हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 22 – अगला फर्जी बाबा कौन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 22 – अगला फर्जी बाबा कौन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

धूप जोरां की पड़ री थी, और नन्दू खाट पे पैर लटकाए पंखी के नीचे बिड़ी सुलगावण लाग रहा था। गांव की चहल-पहल तो न रई पर खबरां में हर रोज़ कुछ ना कुछ नया गुल खिला ही रहा था। आज कल खबरे देख-सुन के आदमी सोच में पड़ जा सै कि के हो रे है। पहले तो इया आलम था कि बस खेत-खलियाण की बातें, अब तो गांव के लौंडे तक पॉलिटिक्स की गुत्थी सुलझावण की बातां करै।

आज नन्दू का ध्यान एक नए तरह की लुगाई पे अटका सै – फर्जी बाबा। गांव में तो सुण्या सै कि बाबा सच्चा और ज्ञान का पिटारा होवै, पर आज कल हर नुक्कड़ पे फर्जी बाबे मिलैं। अबके ही अखबार में देख्या, “गांव में नया बाबा प्रकट, तीन दिन में चमत्कार दिखाएगा।” तावड़े राम, चमत्कार देखण की भी कोई फ़ीस लगेगी। नन्दू हंसण लाग गया, “हां भाई, पैसा फेंको और आशीर्वाद लो।”

अबके गांव में भी बाबागिरी का कारोबार बढ़ता जा रया सै। नन्दू ने बताया, “पिछली हफ्ते अपने ही काका, जिनने कभी मंदिर का रस्ता न देख्या, वो अब बाबा बनग्या। बोले, ‘मुझे भगवान का आशीर्वाद मिला सै, सब दुख दूर कर दूंगा।'”

काका ने क्या किया? वो पहले बगड़वा में दुकान करदा था, पर कर्जा हो गया। लुगाई छोड़ गई, फिर काका ने सोचा बाबा बन लेता हूँ, बाबा की चोंगी लगा, भव्य दरबार सजाया। गांव के लोग भी लाइन लगाके बैठण लाग गए। सब चाहते थे चमत्कार। जो आदमी खुद की जिंदगी में कुछ न कर पाया, अब दूसर्यां की जिंदगी सुधारण चला। बस बाबा का जलवा चालू हो गया।

गांव के लोग भी एकदम अंधभक्त। कोई बाल बच्चा ठीक करावण आया, तो कोई नौकरी की बात लेके। और बाबा के पास हर सवाल का जवाब। ऊपर से अंधेरे में दीपक जला के बाबा जी बोले, “बस, मेरे चरणों में बैठ जा, सब ठीक होगा।” और असली चमत्कार तो यारा ये सै कि बाबे के पास जेब खाली होवै और भक्तां के जेब का माल धीरे-धीरे उसकी थैली में चल्या आवै।

गांव के हाकिम तक बाबे की शरण में आगए। ताऊ बोला, “बेटा जी, ईमानदारी से तो कुछ होवै न सै, बाबे के आशीर्वाद से सब कुछ हो जागा।” और उधर से नेता जी, बाबे के साथ तस्वीरा खिंचवा रहे थे। सोचो भाई, बाबे का आशीर्वाद लिया, अब अगला चुनाव पक्का।

अब तो नेतागिरी भी बाबागिरी से चलती सै। बाबा जी बोले, “मैं देखता हूं, आज कल नेता भी मेरे आशीर्वाद के बिना कुछ न कर पावैं। सबकी डोर मेरे हाथ में सै।” बाबा जी के भक्त झट से बोले, “बिलकुल जी, आपकी लीला अपरम्पार सै।”

नन्दू तो बस अपना सिर धुनता रया। “अरे भाई, सबको सबकुछ दिख रया सै, पर कोई आंख खोलण को तैयार न सै।”

फिर गांव में फर्जी बाबे की चर्चा और जोर पकड़ गई। कोई बोला, “बाबा जी ने गंगाजल छिड़क के खेतों में पानी बरसाया सै,” तो कोई बोला, “बाबा ने मेरी बीमार गाय को ठीक कर दिया।” नन्दू तो सोच में पड़ गया, “अरे भाई, बाबे ने तो डॉक्टरों की नौकरी ही खा ली।”

इतने में गांव में नए बाबे का आगमन होया, और उसने गांव के बीचों बीच अखाड़ा बना दिया। अजीब लटके-झटके। हुक्का पीते-पीते बाबा जी बोले, “मैं ध्यान लगाऊं, और सब दुख दूर करूं।” लोग लाइन में खड़े हो गए – सिरदर्द ठीक कराणा हो, या नोकरी लगवाणा हो। बाबा के पास हर समस्या का हल था।

पर एक दिन अजब बात होई। बाबे का असली चेहरा तब सामने आया जब उसने गांव की चौधरी की जमीन पे हाथ मारा। चौधरी ने बोले, “अबे बाबा, तूं भगवान सै तो सब कुछ तेरे नाम करे देऊँ क्या?” बाबा हड़बड़ा के बोला, “नहीं चौधरी जी, आप गलती समझे।”

पर गांव वाले अब जाग गए। चौधरी जी के पास जाके बोले, “सारा खेल बाबे का सै। अबके देख लेंगे।” और गांव वालों ने एकजुट होके बाबे को दौड़ा दिया।

बाबा जो दिन रात चमत्कार दिखावण की बात करदा था, अब सरपट भाग रया था। गांव के बुजुर्ग हंसण लागे, “देखा बेटा, असली चमत्कार तो यो सै कि जूठा फर्जी बाबा अब लुगाई की तरह घर बैठ के चूल्हा फूंकता मिलेगा।”

और नन्दू ने बिड़ी का आखरी कश खींचते हुए कहा, “अबके समझ में आ गया कि बाबागिरी और नेतागिरी में ज़्यादा फर्क न सै। बस लोग आंख मूंद के यकीन कर लेते सै। आज का जमाना ही ऐसा हो गया सै।”

गांव में फर्जी बाबे का खेल खत्म हो गया, पर नन्दू के मन में एक सवाल बाकी रह गया – “कहीं अगला फर्जी बाबा कौन होगा?”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 220 ☆ बाल गीत – आओ ना, शर्माओ ना… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 220 ☆ 

बाल गीत – आओ ना, शर्माओ ना ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

आओ ना, शर्माओ ना।

सबसे प्रेम बढ़ाओ ना।

पढ़ो, लिखो, खेलो-कूदो,

हरदम ही मुस्काओ ना।

 *

मुश्किल नहीं काम कोई भी,

तन-मन लक्ष्य अटल साथी।

सत्कर्मों की जीवन पूँजी,

पर यौगिक सत बल थाती।

 *

सोच, समझकर करो काम सब

हिम्मत सदा बढ़ाओ ना।

पढ़ो, लिखो, खेलो-कूदो,

हरदम ही मुस्काओ ना।

 *

धैर्य से करते काम जो मानव,

वही सफलता हैं पाते।

पर विचलित वे कभी न होते,

आगे ही बढ़ते जाते।

 *

ध्यान रखो अपने तन का भी

दाँत सदा चमकाओ ना।

पढ़ो, लिखो, खेलो-कूदो,

हरदम ही मुस्काओ ना।

 *

बीज उगाओ हरियाली के,

यह साँसों की बाती है।

वन, जंगल को सभी बचाओ,

चिड़ियाँ गीत सुनाती हैं।

 *

घर आँगन में पौधे रोपो

जंगल नहीं जलाओ ना।

पढ़ो, लिखो, खेलो-कूदो,

हरदम ही मुस्काओ ना।

 *

पानी , बिजली की बचत करें हम

कभी न इनका अपव्यय हो।

राष्ट्र के हित की हरदम सोचें

जीवन की सुमधुर लय हो।

 *

करुणा, दया , प्रेम हो मन में

सोच-समझ बतलाओ ना।

पढ़ो, लिखो, खेलो-कूदो,

हरदम ही मुस्काओ ना।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #247 – कविता – ☆अपनी हिंदी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता अपनी हिंदी…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #247 ☆

☆ अपनी हिंदी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

हिंदी अपनी सहज सरल है

पानी जैसी शुद्ध तरल है।

पढ़ने  सुनने  में  है प्यारी

जैसे घर की हो फुलवारी

झर झर बहती मुख से हिंदी

ज्यों निर्मल जलवाहक नल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है।।

*

हिंदी  सबके  मन  को भाए

कथा कहानी औ’ कविताएं

ज्ञान ध्यान विज्ञान की इसमें

सारी दुनिया की हलचल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है।।

*

संविधान में यह शामिल है

देशवासियों का ये दिल है

अपनाया संसार ने हिंदी

इसमें जीवन सूत्र सबल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है।।

*

संस्कृत से निकली है हिंदी

लोकबोलियां मिश्रित हिंदी

पुण्य प्रतापी इस हिंदी में

गंगा की मधुरिम कल-कल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है।।

*

हिंदी में ही जन गण मन है

हिंदी  में  साहित्य सृजन है

हिंदी  का  सम्मान  करें,

अपनी हिंदी निश्छल निर्मल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है

पानी जैसी शुद्ध तरल है।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 71 ☆ पेड़ तुलसी के— ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “पेड़ तुलसी के—” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 71 ☆ पेड़ तुलसी के— ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सुर्ख़ फूलों से खींच कर दामन

हमने काँटे गले लगाए हैं

रोज़ आँसू से सींचकर आँगन

पेड़ तुलसी के ही उगाए हैं।

 

ज़िंदगी तो अभावों का जंगल

उमर के पाँवों दर्द की पायल

जब भी गाया ख़ुश हो महफ़िल में

अधर से गीत हो गया घायल

 

सौंपकर उनको गीत का सावन

हम तो पतझड़ में गुनगुनाए हैं।

 

रात बाक़ी है बात बाक़ी है

सिर्फ़ कहने को बात बाक़ी है

क्या सुनाएँ सुबह के भूले को

शाम बीती तो रात बाक़ी है

 

तोड़कर ज़िंदगी का हर दर्पन

साँसें थोड़ी सी चुरा लाए हैं ।

(पुराने संकलन से)

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 75 ☆ तुमने पत्थर को अक़ीदत से बनाया ईश्वर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “तुमने पत्थर को अक़ीदत से बनाया ईश्वर“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 75 ☆

✍ तुमने पत्थर को अक़ीदत से बनाया ईश्वर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

कब हुआ खून का रँग लाल से काला पगले

घर के बँटवारे से रिश्ता नहीं टूटा पगले

 *

पक गया फिर भी नहीं डाल हटाई उसको

भाग्य बूढ़ों से भला पाया है पत्ता पगले

 *

कौन कहता है घटा मेघ कराते बारिश

साथ बिरहन के गगन आज है रोया पगले

 *

शहर की उनको चकाचौध असर में लेती

गाँव का हुस्न नहीं जिसने है देखा पगले

 *

ये न रहमत है किसी की न किसी   से मिन्नत

कामयाबी जो मिली खुद को तपाया पगले

 *

तुमने पत्थर को अक़ीदत से बनाया ईश्वर

बिगड़ी तक़दीर को क्यों सिर है झुकाया पगले

 *

खोजने से नहीं सहारा में मिलेगा पानी

नाम अल्लाह के कब एड़ियाँ  रगड़ा पगले

 *

नर्म मख्खन से ज़ियादा है सदा ध्यान रहे

चोट लगने से चटक जाता कलेजा पगले

 *

वो जो रूठा हो गले उसको लगाले माने

ये मुहब्बत में अरुण का है तज़ुर्बा पगले

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 40 – गंदा बच्चा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – गंदा बच्चा।)

☆ लघुकथा # 40 – गंदा बच्चा श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

तुम  कोई काम ढंग से नहीं करते हो?

नंदिनी ने अपने छोटे 6 साल की बेटे प्रियांशु से कहा।

प्रियांशु ने जवाब दिया हां मैं बहुत बुरा हूं बड़ा भाई अनुराग बहुत अच्छा है और अभी मेरा जो दोस्त मिला था अभिनव वह भी बहुत अच्छा है। उसके साथ बड़े अच्छे से हंस हंस के बात कर रही थी।  मेरी मैडम भी कहती है कि पूरी क्लास के बच्चे बहुत बदमाश हो।  जिसे तुम अच्छा बोल रही थी और उसे टॉफी भी दी ।  मुझे तो कुछ दिलाती ही नहीं हो और मैं इतना ही गंदा हूं तो अब मैं मॉल के बाहर बैठ जाता हूं। तुम सब घर जाओ मैं नहीं जाऊंगा। नानी ने पैसे दिए थे आइसक्रीम और पॉपकॉर्न खाकर यहीं बैठा हूं। तभी उसके पिताजी किशोर ने आवाज लगाई तुम दोनों मां बेटे क्या कर रहे हो मुझे ऑफिस भी जाना है। सामान की खरीदारी हो गई हो तो कृपया घर चलो।

हां पापा। हम मां को ही पता नहीं क्या-क्या खरीदना रहता है। उटपटांग सामान खरीदती है और जब मैं कुछ बात कहता हूं तो गुस्सा हो जाती है और मुझे गंदा बच्चा कहती है। मेरे सब दोस्तों को अच्छा बच्चा कहती है। या तो आज से  मेरे दोस्तों को ही घर में रख ले। आप मुझे अपने साथ ऑफिस ले चलो। चलो हम चलते हैं।

क्या हुआ बेटा इतने नाराज क्यों हो तुम? तुम बहुत अच्छे लड़के हो।

चलो हम लोग आइसक्रीम और पॉपकॉर्न लेकर गाड़ी में बैठते हैं। एक बात नहीं समझ में आई बेटा तुमने कहा कि मैडम भी तुमको गंदा कह रही है, यह सब बातें तुम्हारे दिमाग में डाली किसने?

क्या करूं आजकल मेरा पढ़ाई लिखाई किसी काम में मन नहीं लग रहा है।

अरे तुम अभी  क्लास वन में हो। इतने छोटे  बच्चे होकर तुम ऐसी बातें कर रहे हो। तुम तो खेल पढ़ाई सब में अच्छे थे। क्या करूं आजकल मुझे कोई खेलने देता ही नहीं है। मां भी पीछे पड़ गई है फर्स्ट आना है।

चलो आज मैं तुम्हारे साथ खेलता हूं। मां को छोड़ो और तुम्हें जो काम अच्छा लगे तुम वह करो लेकिन बेटा जीवन में पढ़ाई भी बहुत जरूरी है और तुम्हारी मां और मैडम दुनिया में बहुत लोग बहुत कुछ कहते रहेंगे लेकिन तुम पढ़ाई और अपने नंबरों से सब का मुंह बंद करो तो तुम्हें खेलने से भी कोई नहीं रोकेगा।

क्या पापा सच में ऐसा करने से होगा.?

हां बेटा मैं छोटा था तो मुझे भी तुम्हारी तरह सब लोग गंदा ही रहते थे। यदि मैं सब की बातों की परवाह करता तो क्या आज मैं अपनी खुद की एक कंपनी चला पाता। देखो एक बात याद रखो पढ़ाई और खेलना सब समय से करो तुम।

चलो क्या हो रहा है मनिका बाप बेटे मेरी बुराई कर रहे हो। नहीं माँ घर चलकर मैं पढ़ाई करूंगा फिर शाम को हम और पापा खेलेंगे। आज से मैं पापा के साथ ही रहूंगा आप हर बात अच्छी तरह से समझते हैं। माँ तो यह बात समझती ही नहीं कि मैं कचरा का डिब्बा गंदा नहीं हूं?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 245 ☆ गणपती जाताना… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 244 ?

☆ गणपती जाताना… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

गणपती बसतात घरोघर,

चौकात, मंडळात, शहरभर…

उसळते गर्दी —

आरास पहायला,

श्री गणेश तेजोमय,

निरखतोय स्वच्छ प्रकाशात,

आपल्या भक्तांना,

इथेही येतात दहा दिवस,

हवशे…नवशे…गवशे….

 दहा दिवसांची जत्रा संपते,

वाजत गाजत गजानन,

जलाशयाकडे,

विसर्जनासाठी!

 आयुष्यही असंच,

लखलखून विसर्जित होण्यासाठी !

गणेशोत्सवा सारखाच,

आयुष्योत्सव साजरा करू,

विसर्जित होणं, विलीन होणं,

हे तर अंतिम सत्य!

हाच असतो,

गणेशोत्सव !

गणपती जाताना

दरवर्षीच हेच सांगतो !

जगण्याचा अर्थ कळतो !

☆  

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 72 – मुझमें है मेरा कातिल… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – मुझमें है मेरा कातिल।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 72 – मुझमें है मेरा कातिल… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मुझमें है मेरा कातिल, मुझको पता न था 

साजिश में तुम हो शामिल, मुझको पता न था

*

जिसने डुबाई कश्ती, था आसरा उसी का

दुश्मन बनेगा साहिल, मुझको पता न था

*

विष ब्याल है प्रदूषण, कितने करीब उनके 

हैं लोग इतने गाफिल, मुझको पता न था

*

हम वृक्ष पूजते हैं, वे उनको काटते हैं 

हमको कहेंगे जाहिल, मुझको पता न था

*

बेटे हुनर बताते हैं, कामयाबियों के 

वे हो गये हैं काबिल, मुझको पता न था

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 145 – मनोज के दोहे – हिन्दी हिन्दुस्तान के…☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “हिन्दी हिन्दुस्तान के… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 145 – हिन्दी हिन्दुस्तान के…

(14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर दोहे)

माथे पर बिंदी सजी, भारत माँ के आज।

देख रहा जग आज है, कल पहनेंगे ताज।।

*

हिन्दी हिन्दुस्तान के,  दिल पर करती राज।

आजादी के वक्त भी,  यही रही सरताज।।

*

संस्कारों में है पली,  इसकी हर मुस्कान।

संस्कृति की रक्षक रही,  भारत की पहचान।।

*

स्वर शब्दों औ व्यंजनों, का अनुपम भंडार।

वैज्ञानिक लिपि भी यही, कहता है संसार।।

*

भावों की अभिव्यक्ति में, है यह चतुर सुजान।

करते हैं सब वंदना,  भाषा विद् विद्वान ।।

*

देव नागरी लिपि संग,  बना हुआ गठजोड़।

स्वर शब्दों की तालिका,  में सबसे बेजोड़।।

*

संस्कृत की यह लाड़ली,  हर घर में सत्कार।

प्रीति लगाकर खो गए,  हर कवि रचनाकार ।।

*

तुलसी सबको दे गए,  मानस का उपहार।

सूरदास रसखान ने,  किया बड़ा उपकार ।।

*

जगनिक ने आल्हा रची,  वीरों का यशगान।

मीरा संत कबीर ने,  गाए प्रभु गुण गान।।

*

मलिक मोहम्मद जायसी,  रहिमन औ हरिदास।

इनको जीवन में सदा, आई हिन्दी रास।।

*

दुनिया में साहित्य की, हिन्दी बनी है खास।

विद्यापती पद्माकर , भूषण केशवदास।।

*

चंदवरदायी खुसरो,  पंत निराला नूर।

जयशँकर भारतेन्दु जी,  हैं हिन्दी के शूर।।

*

दिनकर मैथिलिशरण जी, सुभद्रा, माखन लाल।

गुरूनानक, रैदास जी,  इनने किया धमाल।।

*

सेनापति, बिहारी हुए,  बना गये इतिहास।

हिन्दी का दीपक जला,  बिखरा गये उजास।।

*

महावीर महादेवि जी, हिन्दी युग अवतार।

कितने साधक हैं रहे,  गिनती नहीं अपार ।।

*

हेय भाव से देखते,  जो थे सत्ताधीश।

वही आज पछता रहे, नवा रहे हैं शीश ।।

*

अटल बिहारी ने किया, हिन्दी का यशगान।

विजय पताका ले चले, मोदी सीना तान।।

*

हिन्दी का वंदन किया,  मोदी उड़े विदेश।

सुनने को आतुर रहा,  विश्व जगत परिवेश।।

*

ओजस्वी भाषण सुना, सबको दे दी मात।

सुना दिया हर देश में, मानव हित की बात ।।

*

विश्व क्षितिज में छा गयी, हिन्दी भाषा आज।

भारत ने है रख दिया,  उसके सिर पर ताज।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 170 ☆ “मैं खोजा मैं पाइयां” (निबंध संग्रह) – लेखक … श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुरेश पटवा जी द्वारा लिखित निबंध संग्रह “मैं खोजा मैं पाइयां…पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 170 ☆

☆ “मैं खोजा मैं पाइयां” (निबंध संग्रह) – लेखक … श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक …. मैं खोजा मैं पाइयां

निबंध संग्रह … सुरेश पटवा

प्रकाशक … आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल

पृष्ठ ..१३६, मूल्य २६० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री सुरेश पटवा 

“आनंद राहत देता है और मजा तनाव”,

” जिनके पास आँख और कान हैं वे भी अंधे और बहरे हैं “,

“इस जगत में हमारे लिये वही सत्य सार्थक है, जिसे स्वीकार कर भोग लेने की हममें योग्यता हो “

… इसी किताब में श्री सुरेश पटवा

ऊपर उधृत वाक्यांशो जैसे दार्शनिक, शाश्वत तथ्यों से इंटरनेट पर रजनीश साहित्य, बाबा जी के यूट्यूब चैनल, विकिपीडीया आदि में प्रचुर सामग्री सुलभ है, पर आजकल अपने मस्तिष्क में रखने की प्रवृत्ति हमसे छूटती जा रही है। पटवा जी एक अध्येता हैं, उनके संदर्भ विशद हैं और वे विषयानुकूल सामग्री ढ़ूंढ़ कर अपने पाठकों को रोचक पठनीय मटेरियल देने की कला में माहिर हैं। पटवा जी न केवल बहुविध रचना कर्मी हैं, वरन वे विविध विषयों पर पुस्तक रूप में सतत प्रकाशित लेखक भी हैं। साहित्यिक आयोजनो में उनकी निरंतर भागीदारी रहती ही है। कबीर के दोहे ” जिन खोजा तिन पाइयां शीर्षक से किंडल पर ओशो की एक पूरी किताब ही सुलभ है। इसी का अवलंब लेकर इस किताब में संग्रहित नौ लेखों का संयुक्त शीर्षक “मैं खोजा मैं पाइयां” रखा गया है। शीर्षक ही किताब का गेटवे होता है, जो पाठक का प्रथम आकर्षण बनता है।

मैं खोजा मैं पाइयां में “मैं की यात्रा का पथिक”, हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास, आजाद भारत में हिन्दी, “राष्ट्रभाषा, राजभाषा, संपर्क भाषा “, देवनागरी उत्पत्ति और विकास, खड़ी बोली की यात्रा, हिन्दी उर्दू का बहनौता, भारतीय ज्ञान परम्परा में पावस ॠतु वर्णन, तथा ” हिन्दी साहित्य में गुलमोहर ” शीर्षकों से कुल नौ लेख संग्रहित हैं।

किताब आईसेक्ट पब्लीकेशन भोपाल से त्रुटिरहित छपी है। आईसेक्ट रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय का ही उपक्रम है। विश्वरंग के साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनो के चलते हिन्दी जगत में दुनियां भर में पहचान बना चुके इस संस्थान से “मैं खोजा मैं पाइयां” के प्रकाशन से किताब की पहुंच व्यापक हो गई है। देवनागरी की उत्पत्ति, हिन्दी भाषा की उत्पत्ति आदि लेखों में जिन विद्वानो के लेखों से सामग्री उधृत की गई है, वे संदर्भ भी दिये जाते तो प्रासंगिक उपयोगिता और भी बढ़ जाती। हिन्दी मास के अवसर पर प्रकाशित होकर आई इस पुस्तक से हिन्दी और देवनागरी पर प्रामाणिक जानकारियां मिलती हैं, जिसका उल्लेख साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश के निदेशक डा विकास दवे जी ने पुस्तक की प्रस्तावना में भी किया है। शाश्वत सत्य यही है कि बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता, खुद खोजना होता है, ज्ञान का खजाना तो बिखरा हुआ है। जो भी पूरे मन प्राण से जो कुछ खोजता है उसे वह मिलता ही है। सुरेश पटवा जी ने इस किताब के जरिये हिन्दी भाषा की उत्पत्ति, देवनागरी उत्पत्ति, आदि शोध निबंध, साहित्य में गुलमोहर, ज्ञान परम्परा में पावस ॠतु वर्णन जैसे ललित निबंध तथा कई वैचारिक निबंध प्रस्तुत कर स्वयं की निबंध लेखन की दक्षता प्रमाणित कर दिखाई है। इस संदर्भ पुस्तक के प्रकाशन पर मैं सुरेश पटवा जी को हृदयतल से बधाई देता हूं और “मैं खोजा मैं पाइयां” का हिन्दी जगत में स्वागत करता हूं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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