(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे …”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं “संतोष के दोहे… ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“आता फार काही बोललास तर तोंडाला फेफर येई पर्यंत हा पेपरवेट फेकून मारिन मोऱ्या तुला !”
“हे बरं आहे पंत, आपणच प्रश्न विचारायचा आणि मी उत्तर द्यायला लागलो की….”
“अरे गाढवा तुझा पत्ता काय म्हणजे इतके दिवस कुठे गायब झाला होतास ? असं विचारतोय मी !”
“अस्स होय ! पंत तुम्हीं सुचवलेले अनेक व्यवसाय आता नावा रुपाला आले आहेत आणि ते सांभाळता सांभाळता दिवसाचे २४ तास पुरत नाहीत मला !”
“मग आज कसा काय वेळ मिळाला ?”
“पंत, चांगली पावसाळी हवा आहे, हवेत छान गारवा आहे, अशा वेळेस काकुंच्या हातचा आल्याचा गरमा गरम चहा मिळाला तर मग काय, सोनेपे सुहागा ! म्हणून आलो !”
“मोऱ्या उगाच चहाला जाऊन कप लपवू नकोस !”
“म्हणजे ?”
“म्हणजे आता इतक्या दिवसांनी आला आहेस मोऱ्या, तर तुला चहा मिळणारच आहे, पण मी तुझ्या बारशाच्या घुगऱ्या खाल्ल्या आहेत हे विसरू नकोस ! त्यामुळे पटकन काय ते खरं कारण सांग, म्हणजे हिला सांगून तुझ्या नरड्यात चहा ओतलाच म्हणून समज !”
“पंत तुम्ही खरंच मनकवडे आहात अगदी !”
“आता मला जास्त मस्का न लावता चटचट बोललास तरच तुला लवकर चहा मिळेल मोऱ्या, नाहीतर माझं मन वाकड झालं तर चहाच काय, साध पाणी सुद्धा मिळणार नाही तुला लक्षात ठेवं !”
“सांगतो, सांगतो पंत ! आता पावसाळा जवळ येवून ठेपलाय दारात हे तर तुम्हांला माहित आहेच !”
“बरं मग ?”
“तर पंत या पावसाळ्यात एखादा नवीन उद्योग सुरु करावा असं मनांत आलं आणि म्हणून तुमच्या सुपीक डोक्यात एखादी नवीन आयडिया आली असेल आणि ती जर कळली तर…..”
“अब आया उंट पहाडके नीचे !”
“म्हणजे मी उंट ?”
“नाही रे, तू तर पहाड !”
“मग उंट कोण ?”
“तो तिकडे अरबस्तानात !”
“पण त्याचा इथे काय संबंध पंत ?”
“खरंच कठीण आहे तुमच्या हल्लीच्या पिढीच मोऱ्या !”
“म्हणजे ? मी नाही समजलो पंत!”
“ते सोडून दे मोऱ्या, आता तू तुझ्या येण्याचं खरं खरं कारण सांगितलं आहेस तर मी तुला एक धंद्याची नवीन आयडिया, जी आजच माझ्या सुपीक डोक्यात आली आहे ती सांगतो तुला !”
“म्हणजे तुमच्या डोक्यात ऑलरेडी नवीन आयडिया आलेली आहे ?”
“अरे उंटा…..”
“पण पंत तो तर अरबस्तानात असतो ना ?”
“अरे हॊ खरंच की !”
“मग !”
“सॉरी, सॉरी मोरू ! माझ्या गाढवा, हे कसं वाटतंय ?”
“हां, आता कसं बरं वाटलं कानाला पंत !”
“मला पण बरं वाटलं मोऱ्या ! तर काय सांगत होतो… हां उंट या प्राण्याला वाळवंटातल जहाज म्हणतात हे तुला ठाऊक असेलच !”
“हॊ पंत, शाळेत असतांना शिकलोय!”
“नशीब त्या उंटाच !”
“काय ?”
“काही नाही रे गधडया ! तर तू म्हणतोयस ते बरोबरच आहे, पावसाळा अगदी सुरू झाला आहे आणि तशातच पेपर मधल्या आणि न्यूज चॅनेलच्या बातम्या वाचून आणि ऐकून मला या नवीन उद्योगाची आयडिया सुचली बघ !”
“कुठल्या बातम्या पंत ?”
“मोऱ्या या पावसाळ्यात सुद्धा दरवर्षी प्रमाणे रस्त्यांच्या नद्या होणार आहेत आणि आपले मुंबई बेट दरवर्षी 2 सेंटीमीटर या वेगाने पुढच्या अनेक वर्षात समुद्रात बुडणार आहे !”
“काय सांगता काय पंत ? हे खरं आहे ?”
“पेपरवाले तरी असं ओरडून ओरडून सांगतायत आणि सगळे न्यूज चॅनेल पण त्यांचीच री ओढतायत !”
“मग अशा येवू घातलेल्या आपत्तीत, कुठला नवीन उद्योग करून मी माझ्या संपत्तीत भर घालावी असं वाटतंय तुम्हांला पंत ?”
“अरे व्वा मोऱ्या, अगदी अलंकारिक बोलायला लागलास की !”
“कसचं कसचं पंत, तुमच्या सहवासात राहून थोडं थोडं शिकलोय झालं ! बरं पण तुम्ही धंद्याची नवीन आयडिया सांगणार होतात ती तर सांगा आधी !”
“मोऱ्या या पावसाळ्यात तू लोकांना छत्र्यांचे मोफत वाटप करावेसे असं मला वाटतं !”
“पंत, आत्ताच मी कुठला नवीन धंदा करून माझ्या संपत्तीत भर घालावी असं म्हटलं आणि तुम्ही मला छत्र्या मोफत वाटायला सांगताय ?”
“अरे माझं नीट ऐकून तर घे !”
“बरं पंत, बोला !”
“अरे मी मगाशी तुला म्हटलं ना, या पावसाळ्यात पण मुंबईच्या रस्त्यांच्या नद्या होणार आहेत म्हणून!”
“हॊ, पण हल्ली गेला बाजार प्रत्येकाकडे छत्री असतेच असते आणि नसेल तर रेनकोट तरी असतोच असतो !”
“ते माहित आहे रे मला, पण रस्त्याची नदी झाल्यावर या दोघांचा काही उपयोग आहे का सांग बरं मला मोऱ्या !”
“नाही, पुरुषभर पाण्यात तसा या दोघांचा काडीचा उपयोग नाही हे तुमचं म्हणणं खरं आहे पंत ! “
“हॊ ना, म्हणून तू आता पोहतांना शिकावू स्विमर जसे प्लास्टिकचा हवा भरलेला फ्लोट वापरतात त्याचा बिझनेस सुरु कर आणि एका फ्लोटवर एक छत्री मोफत दे, म्हणजे जोराचा पाऊस असेल तेव्हा लोकं छत्री वापरतील आणि…. “
“रस्त्यांच्या नद्या झाल्या तर फ्लोट वापरून लोकं आपला जीव वाचवतील, हॊ ना पंत ?”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘जब आवै संतोष धन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 94 ☆
☆ लघुकथा – जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
योग के एक सप्ताह के कोर्स का अंतिम दिन। गुरु जी का आदेश था कि आज सबको साथ बैठकर भोजन करना है और खाना भी अपने घर से अपनी पसंद का ही लाना है। सब बहुत खुश थे, ऐसा लग रहा था कि ना जाने कब से मन- माफिक भोजन मिला ही नहीं। उसने पत्नी से अपनी मनपसंद चीजें बनवाईं। पत्नी ने छोटे- छोटे डिब्बों में बड़े करीने से अचार, चटनी, पापड़ से लेकर पति की पसंद की सब्जी, मिठाई सब चीजें रख दीं। योग की कक्षा में एक पेड़ के नीचे सबको गोलाकार बैठा दिया और कहा गया – ‘सब अपनी – अपनी थाली में अपना खाना परोस लें।‘ सबके सामने रखीं थालियां तरह – तरह के व्यंजनों से सज गईं। गुरु जी का आदेश हुआ – ‘ अब ये थालियां आगे बढ़ाई जाएंगी।‘ मतलब ? एक बेचैन साधक ने पूछा। गुरु जी मुस्कुराते हुए बोले – ‘अपनी थाली अपने आगेवाले व्यक्ति को देते जाइए। इस प्रकार थालियां गोलाकार तब तक घूमती रहेंगी जब तक मैं रुकने का आदेश नहीं देता।‘ हर किसी की थाली एक – दूसरे के हाथों से होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। किसी की आँखें अपनी मनपसंद थाली का पीछा कर रही थीं तो कोई अनेक व्यंजनोंवाली थाली पर नजर गढ़ाए बैठा था। पर थालियाँ तो आगे ही सरकती जा रही थीं । थोड़ी देर बाद गुरु जी ने कहा – रुको, अब जिसके हाथ में जो थाली है उसे अपने सामने रखो और भोजन शुरू करो।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “योग्य और उपयोगी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 106 ☆
☆ योग्य और उपयोगी☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
चलिए इस कार्य को मैं कर देती हूँ मुस्कुराते हुए रीना ने कहा।
अरे भई प्रिंटिंग का कार्य कोई सहज नहीं होता। आपको इसके स्किल पर कार्य करना होगा। स्वयं में कोई न कोई ऐसी विशेषता हो कि लोग आपको याद करें समझाते हुए संपादक महोदय ने कहा।
मैं रचनाओं को एकत्रित करुँगी। संयोजक के रूप में मुझे शामिल कर लीजिए।
देखिए आजकल वन मैन आर्मी का जमाना है। जब हमको ऐसे लोग मिल रहे हैं तो आपके ऊपर समय क्यों व्यर्थ करें।
हाँ ये बात तो है। अब इस पर चिंतन मनन करुँगी। क्या ऐसा हम सबके साथ भी होता है। अगर होता है तो उपयोगी बनें। माना कि उपयोगिता अहंकार को बढ़ावा देती है।अपने आपको सर्वे सर्वा समझने की भूल करते हुए व्यक्ति कब अहंकार रूपी कार में सवार होकर निकल पड़ता है पता ही नहीं चलता। अपने रुतबे के चक्कर में कड़वे वचन, झूठ की चादर, मंगल को अमंगल करने की कोशिश इसी उधेड़बुन में उलझे हुए जीवन व्यतीत होने लगता है। सब से चिल्ला कर बोलना , खुद को साहब मान कर चिल्लाने से ज्यादा प्रभाव पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण से भले ही सामने वाला अछूता रह जाए किन्तु अड़ोसी- पड़ोसी का ध्यानाकर्षण अवश्य हो जाता है।
अपने नाम का गुणगान सुनने की लत; नशे से भी खतरनाक होती है। जिसने भी सत्य समझाने का प्रयास किया वही दुश्मन की श्रेणी में आ खड़ा होता है। उसे दूर करने की इच्छा मन में आते ही आदेश जारी करके अलग- थलग कर दिया जाता है।
बेचारे घनश्याम जी दिन भर माथा पच्ची करते रहते हैं। कोई भी ढंग का कार्य उन्हें नहीं आता बस कार्य को फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करते किन्तु अधिकारी उनके इसी गुण के कायल हैं। रायता फैलाने से ज्यादा विज्ञापन होता है। कोई बात नहीं बस नाम हमारा हो, यही इच्छा मौन साधने को बलवती करती है। अपनी खोल में बैठ कर मूक दर्शक बनें रहना और जैसे ही मौका मिला कुछ भी लिखा और पोस्टर लेकर हाजिर। हाजिर जबावी में तो तेनालीराम व बीरबाल का नाम था किंतु यहाँ तो हुजूर सब कुछ खुद करते हुए देखे जा सकते हैं।
सच कहूँ तो ऐसी व्यवस्था से ही कार्यालय चलते हैं। आपसी सामंजस्य तभी होता है जब माँग और पूर्ति बनी रहे। एक दूसरे को आगे बढ़ाते हुए चलते जाना ही जीत का मूल मंत्र होता है।
जो कुछ करेगा उसे जीत का सेहरा अवश्य मिलेगा। बस रस्सी की तरह पत्थर पर निशान बनाने को आतुर होना पड़ेगा। हर जगह लोग कर्म के पुजारी बन रहे हैं। कुछ लगातार स्वयं को अपडेट कर रहे हैं तो कुछ भूतकाल में जीते हुए डाउनग्रेड हो रहे हैं। अब आपके ऊपर है कि आप किस तरह की जीवनशैली के आदी हैं।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – आभास दायिनी है बिजली !।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 169 ☆
कविता – आभास दायिनी है बिजली !
शक्ति स्वरूपा, चपल चंचला, दीप्ति स्वामिनी है बिजली ,
निराकार पर सर्व व्याप्त है, आभास दायिनी है बिजली !
मेघ प्रिया की गगन गर्जना, क्षितिज छोर से नभ तक है,
वर्षा ॠतु में प्रबल प्रकाशित, तड़ित प्रवाहिनी है बिजली !
क्षण भर में ही कर उजियारा, अंधकार को विगलित करती ,
हर पल बनती, तिल तिल जलती, तीव्र गामिनी है बिजली !
कभी उजाला, कभी ताप तो, कभी मशीनों का ईंधन बन जाती है,
रूप बदल, सेवा में तत्पर, हर पल हाजिर है बिजली !
सावधान ! चोरी से इसकी, छूने से भी, दुर्घटना घट सकती है ,
मितव्ययिता से सदुपयोग हो, माँग अधिक, कम है बिजली !
गिरे अगर दिल पर दामिनि तो, सचमुच, बचना मुश्किल है,
प्रिये हमारी ! हम घायल हैं, कातिल हो तुम, अदा तुम्हारी है बिजली !
सर्वधर्म समभाव सिखाये, छुआछूत से परे तार से, घर घर जोड़े ,
एक देश है ज्यों शरीर और, तार नसों से , रक्त वाहिनी है बिजली !!
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय बालकथा – “जबान की आत्मकथा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 117 ☆
☆ बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆
” आप मुझे जानते हो?” जबान ने कहा तो बेक्टो ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया. तब जबान ने कहा कि मैं एक मांसपेशी हूं.
बेक्टो चकित हुआ. बोला, ” तुम एक मांसपेशी हो. मैं तो तुम्हें जबान समझ बैठा था.”
इस पर जबान ने कहा, ” यह नाम तो आप लोगों का दिया हुआ है. मैं तो आप के शरीर की 600 मांसपेशियों में से एक मांसपेशी हूं. यह बात और है कि मैं सब से मजबूत मांसपेशी हूं. जैसा आप जानते हो कि मैं एक सिरे पर जुड़ी होती हूं. बाकी सिरे स्वतंत्र रहते हैं.”
जबान में बताना जारी रखो- मैं कई काम करती हूं. बोलना मेरा मुख्य काम है. मेरे बिना आप बोल नहीं सकते हो. अच्छा बोलती हूं. सब को मीठा लगता है. बुरा बोलती हूं. सब को बुरा लगता है. इस वजह से लोग प्रसन्न होते हैं. कुछ लोग बुरा सुन कर नाराज हो जाते हैं.
मैं खाना खाने का मुख्य काम करती हूं. खाना दांत चबाते हैं. मगर उन्हें इधरउधर हिलानेडूलाने का काम मैं ही करती हूं. यदि मैं नहीं रहूं तो तुम ठीक से खाना चबा नहीं पाओ. मैं इधरउधर खाना हिला कर उसे पीसने में मदद करती हूं.
मेरी वजह से खाना स्वादिष्ट लगता है. मेरे अंदर कई स्वाद ग्रथियां होती है. ये खाने से स्वाद ग्रहण करती है. उन्हें मस्तिष्क तक पहुंचाती है. इस से ही आप को पता चलता है की खाने का स्वाद कैसा होता है?
जब शरीर में पानी की कमी होती है तो मेरे द्वारा आप को पता चलता है. आप को प्यास लग रही है. कई डॉक्टर मुझे देख कर कई बीमारियों का पता लगाते हैं. इसलिए जब आप बीमार होते हो तो डॉक्टर मुंह खोलने को कहते हैं. ताकि मुझे देख सकें.
मैं दांतों की साफसफाई भी करती हूं. दांत में कुछ खाना फंस जाता है तब मुझे सब से पहले मालूम पड़ता है. मैं अपने खुरदुरेपन से दांत को रगड़ती रहती हूं. इस से दांत की गंदगी साफ होती रहती है. मुंह में दांतों के बीच फंसा खाना मेरी वजह से बाहर आता है.
मेरे नीचे एक लार ग्रंथि होती है. इस से लार निकलती रहती है. यह लार खाने को लसलसा यानी पानीदार बनाने का काम करती है. इसी की वजह से दांत को खाना पीसने में मदद मिलती है. मुंह में पानी आना- यह मुहावरा इसी वजह से बना है. जब अच्छी चीज देखते हो मेरे मुंह में पानी आ जाता है.
कहते हैं जबान लपलपा रही है. या जबान चटोरी हो गई. जब अच्छी चीजें देखते हैं तो जबान होंठ पर फिरने लगती है. इसे ही जबान चटोरी होना कहते हैं. इसी से पता चलता है कि आप कुछ खाने की इच्छा रखते हैं.
यदि जबान न हो तो इनसान के स्वाभाव का पता नहीं चलता है. वह किस स्वभाव का है? इसलिए कहते हैं कि बोलने से ही इनसान की पहचान होती है. यदि वह मीठा बोलता है तो अच्छा व्यक्ति है. यदि कड़वा या बेकार बोलता है तो खराब व्यक्ति है.
यह सब कार्य मस्तिष्क करवाता है. मगर, बदनाम मैं होती हूं. मन कुछ सोचता है. उसी के अनुसार मैं बोल देती हूं. इस कारण मैं बदनाम होती हूं. मेरा इस में कोई दोष नहीं होता है.
जबान इतना बोल रही थी कि तभी बेक्टो जाग गया. जबान का बोलना बंद हो गया.
‘ओह! यह सपना था.’ बेक्टो ने सोचा और आंख मल कर उठ बैठा. उसे पढ़ कर स्कूल जाना था. मगर उस ने आज बहुत अच्छा सपना देखा था. वह जबान से अपनी आत्मकथा सुन रहा था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न था.