(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी रचना – आज लुटेरे घूम रहे हैं… । आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “पर्यावरण से जुड़ाव…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 220 ☆पर्यावरण से जुड़ाव… ☆
कार्तिक मास जीवन को प्रकाशित करने का, देवउठनी का, जगमग दीपमाला का, अन्नकूट का प्रतीक है। केवल स्वयं तक सीमित न रहकर चारों खुशियों को बिखेरने का मार्ग। आँवला, तुलसी, गन्ना, सिंघाड़ा, सीताफल, चनाभाजी, फली, काचरिया साथ ही सभी सब्जियाँ। इनका पूजन सनातनी पूरे मास किसी न किसी रुप में करते हैं। खील- बताशे संग मिठाइयों को एक दूसरे के साथ बाँटकर कर खाना।
इस मास उपहार में मेवा मिष्ठान के साथ फलों की टोकरी भी उपहार में देने का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है। देने का भाव जहाँ एक ओर आपमें उम्मीद जगाता हैं वहीं दूसरी ओर प्रकृति आपको इसे कई गुना करके लौटाती है। इससे सकारात्मकता व प्रसन्नता का भाव बढ़ता है।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 28 – आदर्शलोक का असली चेहरा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
आदर्शलोक की कहानी आज से कुछ साल पहले की है। एक दिन, वहाँ के राजमहल के मुख्य दरवाज़े पर एक नोटिस टांगा गया – “नया राजा चुना जाएगा। जो भी राजा बनना चाहता है, उसे बिना झूठ बोले, बिना चोरी किए, और बिना रिश्वत लिए पाँच साल तक इस राज्य को चलाना होगा।”
लोगों ने पढ़ा और हँस दिए। क्योंकि यहाँ तो हर कोई जानता था कि बिना इन तीनों के कोई भी राजा बन ही नहीं सकता। खैर, एक दिन एक महात्मा जी आए, जिनका नाम था सत्यानंद। उन्होंने कहा, “मैं ये चुनौती स्वीकार करता हूँ। मुझे राजा बनाइए, और देखिए कैसे मैं आदर्शलोक को सच में आदर्श बनाऊँगा।”
सत्यानंद जी राजा बने। पहले ही दिन उन्होंने मंत्रियों की सभा बुलाई और कहा, “अब से कोई भी झूठ नहीं बोलेगा। सभी लोग सच्चाई के साथ चलेंगे।”
मंत्री हक्का-बक्का रह गए। “महाराज,” एक ने कहा, “झूठ तो हमारी सरकारी नीतियों का आधार है। अगर हम सच्चाई बोलने लगे तो जनता जान जाएगी कि हम कुछ काम नहीं करते। फिर तो हमें कुर्सी से हाथ धोना पड़ेगा।”
“तो धो लो,” सत्यानंद ने आदेश दिया।
अब झूठ बंद हो गया, और राज्य की सच्चाई सामने आ गई। किसान बोले, “हमारी फसलें सूख गई हैं, और सरकारी मदद कागजों में ही मिल रही है।” व्यापारी बोले, “टैक्स इतना ज्यादा है कि हमें चोरी करनी पड़ती है।” अफसर बोले, “हमारी तनख्वाह में भ्रष्टाचार शामिल है, बिना रिश्वत के हम गुजारा नहीं कर सकते।”
राज्य में हड़कंप मच गया। जनता सड़कों पर आ गई। सभी अपनी सच्चाई बयां करने लगे। सत्यानंद जी ने सोचा कि अब कुछ और सुधार करना चाहिए। उन्होंने आदेश दिया, “अब से कोई चोरी नहीं करेगा।”
मंत्रियों ने माथा पकड़ा, “महाराज, अगर चोरी बंद हो गई, तो हम क्या खाएँगे?”
“सचाई से पेट भरो,” सत्यानंद ने फिर आदेश दिया।
अब बिना चोरी के मंत्री और अफसर भूखे मरने लगे। उन्हें याद आने लगा कि पहले के राजा कितने समझदार थे, जो चोरी को अनकहा अधिकार मानते थे। एक मंत्री ने कहा, “महाराज, जनता तो खुश है, लेकिन हम क्या करें? हमारे घरों में चूल्हा तक नहीं जल रहा।”
सत्यानंद बोले, “भ्रष्टाचार भी बंद करना पड़ेगा।”
यह सुनते ही पूरे दरबार में चुप्पी छा गई। भ्रष्टाचार बंद! मंत्रियों की आत्माएँ काँप उठीं। एक ने हिम्मत जुटाकर कहा, “महाराज, अगर रिश्वत लेना बंद कर दिया, तो हम राजमहल तक पहुँचेंगे कैसे? हमारी गाड़ियाँ तो जनता के पैसों से चलती हैं।”
“पैदल चलो, स्वास्थ्य अच्छा रहेगा,” सत्यानंद ने हंसते हुए कहा।
अब मंत्री और अफसर पैदल चलने लगे। राज्य की सड़कों पर उन्हें देखकर लोग हँसते और कहते, “देखो, ये हैं हमारे राजा के सुधार।”
आखिरकार, पाँच साल बाद चुनाव का समय आया। सत्यानंद ने अपने कार्यकाल की उपलब्धियाँ गिनाईं – “राज्य में सच्चाई है, कोई चोरी नहीं करता, और रिश्वतखोरी खत्म हो गई है।”
लेकिन जनता का धैर्य अब टूट चुका था। किसान, व्यापारी, मजदूर सब भूखों मर रहे थे। राजमहल के गेट पर भीड़ जमा हो गई और नारे लगे, “हमें हमारा पुराना राजा वापस चाहिए!”
सत्यानंद जी का आदर्शलोक अब स्वप्नलोक बन चुका था। लोग हंसते हुए बोले, “राजा का आदर्शवाद हमारे पेट नहीं भर सकता। हम मिलावटी दूध पीने वाले शुद्ध दूध खाक पचायेंगे?”
अगले चुनाव में एक नया राजा चुना गया। उसने आते ही घोषणा की, “मैं फिर से सबकुछ वैसे ही करूँगा, जैसा पहले था। झूठ, चोरी, और रिश्वत का राज वापस आएगा। और हम फिर से खुशहाल होंगे।”
आदर्शलोक वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया। लोग खुश थे, मंत्री अमीर थे, और अफसर फिर से मोटी गाड़ियों में घूमने लगे।
और सत्यानंद? वह राज्य छोड़कर जंगल में ध्यान करने चले गए। कहते हैं, अब वो भी झूठ बोलते हैं कि “आदर्शलोक एक दिन आएगा।”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆
आलेख – भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
☆
घर-आंगन में आग लग रही। सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर- छाजन।
तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बंधन।
दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला,
देश हमारा जल रहा है, कौन बुझानेवाला
– डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन
विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है। आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं। इंटरनेट और मोबाइल दूरी व समय की सीमाओं को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं। इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं। दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है। रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं। लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं। बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याओ का आधार तैयार किया है। दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था – ”अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए”। बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है। एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाओ को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुओ के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाओ से प्रेरित होता है। औद्योगिक कचरे को बढ़ाता है ! ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देता है। पर्यावरण प्रदूषण की ऐसी आग को जन्म देता है जिसे बुझाने वाला सचमुच कोई नहीं है।
भोपाल गैस त्रासदी को वर्षौं हो गए हैं। वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में रिस कर प्रति वर्ष क्षेत्र को और अधिक जहरीला बना रहा है। कंपनी को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिये कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे। परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के भस्मकों में इसे जला कर इस औद्योगिक कचरे को नष्ट करना चाहती है।
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण के खतरे बढ़ रहे है।
एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है। इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा।
प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं। इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन, रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने, फ्लोरेसेंट ट्यूब, बल्ब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें आदि भी बेकार हो जाती हैं। जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा औद्योगिक कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है। कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी।
इनमें धातुओ व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है। लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं। अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है। इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्चे होते हैं। इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है।
मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से आजीविका कमाने की बनी हुई है।
उर्जा उत्पादन हेतु ताप विद्युत संयंत्र, बड़े बाँध, प्रत्यक्ष, परोक्ष बहुत अधिक मात्रा में औद्योगिक कचरा फैला रहे हैं . सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं। राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं। सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है। इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें। परमाणु ऊर्जा के निमा्रण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी.
एशियन डेवलपमेट बैक ने हाल ही गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है। गंगा के किनारे के नगरों की पानी, ससवीरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि व्यापक औद्योगिक कचरे, भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से जलवायु परिवर्तन हो रहा है . मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है। रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक संतुलन, कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने आदि से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है। इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं। औद्योगिक अपशिष्ट से दिल्ली की जीवन धारा यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही ‘यमुना एक्शन प्लान’ जैसी कई योजनाओ द्वारा सफाई अभियान चला रही है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं । किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए ‘इको सिस्टम’ की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता।
पर्यटन जनित डिस्पोजेबल प्लास्टिक कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है, जिस पर त्वरित नियंत्रण जरूरी है .सरकार ने रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है। केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है। २५ माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों काकचरा डालने पर रोक रहेगी। नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे। पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है। इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है। इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है। कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती हे जो वायु प्रदूषण फैलाती है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है। गाय बैल आदि जानवर पालिथिन में चिपके खाद्य पदार्थ खाने के प्रलोभन में पतली पालीथिन की पन्नियां भी गुटक जाते हैं जो उनके पेट में फँस कर रह जाती हैं एवं उनकी मृत्यु हो जाती है। अतः पालीथिन पर प्रभावी नियंत्रण जरूरी है।
कहा जा सकता है कि औद्योगिक कचरा प्रगति का दूसरा पहलू है जिससे बचना मुश्किल है, पर उसके समुचित तरीके से डिस्पोजल से ही हम मानव जीवन और प्रगति के बीच तादात्म्य बना कर विज्ञान के वरदान को अभिशाप बनने से रोक सकते हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय बालकथा– “जादू से उबला दूध”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 194 ☆
☆ बाल कथा – जादू से उबला दूध☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
“आओ रमेश,” विकास ने रमेश को बुलाते हुए कहा, “मैं जादू से दूध उबाल रहा हूँ। तुम भी देख लो।”
“हाँ, क्यों नहीं?, मैं भी तो देखें कि जादू से दूध कैसे उबाला जाता है?” रमेश ने बैठते हुए कहा।
” भाइयों, आपसे मेरा एक निवेदन है कि आप लोग मैं जिधर देखूँ उधर मत देखना। इस से जादू का असर चला जायेगा और आकाश से आने वाली बिजली से यह दूध गरम नहीं होगा।” विकास ने कहा और एक कटोरी में बोतल से दूध उँडेल दिया।
“अब मैं मंत्र पढूँगा। आप लोग इस दूध की कटोरी की ओर देखना।” यह कहकर विकास ने आसमान की ओर मुँह करके अपना एक हाथ आकाश की और बढ़ाया, ” ऐ मेरे हुक्म की गुलाम बिजली! चल जल्दी आ! और इस दूध की कटोरी में उतर जा।”
विकास एक दो बार हाथ को झटक कर दूध की कटोरी के पास लाया, “झट आ जा। लो वो आई,” कहने के साथ विकास ने दूध की कटोरी की ओर निगाहें डाली। उस दूध की कटोरी में गरमागरम भाप उठ रही थी। देखते ही देखते वह दूध उबलने लगा। विकास ने दूध की कटोरी उठा कर दो चार दोस्तों को छूने के लिए हाथ में दी, ” देख लो, यह दूध गरम है?”
“हाँ,” नीतिन ने कहा, “मैंने पहले भी कटोरी को छू कर देखा था। वह ठंडी थी और दूध भी ठंड था।”
अब विकास ने कटोरी का दूध बाहर फेंक दिया। तब बोला, ” यह दूध जादू से नहीं उबला था।”
“फिर?” रमेश ने पूछा।
“मैं ने मंतर पढ़ने और बिजली को बुलाने के लिए ढोंग के बहाने इस दूध में चूने का डल्ला डाल दिया था। इससे दूध गरम हो कर उबलने लगा। यह कोई जादू नहीं है।”
“यह एक रासायनिक क्रिया है इसमें चूना दूध में उपस्थित पानी से क्रिया करके ऊष्मा उत्पन्न करता है। जिससे दूध गरम हो कर उबलने लगता है।” विकास ने यह कहा तो सबने तालियां बजा दी।
“लेकिन ऐसे दूध को खानेपीने में उपयोग न करें दोस्तों!” विकास ने सचेत किया।
(पूर्वसूत्र- “सी मिस्टर लिमये, फॉर मी हा प्रश्न फक्त पैशाचा कधीच नव्हता. हिअर इज ह्यूज अमाऊंट ऑफ इनफ्लो ऑफ फंडस् रेगुलरली फ्रॉम अॅब्राॅड. हा प्रश्न प्रिन्सिपलचा होता. तरीही वुईथ एक्स्ट्रीम डिससॅटिस्फॅक्शन त्यादिवशी मी त्यांना त्यांच्या म्हणण्यानुसार ८५०/-रुपये पाठवून दिले. इट्स नाईस यू कम हिअर पर्सनली टू मीट मी. सो नाऊ मॅटर इज ओव्हर फॉर मी. सो प्लीज हे पैसे घ्यायचा मला आग्रह करू नका. माय गॉड विल गिव्ह इट टू मी इन वन वे आॅर आदर. “
यात न पटण्यासारखं काही नसलं तरी मला ते स्वीकारता येईना “मॅडम प्लीज. मलाही असाच ठाम विश्वास आहे मॅडम. माय गॉड ऑलसो वुईल स्क्वेअर अप माय लॉस इन हीज ओन वे. प्लीज एक्सेप्ट इट मॅडम. प्लीज फॉर माय सेक”)
त्या हसल्या. अव्हेर न करता त्यांनी ते पैसे स्वीकारले. तरीही ८५०/- रुपये गेले कुठे ही रुखरुख मनात होतीच. पण ती फार काळ टिकली नाही. कारण मी परत येताच सुहास गर्दे सुजाताला घेऊन माझ्या पाठोपाठ माझ्या केबिनमधे आले. जे घडलं त्यात चूक सुजाताचीच होती आणि तिला ती कन्फेस करायची होती.
“समोरची गर्दी कमी झाल्यावर त्या दिवशी सुजाताने ‘लिटिल् फ्लॉवर’ची कॅश मोजायला घेतली होती. ” सुहास गर्दे सांगू लागले. ” पन्नास रुपयांच्या नोटा मोजायला तिने सुरुवात केली तेवढ्यात पेट्रोल पंपाचा माणूस पेट्रोल खरेदीच्या अॅडव्हान्स पेमेंटच्या डी. डी. साठी कॅश भरायला धावत पळत येऊन तिच्या काउंटर समोर उभा राहीला. नेहमीप्रमाणे त्याला डी. डी ताबडतोब हवा होता. कॅश मोजून घेतल्याशिवाय डीडी देता येत नव्हता. कॅश-अवर्स संपत आलेले. त्यात सुजाताला रुटीन मेडिकल चेकअपसाठीची अपॉइंटमेंट असल्याने काम आवरून जायची घाई होती. त्यामुळे ‘लिटिल् फ्लॉवर’ची नुकतीच मोजायला सुरुवात केलेली कॅश नंतर मोजायची म्हणून तिने तशीच काउंटरवर बाजूला सरकवून ठेवली आणि पेट्रोल पंपाची कॅश मोजायला घेतली. त्यात नेहमीप्रमाणे एक रुपयापासून शंभर रुपयापर्यंतच्या नोटांचा खच होता आणि त्याही सगळ्या जुन्या नोटा! ती कॅश गडबडीने मोजून झाली तेव्हा तिच्या लक्षात आले की त्यात आठशे पन्नास रुपये जास्त आहेत. नाईलाजाने पुन्हा सगळी कॅश मोजून तिने खात्री करून घेतली आणि मग शिक्का मारलेल्या रिसिटबरैबर जास्ती आलेले ८५०/- रुपयेही पेट्रोल पंपाच्या माणसाला तिने परत केले आणि ‘लिटिल् फ्लावर’ची कॅश मोजायला घेतली. ती कॅश मोजून झाल्यावर त्यात ८५०/- रुपये कमी असल्याचं तिच्या लक्षात आलं. आधी अर्धवट मोजून बाजूला सरकवून ठेवलेल्या त्या कॅशमधल्या पन्नास रुपयांच्या १७ नोटा पेट्रोल पंपाची कॅश मोजायला घेतली तेव्हा त्यात अनवधानाने मिसळून गेल्याने त्यात ८५०/- रुपये जास्त येत होते. हा घोळ लक्षात येताच सुजाता घाबरली. कारण तोवर पेट्रोल पंपाचा ड्राफ्ट काढायला आलेला माणूस ड्राफ्ट घेऊन परत गेला होता. “
“तो माणूस रोज बँकेत येणार आहे ना? “
“नाही सर. रोज त्यांचे दिवाणजी येतात. शनिवारी ते रजेवर असल्याने दुसऱ्या नोकराला पाठवलं होतं. “
” ठीक आहे, पण पेट्रोल पंपाचे मालक तुमच्या ओळखीचे आहेत ना? त्यांना भेटून त्याच दिवशी हे सांगायला हवं होतं ना लगेच. “
“हो सर.. पण.. ” बोलता बोलता सुहास गर्दे कांही क्षण मान खाली घालून गप्प बसले.
” मी इतर दोन-तीन स्टाफ मेंबर्सना घेऊन शनिवारी लगेच तिथे गेलो होतो सर. पण… “
“पण काय? “
“त्या नोकराने सरळसरळ हात वर केले. ८५०/- रुपये मला परत दिलेच नव्हते म्हणाला. मालकाने त्याला दमात घेतलं तेव्हा पॅंटचे खिसे उलटे करून दाखवत त्याने रडतभेकत कांगावा सुरू केलान्. “
“म्हणून मग तुम्ही मिस्. डिसोझाना फोन केलात? ही चूक कॅश काऊंटिंगमधे झालेल्या चुकीपेक्षा जास्त गंभीर होती सुहास. ” ती कशी हे मी त्यांना समजून सांगितलं. मी त्यांना त्यांचे पैसे परत करायला गेलो तेव्हा तिथं जे जे घडलं त्या सगळ्याची त्यांना कल्पना दिली. ते सगळं ऐकताना सुजाताची मान शरमेनं खाली गेली होती. तिचे डोळे भरून आले होते. ती असहायपणे उठली. न बोलता जड पावलांनी बाहेर गेली.
त्यानंतर पगार झाला त्यादिवशी मनाशी कांही ठरवून सुजाता केबिनचे दार ढकलून बाहेर उभी राहिली.
” मी आत येऊ सर? ” तिने विचारलं. ती बरीचशी सावरलेली होती.
“ये.. बैस. काय हवंय? रजा? ” ती कसनुसं हसली. मानेनंच ‘नाही’ म्हणाली. मुठीत घट्ट धरुन धरलेली शंभर रुपयांची नोट तिने माझ्यापुढे धरुन ती कशीबशी उभी होती.
“हे काय? “
” सर.. ” तिचा आवाज भरुन आला. “तुम्ही होतात म्हणून त्यावेळी मला सांभाळून घेतलंत सर. माझ्याऐवजी तुम्ही स्वतः पैसे भरलेत. त्यावेळेस खरं तर ते मी स्वतः भरायला हवे होते पण तेव्हा तेवढे पैसे नव्हते माझ्याजवळ. आता दर महिन्याला थोडे थोडे करून ते मी परत करणाराय सर… ” ती म्हणाली.
ऐकलं आणि मी मनातून थोडासा हाललो. याच सुजाताबद्दल क्षणभर कां होईना पण माझ्या मनात संशय निर्माण झालेला होता. नशीब रागाच्या भरात मी तो बोलून दाखवला नव्हता. नाहीतर….? नुसत्या कल्पनेनेच मला अस्वस्थ वाटू लागलं. नकळत कां होईना योग्यवेळी योग्य निर्णय घेतल्याचं समाधान त्या अस्वस्थतेइतकंच मोलाचं होतं! घडून गेलेल्या आत्तापर्यंतच्या या सगळ्या प्रसंगांच्या मालिकेचा हा समाधानकारक समारोप आहे असं मला वाटलं खरं, पण ते तसं नव्हतं. मी सुजाताची समजूत घातली. पैसे परत करायची आवश्यकता नाहीये हे तिच्या गळी उतरवायचा प्रयत्न केला. पण तिला ते पटेना. अखेर मिस् डिसुझांना जे उत्स्फूर्तपणे सांगितलं होतं तेच सुजाताला सांगावंसं वाटलं. म्हटलं, “सुजाता, तुला माझे पैसे परत करावेसे वाटले हेच मला खूप महत्त्वाचं वाटतं. पण अशी ओढाताण करून तू ते पैसे परत करायची खरंच काही गरज नाहीये. तुला माझं नुकसान होऊ नये असं वाटतंय ना? मग झालं तर. मिस्. डिसोझांना सांगितलं तेच तुला पुन्हा सांगतो, तू खरंच काळजी करू नकोस. माय गॉड विल गिव्ह इट टू मी इन वन वे ऑर अदर. माझं म्हणणं नाराजीने स्वीकारल्यासारखी ती उठली. मला वाटलं, या सर्वच प्रकरणाला मी योग्य पद्धतीने पूर्णविराम दिलाय. परंतु ते तसं नव्हतं. तो पूर्णविराम नव्हे तर अर्धविराम होता, हे मला कुठं ठाऊक होतं? प्रत्येकाच्याच विचारांचा आणि मनोभूमिकांचा कस पहाणाऱ्या या प्रसंगांचे धागेदोरे भविष्यात घडू पहाणाऱ्या अतर्क्याशी जोडले गेलेले आहेत हे त्या क्षणी कुणालाच ज्ञात नव्हतं, पण पुढे घडू पहाणारं, माझ्या मनावर आनंदाचा अमीट ठसा उमटवणारं ते अतर्क्य योग्य वेळेची वाट पहात होतं हे पुढं सगळं घडून गेल्यानंतर मला समजलं तेव्हा मी अंतर्बाह्य थरारून गेलो होतो! ! इतक्या वर्षानंतर आज ते सगळं असं आठवणंसुद्धा माझ्यासाठी खूप आनंददायी आहे!
सुजाताला तिची समजूत घालून मी परत पाठवलं आणि कामाचा ढीग उपसायला सुरुवात केली. तो दिवस मावळला. पुढचे कांही दिवस रोज नवे नवे प्रश्न सोबत घेऊन येणारे नेहमीचे रुटीन पुन्हा सुरू झाले. तो प्रसंग पूर्णतः विस्मरणांत जाणं शक्य नव्हतंच. पण तरीही वाढत्या कामांच्या ओघात तो प्रसंग, त्याची जाणीव आणि आठवण सगळंच थोडं मागं पडलं. पुढे बरेच दिवस मधे उलटले आणि त्या प्रसंगाची पुन्हा आठवण व्हायला माझ्या आईचं अचानक माझ्याकडे रहायला येणं निमित्त झालं.
मी सोलापूरला फॅमिली शिफ्ट केलेली नव्हती. पण बऱ्यापैकी मोठी आणि सोयीची जागा भाड्याने घेतलेली होती. कधी शाळेला सुट्ट्या लागल्या की आरती/सलिल, तर कधी शक्य असेल तेव्हा आई तिकडे येऊन रहात. आई आली तोवर ‘लिटिल फ्लाॅवर’च्या घटनेला तीन आठवडे उलटून गेले होते. पण आई येणार म्हटलं तेव्हा त्या घटनेची हटकून आठवण झाली त्याला कारण म्हणजे माझ्या बचत खात्यात शिल्लक असलेले ते फक्त पाच रुपये! त्याशिवाय खिशात होती ती जेमतेम दीड दोनशे रुपये एवढीच रोख शिल्लक. आई आल्यावर आमचा दोन्ही वेळचा स्वैपाक ती घरीच करणार म्हणजे आवश्यक ते सगळं सामान आणणं आलंच. हा विचारच त्या घटनेची आठवण ठळक करून गेला. ‘पण आता ते विसरायला हवं. निदान ते सगळं आईला सांगत बसायला तर नकोच. ‘असा विचार करून पाच-सहा दिवसांनी पगार होणार असल्याने तोवर पुरेल एवढ्याच आवश्यक वस्तू मी आणून दिल्या. त्यानंतर खिशात शिल्लक राहिली फक्त शंभर रुपयांची एक नोट!
त्या शंभर रुपयांच्या नोटेतच पुढे घडू पहाणाऱ्या आक्रिताचे धागेदोरे लपलेले होते हे त्याक्षणी मात्र मला माहित असायचा प्रश्नच नव्हता!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “प्रीत…” ।)