हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 104 – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कहानी  “मोना जाग गई।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 104 ☆

☆ कहानी – मोना जाग गई ☆ 

मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।

उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,

“चिड़िया चहक उठी

उठ जाओ मोना। 

चलो सैर को तुम 

समय व्यर्थ ना खोना।।”

यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”

पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,

“मंजन कर लो 

कुल्ला कर लो। 

जूता पहन के

उत्साह धर लो।।”

यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।

मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,

“मेरे संग तुम दौडों 

बिल्कुल धीरे सोना। 

जा रहे वे दादाजी 

जा रही है मोना।।”

“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी। 

पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,

“सुबह-सवेरे की 

इनसे करो नमस्ते। 

प्रसन्नचित हो ये 

आशीष देंगे हंसते।।”

यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”

तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”

यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”

“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।

“हां क्यों नहीं!” दादा जी ने कहा।

यह देख सुनकर उसकी मम्मी खुश हो गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 142 ☆ व्यंग्य – जस्ट फारवर्ड ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय व्यंग्य कविता  ‘जस्ट फारवर्ड!’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 142☆

? व्यंग्य  – जस्ट फारवर्ड! ?

सुपर फास्ट इंटरनेट वाला युग है, रचना भेजो तो फटाफट पोर्टल का लिंक चला आता है, कि ये लीजीये छप गई आपकी रचना. हां, अधिकांश अखबार अब प्रकाशित प्रति नही भेजते,उनके पास कथित बुद्धिजीवी लेखक के लिये प्रतियां नही होती ।

मतलब ई मेल से रचना भेजो,vफिर खुद ही छपने का इंतजार करो और रोज अखबार पढ़ते हुये अपनी रचना तलाशते रहो. छप जाये तो फट उसकी इमेज फाईल, अपने फेसबुक और व्हाट्सअप पर चिपका दो, और जमाने को सोशल मीडीया नाद से जता दो कि लो हम भी छप गये.

अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटाक, ट्वीटर और व्हाट्सअप में सुर्खियो में बने रहने का अलग ही नशा है.  इसके लिये लोग गलत सही कुछ भी पोस्ट करने को उद्यत हैं. आत्म अनुशासन की कमी फेक न्यूज की जन्मदाता है. हडबडी में गडबड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडीया में वैसे ही फैल जाते हैं, जैसे कोरोना का वायरस फारवर्ड होता है. सस्ता डाटा फेकन्यूज प्रसारण के लिये रक्तबीज है. लिंक  फारवर्ड, रिपोस्ट ढ़ूंढ़ते हुये सर्च एंजिन को भी पसीने आ जाते हैं. हर हाथ में मोबाईल के चक्कर में फेकन्यूज देश विदेश, समुंदर पार का सफर भी मिनटों में कर लेती है, वह भी बिल्कुल हाथों हाथ, मोबाईल पर सवार.

धर्म पर कोई अच्छी बुरी टिप्पणी कहीं मिल भर जाये, सोते हुये लोग जाग जाते हैं, जो धर्म का मर्म  नहीं समझते, वे सबसे बड़े धार्मिक अनुयायी बन कर अपने संवैधानिक अधिकारो तक पहुंच जाते हैं.

आज धर्म, चंद कट्टरपंथी लोगो के पास कैद दिखता है. वह जमाना और था जब ” हमें भी प्यार हुआ अल्ला मियां ” गाने बने जो अब तक बज रहे हैं.

इन महान कट्टर लोगों को लगता है कि इस तरह के फेक न्यूज को भी फारवर्ड कर के वे कोई महान पूजा कर रहे हैं. उन्हें प्रतीत होता है कि यदि उन्होंने इसे फारवर्ड नही किया तो उसके परिचित को शायद वह पुण्य लाभ नहीं मिल पायेगा जो उन्हें मिल रहा है. जबकि सचाई यह होती है कि जिसके पास यह फारवर्डेड  न्यूज पहुंचता  है वह बहुत पहले ही उसे फारवर्ड कर अपना कर्तव्य निभा चुका होता है. सचाई यह होती है कि यदि आप का मित्र थोड़ा भी सोशल है तो उसके मोबाईल की मेमोरी चार छै अन्य ग्रुप्स से भी वह फेक न्यूज पाकर धन्य हो चुकी होती है, और डिलीट का आप्शन ही आपके फारवर्डेड मैसेज का हश्र होता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #86 ☆ उम्मीद कायम है…  ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उम्मीद कायम है… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 86 ☆ उम्मीद कायम है… 

कहते हैं हम ही उम्मीद का दामन छोड़ देते हैं, वो हमें कभी भी छोड़कर नहीं जाती। इसके वशीभूत होकर न जाने कितने उम्मीदवार टिकट मिलने के बाद ही अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता तय करते देखे जा सकते हैं। कौन किस दल का घोषणा पत्र पढ़ेगा ये भी सीट निर्धारण के बाद तय होता है। इन सबमें सुखी वे पत्रकार हैं, जो पुराने वीडियो क्लिप दिखा -दिखा कर शो की टी आर पी बढ़ा देते हैं। उन्हें प्रश्नों के लिए भी ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। वही सवाल सबसे पूछते हुए पूरा चुनाव निपटा देते हैं।

मजे की बात इन सबमें नए – नए क्षेत्रीय गायकों ने भी अपनी भूमिका सुनिश्चित कर ली है। विकास का लेखा – जोखा अब गानों के द्वारा सुना और समझा जा रहा है। धुन और बोल लुभावने होने के कारण आसानी से जुबान पर चढ़ जाते हैं। मुद्दे से भटकते लोग मनोरंजन में ही सच्चा सुख ढूंढ कर पाँच वर्ष किसी को भी आसानी से देने को तैयार देते हुए दिखाई देते हैं। होगा क्या ये तो परिवार व समाज के लोग तय करते हैं पर मीडिया जरूर भ्रमित हो जाता है। जिसको देखो वही माइक और कैमरा लेकर छोटे – छोटे वीडियो बनाकर पोस्ट करता जा रहा है। 

इन सबसे बेखबर कुर्सी, अपने आगंतुकों के इंतजार में पलक पाँवड़े बिछाए हुए नेता जी को ढूंढ रही है। वो भी ये चाहती है कि जो भी आए वो स्थायी हो, मेरा मान रखे। गठबंधन को निभाने की क्षमता रखता हो। उसकी अपील जनमानस से यही है कि सोच समझ कर ही ये गद्दी किसी को सौंपना। यही नीतियों के निर्धारक हैं; यही तुम्हारे दुःख दर्द के हर्ता हैं; यही राष्ट्रभक्त हैं जो भारत माता के सच्चे सपूत बनकर अमृत महोत्सव को साकार कर सकते हैं।

कुर्सी के मौन स्वरों को जनमानस को ही सुनना व समझना होगा क्योंकि आम जनता सब कुछ समझने का माद्दा रखती है। किसे आगे बढ़ाना है, किसे वापस बुलाना है, ये जिम्मेदारी संविधान ने उन्हें  दी है। जाति धर्म का क्या है ? ये कुर्सी तो सबसे ऊपर केवल राष्ट्र की है, जो देश का, वही जनता का और वही सच्चा हकदार इस पर विराजित होकर जन सेवा करने का।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 95 ☆ हँसता जीवन ही बचपन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  रचना “हँसता जीवन ही बचपन”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 95 ☆

☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ 

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।

मुझको तो बस ऐसा लगता

तू पूरा ही गाँव  – नगर है।।

 

रहें असीमित आशाएँ भी

जो मुझको नवजीवन देतीं।

जीवन का भी अर्थ यही है

मुश्किल में नैया को खेतीं।

 

हँसता जीवन ही बचपन है

दूर सदा पर मन से डर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

पल में रूठा , पल में मनता

घर – आँगन में करे उजारा।

राग, द्वेष, नफरत कब जागे

इससे तो यह तम भी हारा।

 

बचपन तू तो खिला सुमन है

पंछी – सा उड़ता फर – फर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

बचपन का नाती है नाना

खेल करे यह खूब सुहाए।

सदा समर्पित प्यार तुम्हीं पर

तुम ही सबका मिलन कराए।

 

झरने, नदियाँ तुम ही सब हो

जो बहता निर्झर – निर्झर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 97 – पडवी ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #97  ?

☆ पडवी 

हल्ली शहरात आल्या पासून

गावाकडंची खूप आठवण येऊ

लागलीय

गावाकडची माती

गावाकडची माणसं

गावाकडचं घर

अन्

घरा बाहेरची पडवी

घराबाहेरची पडवी म्हणजे

गावाकडचा स्मार्टफोनच…!

गावातल्या सर्व थोरा मोठ्यांची

हक्काची जागा म्हणजे

घराबाहेरची पडवीच…!

जगातल्या प्रत्येक गोष्टीवर इथे

चर्चासत्र रंगतं

आणि कोणत्याही प्रश्नावर इथे

हमखास उत्तर मिळतं

दिवसभर शेतात राबल्यावर

पडवीत बसायची गंमतच

काही और असते..

अन् माणसां माणसांमध्ये इथे

आपुलकी हीच खासियत असते

पडवीतल्या गोणपाटावर अंग

टाकलं की ,

आपण कधी झोपेच्या

आधीन होतो हे

कळत सुध्दा नाही

पण शहरात आल्या पासून ,

ह्या कापसाच्या गादीवर

क्षण भर ही गाढ झोप

लागत नाही…!

घराबाहेरचं सारं जग एकाएकी

अनोळखी वाटू लागलंय….

अन् ह्या चार भितींच्या आत

आज.. डोळ्यांमधलं आभाळं देखील

नकळतपणे भरून आलंय

कधी कधी वाटतं

ह्या शहरातल्या घरांना ही

गॅलरी ऐवजी

पडवी असती तर

आज प्रत्येक जण

स्मार्टफोन मधे डोकं

खुपसून बसण्यापेक्षा

पडवीत येऊन बसला असता…

आणि खरंच

गावाकडच्या घरासारखा

ह्या शहरातल्या घरानांही

मातीचा गंध सुटला असता….!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#117 ☆ गणतंत्र दिवस विशेष – मैं भारत हूँ…..☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “मैं भारत हूँ…..”)

☆  तन्मय साहित्य  #117 ☆

?? गणतंत्र दिवस विशेष – मैं भारत हूँ….. ??

मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा।

प्रेम शांति सद्भावों की, बहती जलधारा।।

 

सत्य सनातन धर्म-कर्म के स्रोत यहाँ है

भेदभाव नहीं जाति पंथ में, द्वेष यहाँ है

हिंदू-मुस्लिम, बौद्ध, पारसी और ईसाई,

सब के अंतर में समतामय, बोध यहाँ है।

  क्षमताओं में ममतामय कौशल बल निर्मल

  सर्वे भवन्तु सुखिनः, मूलमंत्र यह प्यारा।

  मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा

 

अलग-अलग भाषा बोली के कंठ सुरीले

सबसे ऊपर हिंदी, इसके बोल रसीले

गंगा, यमुना और नर्मदा पुण्य दायिनी

पाप मिटे जो इनका जल श्रद्धा से पी ले,

    ज्ञान ध्यान साधना नियम संयम है मुझमें

    इंद्रधनुष सतरंगा ये गुलशन अति प्यारा।

    मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा।।

 

 मैं शांति का उदघोषक सब जीव अभय हो

 हूँ क्रांति का पोषक, अपनी सदा विजय हो

 “वसुधैव कुटुंबकम” का संदेश हमारा,

 चाह, विश्व में भ्रातृभाव की, मधुरिम लय हो

   पराक्रमी पुरुषत्व, उमंगित जन-मन मेरा

   सकल विश्व में हूँ, समज्योतिर्मय ध्रुव तारा।

   मैं हूँ भारत देश अहिंसा मेरा नारा।।

                                    

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#10 ☆ पगडंडियों के रास्ते ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल

 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण  रचना  “पगडंडियों के रास्ते”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 10 ✒️

?  पगडंडियों के रास्ते —  डॉ. सलमा जमाल ?

इक हंसी दोशीज़ा

पुरुषों को रिक्शे पे लिए ।

जा रही थी ठाट से

पगडंडियों के रास्ते ।।

चलते चलते एक नज़र

ग़ुरूर से देखा मुझे ,

कहती हो ,मंज़िल पर

ढोकर ले जाऊंगी तुझे ,

जोश है तूफ़ान सा,

फ़ख़्र औरत के वास्ते ।

जा रही ——————-।।

 

वाह रे हिंदुस्तान , क्या

हुस्न की तोक़ीर है ,

औरत के कंधे पे बैठे,

मर्द ये रणवीर हैं ,

पाला होगा बाप ने इस ,

परी को किस नाज़ से ।

जा रही ——————–।।

 

रहना था जिसको महलों में,

सड़क पर आ गई ,

नारी की अस्मत देख ,

धरती मां भी शरमा गई ,

अबला नहीं , सबला है ,

यह दुर्गा बनी खाक से ।

जा रही —————–।।

 

हे वतन की रूह ऐ ,

हिंदुस्तां की रहनुमा ,

हालात से लड़कर बनी,

हिम्मते मरदे जवां ,

क़ायम की मिसाल तूने ,

पन्नों में इतिहास के ।

जा रही —————-।।

 

औरत अब पाज़ेब की ,

झंकार तक सीमित नहीं ,

लालो गौहर ,ज़र – ज़ेवर ,

नज़र में क़ीमत नहीं ।

हक़ पाए अपना ‘ सलमा ‘

बराबरी के वास्ते ।

जा रही ——————–।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

संतोषी साहब परिवार सहित नगर में और अपनी अंतरात्मा सहित ब्रांच में स्थापित हो गये. मुख्य प्रबंधक जी के अस्नेह को उन्होंने भी ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकारा और अपने काम में लग गये. यहाँ काम का अर्थ, बैंक के कर्मवीरों की डिक्शनरी से अलग था. पर हर व्यक्ति की तरह उनमें कुछ दुर्लभ गुण भी विद्यमान थे जिससे शाखा के स्टाफ ने उन्हें बहुत तेजी से अंगीकार कर लिया. पहला गुण तो यही था कि उनका किसी से पंगा नहीं लेने का सिद्धांत था. दूसरा सहनशीलता में बैल भी उनसे पार नहीं पा सकता था. बैंकिंग के अलावा अन्य विषयों पर उनकी गजब की पकड़ थी और एक से बढ़कर एक रोचक किस्से उनके बस्ते में रहते थे जो शाम पांच बजे के बाद जब खुलता था तो उनके इर्दगिर्द सुनने वालों का मजमा लग ही जाता था, विशेषकर उस समय जब मुख्य प्रबंधक अपने कक्ष में उपस्थित नहीं होते थे.

बैंकिंग का यह काल प्राचीन स्वर्णिम काल था जब बैंक शाखाएँ टेक्नोलॉजी की जगह मानवीय संबंधों के आधार पर चला करतीं थीं. बिज़नेस के नाम पर कस्टमर्स की आवाजाही दोपहर तीन बज़े समाप्त हो जाती थी, स्टाफ अपने अपने ग्रुप में लंच के लिये प्रस्थान कर जाते थे. ये वो ज़माना था जब शाखाओं में चहल पहल भारत के समान होती थी और तकनीकी रूप से विकसित अमरीका जैसी निर्जनता सिर्फ रात्रि सात आठ बजे के बाद ही मिल पाती थी जब सिक्युरिटी गार्ड शाखा के सुरक्षा सिंहासन पर राज़ा के समान राज किया करते थे.

रिक्रिएशन हॉल जहाँ होते थे वो भी अविवाहित युवकों के कारण ज़रूर आठ बज़े तक हलचलायमान होते थे पर उसके बाद बैंक के ये भविष्य भी अपनी दिनभर की थकान उतारने का पूरा सामान लेकर महा-विशिष्ट डिनर के लिये उपयुक्त हॉटल में प्रस्थान कर जाते थे. हालांकि घुसपैठ यहाँ भी होती थी जब इन युवाओं के बीच पत्नी के अंशकालिक विरह से त्रस्त forced batchler भी शामिल हो जाते थे, इनमें कभी कभी संतोषी साहब भी हूआ करते थे जो सुरूर में मधुबाला, मीनाकुमारी और नर्गिस की प्रेमकथाओं के एक से बढ़कर एक रोमांचक और जादुई किस्से अपने बैग से निकालकर महफिल में परोसा करते थे, इससे महफिलें रंगीन हो जाती थीं और संतोषी साहब हरदिल अज़ीज़. लोग इन महफिलों में उन्हें प्यार से अंकल सैम बुलाते थे और इस संबोधन को बड़ी सहजता से स्वीकारा भी जाता था.

ये महफिलें बड़ी शानदार हुआ करतीं थी जहाँ हर विषय पर और हर स्टाफ के बारे में चटखारे ले लेकर किस्सागोई की जाती थी.कभी कभी इस किस्सागोई के नायक या असलियत में खलनायक, शाखा के मुख्य प्रबंधक भी हुआ करते थे जो स्वाभाविक रुप से इन महफिलों में सदा अनुपस्थित रहते थे. शाखा प्रबंधक के लिये खलनायक बनना कभी कठिन नहीं हुआ करता, कभी कभी दो चार दिन की छुट्टी नहीं देने से भी यह उपाधि मिल जाती है. बैंकिंग की ये रंगभरी दुनिया आज भी अपनी ओर यादों में खींच लेती है जब नौकरी भले ही दस से छह बजे की हो पर लोग बैंक की दुनियां में चौबीसों घंटे मगन रहा करते थे और “जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ” गाया करते थे.

हमारे और आपके दिलों को भाती ये कथा जारी रहेगी, बस प्रोत्साहन की ऑक्सीजन देते रहिए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 93 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ –4 – बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी #93 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 4- बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

पंद्रह दिन के बाद जब कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार हटा से अपना सारा सामान काले रंग की गोल मटकी, ढेर सारी बांस की खपच्चियाँ , सुतली, पुराने कपड़े और सफेद व लाल मिट्टी लेकर उमरिया पहुंचे तो उन्हे देखकर पांडे जी की बाँछें खिल गई । प्रशिक्षण की तैयारियां वे पहले ही कर चुके थे । बिजूका बनाने की कला सीखने के लिए 15 आदिवासी युवा तैयार बैठे थे । सारे सामान की कीमत जानकार और थोड़ा मोलभाव कर उसका पक्का बिल बनवाने के लिए पांडेजी ने एक दुकानदार को पहले ही सेट कर रखा था । सरकारी कामों में पक्के बिल का वही महत्व है जो बारात में फूफा का होता है । सामान भले न खरीदा गया हो पर अगर बिल पक्का है तो आडिटर उसमें कोई खोट नहीं निकालता । लेकिन पक्के बिल का अभाव, जीवन भर की सारी ईमानदारी पर काला बदनुमा दाग लगा देता है ।

दोपहर होते होते जिला पंचायत से मुख्य कार्यपालन अधिकारी को लेकर पांडेजी प्रशिक्षण शाला में पधारे और फिर बिजूका निर्माण कार्यशाला का विधिवत उद्घाटन पूरे झँके मंके के साथ हो गया । बिजूका बनाना सिखाने  के लिए यह प्रदेश भर में पहली कार्यशाला थी और इसे स्वीकृत कराने में पांडेजी ने एडी चोटी एक कर दी थी । मौका अच्छा था, पांडेजी ने पूरी दास्तान इस रोचक अंदाज में सुनाई की जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी वाह वाह कर उठे और प्रशिक्षण अवधि के दौरान  कलेक्टर साहब को भी लाने का आश्वासन दे बैठे । पांडेजी के लिए यह आश्वासन सोने पर सुहागा ही था । 

पंद्रह दिनों के प्रशिक्षण के दौरान आदिवासी युवकों ने दो बातें सीखी एक तो बिजूका बनाना और दूसरा खेतों में कटीली झाड़ियों के लगाने के फायदे। कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार हिन्दी नहीं जानते थे उनका बतकाव बुन्देली भाषा में होता, बीच बीच में देहाती कहावतें भी वे सुना देते। आदिवासी युवा पढे लिखे थे पर बुन्देली भाषा में बातचीत उन्हें रास नहीं आती ।  ऐसे में पांडेजी को अनुवादक की भूमिका निभानी पड़ती। प्रशिक्षण के बाद बिजूका की बिक्री और उन्हें खेत में लगाने का अभियान चलाया गया । चूंकि सम्पूर्ण प्रक्रिया में आदिवासी लड़के संलिप्त थे तो इस काम में भी परेशानी न हुई और देखते ही देखते सारे बिजूका बिक गए। प्रशिक्षणार्थियों को पहली बार अपनी मेहनत की चवन्नी मिली।

जंगल की तलहटी के खेतों में रबी की फसल लहलहाने लगी । बाड़ी और बिजूका खेत के चौकीदार थे, चोरी होने ही न देते । दिन भर पक्षी और बंदर  पेड़ पर बैठे बैठे बिजूका के हटने का इंतजार करते और इधर बिजूका टस से मस न होता । पूरी मुस्तैदी के साथ बीच खेत में खड़ा रहता और उसके कपड़े हवा चलने पर उड़ते और फड़फड़ाते । ऐसी आवाजें तो पक्षियों और बंदरों ने कभी सुनी ही नहीं थी । इन विचित्र आवाजों को सुनकर और कपड़ों को उड़ता देख पक्षी भी डर के मारे खेत के आसपास न फटकते ।

दिन बीते , फसल में दानें  आ गए। नए दानों की खुशबू दूर दूर तक फैलती और पक्षियों को ललचाती पर खेत में खड़े बिजूका का भय उन्हे खेत के ऊपर से भी न उड़ने देता । रात में भी नीलगाय और हिरण बाड़ी देखकर ही वापस चले जाते । परेशान पक्षियों ने एक रोज बैठक करी और चतुर कौवे से बिजूका को नुकसान पहुंचाने का अनुरोध किया । कौवा मान  गया पर कठोर मटकी को फोड़ पाने का साहस उसकी चोंच न दिखा सकी । थक हार कर पक्षियों ने तोते से कुछ गीत गाने को कहा । तोते ने भी कभी मनुष्यों की बस्ती में यह कहावत सुनी थी “अरे बिजूका खेत के, काहे अपजस लेत आप न खैतैं खात हो, औरे खान न देत ।‘ तोता ने सारे पक्षियों को यह कहावत बिजूका के सामने गाने को कहा।

पक्षी इसके लिए आसानी से तैयार न हुए । उन्हें खेतों में कपड़ें पहनाकर खड़े किए गए पुरुषाकृति पुतले को देखकर ही डर लगता था ।

तब तोते के सरदार ने कहा कि इस कहावत से तो हम बिजूका की तारीफ ही करने वाले हैं । हम बिजूका से कहेंगे कि अरे खेत के बिजूके! तुम अपने सिर पर अपयश क्यों ले रहे हो, खेत को न तो तुम स्वयं ही खाते हो और न दूसरों को खाने देते हो।

तोते के सरदार की बात नन्ही गौरया को पसंद नहीं आई।  उसने कहा कि ऐसी तारीफ करने से भला यह रखवाला पसीजेगा। उलटे कहीं पत्थर वगैरह मार दिया तो मैं तो मर ही जाऊँगी ।

पक्षियों के बीच यह वार्तालाप चल ही रहा था कि गाँव के मुखिया का हरवाहा उस पेड़ के नीचे से निकला । वह “तुलसी पक्षिन के पिए, घटैं न सरिता नीर, धरम किए धन न घटैं जो सहाय रघुवीर,”   गुनगुनाते हुए जा रहा था कि उसके कानों में पक्षियों की कातर आवाज सुनाई पड़ी। उसे बड़ा दुख हुआ कि भगवान के बनाए पक्षी बिजूका के डर से भूख से व्याकुल हो रहे हैं तो उसने मुखिया के खेत की बारी खोली और बिजूका के पास जाकर छिप गया । वहाँ से वह जोर जोर से गाने लगा “ राम की चिरैया राम कौ खेत, खाव री चिरिया भर भर भर पेट । “

पक्षियों ने जब यह दोहा सुना तो उन्होंने आवाज की दिशा पहचानी और मुखिया के खेत में टूट पड़े। पलक झपकते ही सारे दानें  खा लिए और बहुत से इधर उधर बिखेर भी दिए। हरवाहा भी चिड़ियों को चहचहाता देख बड़ा खुश हुआ और यह कहता  हुआ गाँव चला गया “ पियै चोंच भर पांन चिरिया, आगे कौं का करने, सूखी रोटी कौरा खाकैं, अपनी कथरी जा परनें। “ ( चिड़िया चोंच भर पानी पीकर शांति से अपने घोंसले में सो जाती है ।  उसे भविष्य की कोई चिंता नहीं रहती।  उसी प्रकार  बेचारे दीन  व्यक्ति रूखी सूखी रोटी खाकर फटी पुरानी कथरी ओढ़कर सो जाते हैं ।

इधर मुखिया का खेत साफ हो रहा था उधर उमरिया में पांडेजी लंबी तान कर रजाई ओढ़कर सो रहे थे । सुबह जब वे जागे तो घर के बाहर मेला लगा था । मुखिया अपने लोगों के साथ पांडेजी का घर घेरकर खड़ा था । उसने अपने खेत के नुकसान की पूरी कहानी सुनाई और पूरा दोष पांडेजी की बिजूका वाली सलाह को दे दिया । पांडेजी आश्चर्य में पड़  गए आज तक तो उन्होंने बिजूका को खेत की रखवाली करते सुना था । चौकीदार चोर हो सकता है यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था । खैर मुखिया को उन्होंने अदब के साथ बैठक खाने में बिठाया चाय नाश्ता करवाकर उसका क्रोध शांत किया और खेत का निरीक्षण कर निष्कर्ष पर पहुंचने की बात की ।

पांडे जी बिजुरी गाँव के खेतों में दिनभर मुखिया के साथ घूमते रहे। पक्षी सिर्फ मुखिया के खेत में चक्कर काट रहे थे। दूसरे खेतों में घुसने की तो वे हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे थे। पांडेजी यह देखकर आश्चर्य में थे कि अचानक उनके मुख से “बारी खेतें खाय’ लोकोक्ति निकल पड़ी।

मुखिया ने पूछा क्या समझ में आया साहब ? हमारे खेत में ही चिड़िया क्यों चुग रही है।

पांडेजी ने जवाब दिया “सब किस्मत का खेल है मुखिया जी जब बाड़ी ही खेत खा  जाए तो हम क्या कर सकते हैं। अब आपका चौकीदार बिजूका ही चोर निकल गया, लगाओ इसे चार डंडे।“  जब तक मुखिया बिजूका की मरम्मत करता पांडे जी उसे नमस्कार कर उमरिया चल दिए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 118 ☆ मनस्विनी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 118 ?

☆ मनस्विनी ☆

(कन्यादिन-२४ जानेवारी)

मला हवी होती

 एक मुलगी,

माझ्या सारख्याच

 चेह-या मोह-याची,

माझी झालेली प्रत्येक

 कुचंबणा टाळू शकणारी,

माझ्या बुजरेपणाचा,

भित्रेपणाचा लवलेशही

नसणारी,

एक तेजस्विनी हवी होती मला,

माझी अनेक अधुरी स्वप्नं,

सत्यात उतरवणारी

सत्यवती,

मी हरलेले क्षण जिंकून घेणारी

अपराजिता

हवी होती मला !

माझ्या पोटी जन्मायला

हवी होती,

मी मनात जपलेली

मनस्विनी !

(अनिकेत-१९९७  मधून—१९९४ साली लिहिलंय…)

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares