हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #238 ☆ आज लुटेरे घूम रहे हैं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  आपकी रचना आज लुटेरे घूम रहे हैं…  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 238 ☆

☆आज लुटेरे घूम रहे हैं☆ श्री संतोष नेमा ☆

भीड़ भाड़ से बच  कर रहना

जेब कटे तो फिर  ना कहना

रखते नजर जेब पर आपकी

पर्स  संभालो  अपनी  बहना

साथ वक्त के तुम भी ढहना

पहनो मत स्वर्ण  के  गहना

आज   लुटेरे   घूम   रहे  हैं

गड़ा के अपने लोभी  नयना

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 237 ☆ पैसा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 237 – विजय साहित्य ?

☆ पैसा…! ☆

दाम करी काम। म्हण झाली खरी ।

लक्ष्मी घरोघरी। वास करी ।। 1।।

*

मिळविण्या तिला। झटे रंक राव।

पैशाचेच नाव। चराचरी ।। 2।।

*

पैसा दुःख मूळ। पैसाच जीवन।

हरवले मन। पैशासाठी ।। 3।।

*

जे जे हवे ते ते। पैसा देतो सारे ।

पैशाचेच वारे। आसमंती ।। 4 ।।

*

पैशावर आता। जन्म मृत्यू तोल ।

षडरिपू बोल। पैशातून।। 5 ।।

*

पैसा जातो म्हणे। पैसे वाल्याकडे।

गरीबाचे रडे। निर्वासित ।। 6 ।।

*

धनिकांचे मढे। फुलांचेच हार ।

द्रव्य अपहार। लेकरात ।। 7 ।।

*

माणसाच्या साठी। पैसा आहे माया।

स्वार्थ लोभी छाया। अपकारी ।। 8 ।।

*

गरजेला जेव्हा। तनाचा बाजार ।

पैशाचा आजार। बळावतो ।। 9 ।।

*

जगविण्या देह। श्वाच्छोश्वास जसा।

पैसा हवा तसा। निरंकारी ।। 10 ।।

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १६ — दैवासुरसम्पद्विभागयोगः— (श्लोक ११ ते २३) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १६ — दैवासुरसम्पद्विभागयोगः— (श्लोक ११ ते २३) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः । 

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥ ११ ॥

*

चिंता अपरिमित जन्मभराची ओझे वाहत जगती

विषयभोग आनंद श्रेष्ठतम मानुनि जीवन जगती ॥११॥

*

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः । 

ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्‌ ॥ १२ ॥

*

पाशांनी आशांच्या बद्ध बाधा कामक्रोधाची

अर्थसंग्रह करित अन्याये तृष्णा विषयभोगाची ॥१२॥

*

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌ । 

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌ ॥ १३ ॥

*

प्राप्त जाहले जे मजला करण्या मनोरथ पूर्ती

धनी मी विपुल धनाचा होईल पुनरपि धनप्राप्ती ॥१३॥

*

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि । 

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ १४ ॥

*

वधिले शत्रूंना मी माझ्या आणखीनही वधेन मी

सिद्धीप्राप्त ईश्वर भोक्ता बलदंड मी सदा सुखी मी ॥१४॥

*

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया । 

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ १५ ॥ 

*

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः । 

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ १६ ॥

*

धनवान मी कुलवान मी मजसम ना येथे कोणी

यज्ञ करूनी दाना देइन जीवन जगेन आनंदानी

मोहाच्या या जाळ्यात अडकले अज्ञानाने भ्रांतचित्ती

कामाच्या भोगात गुंतुती महाऽपवित्र नरकात गती ॥१५, १६॥

*

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । 

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌ ॥ १७ ॥

*

धनमान मदाने होउनी गर्विष्ठ उन्मत्त

पाखंडी शास्त्रविधीहीन यज्ञासी करतात ॥१७॥

*

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः । 

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १८ ॥

*

अहंकार बल दर्प कामना संतापाने ग्रस्त

परनिंदेच्या आनंदात दंग होउनी स्वस्थ

देहस्थ आपुल्या इतरांच्या माझी ना जाण

सदैव माझा द्वेष करती धनञ्जया तू जाण ॥१८॥ 

*

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌ । 

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १९ ॥

*

क्रूर द्वेषी त्या पाप्यांना कृपा माझी ना लाभे 

माझ्याकरवी संसारीं त्यां योनी आसुरी लाभे ॥१९॥ 

*

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । 

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌ ॥ २० ॥

*

ऐशा मूढा मी न प्राप्त हो जन्मोजन्मांतरी

प्रतिजन्मी त्यां जन्म लाभतो योनी आसूरी 

सदैव त्यांना अधःपात होउनिया नीचगती

घोर नरक त्यांच्या वाटे जाणी रे तनयकुंती ॥२०॥ 

*

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । 

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌ ॥ २१ ॥

*

काम-क्रोध-लोभाची त्रिविध द्वारे नरकाला

नाश करूनी अधोगतीला नेती आत्म्याला

प्राप्त करण्यासी सद्गती विवेक जागवुनी

त्याग करा या तिन्ही गुणांचा सद्गुण जोपासुनी ॥२१॥

*

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः । 

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌ ॥ २२ ॥

*

नरक कवाडे मुक्त जाहला कल्याणाच्या आचरणे

प्राप्त तयासी परम गती ममस्वरूपी विलीन होणे ॥२२॥

*

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । 

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ॥ २३ ॥

*

स्वैर जयांचे असे आचरण शास्त्रविधी त्यागुनी

सुखही नाही सिद्धी नाही परमगती ना कोठुनी ॥२३॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसंपद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६॥

*

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी दैवासुरसंपद्विभागयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित षोडशोऽध्याय संपूर्ण ॥१६॥

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 220 ☆ पर्यावरण से जुड़ाव… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना पर्यावरण से जुड़ाव। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 220 ☆ पर्यावरण से जुड़ाव

कार्तिक मास जीवन को प्रकाशित करने का, देवउठनी का, जगमग दीपमाला का, अन्नकूट का प्रतीक है। केवल स्वयं तक सीमित न रहकर चारों खुशियों को बिखेरने का मार्ग। आँवला, तुलसी, गन्ना, सिंघाड़ा, सीताफल, चनाभाजी, फली, काचरिया साथ ही सभी सब्जियाँ। इनका पूजन सनातनी पूरे मास किसी न किसी रुप में करते हैं। खील- बताशे संग मिठाइयों को एक दूसरे के साथ बाँटकर कर खाना।

इस मास उपहार में मेवा मिष्ठान के साथ फलों की टोकरी भी उपहार में देने का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है। देने का भाव जहाँ एक ओर आपमें उम्मीद जगाता हैं वहीं दूसरी ओर प्रकृति आपको इसे कई गुना करके लौटाती है। इससे सकारात्मकता व प्रसन्नता का भाव बढ़ता है।

आइए मिलकर तुलसी आराधना करें…

हरी भरी तुलसी से, आँगन महकता है

वास्तु दोष दूर होते, आप भी लगाइए।

*

श्याम जी को प्यारी लगे, मस्तक विराज रही

घर -घर शोभा बढ़े, इसको सजाइए।।

*

गीत सभी भाव भरे, भक्ति मन शक्ति जगे

ज्योति हो उम्मीद वाली, उसको बढ़ाइए।

*

रोग सारे दूर होते, तुलसी सेवन करें

हरि की प्रिया कहाती, भजन सुनाइए।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 28 – आदर्शलोक का असली चेहरा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 28 – आदर्शलोक का असली चेहरा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

आदर्शलोक की कहानी आज से कुछ साल पहले की है। एक दिन, वहाँ के राजमहल के मुख्य दरवाज़े पर एक नोटिस टांगा गया – “नया राजा चुना जाएगा। जो भी राजा बनना चाहता है, उसे बिना झूठ बोले, बिना चोरी किए, और बिना रिश्वत लिए पाँच साल तक इस राज्य को चलाना होगा।”

लोगों ने पढ़ा और हँस दिए। क्योंकि यहाँ तो हर कोई जानता था कि बिना इन तीनों के कोई भी राजा बन ही नहीं सकता। खैर, एक दिन एक महात्मा जी आए, जिनका नाम था सत्यानंद। उन्होंने कहा, “मैं ये चुनौती स्वीकार करता हूँ। मुझे राजा बनाइए, और देखिए कैसे मैं आदर्शलोक को सच में आदर्श बनाऊँगा।”

सत्यानंद जी राजा बने। पहले ही दिन उन्होंने मंत्रियों की सभा बुलाई और कहा, “अब से कोई भी झूठ नहीं बोलेगा। सभी लोग सच्चाई के साथ चलेंगे।”

मंत्री हक्का-बक्का रह गए। “महाराज,” एक ने कहा, “झूठ तो हमारी सरकारी नीतियों का आधार है। अगर हम सच्चाई बोलने लगे तो जनता जान जाएगी कि हम कुछ काम नहीं करते। फिर तो हमें कुर्सी से हाथ धोना पड़ेगा।”

“तो धो लो,” सत्यानंद ने आदेश दिया।

अब झूठ बंद हो गया, और राज्य की सच्चाई सामने आ गई। किसान बोले, “हमारी फसलें सूख गई हैं, और सरकारी मदद कागजों में ही मिल रही है।” व्यापारी बोले, “टैक्स इतना ज्यादा है कि हमें चोरी करनी पड़ती है।” अफसर बोले, “हमारी तनख्वाह में भ्रष्टाचार शामिल है, बिना रिश्वत के हम गुजारा नहीं कर सकते।”

राज्य में हड़कंप मच गया। जनता सड़कों पर आ गई। सभी अपनी सच्चाई बयां करने लगे। सत्यानंद जी ने सोचा कि अब कुछ और सुधार करना चाहिए। उन्होंने आदेश दिया, “अब से कोई चोरी नहीं करेगा।”

मंत्रियों ने माथा पकड़ा, “महाराज, अगर चोरी बंद हो गई, तो हम क्या खाएँगे?”

“सचाई से पेट भरो,” सत्यानंद ने फिर आदेश दिया।

अब बिना चोरी के मंत्री और अफसर भूखे मरने लगे। उन्हें याद आने लगा कि पहले के राजा कितने समझदार थे, जो चोरी को अनकहा अधिकार मानते थे। एक मंत्री ने कहा, “महाराज, जनता तो खुश है, लेकिन हम क्या करें? हमारे घरों में चूल्हा तक नहीं जल रहा।”

सत्यानंद बोले, “भ्रष्टाचार भी बंद करना पड़ेगा।”

यह सुनते ही पूरे दरबार में चुप्पी छा गई। भ्रष्टाचार बंद! मंत्रियों की आत्माएँ काँप उठीं। एक ने हिम्मत जुटाकर कहा, “महाराज, अगर रिश्वत लेना बंद कर दिया, तो हम राजमहल तक पहुँचेंगे कैसे? हमारी गाड़ियाँ तो जनता के पैसों से चलती हैं।”

“पैदल चलो, स्वास्थ्य अच्छा रहेगा,” सत्यानंद ने हंसते हुए कहा।

अब मंत्री और अफसर पैदल चलने लगे। राज्य की सड़कों पर उन्हें देखकर लोग हँसते और कहते, “देखो, ये हैं हमारे राजा के सुधार।”

आखिरकार, पाँच साल बाद चुनाव का समय आया। सत्यानंद ने अपने कार्यकाल की उपलब्धियाँ गिनाईं – “राज्य में सच्चाई है, कोई चोरी नहीं करता, और रिश्वतखोरी खत्म हो गई है।”

लेकिन जनता का धैर्य अब टूट चुका था। किसान, व्यापारी, मजदूर सब भूखों मर रहे थे। राजमहल के गेट पर भीड़ जमा हो गई और नारे लगे, “हमें हमारा पुराना राजा वापस चाहिए!”

सत्यानंद जी का आदर्शलोक अब स्वप्नलोक बन चुका था। लोग हंसते हुए बोले, “राजा का आदर्शवाद हमारे पेट नहीं भर सकता। हम मिलावटी दूध पीने वाले शुद्ध दूध खाक पचायेंगे?”

अगले चुनाव में एक नया राजा चुना गया। उसने आते ही घोषणा की, “मैं फिर से सबकुछ वैसे ही करूँगा, जैसा पहले था। झूठ, चोरी, और रिश्वत का राज वापस आएगा। और हम फिर से खुशहाल होंगे।”

आदर्शलोक वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया। लोग खुश थे, मंत्री अमीर थे, और अफसर फिर से मोटी गाड़ियों में घूमने लगे।

और सत्यानंद? वह राज्य छोड़कर जंगल में ध्यान करने चले गए। कहते हैं, अब वो भी झूठ बोलते हैं कि “आदर्शलोक एक दिन आएगा।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 314 ☆ आलेख – “भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆

?  आलेख – भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

घर-आंगन में आग लग रही। सुलग रहे वन -उपवन,

दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर- छाजन।

तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन-जीवन,

एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बंधन।

दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला,

देश हमारा जल रहा है, कौन बुझानेवाला  

 – डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन

विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है। आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं। इंटरनेट और मोबाइल दूरी व समय की सीमाओं को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं। इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं। दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है। रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं। लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं। बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याओ का आधार तैयार किया है। दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था – ”अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए”। बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है। एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाओ को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुओ के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाओ से प्रेरित होता है। औद्योगिक कचरे को बढ़ाता है ! ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देता है। पर्यावरण प्रदूषण की ऐसी आग को जन्म देता है जिसे बुझाने वाला सचमुच कोई नहीं है।

भोपाल गैस त्रासदी को वर्षौं हो गए हैं। वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में रिस कर प्रति वर्ष क्षेत्र को और अधिक जहरीला बना रहा है। कंपनी को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिये कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे। परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के भस्मकों में इसे जला कर इस औद्योगिक कचरे को नष्ट करना चाहती है।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण के खतरे बढ़ रहे है।

एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है। इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा।  

प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं। इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन,  रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने,  फ्लोरेसेंट ट्यूब, बल्ब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें आदि भी बेकार हो जाती हैं। जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा औद्योगिक कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है। कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी।  

इनमें धातुओ व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है। लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं। अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है। इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्चे होते हैं। इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है।

मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से आजीविका कमाने की बनी हुई है।

 उर्जा उत्पादन हेतु ताप विद्युत संयंत्र, बड़े बाँध, प्रत्यक्ष, परोक्ष बहुत अधिक मात्रा में औद्योगिक कचरा फैला रहे हैं . सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं। राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं। सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है। इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें। परमाणु ऊर्जा के निमा्रण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी.

एशियन डेवलपमेट बैक ने हाल ही गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है। गंगा के किनारे के नगरों की पानी, ससवीरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि व्यापक औद्योगिक कचरे,  भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से जलवायु परिवर्तन हो रहा है . मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है। रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक संतुलन,  कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने आदि से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है। इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं। औद्योगिक अपशिष्ट से दिल्ली की जीवन धारा यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही ‘यमुना एक्शन प्लान’ जैसी कई योजनाओ द्वारा सफाई अभियान चला रही है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं । किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए ‘इको सिस्टम’ की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता।

 पर्यटन जनित डिस्पोजेबल प्लास्टिक कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है, जिस पर त्वरित नियंत्रण जरूरी है .सरकार ने रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है। केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है। २५ माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों काकचरा डालने पर रोक रहेगी। नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे। पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है। इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है। इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है। कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती हे जो वायु प्रदूषण फैलाती है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है। गाय बैल आदि जानवर पालिथिन में चिपके खाद्य पदार्थ खाने के प्रलोभन में पतली पालीथिन की पन्नियां भी गुटक जाते हैं जो उनके पेट में फँस कर रह जाती हैं एवं उनकी मृत्यु हो जाती है। अतः पालीथिन पर प्रभावी नियंत्रण जरूरी है।

कहा जा सकता है कि औद्योगिक कचरा प्रगति का दूसरा पहलू है जिससे बचना मुश्किल है, पर उसके समुचित तरीके से डिस्पोजल से ही हम मानव जीवन और प्रगति के बीच तादात्म्य बना कर विज्ञान के वरदान को अभिशाप बनने से रोक सकते हैं।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 227 ☆ बाल गीत – बमचक-बमचक करें गिलहरीं… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 227 ☆ 

बाल गीत – बमचक-बमचक करें गिलहरीं  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

एक नहीं हैं , सात गिलहरीं।

 *

इधर-उधर को भागा करतीं।

बदन फुला गुड़िया-सी दिखतीं।

बाल हैं कोमल लगतीं बहरी।

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

 *

पौधों से ये करें दुश्मनी।

तुलसी नौचतीं, प्लांट मनी।

पहुँच गाँव से हो गईं शहरी।

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

 *

 अपनी धुन में मस्त मगन हैं।

फल,दाना इनका भोजन है।

चिड़ियों की शत्रु हैं गहरी।

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

तीन तिरंगी पट्टी ओढ़े।

इतराएँ यह बदन को मोड़े।

बच्चों की रक्षक हैं प्रहरी।

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #194 – बालकथा- जादू से उबला दूध – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय बालकथा जादू से उबला दूध)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 194 ☆

☆ बाल कथा – जादू से उबला दूध ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

 “आओ रमेश,” विकास ने रमेश को बुलाते हुए कहा, “मैं जादू से दूध उबाल रहा हूँ। तुम भी देख लो।”

“हाँ, क्यों नहीं?, मैं भी तो देखें कि जादू से दूध कैसे उबाला जाता है?” रमेश ने बैठते हुए कहा।

” भाइयों, आपसे मेरा एक निवेदन है कि आप लोग मैं जिधर देखूँ उधर मत देखना। इस से जादू का असर चला जायेगा और आकाश से आने वाली बिजली से यह दूध गरम नहीं होगा।” विकास ने कहा और एक कटोरी में बोतल से दूध उँडेल दिया।

“अब मैं मंत्र पढूँगा। आप लोग इस दूध की कटोरी की ओर देखना।” यह कहकर विकास ने आसमान की ओर मुँह करके अपना एक हाथ आकाश की और बढ़ाया, ” ऐ मेरे हुक्म की गुलाम बिजली! चल जल्दी आ! और इस दूध की कटोरी में उतर जा।”

विकास एक दो बार हाथ को झटक कर दूध की कटोरी के पास लाया, “झट आ जा। लो वो आई,”  कहने के साथ विकास ने दूध की कटोरी की ओर निगाहें डाली। उस दूध की कटोरी में गरमागरम भाप उठ रही थी। देखते ही देखते वह दूध उबलने लगा। विकास ने दूध की कटोरी उठा कर दो चार दोस्तों को छूने के लिए हाथ में दी, ” देख लो, यह दूध गरम है?”

“हाँ,” नीतिन ने कहा,  “मैंने पहले भी कटोरी को छू कर देखा था। वह ठंडी थी और दूध भी ठंड था।”

अब विकास ने कटोरी का दूध बाहर फेंक दिया। तब बोला, ” यह दूध जादू से नहीं उबला था।”

“फिर?” रमेश ने पूछा।

 “मैं ने मंतर पढ़ने और बिजली को बुलाने के लिए ढोंग के बहाने इस दूध में चूने का डल्ला डाल दिया था। इससे दूध गरम हो कर उबलने लगा। यह कोई जादू नहीं है।”

“यह एक रासायनिक क्रिया है इसमें चूना दूध में उपस्थित पानी से क्रिया करके ऊष्मा उत्पन्न करता है। जिससे दूध गरम हो कर उबलने लगता है।” विकास ने यह कहा तो सबने तालियां बजा दी।

“लेकिन ऐसे दूध को खानेपीने में उपयोग न करें दोस्तों!” विकास ने सचेत किया।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ३२ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ३२ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र-  “सी मिस्टर लिमये, फॉर मी हा प्रश्न फक्त पैशाचा कधीच नव्हता. हिअर इज ह्यूज अमाऊंट ऑफ इनफ्लो ऑफ फंडस् रेगुलरली फ्रॉम अॅब्राॅड. हा प्रश्न प्रिन्सिपलचा होता. तरीही वुईथ एक्स्ट्रीम डिससॅटिस्फॅक्शन त्यादिवशी मी त्यांना त्यांच्या म्हणण्यानुसार ८५०/-रुपये पाठवून दिले. इट्स नाईस यू कम हिअर पर्सनली टू मीट मी. सो नाऊ मॅटर इज ओव्हर फॉर मी. सो प्लीज हे पैसे घ्यायचा मला आग्रह करू नका. माय गॉड विल गिव्ह इट टू मी इन वन वे आॅर आदर. “

यात न पटण्यासारखं काही नसलं तरी मला ते स्वीकारता येईना “मॅडम प्लीज. मलाही असाच ठाम विश्वास आहे मॅडम. माय गॉड ऑलसो वुईल स्क्वेअर अप माय लॉस इन हीज ओन वे. प्लीज एक्सेप्ट इट मॅडम. प्लीज फॉर माय सेक”)

त्या हसल्या. अव्हेर न करता त्यांनी ते पैसे स्वीकारले. तरीही ८५०/- रुपये गेले कुठे ही रुखरुख मनात होतीच. पण ती फार काळ टिकली नाही. कारण मी परत येताच सुहास गर्दे सुजाताला घेऊन माझ्या पाठोपाठ माझ्या केबिनमधे आले. जे घडलं त्यात चूक सुजाताचीच होती आणि तिला ती कन्फेस करायची होती.

“समोरची गर्दी कमी झाल्यावर त्या दिवशी सुजाताने ‘लिटिल् फ्लॉवर’ची कॅश मोजायला घेतली होती. ” सुहास गर्दे सांगू लागले. ” पन्नास रुपयांच्या नोटा मोजायला तिने सुरुवात केली तेवढ्यात पेट्रोल पंपाचा माणूस पेट्रोल खरेदीच्या अॅडव्हान्स पेमेंटच्या डी. डी. साठी कॅश भरायला धावत पळत येऊन तिच्या काउंटर समोर उभा राहीला. नेहमीप्रमाणे त्याला डी. डी ताबडतोब हवा होता. कॅश मोजून घेतल्याशिवाय डीडी देता येत नव्हता. कॅश-अवर्स संपत आलेले. त्यात सुजाताला रुटीन मेडिकल चेकअपसाठीची अपॉइंटमेंट असल्याने काम आवरून जायची घाई होती. त्यामुळे ‘लिटिल् फ्लॉवर’ची नुकतीच मोजायला सुरुवात केलेली कॅश नंतर मोजायची म्हणून तिने तशीच काउंटरवर बाजूला सरकवून ठेवली आणि पेट्रोल पंपाची कॅश मोजायला घेतली. त्यात नेहमीप्रमाणे एक रुपयापासून शंभर रुपयापर्यंतच्या नोटांचा खच होता आणि त्याही सगळ्या जुन्या नोटा! ती कॅश गडबडीने मोजून झाली तेव्हा तिच्या लक्षात आले की त्यात आठशे पन्नास रुपये जास्त आहेत. नाईलाजाने पुन्हा सगळी कॅश मोजून तिने खात्री करून घेतली आणि मग शिक्का मारलेल्या रिसिटबरैबर जास्ती आलेले ८५०/- रुपयेही पेट्रोल पंपाच्या माणसाला तिने परत केले आणि ‘लिटिल् फ्लावर’ची कॅश मोजायला घेतली. ती कॅश मोजून झाल्यावर त्यात ८५०/- रुपये कमी असल्याचं तिच्या लक्षात आलं. आधी अर्धवट मोजून बाजूला सरकवून ठेवलेल्या त्या कॅशमधल्या पन्नास रुपयांच्या १७ नोटा पेट्रोल पंपाची कॅश मोजायला घेतली तेव्हा त्यात अनवधानाने मिसळून गेल्याने त्यात ८५०/- रुपये जास्त येत होते. हा घोळ लक्षात येताच सुजाता घाबरली. कारण तोवर पेट्रोल पंपाचा ड्राफ्ट काढायला आलेला माणूस ड्राफ्ट घेऊन परत गेला होता. “

“तो माणूस रोज बँकेत येणार आहे ना? “

“नाही सर. रोज त्यांचे दिवाणजी येतात. शनिवारी ते रजेवर असल्याने दुसऱ्या नोकराला पाठवलं होतं. “

” ठीक आहे, पण पेट्रोल पंपाचे मालक तुमच्या ओळखीचे आहेत ना? त्यांना भेटून त्याच दिवशी हे सांगायला हवं होतं ना लगेच. “

“हो सर.. पण.. ” बोलता बोलता सुहास गर्दे कांही क्षण मान खाली घालून गप्प बसले.

” मी इतर दोन-तीन स्टाफ मेंबर्सना घेऊन शनिवारी लगेच तिथे गेलो होतो सर. पण… “

“पण काय? “

“त्या नोकराने सरळसरळ हात वर केले. ८५०/- रुपये मला परत दिलेच नव्हते म्हणाला. मालकाने त्याला दमात घेतलं तेव्हा पॅंटचे खिसे उलटे करून दाखवत त्याने रडतभेकत कांगावा सुरू केलान्. “

“म्हणून मग तुम्ही मिस्. डिसोझाना फोन केलात? ही चूक कॅश काऊंटिंगमधे झालेल्या चुकीपेक्षा जास्त गंभीर होती सुहास. ” ती कशी हे मी त्यांना समजून सांगितलं. मी त्यांना त्यांचे पैसे परत करायला गेलो तेव्हा तिथं जे जे घडलं त्या सगळ्याची त्यांना कल्पना दिली. ते सगळं ऐकताना सुजाताची मान शरमेनं खाली गेली होती. तिचे डोळे भरून आले होते. ती असहायपणे उठली. न बोलता जड पावलांनी बाहेर गेली.

त्यानंतर पगार झाला त्यादिवशी मनाशी कांही ठरवून सुजाता केबिनचे दार ढकलून बाहेर उभी राहिली.

” मी आत येऊ सर? ” तिने विचारलं. ती बरीचशी सावरलेली होती.

“ये.. बैस. काय हवंय? रजा? ” ती कसनुसं हसली. मानेनंच ‘नाही’ म्हणाली. मुठीत घट्ट धरुन धरलेली शंभर रुपयांची नोट तिने माझ्यापुढे धरुन ती कशीबशी उभी होती.

“हे काय? “

” सर.. ” तिचा आवाज भरुन आला. “तुम्ही होतात म्हणून त्यावेळी मला सांभाळून घेतलंत सर. माझ्याऐवजी तुम्ही स्वतः पैसे भरलेत. त्यावेळेस खरं तर ते मी स्वतः भरायला हवे होते पण तेव्हा तेवढे पैसे नव्हते माझ्याजवळ. आता दर महिन्याला थोडे थोडे करून ते मी परत करणाराय सर… ” ती म्हणाली.

ऐकलं आणि मी मनातून थोडासा हाललो. याच सुजाताबद्दल क्षणभर कां होईना पण माझ्या मनात संशय निर्माण झालेला होता. नशीब रागाच्या भरात मी तो बोलून दाखवला नव्हता. नाहीतर….? नुसत्या कल्पनेनेच मला अस्वस्थ वाटू लागलं. नकळत कां होईना योग्यवेळी योग्य निर्णय घेतल्याचं समाधान त्या अस्वस्थतेइतकंच मोलाचं होतं! घडून गेलेल्या आत्तापर्यंतच्या या सगळ्या प्रसंगांच्या मालिकेचा हा समाधानकारक समारोप आहे असं मला वाटलं खरं, पण ते तसं नव्हतं. मी सुजाताची समजूत घातली. पैसे परत करायची आवश्यकता नाहीये हे तिच्या गळी उतरवायचा प्रयत्न केला. पण तिला ते पटेना. अखेर मिस् डिसुझांना जे उत्स्फूर्तपणे सांगितलं होतं तेच सुजाताला सांगावंसं वाटलं. म्हटलं, “सुजाता, तुला माझे पैसे परत करावेसे वाटले हेच मला खूप महत्त्वाचं वाटतं. पण अशी ओढाताण करून तू ते पैसे परत करायची खरंच काही गरज नाहीये. तुला माझं नुकसान होऊ नये असं वाटतंय ना? मग झालं तर. मिस्. डिसोझांना सांगितलं तेच तुला पुन्हा सांगतो, तू खरंच काळजी करू नकोस. माय गॉड विल गिव्ह इट टू मी इन वन वे ऑर अदर. माझं म्हणणं नाराजीने स्वीकारल्यासारखी ती उठली. मला वाटलं, या सर्वच प्रकरणाला मी योग्य पद्धतीने पूर्णविराम दिलाय. परंतु ते तसं नव्हतं. तो पूर्णविराम नव्हे तर अर्धविराम होता, हे मला कुठं ठाऊक होतं? प्रत्येकाच्याच विचारांचा आणि मनोभूमिकांचा कस पहाणाऱ्या या प्रसंगांचे धागेदोरे भविष्यात घडू पहाणाऱ्या अतर्क्याशी जोडले गेलेले आहेत हे त्या क्षणी कुणालाच ज्ञात नव्हतं, पण पुढे घडू पहाणारं, माझ्या मनावर आनंदाचा अमीट ठसा उमटवणारं ते अतर्क्य योग्य वेळेची वाट पहात होतं हे पुढं सगळं घडून गेल्यानंतर मला समजलं तेव्हा मी अंतर्बाह्य थरारून गेलो होतो! ! इतक्या वर्षानंतर आज ते सगळं असं आठवणंसुद्धा माझ्यासाठी खूप आनंददायी आहे!

सुजाताला तिची समजूत घालून मी परत पाठवलं आणि कामाचा ढीग उपसायला सुरुवात केली. तो दिवस मावळला. पुढचे कांही दिवस रोज नवे नवे प्रश्न सोबत घेऊन येणारे नेहमीचे रुटीन पुन्हा सुरू झाले. तो प्रसंग पूर्णतः विस्मरणांत जाणं शक्य नव्हतंच. पण तरीही वाढत्या कामांच्या ओघात तो प्रसंग, त्याची जाणीव आणि आठवण सगळंच थोडं मागं पडलं. पुढे बरेच दिवस मधे उलटले आणि त्या प्रसंगाची पुन्हा आठवण व्हायला माझ्या आईचं अचानक माझ्याकडे रहायला येणं निमित्त झालं.

मी सोलापूरला फॅमिली शिफ्ट केलेली नव्हती. पण बऱ्यापैकी मोठी आणि सोयीची जागा भाड्याने घेतलेली होती. कधी शाळेला सुट्ट्या लागल्या की आरती/सलिल, तर कधी शक्य असेल तेव्हा आई तिकडे येऊन रहात. आई आली तोवर ‘लिटिल फ्लाॅवर’च्या घटनेला तीन आठवडे उलटून गेले होते. पण आई येणार म्हटलं तेव्हा त्या घटनेची हटकून आठवण झाली त्याला कारण म्हणजे माझ्या बचत खात्यात शिल्लक असलेले ते फक्त पाच रुपये! त्याशिवाय खिशात होती ती जेमतेम दीड दोनशे रुपये एवढीच रोख शिल्लक. आई आल्यावर आमचा दोन्ही वेळचा स्वैपाक ती घरीच करणार म्हणजे आवश्यक ते सगळं सामान आणणं आलंच. हा विचारच त्या घटनेची आठवण ठळक करून गेला. ‘पण आता ते विसरायला हवं. निदान ते सगळं आईला सांगत बसायला तर नकोच. ‘असा विचार करून पाच-सहा दिवसांनी पगार होणार असल्याने तोवर पुरेल एवढ्याच आवश्यक वस्तू मी आणून दिल्या. त्यानंतर खिशात शिल्लक राहिली फक्त शंभर रुपयांची एक नोट!

त्या शंभर रुपयांच्या नोटेतच पुढे घडू पहाणाऱ्या आक्रिताचे धागेदोरे लपलेले होते हे त्याक्षणी मात्र मला माहित असायचा प्रश्नच नव्हता!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #254 – कविता – प्रीत ☆ … ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “प्रीत” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #254 ☆

☆ प्रीत… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

है अनित्य ही सत्य,

नियति की यही रीत है

सिर्फ खेल ये,

नहीं किसी की हार जीत है

जितना समय मिला है

हमें यहाँ रहने का,

एक ध्येय जन जन से

करते रहें प्रीत है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares