मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ “सांगाती: स्मरण झुला एका जिप्सीचा” ☆ परिचय – सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

 

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “सांगाती: स्मरण झुला एका जिप्सीचा” ☆ परिचय – सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

लेखक -सदानंद कदम

प्रकाशक- सुनील अनिल मेहता, मेहता पब्लिशिंग हाऊस,

प्रथमावृत्ती -नोव्हेंबर,२०२१

सदानंद कदम यांचे ‘सांगाती: स्मरण झुला एका जिप्सीचा’ हे पुस्तक वाचायला मिळालं, तेव्हा खरं सांगायचं तर मला लेखकाविषयी काही माहिती नव्हती. पण जेव्हा पुस्तक वाचले, त्यांना भेटलेल्या, त्यांच्या सहवासात आलेल्या अनेक प्रसिद्ध व्यक्तींबद्दल वाचायला मिळाले तेव्हा खरंच पुस्तक खूप आवडले ! एक दोन नाही तर अठ्ठेचाळीस व्यक्तींविषयी त्यांनी लिहिले आहे. अनेक मोठमोठ्या व्यक्तींबरोबर घालवलेले काही क्षण, काही वेळ आणि त्यांचा संवाद त्यांनी खूपच छान  रंगवले आहे. विंदा करंदीकर, कवी कुसुमाग्रज, जगदीश खेबुडकर, शांता शेळके ही तर माझी अत्यंत आवडती व्यक्तिमत्व ! त्यांच्याविषयी वाचताना तर मन भारावून जाते !

बाबासाहेब पुरंदरे, निनाद बेडेकर, रणजित देसाई ,गो नी दांडेकर, यांनी लिहिलेल्या पुस्तकांची पारायणे केलेली.. अशा थोर लेखकांचा सहवास कदम यांना लाभला. जी डी बापू लाड, नागनाथ अण्णा, शंतनुराव किर्लोस्कर, तारा भवाळकर ही तर आपल्या सांगली जिल्ह्यातील प्रसिद्ध व्यक्तिमत्व ! इतकेच नाही तर जयमाला शिलेदार, पद्मजा फेणाणी, भक्ती बर्वे ही आपल्या नाट्य गायन क्षेत्रातील प्रसिद्ध मंडळी ! या सर्वांबरोबर काही काळाचा सहवास कदम यांना मिळाला हे तर त्यांचे भाग्यच !

त्यांचा प्रत्येक लेख वाचताना मनापर्यंत पोचतो हीच पुस्तक आवडल्याची पावती ! सुरेश भट, अशोकजी परांजपे, शाहीर योगेश या काव्यक्षेत्रातील ज्येष्ठ मंडळींचा थोडक्यात परिचय आणि लेखकाचा त्यांच्याशी काहीना काही कारणाने आलेला संबंध आणि त्याला अनुसरून त्यांना मिळालेला सहवास, यासंबंधीचे लेख वाचनीय आहेत.

अगदी सिंधुताई सपकाळ, प्रकाश आमटे यासारख्या समाज सुधारकांबरोबरही त्यांनी काही काळ व्यतीत केला होता, तर व. पु. काळे, विश्वास पाटील, शिवाजीराव भोसले तसेच  सुहास शिरवळकर यांच्याही संपर्कात कदम हे काही काळ  होते. एका सामान्य घरात रहाणाऱ्या व्यक्तीने केवळ आपल्या जगण्याच्या आनंदासाठी पुस्तक वाचन, ग्रंथ वाचन यास वाहून घेतले, त्यासाठी भरपूर पुस्तके खरेदी केली. आणि या  सगळ्या सांगात्यांना  बरोबर घेऊन आपले आयुष्य आनंददायी घडवले. कदम म्हणतात, ‘ माझ्या स्मरणाच्या, आठवणीच्या त्या झुल्यावर आजही मी झुलत असतो आणि माझ्या सोयऱ्यांचे बोट धरून वाटचाल करत असतो.’ 

 ‘ सांगाती ‘ हे पुस्तक मला आवडले आणि इतरांनाही ते वाचावेसे वाटावे यासाठी हा पुस्तक परिचय !

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #141 ☆ औरत की नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 141 ☆

☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’ कबीरदास जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है,निराकार है और उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न करते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर एक-दूसरे का दुश्मन भी बना देते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी,तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे,कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं,अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल,फिर बोल’ की सीख दी गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते,आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक,राजनीतिक,सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित,असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग आजकल टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते,क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल,अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/ औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाय’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, कि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है,वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है,उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना,काम नहीं आसान/ जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं,क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं,जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है तो वह सम्मान का कारक बनती है,अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं,विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें। 

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या,बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव,छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी,बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है,जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण,फ़िरौती,दुष्कर्म,हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं। लॉकडाउन में घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना,पत्नी के साथ घर के कामों में हाथ बंटाना,परिवाजनों से मान-मनुहार करना पुरुष मानसिकता के अनुरूप उसे रास नहीं आया,जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा,ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #140 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 140 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … दिल ☆

दिल से दिल की दूरियां, दूर करो तुम आज।

प्रणय निवेदन कर रहे, बन जाओ सरताज।।

दिल कितना बेचैन है, देख लिया है आज।

मिलने को आतुर हुआ, रख ली उसने लाज।।

मजबूरी मेरी रही, आया नहीं मैं पास।

दिल तो तेरे पास है, बस इतनी थी आस।।

दिल तो तेरा हो गया, रखना उसका मान।

चोट न अब उसको लगे, कभी न हो अपमान।।

हमने बस अब कर दिया, सब कुछ तेरे नाम

दिल की सारी ख्वाहिशें, दिल है तेरे नाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #129 ☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं आपकी  “एक बुन्देली पूर्णिका। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 129 ☆

☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बाप मताई खों आंख दिखा रए, शरम ने आई।

करनी अपनी खूब लजा रए, शरम ने आई।

 

कभउं जो कोउ के काम ने आबे, मूंड पटक लो,

खुद खों धन्ना सेठ बता रए, शरम ने आई।

 

झूठ-फरेब कुकर्म करे, दौलत के लाने।

तीरथ जा खें पुण्य कमा रए, शरम ने आई।

 

पढ़वे लिखवे में तौ, सबसे रहे पछारूं,

अब नेता बन धौंस जमा रए, शरम ने आई।

 

भूखी अम्मा घर में, परी परी चिल्लाबे,

बाहर भंडारे करवा रए, शरम ने आई।

 

धरम-करम “संतोष”छोड़ खें, सारे भैया,

दौलत के लाने भैरा रए, शरम ने आई।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #133 ☆ गुरुपौर्णिमा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 133 – विजय साहित्य ?

☆ गुरुपौर्णिमा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

ज्ञानार्जन,  ज्ञानदान

नित्य हवे देणे घेणे

शिकविते चराचर

ज्ञान सृजनाचे लेणे. . . . !

 

गुरू रूप ईश्वराचे

जगण्याचा मार्ग देते.

कृपा प्रसादे करून

सन्मार्गाच्या पथी येते. . . . . !

 

गुरू ईश्वरी संकेत

संस्काराची जपमाळ

शिकविते जिंकायला

संकटांचा वेळ,  काळ. . . . . !

 

चंद्र  प्रकाशात जसे

तेज चांदणीला येते

पौर्णिमेत आषाढीच्या

व्यास रूप साकारते.. . . !

 

माणसाने माणसाला

घ्यावे जरा समजून

ऋण मानू त्या दात्यांचे

गुरू पुजन करून. . . . !

 

संस्काराचा  ज्ञानवसा

एक हात देणार्‍याचा

पिढ्या पिढ्या चालू आहे

एक हात घेणार्‍याचा.

 

असे ज्ञानाचे सृजन

अनुभवी धडे देते

जीवनाच्या परीक्षेत

जगायला शिकविते. . . !

 

ज्ञानियांचा ज्ञानराजा

व्यासाचेच नाम घेई.

महाकाव्ये , वेद गाथा

ग्रंथगुरू ज्ञान देई. . . . !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆ सासू, सून आणि DP ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? चं म त ग ! 😅

🤣 सासू, सून आणि DP ! 😂💃श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

“सुनबाई, ऐकत्येस का ?”

“काय आई ?”

“अगं बाबू उठला का गं ?”

“आई बाबू म्हणजे….”

“किती वर्ष झाली गं तुमच्या प्रेमविवाहाला सुनबाई ?”

“इश्श, तुम्हांला जसं काही माहीतच नाही !”

“मला माहित आहे गं, पण तुमच्या या प्रेमविवाहाआधी किती वर्ष फिरत होतात ते माहित नाही नां, म्हणून विचारलं !”

“अहो आई, या डिसेंबरला चौदा वर्ष पुरी होतील !”

“काय गं सुनबाई, तुमचा लग्नाआधी  आम्हांला अज्ञानात ठेवून फिरायचा तुमचा अज्ञातवासातील प्रेमाचा एक वर्षाचा काळ धरून, का…..?”

“नाही आई, ते वर्ष धरलं तर मग पंधरा होतील !”

“सुनबाई, जरी तुमचा एक वर्षाचा अज्ञातवास लग्ना आधीच संपला असला, तरी तुमची सगळी चौदा वर्षाची शिक्षा भोगून झाल्ये आणि तरी तुला बाबू कोण माहित नाही ?”

“अय्या, म्हणजे तुम्ही विलासला बाबू म्हणता आई ?”

“लवकर कळलं माझ्या बबडीला !”

“आता ही बबडी कोण आणलीत मधेच तुम्हीं आई ? विलासची कोणी माझ्या आधी दुसरी मैत्रीण होती का ?”

“कठीण आहे ! अगं मी माझ्या बबडीला म्हटलं नां ? मग ! ते सगळं सोड आणि मला सांग बाबू उठला का नाही अजून, नऊ वाजून गेले !”

“झोपू दे की जरा त्याला आई, आज रविवार तर आहे !”

“अच्छा, आज रविवार म्हणजे सुट्टी म्हणून झोपू दे म्हणतेस, तर मग आज जेवणाला पण सुट्टी वाटतं ?”

“मला सांगा आई, आत्ता पर्यंत किती रविवार मी तुम्हांला उपाशी ठेवलंय हॊ ?”

“तुझी काय बिशाद मला उपाशी ठेवायची !”

“नाही नां ? मग असं बोलवत तरी कसं तुम्हाला आई ?”

“अगं, एवढ्या उशिरा उठायचं मग अकरा साडेअकराला नाष्टा करायचा आणि दोन अडीचला जेवायचं, हे बरं दिसतं का ?”

“अहो आई, पण रोज तुम्हांला एक वाजता जेवायला मिळतंय नां, मग एक दिवस उशीर झाला तर कुठे बिघडत म्हणते मी ?”

“माझं नाही बिघडत गं, तुझा स्वयंपाक बिघडतो त्याच काय ?”

“स्वयंपाक बिघडतो ? म्हणजे काय आई ?”

“अगं काय आहे, आधीच उशीर झालेला असतो जेवायला, मग तू घाईघाईत स्वयंपाक करतेस आणि मग कधी भाजी तिखट तर कधी आमटी खारट होते, खरं नां ?”

“अहो एखाद्या रविवारी झाली असेल चूक, म्हणून काय लगेच नांव ठेवायला नकोयत माझ्या स्वयपाकाला !”

“मग लग्नाच्या बैठकीत, ‘स्वयंपाक येतो का’ असं मी जेंव्हा तुला विचारलं तेंव्हा अगदी तोंड वर करून कशाला म्हणायचं ‘स्वयंपाकाची भयंकर आवड !”

“बापरे ! इतक्या वर्षांनी हे बरं तुमच्या लक्षात आहे ! आणि हॊ, आहेच मला स्वयंपाकाची भयंकर आवड !”

“बरोबर आहे सुनबाई, पण तेंव्हा बोलतांना तुझी वाक्य रचना थोडी चुकली असावी असं मला आत्ता वाटतंय खरं !”

“कशी ?”

“अगं तुला ‘भयंकर स्वयंपाकाची आवड’ असं म्हणायचं असेल तेव्हा, खरं नां ?”

“अजिबात नाही, तुमचीच ऐकण्यात काही चूक झाली असेल आई !”

“असेल असेल, पण दुसरी एक गोष्ट नक्कीच तू आमच्या पासून इतकी वर्ष लपवलीस, त्याच काय ?”

“कुठली गोष्ट आई ?”

“तुझ्या अंगात देवी येते ते !”

“का sss य, काय म्हणालात तुम्ही? माझ्या अंगात देवी येते ?”

“हॊ ssss य ! आणि तू हे आमच्या पासून इतकी वर्ष लपवून ठेवलस, हे सत्य आहे ! बाबुला तरी माहित आहे की नाही कोण जाणे !”

“आई पुरे झालं आता ! ‘भयंकर जेवणापर्यंत’ ठीक होतं, पण आता हे अति होतंय ! कुणी सांगितलं हॊ तुम्हाला माझ्या अंगात…..”

“अगं कोणी सांगायला कशाला हवंय, मी मगाशीच तुझा DP बघितला आपल्या व्हाट्स अपच्या ‘फॅमिली कट्ट्यावर !”

“DP ? कसला DP ?”

“अगं केस मोकळे सोडून काढलेला तुझा DP आज तू टाकलायस नां, तो पाहून माझी खात्रीच पटली, नक्कीच तुझ्या अंगात…..”

“धन्य झाली तुमची आई ! अहो आज मी न्हायल्यावर लगेच सेल्फी काढून तो DP म्हणून ठेवलाय ! कळलं ?”

“कर्म माझं ! अगं मला वाटलं तुझ्या अंगात बिंगात येत की काय !”

“काहीतरीच असतं तुमच आई ! बरं आता जाऊ का नाष्टा बनवायला ?”

“जाशील गं, पण त्याच्या आधी माझं एक छोटंसं काम कर नां !”

“कसलं कामं आई ?”

“मला पण आपल्या ग्रुपवरचा माझा DP बदलायचा आहे ! तेवढा माझा फोटो काढ आणि आपल्या फॅमिली कट्ट्यावर DP म्हणून टाक आणि मग जा नाष्टा करायला !”

“ठीक आहे आहे आई ! या इथे खुर्चीत बसा आरामात, म्हणजे मी…..”

“अगं इथं नको, किचन मध्ये स्वयंपाक करताना काढ !”

“काय ? अहो मी लग्न होऊन या घरी आले तेव्हापासून तुम्ही किचन मधे कधी पाय तरी ठेवला आहे का ?”

“अगं पण DP मधे जे दिसत ते थोडंच  खरं असतं ?”

“म्हणजे ?”

“अगं सुनबाई तुझ्या कुठे अंगात येत, पण मला तसं वाटलं की नाही तुझा DP बघून ? तसंच मी स्वयंपाक करायची नुसती ऍक्शन केली म्हणून कुठे बिघडलं ?”

“नको आई, त्यापेक्षा माझ्या डोक्यात एक भन्नाट पोज आली आहे तुमच्या DP साठी !”

“कुठली गं पोज ?”

“तुमचं जेवणाचं ताट, मी केलेल्या वेगवेगळ्या चमचमित पदार्थांनी भरलं आहे आणि तुम्हीं अगदी समाधानाने त्यावर आडवा हात मारताय ! ही पोज कशी काय वाटते ?”

“चालायला लाग नाष्टा करायला लगेच !”

© प्रमोद वामन वर्तक

१५-०७-२०२२

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 95 ☆ वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय लघुकथा वाह रे इंसान !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 95 ☆

☆ लघुकथा – वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

शाम छ: बजे से रात दस बजे तक लक्ष्मी जी को समय ही नहीं मिला पृथ्वीलोक जाने का। दीवाली पूजा  का मुहूर्त ही समाप्त नहीं हो रहा था। मनुष्य का मानना है कि दीवाली की रात  घर में लक्ष्मी जी आती हैं। गरीब-अमीर सभी घर के दरवाजे खोलकर लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा करते रहते हैं। खैर, फुरसत मिलते ही लक्ष्मी जी दीवाली-पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पड़ीं।

एक झोपड़ी के अंधकार को चौखट पर रखा नन्हा – सा दीपक चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा कि झोपड़ी में एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था, चित्र पर दो- चार फूल चढ़े थे और एक दीपक यहाँ मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोड़े से खील–बतासे एक कुल्हड़ में रखे हुए थे।     

लक्ष्मी जी को याद आई – ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढ़ी स्त्री। जिसने उसकी झोपड़ी पर जबरन अधिकार करनेवाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपड़ी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा। जमींदार ऐसा नहीं कर पाया तो बूढ़ी स्त्री ने कहा कि एक टोकरी मिट्टी का बोझ नहीं उठा पा रहे हो तो यहाँ की हजारों टोकरी मिट्टी का बोझ कैसे उठाओगे? जमींदार ने लज्जित होकर बूढ़ी स्त्री को उसकी झोपड़ी वापस कर दी। लक्ष्मी जी को पूरी कहानी याद आ गई, सोचा – बूढ़ी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।

जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खड़े थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह-जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी, मंदिर में भी खान-पान का वैभव भरपूर था। उन्होंने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साड़ी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से बोला – ‘एक बुढ़िया की झोपड़ी लौटाने से मेरे नाम की जय- जयकार हो गई, बस यही तो चाहिए था मुझे। धन से सब हो जाता है, चाहूँ तो कितनी टोकरी मिट्टी भरकर बाहर फिकवा दूँ मैं। गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो जमींदार कैसे कहलाऊँगा। यह वैभव कहाँ से आएगा, वह गर्व से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोला – यह धन–दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 113 –“पंचमढ़ी एक खोज” – लेखक – श्री सुरेश पटवा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है लेखक… श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक  “पंचमढ़ी एक खोज” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 113 ☆

☆ “पंचमढ़ी एक खोज” – लेखक – श्री सुरेश पटवा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पंचमढ़ी एक खोज

लेखक.. सुरेश पटवा

वालनट पब्लिकेशन, भुवनेश्वर

पृष्ठ ८४, मूल्य १४९ रु

अमेज़न लिंक (कृपया यहाँ क्लिक करें)  👉 पंचमढ़ी एक खोज

पर्यटन और साहित्य में गहरा नाता होता है. जब लेखक को पर्यटन के माध्यम से सुन्दर दृश्य, मनोरम वातावरण मिलता है तो नये विचार जन्मते हैं, जो उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति में किसी न किसी विधा में कभी न कभी महज यात्रा वृतांत या पर्यटक स्थलो पर केंद्रित साहित्य से इतर भी शब्द बनकर फूटते ही हैं, और कविता, कहानी, साहित्य का नवसृजन करते हैं.

पचमढ़ी मध्य प्रदेश में सतपुड़ा पर्वत श्रंखला का एक मनोहारी रमणीय पर्यटन स्थल है. जब पचमढ़ी पर केंद्रित श्री सुरेश पटवा की पुस्तक “पंचमढ़ी की खोज” नाम से मुझे प्राप्त हुई तो सर्वप्रथम मेरा ध्यान  पचमढ़ी कहे जाने वाले इस स्थल को “पंचमढ़ी” लिखे जाने पर गया और मैं पूरी किताब पढ़ गया. सुरेश पटवा जी पचमढ़ी के निकट सोहागपुर में ही पले बढ़े हैं. स्वाभाविक रूप से जब उन्होनें अध्ययन और लेखन के क्षेत्र में कदम बढ़ाये तो  पचमढ़ी के विषय में उनकी उत्सुकता ने ही उन्हें जेम्स फार्सायथ की अंग्रेजी पुस्तक पढ़कर, पंचमढ़ी की खोज को हिन्दी पाठको हेतु सुलभ करने को प्रेरित किया.

उन्होंने अपने गहन आध्यात्मिक, एतिहासिक  अध्ययन  वैज्ञानिक तर्क वितर्क और, अपने मित्र श्रीकृष्ण श्रीवास्तव के संग कहे, सुने, घूमे पचमढ़ी की जंगल यात्रा के संस्मरणो को अपनी विशिष्ट  सरल भाषा, सहज शैली, और रोचक, रोमांचक, किस्सागोई, तथ्य पूर्ण जानकारियों से भरपूर सामग्री के रूप में यह पुस्तक लिखी है. किताब में जेम्स फार्सायथ, देनवा घाटी की गोद में, पंचमढ़ी का पठार, बायसन लाज की दिक्कतें, नागलोक का सच, पर्यटन  जैसे दस चैप्टर्स में लेखक ने अपनी बात रखी है. लेखक बताते हैं कि आज की सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थली पचमढ़ी की खोज १८६१..६२ में अंग्रेजो ने की थी. तत्कालीन इतिहास और भूगोल को समझाते हुये वे लिखते हैं ” तब भारत १८५७ के भयानक तूफान से गुजरा था, पिपरिया बसा नहीं था, ट्रेन लाईन उसके दस बरस बाद बिछाई गई. ” 

(‘पंचमढ़ी की खोज’  श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है। 

श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। )

 

श्री सुरेश पटवा के लेखन की विशेषता है कि वे अपने सारे अध्ययन के आधार पर सिलसिले से पाठक से बातें करते सा लेखन करते हैं, वे पौराणिक संदर्भो, इतिहास, भूगोल,वैज्ञानिक विश्लेषण,  साहित्य आदि सारी जानकारियां जुटा कर लिखने बैठते हैं. उप शीर्षकों में छोटे छोटे पैराग्राफ्स में लेखन करते हैं. यह अच्छा भी है किन्तु उन उपशीर्षक सामग्री को किंचित बेहतर तारतम्य में पिरोया जा सकता है.   जैसे उदाहरण स्वरूप “बायसन लाज की दिक्कतें ” चैप्टर में “उन्नीसवीं सदी का आदिवासी जीवन” या “शिवरात्रि मेला ” जैसे उपशीर्षकों का समावेश समीक्षा की दृष्टि से अप्रासंगिक तथा विषय विचलन कहा जा सकता है. किन्तु विषय के ज्ञान पिपासु पाठक हेतु प्रत्येक छोटी बड़ी जानकारी किसी भी क्रम में मिले महत्वपूर्ण ही होती है. मांधाता उपशीर्ष में लेखक आर्य अनार्य, स्कंद पुराण, राजा रघु की चर्चा करते हैं तो वे हजारों वर्षो के इतिहास को समेटते हुये भीलों की भौगोलिक उपस्थिति की बातें भी बताते हैं. 

कुल मिलाकर पचमढ़ी पर जो हिन्दी साहित्य अब तक मिलता है उससे हटकर, एक शोधपूर्ण पठनीय किताब हिन्दी में पढ़ने मिली, जिसमें पर्यटन की जानकारियां भी हैं और पचमढ़ी के आदिकालीन नागलोक, धूपगढ़ के किस्से भी हैं.   हिन्दी जगत को इस कृति के लिये पटवा जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी ही चाहिये. उन्होने कविता, गजल, इतिहास, यात्रा वृतांत, बहुविधा लेखन किया है और उनमें हर नई विधा को सीखने समझने की अभिरुचि है, यही कारण है कि वे सतत नये विषयों पर नई नई किताबों के साथ अपनी वजनदार उपस्थिति साहित्य जगत में दर्ज कर रहे हैं. शुभकामना.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख से सीखें और सिखाएँ # 108 ☆ व्यास पूर्णिमा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  व्यास पूर्णिमा । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख से सीखें और सिखाएं # 108 ☆

☆ व्यास पूर्णिमा ☆ 

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

अर्थात् महान गुरु को अभिवादन, जिन्होंने उस अवस्था का साक्षात्कार करना संभव किया जो पूरे ब्रम्हांड में व्याप्त है, सभी जीवित और निर्जीव में।

इस बात पर सभी एकमत हैं कि जिससे भी ज्ञान मिले वो हमारा गुरु कहलाता है। किंतु क्या ऐसा कहना सही होगा।  ज्ञान तो वक्त के साथ – साथ कड़वे अनुभवों से मिलता है। हर पल कहीं न कहीं से कुछ न कुछ हम सीखते रहते हैं। किंतु वास्तव में इन सबको गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। गुरु बिनु ज्ञान न होय। कोई भी सच्चा ज्ञानी तभी हो सकता है जब उसके मन का अंधकार दूर होकर उसकी अंतरात्मा प्रकाशित हो उठे। और ऐसा केवल सच्चा मार्गदर्शक ही कर सकता है।

जहाँ जाने से मन को सुकून मिले और ऐसा लगने लगे कि अब जीवन को जानने व समझने की  खोज खत्म हो गयी है वहीं पर विश्राम करते हुए ध्यानस्थ हो जाना चाहिए। जितने भी संत महात्मा हुए हैं वे सभी इसी तरह शांत- चित्त से समाज में रहते हुए भी परमात्मा के साथ एकीकार हो गए हैं।

व्यास पूर्णिमा यही संदेश सदियों से जनमानस को देती हुई चली आ रही है। हमारा सनातन धर्म पूर्णतया वैज्ञानिक मापदंडों पर खरा उतरता है। ॐ में सम्पूर्ण सृष्टि को समाहित करते हुए जब कोई मंत्र बोला जाता है तब वो स्वयं सिद्ध होकर जनमानस के ऊर्जान्वित करता है।

चौमासे की शुरुआत से ही पूजा पाठ का जो दौर शुरू होता है वो देवउठनी एकादशी पर पूर्णता को प्राप्त करता है। प्रकाश का जीवन में आगमन ही अंधकार का अंत होता है। इसे श्रेष्ठ गुरु के सानिध्य से ही पाया जा सकता है।

आइए विचारों की समस्त उथल- पुथल को गुरु को सौंप कर राष्ट्रहित में कुछ अच्छा करें कुछ सच्चा करें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 118 ☆ वंदना गीत – निर्धनों को मान दे दो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 118 ☆

☆ वंदना गीत – निर्धनों को मान दे दो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

भगवती माँ शारदे तुम

शिष्टता का ज्ञान दे दो

हर बुराई दूर करके

मधुर वंशी तान दे दो

 

प्रेम का दीपक जलाओ

सत्य पथ पर तुम चलाओ

ज्ञान का आलोक देकर

हर मुसीबत से बचाओ

 

मैं भलाई कर सकूँ माँ

सभ्यता , सम्मान दे दो

 

सुरभि का सामर्थ्य देना

धरणि – सा परमार्थ देना

व्योम अक्षय सार का तुम

शुभ्र नूतन पार्थ देना

 

विनय भावों को सदा ही

अब नई पहचान दे दो

 

द्वेष ,तम को तुम हटा दो

दृष्टि नूतन – सी छटा दो

सत्य के नित अर्थ देकर

सरस सावन की घटा दो

 

नम्रता सदपंथ देकर

निर्धनों को मान दे दो

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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