मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ मी प्रभा… मुक्काम सोमवार पेठ – लेखांक # 4 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ मी प्रभा… मुक्काम सोमवार पेठ – लेखांक#4☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सोमवार पेठेतल्या सोनवण्यांचं स्थळ आमच्या एका नातेवाईकांनी सुचवलं. सोनवणे हे दूधवाले सोनवणे म्हणून प्रसिद्ध होते, गावाकडे शेतीवाडी !पुण्यात लाॅजिंगचा व्यवसाय! मुलगा पदवीधर, उंच,सावळा नाकीडोळी नीटस ! 

नोव्हेंबरमध्ये साखरपुडा पिंपरीच्या वाड्यात आणि २६ जानेवारी १९७७ ला लग्न पुण्यात झालं !

एकत्र कुटुंब सासूबाई, दीर, जाऊबाई, त्यांची छोटी मुलगी, दुधाचा आणि लाॅजिंगचा  व्यवसाय !

चाकोरीबध्द आयुष्य– बायकांचं आयुष्य चार भिंतीत बंदिस्त ! सात आठ वर्षे जगून पाहिले तसे, पण नाही रमले. १९७७ साली लग्न, १९७८ साली मुलगा झाला.

मी, सासूबाई, जाऊबाई मिळून स्वयंपाक करत असू, इतर सर्व कामाला बाई आणि नोकर चाकर होते. आयुष्य चाकोरीबध्द, जुन्या वळणाचं वातावरण, हातभार बांगड्या, डोईवर पदर, उंबरठ्याच्या बाहेरचं जग माहित नसलेलं आयुष्य !   

शाळेत असताना कविता करत होते, कथा कविता प्रकाशितही झाल्या होत्या. लग्नानंतर थांबलेली कविता उफाळून वर आली. लिहू लागले. कथा, कविता, लेख प्रकाशित होऊ लागले ! देवी शारदेच्या कृपेने एम.ए.पर्यंतचं शिक्षण पूर्ण केलं ! पीएच.डी. साठीही नाव नोंदवलं, पण स्वतःच्या आळशीपणामुळेच पूर्ण होऊ शकलं नाही. घटना घडत गेल्या…वादळ वारे आले, गेले….संसार टिकून राहिला. कविता प्रकाशित झाल्या. कवितेला व्यासपीठ मिळालं, स्वतःची ओळख मिळाली. संमेलनाच्या निमित्ताने प्रवास घडले, दिवाळी अंकाचे संपादन केले ! साहित्य क्षेत्रातली ही मुशाफिरी निश्चितच सुखावह….मी इथवर येणं ही अशक्यप्राय गोष्ट होती…..पण आयुष्य पुढे सरकत राहिलं…मुलाचं मोठं होणं…इंजिनियर होणं…चांगला जाॅब मिळणं, आणि एक चांगला मुलगा म्हणून ओळख निर्माण होणं. कामवाली जेव्हा म्हणाली, ” मी सांगते सगळ्यांना,आमच्या सोनवणेवहिनींचा मुलगा म्हणजे सोनं आहे ,सोनं सुद्धा फिकं आहे त्याच्यापुढे,” तेव्हा मी भरून पावले. निश्चितच! ही दैवगती ! आयुष्य कटू गोड आठवणींनी भरलेलं !

चारचौघींपेक्षा माझं आयुष्य वेगळं आहे हे नक्की ! हे वेगळेपण पेलणं निश्चितच कठीण गेलं !औरंगाबादच्या गझल संमेलनात मा.वसंत पाटील म्हणाले होते, ” कवी/कलावंत हा शापित असतो, तो तसा असावा लागतो,”– ते मला माझ्या बाबतीत शंभर टक्के पटलं आहे ! जसं जगायचं होतं तसं जगता आलं नाही…पण जे जगले ते मनःपूत आणि तृप्त करणारंही….कवितेची नशा ही वेगळीच आहे…..ती झिंग अनुभवली !” अल्प, स्वल्प अस्तित्व मज अमूल्य वाटते, दरवळते जातिवंत खुणात अताशा ” ही अवस्था अनुभवली ! मुलाचं लग्न…नातवाचा जन्म..सगळं सुखावह !

वाढतं वय …आजारपण ..सुखदुःखाचा खेळ ! जगरहाटी…अपयश, उपेक्षा, अपेक्षाभंग….या व्यतिरिक्तही आयुष्य बरंच काही भरभरून देणारं !

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 71 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 71 –  दोहे ✍

सूखे सूखे खेत हैं, भूखे हैं खलियान ।

भरे पेट रहते अगर मरते नहीं किसान।।

O

सुलगी बीड़ी हाथ में ,गरमा गया किसान ।

हाथ पैर ठंडे पड़े ,आया घर का ध्यान।।

O

भ्रष्टाचारी जब हंसे, मन में गडती की कील।

खौल रही आक्रोश से, स्वाभिमान की झील।।

O

जो सपने थे आंख में ,सभी हुए नीलाम।

लेकिन है मजबूत मन होगा नहीं गुलाम।।

O

उसके पल्ले है पडी, गई जिंदगी ऊब।

एक नदी घर से निकल, गई नदी में डूब।।

O

जिनकी पूंछें कट गई,रहीं न पूछ पछोर।

बेचारे अब क्या – शोर शोर बस शोर।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 71 – झोंके छतनार कहीं… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “झोंके छतनार कहीं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 71 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || झोंके छतनार कहीं || ☆

ये पत्ते नीम के ।

कड़वे लगते जैसे

नुस्खे हक़ीम के।।

 

दुबले-पतले हिलते।

लगे, हाथ हैं मलते।

 

भूखे-प्यासे जैसे

बेटे यतीम के ।।

 

डाल-डाल लहराते ।

टहनी में फहराते ।

 

झूमते-मचलते

नशे में अफीम के ।।

 

हरे-भरे रहते हैं।

खरी-खरी कहते हैं।

 

जैसे कि तकाजे

हवा के मुनीम के।

 

झोंके छतनार कहीं।

झुकते साभार वहीं ।

 

शाख पर सजे

जैसे दोहे रहीम के।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

29-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 24 ☆ व्यंग्य ☆ लक्ष्मी नहीं, बेटी ही आई है ….. ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “लक्ष्मी नहीं, बेटी ही आई है…” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 24 ☆

☆ व्यंग्य – लक्ष्मी नहीं, बेटी ही आई है ☆ 

“बधाई हो, आपके घर लक्ष्मी आई है.”

एक बारगी तो मैं घबरा ही गया, बिटिया के न चार हाथ, न ऊपर के दो हाथों में कमल, न तीसरे से ढुलती गिन्नियों का घड़ा है, न आशीर्वाद की मुद्रा में एक हथेली ही है. एक अबोध प्यारी गुलाबी बिटिया है, धरती पर साफ कोरी स्लेट की मानिंद. उस पर कोई देवी होने की ईबारत क्यों लिखे. असमंजस में रहा, धन्यवाद दूँ कि नहीं दूँ. बेटी चाही थी, बेटी मिली भी, अभी तो इसी से सातवें आसमान पर हूँ. उस पर कोई लक्ष्मी होना निरूपित न करे तो भी आसानी से जमीन पर उतरनेवाला नहीं हूँ. उन्हें लगा होगा कि बेटी के जन्म से अपन प्रसन्न नहीं हैं, वे लक्ष्मीजी के आने की प्रत्याशा जगाकर अपन का दुःख कम कर देंगे. उनके इस भोलेपन पर तरस आता है. उन्हें लगता है लक्ष्मी आने की सूचना मात्र से अपन झूमने लगेंगे, तो सिरिमान अपन तो सिम्पल बिटिया के आने की खुशी में वैसेई झूम रहे हैं. थोड़ी भौत जित्ती पॉकेट में धरी थी उसे नर्सों वार्ड-ब्वायों में बाँट चुके हैं. थोड़ी लक्ष्मी बैंक अकाउंट में धरी है सो भी कुछ देर में अस्पताल के अकाउंट के लिए प्रस्थान करने वाली है. अस्पतालवालों ने थोड़ी मेहर न की तो ‘पूप-सी’ की बोतल खरीदने लायक भी ना बचेगी. यूं भी लक्ष्मीजी का अपन से आंकड़ा छत्तीस का रहा है. नॉर्मली वे बायपास से गुजर जातीं हैं अपन के कूचे में झाँकती भी नहीं. और फिर, बेटे की प्रत्याशा में जिनकी गोद में पाँच-छह लक्ष्मियाँ आ जाती हैं वे तो मुकेश अंबानी से आगे निकल जाते होंगे.

फोन पर बधाई देनेवाले मित्र ने संतान में लक्ष्मी कभी नहीं चाही. लक्ष्मीजी लक्ष्मीजी की तरह ही आयें संतान का रूप धरकर नहीं सो अतिरिक्त सावधानी बरतते रहे. रिजल्ट आने तक आदरणीया भाभीजी को ‘पुत्र जीवक वटी’ भी खिलाते रहे, ओटलों-मज़ारों-साक्षात स्थानों पर मन्नत भी मांगते रहे॰ कुछ दिनों पहले उन्होने बिन मांगे सलाह दी ही थी – टेंशन मत लेना सांतिभिया इस बार न भी तो अगली बार प्लान करके करना, लड़का ग्यारन्टीड. महोबावाली मौसी की दवा के रिजल्ट हंड्रेड परसेंट हैं. थोड़ी देर और बात करते तो वे फॉयटिसाइड व्हाया अल्ट्रा-साउंड पर उतर आते. वे उन लोगों में से हैं जो लक्ष्मी के थोड़ा बड़ा होते ही स्कूल छुड़वाकर कर झाड़ू हाथ में थमा देने में यकीन रखते हैं. दरअसल वे विषय को लक्ष्मीजी के उस वाहन की तरह बरत रहे थे जिसे रात में ही दिखाई देता है. उन्हें बेटी गोरी और लक्ष्मी काली पसंद है. उन्होने बेतुकी तुक मिलाई – “सांतिभिया, पहली बेटी धन की पेटी होती है.”

मैंने कहा – “बेटी के आने से जो भावनात्मक और पारिवारिक समृद्धि हुई है वो धन सम्पदा से कहीं ज्यादा है माय डियर. एनी-वे थैंक-यू.” कट.

सारा संवाद दादू सुन रहा था, बोला – “इसे सीरियसली मत लो सांतिभिया, ये तो मुहावरे भर हैं.”

“मुहावरे ‘सरस्वती आई है’ जैसे भी तो गढ़े जा सकते थे.”

“सरस्वती साधन है लक्ष्मी साध्य है. लक्ष्मीजी की पूजा भारत मंं होती है मगर वे विराजती न्यूयॉर्क में हैं. तभी तो सवा दो साल के बच्चे को भी लोग प्रि-प्रीपेरेटोरी स्कूल में भर्ती करा आते हैं. सपना डेस्टिनेशन यूएसए का. नौकरी लगते ही सरस्वती पूजन का दौर समाप्त. लक्ष्मीजी की चाहत में जिंदगी गुजार दी तो मुहावरा तो उन्ही का गढ़ा जाएगा ना. कभी किसी सरकार को लाड़ली सरस्वती योजना की शुरुआत करते पाया है?”

“बात तो तब बने जब लड़का हो और कोई कहे – बधाई हो राम, कृष्ण या महावीर आये हैं. लक्ष्मी की कामना सब करते हैं दादू – संतान में नहीं, खीसे में.”

इस बीच एक वाट्सअप मैसेज मिला – ‘कांग्रेट्स, मुलगी झाली – लक्ष्मी आली.’ भांग तो पूरे कुएं में घुली है, नी क्या?

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 119 ☆ एक छोटी सी पहल ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय संस्मरण  ‘एक छोटी सी पहल…!’ )  

☆ संस्मरण # 119 ☆ एक छोटी सी पहल ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

घुघुवा के जीवाश्म विश्व इतिहास में अमूल्य प्राकृतिक धरोहर है, जो हमारे गांव के बहुत पास है और निवास (मण्डला जिला) से बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के रास्ते पर स्थित है।

बहुत साल पहले घुघुवा फासिल्स श्रेणी लावारिस एवं अनजान स्थल था,वो तो क्या हुआ कि एक दिन हमारी खेती का काम करने वाले मजदूर मलथू ने बताया कि भैया जी, बिछिया के पास घुघुवा गांव के जंगल से पत्थर बने पेड़ पौधों को काटकर कोई ट्रकों से रात को जबलपुर तरफ ले जाता है, सुना है कोई बड़े डाक्टर साहब की हवेली बन रही है और ये कलात्मक पत्थर तराश कर हवेली में मीनार बनकर खड़े हो रहे हैं।मलथू की बात सुन हम अपने एक दोस्त के साथ साइकिल से घुघुवा रवाना हुए।

प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर ऊंचे-ऊंचे महुआ के वृक्षों की गहरायी घाटियों के बीच बसे स्वच्छंद विचारों वाले भोले भाले आदिवासी निश्छल,निष्कपट खुली किताब सा जीवन जीते खोये से मिले अपनेपन में। रास्ते भर पायलागी महराज कानों में गूंजता रहा।

हम आगे बढ़े,घुघुवा गांव में मुटकैया के सफेद छुई से लिपे घर के आंगन में साइकिल टिका कर मुटकैया के साथ जंगल तरफ पैदल निकल पड़े। रास्ते में मुटकैया ने बताया कि आजा- परपाजा के मुंहन से सुनत रहे हैं कि पहले यहां समंदर था, करोड़ों साल पहले धरती डोलती रही और उलट पुलट होती रही। पहाड़ के पहाड़ दब गए लाखों साल, फिर से भूकम्प आने पर ये पत्थर बनकर बाहर आ गए।

पार्क के बारे में हमने भी सुना था कि  यहां करोड़ों साल पहले अरब सागर हुआ करता था। प्राकृतिक परिवर्तन की वजह से पेड़ से पत्ते तक जीवाश्म में परिवर्तित हो गए। घुघवा  में डायनासौर के अंडे के जीवाश्म भी मिले हैं। सही समय पर बाहर ना आने और प्राकृतिक परिवर्तन के चलते ये पत्थर में परिवर्तित हो गए हैं।डेढ दो किलोमीटर तक घूम घूमकर हम लोगों ने पेड़ पत्तियों आदि के जीवाश्म का अवलोकन किया और गांव लौटकर पूरी जानकारी के साथ इसकी रपट जबलपुर के अखबारों और जबलपुर कमिश्नर को भेजी, हमने मांग उठाई कि तुरंत घुघुवा के जीवाश्म से छेड़छाड़ बंद की जानी चाहिए और घुघुवा को नेशनल फासिल्स पार्क के रूप में घोषित किया जाना चाहिए। अखबारों में छपा और तत्कालीन कमिश्नर श्री मदनमोहन उपाध्याय जी ने प्रेस फोटोग्राफर श्री बसंत मिश्रा के साथ घुघुवा के जीवाश्म श्रेत्र का अवलोकन किया। तत्काल प्रभाव से जबलपुर के डाक्टर की बन रही हवेली से वे कटे हुए जीवाश्म बरामद किए गए। हमारे द्वारा समय-समय पर घुघुवा को राष्ट्रीय जीवाश्म पार्क बनाये जाने हेतु दबाव बनाया गया और अंत में शासन द्वारा छै हजार करोड़ साल पुरानी जीवाश्म श्रृंखला को नेशनल फासिल्स पार्क घोषित कर दिया। धीरे धीरे काम आगे बढ़ा, पार्क के विकास के लिए पहली किश्त पचास लाख रिलीज हुई,उस समय हम भारतीय स्टेट बैंक की सिविक सेंटर शाखा में फील्ड आफीसर थे, अपने प्रयासों से सिविक सेंटर शाखा में घुघुवा नेशनल फासिल्स पार्क का खाता खुलवाया, पार्क  विकास संबंधी कार्य सर्वप्रथम जबलपुर विकास प्राधिकरण को सौंपा गया, जबलपुर विकास प्राधिकरण का कार्यालय हमारी शाखा के ऊपर स्थित था, बीच बीच में हम लोग घुघुवा में हो रहे विकास कार्यों को देखने जाते और खुश होते कि छोटी सी पहल से घुघुवा को अन्तर्राष्ट्रीय नक्शे पर स्थान मिला। यहां 6.5 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म पाये गये हैं ये उसी समय के जीवाश्म हैं जब धरती पर डायनोसोर पाये जाते थे | घुघवा के जीवाश्म  पेड़ ,पौधों , पत्ती ,फल, फूल एवं  बीजों से संबंधित है | घुघवा राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान का कुल क्षेत्रफल 0.27 वर्ग किलोमीटर है | लगातार प्रयास के बाद घुघवा को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया | घुघुवा नेशनल फासिल्स पार्क को महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया। हमने अभी भी मांग की है कि घुघुवा में एक ऐसा शोध संस्थान बनाया जाना चाहिए जहां पृथ्वी के निर्माण से लेकर पेड़ पौधों के फासिल्स बन जाने तक की प्रक्रिया पर शोधकार्य हों।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #61 ☆ # नववर्ष 2022 # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# नववर्ष 2022 #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 61 ☆

☆ # नववर्ष 2022 # ☆ 

बीत गया फिर एक साल

सूर्य चमका अंबर के भाल

गुन गुन हवायें बहनें लगी

मधुर तराने कहने लगी

ओस की बूंदें चमकने लगी

चंचल चिड़िया चहकने लगी

कलियां कलियां महकने लगी

सुगंध से सृष्टि बहकने लगी

पनघट पर चल रही सीना जोरी

भीग गई है नाजुक गोरी

आगमन मे कैसा यह संजोग

रात भर जागते दुनिया के लोग

सुख, शांति, समृद्धि हो सबके घर

यह पर्व मनाते रहे हम वर्ष भर

 

भूल जाइए वो काली रातें

दुखों से भरी पीड़ादायक बातें

अपनों से बिछड़ने का गम

आंखों में छिपे आंसू हरदम

खंडहर बने वो आशियाने

उजड़ने का दर्द वो ही जाने

बस रही वीरान बस्तियां

हर्षित हैं जीवन में डूबी हस्तियां

खुशियों का सूरज चमक रहा है

हर चेहरा आभा से दमक रहा है

कलियाँ चटकने लगीं घर घर

कम होने लगा छुपा हुआ डर

 

बड़ी रंगीन है इस सुबह की लाली

छुप गई वो स्याह रात काली

रंगीन परिधान लहरा रहे है

खुशियों का परचम फहरा रहे है

तोड़ डालिए रूढ़िवादी आडंबर

ईर्ष्या, द्वैष, नफरत का यह ज़हर

फूलों की तरह सब मुस्कराईये

उपवन को अपने स्वर्ग बनाईये

कुछ पल का हैं यह खुशीयों का प्रहर

शायद आने वाली है नयी नयी लहर

इसलिए आज इसी पल

खुशियां मनायेंगे

कल की चिंता छोड़िए

नववर्ष के गीत गुनगुनाइये /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #121 ☆ व्यंग्य – अन्तरात्मा की ख़तरनाक आवाज़ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘अन्तरात्मा की ख़तरनाक आवाज़’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 121 ☆

☆ व्यंग्य – अन्तरात्मा की ख़तरनाक आवाज़ 

एक हफ्ते से मुख्यमंत्री जी की नींद हराम है। रात करवटें बदलते गुज़रती है। कारण यह है कि विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है और तीन दिन बाद प्रस्ताव पर वोटिंग होनी है। चिन्ता का कारण यह है कि मुख्यमंत्री जी की सरकार दो और पार्टियों के सहयोग से बनी है और उनमें से एक, देशप्रेमी पार्टी  के नेता देशभक्त जी ने एक अखबार को इंटरव्यू में बयान दिया है कि उनकी पार्टी अन्तरात्मा की आवाज़ पर वोट देगी। तभी से मुख्यमंत्री जी को चैन नहीं है। बार बार अपने सरकारी आवास को हसरत से देखते हैं कि यह वैभव रहेगा या छूट जाएगा?

उन्होंने अपने विश्वस्त मंत्री त्यागी जी को बुलाया। आदेश दिया कि दोनों पार्टियों के नेताओं से मिलें और वस्तुस्थिति का ठीक ठीक पता लगाकर उन्हें तुरन्त जानकारी दें। त्यागी जी तत्काल पवनपुत्र की तरह पवन-वेग से रवाना हुए। मुख्यमंत्री जी बेचैनी से कमरे में टहलते रहे। त्यागी जी लौटे तो चेहरे पर चिन्ता विराजमान थी। मुख्यमंत्री जी को बताया, ‘जनसेवक पार्टी से तो कोई खतरा नहीं है, उनका सपोर्ट तो पक्का मिलेगा, लेकिन देशभक्त जी के मन में खोट है। साफ मना भी नहीं करते, लेकिन कहते हैं कि पार्टी के लोग अन्तरात्मा की आवाज़ पर वोट देना चाहते हैं। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन साफ साफ बताने से बचते रहे।’

सुनकर मुख्यमंत्री जी का मुँह उतर गया,बोले, ‘इनकी अन्तरात्मा वोटिंग के टाइम ही जागती है। हम सब समझते हैं। अब वोटिंग से पहले इनकी अन्तरात्मा की आवाज़ को शान्त करना पड़ेगा। राजनीति में किसी का भरोसा नहीं है। उधर से मलाईदार कटोरा रख दिया जाएगा तो अन्तरात्मा की आवाज़ पर पल्टी मार जाएँगे। समय रहते इनका इलाज करना पड़ेगा। मंत्रिमंडल में कोई फायदेवाला पोर्टफोलियो चाहते होंगे,इसीलिए अन्तरात्मा अचानक आवाज़ देने लगी है। देशभक्त जी को फोन करके बुलाओ। बात करनी पड़ेगी।’

थोड़ी देर में. देशभक्त जी हाज़िर हो गये। हँसकर मुख्यमंत्री जी से बोले, ‘हम तो सोलहों आने आपके साथ हैं, लेकिन पार्टी के कुछ लोग खामखाँ अन्तरात्मा की आवाज़ की रट लगाये हैं। क्या करें?’

मुख्यमंत्री जी उन्हें कमरे में ले गये। त्यागी जी की उपस्थिति में गोपनीय बात हुई। एक घंटे तक बात चली। देशभक्त जी बाहर निकले तो तो उनका चेहरा खुशी से चमक रहा था। चलते चलते हाथ उठाकर मुख्यमंत्री जी से बोले, ‘आप बिलकुल निश्चिन्त रहें। हम प्रान जाएं पर वचन न जाई के उसूल पर चलने वाले हैं। पार्टी के लोगों को समझाने का जिम्मा हमारा है। कोई गड़बड़ नहीं होगी।’

उनके जाने के बाद मुख्यमंत्री जी त्यागी जी से बोले, ‘त्यागी जी, पॉलिटिक्स में अन्तरात्मा की आवाज़ से बड़ा हौआ कोई नहीं होता। यह अन्तरात्मा की आवाज़ अच्छों अच्छों की नींद हराम कर देती है। इस पर तुरन्त साइलेंसर न लगाया जाए तो बड़ा नुकसान हो सकता है। हमने अभी तो साइलेंसर लगा दिया है, लेकिन आगे सावधान रहना पड़ेगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 73 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 73 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 73) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 73☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

यूँ  इंतज़ार  करना

तो हमे आता नहीं,

पर  जब  बात  किसी

अपने  की  हो तो

इंतज़ार  लफ्ज़  ही कुछ

मदहोश  सा लगता है…

 

Albeit, never did I

learn  to  wait…

But when it comes to

waiting for the loved one

The  word  ‘wait’  itself    

seems so intoxicating..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कुछ नहीं बदला

दीवाने थे,

दीवाने ही रहे…

 

हम नए शहरों में

आकर भी,

पुराने ही रहे…!

 

Nothing did ever change

Was always crazy; and,

remained crazy only…

 

Although kept

visiting new cities,

Yet remained old only!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 120 ☆ भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 120 ☆ भोर भई ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बायीं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 73 ☆ सॉनेट अलविदा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट अलविदा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 73 ☆ 

☆ सॉनेट अलविदा ☆

(छंद दोहा)

*

अलविदा उसको जो जाना चाहता है, तुरत जाए।

काम दुनिया का किसी के बिन कभी रुकता नहीं है?

साथ देना चाहता जो वो कभी थकता नहीं है।।

रुके बेमन से नहीं, अहसान मत नाहक जताए।।

कौन किसका साथ देगा?, कौन कब मुँह मोड़ लेगा?

बिना जाने भी निरंतर कर्म करते जो न हारें।

काम कर निष्काम,खुद को लक्ष्य पर वे सदा वारें।।

काम अपना कर चुका, आगे नहीं वह काम देगा।।

व्यर्थ माया, मोह मत कर, राह अपनी तू चला चल।

कोशिशों के नयन में सपने सदृश गुप-चुप पला चल।

ऊगना यदि भोर में तो साँझ में हँसकर ढला चल।

आज से कर बात, था क्या कल?, रहेगा क्या कहो कल?

कर्म जैसा जो करेगा, मिले वैसा ही उसे फल।।

मुश्किलों की छातियों पर मूँग तू बिन रुक सतत दल।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

३०-१२-२०२१

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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