हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 117 ☆ विश्वास से विष-वास तक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 117 ☆ ? विश्वास से विष-वास तक

एक चुटकुला पढ़ने के लिए मिला। दुकान में चोरी के आरोप में मालिक के विश्वासपात्र एक पुराने कर्मी को धरा गया। जज ने आरोपी से कहा- तुम किस तरह के व्यक्ति हो? जिसने तुम पर इतना विश्वास किया, तुमने उसी के साथ विश्वासघात किया? चोर ने हँसकर उत्तर दिया-  कैसी बात करते हैं जज साहब? यदि वह विश्वास नहीं करता तो मैं विश्वासघात कैसे करता?

चुटकुले से परे विचार कीजिएगा। पिछले कुछ दशकों से समाज का चित्र इसी तरह बदला है और विश्वास का फल विश्वासघात होने लगा है।

अपवाद तो सर्वदा रहे हैं, तब भी वह समय भी था जब परस्पर विश्वास प्रमुख जीवनमूल्य था।  महाराष्ट्र के एक वयोवृद्ध शिक्षक ने एक किस्सा सुनाया। साठ के दशक में वे ग्रामीण भाग में अध्यापन करते थे। मूलरूप से कृषक थे पर आर्थिक स्थिति के चलते शिक्षक के रूप  नौकरी भी किया करते थे। उन दिनों गरीबी बहुत थी। अधिकांश लोगों की गुज़र- बसर ऐसे ही होती थी। विद्यालय में वेतन तो मिलता था पर बहुत अनियमित था।  कभी-कभी दो-चार माह तक वेतन न आता। इससे घर चलाना दूभर हो जाता।

एक बार लगभग छह माह वेतन नहीं आया। स्थिति बिगड़ती गई। कुल छह शिक्षक विद्यालय में पढ़ाते थे। उनमें से एक कर्नाटक के थे। उनके घर में पत्नी के पास यथेष्ट गहने थे। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने एक राजस्थानी महाजन के पास गिरवी रखे। उससे जो ऋण मिला, वह छहों शिक्षकों ने आपस में बांट लिया।

कर्ज़ लेने के लिए यहाँ तक तो ठीक है पर उनका सुनाया इस कथा का उत्तरार्द्ध आज के समय में कल्पनातीत है। उन्होंने कहा कि सम्बंधित महाजन भी पास के ही गाँव में रहते थे। सब एक दूसरे से परिचित थे। महाजन ने कहा, ” गुरु जी,  अपना घर चलाने के लिए हुंडी रखकर ऋण देना मेरा व्यवसाय है। अत:  गहने मेरे पास जमा रखता हूँ। लेकिन यदि घर परिवार में किसी तरह का शादी-ब्याह आए, अन्य कोई प्रसंग हो जिसमें पहनने के लिए गहनों की आवश्यकता हो तो नि:संकोच ले जाइएगा। काम सध जाने के बाद  फिर जमा करा दीजिएगा।”  उन्होंने बताया कि हम छह शिक्षकों को तीन वर्ष लगे गहने छुड़वाने में। इस अवधि में सात-आठ बार ब्याह-शादी और अन्य आयोजनों के लिए उनके पास जाकर सम्बंधित शिक्षक गहने लाते और आयोजन होने के बाद फिर उनके पास रख आते। कैसा अनन्य, कैसा अद्भुत विश्वास!

सम्बंधित पात्रों के राज्यों का उल्लेख इसलिए किया कि वे अलग-अलग भाषा, अलग-अलग रीति-रिवाज़ वाले थे पर मनुष्य पर मनुष्य का विश्वास वह समान सूत्र था जो इन्हें एक करता था।

आज इस तरह के लोग और इस तरह का विश्वास कहीं दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे जीवन के केंद्र में पैसा प्रतिष्ठित होने लगा, विश्वास में विष का वास होने लगा। अमृतफल दे सकनेवाली मनुष्य योनि को विष-वास से पुन: विश्वास की ओर ले जाने का संभावित सूत्र, मनुष्यता को बचाये रखने के लिए समय की बड़ी मांग बन चुका है। इस मांग की पूर्ति हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 70 ☆ घनाक्षरी ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘घनाक्षरी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 70 ☆ 

☆ घनाक्षरी ☆

*

चलो कुछ काम करो, न केवल नाम धरो,

उठो जग लक्ष्य वरो, नहीं बिन मौत मरो।

रखो पग रुको नहीं, बढ़ो हँस चुको नहीं,

बिना लड़ झुको नहीं, तजो मत पीर हरो।।

गिरो उठ आप बढ़ो, स्वप्न नव नित्य गढ़ो,

थको मत शिखर चढ़ो, विफलता से न डरो।

न अपनों को ठगना, न सपनों को तजना,

न स्वारथ ही भजना, लोक हित करो तरो।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #100 ☆ मैं उसको पावन कहता था ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 100 ☆

☆ मैं उसको पावन कहता था ☆

माँ की छाती का मिला दूध,

उसको मैं पावन कहता था।

उसकी आँखों से ढुलके मोती,

 उसको मैं सावन कहता था।

उसके आँचल की छाँव मिली,

उसमें ही जीवन पलता था।

उसकी उँगली का मिला सहारा,

 नन्हें पाँवों से चलता था।

।। माँ की छाती का मिला दूध।।1।।

 

माँ जब जब गुस्सा होती थी,

तब मुझे डाँटती जाती थी।

दिल में प्यार उमड़ता था,

आँखों से बदली बरसाती थी।

वह हर मंदिर में जाती थी,

मेरी ही कुशल मनाती थी ।

उसकी आँखें भर आती थी,

जब मेरी याद सताती थी।

।। माँ की छाती का मिला दूध।।2।।

 

आँखों में गुस्सा दिल में प्यार,

ना आए समझ तेरा व्यवहार।

जो भी रूखा सूखा मिलता,

वह पहले मुझे खिलाती थी।

पेट मेरा भरने की खातिर,

तू खुद भूखी सो जाती थी।

न जाने कितने जतन किए,

तूने  मुझे पढ़ाने की खातिर।

अपने सारे श्रम का फल ,

तूने मुझे चढ़ाने की खातिर।

अपने आंखों के पीकर आंसू,

तूने तो मुझको पाला था।

माँ तेरी फौलादी हिम्मत,

ने ही तो मुझे संभाला था।

।। माँ की छाती का मिला दूध।।3।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 11 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – ‘व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान’।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 11 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य की जब भी बात होती है. तब स्वभावतः होता है कि कबीर के समय पर चले जाते हैं. कबीर ने अपने समय की विसंगति पाखंड प्रपंच पर कठोरता से प्रहार किया है. उनके शबद, बानी और दोहों ने समाज को जगाने का काम किया. कबीर ने बहुत बेबाकी से अपने समय की बात रखी. उन्होंने धार्मिक अंधविश्वास पाखंड प्रपंच पर तीखे तेवर से बातो को समाज के सामने आगे बढ़ाया.. कबीर के समय में धर्म की सत्ता अधिक प्रभावशाली थी. कबीर कहते हैं

मेरा मन समरई राम को मेरा मन रामाहि आहि

इब  मन रामहि है चला सीस नवाबों काहि

यहाँ पर कबीर ने मनुष्यता को उच्चतर स्तर दिया है. राम को जीवन का पर्याय माना है. कबीर राम और मनुष्य के अंतर को मिटा देते हैं। उनका मानना है रामत्व भरे जीवन से भय, त्रास अभाव दूर रहते हैं. अभिमान लुप्त हो जाता है. तब ऐसी स्थिति में अन्य के आगे शीश नबाने क्या फायदा.

कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ

जो घर फूकों आपनो चलै हमारे साथ

यह समझने की जरूरत है. यहाँ कबीर साहित्य मनुष्य और मनुष्यता को बड़ा बनाने में प्रयास रत है. उस समय का बाजार अलग था. उस समय के बाजार में सकारात्मक पहलू थे. उस समय के बाजार में सबके लिए विशेष कर किसानों के लिए आर्थिक आधार था. उनका सम्मान था. इस बाजार ने किसानों को स्वायत्तता प्रदान कर मनुष्य और मनुष्यता को आगे बढ़ाया. कबीर का रास्ता वे ही अपना सकते हैं जो अपना सब कुछ त्याग मनुष्यता के पक्ष में खड़े हैं. कबीर के साहित्य ने मानवीय सरोकारों के साथ सामाजिक संवेदनों के महत्व का आकलन कर मनुष्य के प्रतिमान स्थापित किए हैं यह परंपरा कबीर से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त से आगे बढ़कर हरिशंकर परसाई और शरद जोशी तक हमें देखने में मिल जाती हैं उसके बाद इसमें ठहराव सा नजर आता है. स्वतंत्रता के बाद परसाई ने सामाजिक सरोकारों, राजनीतिक विसंगति, मानवीय कमजोरियों और प्रवृत्तियों पर तीखे तेवर के साथ बात उठाई है. जिस सत्ता, समुदाय, और व्यक्ति की प्रवृत्तियों पर अपनी कलम चलाई है. वह सत्ता या व्यक्ति तिलमिला उठता है. परसाई पर अनेक प्रकार के दबाव और हमले हुए. पर वे डरे नहीं. अपने उद्देश पर डटे रहे. पुलिस की कार्यप्रणाली और भर्राशाही पर उन्होंने ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर”, ‘भोलाराम  का जीव’ में शासकीय कार्यालयों में व्याप्त अराजकता और भ्रष्टाचार, ‘अकाल उत्सव’ में अकाल के समय पर अफसरों की अफसर शाही और उनके भ्रष्टाचार के नंगेपन को बेदर्दी से उजागर किया है. व्यक्ति की अपने स्वार्थवश फिसलती आस्था पर’ वैष्णव की फिसलन’ मानवीय चरित्र और परिवार की सत्ता पर ‘कंधे श्रवण कुमार के’ माध्यम से मानवीय सरोकारों की बात करते हैं धार्मिक अंधविश्वास और अवसरवाद पर ‘टार्च बेचने वाले’ में व्याप्त प्रपंच को सामने रखते हैं. यहां परसाई का सरोकार समाज, सत्ता में गिरे आचरण पर प्रहार कर व्यंग्य के प्रतिमान को स्थापित करना है. उनके समकालीन शरद जोशी ने शासकीय भर्राशाही ठाकुरसुहाती पर ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’ अफसरों की अवसरवादिता  और भ्रष्टाचार पर वे’ जीप पर सवार इल्लियां’, ‘पुलिया पर बैठा आदमी’ आदि रचनाओं से पाठक और सत्ता को सचेत करते हैं. उनके समकालीन शंकर पुणतांबेकर, अजातशत्रु, लतीफ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, श्रीराम ठाकुर ‘दादा’, रमेश सैनी आदि की लंबी परंपरा रही है. जिन्होंने व्यक्ति को मानवीय और सामाजिक सरोकारों से जोड़कर वंचितों, शोषितों पीड़ितों के पक्ष में खड़े होकर व्यंग्य के प्रतिमान को स्थापित किया है. इस कारण साहित्य और समाज में व्यंग्य प्रमुखता से उभर कर सामने आया है. आज व्यंग्य अखबार और पत्रकारों की आवश्यकता बन गया है. व्यंग्य संग्रहों का प्रकाशन प्रचुर मात्रा में हो रहा है. ये व्यंग्य के स्थायित्व  के प्रतिमान है जिसके पीछे व्यंग्यकार की निष्पक्षता निर्भरता के साथ जन सरोकारों के साथ खड़ा होना है. पाठक और जन सामान्य को ऐसा महसूस होता है कि यह यह हमारे मन की बात कह रहा है. हमारी आवाज को उठा रहा है. यह सत्ता की शक्ति के साथ नहीं शोषितों के साथ दिख रहा है. इसके पीछे पूर्व के व्यंग्यकारों द्वारा ईमानदारी से किए गए लेखकीय उपक्रम है जिस पर पाठक का विश्वास जगा है

जब हम वर्तमान समय को देखते हैं तो निराशा होती है. व्यंग्य का पाठक पर प्रभाव को देखते हुए अखबार और पत्रिका में स्पेस तो दे रहे हैं. पर उसको बौना बना दिया है. सीमित संख्या म़े सिकोड़कर रख दिया है. व्यंग्यकार देखने दिखाने और छपने के लालच में उसी ढर्रे पर चल निकला है वह अपनी बात को सीमित शब्दों में कहने का प्रयास कर रहा है. जिस कारण बात का संक्षिप्तीकरण होकर संकेतों में सीमित हो जाता है. कभी-कभी पाठक संकेतों को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाता है. सीमितता के चलते सभी व्यंग्य  अपने उद्देश्य में पूरी तरह खुल नहीं पाते हैं, या फिसल जाते हैं. फिर वर्तमान समय में कुछ ऐसी रचनाएं आ रही हैं. जो अपने समय की विसंगतियों, कमजोरियों को उजागर करती हैं. आज साहित्य का पूरा परिदृश्य बदल गया है. इसका पूरा प्रभाव व्यंग्य पर भी पड़ा है. आज लेखक, मीडियाकर, पत्रकार नफा नुकसान के गणित के साथ आगे बढ़ रहे हैं. सत्ता की कमजोरियों को छुपा कर उसे बचाकर चलने लगे हैं. इस कारण समाज में व्याप्त समस्याओं और प्रवृत्तियों का सच सामने नहीं आ रहा है. सत्ता भी अपने उपकरणों का उपयोग ऐन केन प्रकारेण सच को छुपाने में ही प्रयास करती है आज का व्यंग्यकार रिस्क नहीं लेना चाहता है. वरन सत्ता से लाभ लेने हेतु उसके साथ देखने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ता है. इसकी परिणति यह है कि वह अपने मानवीय सरोकारों से हटकर गैरजरूरी विषयों पर घूम गया है. आज अनेक व्यंग्यकार स्वयं  यह सवाल उठाने लगे हैं कि सत्ता का विरोध क्यों? जबकि व्यंग्य  का उद्देश्य सत्ता का विरोध करना होता है. पर वह सत्ता घर में पिता की, ऑफिस में बॉस  की, या वे सभी प्रकार की सत्ता जो जबरन अपने विचार और प्रभाव को थोपना या मनवाना चाहती हैं. अधिकांश सत्ता का अर्थ है राजनीति से लेते हैं और वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते उस सत्ता का विरोध नहीं कर पाते. जबकि वहां पर बड़े-बड़े ब्लैक होल्स है. यह साहित्य और व्यंग्य की बहुत बड़ी विडंबना है जो अपने सच को उजागर करने में अक्षम है. फिर भी  वर्तमान पूरी तरह धुंधला नहीं है. यहां भी दिए की रोशनी है जो सच का रास्ता दिखाने में सक्षम है. इन सब चीजों का आकलन विगत कारोना काल में आ रही रचनाओं से भली-भांति कर सकते हैं. इस समय हमें दोनों प्रकार के दृश्य देखने को मिल गए. शायद यही प्रकृति का चलन है।

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #122 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 7 – “वतन परस्त” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।  आज प्रस्तुत है  जनरल बिपिन रावत जी एवं शहीद जांबाजों को श्रद्धांजलि स्वरुप आपकी ग़ज़ल “वतन परस्त”)

?? आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 7 – “वतन परस्त” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ??

 

महफ़ूज़ रहना ऐ वतन सेनापति सफ़र करते हैं,

तुम्हें सलाम हर शहर गाँव दर बदर करते है।

तुम दहाड़े शेर की मानिंद दुश्मन की जमीं पर,

हम वीर सिपहसालारों से दिली मुहब्बत करते हैं।

तुम्हारे सीने पर तग़मे कहते जज़्बे की कहानी,

दुश्मन नज़र तो उठाए हम काम तमाम करते हैं।

तुम्हारी ये ज़िंदादिली हर सिपाही में जान फूंकेगी,

ज़रूरत होने पर बता देंगे हम शहादत करते हैं।

यह देश हमेशा वतन परस्तों का क़र्ज़दार रहेगा,

देश की आन के लिए जान हथेली पर धरते हैं।

वक़्त आने पर हम भी बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ,

‘आतिश’ अभी क्यों बताए सिपाही क्या करते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 58 ☆ गजल – ज़िन्दगी ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 58 ☆ गजल – जिंदगी ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

 

जीना है तो दुख-दर्द छुपाना ही पड़ेगा

मौसम के साथ निभाना-निभाना ही पड़ेगा।

 

देखा न रहम करती किसी पै कभी दुनियाँ

हर बोझ जिंदगी का उठाना ही पड़ेगा।

 

नये हादसों से रोज गुजरती है जिंदगी

संघर्ष का साहस तो जुटाना ही पड़ेगा।

 

 खुद संभल उठ के राह पै रखते हुये कदम

दुनियॉं के साथ ताल मिलाना ही पड़ेगा।

 

हर राह में जीवन की, खड़ी है मुसीबतें

मिल उनसे, उनका नाज उठाना ही पड़ेगा।

 

दस्तूर हैं कई ऐसे जो दिखते है लाजिमी

हुई शाम तो फिर दीप जलाना ही पड़ेगा।

 

है कौन जिससे खेलती मजबूरियॉं नहीं ?

मन माने या न माने मनाना ही पड़ेगा।

 

पलकों में हों आँसू तो ओठों को दबाके

मुँह पै बनी मुस्कान तो लाना ही पड़ेगा।

 

खुद के लिये न सही, पै सबके लिये सही

जख्मों को अपने दिल के छुपाना ही पड़ेगा।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #70 – ईश्वर की पूजा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #70 – ईश्वर की पूजा ☆ श्री आशीष कुमार

मन को वश करके प्रभु चरणों मे लगाना बडा ही कठिन है। शुरुआत मे तो यह इसके लिये तैयार  ही नहीं होता है। लेकिन इसे मनाए कैसे? एक शिष्य थे किन्तु उनका मन किसी भी भगवान की साधना में नही लगता था और साधना करने की इच्छा भी मन मे थी।

वे गुरु के पास गये और कहा कि गुरुदेव साधना में मन लगता नहीं और साधना करने का मन होता है। कोई ऐसी साधना बताए जो मन भी लगे और साधना भी हो जाये। गुरु ने कहा तुम कल आना। दुसरे दिन वह गुरु के पास पहुँचा तो गुरु ने कहा सामने रास्ते मे कुत्ते के छोटे बच्चे हैं उसमे से दो बच्चे उठा ले आओ और उनकी हफ्ताभर देखभाल करो।

गुरु के इस अजीब आदेश सुनकर वह भक्त चकरा गया लेकिन क्या करे, गुरु का आदेश जो था। उसने 2 पिल्लों को पकड कर लाया लेकिन जैसे ही छोडा वे भाग गये। उसने फिरसे पकड लाया लेकिन वे फिर भागे।

अब उसने उन्हे पकड लिया और दूध रोटी खिलायी। अब वे पिल्ले उसके पास रमने लगे। हप्ताभर उन पिल्लो की ऐसी सेवा यत्न पूर्वक की कि अब वे उसका साथ छोड नही रहे थे। वह जहा भी जाता पिल्ले उसके पीछे-पीछे भागते, यह देख  गुरु ने दुसरा आदेश दिया कि इन पिल्लों को भगा दो।

भक्त के लाख प्रयास के बाद भी वह पिल्ले नहीं भागे तब गुरु ने कहा देखो बेटा शुरुआत मे यह बच्चे तुम्हारे पास रुकते नही थे लेकिन जैसे ही तुमने उनके पास ज्यादा समय बिताया ये तुम्हारे बिना रहनें को तैयार नही है।

ठीक इसी प्रकार खुद जितना ज्यादा वक्त भगवान के पास बैठोगे, मन धीरे-धीरे भगवान की सुगन्ध, आनन्द से उनमे रमता जायेगा। हम अक्सर चलती-फिरती पूजा करते है तो भगवान में मन कैसे लगेगा?

जितनी ज्यादा देर ईश्वर के पास बैठोगे उतना ही मन ईश्वर रस का मधुपान करेगा और एक दिन ऐसा आएगा कि उनके बिना आप रह नही पाओगे। शिष्य को अपने मन को वश में करने का मर्म समझ में आ गया और वह गुरु आज्ञा से भजन सुमिरन करने चल दिया।

बिन गुरु ज्ञान कहां से पाऊं।।।

सदैव प्रसन्न रहिये।

जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 111 ☆ प्रार्थना और प्रयास ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रार्थना और प्रयास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 111 ☆

☆ प्रार्थना और प्रयास ☆

प्रार्थना ऐसे करो, जैसे सब कुछ भगवान पर निर्भर है और प्रयास ऐसे करो कि जैसे सब कुछ आप पर निर्भर है–यही है लक्ष्य-प्राप्ति का प्रमुख साधन व सोपान। प्रभु में आस्था व आत्मविश्वास के द्वारा मानव विषम परिस्थितियों में कठिन से कठिन आपदाओं का सामना भी कर सकता है…जिसके लिए आवश्यकता है संघर्ष की। यदि आपमें कर्म करने का मादा है, जज़्बा है, तो कोई भी बाधा आपकी राह में अवरोध नहीं उत्पन्न कर सकती। आप आत्मविश्वास के सहारे निरंतर बढ़ते चले जाते हैं। परिश्रम सफलता की कुंजी है। दूसरे शब्दों में इसे कर्म की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘संघर्ष नन्हे बीज से सीखिए, जो ज़मीन में दफ़न होकर भी लड़ाई लड़ता है और तब तक लड़ता रहता है, जब तक धरती का सीना चीरकर वह अपने अस्तित्व को साबित नहीं कर देता’– यह है जिजीविषा का सजीव उदाहरण। तुलसीदास जी ने कहा है कि यदि आप धरती में उलटे-सीधे बीज भी बोते हैं, तो वे शीघ्रता व देरी से अंकुरित अवश्य हो जाते हैं। सो! मानव को कर्म करते समय फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्म का फल मानव को अवश्य प्राप्त होता है।

कर्म का थप्पड़ इतना भारी और भयंकर होता है कि जमा किया हुआ पुण्य कब खत्म हो जाए, पता ही नहीं चलता। पुण्य खत्म होने पर समर्थ राजा को भी भीख मांगने पड़ सकती है।इसलिए कभी भी किसी के साथ छल-कपट करके उसकी आत्मा को दु:खी मत करें, क्योंकि बद्दुआ से बड़ी कोई कोई तलवार नहीं होती। इस तथ्य में सत्-कर्मों पर बल दिया गया है, क्योंकि सत्-कर्मों का फल सदैव उत्तम होता है। सो! मानव को छल-कपट से सदैव दूर रहना चाहिए, क्योंकि पुण्य कर्म समाप्त हो जाने पर राजा भी रंक बन जाता है। वैसे मानव को किसी की बद्दुआ नहीं लेनी चाहिए, बल्कि प्रभु का शुक्रगुज़ार रहना चाहिए, क्योंकि प्रभु जानते हैं कि हमारा हित किस स्थिति में है? प्रभु हमारे सबसे बड़े हितैषी होते हैं। इसलिए हमें सदैव सुख में प्रभु का सिमरन करना चाहिए, क्योंकि परमात्मा का नाम ही हमें भवसागर से पार उतारता है। सो! हमें प्रभु का स्मरण करते हुए सर्वस्व समर्पण कर देना चाहिए, क्योंकि वही आपका भाग्य-विधाता है। उसकी करुणा-कृपा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। दूसरी ओर मानव को आत्मविश्वास रखते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। इस स्थिति में मानव को यह सोचना चाहिए कि वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं है तथा उसमें असीम शक्तियां संचित हैं।  अभ्यास के द्वारा जड़मति अर्थात् मूढ़ व्यक्ति भी बुद्धिमान बन सकता है, जिसके अनेक उदाहरण हमारे समक्ष हैं। कालिदास के जीवन-चरित से तो सब परिचित हैं। वे जिस डाली पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। परंतु प्रभुकृपा प्राप्त होने के पश्चात् उन्होंने संस्कृत में अनेक महाकाव्यों व नाटकों की रचना कर सबको स्तब्ध कर दिया। तुलसीदास को भी रत्नावली के एक वाक्य ने दिव्य दृष्टि प्रदान की और उन्होंने उसी पल गृहस्थ को त्याग दिया। वे परमात्म-खोज में लीन हो गए, जिसका प्रमाण है रामचरितमानस  महाकाव्य। ऐसे अनगिनत उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘तुम कर सकते हो’– मानव असीम शक्तियों का पुंज है। यदि वह दृढ़-निश्चय कर ले, तो वह सब कुछ कर सकता है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। सो! हमारे हृदय में शंका भाव का पदार्पण नहीं होना चाहिए। संशय उन्नति के पथ का अवरोधक है और हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। हमें संदेह, संशय व शंका को अपने हृदय में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।

संशय मित्रता में सेंध लगा देता है और हंसते-खेलते परिवारों के विनाश का कारण बनता है। इससे निर्दोषों पर गाज़ गिर पड़ती है। सो! मानव को कानों-सुनी पर नहीं, आंखिन- देखी पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि अतीत में जीने से उदासी और भविष्य में जीने से तनाव आता है। परंतु वर्तमान में जीने से आनंद की प्राप्ति होती है। कल अर्थात् बीता हुआ कल हमें अतीत की स्मृतियों में जकड़ कर रखता है और आने वाला कल भविष्य की चिंताओं में जकड़ लेता है और उस व्यूह से हम चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में मानव सदैव इसी उधेड़बुन में उलझा रहता है कि उसका अंजाम क्या होगा और इस प्रकार वह अपना वर्तमान भी नष्ट कर लेता है। तो वर्तमान वह स्वर्णिम काल है, जिसमें जीना सर्वोत्तम है। वर्तमान आनंद- प्रदाता है, जो हमें संधर्ष व परिश्रम करने को प्रेरित करता है। सो। संघर्ष ही जीवन है और जो मनुष्य कभी बीच राह से लौटता नहीं; वह धन्य है। सफलता सदैव उसके कदम चूमती है और वह कभी भी अवसाद के घेरे में नहीं आता। वह हर पल को जीता है और हर वस्तु में अच्छाई की तलाशता है। फलत: उसकी सोच सदैव सकारात्मक रहती है। 

हमारी सोच ही हमारा आईना होती है और वह आप पर निर्भर करता है कि आप गिलास को आधा भरा देखते हैं या खाली समझ कर परेशान होते हैं। रहीम जी का यह दोहा ‘जै आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ आज भी समसामयिक व सार्थक है। जब जीवन में संतोष रूपी धन आ जाता है, तो उसे धन-संपत्ति की लालसा नहीं रहती और वह उसे धूलि समान भासता है। शेक्सपीयर का यह कथन ‘सुंदरता व्यक्ति में नहीं, दृष्टा की आंखों में होती है’ अर्थात् सौंदर्य हमारी नज़र में नहीं, नज़रिए में होता है इसलिए जीवन में नज़रिया व सोच को बदलने की शिक्षा दी जाती है।

जीवन में कठिनाइयां हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं,बल्कि हमारी छुपी हुई सामर्थ्य व  शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। ‘कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उनसे भी कठिन हैं। कठिनाइयां हमारे अंतर्मन में संचित सामर्थ्य व शक्तियों को उजागर करती हैं;  हमें सुदृढ़ बनाती हैं तथा हमारे मनोबल को बढ़ाती हैं।’ इसलिए हमें उनके सम्मुख पर पराजय नहीं स्वीकार नहीं चाहिए। वे हमें भगवद्गीता की कर्मशीलता का संदेश देती हैं। ‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते-निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फ़रिश्ते बन जाते।’ गुलज़ार की ये पंक्तियां मानव को आत्मावलोकन करने का संदेश देती हैं। परंतु मानव दूसरों पर अकारण  दोषारोपण करने में प्रसन्नता का अनुभव करता है और निंदा करने में उसे अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह पथ-विचलित हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अगर ज़िन्दगी में सुक़ून चाहते हो, तो फोकस काम पर करो; लोगों की बातों पर नहीं। इसलिए मानव को अपने कर्म की ओर ध्यान देना चाहिए; व्यर्थ की बातों पर नहीं।’ यदि आप ख़ुद को तराशते हैं, तो लोग आपको तलाशने लगते हैं। यदि आप अच्छे कर्म करके ऊंचे मुक़ाम को हासिल कर लेते हैं, तो लोग आपको जान जाते हैं और आप का अनुसरण करते हैं; आप को सलाम करते हैं। वास्तव में लोग समय व स्थिति को प्रणाम करते हैं; आपको नहीं। इसलिए आप अहं को जीवन में पदार्पण मत करने दीजिए। सम भाव से जीएं तथा प्रभु-सत्ता के सम्मुख समर्पण करें। लोगों का काम है दूसरों की आलोचना व निंदा करना। परंतु आप उनकी बातों की ओर ध्यान मत दीजिए; अपने काम की ओर ध्यान दीजिए। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती।’ सो!  निरंतर प्रयासरत रहिए– मंज़िल आपकी प्रतीक्षारत रहेगी। प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए तथा सत्कर्म करते रहिए…यही जीवन जीने का सही सलीका है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 62 ☆ शुद्धता को ताक पर रखते लोग! ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख शुद्धता को ताक पर रखते लोग!।)

☆ किसलय की कलम से # 62 ☆

☆ शुद्धता को ताक पर रखते लोग! 

मानव का गहना मानवता है। सच्चाई, सद्भावना और परोपकार रूपी ये तीन गुण यदि मानव आत्मसात ले तो शेष सभी अच्छाईयाँ उसके मन में स्थाई रूप से बस जाती हैं। जीवनयापन का मूल आधार धनोपार्जन होता है। बुद्धि और श्रम के अनुपात में ही आपकी संपन्नता लताओं और पौधों के समान धीरे-धीरे बढ़ती है। त्वरित संपन्नता का कारक नैतिकता व ईमानदारी कभी नहीं हो सकता, लेकिन आज यही सब समाज में दिखाई दे रहा है। अधिकांश लोग आज नैतिकता व ईमानदारी को अपने लॉकर में बंद कर उद्योग-धंधे, नौकरी-पेशा अथवा व्यवसाय करते नजर आते हैं।

जब तक मानव जीवन के लिए कोई भी कृत्य अथवा व्यवहार हानिकारक या जानलेवा न हो तब तक ठीक है, लेकिन जब आपके कृत्य व आचरण से व्यक्तिगत अथवा सामूहिक क्षति होने लगे तो यह मानवता के लिए घोर संकट का कारण बन सकता है।

एक समय था जब लोग खाद्य पदार्थों में मिलावट करना अपराध मानते थे, अपराध बोध से द्रवित हो जाते थे। मानते थे कि हमारे अनैतिक कार्य ईश्वर भी देखता है। उनका अंतस ऐसे गलत कार्य करने की स्वीकृति कभी नहीं देता था, लेकिन वर्तमान में स्वार्थ की हवस इतनी बढ़ती जा रही है कि लोग नैतिकता और ईमानदारी को फिजूल की बातें मानने लगे हैं। शुद्धता को ताक पर रखकर ये लोग केवल अपना उल्लू सीधा करने में संलिप्त हैं।

अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए अधिकांश लोग रासायनिक खाद का उपयोग करते हैं। यह सभी जानते हैं कि हुबहू अनाज के रूप में हमें इस प्रकार का पौष्टिकताविहीन खाद्य पदार्थ मिलता है लेकिन “ज्यादा उत्पादन – ज्यादा पैसा” के समीकरण का सिद्धांत आज की प्रवृत्ति बनता जा रहा है। लौकी, कद्दू जैसी सब्जियों को इंजेक्शन लगाकर रातों-रात बड़ा कर दिया जाता है। पपीते और केलों को कार्बाइड जैसे केमिकल से पकाकर बाजार में बेचा जाता है। मुरझाई व पीली पड़ी सब्जियों में रंग और रसायनों से कई दिनों तक हरा भरा रखा जाता है। सीलबंद खाद्य पदार्थों में विनेगर, नाइट्रोजन व प्रिजर्वेटिव जैसे हानिकारक रसायन मिलाकर न सड़ने की सुनिश्चितता पर कई-कई महीनों तक बेचे जाते हैं। आटे में बेंजोयल पर ऑक्साइड जिसे सिर्फ 4 मिलीग्राम डालने की शासन की स्वीकृति है उसे 400 मिलीग्राम तक डालकर लोगों की किडनी से खिलवाड़ किया जाता है। आटे में चाक पाउडर, बोरिक पाउडर और घटिया चावल का चूरा मिलाना भी आम बात है। और तो और अब यूरिया, डिटर्जेंट, घटिया तेल आदि से हानिकारक सिंथेटिक दूध बनाकर बेचा जा रहा है। ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन गाय-भैंसों को लगाकर दूध का उत्पादन बढ़ाया जाता है। कहा जाता है कि 25% दूध पशु अपने बच्चों के लिए बचा लेती है। इस बचे दूध को भी इंजेक्शन लगाकर निकाल लिया जाता है, इस इंजेक्शन से हमारे शारीरिक विकास पर विपरीत प्रभाव तो पड़ता ही है, हाइपोथैलेमस ग्लैंड में ट्यूमर होने की भी संभावना बढ़ जाती है। अब सुनने मिलता है कि कृत्रिम चावल और पत्ता गोभी भी पन्नियों  से बनाए जाने लगे हैं। खाद्य तेलों और वनस्पति घी में जानवरों की चर्बी मिलाई जाती है। घी में उबले आलू भी मिलाये जाते हैं। हम बहुत पहले से नकली दवाइयों के धंधे फूलते-फलते देख रहे थे। अनजाने में नकली दवाईयों का सेवन कर कितनों की जानें गई होंगी, इनका कभी लेखा-जोखा नहीं किया जा सका है। दवाईयों में सबसे घातक मिलावट और चालबाजी हाल ही में कोरोना के चलते सामने आई जब इस महामारी का सबसे कारगर इंजेक्शन रेमडेसिवर का मिलावटी और नकली होना पाया गया। इस अमानवीय कृत्य में संलग्न लोग पकड़े भी गए हैं। देखना है मानवता से खिलवाड़ करने का इन पर क्या दंड निर्धारित होता है। वैसे इस धंधे में पूरी एक श्रृंखला होती है जो उत्पादक, वितरक, मेडिकल स्टोर्स, हॉस्पिटल तथा पूरे डॉक्टर वर्ग की बनी होती है। उत्पादन मूल्य में उक्त सभी लोगों का प्रतिशत जोड़कर दवाईयाँ उपभोक्ताओं को जिस मूल्य पर विक्रय हेतु उपलब्ध होती हैं वे दवाईयाँ कितने प्रतिशत बढ़े हुए मूल्य पर बेची जाती है, आप स्वयं इसका अंदाजा लगा सकते हैं। सब कुछ जानते हुए भी सरकार इसलिए कुछ नहीं कर पाती कि सरकार में बैठे लोग भी किसी न किसी कारण कीमतें कम करने में सदैव असमर्थ रहते हैं।

मिष्ठान्नों में भी नकली खोवा केमिकल्स, रंगों, प्रिजर्वेटिव्स एवं निषिद्ध घटिया पदार्थों का बहुतायत में प्रयोग किया जाता है, जो सेहत के लिए नुकसानदायक होता है। शासकीय स्तर पर सैंपल और दुकानों तथा कारखानों में छापे के बाद भी लगभग सारे दोषी पुनः निर्दोष होने का प्रमाण पत्र लिए उन्हीं गोरखधंधों में लिप्त हो जाते हैं।

मानव जहाँ ऐसे खाद्य पदार्थों को खाकर अपनी जान गँवा रहा है, वहीं मिलावटी सीमेंट, मिलावटी सोने-चांदी के जेवरात, दैनिक उपयोग की घटिया वस्तुओं से भी लोग परेशान और हैरान हैं। कम लागत के लोभ में घटिया पदार्थों के साथ ही मूल वस्तुओं के रूप, गुण, धर्म में समानता रखने वाले सस्ती कीमत के उत्पादों को भी बाजार में शुद्ध वस्तुओं के दामों बेचकर बेतहाशा पैसा कमाया जा रहा है।

हमारे मानव समाज की ये भी एक विडंबना है कि हम जहाँ भौतिक चीजों में मिलावट की बात करते हैं, वहीं हमारी बातों, हमारे व्यवहार यहाँ तक कि हमारी हँसी में भी मिलावट पाई जाने लगी है। हम अंदर से कुछ और हैं तथा बाहर कुछ और प्रदर्शित करते हैं। क्या ये सभी मानव जाति के लिए सही है? हम क्या लेकर आए थे, और क्या लेकर इस दुनिया छोड़ कर जाएँगे, ये विचारणीय बातें हैं।

आज हम स्वयं के द्वारा कमाए हुए रुपयों का लाखों-लाख रुपया अपनी ही बीमारियों में लगा देते हैं। दुर्घटनाओं के बाद हाथ-पैर सुधारवाने में लगा देते हैं। अपने अच्छे-भले घरों, और पुलों, इमारतों को हम ढहते देखते हैं। ये अधिकांश क्षति किन कारणों से होती है। हम एक अनीति से पैसा कमाते हैं। दूसरा व्यक्ति दूसरी अनीति से कमाता है। हम दूसरे के जीवन को दाँव पर लगा देते हैं। दूसरा आपके जीवन के साथ खिलवाड़ करता है। काश! हम सभी एक दूसरे के जीवन को बहुमूल्य मानते हुए नैतिकता और ईमानदारी से अपना-अपना काम करें तो शायद हमारा समाज, हमारा देश, यहाँ तक कि सारा विश्व स्वर्ग न सही, स्वर्ग जैसा जरूर बन सकता है। कुछ भी हो, हमें सच्चाई, सद्भावना और परोपकार के मार्ग पर यथासंभव चलना ही चाहिए। आखिर हम मानव हैं और मानवता समाज का ध्यान रखना हमारा कर्त्तव्य भी है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 110 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 110 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे 

कविता मेरी प्रेरणा, कविता में अनुराग।

अंतर्तम  में बह रहा, है भावों का  राग।।

 

सारस्वत की  रागिनी, बहती है अविराम।

जो है इनकी प्रेरणा, उनको विनत प्रणाम।।

 

राजनीति का हो रहा, सबको ही अब रोग।

 बाढ  प्रदर्शन की चली, बहे जा रहे लोग।।

 

निष्फल ही करते रहे, उनके लिए प्रयास।

समझा उसे जरा नहीं, टूट गई है आस।।

 

भौंरा कैसे नाचता, फूल पंखुड़ी बंद।

इधर उधर डोला फिरे, ढूंढ रहा मकरंद।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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