हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 31 ☆ मानवता ही धर्म हमारा… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना  “मानवता ही धर्म हमारा… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 31 ✒️

? मानवता ही धर्म हमारा… — डॉ. सलमा जमाल ?

हो अज़ान या आरती,

 गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ ।

गिरजाघर में बज रहे हों,

 प्रार्थनाओ के घड़ियाल ।।

 

मानवता ही धर्म हमारा,

पग- पग राह संवरती है ।

शस्य- श्यामला हरी-भरी,

भारत देश की धरती है ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 114 ☆ निराशा से आशा – 7 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “निराशा से आशा”)

☆ संस्मरण # 114 – निराशा से आशा – 7 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अभी तक मैंने आपने उन आदिवासी युवतियों का परिचय करवाया जो माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की पूर्व छात्राएं रही हैं लेकिन सभी का जन्म बीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हुआ था । द्विवेदी जी, राजेन्द्रग्राम से जिस युवती को मुझसे मिलाने  सेवाश्रम लाए वह इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में जन्मी । आशा देवी बैगा का जन्म तरेरा गाँव में दादूराम बैगा और फगनी बाई के यहाँ 2003 में हुआ और वह 2009 में अपने पिता के साथ विद्यापीठ में भर्ती होने आई। मैंने पूछा पिता तो पढे लिखे नहीं थे फिर उन्हें इस स्कूल के बारे में कैसे पता चला। वह बताती है कि हमारे पड़ोसी की पुत्री इसी स्कूल में पढ़ रही थी और उसे देखकर पिताजी की भी इच्छा मुझे पढ़ाने की हो गई । आशा ने पिता की इच्छा का माँ रखा और जब 2014 में उसने इस विद्यापीठ से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण  की तो उसके 83% अंक आए। शिक्षा के प्रति इस बैगा बालिका की रुचि देखकर बाबूजी ने उसका प्रवेश शासकीय कन्या शिक्षा परिसर पुष्पराजगढ़ में करवा दिया और आशा ने फिर एक बार अपनी कर्मठता का लोहा मनवाया । वह उन गिनी चुनी बैगा कन्याओं में से एक बनी जब उसने 2021 में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा 73% अंकों के साथ उत्तीर्ण की । आजकल आशा माडर्न नर्सिंग कालेज में बी एससी नर्सिंग की प्रथम वर्ष की छात्रा  है ।  इस निजी महाविद्यालय में उसे सालाना रुपये  60,000/- की फीस चुकानी होती है । गरीब आदिवासी कन्या के लिए यह बड़ी राशि है, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की छात्रवृति से उसे बड़ी मदद मिलती है । सरकार की छात्रवृति प्रवेश शुल्क जमा कर देने के बाद मिलती है लेकिन कालेज प्रबंधन ने उससे मात्र 10,000/- वसूले और प्रवेश दे दिया। जब छात्रवृति मिलेगी तो शेष फीस जमा हो जाएगी।

विद्यापीठ में बिताए अपने सुनहरे दिनों की उसे बहुत याद है । वह बताती है कि जब वह दूसरी कक्षा में पढ़ती थी तब बाबूजी उन लोगों को बिलासपुर घुमाने ले गए थे । बाद के सालों में बाबूजी के प्रयासों से उसने सहपाठिनी आदिवासी बालिकाओं के साथ पचमढ़ी, बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्रा की और पहली बार रेल यात्रा का अनुभव लिया । वह याद करती है कि भोजन सामग्री साथ में जाती और जहां रुकते वहाँ शिक्षक लोग भोजन बनाकर हम बालिकाओं को खिलाते, बाबूजी उस शहर की प्रसिद्ध मिठाई हम लोगों को जरूर खिलाते और विभिन्न स्थलों के बारे में बताते । मैंने उससे पूछा कि ऐसे शैक्षणिक प्रवासों से क्या लाभ मिला । आशा कहती है कि हम बैगा आदिवासियों ने तो बालपन में केवल आसपास के हाट बाजार ही देखे थे, अधिकांश यात्राएं तो हम लोग पैदल करते थे। गरीबी और अभाव के जीवन ने हम लोगों को दब्बू और भावशून्य बना दिया है लेकिन ऐसे शैक्षणिक प्रवासों से हम नन्ही बालिकाओं का भय दूर हुआ, झिझक कम हुई और एक नया आत्मविश्वास जागा ।

आशा को याद नहीं कि कभी विद्यापीठ में बालिकाओं को दंड दिया गया। वह कहती है कि कम उम्र में हम लोग यहाँ भर्ती होने आए तो बड़ी बहनजी और बाबूजी ने इतना प्रेम व स्नेह दिया कि  माता पिता की याद ही न आई । बाबूजी हम लोगों को सदैव पढ़ाई के लिए प्रेरित करते थे और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे ।  आशा बताती है कि यद्दपि वह केवल पाँच वर्ष विद्यापीठ में पढ़ी लेकिन इस संस्था से लगाव सदैव बना रहा । प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती पर बाबूजी पुरानी छात्राओं को आमंत्रित करते,आवागमन की व्यवस्था करते और हम लोग उस दिन आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में बढ चढ़कर हिस्सा लेते । 

मैंने आशा से बैगाओं के बारे में पूछा । वह बताती है कि हम लोगों का रहन सहन तो अत्यंत सादा है। जंगल के पास रहने के कारण आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं । पेट भरने के लिए कोदो कुटकी और मक्का उगा लेते हैं और इससे बना पेज, पेट भरने के लिए पर्याप्त है । पर्व त्योहारों और शादी विवाह में मंद( मद्य) पीना और नृत्य करना उनकी जिंदगी का मनोरंजन है । लेकिन शिक्षा के प्रचार प्रसार ने अब धीरे धीरे बैगाओं में परिवर्तन लाने शुरू कर दिए हैं । अब बैगा शिकार की अपेक्षा धान और गेंहू जैसे पौष्टिक आहार की ओर आकर्षित हो रहे हैं । वे जंगल की अपेक्षा अब शहर और कस्बे के पास भी बसने लगे हैं । वे बहुत सी कुरीतियों को त्याग रहे हैं । स्वच्छता की भावना बढ़ी है और मंद पीना भी कम हुआ है । जादू टोना तो अभी भी चलता है पर अधिक बीमार होने पर चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेते हैं । आशा बताती है कि बाबूजी ने कई बार उसके गाँव में भी चिकित्सा शिविर लगवाया था । वह कहती है कि अब शादी विवाह बालपन में नहीं होते। बैगाओं में गाँजा जैसे नशे का चलन नहीं है और धर्मांतरण भी नहीं है । 

आशा ने एक अच्छी बात यह भी बताई कि उसकी सहपाठियों में सम्मिलित खेतगांव  की जानकी बैगा भी उसी के साथ नर्सिंग कालेज में पढ़ रही है और खाँटी की निवासी चंद्रवती गोंड कला स्नातक बनने की तैयारी कर रही है । मैंने उससे भविष्य की योजना पूछी । वह कहती है कि आगे पढ़ना धनाभाव के कारण संभव नहीं है इसलिए  नर्सिंग स्नातक होने के बाद वह नौकरी की खोज करेगी । नौकरी खोजने में अगर किसी सूदूर शहर में भी जाना पड़े तो चौड़ी नाक, मोटे ओंठ और गोल काली आँखों वाली  आशा में यह आत्मविश्वास मुझे दिखा । गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का यह कमाल है । शीघ्र  विवाह की वह कदापि इच्छुक नहीं है । वह कहती है कि पहले आर्थिक सशक्तिकरण हो  और अपने कैरियर में जब वह भलीभाँति सुस्थापित हो जाएगी, तभी विवाह के बारे में सोचेगी । वह माता पिता की अनुमति के बिना अंतरजातीय विवाह की इच्छुक नहीं है । वह कहती है कि बैगाओं में सामाजिक नियंत्रण कठोर है और ऐसे में अंतरजातीय  विवाह को आसानी से मान्यता नहीं मिलती ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 37 – जन्मदिवस – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र संतोषी जी पर आधारित श्रृंखला “जन्मदिवस“।)   

☆ कथा कहानी # 37 – जन्मदिवस – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा के मुख्य प्रबंधक जब सुबह 9:30 पर शाखा पहुंचे तो थकान महसूस कर रहे थे. लगातार बढ़ता काम का बोझ,लक्ष्य की चुनौतियां, लोगों की शिकायतें जिसमें नियंत्रक महोदय, स्टाफ और महत्वपूर्ण ग्राहक और उनका परिवार सभी पक्ष शामिल थे,उनके तनाव को दिन प्रतिदिन बढ़ा रहे थे.उन्हें इक्के दुक्के व्यक्ति ही समझ पाते थे और अपनी तरफ से उनका तनाव हल्का करने की कोशिश करते रहते थे. परम संतोषी जी जब भी उनके चैंबर में आते, उनका तनाव कम हो जाता है ये वे समझने लगे थे. संतोषी जी का फिकर नॉट एटीट्यूड और मजाकिया स्वभाव उनके तपते मनोभावों पर राहत की ठंडी बारिश करता था और वे ये भूल जाते थे कि वे उनके भी बॉस हैं. इसके दो कारण थे, पहला तो यह कि वे बैंकिंग विषय पर उनसे कोई अपेक्षा नहीं पालते थे और न ही संतोषी जी की कोई डिमांड होती थी. और दूसरा उनका यह विश्वास कि संतोषी जी हमेशा ऑउट ऑफ आर्डर मदद करने में स्पेशलिस्ट हैं.

आज वे इस उम्मीद के साथ शाखा में पहुंचे थे कि शाखा शुरु होने के पहले और नियंत्रक कार्यालय के टेलीफोनिक व्यवधान शुरु हो इसके पहले भी, संतोषी जी के साथ कुछ हल्के फुल्के क्षणों का आनंद लेकर फिर अपनी बैंकिंग दिनचर्या आरंभ करें. पर शाखा पहुंचने पर हमेशा की भांति संतोषी जी की मौजूदगी और गुडमार्निंग नदारद थी. हॉल में आम दिनों से अलग एक नये किस्म की महसूस की जा रही आतुरता और किसी के इंतजार में स्टाफ, जो इस कदर मगन था कि उन्हें भी नजर अंदाज कर गया.

यद्यपि मुख्य प्रबंधक महोदय का अंतरमुखी व्यक्तित्व इसे पसंद करता था और उनका भरसक प्रयास यही होता था कि कम से कम लोगों का सामना हो और वे अपने कक्ष में व्यवधान रहित और सुरक्षित प्रवेश कर जायें. ऐसा आज भी हुआ पर स्टाफ की व्यग्रता वे अपने चैंबर की कांच की दीवारों के पार भी महसूस कर रहे थे. कुछ कुछ या सब कुछ जानने की उत्कंठा उनके अंदर भी पैदा हो रही थी. अचानक ही शाखा के मुख्य द्वार पर चहल पहल बढ़ी जो ग्राहकों की भीड़ जैसी नहीं थी बल्कि सारा स्टाफ के, लकदक क्रीम कलर के सफारी सूट में सजे आगंतुक की ओर स्वागत और हर्षोल्लास के साथ बढ़ने के कारण थी. “हैप्पी बर्थडे सर जी और जन्मदिन मुबारक की करतल ध्वनि के साथ शाखा में प्रवेश करने वाले सज्जन हरदिल अजीज परम संतोषी साहब ही थे जिनके हाथ में भारी भरकम मिष्ठान के पैकेट्स थे. प्रोटोकॉल को भूलकर और सुखद आश्चर्य से अभिभूत मुख्य प्रबंधक भी अपने स्वभाव को “refer to drawer” करते हूये अनायास ही बाहर खिंचे चले आये. पर वरिष्ठता को सम्मान और संस्कार को भूलना संतोषी जी ने नहीं सीखा था तो पैकेट्स पास में टेबल पर रखकर तुरंत उनकी ओर आगे बढ़कर शुभप्रभात कहा.जवाब में “जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई” मिली और साथ ही बैंकिंग हॉल जन्मदिन की शुभकामनाओं से गूंजने लगा. वे स्टाफ से गले मिल रहे थे और स्टाफ उन पर शुभकामनाओं की बारिश कर रहा था.इस अभूतपूर्व उत्साह ने उम्र और पदों की दूरियों को आत्मसात कर लिया था और कस्टमर्स भी अपना काम भूलकर इस नयनाभिराम दृश्य का आनंद ले रहे थे. ये वो चमत्कार था जो कभी कभार ही नज़र आता था. इस मुलाकात के बाद, शाखा में परम संतोषी जी ने सबसे पहले हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया और फिर शाखा में उपस्थित समस्त स्टाफ और ग्राहकों का खुद मिलकर मुंह मीठा करना शुरु किया. शाखा की युवावाहिनी ने इस जश्ने जन्मदिन को अपने तरीक़े से सेलीब्रेट करने की डिमांड रख दी जो उन्होंने बड़ी ही कुशलतापूर्वक अगले दिन के लिए स्थगित कर दिया.

इन पार्टियों का इंतजार, इन्हें और मादक बना देता है और सारे सुराप्रेमी, कल्पनाओं में ही झूमने लगे जिस पर ब्रेक लगाया मुख्य प्रबंधक जी ने यह कहकर कि अभी तो बैंक का काम शुरू करिये, शाम की चाय के साथ मीटिंग हॉल में संतोषी जी का जन्मदिन मनायेंगे.

शाम का इंतजार कीजिये.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 137 ☆ जुन्या डायरीतून – जखम… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 137 ?

☆ जुन्या डायरीतून – जखम… ☆

ठेच लागलेल्या बोटाची जखम

चिघळून ठसठसावी

 तशाच ठसठसतात ना आठवणी?

खरं तर कारणच नव्हतं–

ठेच लागण्याचं,

पण एखादा निसरडा क्षण

ठेऊनच जातो कायमचा व्रण!

 

वेळीच

भळभळणा-या जखमेवर

भरली असतीस

चिमूटभर हळद,

तर जखम झालीही नसती

इतकी गडद!

 

धूळभरल्या वाटेवर

दुख-या बोटानं

अनवाणी चालत राहिलीस

बेफिकीर!

 

धूळच माखून घेतलीस

मलम म्हणून !

आता ती ठेचच बनली आहे ना,

एक चिरंजीव वेदना,

आश्वत्थाम्याच्या जखमेसारखी!

 

अशा जखमा भरतही नाहीत औषध पाण्याने अथवा

ब-याही होत नाहीत

रामबाण उपायाने—

आणि करता ही येत नाही,

त्या ठसठसत्या आठवणींवर शस्त्रक्रिया!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २३ – भाग ३ -एक जिद्दी देश— इस्त्रायल  ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २३ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ एक जिद्दी देश— इस्त्रायल  ✈️

जेरुसलेम ही आता इस्त्रायलची राजधानी आहे. या प्राचीन नगरीला चार हजाराहून अधिक वर्षांचा इतिहास आहे.ज्यू, ख्रिश्चन आणि मुस्लिम या तीनही धर्मांसाठी हे पवित्र अध्यात्मिक ठिकाण आहे. बेथलहेम इथे येशू ख्रिस्त जन्माला आला असे मानले जाते . येशू ख्रिस्त जिथे जन्माला आला त्या जागेवर ‘चॅपेल ऑफ नेटिव्हिटी’ बांधले आहे. तसेच तिथे एक चांदीची चांदणी आहे.

आजचा इस्त्रायलचा शेवटचा दिवस हा ‘मृत समुद्राच्या’ मजेशीर अनुभवाचा होता. आमच्या जेरुसलेमच्या हॉटेलपासून मृत समुद्र एक- दीड तासाच्या अंतरावर होता. मृत समुद्राच्या सभोवतालचा भाग हा ज्युदिअन वाळवंटाचा भाग आहे. या वाळवंटात मध्ये मध्ये आम्हाला एकसारखी वाढलेली, लष्करी शिस्तीत उभी असलेली असंख्य खजुराची झाडे दिसली. या झाडांना खजुरांचे मोठ-मोठे घोस लटकलेले होते. ही इस्त्रायलच्या संशोधनाची किमया आहे. ‘सी ऑफ गॅलिली’चे पाणी पाईप लाइनने ज्युदिअन वाळवंटापर्यंत आणलेले आहे.ड्रीप इरिगेशन पद्धतीने व उत्तम जोपासना करून हे पीक घेतले जाते. थोड्याच वर्षात इस्त्रायल या वाळवंटाचे नंदनवन करणार हे नक्की! आम्ही इस्त्रायलमध्ये खाल्लेला खजूर हा काळसर लाल रंगाचा, लुसलुशीत, एका छोट्या लाडवाएवढ्या आकाराचा होता. त्यातील बी अतिशय लहान होती.इस्त्रायलमधून मोठ्या प्रमाणात खजूर निर्यात होतो.

‘मृत समुद्रा’मध्ये तरंगण्याची मजा घेणारे इतर अनेक प्रवासी होते. गुडघाभर पाण्यात गेल्यावर तिथली तळाची मऊ, काळी, चिखलासारखी माती अंगाला फासून क्लिओपात्रा राणीची आठवण जागवली. अजिबात पोहायला येत नसताना मृत समुद्राच्या पाण्यावर तरंगण्याचा  अनुभव सुखदायक होता. पाण्यातून बाहेर आल्यावर मोठमोठ्या शॉवर्सखाली आंघोळ करण्याची सोय आहे.

सौर ऊर्जेचा सर्वात जास्त उपयोग करणारा देश म्हणून इस्रायल जगात पहिल्या नंबरावर आहे.’पेन ड्राइव्ह’,’जी.पी.एस्'(global positioning system) आणि यासारखे कितीतरी अद्ययावत तंत्रज्ञान इस्रायलने जगाला दिले आहे. अत्याधुनिक संरक्षण सामग्री बनविण्यात, रोबोटिक्स, औषध निर्मिती करण्यात इस्त्रायलची आघाडी आहे. त्यांच्या शिक्षण पद्धतीत संशोधन व उद्योजकता या गोष्टींचा समावेश आहे. उद्योगधंद्यातील  उच्चपदस्थ व्यक्ती शालेय पातळीवरील विद्यार्थ्यांना त्यांचे अनुभव सांगतात,  मार्गदर्शन करतात. समाजासाठी प्रत्येकाने योगदान दिले पाहिजे असा विचार व कृती त्यांच्या देशप्रेमामुळे घडते.

राजकीय परिस्थितीमुळे ज्यू लोक जगभर विखुरले गेले. इस्त्रायलच्या स्थापनेनंतर इस्रायलमध्ये परतलेल्या प्रत्येक ज्यू व्यक्तीला त्या देशाचे नागरिकत्व मिळाले. मात्र त्यासाठी हिब्रू भाषा शिकणे अनिवार्य आहे. देशाचे सर्व महत्त्वाचे व्यवहार हिब्रू भाषेतूनच होतात. आम्हाला मिळालेला व्हिसा हिब्रू भाषेत होता आणि त्यातले एक अक्षरही आम्हाला वाचता येत नव्हते.   अरेबिक आणि इंग्लिश भाषेचा वापरही होतो. वयाची १८ वर्षे पूर्ण झाली की प्रत्येक तरुणाला तीन वर्षे व तरुणीला दोन वर्षे  लष्करातील प्रशिक्षण सक्तीचे आहे. इस्त्रायलमध्ये झोपडपट्टी, भिकारी दिसले नाहीत.

त्यांच्याकडे ‘शबाथ’ पाळला जातो .म्हणजे शनिवार हा त्यांचा पवित्र दिवस! या दिवशी सार्वजनिक वाहन व्यवस्थासुद्धा बंद असते. फक्त अत्यावश्यक सेवा चालू असते. स्त्रियांसाठी आनंदाची गोष्ट म्हणजे त्या दिवशी ‘चूलबाईं’ना सुट्टी असते. कुठलाही स्वयंपाक केला जात नाही. आदल्या दिवशी केलेले किंवा आणलेले शनिवारी खातात. धार्मिक पोथ्यांचे  वाचन, सर्व कुटुंबाने एकत्र येऊन गप्पा मारीत सारा दिवस मजेत घालविणे असा त्यांचा ‘शबाथ’ साजरा होतो.

जवळजवळ दोन हजार वर्षांपूर्वीपासून मायभूमीपासून तुटलेला इस्रायली समाज आपल्याकडे कोकण किनाऱ्याला, विशेषतः अलिबाग परिसरात समुद्रकिनाऱ्यावर स्थिरावला. कालांतराने ते इथल्या समाजाशी एकरूप झाले. आपला धर्म त्यांनी निष्ठेने सांभाळला. इस्त्रायल स्वतंत्र झाल्यावर त्यातील अनेकांनी इस्त्रायलला स्थलांतर केले तरी त्यांची भारतीयांशी असलेली नाळ तुटली नाही. आजही  इस्रायलमधून ‘मायबोली’ नावाचे मराठी नियतकालिक निघते. त्याचे संपादक श्री. नोहा मस्सील (म्हशेळकर ) आम्हाला मुद्दाम आमच्या जेरूसलेमच्या हॉटेलवर भेटायला आले होते. भारताबद्दलचे प्रेम त्यांच्या गप्पांमधून व्यक्त होत होते. ते सर्व मिळून १५ ऑगस्ट हा भारताचा स्वातंत्र्य दिवस व १ मे हा महाराष्ट्र दिन साजरा करतात.

आमच्या ‘ट्रिपल एक्स लिमिटेड’ या इस्त्रायलच्या टुरिस्ट कंपनीचे, मूळ भारतीय असलेले, श्री व सौ बेनी यांनी आम्हाला एका भारतीय पद्धतीच्या उपहारगृहामध्ये दुपारचे जेवण दिले. त्यावेळी मिसेस रीना पुष्कर व तिचे पती, मूळ भारतीय, ही त्या हॉटेलची मालकीण मुद्दामून आम्हाला भेटायला आली. गाजर हलव्याची मोठी,ड्रायफ्रुटस् लावून सजवलेली डिश आम्हाला आग्रहाने दिली.टेबलावर  त्या डिशभोवती फुलबाजा लावून दिवाळी साजरी केली. आम्ही दहा बायकाच इस्त्रायलला आलो याचे तिने फार कौतुक केले.

किबुत्सु फार्मवर गाईंची देखभाल करणाऱ्या सोशीने  (सुशी ) सात रस्ता, भायखळा इथल्या आठवणी तसेच इथल्या मिठाईच्या आठवणी जागविल्या.तिने उत्कृष्ट दुधामधल्या ड्रिंकिंग चॉकलेट व बिस्कीट यांनी आमचे स्वागत केले.

श्री मोजेस चांदवडकर यांनी व त्यांच्या मित्रांनी उभारलेले सिनेगॉग आवर्जून नेऊन दाखविले व गरम सामोसे खाऊ घातले. हे सारेजण आम्ही दिलेल्या शंकरपाळे, चकल्या, लाडू वगैरे घरगुती खाऊवर बेहद्द खुश होते. अशा असंख्य सुखद आठवणींचे गाठोडे आम्ही भारतात परततांना घेऊन आलो.

भाग-३ व इस्त्रायल समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 38 – मनोज के दोहे – कनाडा यात्रा वृतांत ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे – कनाडा यात्रा वृतांत। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 38 – मनोज के दोहे  – कनाडा यात्रा वृतांत

देश कनाडा में सभी, सभ्य सुसंस्कृत लोग ।

सद्गुण से परिपूर्ण हैं, करें सभी सहयोग।।

 

हाय हलो करते सभी, जो भी मिलता राह।

अधरों में मुस्कान ले, मन में दिखती चाह।।

 

कर्मनिष्ठ व्यवहार से, अनुशासित सब लोग।

नियम और कानून सँग, परिपालन का योग।।

 

झाँकी पर्यावरण की, मिलकर समझा देख।

संरक्षित कैसे करें, समझी श्रम की रेख।।

 

फूलों की बिखरी छटा, गुलदस्तों में फूल।

घर बाहर पौधे लगे, पहने खड़े  दुकूल।।

 

हरियाली बिखरी पड़ी, कहीं न उड़ती धूल।

दिखी प्रकृति उपहार में, मौसम के अनुकूल।।

 

मखमल सी दूबा बिछी, हरित क्रांति चहुँ ओर।

शीतल गंध बिखेरती, नित होती शुभ भोर।।

 

प्राण वायु बहती सदा, बड़ा अनोखा देश।

जल वृक्षों की संपदा, आच्छादित परिवेश।।

 

प्रबंधन में सब निपुण, जनता सँग सरकार।

आपस में सहयोग से, आया बड़ा निखार।।

 

साफ स्वच्छ सड़कें यहाँ, दिखते दिल के साफ।

भूल-चूक यदि हो गई, कर देते सब माफ।।

 

तोड़ा यदि कानून जब, जाना होगा जेल।

कहीं नहीं फरियाद तब, कहीं न मिलती बेल।।

 

शासन के अनुकूल घर, रखते हैं सब लोग।

फूलों की क्यारी लगा, फल सब्जी उपभोग।।

 

रखें प्रकृति से निकटता,जागरूक सब लोग।

बाग-बगीचे पार्क का, करें सभी उपयोग।।

 

सड़कें अरु फुटपाथ में, नियम कायदा जोर।

दुर्घटना से सब बचें, शासन का यह शोर।।

 

भव्य-दुकानों में यहाँ, मिलता सभी समान।

ग्राहक अपनी चाह का,रखता है बस ध्यान।।

 

दिखे शराफत है यहाँ, हर दिल में ईमान ।

ग्राहक खुद बिल को बना, कर देते भुगतान।।

 

वाहन में पैट्रोल सब, भरते अपने हाथ।

नहीं कर्मचारी दिखें, चुक जाता बिल साथ।।

 

बाहर पड़ा समान पर, नजर न आए चोर।

लूट-पाट, हिंसा नहीं, राम राज्य की भोर ।।

 

फूलों सा सुंदर लगा, बर्फीला परिवेश।

न्याग्रा वाटर फाल से, बहुचर्चित यह देश।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 165 ☆ कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 165 ☆

? कविता – रोपना है मीठी नीम अब हमें… ?

कभी देखा है आपने किसी पेड़ को मरते हुये ?

देखा तो होगा शायद

पेड़ की हत्या, पेड़ कटते हुये

 

हमारी पीढ़ी ने देखा है एक

पुराने, कसैले हो चले

किंवाच और बबूल में तब्दील होते

कड़वे बहुत कड़वे नीम के ठूंठ को

ढ़हते हुये

 

हमारे मंदिर और मस्जिद

को देने के लिये

फूल, सुगंध और साया

रोपना है आज हमें

एक हरा पौधा

जो एक साथ ही हो

मीठी नीम, सुगंधित गुलाब और बरगद सा

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 127 – लघुकथा – संस्कारों की बुवाई… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है नवीन पीढ़ी में संस्कारों के अंकुरण हेतु विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “संस्कारों की बुवाई…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 127 ☆

☆ लघुकथा – संस्कारों की बुवाई 

सत्य प्रकाश और उसकी पत्नी धीरा बहुत ही संस्कारवान और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। एक ही बेटा है तनय वह भी बाहर पढ़ते हुए अपनी पसंद से शादी कर सुखद जीवन बिता रहे थे।

गाँव में सत्य प्रकाश को बहुत चाहते थे क्योंकि उनकी बातें व्यर्थ नहीं होती थी और न ही कभी असत्य का साथ देते थे।

वर्क फ्रॉम होम होने के कारण बेटा बहू अपने पाँच साल के बेटे यश को लेकर घर आए। दादा – दादी के प्यार से यश बहुत खुश हुआ। दिन भर धमाचौकड़ी मचाने वाला बच्चा दादा जी के साथ सुबह से उठकर उनसे अच्छी बातें सुनता, पूजा-पाठ में भी बड़े लगन के साथ रहता और जिज्ञासा वश  दिनभर दादा – दादी से प्रश्न करता रहता।

समय बीतता जा रहा था। उनका भी मन लग गया। बेटा बहु देरी से सो कर उठते थे। आज तनय जल्दी सो कर उठा। तो देखा कि दादा दादी और पोता मिलकर भगवान की आरती कर रहे हैं और बराबरी से मंत्र का उच्चारण उनके साथ उसका बेटा यश भी कर रहा है।

तनय आश्चर्य से देखने लगा बहुत अच्छा सा महसूस किया।

अपने पापा को आरती देकर यश चरण स्पर्श करता है तो तनय  खुशी से झूम उठता है।

और अपने पिताजी की ओर देखने लगता है। सत्य प्रकाश जी कहने लगे… बेटा मैंने संस्कारों की बुवाई कर दिया है। इसे किस तरह बढ़ाना है तैयार करना है यह तुम्हारे ऊपर है।

और हाँ इसका फायदा भी तुम्हें ही मिलेगा।

बरसों बाद आज माँ पिता के चरण स्पर्श कर तनय गले से लग गया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “रद्दी वाला।)

☆ आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

रद्दी शब्द उर्दू भाषा से है, परंतु हमारी रोजमर्रा के बोलचाल में बहुतायत से उपयोग होता हैं। दैनिक समाचार पत्र पढ़ने के बाद अनुपयोगी हो जाते हैं। इन सबको रद्दी वाले को विक्रय कर दिया जाता हैं। आज की युवा पीढ़ी समाचार पत्र पढ़ने के स्थान पर मोबाईल से ही पूरी जानकारी ले लेती हैं। वैसे हमारे मोबाईल पर भी बहुत रद्दी एकत्र हो जाती हैं। उसको साफ़ करने में भी काफ़ी समय देना पड़ता हैं।

वर्षों पूर्व ये लोग पैदल घूम घूम कर आवाज़ लगाते थे “रद्दी वाला” बाद में साइकिल या ठेले पर घर का अनुपयोगी समान खरीद कर ये ही लोग ले जाते हैं।

ये लोग पहले आधा किलो के बांट से तौल कर ले जाते थे, अब भी एक किलो के बांट का प्रयोग करते हैं। हाथ ठेले/रिक्शे पर चलने वाले इलेक्ट्रॉनिक तराजू भी लेकर चलते हैं। मुंबई प्रवास के समय रद्दी वालों की दुकानें भी देखने को मिली। आप उनको फोन कर बुला सकते है वो घर से रद्दी ले जाते हैं।

घर में पड़े कबाड़ और टूटे फूटे सामान को लेकर वो हमारे घर को स्वच्छ रखने में भी सहयोग कर रहे हैं। अब तो वास्तु शास्त्री भी घर में कबाड़ रखने से मना करते हैं। वर्तमान में पेपर को रिसाइकल किया जाता है, जिसमें इन सबका बड़ा योगदान हैं।

हम में से अधिकतर इनको हेय दृष्टि से देखते है, और वो सम्मान नहीं देते जिसके वो हकदार हैं। हमे हमेशा ये लगता है, कि वो लोग कम तोलते और बेईमानी करते हैं। उनकी आर्थिक दृष्टि को देखते हुए नहीं लगता की वो इस व्यापार से कोई बहुत अधिक धनार्जन करते हैं। शायद हमारा नजरिया गलत हो सकता हैं। रद्दी वाले को अपनी रद्दी नज़र से ना देखकर एक सहयोगी के रूप में देखना ही उचित होगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #143 ☆ शुद्र माशा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 143 ?

☆ शुद्र माशा  

भांडताना राग झाला जर अनावर

टाकतो देऊन त्याला मी सुळावर

 

गोडधोडाला जरा झाकून ठेवू

शुद्र माशा नजर त्यांची तर गुळावर

 

ज्ञान गीतेचे दिले भाषेत सोप्या

केवढे उपकार ज्ञानाचे जगावर

 

एवढा ताणून धरला प्रश्न साधा

येत नाही अजुन गाडी ही रुळावर

 

काळजाचे कैक तुकडे तूच केले

तेच तुकडे प्रेम करती बघ तुझ्यावर

 

तिमिर आहे फक्त आता सोबतीला

चंद्र गेला डाग ठेउन काळजावर

 

कर्म संधी चल म्हणाली सोबतीने

ज्योतिष्याच्या राहिलो मी भरवशावर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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