हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 103 – “खामोशी की चीखें” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा संजीव कुमार जी के काव्य संग्रह  “खामोशी की चीखें” की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : खामोशी की चीखें (काव्य संग्रह)

कवि – डा संजीव कुमार

प्रकाशक : इंडिया नेट बुक्स, नोएडा

मूल्य २२५ रु, अमेजन पर सुलभ

प्रकाशन वर्ष २०२१

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 103 – “खामोशी की चीखें” – डा संजीव कुमार ☆  

खामोशी की चीख शीर्षक से ही  मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं…

“खामोशी की चीख के

सन्नाटे से,

डर लगता है मुझे

मेरे हिस्से के अंधेरों,

अब और नहीं गुम रहूंगा मैं

छत के सूराख से

रोशनी की सुनहरी किरण

चली आ रही है मुझसे बात करने. “

कवि मन अपने परिवेश व समसामयिक संदर्भो पर स्वयं को अभिव्यक्त करता है यह नितांत स्वाभाविक प्रक्रिया है. हिमालय पर्वत श्रंखलायें सदा से मेरे आकर्षण का केंद्र रही हैं. मुझे सपरिवार दो बार जम्मू काश्मीर के पर्यटन के सुअवसर मिले. बारूद और संगिनो के साये में भी नयनाभिराम काश्मीर का करिश्माई जादू अपने सम्मोहन से किसी को रोक नही सकता.वरिष्ठ कवि पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ने वहां से लौटकर लिखा था.. “

लगता यों जगत नियंता खुद है यहाँ प्रकृति में प्राणवान

मिलता नयनो को अनुपम सुख देखो धरती या आसमान 

जग की सब उलझन भूल जहाँ मन को मिलता पावन विराम 

हे धरती पर अविरत स्वर्ग काश्मीर तुम्हें शत शत प्रणाम “

आतंकी विडम्बना से वहां की जो सामाजिक राजनैतिक दुरूह स्थितियां विगत दशकों में बनी उनसे हम सभी का मन उद्वेलित होता रहा है. किन्तु ऐसा नही है कि काश्मीर की घाटियां पहली बार सेना की आहट सुन रही है, इतिहास बताता है कि सदियों से आक्रांता इन वादियों को खून से रंगते रहे हैं. लिखित स्पष्ट क्रमबद्ध इतिहास के मामले में काश्मीर धनी है, नीलमत पुराण में उल्लेख है कि आज जहां काश्मीर की प्राकृतिक छटा बिखर रही है, कभी वहाँ विशाल झील थी, कालांतर में झील का पानी एक छेद से बह गया और इससुरम्य घाटी का उद्भव हुआ. इस पौराणिक आख्यान से प्रारंभ कर,  १२०० वर्ष ईसा पूर्व राजा गोनंद से राजा विजय सिन्हा सन ११२९ ईस्वी तक का चरणबद्ध इतिहास कवि कल्हण ने “राजतरंगिणी ” में लिपिबद्ध किया है. १५८८ में काश्मीर पर अकबर का आधिपत्य रहा, १८१४ में राजा रणजीत सिंह ने काश्मीर जीता, यह सारा संक्षिपत इतिहास भी डा संजीव कुमार ने  “खामोशी की चीखें” के आमुख में लिखा है, जो पठनीय है. श्री यशपाल निर्मल, डा लालित्य ललित, व डा राजेशकुमार तीनो ही स्वनामधन्य सुस्थापित रचनाकार हैं जिन्होने पुस्तक की भूमिकायें लिखीं है.

पुस्तक में वैचारिक रूप से सशक्त ५२ झकझोर देने वाली अकवितायें काश्मीर के पिछले दो तीन दशको के सामाजिक सरोकारो, जन भावनाओ पर केंद्रित हैं. यद्यपि कविता आदिवासी व कोरोना दो ऐसी कवितायें हैं जिनकी प्रासंगिकता पुस्तक की विषय पृष्ठभूमि से मेल नहीं खाती, उन्हें क्यो रखा गया है यह डा संजीव कुमार ही बता सकेंगे.

डा संजीव कुमार स्त्री स्वर के सशक्त व मुखर हस्ताक्षर हैं. वे काश्मीरी महिलाओ पर हुये आतंकी अत्याचारो के खिलाफ संवेदना से सराबोर एक नही अनेक रचनाये करते दिखते हैं.

उदाहरण स्वरूप..

लुता चुकी हूं,

अपना सब कुछ,

अपना सुहाग,

अपना बेटा, अपनी बेटी,

अपना घर,

पर पता नही कि मौत क्यों नही आई ?

ये वेदना जाति धर्म की साम्प्रदायिक सीमाओ से परे काश्मीरी स्त्री की है. ऐसी ही ढ़ेरो कविताओ को आत्मसात करना हो तो “खामोशी की चीखें” पढ़ियेगा, किताब अमेजन पर भी सुलभ है.  

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गुड़ – भाग-1 ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुए रोचक आलेख “गुड़” की श्रृंखला  का पहला भाग।)   

☆ आलेख ☆ गुड़ – भाग -1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज स्थानीय समाचार पत्र में एक ब्रांडेड गुड़ का विज्ञापन छपा था “डॉ. गुड़” तो अचंभा लगा कि गुड़ जैसे खाद्य पदार्थ को विज्ञापन की क्या आवश्यकता आ गई ? ब्रांड का नाम ही रखना था तो “वैद्य गुड़” कर सकते थे। ये तो वही बात हो गई गुरु (वैद्य) गुड़ रह गया चेला (डॉ.) शक्कर हो गया। माहत्मा गांधी ने सही कहा था “अंग्रेज देश में ही रह जाए परंतु अंग्रेज़ी वापिस जानी चाहिए”, लेकिन हुआ इसका विपरीत अंग्रेज़ तो चले गए और अंग्रेज़ी छोड़ गए।

देश में हापुड़ को गुड़ की मंडी का नाम दिया गया है। दक्षिण भारत में तो अंका पली का डंका बजता हैं। उत्तर भारत को सबसे बड़ा आई टी केंद्र गुरुग्राम भी तो गुड़ का गांव (गुड़गांव) ही था। कुछ वर्ष पूर्व दैनिक पेपर में अनाज और अन्य जिंसों की भाव तालिका प्रतिदिन छपा करती थी, आज की युवा पीढ़ी क्रय करने से पूर्व मूल्य पर कम ही ध्यान देती हैं।

हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती है, यही बात शक्कर (चीनी) पर भी लागू होती है। गुड़ सोना है,और चीनी चांदी है। हालांकि ये बात शुगर लॉबी वालों को हज़म नहीं होगी, उनके निज़ी स्वार्थ जो  जुड़े हैं। खांडसारी कुटीर उद्योग को तो शुगर इंडस्ट्री कब का चट कर गई।

अब लेखनी को विराम देता हूँ, गुड़ की चाय पीने के बाद दूसरा भाग लिखूंगा।

अगले सप्ताह पढ़िए गुड़ की चाय पीने के बाद का अगला भाग ….. 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 109 – लघुकथा – अधिकार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा  “अधिकार”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 109 ☆

? लघुकथा – अधिकार ?

एक छोटे से गांव में अखबार से लेकर तालाब, मंदिर और सभी जगहों पर चर्चा का विषय था कि कमला का बेटा गांव का पटवारी बन गया है।

कमला ने अपने बेटे का नाम बाबू रखा था। कमला का बचपन में बाल विवाह एक मंदबुद्धि आदमी से करा दिया गया था। दसवीं पास कमला पहले ही दिन पति की पागलपन का शिकार हो गई और फिर मायके आने पर घर वालों ने भी अपनाने से इंकार कर दिया। पड़ोस में अच्छे संबंध होने के कारण उसने अपनी सहेली के घर शरण ली।

फिर आंगनबाड़ी में आया के रूप में काम करने लगी। अपना छोटा सा किराए का मकान ले रहने लगी।

कहते हैं अकेली महिला के लिए समाज का पुरुष वर्ग ही दुश्मन हो जाता है। गांव के ही एक पढे-लिखे स्कूल अध्यापक ने सोचा मैं इसको रख लेता हूं। इसका तो कोई नहीं है मेरी तीन लड़कियां है। उसका खर्चा पानी इसके खर्च से आराम से चलेगा और पत्नी को भी पता नहीं चलेगा।

गुपचुप आने जाने लगा। कमला मन की भोली अपनी तनख्वाह पाते ही उसे दे देती थी। सोचती कि मेरा कोई तो है जो सहारा बन रहा है।

धीरे-धीरे गांव में बात फैलने लगी मजबूरी में दोनों को शादी करनी पड़ी। एक वर्ष बाद कमला को पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु उसके दुख का पहाड़ तो टूट पड़ा। बच्चा जब साल भर का हुआ तब उसे शाम ढलते ही दिखाई नहीं देता था।

कमला ने सोचा मेरे तो भाग्य ही फूटे हैं। आदमी अब तो दूरी बनाने लगा कि खर्चा पानी इलाज करवाना पड़ेगा।

धीरे-धीरे दोनों अलग हो होने लगे वह फिर अपने परिवार के पास चला गया। रह गई कमला अकेले अपने बाबू को लेकर। समय पंख लगा कर उड़ा जैसे तैसे दूसरों की मदद से पढ़ाई कर बाबू बी.काम. पास हुआ।

तलाक हो चुका था, कमला और अध्यापक का। पटवारी फार्म भरने के समय वह चुपचाप पिताजी के नाम और माता जी के नाम दोनों जगह कमला लिखा था। हाथ में पटवारी की नियुक्ति का कागज ले जब वह घर जा रहा था। रास्ते में पिताजी ने सोचा शायद बेटा माफ कर देगा, परंतु बाबू ने पिताजी की तरफ देख कर गांव वालों के सामने कहा…. मरे हुए इंसान का अधिकार खत्म हो जाता है। अपने लिए मरा शब्द और अधिकार बाबू के मुंह से, सुनकर कलेजा मुंह को आ गया।

आरती की थाल लिए कमला कभी अपने बाबू को और कभी उसके नियुक्ति पत्र में लिखें शब्दों को देख रही थीं । अश्रुं की धार बहने लगी सीने से लगा बाबू को प्यार से आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। पूरे अधिकार से स्वागत करते हुए कमला खुश हो गई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 120 ☆ भरवसा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 120 ?

☆ भरवसा ☆

तुझ्या डोळ्यांत आरसा

तिथे अंधार हा कसा

 

मेंदू लागला पोखरू

नाही झोपत पाखरू

एक ध्यास मनामध्ये

एका फुलाची लालसा

 

नाते फूल पाखराचे

आहे मला जपायचे

दोघे मिळून जपुया

पिढीजात हा वारसा

 

फूल होता या कळीचे

भाग्य फुले डहाळीचे

गंध दूरवर जाई

होई पाकळ्यांचा पसा

 

जाई काट्याला शरण

त्याच्या सोबती मरण

क्षणभंगुर आयुष्य

नाही त्याचा भरवसा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ एकच सत्य… ☆ श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ एकच सत्य… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆ 

कर दोन तरी,

नमस्कार एक.

दोन्हीं डोळ्यातले,

भाव एकएक.

दोन पायांखाली,

वाट एकएक.

भक्ती प्रणय वेगळे,

प्रेम एकएक.

मीरा राधा वेगळीही,

श्याम एकएक.

भिन्नता वेगळी,

संकल्पना एकएक.

जरी प्रार्थना वेगळ्या,

असो मागणेही एक.

तुझ्या माझ्यातले द्वैत,

व्हावे एकएक.

न उरावे अद्वैत,

सत्य समजावे एक.

 

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 72 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 72 –  दोहे ✍

सत्ताधारी जब रहे, सूजी उनकी डाढ़,

फिर जिनका कब्जा हुआ, डाढें रहे उखाड़।।

 

शिक्षा मंत्री बन गए, बाप पढ़ें  ना पूत ।

पढ़े-लिखे की हैसियत, हैंडलूम का सूत।।

 

क्या है उनकी कुंडली, क्या है उनका ज्ञान ।

अरे अरे मत पूछिए, सुनिए सिर्फ बयान।।

 

महंगाई की मार से, सभी लोग बेहाल ।

ढेर ढेर भूसा दिखे, खिंचे हमारी खाल।।

 

बहिन बेटियों समझ लो, समय-सांड  बिगड़ैल ।

सोच समझकर निकलिए, राजनीति की गैल।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 72 – घाट की निश्छल … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – घाट की निश्छल।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 72 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || घाट की निश्छल … || ☆

पूछता है अब

नदी का कुल ।

अकड़ कर जर्जर

पुराना पुल ।।

 

बाढ़ है उतरी

लगा अनुमान।

कह रहा, हूँ ले

रहा संज्ञान ।

 

पानी-पानी थी

नहीं पूछा कभी ।

आज परिचय

पूछने ब्याकुल ।।

 

संधियाँ छुट-पुट

किनारों की ।

स्मृतियाँ जल के

प्रहारों की ।

 

खिला जिन पर

मुस्कुराता अकिंचन

वनस्पतियों का

हरित संकुल ।।

 

घाट की निश्छल

टिटहरी जो ।

रह चुकी हैअडिग

प्रहरी वो ।

 

कह रही सबसे

जरा सीखो ।

जिस तरह रहती

यहाँ बुलबुल ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-01-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 120 ☆ मजबूरी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय लघुकथा मजबूरी…!’ )  

☆ संस्मरण # 120 ☆ मजबूरी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

गाँव में मास्साब ट्रांसफर होकर आए हैं, शहर से। गाँव में ट्रांसफर होने से आदमी चिड़चिड़ा हो जाता है। मास्साब कक्षा में आकर मेज में छड़ी पटकते हैं। छकौड़ी प्रतिदिन देर से आता है, इसलिए दो छड़ी पिछवाड़े और दो छड़ी हथेली पर खाने की उसकी आदत हो गई है। सख्त अध्यापक किसी विद्यार्थी का देरी से आना बर्दाश्त नहीं कर सकता, ऐसे नालायक विद्यार्थियों से उसे चिढ़ होती है। मजबूरी में छकौड़ी छड़ी की चोट से तड़पता रहा, सहता रहा और ईमानदारी से पढ़ता रहा।

एक दिन मास्साब छकौड़ी के घर का पता पूछते पूछते उसके घर पहुंचे और यह जानकर स्तब्ध रह गए कि छकौड़ी के माता-पिता का कोरोना से निधन हो गया था और छकौड़ी अपनी बहन को रोज समय पर स्कूल छोड़ने जाता है और इसी कारण से वह अपने स्कूल पहुँचने में लेट हो जाता है।

अचानक मास्साब की आंखें नम हो गईं, उन्होंने छकौड़ी को गले लगाते हुए कहा- तुम जैसा लायक और होनहार विद्यार्थी पाकर मुझे गर्व है……

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #62 ☆ # वैचारिक क्रांति # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# वैचारिक क्रांति #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 62 ☆

☆ # वैचारिक क्रांति # ☆ 

बड़ी बेखौफ हवा चल रही है

धूप भी छांव में ढल रही है

सुलग रहे हैं आशियाने

आग अंदर ही अंदर जल रही है

 

मुस्कुराते हुए चेहरे है

अंदर घाव बड़े गहरे हैं

कशमकश में डूबे हुए

सैलाब किनारे पर ठहरे हैं

 

यह कैसा अजीब खेल है

दो विपरीत ध्रुवों का

अनोखा मेल है

सिंह और हिरण 

एक नाव में सवार है

जंगल के सभी प्राणी

नाव को रहे ठेल है

 

दंगल में यह कौन

नया खिलाड़ी उतरा है

उसके पास कौनसा

नया पैंतरा है

विश्व विजेता पहलवान

डर कर कह रहा है

उसकी जान को खतरा है

 

जन आक्रोश के आगे

तानाशाह भी झुकते ही है

प्रबल विरोध के आगे

दमन चक्र रूकते ही है

वैचारिक क्रांति

कोई रोक नहीं पाया है

उग्र हुए लोग

राजसिंहासन फूंकते ही है/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 64 ☆ नेत्र … ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 64 ? 

☆ नेत्र … ☆

(अष्ट-अक्षरी)

नेत्र पाहतील जेव्हा, तेव्हा खरे समजावे

उगा कधीच कुठेच, मन भटकू न द्यावे…

 

मन भटकू न द्यावे, योग्य तेच आचारावे

स्थिर अस्थिर जीवन, मर्म स्वतःचे जाणावे…

 

मर्म स्वतःचे जाणावे, जन्म एकदा मिळतो

सर्व सोडून जातांना, कीर्ती गंध तो उरतो…

 

कीर्ती गंध तो उरतो, सत्य करावे बोलणे

राज केले उक्त पहा, पुढे नाहीच सांगणे…

 

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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