(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘क्या था यह ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 106 ☆
☆ लघुकथा – क्या था यह ?— ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
अरे ! क्या हो गया है तुझे ? कितने दिनों से अनमयस्क – सा है ? चुप्पी क्यों साध ली है तूने। जग में एक तू ही तो है जो पराई पीर समझता है। जाने – अनजाने सबके दुख टटोलता रहता है। क्या मजाल की तेरी नजरों से कोई बच निकले। तू अक्सर बिन आवाज रो पड़ता है और दूसरों को भी रुला देता है। कभी दिल आए तो बच्चों सा खिलखिला भी उठता है। तू तो कितनों की प्रेरणा बना और ना जाने कितनों के हाथों की धधकती मशाल। अरे! चारण कवियों की आवाज बन तूने ही तो राजाओं को युद्ध में विजय दिलवाई। कभी मीरा के प्रेमी मन की मर्मस्पर्शी आवाज बना, तो कभी वीर सेनानियों के चरणों की धूल। तूने ही सूरदास के वात्सल्य को मनभावन पदों में पिरो दिया और विरहिणी नागमती की पीड़ा को कभी काग, तो कभी भौंरा बन हर स्त्री तक पहुँचाया। समाज में बड़े- बड़े बदलाव, क्रांति कौन कराता है? तू ही ना!
देख ना, आज भी कितना कुछ घट रहा है आसपास तेरे। ऐसे में सब अनदेखा कर मुँह सिल लिया है या गांधारी बन बैठा। मैं जानता हूँ तू ना निराश हो सकता है न संवेदनहीन। तूने ही कहा था ना – ‘नर हो ना निराश करो मन को’। तुझे चलना ही होगा, चल उठ, जल्दी कर। मानों किसी ने कस के झिझोंड़ दिया हो उसे। कवि मन हकबकाया – सा इधर – उधर देख रहा था। क्या था यह ? अंतर्मन की आवाज या सपना?
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बहुत जरूरी: मोह माया ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 127 ☆
☆ बहुत जरूरी: मोह माया☆
एक पद का भार तो सम्हाले नहीं सम्हलता और आप हैं कि सारा भार मेरे ऊपर सौंप कर जा रहे हैं ।
अरे भई आपको मुखिया बनाना है पूरी संस्था का , वैसे भी सबको जोड़ कर रखने में आपको महारत हासिल है । बस इतना समझ लीजिए कि चुपचाप रहते हुए कूटनीति को अपनाइए ।इधर की ईंट उधर करते रहिए लोगों का जमावड़ा न हो पाए ।ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं है कमजोर कड़ी को तोड़कर मानसिक दबाब बनाइए । जब कार्य की अधिकता सामने वाला देखेगा तो घबराकर भाग जाएगा । बस फिर क्या आपका खोटा सिक्का भी चलने लगेगा । भीड़ तंत्र को प्रोत्साहित करिए ,संख्या का महत्व हर काल में रहेगा ।अब संघ परिकल्पना को साकार करते हुए आपको कई संस्थाओं का मुखिया बनना होगा ।
सब कुछ बन जाऊँ पर क्या करूँ मोह माया से बचना चाहता हूँ ।
मोह माया का साथ बहुत जरूरी है क्योंकि बिना माया काया व्यर्थ है । काया मोह लाती ही है ।
कुछ भी करो पर करते रहो ,आखिर मोटिवेशनल स्पीकर यही कहते हैं कि निरंतरता बनी रहनी चाहिए । आजकल तो रील वीडियो का जमाना है जो करना- कराना है इसी माध्यम से हो ताकि डिजिटल इम्प्रेशन भी बढ़े । जब लोग उपलब्धि के बारे में पूछते हैं तो बताने के लिए खास नहीं होता है ,अब तो हर हालत में विजेता का ताज पहनना है भले ही वो मेरे द्वारा प्रायोजित क्यों न हो ।
वाह, आप तो दिनों दिन होशियार होते जा रहें हैं, अब लगता है मुखिया बनकर ही मानेंगे ।
हाँ, अब थोड़ा- थोड़ा समझ में आ रहा है कि कुर्सी बहुत कीमती चीज है इसे पकड़ कर रखना है नहीं तो अनैतिक लोग नैतिकता का दावा ठोककर इसे हथिया लेंगे ।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 137 ☆
☆ बाल कविता – सूरज जी नारंगी जैसे…☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता “मन दर्पण में…”। )
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण बुन्देली गीत“नाचो मोर…”।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ…“।)
स्वयं को पढ़ना सबसे कठिन कार्य है, इसलिए कबीर कह गये कि
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
ज्ञान अगर पुस्तकों से मिलता तो गौतम बुद्ध ,एल्बर्ट आईंस्टीन और आचार्य रजनीश को किसी विश्वविद्यालय से मिलता, पेड़ के नीचे नहीं. प्रतिभा पुस्तकों से अगर मिलने लगती तो क्रिकेट साहित्य पढ़कर सचिन तेंदुलकर, संगीत शास्र पढ़कर लता मंगेशकर और शतरंज की पुस्तकें पढ़कर आनंद विश्वनाथन हजारों या लाखों की संख्या में आते रहते. ये बात अलग है कि सिर्फ वृक्ष के नीचे बैठने से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता. मूलतः चिंतन, मनन और रिसर्च की प्रवृत्ति के साथ साथ वस्तु, व्यक्ति या घटनाओं का ऑब्जरवेशन महत्वपूर्ण है.
Creativity is important rather than copy and paste.
शायद इसलिए भी रचनाकार वही करिश्मा बार बार नहीं दोहरा पाते क्योंकि वे नया रचने का जोखिम लेने से बचना चाहते हैं. तो जो हिट हुआ है, उसकी सीरीज़ बनाते रहते हैं और पैसे कमाते रहते हैं पर ये तो वणिकता है, रचनात्मकता नहीं.
पुस्तकें जानकारियों का संग्रह होती हैं जैसे कि आज के युग में गूगल. पर अविष्कार की ताकत न गूगल में है न ही पोथियों में. वे तो एक बार ही सजीव थीं जब लिखी गईं पर फिर तो जड़ हो गईं और उनसे ज्यादा जड़ता तो उनमें है जो आँख बंद कर वही पढ़े जा रहे हैं, वही रटे जा रहे हैं और वही बोले जा रहे हैं. उससे आगे सोचना बंद कर वही पर्याप्त है ऐसी धारणा बना चुके हैं. ऐसे जड़ लोगों से बेहतर तो वायरस हैं जो अपने आपको निरंतर अपडेट करते रहते हैं. ओमिक्रान, कोरोना का अपडेट है. मनुष्य जब तक वेक्सीन बनाकर, टेस्ट करने के बाद पूर्ण वेक्सीनेशन तक पहुंचेगा, उससे पहले ही ये अपना अगला वरस वर्जन लेकर मार्केट में आ जाते हैं. तुम डाल डाल हम पात पात. हमारे पास तो कहावतें भी पीढ़ियों पुरानी हैं.
सनातन का प्रयोग तो धर्म नामक शब्द के साथ ज्यादा प्रचलित है जिसका भावार्थ यही है कि जो सदा नूतन हो, नदी के समान प्रवाहित होता रहे न कि कुंये के समान जड़ रहे. कुयें की इसी जड़ता से शब्द बना है “कूपमंडूकता ” गहरा पर चारों तरफ से घिरा हुआ. याने बंधन, प्रोटोकॉल, सीमा को ही अंतिम क्षमता मान लेने की मानसिकता. इसलिये ही कुएं की नहीं नदियों की पूजा होती है, उन्हें माता का सम्मान दिया जाता है, पवित्रता का पर्याय माना जाता है, स्थिरता नहीं बल्कि प्रवाह, निरंतरता, नूतनता ही सम्मान पाते है. क्योंकि ये सीमाओं के बंधनों से मुक्त हैं. संपूर्ण अंतरिक्ष गतिशील है और समय भी.ये गतिशीलता ही जीवन है और जीवन का सत्य भी. Move on बहुत नयी तो नहीं पर बहुत पुरानी कहावत भी नहीं है.
सुप्रभात, आपके जीवन में नूतनता से भरा दिवस शुभ हो.