(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 215 – कथा क्रम (स्वगत)…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “मानवता की ओढ़-सुन्दरता…...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 215 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “मानवता की ओढ़-सुन्दरता…...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
शिक्षा – कला स्नातक – (B.A.), 2- पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान स्नातक – (B.Lib.I.sc) रीवा ,शहडोल और छतरपुर मध्य प्रदेश में …..
लेखन –सभी प्रतिष्ठित हिंदी पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य ,आलोचना , कवितायें और संस्मरण प्रकाशित .
प्रकाशित पुस्तकें – (व्यंग्य) 1-बुज़दिल कहीं के …2-राजा उदास है 3-सड़क अभी दूर है 4-गणतंत्र सिसक रहा है
विशेष – (1) मुंबई विश्वविद्यालय के B.A. (प्रथम वर्ष) में 2013 से 2017 तक “प्रतिभा शोध निकेतन “व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में समाविष्ट (2)अमरावती विश्वविद्यालय के B.Com (प्रथम वर्ष) में 2017 से “खिलती धूप और बढ़ता भाईचारा”व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में शामिल .
सुधीर ओखदे की अनेक रचनाओं का मराठी और गुजराती में उस भाषा के तज्ञ लेखकों द्वारा भाषांतर प्रकाशित
इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी सहित अनेक साहित्य वार्षिकी और महाराष्ट्र में प्रसिद्ध दीपावली अंकों में रचनाओं का प्रकाशन
आकाशवाणी के लिए अनेक हास्य झलकियों का लेखन जो “मनवा उठत हिलोर“और “मुसीबत है “शीर्षक तहत प्रसारित
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीर ओखदे ☆
देखते देखते दुनिया कितनी बदल गई, परिवार टूटने लगे, एक ही घर में कितनी दीवार खड़ी हो गईं. आवभगत, प्रेम स्नेह, अपनापन कितने पराये हो गए, आपसी भाईचारा, त्याग बलिदान और रिश्तों को निभाने की परंपरा गायब होने लगी, ऐसे समय रह रहकर झांसी वाली मामी अक्सर याद आतीं हैं. उस समय तो ख़याल भी नहीं आता था कि ये अति साधारण सी दिखने वाली मामी अपने कर्तव्यों को ले कर कितनी सजग है. आज जब सोचता हूँ तो महसूस करता हूँ कि मेरी छोटी मामी न सिर्फ़ एक अच्छी इंसान थी अपितु वो अपने परिवार को ले कर कितनी समर्पित भी थी. अपने ससुराल पक्ष को ले कर उचित आवभगत. प्रेम अपनापन, प्यार स्नेह और साथ में जहाँ कठोर हो कर संस्कार लगाने हैं वहाँ उतनी ही कड़क भी. आज जहाँ किसी के घर २-३ दिन मेहमान बन कर जाने के पहले सोच विचार करना पड़ता है वहीं हमारी मामी अपनी ४ ननदों और उनके कुल १०-११ बच्चों की गरमी की छुट्टियों में पूरी तैयारी के साथ उत्साह से प्रतीक्षा करती थी. और कोई एक दो दिन के लिए नहीं अच्छे १५-२० दिनो के लिए.
क्या होता है अपने घर में एक साथ १५-२० लोगों का रहना खाना पीना और घूमना फिरना सैर सपाटा सब कुछ. कैसे करते होंगे उस सीमित तनख़्वाह में मामा मामी सबका इतने प्यार से. मामी का पूरा नाम था “ कुमुद रामकृष्ण देसाई “. लेकिन हम सब उन्हें “ छोटी मामी “ नाम से ही सम्बोधित करते थे.
मेरे दो मामा थे. बड़े मामा मुंबई में तो छोटे मामा झाँसी में रहते थे. मुंबई वाले मामा मामी दूर रहते थे. मुंबई यूँ भी हम सब को अपनी पहुँच से दूर लगती थी. ऊपर से कोई विशेष लगाव भी नहीं था. जब मुंबई वाले मामा मामी हम लोगों के घर आते तो बड़े प्यार से मिलते लेकिन पता नही क्यों एक औपचारिक सा वातावरण था वहाँ. मुंबई में जगह की समस्या शायद इसके पीछे एक कारण हो सकता है.
हम सब मौसेरे भाई बहन हर गरमी की छुट्टियों में झाँसी भागते थे जहाँ हमारी प्रिय छोटी मामी रहती थी. वो घर में ही एक छोटा सा स्कूल चलाती थी जिसमें मुझे याद आता है क़रीब २०-२२ बच्चे पढ़ने आते थे. स्कूल जाने के पूर्व बालवाड़ी या नर्सरी होती है न ? बस वैसी ही एक कमरे की स्कूल. लेकिन आप को बताऊँ झाँसी के “नरसिंह राव टोरिया” इलाक़े में मामी के स्कूल की धूम थी. बहुत मेहनत ले कर उस इलाक़े के सारे ग़रीब बच्चों को शिक्षा देने का अद्भुत कार्य मामी सन १९७०-७१ के दौर में करती थी. वह उस ज़माने की ग्रैजूएट थी और महाराष्ट्र के नागपुर की थी लेकिन झाँसी में बसने के बाद पूरी तरह से उसने अपने आप को बुंदेलखंड के परिवेश में ढाल लिया था. वो बच्चों से बुंदेलखंडी भाषा में बात करती थी.
उसके स्कूल की लोकप्रियता से प्रभावित हो कर शिक्षा विभाग की तरफ़ से उसके स्कूल को मान्यता देने की बात भी हुई थी ऐसा मुझे याद है, लेकिन मामी ने बड़ी विनम्रता से इस पेशकश को ना कहा था.
दरअसल मामा को ये स्कूल तकलीफ़ देती थी. उन दोनो में इस बात को ले कर तकरार भी होती थी लेकिन जीत हमेशा मामी की होती थी. मुझे याद है नीचे बच्चे अपने पंचम स्वर में कविता पाठ करते थे और ऊपर मामा उनसे भी तेज़ आवाज़ में पूजा करते करते श्लोक पढ़ते थे, मंत्रोचार करते थे. इस जुगलबंदी पर हम बच्चों को ख़ूब मज़ा आता था.
मामा रेलवे में थे और उन्हें बीच बीच में दौरों पर भी जाना पड़ता था सो घर परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी मामी के सर पर. लेकिन मैंने कभी मामी को त्रस्त नहीं देखा. सुबह उठ कर स्कूल से निपट कर हम सब का मन पसंद खाना बना कर दोपहर में हम सब के साथ पत्तों की बाज़ी में मामी फिर साथ. शाम को जब हम सब घूमने निकलते तो चुपके से उनकी बड़ी बेटी प्रतिभा दीदी के हाथ सब के चाटपकोड़ी के पैसे देती मामी मुझे आज भी स्मरण में हैं.
छोटे मामा जानते थे कि उनका काउंटरपार्ट इतना मज़बूत है इसलिए हम सब बच्चों की ज़िम्मेदारी मामी पे ही रहती थी. हम लोगों को वापस जाते समय क्या उपहार देना है से ले कर वहाँ रहने के दौरान क्या क्या ख़ातिरदारी करनी है तक सब. . . . हम सब बच्चों की फ़ौज नयी नयी फ़िल्में भी देखती थी. गीत गाता चल, साँच को आँच नहीं, दुल्हन वही जो पिया मन भाए. . ये सब उसी दौरान देखी हुई फ़िल्में हैं और आज भी रोमांचित करती हैं.
आज जब उन सब बातों को स्मरण करता हूँ तो मुझे मामी बहुत महान प्रतीत होती है. सीमित तनख़्वाह में इतना सब कुछ.
वो अपने बच्चों का हक़ मार कर शायद ये सब हम लोगों के लिए करती होगी. लेकिन उन दिनो इन बातों की परवाह भी कौन करता था. बहनें, भाई के घर बच्चों को ले कर जाना अपना हक़ समझती थीं और भाई इसे अपना कर्तव्य. हाँ लेकिन सुखद छुट्टी तो तभी लोगों की बीतती होगी जहाँ मामी हमारी मामी सी हो.
कहते है बुआ मौसी तो अपनी होती हैं लेकिन मामी चाची बाहर से आती हैं. मैं दोनो ही मामलों में भाग्यशाली निकला. मुझे मामी और चाची दोनो अच्छी मिलीं.
आज इतने वर्षों बाद भी जब झाँसी में बिताये बचपन के दिन याद आते हैं तो साथ ही याद आते हैं. चिवडा लड्डू और नानखटाई से भरे वे डब्बे जो हम बच्चों के नाश्ते और आते जाते खाने के लिए मामी बना कर रखती थी.
आज के बच्चों को न ऐसा ननिहाल मिलता होगा न इतना प्यार करने वाली मामी. आज वो हमारे बीच नहीं हैं पर हमेशा श्रद्धा से याद आती हैं.
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “जीवन चक्र…”।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता ‘कान्हा, नैना दर्शन को बेचैन…‘।)
☆ कविता – कान्हा, नैना दर्शन को बेचैन…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆
☆ ४९८ – अ… – भाग – १ – हिन्दी लेखक : श्री हेमन्त बावनकर ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆
श्री हेमन्त बावनकर
उत्तर भारतातील काही धार्मिक आणि प्रेक्षणीय स्थळांना भेट द्यावी, या विचाराने राजेश आणि त्याची पत्नी सरोज घराबाहेर पडले खरे, पण जबलपूर स्टेशनवर पाय ठेवला आणि राजेशला एप्रिल महिन्याची प्रचंड गर्मी आणि स्टेशनवरची गर्दी पाहून आपला निर्णय चुकला की काय, असं वाटू लागलं होतं. पण मग त्याने आपल्या मनाला समजावण्याचा प्रयत्न केला, की इतक्या कमी पैशात इतक्या स्थळांचं दर्शन हे तसं शक्य नव्हतंच. शिवाय त्यांच्यासारखे इतरही अनेक पर्यटक त्या ट्रेनने प्रवास करणार होते. ९ डब्यांची ती विशेष ट्रेन होती. जी त्यांची स्थिती होईल, तीच आपली. राजेशने आपल्या मनाला समजावण्याचा प्रयत्न केला.
गाडीची ठरलेली वेळ रात्रीची साडेअकराची होती, पण तीन वाजेपर्यंत गाडी कुठल्या प्लॅटफॉर्मला लागणार, हेच कळलं नव्हतं. लोक आपापल्या पध्दतीने काऊंटरपाशी, प्रबंधकांपाशी जाऊन चौकशी करत होते. यात्रा प्रबंधक रेल्वे प्रशासनाला आणि चौकशीच्या काऊंटरवरील स्टाफ यात्रा प्रबंधकांना दोष देत होते. आणि स्वत:ची सुटका करून घेत होते. सगळ्यांचे कान अनाउंसमेंटकडे लागले होते. चारच्या सुमाराला स्पीकरवरून ट्रेन आणि प्लॅटफॉर्म नंबरची सूचना दिली गेली.
आता विशेष ट्रेनमधील विशेष प्रवाशांची गर्दी आपापलं सामान घेऊन, अनाउन्स केलेल्या प्लॅटफॉर्मच्या दिशेने निघाली. प्लॅटफॉर्मवर पोचल्यावर थोड्याच वेळात अनपेक्षित अशी निर्मळ, स्वच्छ ट्रेन प्लॅटफॉर्मला लागली. सर्व प्रवाशांना आपापले बर्थ क्रमांक माहीत होते.
बोगीत आपापल्या जागी आपापलं सामान ठेवता ठेवता सहप्रवासी एकमेकांबद्दल जाणून घेऊ लागले. काही प्रवाशांना आपले परिचित मित्र भेटले. काही प्रवासी शेजा-यांशी संबंध प्रस्थापित करण्याचा प्रयत्न करू लागले. कुणी रिझर्व्ह स्वभावाचे प्रवासी आपापल्या बर्थवर सामान ठेवून गुपचुप खिडकीबाहेर पाहू लागले.
राजेशनेही आपले सामान वरती बर्थवर ठेवले. प्रत्येक बोगीत एक टूरगाईड, एक गार्ड आणि एक सफाई कामगार होता. ट्रेनच्या बोगीत २ स्पीकर लावलेले होते. थोड्याच वेळात एक विशेष सूचना प्रसारित केली गेली. टूर गाईड सर्व प्रवाशांची तिकिटे तपासतील. त्यानंतर, संपूर्ण यात्रेबद्दलच्या सूचना आणि माहिती दिली जाईल. तिकीट तपासणीच्या प्रक्रियेत अर्धा तास गेला. स्पीकरवर पुन्हा सूचना आली, ‘ट्रेन लवकरच सुटेल.’ गाडीची शिट्टी वाजली आणि ट्रेन निघाली. काही प्रवासी पुढे इटारसी आणि भोपाळला गाडीत चढणार होते.
साधारण इतर स्लीपर ट्रेनप्रमाणेच इथेही कूपेमध्ये आठ बर्थ होते. आरक्षण चार्ट पाहिल्यावर राजेशच्या लक्षात आलं की लोअर आणि मिडल बर्थ प्रवाशांसाठी व वरची बर्थ, त्यांचं सामान ठेवण्यासाठी ठेवलेली होती. चार्ट बघून त्याच्या हेही लक्षात आलं, की त्यांचे दोन सहप्रवासी इटारसी स्टेशनवर चढणार आहेत. त्यामुळे आपलं सामान व्यवस्थित ठेवून राजेश समोरच्या लोअर बर्थवरच बसला.
प्रवाशांचं बोलणं, गप्पा अजूनही चालू होत्या. थोड्याच वेळात चहा सर्व्ह केला गेला. मग चहावर चर्चा सुरू झाली. जसजसा चहाचा प्रभाव कमी होत गेला, लोक आपापल्या बर्थवर आडवे होऊ लागले. सरोज म्हणाली, ‘जोपर्यंत समोरच्या सीटवरची माणसे येत नाहीत, तोपर्यंत तुम्ही लोअर बर्थवरच पडा.’ अशा प्रकारे दोघेही आपापल्या कुपेत लोअर बर्थवर आडवे झाले. प्रत्येक बोगीत गार्ड होता. शिवाय, या ट्रेनमध्ये अन्य प्रवाशांना चढायची परवानगी नव्हती. त्यामुळे सामानाची काही काळजी नव्हती. आडवं झाल्यावर कधी डोळा लागला, त्यांचं त्यांनाच कळलं नाही.
इटारसी स्टेशनवर गाडी थांबली. प्रवाशांच्या आणि हमालांच्या बोलण्यामुळे त्यांना जाग आली. बोगीत तिघे जण चढले. त्यांच्यामध्ये दोघे वृध्द नवरा-बायको होते. तिसरा चाळीशीच्या आसपासचा तरुण होता. त्याने सर्व सामान बर्थवर ठेवले. तो कदाचित् त्यांचा मुलगा असेल, असं राजेशला वाटले. सामान ठेवून झाल्यावर तो राजेशला म्हणाला, ‘‘अंकल-आंटी जरा बाबूजी आणि अम्मांकडे लक्ष ठेवा हं!”
दोघेही जवळजवळ एकदमच म्हणाले, ‘‘आपण अजिबात काळजी करू नका.” हात जोडून त्यांना नमस्कार करत तो तरूण खाली उतरला. व प्लॅटफॉर्मवरच्या बेंचवर जाऊन बसला. आणि राजेश-सरोजकडे पाहू लागला. ट्रेन चालू झाल्यावर त्याने अतिशय विनम्रतापूर्वक हात हलवत दोघांना बाय-बाय केलं. राजेशनेही हात हलवून अभिनंदनाचा स्वीकार केला.
राजेशचं लक्ष मग या पती-पत्नीकडे गेलं. वृध्द व्यक्ती साठीच्या आसपास असावी. त्याची पत्नी छप्पनच्या आसपासची असेल. उत्सुकतेने राजेशने विचारले, ‘‘आपल्याला पोचवायला आपला मुलगा आला होता का?”
‘‘अरे वा! आपण मोठे भाग्यवान आहात!” राजेशच्या तोंडून सहजच बाहेर पडलं.
ते भावनावश झाले. दोन्ही हात जोडून देवाचे आभार मानत म्हणाले, ‘‘ही सगळी देवीमातेची कृपा.”
त्यांचं बोलणं पुढे चालू होणार, एवढ्यात स्पीकर वरून अनाउन्समेंट झाली, की भोजनाची वेळ झाली आहे. आता एवढ्यातच सर्वांना भोजन देण्यात येईल. राजेशने विचार केला, ‘आत्ताशी कुठे प्रवासाला सुरूवात झालीय. नंतर सावकाशपणे ओळख करून घेता येईल.’ पण वृध्द गृहस्थ जरा जास्तच उत्साही दिसले. ते म्हणाले, ‘‘मी रामजी आणि ही माझी पत्नी जया. आम्ही महाराष्ट्र मध्यप्रदेशच्या सीमेवर असलेल्या छिंदवाडा जिल्ह्यातील दूरच्या गावामधून आलोय.”
राजेशने आपला परिचय दिला, ‘‘मी राजेश, आणि ही माझी पत्नी सरोज. आम्ही जबलपूरहून आलोय.”
एवढ्यात जेवण आले. लोक जेवू लागले. जेवता जेवता राजेशने एक दृष्टीक्षेप समोरच्या दंपतीकडे टाकला. रामजी सावळ्या रंगाचे, उंचे-पुरे, भारदार व्यक्तिमत्त्व असलेले दिसत होते. वयाच्या मानाने प्रकृती निकोप होती. त्यांनी काळ्या रंगाचा, अर्ध्या बाह्यांचा सदरा आणि गडद निळ्या रंगाची पँट घातली होती. उजव्या बाजूला मनगटात लाल-काळ्या धाग्यात एक ताईत बांधलेला होता. गळ्यात छोट्या रुद्राक्षांची माळ होती. त्याबरोबरच आणखीही रंगी-बेरंगी मोत्यांच्या माळा आणि एक स्फटिकांची माळही होती. पायातली चप्पल काळ्या रंगाची आणि जुनी, झिजलेली होती. त्यांच्या पत्नीने, जयाने फिकट पिवळ्या रंगाची साडी नेसली होती व डोक्यावरून पदर घेतलेला होता. ती गहू वर्णी आणि गोल-मटोल अशी महिला होती. आणि एकंदरीने त्यांच्याकडे बघितल्यावर असं वाटत होतं की ते आदिवासी बहूल क्षेत्रातून आले आहेत.
आता जेवणे झाली आहेत. लोक पुन्हा पहिल्यासारखे एकमेकांशी बोलू लागले होते. सरोज आणि जया यांचं अद्याप एकमेकींशी बोलणं झालं नव्हतं. त्या जरा एकेकट्या बसल्या सारख्याच बसल्या होत्या, पण त्यांचे कान मात्र इतरांचं बोलणं ऐकत होते. भोपाळ यायला अद्याप अडीच-तीन तास होते. राजेश सरोजला म्हणाला, ‘‘भोपाळहून ट्रेन सुटली की मगच झोपू या. नाही तर भोपाळ स्टेशनवर पुन्हा झोपमोड होईल.” सरोजने होकारार्थी मान हलवली.
रामजी ऐसपैस बर्थवर बसले. आता राजेशलाही बोलण्याची उत्सुकता वाटत होती. एक आठवडाभर एकमेकांच्या सोबतीने काढायचा होता. त्याने विचार केला, जरा गप्पा मारूयात. मग त्याने विचारले, ‘‘रामजी आपल्याला मुले किती?”
‘‘दोन मुले आणि एक मुलगी. देवीआईच्या कृपेने सगळ्यांची लग्ने झाली आहेत. सगळे आनंदात, सुखात आहेत.”
राजेश म्हणाला, ‘‘मला एक मुलगा आणि एक मुलगी. दोघांचीही लग्नं झाली आहेत, आता निवृत्त झालोय. सगळ्या जबाबदा-यातून मुक्त झालोय.”
‘‘आपण मोठे नशीबवान आहात. पेन्शन आहे. त्यामुळे आरामात जगत असाल. आमचं नशीब कुठे एवढं बलवत्तर असायला. आम्ही पडलो व्यापारी.”
‘‘रामजी, व्यापारात पैशाला काय कमी? नोकरी पैशात आम्ही आयुष्यभर जेवढं कमावतो, तेवढे आपण काही काळातच मिळवू शकता. आपण खरोखरच नशीबवान आहात. आपल्याला इतका चांगला जावई मिळाला, आपली किती काळजी ते घेतात. हे काय कमी आहे?”
‘‘साहेब, आपण अगदी खरं बोलताय. जावयाच्या बाबतीत आम्ही खरंच नशीबवान आहोत. पण साहेब, हे सुख पदरात टाकण्यासाठी देवीआईने आमची अगदी कठोर परीक्षा घेतली होती.”
– क्रमशः भाग पहिला
मूळ हिंदी कथा – ४९८ -अ
मूळ लेखक – हेमंत बावनकर, मो. – 9833727628
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अनुवादिका –सौ. उज्ज्वला केळकर
संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३ सेक्टर – ५, सी. बी. डी. – नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम लघुकथा – ‘अपना अपना धर्म‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 266 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अपना अपना धर्म ☆
नवीन भाई रिटायर होने के बाद घोर धार्मिक हो गये हैं। पहले दोस्तों के साथ बैठकर कभी-कभी सुरा-सेवन हो जाता था। दफ्तर में भी दिन भर में हजार पांच सौ रुपया ऊपर के कमा लेते थे। अब सब प्रकार के पापों से तौबा कर ली है। अब लौं नसानी, अब ना नसैंहौं। परलोक की फिक्र करना है।
अब रोज नहा-धो कर नवीन भाई करीब एक घंटा पूजा करते हैं। सभी देवताओं की स्तुति गाते हैं। बाद में भी बैठे-बैठे ध्यानस्थ हो जाते हैं। बार-बार आंख मूंद कर हाथ जोड़ते हैं, कानों को हाथ लगाते हैं। शाम को कॉलोनी के छोटे से मन्दिर में बैठ जाते हैं। वहां अन्य भक्तों से सत्संग हो जाता है, शंका-निवारण भी हो जाता है। हर साल तीर्थ यात्रा का प्लान भी बन गया है। परिवार के सदस्य उनके ‘सुधरने’ से प्रसन्न हैं।
नवीन भाई के घर में खाना बनाने वाली लगी है। पहले कई खाना बनाने वालीं काम छोड़ चुकीं क्योंकि नवीन भाई को खाने में मीन-मेख निकालने की आदत रही। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वे शान्त और सहनशील हो गये हैं।
कुछ दिन पहले घर में खाना बनाने के लिए केसरबाई लगी है। बड़ी धर्म-कर्म वाली है। घर में प्रवेश करते ही बच्चों समेत सबसे हाथ जोड़कर ‘राधे-राधे’ कहती है। सफेद साड़ी पहनती है जिसका छोर गर्दन में लपेटकर पुरी भक्तिन बनी रहती है। रास्ते में किसी मन्दिर से चन्दन का सफेद टीका लगा लेती है। किचिन में घुसते ही मोबाइल पर भजन चालू कर लेती है और उसके साथ सुर में सुर मिलाकर गुनगुनाती रहती है। टीवी पर कोई धार्मिक चैनल चलता हो तो काम भूल कर बड़ी देर तक वहीं खड़ी रह जाती है।
नवीन भाई की पत्नी उससे प्रसन्न रहती हैं क्योंकि वह किसी बात को लेकर झिकझिक नहीं करती। अपने में मगन रहती है। लेकिन नवीन भाई को उसके गुनगुनाने से चिढ़ होती है। उसका सुर फूटते ही उनके ओंठ टेढ़े हो जाते हैं।
केसरबाई को आने में कई बार देर होती है। कहीं बिलम जाती है। आने पर बताती है कि रास्ते में कहीं कथा या भागवत सुनने बैठ गयी थी। सुनकर नवीन भाई का रक्तचाप बढ़ता है। मन को एकाग्र करना मुश्किल होता है। बीच में एक बार तीन-चार दिन के लिए मिसेज़ चौबे के साथ वैष्णो देवी चली गयी थी। तब भी नवीन भाई का बहुत खून जला था। मिसेज़ चौबे हर साल एक महिला को अपने खर्चे पर अपने साथ तीर्थ यात्रा पर ले जाती हैं। उनके खयाल से ऐसा करने से उन्हें अतिरिक्त पुण्य की प्राप्ति होती है।
नवीन भाई केसरबाई की भक्ति से चिढ़ते हैं क्योंकि उन्होंने पढ़ा है कि हर आदमी का निश्चित धर्म होता है और उसे अपने धर्म के हिसाब से ही काम करना चाहिए। दूसरे के धर्म की नकल नहीं करनी चाहिए। केसरबाई का धर्म दूसरों की सेवा करना है, इसीसे उसका कल्याण होगा। उसके मुंह से धर्म-कर्म की बातें उन्हें फालतू लगती हैं। वे गीता का हवाला देते हैं कि अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
कई बार नवीन भाई का मन होता है कि वे केसरबाई से कहें कि धर्म-कर्म की बातें छोड़कर अपने काम की तरफ ध्यान दे। फिर यह सोचकर चुप रह जाते हैं कि वह कहीं नाराज़ होकर उनका काम न छोड़ दे। बिना बखेड़ा किये उनका काम करती रहे, यही बहुत है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 266 ☆ शेष.. विशेष…अशेष!…
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।
ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण बीत रहा है।
कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।
अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,
हमेशा वर्तमान में जिया,
इसलिए अतीत से लड़ पाया,
तुम जीते रहे अतीत में,
खोया वर्तमान,
हारा अतीत
और भविष्य तो
तुमसे नितांत अपरिचित है,
क्योंकि भविष्य के खाते में
केवल वर्तमान तक पहुँचे
लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!
अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।
वह चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं। एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’
महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’
स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी
इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of social media # 213 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 213)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 213