(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘तालाब को गंदा करने वाली मछली’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 147 ☆
☆ व्यंग्य – तालाब को गंदा करने वाली मछली ☆
शहर के साहित्यिक-जगत में आनंद मंगल है। हर दूसरे चौथे विमोचन, सम्मान, अभिनंदन, लोकार्पण, गोष्ठियाँ होती रहती हैं क्योंकि ज़्यादातर लेखकों की नज़र में यही लेखन की उपलब्धियाँ हैं, भले ही उनका लिखा कोई पढ़े या न पढ़े। गोष्ठी में प्रशंसा हो जाती है तो लेखक का मन एकाध हफ्ता हरा भरा रहता है। लेखक- बिरादरी के लोग एक दूसरे की भरपूर तारीफ करना अपनी ड्यूटी समझते हैं क्योंकि आलोचना लेखक के कोमल मन को दुखी करती है, जो पाप से कम नहीं होता। कोई सिरफिरा रचना की ख़ामियाँ गिना दे तो ज़िन्दगी भर की दुश्मनी हो जाती है। इसलिए एक दूसरे की पीठ खुजाने का काम चलता रहता है।
इस सुकून और सुख भरे वातावरण में नगर के जाने-माने कवि अनोखेलाल ‘उदासीन’ काँटा बने हुए हैं। ‘उदासीन’ जी महाकवि निराला जैसे ही निराले हैं। नगर की साहित्यिक फ़िज़ाँ में वे खपते नहीं। साहित्यिक बिरादरी में वे सनकी माने जाते हैं। सम्मान-अभिनंदन से दूर भागते हैं, प्रशंसा से बिदकते हैं, विमोचन-लोकार्पण को ढोंग और नौटंकी मानते हैं। गोष्ठियों में खरी खरी आलोचना कर देते हैं और लेखक को नाराज़ कर देते हैं। कहते हैं, ‘साहित्यिक कार्यक्रम भटैती और ठकुरसुहाती के लिए नहीं होते। लेखक में आलोचना बर्दाश्त करने का माद्दा होना चाहिए।’ इसीलिए जिस सभा में वे पहुँच जाते हैं वहाँ उपस्थित लेखकों के मुँँह का ज़ायका बिगड़ जाता है। दिल की धड़कन बढ़ जाती है। समझदार लेखक उन्हें अपने कार्यक्रम में आमंत्रित करना ‘भूल’ जाते हैं।
हर गोष्ठी में ‘उदासीन’ जी के खिलाफ शिकायतों का दफ्तर खुल ही जाता है। पिछली गोष्ठी में कवि गिरधारीलाल ‘निर्मोही’ बोले, ‘बहुत बेकार आदमी है यह। मैं कुछ दिन पहले अपनी पंद्रह-बीस कविताएँ दे आया था। सोचा था पढ़ कर तारीफ करेगा। तीन दिन बाद गया तो कविताएँ मेरी तरफ है फेंक दीं। बोला, छठवीं क्लास के बच्चे जैसी कविताएँ लिखते हो और कवि बनने चले हो। अब बताइए, मैं तीस साल से कविताएँ लिख रहा हूँ और किसी ने ऐसी बात नहीं कही। मेरी कविताओं पर तीन छात्र पीएचडी की डिग्री पा चुके हैं और यह आदमी मेरी कविताओं को रद्दी की टोकरी में डाल रहा है।’
एक और कवि मुकुंदी लाल ‘निराश’ बोले, ‘अरे भैया, एक संस्था इनके पास सम्मान का प्रस्ताव लेकर आयी तो पूछने लगे मेरा सम्मान क्यों करना चाहते हो, मेरी कौन सी कविताएँ पढ़ी है, उनमें क्या अच्छा लगा? बेचारे प्रस्ताव करने वाले भाग खड़े हुए। अब बताइए, सम्मान का कोई कारण होता है क्या?’
गोष्ठी में उपस्थित साहित्यकारों ने इस स्थिति को गंभीर और शहर के साहित्यिक वातावरण के लिए नुकसानदेह बताया। ‘उदासीन’ जी के आचरण से दुखी सभी साहित्यकारों ने नगर के सबसे सयाने कवि छैलबिहारी ‘दद्दा’ से अनुरोध किया कि चूँकि अब पानी सर से ऊपर चढ़ चुका है, अतः वे अपने सयानेपन का उपयोग करके ‘उदासीन’ जी को सुधारने की कोशिश करें। उन्हें ज़िम्मेदारी दी गयी कि वे ‘उदासीन’ जी का ‘ब्रेनवाश’ करने का प्रयत्न करें और उन्हें समझायें कि वे चंदन-अभिनंदन से छड़कने-बिदकने के बजाय उसे अंगीकार करने की आदत डालें। दूसरे शब्दों में, वे एक असामान्य साहित्यकार की बजाय एक ‘नॉर्मल’ साहित्यकार बन जाएं। यह सुझाव भी दिया गया कि नये लेखकों को ‘उदासीन’ जी की सोहबत से बचाया जाए क्योंकि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है।
Anonymous Litterateur of Social Media # 99 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 99)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 145 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 2 ☆
वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’
चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र-चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी. की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।
वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। कुछ आंकड़े इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-
1) विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएं इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
2) 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँवों में लाखों वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है। ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
3) सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन लगभग 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
4) रोजाना लगभग 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
5) रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
6) हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
7) एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
8) वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
9) जाने एवं लौटने की 33 दिनों की यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
10) इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक व्यवहार होता है।
11) हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
12) एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
13) रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।
14( हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।
15) एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
16) गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
17) नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘हो’ का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित राजस्थानी मुक्तिका : … तैर भायला)
(ई-अभिव्यक्ति में युवा साहित्यकार सुश्री रुचिता तुषार नीमा जी का हार्दिक स्वागत है।आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता बदल रही हूं मैं ।)
जीवन परिचय
शिक्षा – स्नातकोत्तर (जूलॉजी) होलकर साइंस कॉलेज, B.Ed. (IGNOU)
प्रकाशन – अनेक पत्र पत्रिकाओं में कविताओं और लघुकथा का प्रकाशन एवम साझा कृतियों में प्रकाशन
प्राप्त सम्मान / पुरस्कारः सुर्मिला अलंकरण (नेमा दर्पण) काव्य आभा अलंकरण, वर्तिका शक्ति श्री सम्मान शब्द साधना अलंकरण, मध्यप्रदेश नारी गौरव सम्मान. मंथन काव्य पीयूष अलंकरण, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच एवम अन्य जगहों पर सम्मानित
☆ कविता – बदल रही हूं मैं ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆
☆ आलेख – एक आत्म कथा – मैं गंगा माँ हूँ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
हाँ हाँ पहचाना मुझे! मैं गंगा माँ हूँ।
मैं गंगा मां ही बोल रही हूँ, क्या सुनाई दे रही है तुम्हें मेरी आवाज़?
मैं गंगा के किनारे पूर्णिमा के दिन रात्रि बेला में धवल चांदनी से युक्त निस्तब्ध वातावरण में गंगघाट पर अपनी ही धुन में खोया हुआ बैठा था, गंगा में चलने वाली नावों के चप्पुओं की गंगा जल में छपछप करती लहरों से अठखेलियां करती आवाजों तथा गंगा की धाराओं से निकलने वाली कल-कल ध्वनियों में खोया हुआ था कि सहसा किसी नाव पर रखे रेडियो पर आकाशवाणी विविध भारती से बजने वाले गीत ने मेरा ध्यान आकर्षित किया————
*मानो तो मैं गंगा मां हूँ, ना मानो तो बहता पानी*
यह गीत मेरे मन की अतल गहराइयों में उतरता चला गया और उस चांदनी रात की धवल जल धारा से एक आकृति प्रकट होती हुई जान पड़ी जो शायद उस मां गंगा की आत्मा थी। और अपने पुत्र भीष्म पितामह की तरह मुझसे भी संवाद करने के लिए व्यग्र दिखाई दे रही थी। उनके चेहरे पर चिंता और विषाद की अनगिनत रेखाएं झलक रही थी। उनके दिल में जमाने भर का दर्द समाया हुआ था। जो बातों बातों में दिखा भी।
फर्क सिर्फ इतना था कि महाभारत कालीन भीष्म अपने हृदय की पीड़ा मां गंगा से कहता था, लेकिन आज मां गंगा स्वयं अपने धर्मपुत्र यानि मुझ लेखक से अपने हृदय की पीड़ा व्यक्त करने को आतुर दिखी थी। वे मुझे ही संबोधित करते हुए बोल पड़ी थी।
लो सुन लो तुम भी मेरी व्यथा कथा, ताकि मेरे हृदय का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाए।
हां अगर तुम मानो तो मैं गंगा मां हूँ, ना मानो तो बहता हुआ पानी हूँ। लेकिन मेरा दोनों ही रूप जनकल्याणकारी है। यदि मैं एक मां के रूप में आस्थावान लोगों से पूजित हो लोगों को अपनी ममता प्यार और दुलार देकर तारती हूँ, और उनके द्वारा पूजित हूँ तो, नास्तिक लोगों के अनुसार बहते हुए जलधारा के रूप में इस मानव समुदाय को पीने के लिए शुद्ध जल, अन्न, फूल, फल भी उपलब्ध कराती रही हूँ। इस तरह मेरा दोनों रूप लोक-मंगल कारी था।
यूं तो मेरा जन्म पौराणिक कथाओं की मान्यता के अनुसार भगवान श्री हरी के चरणोदक से हुआ है। लेकिन रही मैं युगों-युगों तक ब्रह्मा जी के कमंडल में ही। उन्हीं दिनों परमपिता ब्रह्मा ने राजा भगीरथ के भगीरथ-प्रयत्न से प्रसन्न होकर मुझे उनके पूर्वजों के तारने का लक्ष्य लेकर ब्रह्म लोक से अपने कमंडल से मुक्त कर दिया। जब प्रबल वेग से हर-हर करती पृथ्वी की तरफ चली तो सारी सृष्टि में त्राहि-त्राहि मच गई। प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था। मेरा वेग रोकने की क्षमता सृष्टि के किसी प्राणी में नहीं थी। इसी लिए घबरा कर राजा भगीरथ एक बार भगवान शिव की शरण में चले गए। उस समय भगवान शिव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो मुझे अपनी जटाओं में उलझा लिया था। तथा राजा भगीरथ के आग्रह पर कुछ अंशों में मुझे मुक्त कर दिया था। मैं गोमुख से प्रकट हो गंगोत्री से होती हुई उनके पुरखों (राजा सगर की) संततियों को तारने हेतु भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ी थी। और उनका तारन हार बनी ऐसा पुराणों का मत है तथा इतिहास की गवाही।
उसके बाद से अब तक मैंने अच्छे-बुरे बहुत समय देखें। मैंने लोगों का श्रद्धा, विश्वास और भरोसे से भरा हृदय देखा। मैंने देखा कि किस प्रकार लोग अपना इहलोक और परलोक संवारने हेतु मुझमें गोते लगाते और मेरा पावन जल पात्रों में भर कर देवताओं का अभिषेक तथा आचमन करने हेतु ले जाते थे। एक विश्वास ही उनके भीतर था, जो उन्हें अपने परिजनों के चिता की राख को उनके तारण हेतु मुझमें प्रवाहित करने हेतु विवश करता था। लेकिन आज़ मैं विवश हूँ। मुझे अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जीवन और मृत्यु की जद्दोजहद में इस आशा विश्वास और भरोसे के साथ जी रही हूँ कि भविष्य में शायद इस मानव कुल में कोई महामानव भगीरथ बन पैदा हो और मेरा पूर्वकालिक स्वरूप वापस देकर मुझे नवजीवन दे दे। आज मैं मानवीय अत्याचारों से दुखी अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रही हूँ।
मुझे खुद के भीतर की गंदगी और खुद का घिनौना रूप देख खुद से घृणा तथा उबकाई आने लगी है।
और इस सबका जिम्मेदार सामूहिक रूप से तुम्हारा मानव समाज ही है।
कोई समय था जब मैं गोमुख से अपनी धवलधार संग राजा भगीरथ के पीछे पीछे जड़ी बूटियों का सत लेकर मंथर गति से चलती हुई मैदानी इलाकों से गुजर कर सागर से जा मिली थी और गंगासागर तीर्थ बन गई थी। उस समय हमारा मिलन देख देवता अति प्रसन्न हुए थे। तथा सागर ने अपनी बाहें पसार कर अपनी उत्ताल तरंगों से मेरा स्वागत किया था। अपनी उत्ताल तरंगों तथा मेरी कल कर की ध्वनि सुनकर सागर भी सम्मोहित हो गया था तथा मेरे साथ छाई छप्पा खेलते हुए एक दूसरे में समाहित हो मैंने अपना अस्तित्व गंवा दिया था और सागर बन बैठी थी।
उस यात्रा के दौरान अनेक ऐसे संयोग बने जब अनेकों नद नाले आकर मुझमें समा गए। तब मुझे ऐसा लगता जैसे वे अपने पावन जल से मेरा अभिषेक करना चाह रहे हों। लेकिन अब मैं क्या करूं, किसके पास जांऊ अपनी फरियाद लेकर? कौन है जो सुनेगा मेरी पीड़ा, क्यौकि अब तो मेरे पुत्रों की आने वाली पीढ़ियाँ गूंगी बहरी तथा पाषाण हृदय पैदा हो रही है। उनका हृदय भी भावशून्य है। अब उन सबको मेरा यह बिगड़ा स्वरूप भी आंदोलित नहीं करता। लोगों ने जगह जगह बांध बना मेरी जीवन रेखा की जलधारा को छीन लिया। मुझमें गन्दे नाले का मल जल तथा औद्योगिक अपशिष्ट बहाकर जिम्मेदार लोगों ने अवैध धन उगाही की मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। और मेरी सफाई के नाम पर भ्रष्टाचार की एक नई अंतर्धारा बहा दी। मेरे सफाई के नाम पर अरबों खरबों लुटाए गए फिर भी मैं साफ नहीं हुई। क्योंकि मेरी सफाई के लिए जिस दृढ़ इक्षाशक्ति और इमानदार प्रयास की जरूरत थी वो नहीं हुआ उसके साथ ही अपनी मुक्ति का सपना संजोए मेरे पास आने वाली तुम्हारी पीढ़ियों के लोगों ने भी आस्था के नाम पर मुझे गंदा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मुझे लगता है कि लगभग सवा अरब की आबादी वाली सारी औलादें नाकारा हो गई है।
मैं तो सदियों सदियों से चिताओं की राख लेकर लोगों को मोक्ष देती रही तथा श्रद्धा से समर्पित फूल मालाओं की डलियां लेती रही लेकिन कभी भी इतनी गन्दी नहीं थी।
आखिर इस देश के नीति-नियंताओं के समझ में यह साधारण सी बात कब आएगी?, मेरी गंदगी का कारण बने नालों कचरे कब रोके जाएंगे?
मेरी जीवन जल-धारा को अनवरत जलप्रवाह कब प्राप्त होगा?
यदि मेरी जल धारा को मुक्त कर दिया जाए तथा नालों की गंदगी रोक दी जाए तो मेरी सफाई की जरूरत ही न पड़े।
तुम सब याद रखना यदि मेरी जलधारा मुक्त नहीं हुई तुम सबका राजनैतिक शह मात का खेल चलता रहा तो मैं तो एक दिन अकाल मृत्यु मरूंगी ही मेरी अंतरात्मा के अभिषाप से तुम्हारी पीढ़ियां भी जल के अभाव में छटपटाते बिलबिलाते हुए मरेंगी।
और मैं अतीत के इतिहास में दफन हो कर कालखंड के इतिहास का पन्ना बन कर रह जाउंगी। फिर तुम्हारी पीढ़ियाँ मेरी मौत पर मातम मनाने का तमाशा करती दिखेंगी।
अब भी चेत जाओ, हो सके तो मुझे जीवन देकर मौत से अपनी सुरक्षा कर लो। इस प्रकार संवाद करते हुए मां गंगा के चेहरे पर आक्रोश छलकने लगा कि सहसा गंगा घाट पर चलने वाले प्रवचन पंडाल से यह ध्वनि सुनाई पड़ी——
☆ आनंद लांबणीवर टाकणारी माणसं – अनामिक ☆ प्रस्तुती – श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆
बेल वाजली म्हणून दरवाजा उघडला. दारात शिवराम. हा शिवराम आमच्या सोसायटीतल्या लोकांच्या गाड्या-बाईक्स धुवायचं काम करतो.
“ साहेब, जरा काम होतं.”
“ पगार द्यायचा राहिलाय का माझ्याकडून ?”
“ नाय साहेब, तो केवाच भेटला. पेढे द्यायचे होते. पोरगा धाव्वी झाला.”
“ अरे व्वा ! या आत या.”
आमच्या दाराचा उंबरठा शिवराम प्रथमच ओलांडत होता. मी शिवरामला बसायला सांगितलं. तो आधी नको नको म्हणाला. आग्रह केला तेव्हा बसला. पण अवघडून. मीही त्याच्या समोर बसताच त्याने माझ्या हातात पेढ्यांची पुडी ठेवली.
“ किती मार्क मिळाले मुलाला ?”
“ बासट टक्के.”
“ अरे वा !” त्याला बरं वाटावं म्हणून मी म्हटलं. हल्ली ऐंशी-नव्वद टक्के ऐकायची इतकी सवय झाली आहे की तेवढे मार्क न मिळालेला माणूस नापास झाल्यासारखाच वाटतो. पण शिवराम खूष दिसत होता.
“ साहेब मी जाम खूश आहे. माझ्या अख्ख्या खानदानात इतका शिकलेला पहिला माणूस म्हणजे माझा पोरगा !”
“ अच्छा, म्हणून पेढे वगैरे !”
शिवरामला माझं बोलणं कदाचित आवडलं नसावं. तो हलकेच हसला आणि म्हणाला, “ साहेब, परवडलं असतं ना, तर दरवर्षी वाटले असते पेढे. साहेब, माझा मुलगा फार हुशार नाही, ते माहित्ये मला. पन एकही वर्ष नापास न होता दर वर्षी त्याचे दोन दोन, तीन तीन टक्के वाढले – यात खुशी नाय का ? साहेब, माझा पोरगा आहे म्हणून नाही सांगत, पन तो जाम खराब कंडीशनमधे अभ्यास करायचा. तुमचं काय ते – शांत वातावरन ! – आमच्यासाठी ही चैन आहे साहेब ! तो सादा पास झाला असता ना, तरी मी पेढे वाटले असते.”
मी गप्प बसल्याचं पाहून शिवराम म्हणाला, “ साहेब सॉरी हा, काय चुकीचं बोललो असेन तर. माझ्या बापाची शिकवन. तो म्हनायचा, आनंद एकट्याने खाऊ नको सगल्य्यांना वाट ! हे नुसते पेढे नाय साहेब, हा माझा आनंद
आहे !”
मला भरून आलं. मी आतल्या खोलीत गेलो. एका नक्षीदार पाकिटात बक्षिसाची रक्कम भरली.
आतून मोठ्यांदा विचारलं, “ शिवराम, मुलाचं नाव काय?”
“ विशाल.” बाहेरून आवाज आला.
मी पाकिटावर लिहिलं – प्रिय विशाल, हार्दिक अभिनंदन ! नेहमी आनंदात रहा – तुझ्या बाबांसारखा !
“ शिवराम हे घ्या.”
“ साहेब हे कशाला ? तुम्ही माझ्याशी दोन मिन्ट बोल्लात यात आलं सगलं.”
“ हे विशालसाठी आहे! त्याला त्याच्या आवडीची पुस्तकं घेऊ देत यातून.”
शिवराम काहीच न बोलता पाकिटाकडे बघत राहिला.
“ चहा वगैरे घेणार का ?”
“ नको साहेब, आणखी लाजवू नका. फक्त या पाकिटावर काय लिहिलंय ते जरा सांगाल? मला वाचता येत नाही. म्हनून…”
“ घरी जा आणि पाकीट विशालकडे द्या. तो वाचून दाखवेल तुम्हाला !” मी हसत म्हटलं.
माझे आभार मानत शिवराम निघून गेला खरा, पण त्याचा आनंदी चेहरा डोळ्यासमोरून जात नव्हता.
खूप दिवसांनी एका आनंदी आणि समाधानी माणसाला भेटलो होतो.
हल्ली अशी माणसं दुर्मिळ झाली आहेत. कोणाशी जरा बोलायला जा, तक्रारींचा पाढा सुरु झालाच म्हणून समजा.
नव्वद पंच्याण्णव टक्के मिळवून सुद्धा लांब चेहरे करून बसलेले मुलांचे पालक आठवले.
आपल्या मुलाला/मुलीला हव्या त्या कॉलेजात प्रवेश मिळेपर्यंत त्यांनी आपला आनंद लांबणीवर टाकलाय म्हणे.
आपण त्यांना नको हसुया. कारण आपण सगळेच असे झालोय “ आनंद लांबणीवर टाकणारे !”
‘ माझ्याकडे वेळ नाही, माझ्याकडे पैसे नाहीत, स्पर्धेत टिकाव कसा लागेल, आज पाऊस पडतोय, माझा मूड नाही !’ – आनंद ‘लांबणीवर’ टाकायच्या या सगळ्या सबबी आहेत हे आधी मान्य करू या.
काही गोष्टी करून आपल्यालाच आनंद मिळणार आहे – पण आपणच तो आनंद घ्यायचा टाळतोय ! Isn’t it strange ?
मोगऱ्याच्या फुलांचा गंध घ्यायला कितीसा वेळ लागतो ?
सूर्योदय-सूर्यास्त पाहायला किती पैसे पडतात ?
आंघोळ करताना गाणं म्हणताय, कोण मरायला येणारे तुमच्याशी स्पर्धा करायला ?
पाऊस पडतोय ? सोप्पं आहे- मस्त चिंब भिजायला जा !
अगदी काहीही न करता गादीत लोळत राहायला तुम्हाला ‘मूड’ लागतो ?
माणूस जन्म घेतो त्यावेळी त्याच्या हाताच्या मुठी बंद असतात.
खरं तर एका हाताच्या बंद मुठीत ‘आनंद’ आणि दुस-या हाताच्या बंद मुठीत ‘समाधान’ सामावलेलं असतं.
माणूस मोठा होऊ लागतो. वाढत्या वयाबरोबर ‘आनंद’ आणि ‘समाधान’ कुठे कुठे सांडत जातं
आता ‘आनंदी’ होण्यासाठी ‘कोणावर’ तरी, ‘कशावर’ तरी अवलंबून राहावं लागतं.
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें…”।)