हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बदल रही हूँ मैं ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

(ई-अभिव्यक्ति में युवा साहित्यकार सुश्री रुचिता तुषार नीमा जी का हार्दिक स्वागत है।आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता बदल रही हूं मैं ।) 

जीवन परिचय

शिक्षा – स्नातकोत्तर (जूलॉजी) होलकर साइंस कॉलेज, B.Ed. (IGNOU) 

प्रकाशन – अनेक पत्र पत्रिकाओं में कविताओं और लघुकथा का प्रकाशन एवम साझा कृतियों में प्रकाशन

प्राप्त सम्मान / पुरस्कारः  सुर्मिला अलंकरण (नेमा दर्पण) काव्य आभा अलंकरण, वर्तिका शक्ति श्री सम्मान शब्द साधना अलंकरण, मध्यप्रदेश नारी गौरव सम्मान. मंथन काव्य पीयूष अलंकरण, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच एवम अन्य जगहों पर सम्मानित

☆ कविता – बदल रही हूं मैं ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

आज भी वही सुबह होती है,

वही खूबसूरत शामें भी होती है,

 

लगता जैसे सबकुछ पहले जैसा है….

 

लेकिन अब वक्त बदल गया है,,,

साथ में लोग भी बदल गए हैं।।

 

दुनिया के साथ साथ अब मैं भी… 

 

थोड़ी जिम्मेदार हो रही हूँ…

थोड़ी सी समझदार हो रही हूँ…

 

इस बदलती दुनिया के साथ…

अब मैं भी खुद को बदल रही हूँ ।।

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #131 ☆ एक आत्म कथा – मैं गंगा माँ हूँ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 131 ☆

☆ ‌आलेख – एक आत्म कथा – मैं गंगा माँ हूँ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हाँ हाँ पहचाना मुझे! मैं गंगा माँ  हूँ।

मैं गंगा मां ही बोल रही हूँ, क्या सुनाई दे रही है तुम्हें मेरी आवाज़?

मैं गंगा के किनारे पूर्णिमा के दिन रात्रि बेला में धवल चांदनी से युक्त निस्तब्ध वातावरण में गंगघाट पर अपनी ही धुन में खोया हुआ बैठा था, गंगा में चलने वाली नावों के चप्पुओं की गंगा जल में छपछप करती लहरों से अठखेलियां करती आवाजों तथा गंगा की धाराओं से निकलने वाली कल-कल ध्वनियों में खोया हुआ था कि सहसा किसी नाव पर रखे रेडियो पर आकाशवाणी विविध भारती से बजने वाले गीत ने मेरा ध्यान आकर्षित किया————

*मानो तो मैं गंगा मां हूँ, ना मानो तो बहता पानी*

यह गीत मेरे मन की अतल गहराइयों में उतरता चला गया और उस चांदनी रात की धवल  जल धारा से एक आकृति प्रकट होती हुई जान पड़ी जो शायद उस मां गंगा की आत्मा थी। और अपने पुत्र भीष्म पितामह की तरह मुझसे भी संवाद करने के लिए व्यग्र दिखाई दे रही थी। उनके चेहरे पर चिंता और विषाद की अनगिनत रेखाएं झलक रही थी। उनके दिल में जमाने भर का दर्द समाया हुआ था। जो बातों बातों में दिखा भी।

फर्क सिर्फ इतना था कि महाभारत कालीन भीष्म अपने हृदय की पीड़ा मां गंगा से कहता था, लेकिन आज मां गंगा स्वयं अपने धर्मपुत्र यानि मुझ लेखक से अपने हृदय की पीड़ा व्यक्त करने को आतुर दिखी थी। वे मुझे ही संबोधित करते हुए बोल पड़ी थी।

लो सुन लो तुम भी मेरी व्यथा कथा, ताकि मेरे हृदय का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाए।

हां अगर तुम मानो तो मैं गंगा मां हूँ, ना मानो तो बहता हुआ पानी हूँ। लेकिन मेरा दोनों ही रूप जनकल्याणकारी है। यदि मैं एक मां के रूप में आस्थावान लोगों से पूजित हो लोगों को अपनी ममता  प्यार और दुलार देकर तारती हूँ, और उनके द्वारा पूजित हूँ तो, नास्तिक लोगों के अनुसार बहते हुए जलधारा के रूप में इस मानव समुदाय को पीने के लिए शुद्ध जल, अन्न, फूल, फल भी उपलब्ध कराती रही हूँ। इस तरह मेरा दोनों रूप लोक-मंगल कारी था।

यूं तो मेरा जन्म पौराणिक कथाओं की मान्यता के अनुसार भगवान श्री हरी के चरणोदक से हुआ है। लेकिन रही मैं युगों-युगों तक ब्रह्मा जी के कमंडल में ही। उन्हीं दिनों परमपिता ब्रह्मा ने राजा भगीरथ के भगीरथ-प्रयत्न से प्रसन्न होकर मुझे उनके पूर्वजों के तारने का लक्ष्य लेकर ब्रह्म लोक से अपने कमंडल से मुक्त कर दिया। जब प्रबल वेग से हर-हर करती पृथ्वी की तरफ चली तो सारी सृष्टि में त्राहि-त्राहि मच गई। प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था। मेरा वेग रोकने की क्षमता सृष्टि के किसी प्राणी में नहीं थी। इसी लिए घबरा कर राजा भगीरथ एक बार भगवान शिव की शरण में चले गए। उस समय भगवान शिव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो मुझे अपनी जटाओं में उलझा लिया था। तथा राजा भगीरथ के आग्रह पर कुछ अंशों में मुझे मुक्त कर दिया था। मैं गोमुख से प्रकट हो गंगोत्री से होती हुई उनके पुरखों (राजा सगर की) संततियों को तारने हेतु भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ी थी। और उनका तारन हार बनी ऐसा पुराणों का मत है तथा इतिहास की गवाही।

उसके बाद से अब तक मैंने  अच्छे-बुरे बहुत समय देखें। मैंने लोगों का श्रद्धा, विश्वास और भरोसे से भरा हृदय देखा। मैंने देखा कि किस प्रकार लोग अपना इहलोक और परलोक संवारने हेतु मुझमें गोते लगाते और मेरा पावन जल पात्रों में भर कर देवताओं का अभिषेक तथा आचमन करने हेतु ले जाते थे। एक विश्वास ही उनके भीतर था, जो उन्हें अपने परिजनों के चिता की राख  को उनके तारण हेतु मुझमें प्रवाहित करने हेतु विवश करता था। लेकिन आज़ मैं विवश हूँ। मुझे अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जीवन और मृत्यु की जद्दोजहद में इस आशा विश्वास और भरोसे के साथ जी रही हूँ कि भविष्य में शायद इस मानव कुल में कोई महामानव भगीरथ बन पैदा हो और मेरा पूर्वकालिक स्वरूप वापस देकर मुझे नवजीवन दे दे। आज मैं मानवीय अत्याचारों से दुखी अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रही हूँ।

मुझे खुद के भीतर की गंदगी और खुद का घिनौना रूप देख खुद से घृणा तथा उबकाई आने लगी है।

और इस सबका जिम्मेदार सामूहिक रूप से तुम्हारा मानव समाज ही है।

कोई समय था जब मैं गोमुख से अपनी धवलधार संग राजा भगीरथ के पीछे पीछे जड़ी बूटियों का सत  लेकर मंथर गति से चलती हुई मैदानी इलाकों से गुजर कर सागर से जा मिली थी और गंगासागर तीर्थ बन गई थी। उस समय हमारा मिलन देख देवता अति प्रसन्न हुए थे। तथा सागर ने अपनी बाहें पसार कर अपनी उत्ताल तरंगों से मेरा स्वागत किया था। अपनी उत्ताल तरंगों तथा मेरी कल कर की ध्वनि सुनकर सागर भी सम्मोहित हो गया था तथा मेरे साथ छाई छप्पा खेलते हुए एक दूसरे में समाहित हो मैंने अपना अस्तित्व गंवा दिया था और सागर बन बैठी थी।

उस यात्रा के दौरान अनेक ऐसे संयोग बने जब अनेकों नद नाले आकर मुझमें समा गए। तब मुझे ऐसा लगता जैसे वे अपने पावन जल से मेरा अभिषेक करना चाह रहे हों। लेकिन अब मैं क्या करूं, किसके पास जांऊ अपनी फरियाद लेकर? कौन है जो सुनेगा मेरी पीड़ा, क्यौकि अब तो मेरे पुत्रों की आने वाली पीढ़ियाँ गूंगी बहरी तथा पाषाण हृदय पैदा हो रही है। उनका हृदय भी भावशून्य है। अब उन सबको मेरा यह बिगड़ा स्वरूप भी आंदोलित नहीं करता। लोगों ने जगह जगह बांध बना मेरी जीवन रेखा की जलधारा को छीन लिया। मुझमें गन्दे नाले का मल जल तथा औद्योगिक अपशिष्ट बहाकर जिम्मेदार लोगों ने अवैध धन उगाही की मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। और मेरी सफाई के नाम पर भ्रष्टाचार की एक नई अंतर्धारा बहा दी। मेरे सफाई के नाम पर अरबों खरबों लुटाए गए फिर भी मैं साफ नहीं हुई। क्योंकि मेरी सफाई के लिए जिस दृढ़ इक्षाशक्ति और इमानदार प्रयास की जरूरत थी वो नहीं हुआ उसके साथ ही अपनी मुक्ति का सपना संजोए मेरे पास आने वाली तुम्हारी पीढ़ियों के लोगों ने भी आस्था के नाम पर मुझे गंदा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मुझे लगता है कि लगभग सवा अरब की आबादी वाली सारी औलादें नाकारा हो गई है।

मैं तो सदियों सदियों से चिताओं की राख  लेकर लोगों को मोक्ष देती रही तथा श्रद्धा से समर्पित फूल मालाओं की डलियां लेती रही लेकिन कभी भी इतनी गन्दी नहीं थी।

आखिर इस देश के नीति-नियंताओं के समझ में यह साधारण सी बात कब आएगी?, मेरी गंदगी का कारण बने नालों कचरे कब रोके जाएंगे?

मेरी जीवन जल-धारा को अनवरत जलप्रवाह कब प्राप्त होगा?

यदि मेरी जल धारा को मुक्त कर दिया जाए तथा नालों की गंदगी रोक दी जाए तो मेरी सफाई की जरूरत ही न पड़े।

तुम सब याद रखना यदि मेरी जलधारा मुक्त नहीं हुई तुम सबका राजनैतिक शह मात का खेल चलता रहा तो मैं तो एक दिन अकाल मृत्यु मरूंगी ही मेरी अंतरात्मा के अभिषाप से तुम्हारी पीढ़ियां भी जल के अभाव में छटपटाते बिलबिलाते हुए मरेंगी।

और मैं अतीत के इतिहास में दफन हो कर कालखंड के इतिहास का पन्ना बन कर रह जाउंगी। फिर तुम्हारी पीढ़ियाँ मेरी मौत पर मातम मनाने का तमाशा करती दिखेंगी।

अब भी चेत जाओ, हो सके तो मुझे जीवन देकर मौत से अपनी सुरक्षा कर लो। इस प्रकार संवाद करते हुए मां गंगा के चेहरे पर आक्रोश छलकने  लगा कि सहसा गंगा घाट पर चलने वाले प्रवचन पंडाल से यह ध्वनि सुनाई पड़ी——

जिया बिनु देह नदी बिनु बारी।

तैसई नाथ पुरुष बिनु नारी।।

जो जीवन के यथार्थ समझा गई थी।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ आनंद लांबणीवर टाकणारी माणसं – अनामिक ☆ प्रस्तुती – श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

?  वाचताना वेचलेले ? 

☆ आनंद लांबणीवर टाकणारी माणसं – अनामिक ☆ प्रस्तुती – श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

बेल वाजली म्हणून दरवाजा उघडला. दारात शिवराम. हा शिवराम आमच्या सोसायटीतल्या लोकांच्या गाड्या-बाईक्स धुवायचं काम करतो.

“ साहेब, जरा काम होतं.” 

“ पगार द्यायचा राहिलाय का माझ्याकडून ?” 

“ नाय साहेब, तो केवाच भेटला. पेढे द्यायचे होते. पोरगा धाव्वी झाला.” 

“ अरे व्वा ! या आत या.” 

आमच्या दाराचा उंबरठा शिवराम प्रथमच ओलांडत होता. मी शिवरामला बसायला सांगितलं. तो आधी नको नको म्हणाला. आग्रह केला तेव्हा बसला. पण अवघडून. मीही त्याच्या समोर बसताच त्याने माझ्या हातात पेढ्यांची पुडी ठेवली.

“ किती मार्क मिळाले मुलाला ?” 

“ बासट टक्के.” 

“ अरे वा !”  त्याला बरं वाटावं म्हणून मी म्हटलं. हल्ली ऐंशी-नव्वद टक्के ऐकायची इतकी सवय झाली आहे  की तेवढे मार्क न मिळालेला माणूस नापास झाल्यासारखाच वाटतो. पण शिवराम खूष दिसत होता.

“ साहेब मी जाम खूश आहे. माझ्या अख्ख्या खानदानात इतका शिकलेला पहिला माणूस म्हणजे माझा पोरगा !” 

“ अच्छा, म्हणून पेढे वगैरे !” 

शिवरामला माझं बोलणं कदाचित आवडलं नसावं. तो हलकेच हसला आणि म्हणाला, “ साहेब, परवडलं असतं ना, तर दरवर्षी वाटले असते पेढे. साहेब, माझा मुलगा फार हुशार नाही, ते माहित्ये मला. पन एकही वर्ष नापास न होता दर वर्षी त्याचे दोन दोन, तीन तीन टक्के वाढले – यात खुशी नाय का ? साहेब, माझा पोरगा आहे म्हणून नाही सांगत, पन तो जाम खराब कंडीशनमधे अभ्यास करायचा. तुमचं काय ते – शांत वातावरन ! – आमच्यासाठी ही चैन आहे साहेब ! तो सादा पास झाला असता ना, तरी मी पेढे वाटले असते.” 

मी गप्प बसल्याचं पाहून शिवराम म्हणाला, “ साहेब सॉरी हा, काय चुकीचं बोललो असेन तर. माझ्या बापाची शिकवन. तो म्हनायचा, आनंद एकट्याने खाऊ नको सगल्य्यांना वाट ! हे नुसते पेढे नाय साहेब, हा माझा आनंद 

आहे !” 

मला भरून आलं. मी आतल्या खोलीत गेलो. एका नक्षीदार पाकिटात बक्षिसाची रक्कम भरली.

आतून मोठ्यांदा विचारलं, “ शिवराम, मुलाचं नाव काय?”

“ विशाल.” बाहेरून आवाज आला.

मी पाकिटावर लिहिलं – प्रिय विशाल, हार्दिक अभिनंदन ! नेहमी आनंदात रहा – तुझ्या बाबांसारखा !

“ शिवराम हे घ्या.” 

“ साहेब हे कशाला ? तुम्ही माझ्याशी दोन मिन्ट बोल्लात यात आलं सगलं.” 

“ हे विशालसाठी आहे! त्याला त्याच्या आवडीची पुस्तकं घेऊ देत यातून.” 

शिवराम काहीच न बोलता पाकिटाकडे बघत राहिला.

“ चहा वगैरे घेणार का ?” 

“ नको साहेब, आणखी लाजवू नका. फक्त या पाकिटावर काय लिहिलंय ते जरा सांगाल? मला वाचता येत नाही. म्हनून…” 

“ घरी जा आणि पाकीट विशालकडे द्या. तो वाचून दाखवेल तुम्हाला !”  मी हसत म्हटलं.

माझे आभार मानत शिवराम निघून गेला खरा, पण त्याचा आनंदी चेहरा डोळ्यासमोरून जात नव्हता.

खूप दिवसांनी एका आनंदी आणि समाधानी माणसाला भेटलो होतो.

हल्ली अशी माणसं दुर्मिळ झाली आहेत. कोणाशी जरा बोलायला जा, तक्रारींचा पाढा सुरु झालाच म्हणून समजा.

नव्वद पंच्याण्णव टक्के मिळवून सुद्धा लांब चेहरे करून बसलेले मुलांचे पालक आठवले.

आपल्या मुलाला/मुलीला हव्या त्या कॉलेजात प्रवेश मिळेपर्यंत त्यांनी आपला आनंद लांबणीवर टाकलाय म्हणे.

आपण त्यांना नको हसुया. कारण आपण सगळेच असे झालोय “ आनंद  लांबणीवर टाकणारे !”

‘ माझ्याकडे वेळ नाही, माझ्याकडे पैसे नाहीत, स्पर्धेत टिकाव कसा लागेल, आज पाऊस पडतोय, माझा मूड नाही !’ – आनंद ‘लांबणीवर’ टाकायच्या या सगळ्या सबबी आहेत हे आधी मान्य करू या.

काही गोष्टी करून आपल्यालाच आनंद मिळणार आहे – पण आपणच तो आनंद घ्यायचा टाळतोय ! Isn’t it strange ?

मोगऱ्याच्या फुलांचा गंध घ्यायला कितीसा वेळ लागतो ?

सूर्योदय-सूर्यास्त पाहायला किती पैसे पडतात ?

आंघोळ करताना गाणं म्हणताय, कोण मरायला येणारे तुमच्याशी स्पर्धा करायला ?

पाऊस पडतोय ? सोप्पं आहे- मस्त चिंब भिजायला जा !

अगदी काहीही न करता गादीत लोळत राहायला तुम्हाला ‘मूड’ लागतो ?

माणूस जन्म घेतो त्यावेळी त्याच्या हाताच्या मुठी बंद असतात.

खरं तर एका हाताच्या बंद मुठीत ‘आनंद’ आणि दुस-या हाताच्या बंद मुठीत ‘समाधान’ सामावलेलं असतं.

माणूस मोठा होऊ लागतो. वाढत्या वयाबरोबर ‘आनंद’ आणि ‘समाधान’ कुठे कुठे सांडत जातं

आता ‘आनंदी’ होण्यासाठी ‘कोणावर’ तरी, ‘कशावर’ तरी अवलंबून राहावं लागतं.

कुणाच्या येण्यावर-कुणाच्या जाण्यावर. कुणाच्या असण्यावर-कुणाच्या नसण्यावर.

काहीतरी मिळाल्यावर-कोणीतरी गमावल्यावर. कुणाच्या बोलण्यावर- कुणाच्या न बोलण्यावर.

खरं तर, ‘आत’ आनंदाचा न आटणारा झरा वाहतोय. कधीही त्यात उडी मारावी आणि मस्त डुंबावं.

इतकं असून…आपण सगळे त्या झऱ्याच्या काठावर उभे आहोत – पाण्याच्या टँकरची वाट बघत !

जोवर हे वाट बघणं आहे, तोवर ही तहान भागणं अशक्य !

इतरांशी तुलना करत

आणखी पैसे,

आणखी कपडे,

आणखी मोठं घर,

आणखी वरची ‘पोझिशन’,

आणखी टक्के.. !_ 

—या ‘आणखी’ च्या मागे धावता धावता त्या आनंदाच्या झऱ्यापासून किती लांब आलो आपण !

लेखक : अनामिक

संग्राहक : श्री शामसुंदर धोपटे 

चंद्रपूर

मो. 9822363911

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – लव्हाळी – ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – लव्हाळी –  ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

सारे नावाजती वृक्षतरुंना

कुणा नजरेस दिसे लव्हाळी ?

जोमाने वाढती जागोजागी

सारेच तुडविती पायदळी..

कोपल्या निसर्गाचे तांडव

वादळ वारे पिसाटले

न साहूनी वृक्ष कोलमडले

लव्हाळीने मातीस घट्ट धरिले..

नाही वाकली नाही मोडली

धैर्याने सामना दिला वादळाला

जाहले सैरभर उजाड सारे

कणखर लव्हाळी सांत्वनाला..

वनस्पती लव्हाळी देई संदेश

जरी तिज नाकारूनी दुर्लक्षिली

असूनी इवली नगण्य जरी

चिवट जिद्दी नव्याने तरारली..!

चित्र साभार – सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #147 – ग़ज़ल-33 – “नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें…”)

? ग़ज़ल # 33 – “नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सर-ए-आईना सच्ची बात रखना,

मुवक्किल हो सही हालात रखना।

 

माना बहुत रोशन दिमाग़ हो तुम,

जिरह वास्ते वकील साथ रखना। 

 

भले ही आँसुओं पर हो पाबंदियाँ,

दिल हल्का करने बरसात रखना।

 

बड़ा ख़ुराफ़ाती बच्चा होता दिल,

उसकी शरारतों की ख़ैरात रखना।

 

खुलकर बाँटो ख़ुशियाँ जमाने को,

ख़ुशनुमा लम्हों की सौगात रखना।

 

नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें,

धीरे से तुम अपनी  बात रखना।

 

दिल्लगी ज़िंदगी आसान करती है,

मुस्कान होंठों पर बेबात रखना।

 

भले ही चाँद छुपा हो बादल में,

“आतिश” उजले जज़्बात रखना।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – ।। इंसान बनने का सफर, हमेशा जारी रखो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ।इंसान बनने का सफर, हमेशा जारी रखो)

☆ मुक्तक – ।। इंसान बनने का सफर, हमेशा जारी रखो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

चलता चल   अभी इंसान होने का सफर  बाकी  है।

अभी    समाज  के  लिये करने की डगर  बाकी  है।।

बहुत से इम्तिहान  देने हैं अभी  इस     जीवन    में।

अभी      हौसलें   दिखाने को जिगर     बाकी       है।।

[2]

बनना है    अभी       एक अच्छा इंसान    जीवन में।

अभी   होना किसी दुर्बल पर     मेहरबान जीवन में।।

किसी साथी का दर्द  गम बांटना  इसी     जिंदगी में।

सुनना अभी  किसी  महा पुरुष  व्यख्यान जीवन में।।

[3]

किसी चुनौती मुश्किल का सामना   करना    बाकी है।

किसी भी   गुनाह के लिए प्रभु से   डरना     बाकी है।।

सीखना क्रोध और  अहम को अभी  वश  में   रखना।

इस   अनमोल जिंदगी का अभी कर्ज़ भरना  बाकी है।।

[4]

मन में विश्वास और दिल में तुम जरूर  खुद्दारी      रखो।

लोभ द्वेष तृष्णा को भी तुम त्यागने   की    तैयारी  रखो।।

भीतर स्वाभिमान  का अंश रखना  खूब      संभाल कर।

तुम इंसान    बनने  का  यह सफर हमेशा  जारी      रखो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 88 ☆ ’’कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “’कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 88 ☆ ’’कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का

सब को होता गर्व एक सज्जन स्वजन के साथ का

वर्षा का मौसम मिटा देता सकल संताप दुख

लगता है संसार आतुर है नई शुरुआत का

 

बढ़ती जाती ग्रीष्म में हर दिन सतत रवि की तपन

एक दिन आता , ना होता ताप जब बिल्कुल सहन

निरंतर बहता पसीना सूखता फिर फिर बदन

है कठिन कह कर बताना उन विकल हर पल का

 

सूख जाते पेड़ पौधे सूख जाती है धरा

सूख जाती वनस्पतियां दिखता न पत्ता कोई हरा

सारा वातावरण दिखता रुखा झुलसा अधमरा

रूप रंग हो जाता बद रंग सब शहर देहात का

 

लू लपट चलती भयानक लोगों को लगता है डर

धूप से बचने सभी जन बंद कर लेते हैं घर सिर्फ

कुछ मजदूर ही हैं धूप में आते नजर सिर्फ

एक गमछा लपेटे शायद बस दो हाथ का

 

देख जग की दुर्दशा यह, दौड़ते घनश्याम हैं

हवा आंधी पानी की बौछार लेकर साथ में

दुखियों की रक्षा के हित मन में बटोरे कामना

बांटने जल सब को उनकी चाह के अनुपात में

 

कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का

लाभ मिलता है सभी को सज्जनों के साथ का

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 96 – कर्मो का लेखा जोखा… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #96 🌻 कर्मो का लेखा जोखा… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक महिला बहुत ही धार्मिक थी ओर उसने ने नाम दान भी लिया हुआ था और बहुत ज्यादा भजन सिमरन और सेवा भी करती थी किसी को कभी गलत न बोलना, सब से प्रेम से मिलकर रहना उस की आदत बन चुकी थी. वो सिर्फ एक चीज़ से दुखी थी के उस का आदमी उस को रोज़ किसी न किसी बात पर लड़ाई झगड़ा करता। उस आदमी ने उसे कई बार इतना मारा की उस की हड्डी भी टूट गई थी। लेकिन उस आदमी का रोज़ का काम था। झगडा करना। उस महिला ने अपने गुरु महाराज जी से अरज की हे गुरुदेव मेरे से कौन सी भूल हो गई है। मै सत्संग भी जाती हूँ सेवा भी करती हूँ। भजन सिमरन भी आप के हुक्म के अनुसार करती हूँ। लेकिन मेरा आदमी मुझे रोज़ मारता है। मै क्या करूँ।

गुरु महाराज जी ने कहा क्या वो तुझे रोटी देता है महिला ने कहा हाँ जी देता है। गुरु महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। कोई बात नहीं। उस महिला ने सोचा अब शायद गुरु की कोई दया मेहर हो जाए और वो उस को मारना पीटना छोड़ दे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस की तो आदत बन गई ही रोज़ अपनी घरवाली की पिटाई करना। कुछ साल और निकल गए उस ने फिर महाराज जी से कहा की मेरा आदमी मुजे रोज़ पीटता है। मेरा कसूर क्या है। गुरु महाराज जी ने फिर कहा क्या वो तुम्हे रोटी देता है। उस महिला ने कहा हांजी देता है। तो महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। तुम अपने घर जाओ। महिला बहुत निराश हुई के महाराज जी ने कहा ठीक है।

वो घर आ गई लेकिन उस के पति के स्वभाव वैसे का वैसा रहा रोज़ उस ने लड़ाई झगडा करना। वो महिला बहुत तंग आ गई। कुछ एक साल गुज़रे फिर गुरु महाराज जी के पास गई के वो मुझे अभी भी मारता है। मेरी हाथ की हड्डी भी टूट गई है। मेरा कसूर क्या है। मै सेवा भी करती हूँ। सिमरन भी करती हूँ फिर भी मुझे जिंदगी में सुख क्यों नहीं मिल रहा। गुरु महाराज जी ने फिर कहा वो तुजे रोटी देता है। उस ने कहा हांजी देता है। महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। परन्तु इस बार वो महिला जोर जोर से रोने लगी और बोली की महाराज जी मुझे मेरा कसूर तो बता दो मैंने कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है।

महाराज कुछ देर शांत हुए और फिर बोले बेटी तेरा पति पिछले जन्म में तेरा बेटा था। तू उस की सोतेली माँ थी। तू रोज़ उस को सुबह शाम मारती रहती थी। और उस को कई कई दिन तक भूखा रखती थी। शुक्र मना के इस जन्म में वो तुझे रोटी तो दे रहा है। ये बात सुन कर महिला एक दम चुप हो गई। गुरु महाराज जी ने कहा बेटा जो कर्म तुमने किए है उस का भुगतान तो तुम्हें अवश्य करना ही पड़ेगा फिर उस महिला ने कभी महाराज से शिकायत नहीं की क्योंकि वो सच को जान गई थी।

इसलिए हमे भी कभी किसी का बुरा नहीं करना चाहिए सब से प्रेम प्यार के साथ रहना चाहिए। हमारी जिन्दगी में जो कुछ भी हो रहा है सब हमारे कर्मो का लेखा जोखा है। जिस का हिसाब किताब तो हमे देना ही पड़ेगा।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 109 – गर्दीच फार झाली ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 109 – गर्दीच फार झाली

देशात दानवांची गर्दीच फार झाली।

मदतीस धावण्याची वृत्ती फरार झाली।

 

शेतात राबणारा राही सदा उपाशी।

फाशीच जीवनावर त्याच्या उदार झाली।।

 

सारे दलाल झाले सत्तेतले पुढारी।

जनसेवकास येथे नक्कीच हार झाली।।

 

भोगी बरेच ठरता निस्सीम राज योगी।

भक्तांस वाटणारी श्रद्धाच ठार झाली।।

 

जाळून जीव आई मोठे करी मुलांना ।

आई कशी मुलांच्या जीवास भार झाली।।

 

बापू नकाच येऊ परतून या घडीला।

तत्त्वेच आज तुमची सारी पसार झाली।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #139 ☆ गुण और ग़ुनाह ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख गुण और ग़ुनाह। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 139 ☆

☆ गुण और ग़ुनाह

‘आदमी के गुण और ग़ुनाह दोनों की कीमत होती है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि गुण की कीमत मिलती है और ग़ुनाह की उसे चुकानी पड़ती है।’ हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। गुणों की एवज़ में हमें उनकी कीमत मिलती है; भले वह पग़ार के रूप में हो या मान-सम्मान व पद-प्रतिष्ठा के रूप में हो। इतना ही नहीं, आप श्रद्धेय व वंदनीय भी बन सकते हैं। श्रद्धा मानव के दिव्य गुणों को देखकर उसके प्रति उत्पन्न होती है। यदि हमारे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा के साथ प्रेम भाव भी जाग्रत होता है, तो वह भक्ति का रूप धारण कर लेती है। शुक्ल जी भी श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति स्वीकारते हैं। सो! आदमी को गुणों की कीमत प्राप्त होती है और जहां तक ग़ुनाह का संबंध है, हमें ग़ुनाहों की कीमत चुकानी पड़ती है; जो शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना रूप में हो सकती है। इतना ही नहीं, उस स्थिति में मानव की सामाजिक प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग सकती है और वह सबकी नज़रों में गिर जाता है। परिवार व समाज की दृष्टि में वह त्याज्य स्वीकारा जाता है। वह न घर का रहता है; न घाट का। उसे सब ओर से प्रताड़ना सहनी पड़ती है और उसका जीवन नरक बन कर रह जाता है।

मानव ग़लतियों का पुतला है। ग़लती हर इंसान से होती है और यदि वह उसके परिणाम को देख स्वयं की स्थिति में परिवर्तन ले आता है, तो उसके ग़ुनाह क्षम्य हो जाते हैं। इसलिए मानव को प्रतिशोध नहीं; प्रायश्चित करने की सीख दी जाती है। परंतु प्रायश्चित मन से होना चाहिए और व्यक्ति को उस कार्य को दोबारा नहीं करना चाहिए। बाल्मीकि जी डाकू थे और प्रायश्चित के पश्चात् उन्होंने रामायण जैसे महान् ग्रंथ की रचना की। तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त थे और उसकी दो पंक्तियों ने उसे महान् लोकनायक कवि बना दिया और वे प्रभु भक्ति में लीन हो गए। उन्होंने रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की, जो हमारी संस्कृति की धरोहर है। कालिदास महान् मूर्ख थे, क्योंकि वे जिस डाल पर बैठे थे; उसी को काट रहे थे। उनकी पत्नी विद्योतमा की लताड़ ने उन्हें महान् साहित्यकार बना दिया। सो! ग़ुनाह करना बुरा नहीं है, परंतु उसे बार-बार दोहराना और उसके चंगुल में फंस कर रह जाना अति- निंदनीय है। उसे इस स्थिति से उबारने में जहां गुरुजन, माता-पिता व प्रियजन सहायक सिद्ध होते हैं; वहीं मानव की प्रबल इच्छा- शक्ति, आत्मविश्वास व दृढ़-निश्चय उसके जीवन की दिशा को बदलने में नींव की ईंट का काम करते हैं।

इस संदर्भ में, मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगी कि यदि ग़ुनाह किसी सद्भावना से किया जाता है, तो वह निंदनीय नहीं है। इसलिए धर्मवीर भारती ने ग़ुनाहों का देवता उपन्यास का सृजन किया,क्योंकि उसके पीछे मानव का प्रयोजन द्रष्टव्य है। यदि मानव में दैवीय गुण निहित हैं;  उसकी सोच सकारात्मक है, तो वह ग़लत काम कर ही नहीं सकता और उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हो ही नहीं हो सकते। हाँ! उसके हृदय में प्रेम, स्नेह, सौहार्द, करुणा, सहनशीलता, सहानुभूति, त्याग आदि भाव संचित होने चाहिए। ऐसा व्यक्ति सबकी नज़रों में श्रद्धेय, उपास्य, प्रमण्य  व वंदनीय होता है। ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु तिन मूरत देखी तैसी’ अर्थात् मानव की जैसी सोच, भावना व दृष्टिकोण होता है; उसे वही सब दिखाई देता है और वह उसमें वही तलाशता है। इसलिए सकारात्मक सोच व सत्संगति पर बल दिया जाता है। जैसे चंदन को हाथ में लेने से उसकी महक लंबे समय तक हाथों में बनी रहती है और हमें उसके बदले में मानव को कोई मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। इसके विपरीत यदि आप कोयला हाथ में लेते हो, तो आपके हाथ काले अवश्य हो जाते हैं और आप पर कुसंगति का दोष अवश्य लगता है। कबीरदास जी का यह दोहा तो आपने सुना होगा–’कोयला होय न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन लाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसलिए मानव को निराश नहीं होना चाहिए और अपने सत् प्रयास अवश्य जारी रखने चाहिए।

यह कथन कोटिश: सत्य हैं कि यदि व्यक्ति ग़लत संगति में पड़ जाता है, तो उसको लिवा लाना अत्यंत कठिन होता है, क्योंकि ग़लत वस्तुएं अपनी चकाचौंध से उसे आकर्षित करती हैं, जैसे माया रूपी महाठगिनी अपनी हाट सजाए  सबका ध्यान आकर्षित करने में प्रयासरत रहती है। 

शेक्सपीयर भी यही कहते हैं कि जो दिखाई देता है; वह सदैव सत्य नहीं होता और हमें छलता है। सो! सुंदर चेहरे पर विश्वास करना स्वयं को छलना व धोखा देना है। इक्कीसवीं सदी में सब धोखा है, छलना है, क्योंकि मानव की कथनी और करनी में बहुत अंतर होता है। लोग अक्सर मुखौटा धारण कर जीते हैं। इसलिए रिश्ते भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। रिश्ते खून के हों या अन्य भौतिक संबंध– भरोसा करने योग्य नहीं हैं। संसार में हर इंसान एक-दूसरे को छल रहा है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं; जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। अक्सर आसपास के लोग व निकट के संबंधी उनकी अस्मत से खिलवाड़ करते पाए जाते हैं। उनकी स्थिति बगल में छुरी ओर मुंह में राम-राम जैसी होती है। वे एक भी अवसर नहीं चूकय और दुष्कर्म कर डालते हैं, क्योंकि उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। वास्तव में उनकी आत्मा मर चुकी होती है, परंतु सत्य भले ही देरी से उजागर हो; होता अवश्य है। वैसे भी भगवान के यहां सबका बही-खाता है और उनकी दृष्टि से कोई भी नहीं बच सकता। यह अकाट्य सत्य है कि जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का फल मानव को किसी भी जन्म में भोगना अवश्य पड़ता है। 

आइए! आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता पर दृष्टिपात करें, जो ‘खाओ पीयो,मौज उड़ाओ’ में विश्वास कर ग़ुनाह पर ग़ुनाह करती चली जाती है निश्चिंत होकर और भूल जाती है ‘यह किराये का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर पायेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यही संसार का नियम है कि इंसान कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। परंतु वह आजीवन अधिकाधिक धन-संपत्ति व सुख- सुविधाएं जुटाने में लगा रहता है। काश! मानव इस सत्य को समझ पाता और देने में विश्वास रखता तथा परहितार्थ कार्य करता, तो उसके ग़ुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी नहीं होती। अंतकाल में केवल कर्मों की गठरी ही उसके साथ जाती है और कृत-कर्मों के परिणामों से बचना असंभव है।

मानव के सबसे बड़े शत्रु है अहं और मिथ्याभिमान; जो उसे डुबो डालते हैं। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय मानता है। इसलिए वह कभी दयावान नहीं हो सकता। वह दूसरों पर ज़ुल्म ढाने में विश्वास कर सुक़ून पाता है और जब तक व्यक्ति स्वयं को उस तराजू में रखकर नहीं तोलता; वह प्रतिपक्ष के साथ न्याय नहीं कर पाता। सो! कर भला, हो भला अर्थात् अच्छे का परिणाम अच्छा व बुरे का परिणाम सदैव बुरा होता है। शायद! इसीलिए शुभ कर्मण से कबहुं न टरौं’ का संदेश प्रेषित है। गुणों की कीमत हमें आजीवन मिलती है और ग़ुनाहों का परिणाम भी अवश्य भुगतना पड़ता है; उससे बच पाना असंभव है। यह संसार क्षणभंगुर है, देह नश्वर है और मानव शरीर पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व आकाश तत्वों से बना है। अंत में इस नश्वर देह को पंचतत्वों में विलीन हो जाना है; यही जीवन का कटु सत्य है। इसलिए मानव को ग़ुनाह करने से पूर्व उसके परिणामों पर चिन्तन-मनन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने के पश्चात् ही आप ग़ुनाह न करके दूसरों के हृदय में स्थान पाने का साहस जुटा पाएंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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