हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 117 ☆ भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…१…” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 117 ☆ 

☆ भजन – प्रभु हैं तेरे पास में…१ ☆

*

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

तन तो धोता रोज न करता, मन को क्यों तू साफ रे!

जो तेरा अपराधी है, उसको कर दे हँस माफ़ रे..

प्रभु को देख दोस्त-दुश्मन में, तम में और प्रकाश में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

चित्र-गुप्त प्रभु सदा चित्त में, गुप्त झलक नित देख ले.

आँख मूँदकर कर्मों की गति, मन-दर्पण में लेख ले..

आया तो जाने से पहले, प्रभु को सुमिर प्रवास में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

मंदिर-मस्जिद, काशी-काबा मिथ्या माया-जाल है.

वह घट-घट कण-कणवासी है, बीज फूल-फल डाल है..

हर्ष-दर्द उसका प्रसाद, कडुवाहट-मधुर मिठास में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #149 ☆ कविता – महात्मा गांधी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 149 ☆

☆ ‌कविता – महात्मा गांधी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

सत्य अहिंसा  उनके मन में, उनका नाम  महात्मा गांधी।

 अंग्रेजों की  चूल हिल गई, जब आई  वैचारिक आंधी  ।

असहयोग आंदोलन के जनक बने,  लाठी डंडे खाए।

सही यातना की पीड़ा, फिर भी कभी न पछताए ।।1।।

 

दुबला पतला शरीर था उनका, थे आतम बल के न्यारे।

 वाणी में  आकर्षण के चलते, जनता के बीच हुए प्यारे।

 दांडी आंदोलन के बल पर, सत्याग्रह अभियान चलाया।

 विदेशी कपड़ों की जला के होली, गली गली में नाम कमाया।।2।।

 

हर दिल में वैचारिक क्रांति का, गांधी ने उद्घघोष किया।

रामराज्य का सपना देखा, दुखियों  के दुख  अंत किया।

गांवों के विकास का सपना, उनकी आंखों ने देखा था।

और गुलामी से मुक्ति को, संघर्ष का नारा चोखा था।।3।।

 

राष्ट्र पिता की छवि बनी,  भारत को आजाद कराए।

औ खादी आंदोलन कर के, जन जन  के तन पर वस्त्र सजाए।

दो अक्टूबर को हम सब मिलकर, गांधी जयंती मनाते हैं।

 कभी न भूले शास्त्री जी को, उनको भी शीष झुकाते हैं।।4।।

 

आज के दिन ही भारत मां नें, जन्माए दो लाल थे।

सत्य, अहिंसा, और इमान के, दोनों बने मिसाल थे

दोनों ने अपनी कुर्बानी दे, अपने वतन का मान बढ़ाया।

अपनी हिम्मत अपने ताकत से, उसका शीष झुकाया।।5।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #166 – 52 – “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…”)

? ग़ज़ल # 52 – “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

कुछ लोग तो सत्तर में भी जवां रहते हैं,

अपनी मस्ती में हर वक़्त रवां रहते हैं।

जिनको दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं है,

आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं।

देखना धोखे में उनके कहीं आ न जाना तुम,

वो जो मासूम से लोग आस्तीनों में रहते हैं।

किसी पे कोई भरोसा ज़रा  नहीं करता यहाँ,

यह कैसा समय है जिसमें हम लोग रहते हैं।

किसी से पूछना ज़रूरी तो नहीं है कुछ भी,

दिल के हालात  ‘आतिश’ में अयाँ रहते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 43 ☆ मुक्तक ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 43 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

मोमबत्ती नहीं हर हाथ, में मशाल चाहिए।

नम नहीं आंखें अब, यह   लाल चाहिए।।

नारी के प्रति श्रद्धा, जब होने लगे कम।

कबतक यूं हीअब, हल यह सवाल चाहिए।।

[2]

नर पिशाच नहीं ये, नर नारायण का देश है।

बदल रहा क्यों  यह, जहरीला परिवेश है।।

नारी प्रति भेदभाव विद्वेष, कब तक चलेगा।

नारी शक्ति देवी पूज्य, यही पुरातन संदेश है।।

[3]

नारी सृष्टि रचनाकार, विधि विधान उसी से है।

मातृ भूमि धरा का भी,  सम्मान उसी से है।।

विधाता का रूप  स्वरूप, समाया हर स्त्री में।

मानवता की सेवा  और, गुणगान उसी से है।।

[4]

बच्चों को प्रारंभ से, साहस संस्कार देना चाहिए।

उनको उचित ज्ञान और, सरोकार देना चाहिए।।

बेटियों को बेटों सा,  ही  हमें सशक्त बनाना है।

जबअस्मिता पेआंच, हाथ में तलवार देना चाहिए।।

5

नारी तुमकोअबला नहीं, सबला बनके  जीना है।

तुझसे ही घर परिवार, सुंदर  रूप नगीना है।।

स्त्री सम्मान ही धुरी, अपने समाज कल्याण की।

बन जा रणचंडी नहीं घूंट, अपमान का पीना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 109 ☆ ग़ज़ल – “जमाने की हवा से अब…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “जमाने की हवा से अब…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #109 ☆  ग़ज़ल  – “जमाने की हवा से अब…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

नये युग की धमक है अब धुंधलके से उजाले तक

नया सा दिखता है अब सब बाजारों से शिवाले तक।

 

पुराने घर, पुराने सब लोग, उनकी पुरानी बातें

बदल गई सारी दुनियां ज्यों सुराही से प्याले तक।

 

जमाने की हवा से अब अछूता कुछ नहीं दिखता

झलक दिखती नये रिश्तों की पति-पत्नी से साले तक।

 

चली हैं जो नयी फैशन दिखावों औ’ मुखोटों की,

लगे दिखने हैं अब चेहरे तो गोरे रंग से काले तक।

 

ली व्यवहारों ने जो करवट बाजारू सारी दुनिया में

किसी को डर नहीं लगता कहीं करते घोटाले तक।

 

निडर हो स्वार्थ अपने साधना, अब आम प्रचलन है

दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक।

 

मिलावट हो रही हर माल में भारी धड़ाके से

बाजारों में नही मिलते कहीं असली मसाले तक।

 

फरक आया है ऐसा सबकी तासीरों में बढ़चढ़कर

नहीं देते है गरमाहट कि अब ऊनी दुशाले तक।

 

बताने, बोलते, रहने, पहिनने के सलीकों में

नयापन है बहुत खानों में, स्वदों में निवाले तक।

 

खनक पैसों की इतनी बढ़ गई अब बिक रहा पानी

नहीं तरजीह देते फर्ज को कोई कामवाले तक।

 

गिरावट आचरण की, हुई तरक्की हुई दिखावट की

’विदग्ध’ मुश्किल से मिलते है, कोई सिद्धान्त वाले अब।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 129 – तुझे रूप दाता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 129 – तुझे रूप दाता ☆

तुझे रूप दाता स्मरावे किती रे ।

नव्यानेच आता भजावे किती रे।

 

अहंकार माझा मला साद घाली ।

सदाचार त्याला जपावे किती रे।

 

नवी रोज स्पर्धा इथे जन्म घेते।

कशाला उगा मी पळावेकिती रे ।

 

नवी रोज दःखे नव्या रोज व्याधी।

मनालाच माझ्या छळावे किती रे।

 

कधी हात देई कुणी सावराया।

बहाणेच सारे कळावे किती रे ।

 

पहा सापळे हे जनी पेरलेले ।

कुणाला कसे पारखावे किती रे ।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #159 ☆ परखिए नहीं – समझिए ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परखिए नहीं–समझिए । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 159 ☆

☆ परखिए नहीं–समझिए ☆

जीवन में हमेशा एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करें; परखने का नहीं। संबंध चाहे पति-पत्नी का हो; भाई-भाई का हो; मां-बेटे का हो या दोस्ती का… सब विश्वास पर आधारित हैं, जो आजकल नदारद है। परंंतु हर व्यक्ति को उसी की तलाश है। इसलिए ‘ऐसे संबंध जिनमें शब्द कम और समझ ज्यादा हो; तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो; आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो–की दरक़ार हर इंसान को है। वास्तव में जहां प्यार और विश्वास है, वही संबंध सार्थक है, शाश्वत है। समस्त प्राणी जगत् का आधार प्रेम है, जो करुणा का जनक है और एक-दूसरे के प्रति स्नेह, सौहार्द, सहानुभूति व त्याग का भाव ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का प्रेरक है। वास्तव में जहां भावनाओं का सम्मान है, वहां मौन भी शक्तिशाली होता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘खामोशियां भी बोलती हैं और अधिक प्रभावशाली होती हैं।’

यदि भरोसा हो, तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के अनेक अर्थ निकलने लगते हैं। इस स्थिति में मानव अपना आपा खो बैठता है। वह सब सीमाओं को लाँघ जाता है और मर्यादा के अतिक्रमण करने से अक्सर अर्थ का अनर्थ हो जाता है, जो हमारी नकारात्मक सोच को परिलक्षित करता है, क्योंकि ‘जैसी सोच, वैसा कार्य व्यवहार।’ शायद! इसलिए कहा जाता है कि कई बार हाथी निकल जाता है, पूँछ रह जाती है।

संवाद जीवन-रेखा है और विवाद रिश्तों में अवरोध उत्पन्न करता है, जो वर्षों पुराने संबंधों को पल-भर में मगर की भांति लील जाता है। इतना ही नहीं, वह दीमक की भांति संबंधों की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देता है और वे लोग, जिनकी दोस्ती के चर्चे जहान में होते हैं; वे भी एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। उनके अंतर्मन में वह विष-बेल पनप जाती है, जो सुरसा के मुख की मानिंद बढ़ती चली जाती है। इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न किया करें, उससे ज़िंदगी छोटी हो जाती है…बहुत सार्थक संदेश है। परंंतु यह तभी संभव है, जब मानव क्रोध के वक्त रुक जाए और ग़लती के वक्त झुक जाए। ऐसा करने पर ही मानव जीवन में सरलता व असीम आनंद को प्राप्त कर सकता है। सो! मानव को ‘पहले तोलो, फिर बोलो’  अर्थात् सोच-समझ कर बोलने का संदेश दिया गया है। दूसरे शब्दों में तुरंत प्रतिक्रिया देने से मानव मन में दूरियां इस क़दर बढ़ जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जीवन-साथी– जो दो जिस्म, एक जान होते हैं; नदी के दो किनारों की भांति हो जाते हैं, जिनका मिलन जीवन-भर संभव नहीं होता। इसलिए बेहतर है कि आप परखिए नहीं, समझिए अर्थात् एक-दूसरे की परीक्षा मत लीजिए और न ही संदेह की दृष्टि से देखिए, क्योंकि संशय, संदेह व शक़ मानव के अजात-शत्रु हैं। वे विश्वास को अपने आसपास भी मंडराने नहीं देते। सो! जहां विश्वास नहीं; सुख, शांति व आनंद कैसे रह सकते हैं? परमात्मा भाग्य नहीं लिखता; जीवन के हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म हमारा भाग्य लिखते हैं। इसलिए अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए। संसार में जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लीजिए और शेष को नकार दीजिए। परंतु किसी की आलोचना मत कीजिए, आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। वे सब आपको मित्र सामान लगेंगे और चहुंओर ‘सबका मंगल होय’ की ध्वनि सुनाई पड़ेगी। जब मानव में यह भावना घर कर लेती है, तो उसके हृदय में व्याप्त स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाएं मुंह छुपा लेती हैं अर्थात् सदैव के लिए लुप्त हो जाती हैं और दसों दिशाओं में दिव्य आनंद का साम्राज्य हो जाता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह हमें किसी के सम्मुख झुकने अर्थात् घुटने नहीं टेकने देता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है और दूसरों को नीचा दिखा कर ही सुक़ून पाता है। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की। इसलिए दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन ही सार्थक व सफल होता है। इसलिए मानव को सुख में अहं को निकट नहीं आने देना चाहिए और दु:ख में धैर्य नहीं खोना चाहिए। दोनों परिस्थितियों में सम रहने वाला मानव ही जीवन में अलौकिक आनंद प्राप्त कर सकता है। सो! जीवन में सामंजस्य तभी पदार्पण कर सकेगा; जब कर्म करने से पहले हमें उसका ज्ञान होगा; तभी हमारी इच्छाएं पूर्ण हो सकेंगी। परंतु जब तक ज्ञान व कर्म का समन्वय नहीं होगा, हमारे जीवन की भटकन समाप्त नहीं होगी और हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी। इच्छाएं अनंत है और साधन सीमित। इसलिए हमारे लिए यह निर्णय लेना आवश्यक है कि पहले किस इच्छा की पूर्ति, किस ढंग से की जानी कारग़र है? जब हम सोच-समझकर कार्य करते हैं, तो हमें निराशा का सामना नहीं करना पड़ता; जीवन में संतुलन व समन्वय बना रहता है।

संतोष सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम धन है। इसलिए हमें जो भी मिला है, उसमें संतोष करना आवश्यक है। दूसरों की थाली में तो सदा घी अधिक दिखाई देता है। उसे देखकर हमें अपने भाग्य को कोसना नहीं चाहिए, क्योंकि मानव को समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी, कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। संतोष अनमोल पूंजी है और मानव की धरोहर है। ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान,’ रहीम जी की यह पंक्ति इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि संतोष के जीवन में पदार्पण करते ही सभी इच्छाओं का शमन स्वतः हो जाता है। उसे सब धन धूलि के समान लगते हैं और मानव आत्मकेंद्रित हो जाता है। उस स्थिति में वह आत्मावलोकन करता है तथा दैवीय व अलौकिक आनंद में डूबा रहता है; उसके हृदय की भटकन व उद्वेलन शांत हो जाता है। वह माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होता तथा निंदा-स्तुति से बहुत ऊपर उठ जाता है। यह आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति है, जिसमें मानव को सम्पूर्ण विश्व तथा प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता है। वैसे आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है। संसार में सब कुछ मिथ्या है, परंतु वह माया के कारण सत्य भासता है। इसलिए हमें तुच्छ स्वार्थों का त्याग कर सुक़ून व अलौकिक आनन्द प्राप्त करने का अनवरत प्रयास करना चाहिए। इसके लिए आवश्यकता है उदार व विशाल दृष्टिकोण की, क्योंकि संकीर्णता हमारे अंतर्मन में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों को पोषित करती है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजना बेहतर है और जो बुरा है, उसका त्याग करना बेहतर है। इस प्रकार आप बुराइयों से ऊपर उठ सकते हैं। उस स्थिति में संसार आपको सुखों का सागर प्रतीत होगा; प्रकृति आपको ऊर्जस्वित करेगी और चहुंओर अनहद नाद का स्वर सुनाई पड़ेगा।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जीवन में दूसरों की परीक्षा मत लीजिए, क्योंकि परखने से आपको दोष अधिक दिखाई पड़ेंगे। इसलिए केवल अच्छाई को देखिए ;आपके चारों ओर आनंद की वर्षा होने लगेगी। सो! दूसरों की भावनाओं को समझने और उनकी बेरुखी का कारण जानने का प्रयास कीजिए। जितना आप उन्हें समझेंगे, आपकी दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का अंत हो जाएगा। इंसान ग़लतियों का पुतला है और कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है। फूल व कांटे सदैव साथ-साथ रहते हैं, उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। सृष्टि में जो भी घटित होता है–मात्र किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं; सबके मंगल के लिए कारग़र व उपयोगी सिद्ध होता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

29.8.22

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #159 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से \प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 159 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

गघरी ली है हाथ में,थककर बैठी छाँव।

गहरी सोच में डूबती,पिया नहीं है गाँव।।

🌴

राह प्रिय की देख रही,गुमसुम बैठी सोच।

कब आओगे सजन तुम,दिल में आई मोच।।

🤔

मिलने प्रिय को आ गई,घर में नहीं है ठाँव।

कब आओगे प्रिये तुम,थमते नहीं है पाँव।।

🌹

पानी भरकर बैठती,चेहरा है उदास।

दिल में उसके हो रही,बस प्रिय की है आस।।

💐

चिंता मन में हो रही,आ जाओ प्रिय पास।

दिल से दिल की दूरियां,जगती मन में खास।।

🌹

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #145 ☆ गरीबी पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “गरीबी पर दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 145 ☆

☆ गरीबी पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

होती धन की हीनता, बनते तभी गरीब

समझ सकें क्या दीनता, जब सुख होत करीब

 

धन-दौलत से आँकते, यहाँ गरीबी लोग

दोष सभी दें ईश को, कहें भाग्य का योग

 

कोसें अक्सर समय को, करें न कोई कर्म

भाग्य भरोसे न रहें, निभा कर्म का धर्म

 

अटल इरादे गर रखो, बनो नहीं मजबूर

कर्मों की कर साधना, करो गरीबी दूर

 

धन-दौलत से खुशी का, नहीं कोई संबंध

निर्धन रहता चैन से, उस पर क्या प्रतिबंध

 

जाने कितनी योजना, चला रहीं सरकार

पर गरीबी मिटी नहीं, सब बेबस लाचार

 

महनत कर कर थक गए, संवरा नहीं नसीब

जाने क्या है भाग्य में, सोचे यही गरीब

 

रोज चुनौती मिल रहीं, हो कैसे निर्वाह

मंहगाई के दौर में, निर्धन रहा कराह

 

दीनबन्धु सुध लीजिए, है गरीब लाचार

उनको भी संतोष हो, ऐसा कर उपचार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #151 ☆ धुंद झाले मन माझे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 151 – विजय साहित्य ?

☆ धुंद झाले मन माझे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

धुंद झाले मन माझे

शब्द रंगी रंगताना

आठवांचा मोतीहार

काळजात गुंफताना…….॥१॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुझें मन ‌वाचताना

प्रेमप्रिती राग लोभ

अंतरंगी नाचताना……..॥२॥

 

धुंद झाले मन माझे

हात हातात घेताना

भेट हळव्या क्षणांची

प्रेम पाखरू होताना……..॥३॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुझ्या मनी नांदताना

सुख दुःख समाधान

अंतरात रांगताना……….॥४॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुला माझी म्हणताना

भावरंग अंगकांती

काव्यरंगी माळताना……॥५॥

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares