हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 129 – लघुकथा – लेटर बॉक्स ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “लेटर बॉक्स”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 129 ☆

☆ लघुकथा – लेटर बॉक्स

शहर का एक मोड़, चौराहे से हटकर एक पेड़ के नीचे लाल रंग का खड़ा लेटर बॉक्स, अपनी कहानी कह रहा था। लगभग अस्सी साल के बुजुर्ग रामाधार रोज घर से निकलकर लाठी का सहारा लिए चलते – चलते वहां आते थे।

डाकिया बाबू का इंतजार करते हुए बैठे मिलते थे। प्रतिदिन की तरह केवल सरकारी ऑफिस के काम निपटाने वाली कागज और कुछ कार्ड निकलते थे। जिन्हें डाकिया बाबू लेकर चला जाता।

रामाधार को रोज बैठा देख उन्हें पूछा करते… “दादा किसकी चिट्ठी का इंतजार करते हो।” दादा रामाधार हंस कर कहते…. “मेरा बेटा बरसों से विदेश में है वहां से वह चिट्ठियां लिखेगा। उनका इंतजार करता हूं। कभी-कभी उसकी चिट्ठी आ जाती है। मैं रोज देखने आता हूं कि शायद आज आया होगा।”

डाकिया बाबू ने कहा…” दादा अब यह ‘लेटर बॉक्स’ सरकारी जैसा हो गया है। इसमें अब काम की चिट्ठियां कोई नहीं डालता। जमाना बदल गया है। कम से कम अब पारिवारिक चिट्ठियां तो कभी नहीं आती है।”

रामाधार को कान से कम सुनाई देता था। वह भी… “सरकारी नौकरी में ही गया है।” डाकिया बाबू को उन्होंने जवाब दिया। डाकिया बाबू अपना काम कर, लेटर बॉक्स बॉक्स बंद किए और चले जाते थे।

आज फिर निश्चित समय पर रामाधार वहां पर बैठे थे। उनके हाथ में एक चिट्ठी थी। डाकिया बाबू आए। खुश होकर उन्होंने कहा… “आज से साल भर पहले यह कार्ड आया था। आज ही के दिन।”

“आज मेरी चिट्ठी जरूर आएगी।” डाकिया बाबू ने देखा उनके हाथ में हैप्पी फादर डे का कार्ड अंग्रेजी के शब्दों में छपा लिखा था। डाकिया बाबू ने पत्रों को इकट्ठा किया। रामाधार जी की दो चिट्ठियां आई थी।

खुशी से झूम उठे। डाकिया बाबू से पढ़ने को कहा डाकिया बाबू ने पत्र पढ़ा….” मेरा तबादला कहीं और हो गया है पिताजी। अब मैं आपको पत्र नहीं लिख पाऊंगा। अपना ख्याल रखना।”

वह दोनों चिट्ठियों को लेकर घर की ओर चल पड़ा। एक चिट्ठी डाकिया बाबू को भी मिली। वह वहां पर पढ़ने लगे…. सरकारी आदेश था ‘यहां से लेटर बॉक्स को तुरंत हटा दिया जाए कहीं और सरकारी ऑफिस में रखवा दिया जाए।’

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ Father’s Day ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “Father’s Day।)

☆ आलेख ☆ Father’s Day ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत कुछ वर्षों से ये विदेशी मान्यताएं/ परम्पराएँ  हमारी संस्कृति में कब घुस गई, पता ही नहीं चला। मदर्स डे, वेलेंटाइन डे इत्यादि जोकि पश्चिमी संस्कृति के अनुरूप और प्रासंगिक हैं। ये ऐसा धीमा जहर है, जो हमारी विरासत को धीरे धीरे खोखला कर रहा हैं।

बाज़ार में बिक्रीवाद को प्रोहत्सहित करने वाली शक्तियां पूरी ताक़त से हमारी सहनशीनता/ सहिष्णुता  का फ़ायदा उठा कर हमारी संस्कृति को नष्ट करने पर उतारू हैं।

मुझे आश्चर्य होता है, हमारी उम्र के उन वरिष्ठजन से जो प्रतिदिन लंबे लंबे धार्मिक संदेश भेजने वाले भी फेस बुक, व्हाट्स ऐप पर फादर्स डे के संदेश भेजने में अग्रणी रहते हैं। परिवार की तीन पीढियां दादा, पिता और पुत्र के इस विदेशी त्यौहार को मानते हुए फोटो लगा कर गौरवान्वित महसूस करते हैं।  

हमें ये सब करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी? हमारे यहां तो प्रतिदिन पिता के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने की परंपरा हैं। ये पिता प्रेम के ढकोसले सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए हैं।

हमें किसी भी विदेशी सभ्यता / संस्कृति का विरोधी  होने की ज़रूरत नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने समाज/ धर्म के अनुसार त्यौहार मानने चाहिए ।

हमारे अपने त्यौहार मौसम और वैज्ञानिक दृष्टि से कहीं बेहतर हैं  । भेड़ चाल से बच कर अपने सिद्धान्त पर अडिग रहना चाहिए।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #145 ☆ अत्तर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 145 ?

☆ अत्तर…

काळोखाच्या कुपीत थोडे असते अत्तर

प्रणय विरांच्या भेटीसाठी झुरते अत्तर

 

परिश्रमाचे बाळकडू जो प्याला आहे

त्या देहाला सांगा कोठे कळते अत्तर

 

वास मातिचा ज्या सदऱ्याला येतो आहे

त्या सदऱ्याला पाहुन येथे हसते अत्तर

 

शौकीनांच्या गाड्यांसोबत असते कायम

खिशात नाही दमडी त्यावर रुसते अत्तर

 

शांत घराच्या चौकटीत हे कुठे थांबते

कायम उनाड वाऱ्यासोबत दिसते अत्तर

 

संस्काराच्या घरात झाला जन्म तरीही

नाठाळाच्या मागे का हे फिरते अत्तर ?

 

तुझ्या स्मृतीचे स्मरण मनाला होते तेव्हा

हळूच माझ्या डोळ्यांमधुनी झरते अत्तर

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन अलक, एक लघुतम कथा ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆ दोन अलक, एक लघुतम कथा ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

अलक-1: विवाह 

वधू व्हिडीओ शूटिंग एन्जॉय करत होती. चेहऱ्यावर छान स्माईल आणून वेगवेगळ्या पोजेस देत होती.

पण भटजी मध्येमध्ये डिस्टर्ब करत होते. मग ती तोंड वाकडं करत कसेबसे निधी निभावत होती आणि नंतर पुन्हा हसतमुखाने कॅमेराला सामोरी जात होती.

अलक -2 : मोठी

“आsssजीs”, नातवाच्या हाकेला आपण ‘ओ’ देऊ शकत नाही, त्याला कडेवर घेऊन गोष्टी सांगू शकत नाही, म्हणून बिछान्याला खिळलेल्या वसुमतीच्या डोळयांतून अश्रू ओघळले.

“आजी, आम्ही गेलो होतो ना, तर तिथे छोटा बाबू  होता. त्याला बोलायलाच येत नव्हतं.चालायलापण येत नव्हतं. मावशी म्हणाली -बाळ मोठा झाला, की त्याला बोलायला आणि चालायला येणार. आजी, तूपण मोठी झालीस, की तुला बोलायला आणि चालायला येणार.”

लघुतम कथा : अप्रूप

तशी रोज कमल आल्याआल्या भांडी घासायला सुरुवात करते.

आज मात्र ती शांत उभी राहून मला सांगायला लागली, “अहो ताई, त्या पलीकडच्या रस्त्यावर रात्री खून झाला. पोलीस आलेत तिथे. रस्त्यावर खडूने रेषा मारल्यायत. मला म्हणाले,’मॅडम, रस्ता क्रॉस करा आणि त्या बाजूने जा.’ मग मी रस्ता क्रॉस केला आणि असा वळसा घालून आले.”

ती बोलत असतानाच बचू किचनमध्ये आली होती.मग कमलने पुन्हा पहिल्यापासून सुरुवात केली,”अगं, त्या पलीकडच्या रस्त्यावर खून झाला. पोलिसांनी रस्त्यावर खडूने रेघा काढल्यायत. मला म्हणाले,’मॅडम, रस्ता क्रॉस करा आणि तिकडून जा……’ “

तेवढ्यात ‘हे’ आले. पुन्हा ‘सायेबां’ना सगळा वृत्तांत. मग अनुप आला. त्यालाही तीच स्टोरी.

ती गेल्यावर बचू म्हणाली, “काय रे बाबा तरी!आम्हाला ऐकून ऐकून कंटाळा आला. पण तिचा सांगायचा उत्साह कमी नाही झाला.”

“मुख्य मुद्दा लक्षात आला का तुझ्या?” मी विचारलं.

“इतक्यांदा ऐकल्यावर लक्षात न यायला काय झालं?तिकडे खून झाला. पोलिसांनी हिला रस्ता क्रॉस करून जायला सांगितलं.”

“बघ बचू. नाहीच आलं तुझ्या लक्षात. पोलीस म्हणाला, ‘मॅडम,…..’ आजपर्यंतच्या आयुष्यात पहिल्यांदाच तिला कोणीतरी ‘मॅडम’ म्हटलं. मग तिला अप्रूप वाटणारच ना!”

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 95 – गीत – शायद याद किया तुमने ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – शायद याद किया तुमने…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 94 – गीत – शायद याद किया तुमने✍

शायद याद किया है तुमने कांटे लगे महकने।

खिड़की खुली बजे दरवाजे हवा ठुमकती आई ।

बादल लगा डाकिया जैसा लाया बूँद बधाई।

आँखें ऐसी हुई कि जैसे पंछी लगें चहकने ।

विकल हुई थी मन की धरती बातों बात जुड़ानी

होने लगी ख्वाब की खेती मिला याद का पानी ।

शायद याद किया है तुमने पीड़ा लगी सरसने।

शायद याद किया है तुमने काँटे लगे महकने।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 97 – “धुँधला सब दिख रहा है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “धुँधला सब दिख रहा है…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 97 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “धुँधला सब दिख रहा है”|| ☆

परी बनी ,हरी-हरी

सी पहिन साडियाँ

सिल्की दिखा किये हैं

सुबह की पहाडियाँ

 

हौले से तह किये

लगीं जैसे दुकान में

ठहरी प्रसन्नता हो ।

खुद के मकान में

 

चिडियों की चहचहाहटों

के खुल गये स्कूल

 पेड़ों के साथ पढ ने

आ जुटीं झाडियाँ

 

धुँधला सब दिख रहा है

यहाँ अंतरिक्ष में

खामोश चेतना जगी है वृक्ष-वृक्ष  में

 

जैसे बुजुर्ग, बादलों

के झूमते दिखें

लेकर गगन में श्वेत-

श्याम बैल गाडियाँ

 

गतिशील हो गई हैं

मौसम की शिरायें

बहती हैं धमनियों में

ज्यों खून सी हवायें

 

या कोई वैद्य आले

को  लगा देखता

कितनी क्या ठीक चल

रहीं, सब की नाडियाँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 144 ☆ सड़क सम्मोहन से बचें ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी प्रस्तुति  “सड़क सम्मोहन से बचें”।)  

☆ आलेख # 144☆ सड़क सम्मोहन से बचें ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

किसी भी वाहन की ड्राइविंग करते समय की एक शारिरिक स्थिति है। सामान्यतः लगातार ढाई-तीन घंटे की ड्राइविंग के बाद रोड हिप्नोसिस प्रारम्भ होता है।

ऐंसी सम्मोहन की स्थिति में आँखें खुली होती हैं लेकिन दिमाग अक्रियाशील हो जाता है अतः जो दिख रहा है उसका सही विश्लेषण नहीं हो पाता और नतीजतन सीधी टक्कर वाली दुर्घटना हो जाती है।

इस सम्मोहन की स्थिति में दुर्घटना के 15 मिनिट तक ड्राइवर को न तो सामने के वाहनों का आभास होता है और न ही अपनी स्पीड का। और जब 120-140 स्पीड से टक्कर होती है तो भयानक दुष्परिणाम सामने आते हैं।

उपरोक्त सम्मोहन की स्थिति से बचने के लिए हर ढाई-तीन घंटे ड्राइविंग के पश्चात रुकना चाहिए। चाय-कॉफी पियें, 5-10 मिनिट आराम करें और मन को शांत करें।

ड्राइविंग के दौरान स्थान विशेष और आते कुछ वाहनों को याद करते चलें। अगर आप महसूस करें कि पिछले 15 मिनिट का आपको कुछ याद नहीं है तो इसका मतलब है कि आप खुदको और सहप्रवासियों को मौत के मुँह में ले जा रहे हो।

रोड सम्मोहन ये अचानक रात के समय होता है जब अन्य यात्री सो या ऊँघ रहे होते हैं अतः बेहद गंभीर दुर्घटना हो सकती है।

ड्राइवर को झपकी आ जाए या नींद आ जाए तो दुर्घटना को कोई नहीं रोक सकता लेकिन आँखें खुली हों तो दिमाग का क्रियाशील होना अतिआवश्यक है। ध्यान रखें, सुरक्षित रहें, सुरक्षित ड्राइविंग करें।

संकलन – जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 88 ☆ # नया सवेरा आयेगा # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# नया सवेरा आयेगा #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 88 ☆

☆ # नया सवेरा आयेगा # ☆ 

कब तक अंधकार में भटकोगे

कब तक जुमलों से बहकोगे

कब तक सच के लिए तरसोगे

हाथ उठाओ

आवाज लगाओ

लोगों को जगाओ

तब यह तिमिर छट जायेगा

नया सवेरा आयेगा

 

चारों तरफ दीवारें हैं

रास्ते बंद सारे हैं

सब गम के मारे हैं

सबको गले लगाना होगा

पत्थरों मे राह बनाना होगा

अंधविश्वास भगाना होगा

तब यह शोषण घट जाएगा

नया सवेरा आयेगा  

 

कांटों भरी राह है

दुश्वारियां अथाह है

कदम कदम पर आह है

शिकंजों में कसे जाओगे

यातनाएं हजार पाओगे

हो सकता है मारे जाओगे

तब मरने का डर मिट जाएगा

नया सवेरा आयेगा

नया सवेरा आयेगा /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 87 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 87 ? 

☆ अभंग… ☆

तयाचीये नावे, चालला प्रवास

येईल सुवास, लवकरी..!!

 

दुस्तर दुर्गम्य, अवघड भारी

अशी माझी वारी, त्याच्यासाठी..!!

 

नाही तमा आता, नच काही भीती

शुद्ध माझी मती, तोच ठेवी..!!

 

कवी राज म्हणे, माझा भगवंत

आहे दयावंत, इहलोकी..!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 24 – परिव्राजक – २. उत्तर भारत ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 24 – परिव्राजक – २. उत्तर भारत डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

हाथरस इथं स्वामीजी एकटे आले होते. मात्र आता तिथून निघताना बरोबर शरदचंद्र होते. हृषीकेशला जाताना सहारनपूरला उतरून साडेतीनशे किलोमीटर पायी अंतर कापायचे होते. स्वामीजींना सवय होती पण शरदचंद्र यांना हे सर्व परिवर्तन नवीन होते. सवय नव्हती. अंगावर सामान घेऊन पायी चालणे, जागा मिळेल की नाही विश्रांतीसाठी, याची खात्री नाही, मुक्काम कुठे असेल माहिती नाही, अशा अनिश्चित परिस्थितीत मध्ये प्रवास सुरू होता. तो त्यांना झेपत नव्हता. ओझं घेऊन चालू शकत नव्हते, स्वामीजींच्या हे लक्षात आलं आणि ते सामान त्यांनी स्वत:च्या खांद्यावर घेतलं. शरदचंद्रांच्या लक्षात आलं की, हिमालयातील भ्रमणासाठी आपण घेतलेले बूट त्या सामानात आहेत. खूप शरमल्यासारखं झालं त्यांना. आपण ज्यांना गुरु मानतो त्यांच्याच खांद्यावर आपले बूट? पण स्वामीजींना त्याचं काहीही वाटलं नव्हतं.

नदी ओलांडताना तर बरं नसलेल्या शरदचंद्रांना घोड्यावर बसवून स्वत: घोड्याबरोबर पायी चालत गेले. काही वेळा पायी चालताना स्वामीजींनी शरदचंद्रांना खांद्यावर घेऊन प्रवास केला. अशी स्वामीजींनी आपली सेवा केली यामुळे त्यांचा स्वामीजींबद्दलचा आदरभाव आणखीन वाढला. त्या विचाराने मन भरून आलं. माणुसकीच्या दृष्टीकोणातून आपल्या शिष्याची जबाबदारी आणि काळजी घेणं हे स्वामीजींनी आपलं कर्तव्य मानलेलं दिसतं. एकूणच स्वामी सदांनंदांचे मठातले आगमन म्हणजे रामकृष्ण संघाच्या पुढच्या विस्ताराची नांदी ठरली होती.  

स्वामी विवेकानंदांना हे कार्य उभं करतांना सुरुवातीपासूनच अनेक खाचखळग्यातून व प्रसंगातून जावं लागलं. मठांमध्ये वेद वाड:ग्मयाचा अभ्यास झाला पाहिजे असं स्वामीजींचं मत होतं. वेदांच्या अभ्यासाकडे बंगाल मध्ये फार दुर्लक्ष झालं होतं. असं त्यांच्या लक्षात आल होतं. वेदांच्या अभ्यासासाठी एक उत्तम सोय असलेली संस्था उभी करावी असं त्यांना वाटत होतं. ते स्वत: भारतभ्रमण करतांना कोणी संस्कृत व्याकरणाचा पंडित भेटला की त्यांच्याकडून पाणीनीच्या व्याकरणाचे धडे घेत असत. भारतीय संस्कृतीचा वारसा स्पष्ट करत असताना त्यांच्या डोळ्यासमोर नेहमीच वेदातील ज्ञानकांडाचा भाग आणि उपनिषदे असत. कर्मकांडांचा अतिरेक झाल्यामुळेच समाजरचनेत दोष निर्माण झाला आणि त्यामुळेच संस्कृतीचा र्‍हास झाला असे त्यांचे निरीक्षण होते.

स्वामी विवेकानंद असेच बिहार आणि उत्तरेतील भागात खेड्यापाड्यातून पायी फिरले. खूप तीर्थाटन झाल्यामुळे वेगवेगळ्या प्रकारचे आचार-विचार, रिती-नीती, यांचा जवळून परिचय झाला. त्यांना दिसलं की जनतेत धर्माबद्दल आस्था आहे पण सामाजिक जीवनात गतीशीलता नाही. दोष धर्माचा नाही पण धर्माचा धंदा झाल्यामुळे समाजजीवन पंगु झालं आहे. अशा अनेक गोष्टी त्यांच्या लक्षात येत होत्या. त्यामुळे पुढे काय योजना करायची याचा विचार सतत त्यांच्या मनात चालू असे. मध्ये मध्ये वराहनगरला मठात पण फेरी व्हायची. सर्व गुरु बंधु एकमेकांना भेटल्यामुळे सर्वजणच आनंदी व्हायचे. पुन्हा आपापल्या ठरलेल्या भ्रमणास निघायचे.

कलकत्याहून ते पुढे गाझीपूरला जाताना मधेच अलाहाबादला महिनाभर थांबले. इथेही बंगाली समाज स्वामीजींचे विचार आणि त्यांचे व्यक्तिमत्व यामुळे भारावून गेला होता. समाजव्यवस्थेतील दोष आणि विषमता यावर स्वामीजींनी इथेही टीका केली होती.

स्वामीजी गाझीपूरला गेले आणि त्यांचा कलकत्त्यातलाच मित्र बाबू सतीशचंद्र मुखर्जी यांच्याकडे राहिले. इथेही अलाहाबादसारखाच बंगाली समाज गोळा झाला. इथे त्यांना वेगळाच अनुभव आला. इथल्या बंगाली समाजावर पाश्चिमात्य सुखवादी संस्कृतीचा मोठाच पगडा आहे असे त्यांनी पहिले. भारतीय संस्कृतीतला त्याग, सेवा, संयम अशा उदात्त असलेल्या जीवन मूल्यांचा पाश्चात्य संस्कृतीच्या झगमगाटामुळे आपल्या देशबांधवांना साफ विसर पडला आहे. याचे स्वामीजींना दु:ख झाले.

हे सगळे पाहता आजही पाश्चिमात्य संस्कृतीचा पगडा आपल्या समाजावर दिसतोच आहे. मुख्य म्हणजे संस्कृती वर प्रभाव पडून काही बदल होत आहेत. आज परिस्थिति तर खूप वेगळी आहे. त्याकाळात इंग्रजांचे राज्य होते त्यामुळे हा प्रभाव होता. आता तर सारं जगच एक खेडं झालं आहे. अंतर खूप असलं तरी तंत्रज्ञानामुळे जग जवळ आलं आहे. पण आज कोरोंना सारख्या साथी नं सर्व जगालाच एका पातळीवर आणून ठेवलं आहे. पण त्याग, सेवा व संयम ही आपली भारतीय मूल्येच आज यातून बाहेर पडायला आपल्याला मदत करताहेत असं दिसतंय.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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