(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “चौथी सीट… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆
लघुकथा – परामर्श… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
समस्याएँ तो सबके जीवन में हैं बेटे, पर समस्या का समाधान भी उसीमें रहता है और इसको जो समझ लेता है वह कभी निराश नहीं होता, शिवशंकर जी अपने पुत्र को समझाते हुए कह रहे थे। पुत्र राम शंकर बड़े ध्यान से उनकी बात सुन रहे थे। तभी शिव शंकर जी के मोबाइल की घंटी बजने लगी। उन्होंने मोबाइल की ओर देखा, गांव से उनके एक मित्र का फोन था। हेलो कहते हुए उन्होंने उठाया। हाँ मैं रामधन बोल रहा हूँ। हालचाल पूछने के बाद बोले, “अरे यार क्या बताऊँ, वह जो छोटी बहू है, बहुत धमकी दे रही है कि वह कुछ ऐसा करेगी कि पूरा घर जेल में होगा। कभी छत पर चढ जाती है कभी दरवाजे पर खड़ी हो कर चिल्लाती है। समझ में नहीं आ रहा है, क्या करूँ? उसके पिता से कहा तो वह भी चुप लगा गए। “
शिव शंकर जी ने पूछा, “वह चाहती क्या है, यह पता किया?”
रामधन बोले, “वह चाहती है कि पूरी पैंशन के पैसे मैं घर में ही खर्च करूँ, बिजली का बिल, घर का टैक्स, किराने का सामन सब पर मैं ही खर्च करूँ और जरूरत पड़े तो अपने दोनों बड़े बेटों से पैसे लें, हमसे नहीं क्योंकि मेरे आदमी की आमदनी कम है। “
शिव शंकर जी ने सुझाव दिया, “बेटे बड़े हो गए हैं, बाल बच्चेदार हैं, उन्हें अलग अलग रहने दो। अपना अपना खर्च उठाएँ और अपनी मर्जी से जैसे चाहें वैसे खर्च करें।
रामधन चिडचिडाए, “यही तो रोना है। घर से निकल कर किराए पर कोई नहीं रहना चाहता। यहीं घर के एक एक कमरे में तीनों रहते हैं। पर मैं कहाँ जाऊँ? किसी एक के साथ रहता हूँ तो दो सोचते हैं कि मेरी पैंशन एक अकेला खा रहा है। बाजार से कोई चीज लाऊँ तो तीनों के बच्चों के लिए एक जैसी। जरा भी फेरफार हो जाए तो क्लेश। मैं जब बिजली का बिल भरने के लिए पैसे माँगूँ तो एक दूसरे से लेने के लिए कहते हैं पर देता कोई नहीं। “
शिव शंकर जी बोले,”अरे रामधन जब तक तुम बैसाखी बने रहोगे तब तक ये अपने पैरों पर खडे नहीं होंगे। आज की पीढ़ी हमारी पीढ़ी से तेज है। ऐसा करो तुम लम्बी तीर्थ यात्रा पर निकल जाओ और इन्हें अपने हाल पर छोड दो। और हाँ अपने दिल से उनकी चिंता निकाल दो। फिर देखॉ। “
रामधन तीर्थ यात्रा पर निकल जाते हैं। तीन महीने बाद लौट कर आते हैं तो तीनों बेटे बहुएँ बच्चे उनका बहुत सम्मान करते हैं और खुश होते हैं। घर का माहौल खुशनुमा देखकर रामधन मन ही मन प्रसन्न होते हैं और ईश्वर का धन्यवाद करते हैं। सबसे अधिक शिव शंकर जैसे सच्चे मित्र के प्रति आभार मानते हैं, जिनके परामर्श से उनका घर बिखरने से बच गया। रामधन ने माना कि उनके मित्र ठीक कह रहे थे कि आज की पढी पहली पीढी से अधिक समझदार है और आज के वैज्ञानिक व तकनीकी विकास के युग में अपनी जगह बना कर तल रही है, बस जरूरत इस बात की है कि उसे अवसर दिया जाए।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)
गीता आज सुबह-सुबह कहां जा रही हो इतनी जल्दी-जल्दी तैयार होकर मां ने कहा।
आज हमें हाई कोर्ट चलना है । देखो क्या होता है भैया ने तो धोखे से सब कुछ तुमसे लिखा ही लिया और बाद में तुम्हें सड़क पर छोड़ दिया?
काश तुमने भैया पर ज्यादा विश्वास न किया होता ?
इतना बड़े मकान में पांच किराएदार थे।
किराए से भी तुम आराम से रह सकती थी लेकिन पिताजी की मृत्यु होते ही तुमने सब कुछ भाई को दे दिया।
मां के आँसू आज रुकने का नाम नही ले रहे थे ।
लाडो गुड़िया रानी कुछ मिल जाए तो तुम पर मैं बोझना न बनूंगी । इस उम्र में बेटी के घर में रह रही हूं। जीवन भर पानी नहीं पिया । काश ! यह बात मैं पहले ही समझ जाती कि मुझे अपनी बेटी को भी उसका हक देना है।
कमल जी बेटी को देखती है और उसे ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए कहती हैं – बड़ी अदालत भगवान है। वह सब देख रहा है, अवश्य न्याय करेगा।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बढ़ें अपन तूफानों में…।)
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा -ब्रेन ड्रेन।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 44 – लघुकथा – ब्रेन ड्रेन
“क्या बात है शुक्ला जी, आजकल सैर करते हुए नज़र नहीं आते? सब ठीक तो है न?”
“जी बोस दादा, सब ठीक ही है। बेटे इंजीनियरिंग करके अब विदेश जाने की तैयारी कर रहे हैं और मैं ओवरटाइम करके धन जुटाने में लगा हूँ। “
“हमारी हालत देख रहे हैं न शुक्ला जी, पच्चीस वर्ष पहले हमें भी शौक चढ़ा था विदेश में भेजकर बच्चों को बेहतर जिंदगी देने की। पर देख लीजिए, अब तो हमने भी जाना बंद कर दिया उनके पास क्योंकि इस 80 साल की उम्र में ना तो हमसे यह यात्रा सहन होती है और न आपकी भाभी जी को। नाती – पोते सब बड़े हो गए। अब बस वीडियो कॉल का सहारा है। “
बोसदादा एक साँस में बोल गए।
फिर कुछ रुककर बोले – “वैसे तो बाकी सब ठीक है पर तकलीफ़ तब होती है साहब जब इस बुढ़ापे में सहारे के नाम पर अपनी औलादें पास नहीं होतीं। वैसे सब तो ठीक चल रहा है पर जब बीमार पड़ते हैं और अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़ते हैं तब पड़ोसियों पर निर्भर करना पड़ता है। “
“फिर आजकल देश में नौकरियों की कमी कहाँ है? सुना है आजकल आई.टी कंपनियाँ लाखों की सैलरी देती हैं। ” बोस दादा एक ही साँस में बोल गए।
“बेटों से कहिए इसी शहर में रहकर अगर कहीं बेहतर काम मिलता हो तो विदेश में जाकर सेकंड सिटीजन बंनकर, कलर डिस्क्रिमिनेशन सहकर, लोकल को मिलनेवाली सैलरी से कम तनख्वाह लेकर काम क्यों करें !” ये बातें ऐसे कही गई मानो अनुभवों की सच्ची पिटारी ही खोल दी गई हो।
“समझा सकते हैं तो समझाइए, वरना आगे उनकी मर्ज़ी। यह गलती हमने तो कर दी है वह गलती अब आप लोग ना करें तो बेहतर। वरना हमारे देश में भी वृद्धा आश्रमों की संख्या बढ़ती ही जाएगी। अच्छा चलता हूँ। “
कुछ दिन बाद शुक्ला जी जॉगिंग करते दिखे।
“वाह! क्या बात है शुक्ला जी! अब सुबह -सुबह दौड़ते हुए ऩज़र आ रहे हैं ? तबीयत भी अच्छी लग रही है ! खुश भी लग रहे हैं! कोई खुश खुशखबरी है क्या ?”
जॉगिंग करते हुए शुक्ला जी रुक गए बोले-
“जी बोस दादा, आप से बात होने के बाद उस दिन घर जाने पर हमने अपने बच्चों से बातें की। कई उदाहरण दिए और सबसे बड़ा आपका उदाहरण दिया, क्योंकि बच्चे आपको बहुत समय से देख रहे हैं फिर अकेलेपन, बीमारी आदि की अवस्था में अगर बच्चे अपने पास ना हों तो फिर नि:संतान होना ही बेहतर है ना!”
मानो शुक्ला जी अब बोस दादा की सच्चाई से अवगत हो बोल रहे थे।
“इतना ही नहीं हमने दोनों लड़कों को काउंसलेर से भी मिलवाया और उन्होंने कई बातें बच्चों के सामने रखीं। “
“आज देश उन्नति के शिखर पर है। देश को अच्छे उच्च शिक्षित और कर्मठ लोगों की आवश्यकता है। इस ब्रेन ड्रेन से देश का बड़ा नुकसान होता है। बोसदादा ने अपने मत प्रकट किए।
सच कहा आपने दादा और फिर पता नहीं क्या सोच कर दोनों बच्चों ने जी आर ई की पढ़ाई छोड़ दी। आपको तो पता है जुड़वा बच्चे हमेशा एक जैसा ही निर्णय लेते हैं। हमारे बच्चों ने भी यही निर्णय लिया। “
“दोनों को कॉलेज में रहते हुए ही कंपनी सिलेक्शन से जो नौकरी मिली थी उसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हाँ इस वक्त सैलरी कम है क्योंकि पहले उन्होंने मना कर दिया था। पर साल 2 साल में सब कुछ ठीक हो जाने का आसरा भी उन्होंने दिया है। “
“बच्चे पास में होंगे तो कम ज्यादा में गुज़ारा भी हो जाएगा। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया बोस दादा, उस दिन आपका मार्गदर्शन ना होता तो रिटायरमेंट के बाद भी मैं बच्चों को बाहर पढ़ाने के चक्कर में कहीं ना कहीं फिर नौकरी करता रहता। “
“अब मुझे उसकी चिंता नहीं। बच्चे समझ गए। पहले थोड़े से उदास हुए और उसके बाद प्रैक्टिकली सोचकर उन्होंने यही निर्णय लिया। आएँगे बच्चे आपसे मिलने। आपके मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। “
बोस दादा ने लाठी समेत अपना दाहिना हाथ ऊपर कर दिया फिर बायाँ हाथ ऊपर किया दोनों हाथ जोड़े ऊपर आकाश की ओर देखे और बोले – “लाख-लाख शुक्र है भगवान तेरा एक घर टूटने से तो बच गया। “
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “मन चंगा तो कठौती में गंगा…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 333 ☆
लघुकथा – मन चंगा तो कठौती में गंगा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
उसका पुश्तैनी मकान प्रयाग में है संगम के बिल्कुल पास ही। पिछले साल दो साल से जब से कुंभ के आयोजन की तैयारियां शुरू हुई , उसकी सामान्य दिनचर्या बदलने पर वह मजबूर है। मेले की शुरुआत में परिचितों, दूर पास के रिश्तेदारों, मेहमानों के कुंभ स्नान के लिए आगमन से पहले तो बच्चे, पत्नी बहुत खुश हुए पर धीरे धीरे जब शहर में आए दिन वी आई पी मूवमेंट से जाम लगने लगा, कभी भगदड़ तो कभी किसी दुर्घटना से उसकी सरल सीधी जिंदगी असामान्य होने लगी । दूधवाला, काम वाली का आना बाधित होने लगा तो सब परेशान हो गए । इतना कि, आखिर उसने स्वयं ऑफिस से छुट्टी ली और घर बंद कर कुंभ मेले के पूरा होने तक के लिए सपरिवार पर्यटन पर निकलने को मजबूर होना पड़ा ।
प्रयाग की ओर उमड़ती किलोमीटरों लंबी गाड़ियों के भारी काफिले देख कर उसे कहावतें याद आ रही थी, देखा देखी की भेड़ चाल, मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे – संदर्भ कुम्भ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 162 – मनोज के दोहे – संदर्भ कुम्भ ☆
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 118 ☆ देश-परदेश – मत चूको चौहान ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मौके पर चौका लगाना चाहिए। ये सब दशकों से सुनते आ रहे हैं। विगत वर्ष ” राष्ट्रीय आडंबर विवाह ” सम्पन्न हुआ था। हमने उक्त परिवार के एक खास से पूछा, हमें बुलाना भूल गए थे। उसने तत्परता से बताया यदि हम उसको अपनी दिल की बात पहले बता देते तो इटली से लेकर जामनगर सभी कार्यक्रम में शिरकत कर चुके होते। दिल की बात बताने में हम हमेशा लेट लतीफ़ ही रहते हैं। युवा अवस्था में अपने पहले प्यार का इज़हार करने में भी चूक गए थे। खैर छोड़िए “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया ही दूसरे के साथ उड़ गई”
उक्त विवाह में भाग ना ले सकने का दुःख के लिए बस इतना ही कह सकते हैं, कि ” जिस तन लागे, वो तन जाने”
इस बार हमने मत चूको चौहान को अपना अड़ियल मानते हुए, दूसरे घराने के परिवार के विवाह के निमंत्रण प्राप्त करने के लिए ” सारे घोड़े खोल दिए” थे। अपने मुम्बई की पोस्टिंग्स के कॉन्टैक्ट्स हो या, दिल्ली की सत्ता के गलियारे वाले संबंध हो। यहां ये स्पष्ट कर देवे, इसी मौके के लिए विगत वर्ष हमने दस दिन का गुजरात दौरा भी किया था।
लाखों जतन कर लो पर होता वही है, जो लिखा होता है। दूसरे परिवार ने तो इतनी सादगी से विवाह किया, कि पड़ोसियों को भी नहीं बुलाया हैं, फिर हम किस खेत की मूली हैं।
इस सादगी पूर्ण विवाह के लिए दूसरे परिवार का साधुवाद।
ताई आणि संध्याचं लहानपणापासूनच अगदी मेतकूट होतं. त्या समान वयाच्या म्हणूनही असेल कदाचित. बहिणी पण आणि जिवाभावाच्या मैत्रिणी पण असं संमिश्र नातं होतं त्यांचं. म्हणजे ते तसंच अजूनही आहे वयाची ऐंशी उलटून गेली तरीही.
ताई म्हणजे माझी सख्खी मोठी बहीण आणि संध्या आमची मावस बहीण पण ती जणू काही आमची सहावी बहीणच आहे इतकी आमची नाती प्रेमाची आहेत.
अकरावी झाल्यानंतर ताई भाईंकडे म्हणजे आजोबांकडे (आईचे वडील) राहायला गेली. संध्या तर जन्मापासूनच भाईंकडे राहत होती. तेव्हा मम्मी (आजी) होती आणि भाईंची बहीण जिला आम्ही आत्या म्हणत असू तीही त्यांच्या समवेत राहायची. आत्या हे एक वैशिष्ट्यपूर्ण असं व्यक्तिमत्त्व होतं जिच्या विषयी मी नंतर लिहिणार आहेच.
संध्या या तिघांसमवेत अत्यंत लाडाकोडात वाढत होती यात शंकाच नाही पण माझ्या मनात मात्र आजही तो प्रश्न आहेच की मावशी बंधूंचं (म्हणजेच संध्याचे आई-वडील..) संध्या हे पहिलं कन्यारत्न. पहिलं मूल म्हणजे आयुष्यात किती महत्त्वाचं असतं! याचा अर्थ नंतरची मुलं नसतात असं नव्हे पण कुठेही कधीही पहिल्याचं महत्व वेगळंच असतं की नाही? मग संध्याला आजी आजोबांकडे जन्मापासून ठेवण्यामागचं नक्की कारण काय असेल? कदाचित आजीचाच आग्रह असेल का? आजी ही आजोबांची तिसरी पत्नी होती. अतिशय प्रेमळ आणि नात्यांत गुंतणारी होती. तिने आई -मावशींना कधीही सापत्न भाव दाखवलाच नाही पण तरीही तिला स्वत:चं मातृत्व म्हणजे काय हे अनुभवता आलं नाही आणि लहान मुलांची तिला अतिशय आवड होती म्हणून असेल कदाचित.. तिने जन्मापासूनच संध्याला आजी या नात्याने मांडीवर घेतले आणि तिच्यावर आजी आणि आई बनून मायेचा वर्षाव केला. अर्थात हा माझा तर्क आहे प्रत्यक्ष परिस्थितीचे आकलन मला आजपर्यंत झालेलं नाही आणि या घटनेमागची मावशीची भूमिका ही मला कळलेली नाही.
हे लिहीत असताना मला एक सहज आठवलं तेही सांगते. आम्हा तीन बहिणींच्या नंतर जेव्हा उषा निशा या जुळ्या बहिणींचा जन्म झाला तेव्हा दोन पैकी एकीला आजोबांकडे काही वर्षं ठेवावं असा एक विचार प्रवाह चालू होता. त्याला दोन कारणे होती. एकाच वेळी दोन बाळं कशी वाढवणार आणि दुसरं म्हणजे आमचं घर लहान होतं, फारसं सोयीचं नव्हतं, आठ माणसांना सामावून घेण्याची एक कसरतच होती पण त्याचवेळी हाही एक अनुभव आला की रक्ताची नाती ही एक शक्ती असते. अरुंद भिंतींनाही रुंद करून त्यात सामावून घेण्याचं एक दिव्य मानसिक बळ त्यात असतं. काही काळ आमचं कुटुंब काहीसं हादरलं असेलही पण आम्हाला बांधून ठेवणारा एक पक्का, चिवट धागा होता. जीजीने विरोध दर्शविला म्हणण्यापेक्षा जबाबदारीच्या जाणिवेनं डळमळणाऱ्या मानसिक प्रवाहाला धीर देत सांगितलं, ” कशासाठी? माझ्या नाती याच घरात मोठ्या होतील. छान वाढतील. ”
आणि त्याच आभाळमायेच्या छताखाली आम्ही साऱ्या आनंदाने वाढत होतो.
मात्र मॅट्रिक झाल्यानंतर ताई भाईंकडे कायमची राहायला गेली. त्यावेळी भाईंच्या घरात आजी नव्हती. ती देवाघरी निघून गेली होती.
संध्या आणि ताई दोघीही उच्च गुण मिळवून मॅट्रिक झाल्या. आमच्या घरात या दोघींच्या मॅट्रिकच्या यशाचा एक सोहळा साजरा झाला. आजोबांनी टोपल्या भरून पेढे गणगोतात वाटले होते.
ताईने आणि संध्याने एकत्र मुंबईच्या त्या वेळच्या नामांकित म्हणून गाजलेल्या एलफिन्स्टन कॉलेजमध्ये कला शाखेत प्रवेश घेतला होता आणि ठाण्याहून ताई इतक्या लांब फोर्टस्थित कॉलेजात कशी जाणार म्हणून तिने भाईंकडेच राहावे हा प्रस्ताव बिनविरोधात मंजूर झाला होता.
ताई आणि संध्याच्या जोडगोळीत तेव्हापासून वेगळेच रंग भरले गेले. आजोबांच्या शिस्तप्रिय, पाश्चात्य जीवन पद्धतीचा संध्याला अनुभव होताच किंबहुना ती त्याच संस्कृतीत वाढली होती. आम्ही आई बरोबर भाईंकडे फक्त शाळांना सुट्टी लागली की जायचो. दिवाळीत, नवरात्रीत जायचो. पण आम्ही मुळचे धोबीगल्लीवासीयच. ईश्वरदास मॅन्शन, नाना चौक ग्रँड रोड मुंबई. इथे आम्ही तसे उपरेच होतो. सुट्टी पुरतं सर्व काही छान वाटायचं पण ताई मात्र कायमस्वरूपी या वातावरणात रुळली आणि रुजली.
आता ती ठाण्याच्या आमच्या बाळबोध घरातली पाहुणी झाली होती जणू!
एकूण नऊ नातवंडांमध्ये संध्या आणि अरुणा म्हणजे आजोबांसाठी दोन मौल्यवान रत्नं होती. त्या तिघांचं एक निराळंच विश्व होतं. आजोबांच्या रोव्हर गाडीतून आजोबा ऑफिसात जाता जाता त्यांना कॉलेजमध्ये सोडत. अगदी रुबाबात दोघी काॅलेजात जायच्या. त्या दोघींच्या साड्या, केशरचना, केसात माळलेली फुले रोजच एकसारखी असत. एलफिन्स्टन कॉलेजच्या प्रांगणात संध्या- अरुणाची ही जोडी या एका कारणामुळे अतिशय प्रसिद्ध झाली होती. शिवाय दोघीही सुंदर, आकर्षक आणि हुशार.
दोघींच्या स्वभावात मात्र तसा खूप फरक होता. पायाभूत पहिला अधोरेखित फरक हा होता की ताई मराठी मीडीअममधली आणि संध्या सेंट कोलंबस या कान्व्हेंट स्कूल मधली. सरळ केसांची संध्या तशी शांत, मितभाषी, फारशी कोणात चटकन् मिसळणारी नव्हती. तिचं सगळंच वागणं बोलणं एका ठराविक मीटर मध्ये असायचं आणि या विरुद्ध कुरळ्या केसांची ताई! ताई म्हणजे एक तुफान, गडगडाट. कुणाशीही तिची पटकन मैत्री व्हायची. एकाच वेळी अनेक गोष्टी करण्याचा तिला प्रचंड उत्साह असायचा. मला आजही आश्चर्य वाटतं की संध्याच्या पचनी ताई कशी काय पडायची? त्या दोघींची आपसातल्या या विरोधाभासातही इतकी मैत्री कशी? इतकं प्रेम कसं?
एखाद्या बस स्टॉप वर दोघी उभ्या असल्या आणि बसला येण्यास वेळ झाला की ताईची अस्वस्थतेत अखंड बडबड चालायची. त्याचवेळी संध्या मात्र शांतपणे बसच्या लाईनीत उभी असायची. बसची प्रतीक्षा करत. कधीतरी ताईला ती म्हणायची!” थांब ना अरू! येईल नं बस. ”
पण ताईचं तरी म्हणणं असायचं, ” “आपण चालत गेलो असतो तर आतापर्यंत पोहोचलोही असतो. ”“ जा मग चालत. ” कधीतरी संध्याही बोलायची.
पण त्या दोघींचं खरोखरच एक जग होतं. आणि भाईंच्या सधन सहवासात अनेक बाजूने ते बहरत होतं हे नक्कीच. शिस्त होती, धाक होता पण वाढलेल्या गवताला मॅनिक्युरिंग केल्यानंतर जे वेगळंच सौंदर्य लाभतं तशा पद्धतीने या दोघींची जीवनं फुलत होती.
कॉलेजच्या आंतरमहाविद्यालयीन नाट्यमहोत्सवात त्या दोघी भाग घेत. संध्याची एकच प्याला मधील सिंधूची भूमिका खूप गाजली. ताईने ही प्रेमा तुझा रंग कसा मध्ये बल्लाळच्या पत्नीची भूमिका फार सुंदर वठवली होती. दोघींनाही पुरस्कार मिळाले होते. दोघींमध्ये अप्रतिम नाट्यगुण होते आणि त्यांना चांगला भावही या माध्यमातून मिळत होता.
आमच्या ज्ञातीच्या इमारतीसाठी निधी गोळा करण्याच्या निमित्ताने एक व्यावसायिक पद्धतीने नाटक बसवण्यात आलं होतं. मला नाटकाचे नाव आता आठवत नाही पण या नाटकातही ताई आणि संध्याच्या महत्त्वाच्या भूमिका होत्या आणि या नाटकाच्या तालमी भाईंच्याच घरी होत. सुप्रसिद्ध अभिनेते रामचंद्र वर्दे यांच्या दिग्दर्शनाखाली हे नाटक बसवले जात होते. भारतीय विद्या भवनात या नाटकाचा प्रयोग झाला. शंभर टक्के तिकीट विक्री झाली होती आणि प्रयोग अतिशय सुंदर झाला होता. इतका की भविष्यात ताई आणि संध्या मराठी रंगभूमी गाजवणार असेच सर्वांना वाटले. मात्र या नाटकाच्या निमित्ताने “विलास गुर्जर” नावाचा एक उत्तम अभिनेता मात्र रंगभूमीला मिळाला होता.
ताई आणि संध्या यांचं बहरणं असं वलयांकित होतं. आमच्या परिवारात या दोघी म्हणजे नक्कीच आकर्षक केंद्रं होती. तारुण्याच्या उंबरठ्यावर त्यांचं हे असं मैत्रीपूर्ण बहिणीचं नातं सुंदरच होतं. एकमेकींची गुपितं एकमेकीत सांगणं, आवडीनिवडी जपणं, कधी स्वभाव दोषांवर बोलणं, थोडंसं रुसणं, रागावणं पण तरी एकमेकींना सतत सांभाळून घेणं समजावणं, एकत्र अभ्यास करणं मैत्रिणींच्या घोळक्यात असणं वगैरे वगैरे अशा अनेक आघाड्यांवर या दोघींचं हे नातं खरोखरच आदर्शवत आणि सुंदर होतं.
आम्ही जेव्हा सुट्टीत भाईंकडे जायचो तेव्हा मला प्रकर्षाने जाणवायचं ते म्हणजे संध्या, ताई, आजोबा आणि आत्या यांचा एक वेगळा ग्रुप होता. त्या ग्रुपमध्ये आम्ही नव्हतो. कारण बऱ्याच वेळा संध्या, ताई आणि आजोबा हे तिघंच खरेदीला जात, नाटकांना जात, आजोबांच्या ऑफिसमधल्या पार्ट्यांनाही जात. व्ही शांताराम च्या प्रत्येक चित्रपटाच्या प्रीमियर शोचे भाईंना पास मिळत. बहुतेक हे चित्रपट ऑपेरा हाऊसला लागत आणि या प्रीमियर शोजनाही भाई फक्त ताई आणि संध्यालाच बरोबर नेत. म्हणजे तसे भाई आम्हालाही कुठे कुठे न्यायचे पण त्या नेण्यात ही “स्पेशॅलिटी” नव्हती. खास शिक्का नसायचा. ते सारं सामुदायिक असायचं, सर्वांसाठी असायचं. ”सगळीकडे सगळे” हा साम्यवाद भाईंच्या शिस्तीत नव्हता.
एकदा भाईंनी घरातच, वामन हरी पेठे यांच्या एका कुशल जवाहिर्याला बसवून ताई आणि संध्यासाठी अस्सल हिरे आणि माणकांची कर्णफुले विशिष्ट घडणावळीत करवून घेतली होती. कर्णभूषणाचा तो एक अलौकिक सौंदर्याचा नमुना होता. आणि एक मोठा इव्हेंटच होता आमच्या अनुभवातला. नातेवाईकांच्या लग्नसमारंभात त्या दोघी ही सुंदर कर्णफुले घालून मानाने मिरवायच्या फार सुरेख दिसायच्या दोघीही!
माझ्या मनात कुठलीच आणि कोणाशीही स्पर्धा नव्हती. जितकं प्रेम ताई वर होतं तितकंच संध्यावरही होतं. संध्या आजही आवडते आणि तेव्हाही आवडायची. कुणाही बद्दल द्वेष, मत्सर, आकस काही नव्हतं पण त्या त्या वेळी आजोबांच्या सहवासात हटकून एक उपरेपणा मात्र कुठेतरी जाणवायचा आणि तो माझा बाल अभिमान कुरतडायचा. डावललं गेल्याची भावना जाणवायची. अशावेळी मला माझी आई, आजी, पप्पा आणि धाकट्या बहिणी रहात असलेलं धोबी गल्लीतलं ते लहानसं, मायेची ऊब असलेलं, समान हक्क असलेलं घरच हवं असायचं. माझ्यासाठी ते आनंदघर होतं.
खरं म्हणजे “भाई” आजोबा म्हणूनही आणि एक स्वतंत्र व्यक्ती म्हणूनही त्यांचा प्रचंड प्रभाव माझ्या जडणघडणीवर आहेच. त्यांनी दिलेल्या आयुष्याच्या अनेक व्यावहारिक टिप्स मला जगताना कायम उपयोगी पडल्यात. मी त्यांच्याबद्दल नकारात्मक विचार करूच शकत नाही पण त्या बालवयात मी प्रचंड मानसिक गोंधळ त्यांच्या पक्षपाती वागण्यामुळे अनुभवलेला आहे हे खरं.
आजोबांकडच्या वास्तव्यात मला आणखी एक जाणवायचं की आत्याचा संध्याकडे जास्त ओढा आहे. ते स्वाभाविकही होतं. ताई ही कितीतरी नंतर त्यांच्यात आली होती. आत्याला ताई पेक्षा संध्याचं अधिक कौतुक होतं आणि कित्येकवेळा ती ते चारचौघात उघडपणे दाखवत असे. “असले उपद्व्याप अरुच करू शकते.. संध्या नाही करणार. ” यात एकप्रकारचा उपहास असायचा. पण तो फक्त मलाच जाणवत होता का? ताईच्या मनात असे विचार येतच नव्हते का? एक मात्र होतं यामुळे ताईच्या आणि संध्याच्या नात्यात कधीच दरी पडली नाही हेही विशेष. त्यावेळी मला मात्र वाटायचं.. “का आली ताई इथे? का राहते इथे? कशाचं नक्की आकर्षण तिला इथे वाटतं. ? आपल्या घरातल्या सुखाची चव हिला कळत नाही का?
मी माझ्या मनातले प्रश्न ताईला कधीही विचारले नाहीत. मी तेव्हढी मोठी नव्हते ना! आणि हे प्रश्न कदाचित गैरसमज निर्माण करू शकले असते. त्यातील अर्थांची, भावनांची चुकीच्या पद्धतीने उकल झाली असती. पण आज जेव्हा मागे वळून मी त्या वेळच्या माझ्या मनातल्या गोंधळांना तटस्थपणे पाहण्याचा प्रयत्न करते तेव्हा एकच जाणवते.. मला माझी स्वतंत्र विचारशक्ती होती. मी कधीही कुणालाही “का?” ” कशाला?” विचारू शकत होते जर कोणी माझ्या वैयक्तिक बाबतीत ढवळाढवळ केली तर. मला माझ्यातला एक गुण म्हणा किंवा अवगुणही असू शकेल पण मी कधीही कुणाची संपूर्णपणे फॉलोअर किंवा अनुयायी नाही होऊ शकणार.. माझ्यातल्या विरोधी तत्त्वाची मला तेव्हा जाणीव होत होती आणि त्याला कदाचित माझ्या आयुष्यातल्या या दोन सुंदर व्यक्तीच कारणीभूत असतील. केवळ संदर्भ म्हणून.. ताई आणि संध्या..