हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 70 – :: सन्ध्या  :: निशीथ  :: प्रात:  :: ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – अब उन्हें कहो कि।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 70 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || :: सन्ध्या  :: निशीथ  :: प्रात:  :: || ☆

सन्ध्या  ::

 

एक ओर सूरज रख

कहती प्रियंवदा

साँझ बहिन मैंआती

रहूँगी यदा-कदा

 

अक्षयवट सी तेरी

केश राशि का विचलन

सुरमई पहाड़ों का

नतशेखर असन्तुलन

 

चाँद  किये मुँह टेढा

पूछता मुंडेरों से

कैसी- क्या कर ली है

तुमने यह संविदा

 

निशीथ  ::

 

सभी ओर बिखरे हैं

मोती से चमकीले

जुगनू लगते टिम-टिम

तारे नीले-नीले

 

मौसम कुछ अनमना

दबे छिपे देख रहा

ओसारे में ठिठकी

कनिष्ठा प्रशस्तिदा

 

प्रात:  ::

 

बहुत कुछ छिपाया था

गोरोचन अगरुगन्ध

प्राची ने पढ डाला है

यह सारा निबंध

 

अलसाये पेड़ लगे

जमुहाई लेते से

अरुण खड़ा दरवाजे

कहने को अलविदा

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य – हेकिंग का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  आपका एक  माइक्रो व्यंग्य  हेकिंग का लफड़ा’)  

 

☆ माइक्रो व्यंग्य – हेकिंग का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

-पहले तो आप खूब लिखा करते थे, आजकल क्या डाउनफॉल चल रहा है? या लिखने के लिए विषय नहीं मिल रहे हैं ?

– जी ऐसी बात नहीं है, वो क्या है कि आजकल हेकिंग का जमाना चल रहा है, जिस विषय पर लिखने के लिए दिमाग में उथल-पुथल मची रहती है वही दूसरे दिन किसी और के नाम पर अखबार में छपा दिख जाता है।

हेकिंग का जमाना है साब, सोचते हम हैं और कोई हेक करके अपने नाम से छपवा लेता है। इसलिए कोई व्यंग्य, कविता, कहानी कहीं भी पढ़ने मिले, तो ये मानकर चलना कि मूल सोच हमारी ही है, हम उस पर अच्छा लिखना चाहते थे, और सोच विचार कर रहे थे तब तक किसी ने हमारा दिमाग हेक कर लिया, और अपने नाम से रचना छपवा ली।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #60 ☆ # बेटा # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# लोग कुछ तो कहेंगे #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 60 ☆

☆ # बेटा # ☆ 

किसी दंपत्ति को जब

पुत्र की प्राप्ति होती है

उनके जीवन में

खुशियों कीं बहार

आती हैं

वें फूले नहीं समाते हैं

कितना मुस्कुराते हैं

बांटते हैं मिठाइयां

लोगों की लेते है बधाईयां

गद् गद् हो जातें हैं

सुंदर सपनों में

खो जातें हैं

मंदिर, मस्जिद, गिरिजा

स्तूप, गुरूद्वारों में

माथा टेकते हैं

गरीबों को दान देकर

उनमें ईश्वर खोजते है

उसे बड़े जतन से पालते हैं

उसे बड़े यतन से संभालते हैं

माता पिता निहाल हो जाते हैं

पुत्र रत्न पाकर

मालामाल हो जाते हैं

उन्हें लगता है कि

हमारा पुत्र वैतरणी पार करायेगा

अंतिम क्षण मोक्ष दिलायेगा

 

जब जीवन चक्र तरूणाई से

वृद्धावस्था में जाता है

गुजरा जमाना बहुत

याद आता है

तब सब साथ छोड़ जाते हैं

बुलाने पर भी

वापस नहीं आते है

जब अपना ही अपने से

रूठता है

सारा भ्रम अचानक टूटता है

संतानें निगाहें फेर लेती

बीमारियां घेर लेती हैं  

हर लम्हा टूटती हुई सांस है

हर पल बस एकांतवास है

 

जब प्राणों से प्यारा पुत्र

साथ छोड़ देता है

वो रिश्ता नाता

तोड़ देता है

पत्नी और बच्चे

बस उसका संसार है

मां-बाप के लिए

कहां बचा प्यार है

तब ममता चीख कर

पूछती है?

उसे कुछ नहीं सूझती है ?

तू नहीं तो कौन सहारा बनेगा ?

मेरे दूध का कर्ज

कैसे उतारेगा ?

बड़ी मिन्नतों के बाद

तू मुझे मिला है

मेरी ममता का

क्या यही सिला है ?

वृद्ध मां-बाप कहते हैं

किससे शिकायत करें

जब अपना ही सिक्का

खोटा है

बहू तो पराई है,

पर तू तो मेरा खून

मेरे जिगर का टुकड़ा

मेरा बेटा है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 62 ☆ आजचा युवक… ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 62 ? 

☆ आजचा युवक… ☆

आजचा युवक कसा असावा

याचा जेव्हा प्रश्न पडावा

विवेकानंदाचा तेव्हा

आदर्श सर्वांनी घ्यावा…१

 

काय त्यांचे तेज

कसे त्यांचे विचार

त्यांच्या विचाराचे

आपण करावे सुविचार…२

 

आजचा युवक

व्यसनाधीन झाला

आजचा युवक

कर्जबाजारी बनला…३

 

आजचा युवक

लाचार आणि बेकार

आजच्या युवक

दारू खर्रा खाण्यात हुशार…४

 

आजचा युवक गुंडगिरी करतो

आजचा युवक आईला छळतो…५

 

आजच्या युवकाने

खूप बेकार कृत्य केले

जन्मदात्या आई-बापाला

वृद्धाश्रमात डांबले…७

 

माणुसकी लोप पावली

काळिमा नात्यास लागली

आपल्याच हाताने युवकाने

नात्याची राखरांगोळी केली…८

 

सख्खी बहीण याला भिते

वासनांध हा झाला

वासनेच्या भरात याने

ऍसिडचा हल्ला केला…९

 

सात्विक आपला भारत

आपण त्याचे रहिवासी

कसे आपण राहावे

न कळत बनला वनवासी…१०

 

हे सर्व थांबले पाहिजे

युवक जागृती महत्वाची

माणूस म्हणून युवकाला

भाषा कळावी आपुलकीची…११

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #120 ☆ व्यंग्य – सर्दियों के फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  सर्दियों के फायदे। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 120 ☆

☆ व्यंग्य – सर्दियों के फायदे 

ज्ञानी लोग सर्दियों के बहुत से लाभ बताते हैं। मसलन, सर्दियाँ सेहत बनाने के लिए बढ़िया मौसम है। बादाम घोंटिए, मेवा खाइए और वर्जिश कीजिए। कहते हैं इस मौसम में हाज़मा बढ़िया काम करता है। जो खाइए सो भस्म।

लेकिन सवाल यह है कि जब मँहगाई के मारे आदमी खुद ही भस्म हो रहा हो तो वह क्या खाये और क्या भस्म करे? आज के ज़माने में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाए तो खु़दा का शुक्र अदा कीजिए। बादाम-मेवा अब दूध-घी की तरह देवताओं के भोजन हो गये हैं। देवताओं से मेरा मतलब उन नर-रत्नों से है जिनके पास माल की कमी नहीं है और जिन्हें मँहगाई की गर्मी बिल्कुल नहीं व्यापती। ऐसे लोगों की हमारे देश में कमी नहीं है। लेकिन मेहनत और ईमानदारी की कमाई पर पलने वाले परिवार में मूँगफली तो आ सकती है, बादाम ख़्वाब की बात है।

बादाम और काजू-किशमिश बड़े लोगों की पार्टियों की शोभा बनते हैं जहाँ कलफदार वर्दी पहने सेवक चीज़ों को अदब से पेश करते हैं और अतिथिगण बिना सेवकों की ओर देखे, बातों में मशगूल, चीज़ों को उदासीनता से मुँह में डाल लेते हैं। इन पार्टियों में वे मंत्री, विधायक और अधिकारी भी होते हैं जो इस ग़रीब देश के प्रतिनिधि और सेवक कहलाते हैं।

वर्जिश करके भी क्या कीजिएगा? अब बलिष्ठ शरीर का उतना महत्व नहीं रहा जितना पहले था। अब छुरे, चाकू, तमंचे का ज़माना है। तगड़े पहलवान साहब किसी सींकिए का चाकू खाकर अस्पताल का सेवन करते हैं और सींकिया अपनी हड्डियाँ फुलाये घूमता है। फिर यह परमाणु-युद्ध और स्टार-वार्स का ज़माना है। कभी भी ज़िन्दगी की रील कट सकती है। इसलिए बादाम खाने और सेहत बनाने का कोई मतलब नहीं है। बीच में ही दुनिया ख़त्म हो गई तो बादाम पर ख़र्च किये सारे पैसे बेकार हो जाएँगे।

लेकिन बादाम वर्जिश को छोड़ दें तो सर्दियों के दूसरे फायदे हैं। अगर आपके पास फटी कमीज़ें हैं या कमीज़ों की कमी है तो सर्दियों का मौसम आपके लिए बड़ा ग़रीब परवर है। शर्त यह है कि आपके पास एक अदद कोट हो। मुझे ऐसे बहुत से सज्जन मिले जो फटी कमीज़ों का उपयोग जाड़े में कोट के नीचे कर लेते हैं। अगर आपका कोट खुले कॉलर वाला है तो कमीज़ का कॉलर साबित होना ज़रूरी है। अगर बन्द गले का कोट है तो चिथड़ा हुई कमीज़ भी चलेगी।

मेरे एक मित्र सर्दियों में बिना बाँह की कमीज़ पहनते थे। बाँहें फट जाने पर वे उन्हें काट कर अलग कर देते थे और इन बंडी कमीज़ों को सर्दियों के लिए सुरक्षित रख लेते थे।

कुछ ऐसा ही कमाल वे मोज़ों में दिखाते थे। एक बार उन्होंने जूतों को अपने चरणों से अलग किया तो देखा मोज़ों का पंजों वाला हिस्सा ग़ायब है। हमारे ज्ञानवर्धन के लिए उन्होंने बताया कि मोज़े पंजों पर फट गये थे, इसलिए उन्होंने पंजे वाला हिस्सा काट कर अलग कर दिया था। अब उनके मोज़ों की शक्ल उन ‘एनक्लेट्स’ जैसी हो गयी थी जिन्हें फुटबॉल के खिलाड़ी पहनते हैं। लेकिन जूते पहनने पर सब ठीक-ठाक दिखता था।

कुछ ऐसे महापुरुष भी मिले जो शेरवानी के नीचे सिर्फ बनियाइन पहनते थे। कमीज़ की खटखट ही नहीं। यह तो उनका बड़प्पन था जो बनियाइन पहन लेते थे। वह भी न पहनते तो उनका कोई क्या बिगाड़ लेता?

महिलाएँ भी इस मौसम में फटे ब्लाउज़ को शॉल के नीचे चला लेती हैं। शॉल सबसे बढ़िया पैबन्द का काम करता है। लेकिन शॉल के साथ यह दिक्कत होती है कि उसे बराबर सँभाले रखना ज़रूरी है। ज़रा सी असावधानी होने पर कलई खुल सकती है। कोट या शेरवानी के बटन बन्द कर लेने पर निश्चिंत हुआ जा सकता है, लेकिन शॉल में यह सुविधा नहीं है।

जिन लोगों को सफाई से परहेज़ है और जिन्हें गन्दे कपड़े पहनना सुहाता है, उनके लिए सर्दी का मौसम मददगार होता है। कोट के नीचे गन्दे कपड़े भी उसी तरह चलते हैं जैसे फटे। लेकिन इसके लिए बन्द कॉलर का कोट अनिवार्य है। कमीज़ से बदबू आने का ख़तरा हो तो कोट के ऊपर थोड़ा सेंट छिड़का जा सकता है। वैसे भी कई लोग नहाते कम और सेंट ज्यादा छिड़कते हैं।

इस सब में अटपटा कुछ भी नहीं है क्योंकि आज का ज़माना ऊपरी दिखावे का है। जितना दुनिया को दिखता है उतना ठीक रखो। मुलम्मा चमकदार होना चाहिए, भीतर सब चलता है। बहुत से कौवे सफेदी पोतकर हंस के रूप में पुज रहे हैं, इसलिए बाहरी टीम-टाम ठीक रखो, भीतर कितना गन्दा और जर्जर है इसकी चिन्ता छोड़ो।

लेकिन जैसा मैंने पहले अर्ज़ किया, सर्दियों का लाभ वही उठा सकते हैं जिनके पास एक अदद कोट या शेरवानी हो। जिनके पास सिर्फ फटी कमीज़ें हैं या जिन्हें सर्दियाँ नगर निगम के अलावों के बल पर काटनी हैं, उनके लिए इन बातों का कोई मतलब नहीं है। वहाँ समस्या कमीज़ जुटाने की है, उसे छिपाने की नहीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 72 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 72 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 72) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 72☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ऐ रब, दोस्तों को भी नवाज़

दे  ये दर्द की दौलत

उनके साथ नाइंसाफी हो

ये मुझे कतई  मंजूर नहीं…!

 

O Lord, do bless my friends

with the wealth of pain….

Any injustice done to them

Is not acceptable to me….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मुझ को है ये आरज़ू कि

वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद

उन को ये इंतिज़ार है कि

हम इल्तिज़ा करें कोई…

 

I’ve this desire that she

should lift the veil herself

While she awaits that

I must request for it.

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कुछ तो तुम्हारी

निगाहें काफिर थीं

फिर कुछ मुझे भी

तो खराब होना था…!

 

As such, your eyes

were a little infidel

Then, I had to

get spoilt, too…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

वो ना मिलते तो

ही अच्छा होता

बेकार में ही मोहब्बत

से नफरत हो गई…!

 

It’d have been much better

if we handn’t met at all….

Avoidably, developed a

hatred towards the love!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 119 ☆ सद्भावना से संभावना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 119 ☆ सद्भावना से संभावना?

मनुष्य की देह पाना, जीव की सबसे बड़ी संभावना है। इस देह को बुद्धितत्व का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते मनुष्य अपने अस्तित्व पर विचार कर सकता है। विसंगति यह कि प्राय: यह अस्तित्वबोध गहरे नहीं उतरता। मनुष्य वस्त्र विशेष, संप्रदाय विशेष, आचार विशेष, विचार विशेष को अस्तित्व से जोड़ लेता है। अनेकदा वह जगत को ही नकारने लगता है, देह को गौण कर देता है। ध्यान देने योग्य बात है कि देह से ही अस्तित्व है। मनुष्य की देह जगत में व्याप्त पाँच तत्वों का मिश्रण है। यही कारण है कि ‘जो ब्रहमांड में, वही पिंड में!’ अस्तित्व का रनवे यही है। टेक ऑफ यहीं से करना है। रनवे से ही इंकार करोगे तो टेक ऑफ कैसे करोगे?

वस्तुत: मनुष्य तत्व का विस्तार, मनुष्य को ईश्वरीय  पथ पर ले जाने में सहायक होता है। मनुष्य तत्व से दूर रहकर जीव, ईश्वर के पथ पर जाना तो दूर, सामान्य मनुष्य भी नहीं रहने पाता।

आचार्य रामानुज के पास शिष्य होने का इच्छुक एक युवक आया। आचार्य जी ने पूछा कि वह भक्ति के पथ पर क्यों चलना चाहता है? युवक ने उत्तर दिया, “मैं ईश्वर से प्रेम करना चाहता हूँ। अपनी प्रीति ईश्वर से रखना चाहता हूँ, ईश्वर तक पहुँचना चाहता हूँ।”  आचार्य जी बोले, “यह अच्छी बात है कि ईश्वर से प्रीति तेरा उद्देश्य है। अच्छा भला बता कि जगत में तुझे किस-किससे प्रेम है, किस-किससे प्रीति है?”  युवक ने कहा, “मुझे अपने रिश्ते नातों से, अपने माता-पिता से, भाई -बहन, किसीसे किसी प्रकार की कोई प्रीति नहीं। जगत मिथ्या है, मायाजाल है। मैं इस से मुक्त होकर केवल ईश्वर से प्रीति रखना चाहता हूँ।” आचार्य जी ने गंभीर होकर कहा, “तब तो तू इस पथ पर चलने के योग्य नहीं है।” इस उत्तर से निराश हुआ युवक कुछ आक्रोश से बोला,” आचार्य जी, जगत से मुक्त होना, ईश्वर के पथ पर चलने की पहली सीढ़ी मानी जाती है। मैं उस सीढ़ी तक पहुँच चुका और आप मुझे लौटा रहे हैं।”

स्नेह भाव से आचार्य जी बोले,” ईश्वर से प्रीति करना चाहता है पर हृदय में प्रीति रखना नहीं चाहता। भीतर थोड़ी- सी भी प्रीति होगी तो उसका विस्तार परमेश्वर से प्रीति करने में हो सकता है। परंतु यदि बीज ही नहीं है अंकुर कैसे उगेगा?  अंकुर नहीं उगेगा तो पौधा कैसे बनेगा? पौधा नहीं होगा तो वृक्ष कैसे खड़ा होगा?”

इसी विचार का विस्तार करने की आवश्यकता है।  प्रेम जगत का आधार है, प्रीति जगत की नींव है। जगत से नि:स्वार्थ प्रेम करो, परमात्मा तुम्हारी परिधि में खिंचे चले आएँगे। चराचर के  कल्याण की सद्भावना, ईश्वर तक पहुँचने की संभावना बनेगी। यही संभावना आगे चलकर अन्वेषण को बाहर के बजाय भीतर मोड़ेगी, साक्षात्कार होगा और जन्म धन्य हो उठेगा। …स्मरण रहे, पल-पल बीत रहा तुम्हारा यह जन्म धन्य होने की प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 72 ☆ मिल्टनियन  सॉनेट ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘मिल्टनियन सॉनेट।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 72 ☆ 

☆ मिल्टनियन  सॉनेट ☆

(छंद दोहा)

चित्रगुप्त मन में बसें, हों मस्तिष्क महेश।

शारद उमा रमा रहें, आस-श्वास- प्रश्वास।

नेह नर्मदा नयन में, जिह्वा पर विश्वास।।

रासबिहारी अधर पर, रहिए हृदय गणेश।।

 

पवन देव पग में भरें, शक्ति गगन लें नाप।

अग्नि देव रह उदर में, पचा सकें हर पाक।

वसुधा माँ आधार दे, वसन दिशाएँ पाक।।

हो आचार विमल सलिल, हरे पाप अरु ताप।।

 

रवि-शशि पक्के मीत हों, सखी चाँदनी-धूप।

ऋतुएँ हों भौजाई सी, नेह लुटाएँ खूब।

करतल हों करताल से, शुभ को सकें सराह।

 

तारक ग्रह उपग्रह विहँस मार्ग दिखाएँ अनूप।।

बहिना सदा जुड़ी रहे, अलग न हो ज्यों दूब।।

अशुभ दाह दे मनोबल, करे सत्य की वाह।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-१२-२०२१

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #102 ☆भोजपुरी गीत – घर गांव पराया लगै लगल ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 102 ☆

☆ भोजपुरी गीत – घर गांव पराया लगै लगल ☆

हम गांव हई‌ अपने भितरा‌, हम सुंदर साज सजाईला

चनरू मंगरू चिथरू‌ के साथे, खुशियां रोज मनाई ला।

खेते‌ खरिहाने गांव घरे, खुशहाली चारिउ‌‌ ओर रहल।

दुख‌ में ‌सुख‌ में ‌सब‌ साथ रहल, घर गांव के‌ खेढ़ा (समूह) बनल‌ रहल।

दद्दा दादी‌‌ चाची माई से, कुनबा (परिवार) पूरा भरल रहल।

सुख में दुख ‌मे सब‌ साथ रहै, सबकर रिस्ता जुड़ल रहल।

ना जाने  कइसन‌ आंधी आइल, सब तिनका-तिनका बिखर‌ गयल ।

सब अपने स्वार्थ भुलाई गयले नाता‌ रिस्ता सब‌‌ दरक गयल ।

माई‌‌ बाबू अब‌ भार‌ लगै, ससुराल के रिस्ता नया जुडल।

साली सरहज अब नीक लगै, बहिनी से रिस्ता टूटि गयल

भाई के‌ प्रेम‌ के बदले में, नफ़रत क उपहार मिलल।

घर गांव पराया लगै लगल, अपनापन‌ सबसे खतम‌ भयल।

घर गांव ‌लगै‌ पिछड़ा पिछड़ा जे जन्म से ‌तोहरे‌ साथ रहल।

संगी साथी सब बेगाना, अपनापन शहर से तोहे मिलल।

छोड़ला आपन गांव‌ देश, शहरी पन पे‌ लुभा‌ गइला।

गांव का‌ कुसूर रहल, काहे? गांव भुला गइला।

अपने कुल में दाग लगाइके, घर गांव क रीत भुला गइला।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #123 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 9 – “देख लिया” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “देख लिया”)

? ग़ज़ल # 9 – “देख लिया” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

राज़े मुहब्बत छुपा कर देख लिया,

हमने  दिल लगा कर देख लिया।

 

लोगों के कहने को कुछ न मिला,

चुप को गले लगा कर देख लिया।

 

दिलजोई में जो कभी हमराज़ रहे,

उन्हें भी ग़ैर बना कर देख लिया।

 

दुनियावी लेनदेन में हमेशा कच्चे रहे,

मुहब्बत में दिल लुटा कर देख लिया।

 

दिल के सौदे में मोलभाव क्या करना,

ग़मों का हिसाब लगा कर देख लिया।

 

आँसू बचा कर क्या हासिल ‘आतिश’

सबने तुम्हें रुला रुला कर देख लिया। 

 

दिल की झोली रही  ख़ाली की ख़ाली,

खुद को समुंदर में डुबा कर देख लिया।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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