(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – गीतों का यह गुलाब जल…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 93 – गीत – गीतों का यह गुलाब जल…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “गतिशील हो गई हैं…”।)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण “गर हौसले बुलंद हों…”।)
☆ संस्मरण # 142 ☆ ‘गर हौसले बुलंद हों…’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने महसूस किया कि – ‘गर हौसले बुलंद हों तो’ – गरीब निरक्षर महिलाएं, जो बैंक विहीन आबादी में निवास करती है, जो लोन लेने के लिए साहूकारों के नाज- नखरों को सहन करती हुई लोन लेती थीं, जो बैंकों से लोन लेने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोच सकतीं थ , ऐसी महिलाओं के आर्थिक उन्नयन में माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा मील का पत्थर साबित हुई थी।
किसी ने कहा है ” कमीं नहीं है कद्र्ता की ….कि अकबर करे कमाल पैदा ….
इस भाव को स्व सहायता समूह से जुडी महिलाओं ने समाज को बता दिया।
माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा में रिमोट एरिया एवं बैंक विहीन आबादी के स्व सहायता समूह की महिलाओं के आर्थिक उन्नयन हेतु छोटे छोटे लोन दिये जाते हैं ,लोन देते समय सेवाभाव एवं परोपकार की भावना होना बहुत जरूरी होता है , लोन राशि की उपयोगिता के सर्वे , जांच एवं इन महिलाओं की इनकम जेनेरेटिंग गतिविधियों का माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने बार बार सर्वे/अवलोकन किया ,हमारे द्वारा किये गए सर्वे से लगा कि इस आवधारणा से कई जिलों की हजारों महिलाओं में न केवल आत्म विश्वास पैदा हुआ बल्कि इन स्माल लोन ने उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाया।
“बेदर्द समाज और अभावों के बीच कुछ कर दिखाना आसान नहीं होता पर इन महिलाओं के होसले बुलंद हुए …..”
एक गांव में एक खपरेल मकान में चाक पर घड़े को आकार देती ३० साल की बिना पढी़ लिखी लखमी प्रजापति को भान भी नहीं रहा होगा कि वह अपनी जैसी उन हजारों महिलाओं के लिए उदाहरण हो सकती है जो अभावों के आगे घुटने टेक देती है , दो बच्चों की माँ लक्ष्मी ने जब देखा कि रेत मजदूर पति की आय से कुछ नहीं हो सकता तो उसने बचपन में अपने पिता के यहाँ देखा कुम्हारी का काम करने का सोचा , काम इतना आसान नहीं था लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी, महीनों की लगन के बाद उसने ये काम सीखा और आज वह छै सौ रूपये रोज कमा रही है इस प्रकार स्व सहायता समूह से जुड़ कर अपने परिवार का उन्नयन कर देवर की शादी का खर्चा भी उसी ने उठाया और बच्चों को अच्छे स्कूल में भी पढ़ाया।
शमा विश्वकर्मा भी ऐसी ही जीवंत खयालों वाली महिला मिली जिसने बिना पढ़े लिखे रहते हुए भी हार नहीं मानी और अपने पैरों पर खड़ी हो गई , उसने बताया था कि पहले रेशम केंद्र में मजदूरी करने जाती थी तो ७०० / मिलते थे लेकिन हमारे स्वसहायता समूह ने रेशम कतरने की मशीन का लोन दिया तो मशीन घर आ गई मशीन घर पर होने से यह फायदा हुआ कि काम के घंटे ज्यादा मिल गए और वह ८०००/ से ज्यादा कमाने लगी है …..
एक और गाँव की दो महिलाओं ने तो सहकारिता की वह मिसाल पेश की जिसकी जितनी तारीफ की जाय कम है , गाँव की अपने जैसी दस महिलाओं ने स्व सहायता समूह बनाकर लोन लिया फिर सिकमी (लीज) पर खेती करने लगीं , समूह की सब महिलाएं खेतों में हल चलने के आलावा वह सब काम भी करती है जो अभी तक पुरुष करते थे …….. इसके बाद इन महिलाओं ने गांव में शराब की दुकान के सामने जनअभियान चला कर गांव से शराब की दुकान हटवा दी और गांव के किसानों के घरों में आशा की किरणें फैला दीं ।
शाखा के सर्वे और फालोअप के ये दो चार उदाहरण से हमें पता चला कि स्वसहायता समूह की महिलाएं बड़े से बड़े काम करने में अग्रणी भूमिका निभा सकतीं हैं, यदि इन्हें अच्छा मार्गदर्शन और प्रोत्साहन दिया जाए। जब इन सब महिलाओं से बात की गई तो उनका कहना था कि ….गरीबी अशिक्षा कुपोषण आदि की समस्याओं से सब कुछ डूबने की निराश भावना से उबरने के लिए जरूरी है कि गाँव एवं शहरों में हो रहे बदलाव को महिलाएं सकारात्मक रूप में स्वीकार करें।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार #”)
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
वराहनगर मठात श्री रामकृष्ण संघाचं काम सर्व शिष्य नरेंद्रनाथांच्या मार्गदर्शनाखाली करत होते. उत्तर भारतातले आखाड्यातले साधू बैरागी, वैष्णव पंथातले साधू समाजाला परिचित होते. पण शंकराचार्यांच्या परंपरेतल्या संन्याशांची फार माहिती नव्हती. त्यामुळे वराहनगर मठातल्या तरुण संन्याशांबद्दल समाजाची उपेक्षित वृत्ती होती. चांगले शिकले सवरलेले असून सुद्धा काही उद्योगधंदा न करता, संन्यास घेऊन हे तरुण लौकिक उन्नतीचा मार्ग दूर ठेवत आहेत, हे पाहून लोक खेद करत, उपेक्षा करत, कधी अपमान करत. तिरस्कार करत. कधी कधी कणव येई, तर कधी टिंगल होई.
पण प्रवाहाच्या विरुद्ध जाऊन काही करायचे म्हणजे असेच सर्व गोष्टींना सामोरे जावे लागते. समाजाने स्वीकारे पर्यन्त, बदल होण्याची वाट बघत हळूहळू पुढे जावे लागते. तसे सर्व शिष्यांमधे हा वाट पाहण्याचा संयम होता. दूरदर्शीपणा होता. कारण तसे ध्येय ठरवूनच त्यांनी घरादारचा त्याग केला होता आणि संन्यस्त वृत्ती स्वीकारली होती. हे तरुण यात्रिक अध्यात्म मार्गावरचे एकेक पाऊल पुढे टाकत चालले होते. भारताच्या आध्यात्मिक जीवनात संन्यस्त जीवनाचा सामूहिक प्रयोग नवा होता.
“आपल्याला सार्या मानवजातीला आध्यात्मिक प्रेरणा द्यायची आहे, तेंव्हा आपला भर तत्वांचा, मूल्यांचा,आणि विचारांचा प्रसार करण्यावर हवा. संन्यास घेतलेल्यांनी किरकोळ कर्मकांडात गुंतू नये”. असे मत नरेंद्रनाथांचे होते. या मठातलं जीवन, साधनेला वाहिलेलं होतं.
शास्त्रीय ग्रंथांचा अभ्यास, संस्कृत ग्रंथ व धर्म आणि अध्यात्म संबंधित ग्रंथांचे वाचन होत असे. हिंदूधर्म याबरोबर ख्रिस्तधर्म आणि बुद्धधर्म यांचाही अभ्यास केला जात होता. या धर्मांचा तुलनात्मक अभ्यास व्हायचा. इथे धर्मभेदाला पहिल्यापासूनच थारा नव्हता असे दिसते. शंकराचार्य आणि कांट यांच्या तत्वज्ञानाचा तौलनिक अभ्यास पण इथे होत होता. हे सर्व अनुभवास आल्यानंतर जाणकारांची उपेक्षा जरा कमी झाली आणि जिज्ञासा वाढली.
कधी ख्रिस्त धर्माचे प्रचारक मिशनरी येत त्यांच्या बरोबर चर्चेत हिंदू धर्माच्या तुलनेत ख्रिस्त धर्म कसा उणा आहे ते चातुर्याने आणि प्रभावी युक्तिवादाने नरेंद्र पटवून देत असत. ख्रिस्ताचे खरे मोठेपण कशात आहे तेही समजाऊन सांगत. हे विवेचन ऐकून धर्मोपदेशक सुद्धा थक्क होऊन जात.
हिंदू धर्मातील इतर पंथांचाही इथे अभ्यास चाले. तत्वज्ञानाच्या आधुनिक विचारवंतांनाही इथे स्थान होते. जडवादी आणि निरीश्वरवादी विचारसरणीचा परिचय करून घेतला जात होता. फ्रेंच राज्यक्रांतीचं महत्व सुद्धा नरेंद्रनाथ समजाऊन सांगत असत. साधनेच्या जोडीला अभ्यास हे वराहनगरच्या मठाचं वैशिष्ठ्य होतं. श्री रामकृष्ण यांच्या गृहस्थाश्रमी शिष्यांना एकत्र यायला हा मठ एक स्थान झालं होत. हळूहळू लोकांच्या मनातील दुरावा कमी झाला होता.
तीर्थयात्रा ही आपली पूर्वापार चालत आलेली परंपरा आणि धार्मिक जीवनाचा एक भाग पण. शिवाय श्रीरामकृष्ण यांनीही एकदा संगितले होते, की, “संन्याशाने एका जागी स्थिर राहू नये. वाहते पाणी जसे स्वच्छ राहते, तसे फिरत राहणारा संन्यासी आध्यात्मिक दृष्ट्या स्थिर आणि निर्मळ राहतो”.
या मठातील गुरुबंधूंना तीर्थयात्रेची उर्मी येत असे. त्याप्रमाणे नरेंद्रनाथांना पण एका क्षणी वाटले की, आपणच नाही तर सर्व गुरुबंधूंनी पण परिभ्रमण करावे. अनुभव घ्यावेत, त्यातून शिकावे. त्यामुळे प्रत्येकाच्या आंतरिक शक्तींचा विकास होईल. वराहनगर मठ हा एक मध्यवर्ती केंद्र म्हणून असेल, कोणी कुठे ही गेलं तरी सर्वांनी या केंद्राशी संपर्कात राहावं. शशी यांनी हा मठ सांभाळण्याची जबाबदारी घेतली. दोन वर्षानी १८८८ मध्ये नरेंद्रने वराहनगर मठ अर्थात कलकत्ता सोडले आणि त्यांच्या परिव्राजक पर्वाचा प्रारंभ झाला.
सुरूवातीला ते वाराणशीला आले. प्रवासात ते आपली ओळख फक्त एक संन्यासी म्हणून देत. अंगावर भगवी वस्त्रे, हातात दंड व कमंडलू, खांद्यावरील झोळीत एकदोन वस्त्रे, एखादे पांघरुण एव्हढेच सामान घेऊन भ्रमण करत. शिवाय बरोबर ‘भगवद्गीता’ आणि ‘द इमिटेशन ऑफ ख्राईस्ट’ ही दोन पुस्तके असायची. रोख पैशांना स्पर्श करायचा नाही, कोणाकडे काही मागायचे नाही हे त्यांचे व्रत होते.
सर्व गुरुबंधुना पण ते प्रोत्साहित करू लागले की, भारत देश बघावा लागेल, समजावा लागेल. लक्षावधी माणसांच्या जीवनातील विभिन्न थरांमध्ये काय वेदना आहेत, त्यांच्या आकांक्षा पूर्ण न होण्याची कारणे काय आहेत ते शोधावे लागेल. हे ध्येय समोर ठेऊन ,भारतीय मनुष्याच्या कल्याणाचे व्रत घेऊन स्वामी विवेकानंद यांचे हिंदुस्थानात भ्रमण सुरू झाले.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘प्रेम और पाकशास्त्र। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 145 ☆
☆ व्यंग्य – प्रेम और पाकशास्त्र ☆
बात उन दिनों की है जब शीतल भाई जवान थेऔर अधिकतर युवाओं की तरह प्रेम के रोग में फँसे थे। प्रेम-रोग के कारण उन्हें संपूर्ण जगत प्रेमिकामय दिखायी देता था। सभी रोमांटिक प्रेमियों की तरह वे भी अपनी प्रेमिका की आँखों में आँखें डाले दुनिया जहान को भूले रहते थे। सभी की तरह वे भी अपनी प्रेमिका के मुख, आँखों और ओठों की तुलना चाँद, सितारों, गुलाब वगैरः वगैरः से किया करते थे। उन दिनों उनकी नींद कम हो गयी थी और उनका मन किसी काम में नहीं लगता था। ऑफिस में फाइल खोलते ही पन्ने पर प्रेमिका बैठ जाती थी, और वे सिर पकड़े उसी पन्ने को देखते बैठे रहते थे।
स्वाभाविक रूप से आपके मन में यह जिज्ञासा उठेगी कि शीतल भाई तो अधेड़ावस्था को प्राप्त हुए, किन्तु उनकी इस प्रेमिका का हश्र क्या हुआ। अतः यह स्पष्ट कर दूँ कि आज जो महिला उनके घर में पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित है वही उन दिनों उनकी प्रेमिका हुआ करती थी। यह बात आपको आज अविश्वसनीय भले ही लगे लेकिन यह है बिल्कुल सच।
शीतल भाई की पत्नी नीरा जी बताती हैं कि प्रेम के उस दौर में भी वे शीतल भाई को एक दो बार दबी ज़ुबान से बता चुकी थीं कि उन्हें भोजन बनाना नहीं आता, लेकिन शीतल भाई रोमांस के बीच में भोजन जैसी टुच्ची चीज़ का प्रवेश देखकर दुखी हो जाते थे। वे कहा करते थे, ‘तुम भी कैसी घटिया बात लेकर बैठ गयीं। तुम कहो तो मैं तुम्हारे चेहरे की तरफ देखते हुए सारी ज़िन्दगी भूखे प्यासे गुज़ार सकता हूँ। प्रेम दैवी चीज़ है, उसका भला भोजन जैसी भौतिक चीज़ से क्या संबंध?’
जब कभी शीतल भाई नीरा जी के घर जाते थे तो वे उन्हें चाय बना कर ज़रूर पिलाती थीं। लेकिन अक्सर यह होता कि उन्हें चाय देने के बाद नीरा जी ठुड्डी पर हाथ रखकर कहतीं, ‘हाय! मैं चीनी डालना तो भूल ही गयी।’ और शीतल भाई मुग्ध नेत्रों से उनकी तरफ देख कर कहते,’चीनी की ज़रूरत नहीं है। तुम सिर्फ अपनी उँगली चाय में डालकर हिला दो। चाय मीठी हो जाएगी।’ नीरा जी दुबारा ठुड्डी पर उँगली रख कर कहतीं, ‘ हाय! मेरी उँगली जल नहीं जाएगी?’ और शीतल भाई उनकी इस अदा पर निहाल हो जाते। वे मिठास के लिए नीरा जी की तरफ देखते हुए बिना शकर की चाय पी जाते।
इसी प्रकार शीतल भाई का प्रेम फलता फूलता रहा और अन्त में वे दोनों शादी को प्राप्त हो गये। शादी के बाद भोजन बनाने की समस्या सामने आयी। शीतल भाई भी महसूस करने लगे कि खाली प्रेम की ख़ूराक पर ज़िन्दगी ज़्यादा दिन नहीं चल सकती। मुश्किल यह थी नीरा जी पाक कला में बिल्कुल ही अनाड़ी थीं। उनसे न सब्ज़ी काटते बनता, न आटा गूँधते। आग पर रखे बर्तन वे हाथों से ही उठा लेतीं और फिर ‘हाय माँ’ कह कर उन्हें ऊपर से छोड़ देतीं।
एकाध बार जब शीतल भाई ने उनसे पूछा कि बर्तन कैसे गिर गया तो उन्होंने नूरजहाँ की तरह दुबारा पटक कर बता दिया कि कैसे गिर गया। लेकिन शीतल भाई के साथ दिक्कत यह थी कि वे सलीम की तरह कोई राजकुँवर नहीं थे।वे मध्यवर्गीय परिवार के थे और बर्तनों के गिरने से उनके दिमाग में झटका लगता था।
आरंभ में उन्हें पत्नी का पाक कला में अनाड़ीपन नहीं अखरा। वे हँसते हुए होटल से भोजन ले आते और अपने हाथों से पत्नी को खिलाते थे। लेकिन जब आधी से ज़्यादा तनख्वाह पेट में जाने लगी तब शीतल भाई की प्रेमधारा का पाट कुछ सँकरा होने लगा। अब वे धीरे से कुनमुना कर पत्नी से कहते कि उसे भोजन बनाना सीखना चाहिए था। लेकिन पत्नी अभी तक अपने को प्रेमिका ही समझे बैठी थी। वह उनकी बात पर मुँह चिढ़ा कर सबेरे नौ बजे तक आराम से सोती रहती।
अन्ततः प्रेमशास्त्र में अर्थशास्त्र की दीमक लगने लगी। अब शीतल भाई खुलकर पत्नी से कहने लगे कि वह कौन सा बाप के घर से दहेज ले कर आयी है जो वे उसे होटल से ला ला कर खिलाते रहें। अब पत्नी उनकी बात सुनकर आँसू बहाती। वह रसोईघर में जाकर कुछ खटपट भी करती, लेकिन बात कुछ खास बनी नहीं।
अन्त में अंग्रेजी कहावत के अनुसार उनकी गृहस्थी की नाव पानी से निकलकर चट्टान पर चढ़ने लगी, अर्थात उसके टूटने की नौबत आने लगी। जब नीरा देवी को यह खतरा स्पष्ट दिखायी देने लगा तब उन्होंने घबराकर मेरी पत्नी की शरण ली।
हमने चुपचाप उन्हें पाकशास्त्र का प्रशिक्षण दिया। जब वे कुछ दक्ष हो गयीं तो हमने शीतल भाई को बिना कुछ बताये उनका बनाया भोजन खिलाया। जब शीतल भाई ने उस भोजन की प्रशंसा की तो हमें बात कुछ बनती हुई लगी। उसके बाद हमने नीरा जी की पकायी हुई वस्तुएँ उन्हीं के घर भेजीं और शीतल भाई ने उनकी भी खूब तारीफ की। तब हमने उन्हें बताया कि वे वस्तुएँ किसने बनायी थीं। परिणाम यह हुआ कि शीतल भाई की सूखती हुई प्रेम-बेल फिर हरी हो गयी और उनकी गृहस्थी की नाव फिर चट्टान से उतर कर पानी में तैरने लगी।
चूँकि अब नीरा देवी अपने पति के हृदय प्रदेश पर पुनः आधिपत्य कर चुकी हैं, अतः वे शीतल भाई को आड़े हाथों लेने से चूकती नहीं हैं। वे साफ-साफ कहती हैं कि शीतल भाई के हृदय में पहुँचने का रास्ता उनके पेट से होकर जाता है। शीतल भाई यह सुनकर शर्मा कर हँस देते हैं।
अन्त में एक बात और।अब इतिहास अपने को दुहरा रहा है। जिस तरह पचीस तीस वर्ष पहले शीतल भाई प्रेम-पीड़ित थे उसी तरह अब उनका बड़ा पुत्र भी आजकल एक कन्या के प्रेम में गिरफ्तार है। वह भी आजकल चाँद सितारों की दुनिया में रहता है। शीतल भाई इस बात को लेकर परेशान हैं।
एक दिन मेरे ही सामने शीतल भाई पुत्र से कहने लगे, ‘भैया, यह पता तो लगा लो कि वह खाना बनाना जानती है या नहीं।’
उनका पुत्र ताव खाकर बोला, ‘पापाजी, मैं आपसे कई बार कह चुका हूँ कि आप मुझसे ऐसी घटिया बात न किया करें, लेकिन आप मानते ही नहीं।’
और शीतल भाई बड़ी करुण मुद्रा बनाकर मेरी तरफ देखने लगे।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 143 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (3)☆
जीवन का दर्शन छोड़ प्रदर्शन के मारे मनुष्य की चर्चा आज जारी रखेंगे। लगभग पौने तीन दशक पूर्व हमने मासिक साहित्यिक गोष्ठियाँ आरंभ की। यह अनुष्ठान गत 27 वर्ष से अखंडित चल रहा है। गोष्ठियाँ आरम्भ होने के कुछ समय बाद ही कविता के बड़े मंचों से निमंत्रण आने लगे। इसी प्रक्रिया में एक रचनाकार से परिचय हुआ। वह मंचों पर तो मिलते पर गोष्ठियों से नदारद रहते। एक बार इस विषय पर चर्चा करने पर बोले, ” मैं टेस्ट मैच का खिलाड़ी हो चुका हूँ। लगातार टेस्ट मैच खेल रहा हूँ। ऐसे में रणजी ट्रॉफी क्यों खेलूँ?” उन्हें कोई उत्तर देना अर्थहीन था। ऐसे खिलाड़ियों को समय ही उत्तर देता है। समय के साथ टेस्ट मैच पर वन-डे को प्रधानता दी जाने लगी। फिर टी-20 का ज़माना आया, फिर आईपीएल की चकाचौंध और अब तो कुछ स्थानों पर टी-10 के टूर्नामेंट भी होने लगे हैं।
यह नहीं भूलना चाहिए कि फॉर्म हमेशा नहीं रहता। फॉर्म जाने के बाद खुद को सिद्ध करने का मंच है रणजी ट्रॉफी टूर्नामेंट। यहाँ नयी प्रतिभाएं भी निरंतर आ रही होती हैं। भविष्य में आपको किन-किन से स्वस्थ प्रतियोगिता करनी है, किन-किन के मुकाबले खुद को खड़ा करना है, यह रणजी टूर्नामेंट से ही पता चलता है।
अपने समय के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र ने एक बार एक साक्षात्कार में कहा था कि हर सुबह जॉगिंग करते समय वह उस समय जो नये और युवा कलाकार आ रहे थे, उन्हें याद किया करते। उन कलाकारों को याद कर, हर नये कलाकार के नाम पर अपनी जॉगिंग 100 मीटर और बढ़ा देते। बकौल उनके उन्हें नये प्रतिस्पर्द्धियों के मुकाबले खुद को फिट रखना था।
अपने आप को फिट रखना है अर्थात निरंतर सीखना है, सीखे हुए को स्मरण रखना है तो बेसिक या आधारभूत को भूलने की गलती कभी मत करना। कहा भी जाता कि ‘बेसिकस् नेवर चेंज।’ रणजी बेसिक है, रणजी आधारभूत है । फॉर्म आएगा, फॉर्म जाएगा पर आधारभूत बनाए रखना, बचाए रखना, आधारभूत का सम्मान अखंडित रखना।
यह भी ध्यान रहे कि जीवन में भी रणजी ट्रॉफी से टेस्ट मैच तक, सब कुछ होता है। एक कोई संस्था/ संस्थान/ व्यक्तित्व ऐसा होता है जो व्यक्ति के उद्भव, विकास और विस्तार में माँ की भूमिका निभाता है। उससे दूर जाना याने फॉर्म जाने के बाद खेल से बाहर हो जाने की आशंका है। कुछ इसी तरह परिवार भी व्यक्ति का आधार है। परिवार में अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक, मानसिक स्थिति वाले सदस्य हो सकते हैं। अपने अहंकार, अपने प्रदर्शन-भाव के चलते परिवार से दूर मत चले जाना। तुम्हारा परिवार तुम्हारे उत्थान में मंगलगीत गाता है, तुम्हारे अवसान में भी परिवार ही संबल बनता है।
चित्रपट उद्योग का ही एक और उदाहरण, पचास के दशक के प्रसिद्ध अभिनेता भगवान दादा का है। उन्होंने अपने संघर्ष का आरंभ मुंबई की लालूभाई मेंशन चॉल से किया था। 25 कमरों वाले बंगले में जाने के बाद भी चॉल का कमरा दादा ने बेचा नहीं। विधि का विधान देखिए कि फर्श से अर्श की यात्रा उल्टी घूमी और उन्हें अपने जीवन के अंतिम दिन चॉल के उसी कमरे में बिताने पड़े।
इस विषय के समानांतर चलती अपनी एक कविता साझा कर रहा हूँ-
जब नहीं बचा रहेगा
पाठकों.., अपितु
समर्थकों का प्रशंसागान,
जब आत्ममोह को
घेर लेगी आत्मग्लानि,
आकाश में
उदय हो रहे होंगे
नये नक्षत्र और तारे,
यह तुम्हारा
अवसानकाल होगा,
शुक्लपक्ष का आदि,
कृष्णपक्ष की इति
तक आ पहुँचा होगा,
सोचोगे कि अब
कुछ नहीं बचा
लेकिन तब भी
बची रहेगी कविता,
कविता नित्य है,
शेष सब अनित्य,
कविता शाश्वत है,
शेष सब नश्वर,
अत: गुनो, रचो,
और जियो कविता!
प्रदर्शन से मुक्त होकर अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने संदर्भ में कविता में अंतर्निहित दर्शन को जो जी सका, समय साक्षी है कि वही खिलाड़ी लंबे समय तक पूरे फॉर्म में खेल सका।.. इति।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
Anonymous Litterateur of Social Media # 97 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 97)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।