सस्ते ढँग से सँवारे हुए थे और वह सामान्य परिवार का दिखता था। क्या वह जेबकतरे सा लगता था? हाँ, वह शत-प्रतिशत जेबकतरा लगता था क्योंकि यदि किसी महात्मा  को भी एक बार जेबकतरे का लेबिल लगाकर आपके सामने खड़ा कर दें तो वे हर तरफ से जेबकतरे लगने लगेंगे।

ख़ास बात यह थी कि युवक की नाक से ख़ून बह रहा था और उसकी कमीज़ पर ख़ून के दाग ही दाग थे। वह बार-बार अपनी हथेली से अपनी नाक पोंछता था, जिस कारण उसकी हथेली भी लाल हो गयी थी।

सहसा युवक ने अपने सामने खड़े लोगों की तरफ हाथ बढ़ाये और चीखा, ‘मेरे पैसे लौटा दो। वे चोरी के नहीं, मेरे खुद के पैसे थे।’

जवाब में वहाँ खड़े एक आदमी ने एक घूँसा उसकी नाक पर मारा और वह आँख मींच कर चुप हो गया। उसने अपनी कमीज़ उतार कर नाक पर लगा ली।  

लेकिन आधे मिनट की चुप्पी के बाद ही वह हाथ उठाकर पागलों की तरह फिर चीखा, ‘अरे मेरे पैसे दे दो रे। मैंने चोरी नहीं की। वे मेरे पैसे थे। मेरे पैसे लौटा दो।’

फिर एक घूँसा उसकी नाक पर पड़ा और वह फिर शांत हो गया।

कुछ क्षण रुकने के बाद वह एक आदमी का कॉलर पकड़कर आँखें फाड़े बिलकुल विक्षिप्त की तरह चिल्लाने लगा, ‘मेरे पैसे दे दे नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा। मैं तुझे खा जाऊँगा।’

सब तरफ से घूँसों की बारिश शुरू हो गयी और युवक अपना चेहरा बाँहों में छिपा कर पीछे दीवार से टिक गया।

स्थिति मेरे बर्दाश्त से बाहर थी, अतः मैं अपनी सीट की तरफ वापस लौटा। तभी मैंने सुना कोई कह रहा था, ‘साले की घड़ी भी चोरी की होगी। उतार लो।’

इसके थोड़ी देर बाद ही उस तरफ इकट्ठी भीड़ छँटनी शुरु हो गयी और लोग हमारी तरफ को आने लगे। मैंने देखा उधर से आये दो आदमियों ने अपनी मुट्ठी में दबे नोट गिने और अपनी जेब में रख लिये। उन्हीं में से एक के हाथ में वह घड़ी थी जो थोड़ी देर पहले उस युवक की कलाई पर थी। वह आसपास बैठे लोगों को वह घड़ी दिखा रहा था।

गाड़ी कटनी स्टेशन पर रुकी। युवक से चीज़ें छीनने वाले मेरी खिड़की पर इकट्ठे होकर सावधानी से झाँकने लगे।  

उनमें से एक झाँकता हुआ बोला, ‘उतर गया।’

दूसरा पीछे से बोला, ‘देखो कहाँ जाता है। स्टेशन मास्टर के दफ्तर में जाता है क्या?’

पहला झाँकता हुआ बोला, ‘नहीं दिख रहा है। लगता है किसी दूसरे डिब्बे में चला गया।’

यह सुनकर उन सब ने लंबी साँस छोड़ी। एक बोला, ‘उसकी क्या हिम्मत है शिकायत करने की।’

इसके बाद उन सब ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘साला, जेबकतरा कहीं का।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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