हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 35 – उत्तराखंड – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – उत्तराखंड – भाग – 2)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 35 – उत्तराखंड – भाग – 2 ?

इस बार उत्तराखंड के कुछ हिस्सों की सैर करने का मन बनाया और बिटिया के पास देहरादून आ गए।

हम कानाताल से लैंडोर जा रहे हैं। सड़क पर बहुत भीड़ थी। गाड़ियाँ तो थीं ही साथ में पैदल चलने वाले और मोटरबाइक से यात्रा करनेवाले सभी सड़क पर ही थे।

शनिवार -रविवार को इन जगहों पर बड़ी भीड़ होती है। आज तो सोमवार का दिन है तो फिर इतनी जमकर भीड़ क्यों है भला? ड्राइवर ने बताया कि अब चार पाँच दिन सब जगह दीवाली की छुट्टी है। आस -पास रहनेवाले रोज़मर्रा के जीवन से थोड़ा हटकर आनंद लेने के लिए लैंडोर के लिए निकल पड़ते हैं।

सड़क पर खचाखच भीड़ है। गाड़ियाँ हिल ही नहीं रही हैं। जाम लगने का एक और कारण था, सड़क की दाईं ओर किसी घर में पिछली रात शायद शादी का कार्यक्रम था। आस -पास के घरों को भी दो रंगों के सैटिन के कपड़ों से सजाया गया था। घर के आस पास न केवल घर वालों की भीड़ थी बल्कि गाने-बजाने वालों की स्पीकर लगाई गाड़ी भी खड़ी कर दी गई थी जिसके कारण यातायात में व्यवधान उत्पन्न हो रहा था पर पहाड़ी जगह के लोग न तो ऊँची आवाज़ में बोलते हैं न गालीगलौज ही करते हैं।

अक्सर सुनने में आता है कि भारतीयों में सहिष्णुता का अभाव है। अगर किसी को सच्चे अर्थ में सहिष्णुता की परिभाषा जानने की इच्छा हो तो वह पहाड़ी लोगों के बीच आ जाएँ।

अब हमारी गाड़ी ठीक विवाह वाले घर से थोड़ी दूर हटकर रुक गई। मेरा ध्यान बाहर की ओर गया। मोटरबाइक वाले चढ़ाई की ओर जा रहे थे और गाड़ी रुकी हुई थी तो वे निरंतर गाड़ी रेज़ कर रहे थे ताकि गाड़ी बंद न पड़ जाए। इस वजह से काफी धुआँ निकल रहा था। हमारी गाड़ी की खिड़कियाँ बंद करवा दी गईं। इस पुरी यात्रा में हमने ए.सी का उपयोग किया ही न था क्योंकि पहाड़ी शुद्ध हवा का आनंद ही कुछ और है। फिर पहाड़ों को प्रदूषित करने से भी बचना था।

मैं मन ही मन मोटर साइकिल से निकलनेवाले काले धुएँ को देख असंतुष्ट हो रही थी कि किस तरह स्वच्छ पर्यावरण को दूषित किया जा रहा है। मैंने जब खिड़की बंद करने से रोका क्योंकि ए.सी चलाना भी तो पर्यावरण को दूषित करने का ही एक दूसरा माध्यम है तो बाप -बेटी ( हम सब साथ सफ़र कर रहे थे)बोल पड़े “तुमको ही तकलीफ़ होगी फिर दमा ज़ोर पकड़ेगा। ” मैं चुप हो गई।

कभी -कभी अपने उसूलों और सिद्धांतों के साथ समझौता करना पड़ता ही पड़ता है और तब अपनी अवसरवादी वृत्ति सामने खड़ी हो जाती है यह स्मरण कराने के लिए कि कुछ हद तक हम सभी स्वार्थी हैं। मैं अपवाद नहीं बन सकती।

खैर गाड़ी रुकी हुई थी। भीतर एक विचारों का जंग चल रहा था और नयन बाहर के दृश्यों पर नज़रें टिकाए हुए थे।

शादीवाले घर का उत्सव समाप्त हो गया। एक सजा सजाया मिट्टी का घड़ा रखा था। एक दुबला पतला कुत्ता अपने सामने के पैरों को घड़े के किनारे पर टिकाकर कुछ खा रहा था। शायद घड़े में रखे गए भोजन की उसे गंध आ गई थी। मुँह निकालकर जीभ से उसने अपने जबड़े चाटे। पुनः मुंडी उसने घड़े में घुसा दी।

घड़ा शायद विवाह में किसी काम के लिए रखा गया था। अब उसकी ज़रूरत पूरी हो गई तो उसमें बचा हुआ भोजन डाल दिया गया था।

कुत्ता भोजन का भरपूर आनंद ले रहा था। भोजन अब घड़े के आधे हिस्से तक पहुँच गया और कुत्ता गर्दन तक उसमें घुस गया। घड़ा सामने की ओर लुढ़क गया। अब कुत्ते का दम घुटने लगा तो वह घड़े से सिर निकालने के लिए छटपटाने लगा। काफ़ी समय तक वह छटपटाता रहा। मैं सुन्न -सी असहाय उसकी ओर अपलक दृष्टि गड़ाए बैठी उसे देख रही थी। इतने में एक चौदह-पंद्रह वर्ष का बालक एक मोटा डंडा लाया और कपाल क्रिया करने जैसा उस घड़े पर एक वार किया।

घड़ा टूटकर तीन भागों में विभक्त हो गया। भूखा कुत्ता अचानक घड़े पर डंडे की चोट लगने और उसके फूटने पर भयभीत हुआ। अपनी पिछली टाँगों के बीच पूँछ दबाकर थोड़ी दूर वह हट गया। पर वह निरंतर अभी भी जीभ निकाले जबड़ा चाट रहा था।

घड़े के फूटने पर उसमें पड़ा भोजन बाहर झाँकने लगा और दो कुत्ते अब उसका आनंद लेने उस पर टूट पड़े। भयंकर पीड़ा सहन कर जो कुत्ता अब तक अपनी मुंडी उस घड़े में फँसाए बैठा था उसकी तंद्रा टूटी। वह भूख और अधिकार के भाव से उन दोनों कुत्तों पर टूट पड़ा। वे दोनों वहाँ से थोड़ी दूरी पर जाकर खड़े हो गए और ललचाई दृष्टि से भोजन को देखने लगे।

कुत्ता तीव्र गति से भोजन खाता रहा। सम्पूर्ण भोजन पर वह अब अपना अधिकार समझता रहा। दूसरे कुत्ते पूँछ हिलाते हुए पास भी आते तो वह गुर्राता। अब इस मटके पर वह हेकड़ी जमाए बैठा था। पेट तो भर गया था शायद पर कल के लिए भी भोजन संचित करके रखने की वृत्ति अब कुत्ते में भी दिखने लगी। लोभ तो अपरिमित है और तृष्णा दुष्पूर!

गाड़ी अब आगे बढ़ने लगी। मन यह सब देखकर अशांत तो हुआ पर एक बात से प्रसन्नता हुई कि मनुष्य प्राणियों के कष्ट के प्रति आज भी सजग है वरना भोजन के लालच में कुत्ता दम घुटकर परलोक सिधार जाता।

© सुश्री ऋता सिंह

27/10/24, 6.40pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 108 – देश-परदेश – भोजन की बर्बादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 108 ☆ देश-परदेश – भोजन की बर्बादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

भोजन की बर्बादी को तो हमारे धर्म में पाप तक माना जाता है। कृषक कितनी मेहनत से अपनी फसल की पैदावार कर अनाज की उपज लेकर हमारी भूख को मिटाता है।

आप सोच रहे होंगे, विवाह का मौसम अभी आरंभ हुआ नहीं और भोजन की बर्बादी का ज्ञान देना आरंभ हो गया है। आज चर्चा ऑनलाइन भोजन उपलब्ध करवाने वाली बड़ी कंपनियां एक नई सुविधा आरंभ कर रहे हैं, उस को लेकर है।

ऑर्डर कर देने के बाद भी ग्राहक ऑनलाइन ऑर्डर रद्द भी कर सकता हैं। ऐसे मौके पर इस भोजन सामग्री का क्या हश्र होता होगा? इन खाद्य दूत कंपनियों को आज इस विषय पर चिंता होने लगी है। घर पहुंच सेवा देकर देश के लोगों और विशेषकर युवा पीढ़ी को आलसी बनाने में इनका योगदान सर्वविदित है।

अब इन रद्द हुए भोजन को सस्ते दाम में ये कंपनियां जनता को उपलब्ध करवा कर अपना श्रेय लेना चाहती हैं। कुछ नियम बन चुके हैं। युवा वर्ग या बाहरी भोजन के चटोरे इस को अधिक समझते हैं।

कल हमारे युवा पड़ोसी ने हमारे फोन से ज़ोमत्तों से भोजन ऑर्डर कर कुछ देर में कैंसिल कर दिया। उसके पांच मिनट बाद उसी भोजन को पच्चीस प्रतिशत दाम में अपने मोबाईल से ऑर्डर कर दिया।

हमारे फोन के इस्तेमाल करने की एवज में पड़ोसी ने हमको भी बाजार का घटिया भोजन अपने साथ करवाया। उसने तो भोजन की खरीदी मात्र 25% में करी। बाज़ार का भोजन दिखने और खाने में अच्छा लगता है। हमें तो और भी स्वादिष्ट लगा, बिल्कुल घर बैठे मुफ्त में जो मिला था। पाठक भी अपने रिस्क पर इस का लाभ ले सकते हैं, इससे पूर्व ऑनलाइन वाले इस योजना की कोई काट निकाल देवें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #262 ☆ बाप पुजत नाही… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 261 ?

☆ बाप पुजत नाही ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

आम्ही फक्त देव पुजतो

त्यांचे बाप पुजत नाही

कुणी काहीही म्हणू देत

आम्ही त्यांना भजत नाही

*

आम्ही रामालाच पुजतो

दशरथ पुजत नाही

कुणी काहीही म्हणू देत

आम्ही त्यांना भजत नाही

*

आम्ही फक्त कृष्ण पुजतो

वसुदेव पुजत नाही

कुणी काहीही म्हणू देत

आम्ही त्यांना भजत नाही

*

ब्रह्मा, विष्णू, शिव पुजतो

यांचे बाप पुजत नाही

कुणी काहीही म्हणू देत

आम्ही त्यांना भजत नाही

*

सख्खे आई-बाप पुजतो

दुजा बाप पुजत नाही

कुणी काहीही म्हणू देत

आम्ही त्यांना भजत नाही

 

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 214 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 214 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

श्यामकर्ण अश्व

और माधवी

सभी रख दिये

एक तुला पर ।

धन्य कहूँ या धिक्कार ।

ऋषिवर्य !

जानता हूँ आपकी शक्ति, सामर्थ्य

और

तपबल ।

किन्तु

समझ नहीं पाया

श्याम कर्ण अश्वों की

गुरु दक्षिणा का अर्थ |

क्या कहीं दबी छिपी थी

रजोगुणी राजलिप्सा ।

माना

शिष्य के

हठाग्रह ने

कर दिया था

कुपित

किन्तु

आपकी क्रोधाग्नि ने

क्या क्या किया

भस्म ?

सोचा आपने ?

शिष्यत्व की शुचिता,

पिता की मर्यादा

नरेशों की प्रतिष्ठा ।

किलकारियाँ

ममतालुस्पर्श

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 214 – “पत्तों की ठहरी आवाज…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत पत्तों की ठहरी आवाज...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 214 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “पत्तों की ठहरी आवाज...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

सिमट गये

सारे अहसास

लिपट गये

तने से सायास

बिम्ब नदी की

उदास लहरों के ।

 

हरियाली

जैसे हो सर्द

बिखरी है

पेडों के गिर्द

टहनियाँ डालियों

के पास

बुनती हैं

ढेरो प्रयास

गाँवो से लौट

चुके शहरों के ।

 

पत्तों की

ठहरी आवाज

खोज रही

जंगल का राज

गायन करती

हवा लगती है

गाती है द्रुत

में खम्माज

जूड़े में बँधे हुये

गजरों के ।

 

बगुलों की

भागती कतार

लगती है जैसे

सरकार किसी

नये शाश्वत

अभियान पर

जता रही

सबका आभार

लोकतंत्र के

सुसुप्त बहरों के ।

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-11-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरियाके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया

☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ ☆

☆ “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

शांत, सौम्य, स्थिर चित्त, दिव्य आभा से युक्त श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया के मुख से सदा ही अपने हम उम्र लोगों के लिए शुभकामनाएं और छोटों के लिए आशीर्वचन ही निकलते थे। मुस्कान के साथ उनके मातृत्व भाव से हर व्यक्ति उनके प्रति श्रद्धा से भर उठता था। यों जबलपुर के अधिकतर लोग उन्हें  भाभी जी कहकर संबोधित करते थे किंतु मेरे पिता स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव उन्हें बहिन जी कहते थे अतः मैंने उन्हें सदा बुआ जी ही कहा। श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लगभग 15 वर्ष पूर्व उनका देवलोक गमन हो गया किंतु अपने विचारों, साहित्य, कला, संस्कृति और महिलाओं के विकास और शिक्षा के लिए  किए गए कार्यों के कारण वे आज भी जन मानस में जीवित हैं।

आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक, कथक नृत्य में पारंगत श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया का मायका देहरादून का था। संगीत नृत्य, साहित्य, संस्कृति सहित खेलकूद में बैडमिंटन, वालीबॉल में उनकी विशेष रुचि थी। उन्होंने बंगला साहित्य का विषद अध्ययन किया था। 1953 में चंद्रप्रभा जी का विवाह जबलपुर के श्री सुशील कुमार पटेरिया से हुआ। सुशील कुमार जी उस समय भारत की प्रथम लोकसभा के सबसे युवा लोकप्रिय सांसद थे। चंद्रप्रभा जी को पति का लम्बा साथ नहीं मिला। 17 फरवरी  1953 में उनका विवाह हुआ और 3 अक्टूबर 1961 को अस्वस्थता के कारण उनके पति सुशील कुमार जी का निधन हो गया। पति के न रहने पर चंद्रप्रभा जी ने साहस के साथ स्वयं को संभाला और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने के संकल्प के साथ समाजसेवा में जुट गईं। उन्होंने अपनी सेवा का केंद्र महिलाओं को बनाकर उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिति को सुधारना और उन्हें स्वावलंबी बनाना अपना लक्ष्य रखा। उनकी समर्पित सेवा भावना ने शीघ्र ही उन्हें जन जन का प्रिय बना दिया। विविध कार्यों और अनुभवों से प्राप्त परिपक्वता के कारण लोगों को दिए उनके सुझाव व सलाह सदा कारगर होते थे।

खेलों में रुचि के  कारण उन्होंने मध्यप्रदेश महिला हॉकी एसोसिएशन का अध्यक्ष पद स्वीकार किया। हॉकी एसोसिएशन के उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में मध्यप्रदेश ने देश को अनेक सुयोग्य महिला हॉकी खिलाड़ी दिये। अच्छे कार्यों के लिए लोगों और संस्थाओं को उदारता पूर्वक आर्थिक सहयोग देने वाली चंद्रप्रभा जी अखिल भारतीय महिला परिषद, गुंजन कला सदन, शहीद स्मारक ट्रस्ट, प्रेमानंद आश्रम आदि अनेक संस्थाओं से सक्रियता पूर्वक  जुड़ी रहीं। भारत कृषक समाज में रहते हुए उन्होंने किसानों के लिए तथा प्रदेश की प्राचीनतम  शिक्षण संस्था हितकारिणी सभा के विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने नई पीढ़ी को सुशिक्षित करने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। जब महिलाओं का सामाजिक क्षेत्र अति सीमित हुआ करता था तब श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी ने कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होकर महिलाओं के लिए राजनैतिक क्षेत्र के द्वार भी खोले।

अब वे हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनकी पुत्र वधू श्रीमती सुनयना पटेरिया उनके कार्यों को आगे बढ़ा रही हैं। पटेरिया परिवार सहित नगर की अनेक संस्थाएं प्रति वर्ष 5 अक्तूबर को श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी की जयंती पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए समाज के लिए उनके योगदान को स्मरण करते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि जबलपुर नगर को पुनः श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जैसी नेत्री मिले।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कविता – देव उठनी एकादशी पर मेरी कविता… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता देव उठनी एकादशी पर मेरी कविता…।)

☆ कविता – देव उठनी एकादशी पर मेरी कविता… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

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देव उठो, अब उठ जाओ,

सोते क्यों हो बतलाओ,

सोने से तुम्हारे, इस जग में,

जाने क्या क्या हो जाता है,

हो जाते त्रस्त, तुम्हारे जन,

अत्याचार बहुत बढ़ जाता है,

कर्म तुम्हीं ने सिखलाया,

कर्म क्षेत्र भी बतलाओ,

देव उठो, अब उठ जाओ,

सोते क्यों हो बतलाओ,

स्वागत अभिनंदन, बहुत हुआ,

अब धरणी की बात करो,

तम और कोहरा छाया है,

प्रकाश पुंज से साफ करो,

गीता का तुमने ज्ञान दिया था,

फिर से उठकर दोहराओ,

देव उठो, अब उठ जाओ,

सोते क्यों हो बतलाओ,

जन जन का आभास तुम्हीं हो,

इस जग का विश्वास तुम्ही हो,

नफरत, हिंसा, मिट जाएगी,

इस श्रद्धा का एहसास तुम्हीं हो,

समय नहीं है, सोने का,

लोगों को जगाने आ जाओ,

देव उठो, अब उठ जाओ,

सोते क्यों हो बतलाओ.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 198 ☆ # “टूटे दिल की पुकार…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता टूटे दिल की पुकार…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 198 ☆

☆ # “टूटे दिल की पुकार…” # ☆

जिंदगी में मुझे मिली

मात बार बार

वो जीतते रहे

हम देखते रहे हार

 

वो हुनरमंद हैं  

पर रूढ़ियों में बंद हैं

तोड़ना दिलों को

उनका है कारोबार

 

वो नभ में उड़ रहे हैं

सितारों से जुड़ रहे हैं

उन्हें धरा पर बसने वालों से

नहीं कोई सरोकार

 

कभी कलियां मिलीं  

कभी सूनी गलियां मिलीं

हम ढूंढते रहे उनको

जिनपर था ऐतबार

 

उनको पाने के लिए

प्यार जताने के लिए

अपना बनाने के लिए

बेच दिया घर-बार

 

ना वो हमे पा सके

ना हम उनको पा सके

हमारी बेबसी पर

हंस रहा संसार

 

जीवन के इस मोड़ पर

सब गये छोड़कर

यादों के सहारे

जीना कितना है दुश्वार

 

नहीं किसी से गिला   

जो था नसीब में वो मिला

पतझड़ के मौसम में

मौत का है इंतज़ार

 

माशूक को दिल तोड़ने की अदा ना देना

प्यार में किसी को ऐसी सजा ना देना

जो तड़पते रहे उम्र भर

ऐ मेरे परवरदिगार  /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 265 ☆ कथा-कहानी – एक बेचेहरा आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम कहानी – ‘एक बेचेहरा आदमी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 265 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ एक बेचेहरा आदमी

 ‘कैसी मंहगाई है कि चेहरा भी,
बेच के अपना खा गया कोई।’

  – कैफ़ी आज़मी

जोगिन्दर कॉलेज के दिनों से वैसा ही था— काइयां, ख़ुदगर्ज़ और रंग बदलने में माहिर। कॉलेज में वह अपनी ज़रूरत के हिसाब से दोस्तियां बदलता रहता था। इम्तिहान के दिनों में वह ज़हीन लड़कों पर अपना प्रेम बरसाता था, और फिर जुलाई से फरवरी तक के लिए उनके प्रति तटस्थ हो जाता था।

कॉलेज में उसने राजनीति भी की थी। शुरू में वह कुछ छात्र-नेताओं का चमचा बना रहा।  इस मामले में भी वह निष्ठावान नहीं था। नेता की ताकत के घटते ही वह अपनी निष्ठा भी बदल लेता था। उसका हाल कुछ कुछ उन आदिम कबीलों की स्त्रियों जैसा था जो अपने गांव के बीच में गोल बनाकर गप लड़ातीं,अपने कबीले और किसी दूसरे कबीले के पुरुषों के बीच होती लड़ाई को आराम से देखती थीं, और विजेता कबीले के पुरुषों के साथ खुशी-खुशी हो लेती थीं।

फिर धीरे-धीरे वह कुशल छात्र-नेता बन गया। वहां भी वह प्राचार्य के सामने हंगामा करके दूसरे छात्रों को प्रभावित करता था और फिर स्थिति जटिल होने पर धीरे से खिसक लेता था। छात्रों को धोखे में रखकर वह अन्ततः अपना ही उल्लू सीधा करता था। धीरे-धीरे उसने शहर के राजनितिज्ञों से अपने सूत्र बना लिये और फिर उनकी मदद से एक प्राइवेट संस्थान में घुस गया। सरकारी नौकरी में घुस जाना भी उसके लिए मुश्किल नहीं था, लेकिन वह किसी भी कीमत पर शहर नहीं छोड़ना चाहता था।

उस प्राइवेट संस्थान में उसने तेज़ी से तरक्की की। उसकी मेज़ें बड़ी तेज़ी से बदलीं। पुरानी घटिया टेबिल से वह नयी चमकदार टेबिल पर आया और फिर जल्दी ही वह टेलीफोन वाली टेबिल पर पहुंच गया, जिसके पीछे गद्देदार आरामदेह कुर्सी थी।इस दौड़ में उसके कई सीनियर उससे पीछे रह गये और वह दफ्तर में ईर्ष्या और द्वेष का पात्र बन गया। इसके साथ ही उसके आसपास कुछ चापलूसों चुगलखोरों का समूह भी तैयार हुआ जो उसकी स्थिति का लाभ उठाना चाहते थे।

जोगिन्दर की तरक्की की वजह यह थी कि वह शुरू से ही दफ्तर के काम के बजाय मालिक के बंगले के चक्कर लगाने को महत्व देता था। सवेरे-शाम उसका स्कूटर मालिक के बंगले के पोर्च में देखा जा सकता था। मालिक से बहुत से निजी काम वह इसरार करके ले लेता और फिर  उन्हें कराने के लिए दौड़ता रहता था। दफ्तर में जोगिन्दर की रणनीति का पता सबको चल गया था, इसलिए उसके अफसर उससे छेड़छाड़ नहीं करते थे।

जोगिन्दर ने अपने सूत्र खूब फैला रखे थे, इसीलिए उसे कोई भी काम करा लेने में दिक्कत नहीं होती थी। वह खुशामद से लेकर पैसे तक फेंकता चलता था, इसीलिए उसका काम कहीं रुकता नहीं था। झूठी आत्मीयता दिखाने और बात करने में वह सिद्ध था। जिससे काम कराना हो उसकी पारिवारिक समस्याओं और निजी दिक्कतों से वह बात शुरू करता था और फिर धीरे-धीरे मुद्दे की बात पर आता था। उनके भी बहुत से काम वह साध देता था। इसीलिए उसका संपर्क-क्षेत्र निरन्तर व्यापक होता जाता था। लगता था कोई काम उसके लिए असंभव नहीं है। लेकिन आदमी के पद से हटते ही जोगिन्दर की प्रेम की टोंटी उसके लिए कस जाती थी।

जब कभी वह मिलता, उसके चेहरे पर  आत्मसंतोष की चमक दिखती थी। अपने रंग-ढंग के प्रति कोई मलाल उसके चेहरे पर नज़र नहीं आता था। मैं जानता था कि वह अपनी कारगुज़ारियों से बहुतों का हक छीन रहा है, बहुतों को दुखी कर रहा है, लेकिन उसे इन सब बातों की परवाह नहीं थी।

वह कभी-कभी कॉफी हाउस में टकरा जाता था और फिर थोड़ा वक्त उसके साथ गुज़र जाता था। मेरी तरफ से कोई कोशिश न होने पर भी वह बात को अपनी ज़िन्दगी के ‘स्टाइल’ पर ले आता था और फिर उसे उचित ठहराने के लिए तर्क देने लगता। ऐसे मौकों पर वह किसी अपराध-बोध से ग्रस्त लगता था। वह कहता, ‘ज़िन्दगी के साथ एडजस्ट करना ज़रूरी है। सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट का ज़माना है। जो आज के ज़माने में अपने को ढाल नहीं पता वह उसी तरह खत्म हो जाता है जैसे अनेक आदिम जीव खत्म हो गये।’

कई बार मेरे साथ राजीव भी होता। वह मेरे मुकाबले ज़्यादा असहिष्णु है। वह नाखुश होकर कहता, ‘फ़िटेस्ट से तुम्हारा मतलब क्या है? फ़िट कौन है?’

जोगिन्दर का चेहरा उतर जाता, लेकिन वह हार नहीं मानता था। कहता, ‘फ़िट से मेरा मतलब है कि अब मैटीरियलिज़्म का ज़माना है। पैसे की कीमत है। पैसे के बिना सोसाइटी में कोई इज़्ज़त नहीं होती। ‘वैल्यूज़ फैल्यूज़’ की बातें अब बेमतलब हो गयी हैं। इस बात को समझना चाहिए।’

राजीव भीतर दबे गुस्से से पहलू बदलकर कहता, ‘पैसे तो सभी कमाते हैं, लेकिन सवाल यह है कि कितना, किस तरह से और कितनी तेज़ी से पैसा चाहिए। बहुत ज़्यादा और बहुत तेज़ी से पैसा चाहिए तो वह गलत तरीके से ही मिल सकता है। सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट का सिद्धान्त आदमी पर लागू नहीं होता। आदमी का काम सिर्फ गलत चीजों के हिसाब से अपने को ढालना ही नहीं, ज़माने को बिगड़ने से रोकना भी है। तुम अपने तरीकों को जस्टिफाई करने के लिए ये सब गलत तर्क मत दो।’

जोगिन्दर अपनी उंगलियों को तोड़ने मरोड़ने लगता और उसकी नज़रें झुक जातीं। वह अक्सर जवाब देता, ‘बिना पैसे के ज़िन्दगी की ज़रूरतें पूरी नहीं हो सकतीं। ज़िन्दगी में थोड़ा बेरहम और स्वार्थी होना ही पड़ता है।’

राजीव का गुस्सा उसके चेहरे पर झलक जाता। बात को खत्म करते हुए वह कड़वाहट से कहता, ‘ठीक कहते हो। पैसा ज़रूर चाहिए। सवाल सिर्फ यह  है कि वह आदमी की तरह कमाया जाए या केंचुए,लोमड़ी और सुअर की तरह।’

ऐसे मौकों पर जोगिन्दर का चेहरा लाल हो जाता और वह जल्दी कॉफी खत्म करके उठ जाता।

लेकिन हमारी बहसों से उसकी दिनचर्या और उसकी ज़िन्दगी में कोई फर्क नहीं पड़ा। वह बराबर अपने मालिक के बंगले के चक्कर लगाता था और फिर उसके काम के लिए शहर में दौड़ता रहता था। हर चार छह महीने में उसके पास नया स्कूटर होता। उसके हाथों में अंगूठियों की संख्या भी बराबर बढ़ रही थी।

धीरे-धीरे उसका शरीर बेडौल हो रहा था। उसकी तोंद बेतरह बढ़ रही थी और उसकी आंखों के नीचे की खाल झूलने लगी थी। ये सब उसकी अनियंत्रित जीवन-शैली के सबूत थे।

फिर एक बार मुझे भ्रम हुआ जैसे उसके माथे के पास का कुछ हिस्सा पारदर्शी हो गया हो। मैंने उसे बार-बार देखा, लेकिन वह हिस्सा  मुझे नज़र नहीं आया। अगली बार मुझे लगा जैसे उसके चेहरे का कुछ और हिस्सा गायब हो गया हो। इस बार मुझसे उससे पूछे बिना नहीं रहा गया।

उसने कुछ चिन्तित भाव से उत्तर दिया, ‘तुम ठीक कह रहे हो। कोई अजीब बीमारी है। मुझे भी शुरू में पता नहीं चला। दफ्तर में लोगों ने बताया, तब शीशे में गौर से देखा। डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन बीमारी उनकी समझ में नहीं आ रही है। रोग बढ़ रहा है। लोगों ने बाहर जांच कराने का सुझाव दिया है।’

अब वह जब भी मिलता, उसके चेहरे का कुछ और हिस्सा गायब मिलता। अन्ततः वह एक अजूबा बनने लगा। लोग उसके पास से गुज़रने पर रुक कर उसे देखने लगते।

फिर  वह कई दिन तक नहीं दिखा। एक दिन बाज़ार में किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। देखा, एक मोटा आदमी था, लेकिन गर्मी के बावजूद ऊनी टोपा पहने था और आंखों पर काला चश्मा। गरज़ यह कि पूरा चेहरा ढका था।

आवाज़ से मैं जान गया कि वह जोगिन्दर था। बोला, ‘मुंबई गया था, लेकिन वहां डॉक्टरों ने रोग लाइलाज बतलाया। चेहरा अब पूरी तरह गायब हो गया है, इसीलिए मुझे ‘इनविज़िबिल मैन’ की तरह यह टोपा और चश्मा पहनना पड़ा। टोपे चश्मे के बिना धड़ के ऊपर कुछ नहीं रहता।’

फिर कुछ रुक कर बोला, ‘मैंने रोग का कारण समझ लिया है, लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं है। ज़िन्दगी में कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। नो रिग्रेट्स। अगर बाकी सब कुछ ठीक-ठाक चले जो चेहरे के बिना काम चल सकता है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 265 – वासुदेव: सर्वम् ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆   संजय उवाच # 265 ☆ वासुदेव: सर्वम्… ?

अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

(10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।

ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करे, बहन, बहन से द्वेष न करे, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

(अध्याय 4, श्लोक 71)

अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति।  ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

(गीता 10।39)

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥

(11/ 7)

अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।

एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

(6।30)

अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’

इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥

अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।

संपृक्त श्रीमद्भागवत के इस अनहद नाद को सुनिए-

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम

 (2।9।32)

अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ। 

सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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