मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 58 ☆ गरिबी हा शाप… ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 58 ? 

☆ गरिबी हा शाप … ☆

(भूक_अशी असते जी माणसाला काही पण करायला लावते,मढयावरील अथवा त्याला अर्पण केलेलं अन्न कधी कोणी खाल्लं तर त्यात नवल कसलं.शेवटी ती भूक आहे,आणि भूक माणसाला कुठे घेऊन जाईल याचा भरवसा नाहीच.)

 

मज नाही तमा ती कसली

भूक छळते फक्त मजला

तीच भूक शमविण्यासाठी

प्रवास माझा इथे थांबला

 

अन्न हवे शरीराला

अन्नमय प्राण आहे

अन्न नसेल तर मग

जीवन ज्योत मालवू पाहे

 

गरिबी हा शाप लागला

पिच्छा त्याने न सोडला

ह्याच शापास्ताव मग पहा

आलो मी रौद्र भूमीला…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #116 ☆ व्यंग्य – कलियुग में चमत्कार ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘कलियुग में चमत्कार। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 11 ☆

☆ व्यंग्य – कलियुग में चमत्कार 

एस.पी.साहब दूसरे शहर से बदली होकर आये थे। चार महीने बाद उनके पुत्र की शादी हुई। इंस्पेक्टर प्रीतमलाल को बुलाया, कहा, ‘शामियाना, केटरिंग और रोशनी का इंतज़ाम करो। जो भी पेमेंट बनेगा कर दिया जाएगा। एडवांस देना ज़रूरी हो तो वह भी दिया जा सकता है। इंतज़ाम बढ़िया होना चाहिए।’                       

प्रीतमलाल ने सैल्यूट मारा, कहा, ‘हो जाएगा, सर,बढ़िया इन्तज़ाम हो जाएगा। आप निश्चिंत रहें।’

प्रीतमलाल मोटरसाइकिल लेकर पंजाब टेंट हाउस के सरदार जी के पास पहुँचे। कहा, ‘एस पी साहब के यहाँ अगली पच्चीस की शादी है। इन्तज़ाम करना है। नोट कर लो।’

सुनकर सरदार जी का मुँह उतर गया। कुछ सेकंड मुँह से बोल नहीं निकला। गला साफ करके ज़बरदस्ती प्रसन्नता दिखाते हुए बोले, ‘हो जाएगा, साब, बिलकुल हो जाएगा। आप फिकर मत करो। आप का काम नहीं होगा तो किसका होगा?’

इंस्पेक्टर साहब बोले, ‘पेमेंट की चिन्ता मत करना। साहब ने कहा है कि हो जाएगा।’

सरदार जी ने फीकी मुस्कान के साथ जवाब दिया, ‘वो ठीक है सर। कोई बात नहीं है। इन्तजाम हो जाएगा। डिपार्टमेंट का काम अपना काम है।’

इंस्पेक्टर साहब ने पूछा, ‘कुछ एडवांस वगैरः की ज़रूरत है क्या?’

सरदार जी घबराकर बोले, ‘अरे नहीं सर। एडवांस का क्या होगा?कोई प्राब्लम नहीं है। आपका काम हो जाएगा।’

प्रीतमलाल संतुष्ट होकर लौट गये।

एस. पी. साहब के पुत्र की शादी हुई। इन्तज़ाम एकदम पुख्ता था। लंबा चौड़ा शामियाना लगा,नीचे कुर्सियों और सोफों की लम्बी कतार। जगमग करती रोशनी। खाने के लिए बड़े दायरे में फैले बूथ। आजकल के फैशन के हिसाब से तरह तरह की भोजन-सामग्री। सारा इंतज़ाम एस. पी.साहब की पोज़ीशन के हिसाब से। मेहमान खूब खुश होकर गये।

सबेरे सब काम सिमट गया। शामियाना, कुर्सियां, बूथ, देखते देखते सब ग़ायब हो गये।

चार पाँच दिन बाद इंस्पेक्टर प्रीतमलाल फिर सरदार जी के पास पहुँचे। बोले, ‘चलो सरदार जी, साहब ने हिसाब के लिए बुलाया है।’

सरदार जी सुनकर परेशान हो गये। बोले, ‘किस बात का हिसाब जी?’

इंस्पेक्टर ने कहा, ‘क्यों, शादी के इन्तज़ाम का हिसाब नहीं करना है?’

सरदार जी हाथ हिलाकर बोले, ‘कोई हिसाब नहीं है सर। आपका काम हो गया, हिसाब की क्या बात है?’

दरोगा जी बोले, ‘ये साहब ज़रा दूसरी तरह के हैं। धरम-करम वाले हैं। बिना हिसाब किये नहीं मानेंगे। चलो,हिसाब कर लो।’

सरदार जी और परेशान होकर बोले, ‘नईं सर,माफ करो। कोई हिसाब किताब नहीं है। आप खुश खुश घर जाओ। साहब से हमारा सलाम बोलना।’

प्रीतमलाल भी कुछ परेशान हुए। समझाकर बोले, ‘अरे चलो सरदार जी,साहब सचमुच हिसाब करना चाहते हैं।’

सरदार जी हाथ जोड़कर बोले, ‘जुरूर हमसे कोई गलती हुई है जो आप हिसाब की बात बार बार कर रहे हैं। बताओ जी क्या गलती हुई?’

प्रीतमलाल ने हँसकर जवाब दिया, ‘अरे   कोई गलती नहीं है। चलो, चल कर अपना पैसा ले लो।’

सरदार जी ने अपनी हिसाब की नोटबुक उठायी और उसके पन्ने पलटने लगे। फिर बोले, ‘सर जी, हमारे खाते में तो आपका कोई काम हुआ ही नहीं।’

प्रीतमलाल आश्चर्य से बोले, ‘क्या?’

सरदार जी पन्ने पलटते हुए बोले, ‘इसमें तो कहीं आपका हिसाब चढ़ा नहीं है। हमारी दुकान से तो आपका काम हुआ नहीं।’

प्रीतमलाल विस्मित होकर बोले, ‘शादी में इन्तज़ाम आपका नहीं था?’

सरदार जी फिर नोटबुक पर नज़र टिकाकर बोले, ‘इस नोटबुक के हिसाब से तो नहीं था, सर।’

प्रीतमलाल बोले, ‘लेकिन मैं तो आपको आर्डर देकर गया था।’

सरदार जी ने जवाब दिया, ‘जुरूर दे गये थे, लेकिन उस दिन की बुकिंग दूसरी जगह की पहले से थी। मैं आपको बताना भूल गया था। बाद में मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन आपसे कंटैक्ट नहीं हुआ।’

प्रीतमलाल परेशान होकर लौट गये।

एस.पी.साहब को बताया तो साहब ने सरदार जी को तलब किया। सरदार जी अपनी नोटबुक लिये पहुँचे।

साहब ने पूछा, ‘सरदार जी, अपना हिसाब क्यों नहीं बता रहे हैं?’

सरदार जी ने बड़ी सादगी से जवाब दिया, ‘सर जी, हमने तो आपका कोई काम किया ही नहीं। हिसाब कैसे बतायें?हमारी नोटबुक में तो कुछ चढ़ा ही नहीं। जुरूर कुछ गल्तफैमी हुई है।’

एस.पी. साहब हँसे, बोले, ‘हम खूब समझते हैं। नाटक मत करो,सरदार जी। अपना पैसा ले लो।’

सरदार जी अपने कानों को हाथ लगाकर बोले, ‘हम सच बोल रहे हैं, सर जी। हमारी दुकान से आपका काम नहीं हुआ।’

एस. पी. साहब बोले, ‘बहुत हुआ सरदार जी। अपने पैसे ले लो।’

सरदार जी दुखी भाव से बोले, ‘कैसे ले लें, सर जी?हम बिना काम का पैसा लेना गुनाह समझते हैं।’

एस.पी.साहब निरुत्तर हो गये। उसके बाद दो तीन बार इंस्पेक्टर प्रीतमलाल फिर गये, लेकिन सरदार जी की नोटबुक यही कहती रही कि उन्होंने एस.पी.साहब के यहाँ कोई काम नहीं किया। प्रीतमलाल ने उनसे कहा कि कई लोगों ने उन्हें वहाँ इन्तज़ाम में लगा देखा था तो उनका जवाब था कि कोई उनका हमशकल होगा, वे तो उस दिन एसपी साहब के बंगले के आसपास भी नहीं गये।

उनसे यह भी कहा गया कि शादी के दिन आये सामान पर ‘पंजाब टेंट हाउस’ लिखा देखा गया था। उस पर भी सरदार जी का जवाब था, ‘नईं जी। जुरूर आपको गल्तफैमी हुई होगी।’

उसके बाद पुलिस हल्के में चर्चा चल पड़ी कि कैसे जिन सरदार जी को काम दिया गया था वे तो एस. पी.साहब के बंगले पर पहुँचे ही नहीं और फिर भी किसी चमत्कार से सारा काम हो गया। पुलिस हल्के से निकलकर यह चर्चा पूरे शहर में फैल गयी। लोग पुरानी कथाओं के उदाहरण देकर सिद्ध करने लगे कि यह घटना नयी नहीं है। पहले भी भगवान ने आदमी का रूप धारण कर कई बार भक्तों को संकट से बचाया है। इस घटना से सिद्ध हुआ कि कलियुग में भी चमत्कार संभव है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 115 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 115 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय 

अंधकार से प्रकाश की यात्रा मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। स्थूल के भीतर सूक्ष्म का प्रकाश है जो मनुष्य को यात्रा कराता है। यह यात्रा बाहर से भीतर की है। कभी-कभी कोई प्रसंग, कोई घटना अकस्मात एक लौ भीतर प्रज्ज्वलित कर देती है। यात्रा आरम्भ हो जाती है।

ब्रह्मा के मानसपुत्र प्रचेता के पुत्र थे रत्नाकर। किंवदंती है कि बचपन में इनका अपहरण एक भीलनी ने कर लिया था। कालांतर में परिवेश के प्रभाव में वे रत्नाकर डाकू हो गए। रत्नाकर डाकू वन में आते- जाते व्यक्तियों को लूट लेने के लिए कुख्यात हो चला। एक बार देवर्षि नारद उस मार्ग से निकले। रत्नाकर रास्ता रोककर खड़ा हो गया। देवर्षि ने पूछा, “यह पापकर्म क्यों करते हो?” उत्तर मिला, “अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए।” देवर्षि ने फिर प्रश्न किया, “तुम्हारे पाप में क्या तुम्हारे परिजन भागीदार होंगे?” ” निश्चित, उन्हीं के लिए तो करता हूँ।”….देवर्षि हँस पड़े। बोले,” चाहे तो मुझे बांध जाओ पर जाकर एक बार अपने परिजनों को पूछ तो लो, उनसे पुष्टि तो ले लो।” नादान रत्नाकर एक मोटी रस्सी से देवर्षि को बांधकर घर पहुँचा। सारा घटनाक्रम सुनाकर परिजनों से पूछा कि उसके पाप में वे सम्मिलित हैं या नहीं?” परिजन बोले, ” हम तुम्हारे पाप में भागीदार क्यों समझे जाएँगे? पाप तुम्हारा, दंड भी तुम्हारा ही।” बैरागी भाव लेकर रत्नाकर, देवर्षि के पास पहुँचा। पापों से मुक्त होने और अंधकार से प्रकाश की यात्रा का मार्ग जानना चाहा। मुनि ने कहा, “तपस्या करो। संभव है। सीधे राम राम तुमसे न जाय तो मरा-मरा से आरम्भ करो।” डाकू रत्नाकर पहला व्यक्ति हुआ जो मरा- मरा, से मराम-मराम होते-होते राम राम तक पहुँचा। प्रदीर्घ तपस्या में शरीर पर दीमकों ने बाँबी बना ली। रत्नाकर, उसी बाँबी में समाप्त हो गए और महर्षि वाल्मीकि ने जन्म लिया।

अज्ञान के तम की जानकारी प्रकाश की यात्रा में पहला चरण है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 68 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 68 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 68) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 68☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

बेवजह भारी बोझ

दिल पे मत रखिये,

ज़िन्दगी एक जंग है

हँसते-गाते जारी रखिये…

 

Don’t you unnecessarily

burden your heart heavily

If  life  is  a  battle,  then

keep fighting jubilantly..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

यूँ तो हम अपने…

आप में गुम थे,

मगर सच तो ये है…

वहाँ भी तुम थे…!

 

Well, as such I was

lost in myself only,

But the truth is that

you were there too…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

गर ढूँढना है तो सिर्फ चैन

और सुकून ढूँढ़िये, जनाब

कब किसी की  तमन्नाएं

और जरूरतें पूरी हुईं  हैं…

 

If you’ve to find then just try

finding peace and solace, Sir

When have anyone’s needs

and desires ever been fulfilled…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हर वक़्त नया चेहरा

हर वक़्त नया वजूद,

आदमी ने आईने को

हैरत में डाल दिया है…

 

A new face all the time,

A new entity every time,

The man has surprised

even  the  mirror…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 68 ☆ दोहे ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘गीतः श्रद्धा ने … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 68 ☆ 

☆ दोहे ☆

सलिल न बन्धन बाँधता, बहकर देता खोल।

चाहे चुप रह समझिए, चाहे पीटें ढोल।।

*

अंजुरी भर ले अधर से, लगा बुझा ले प्यास।

मन चाहे पैरों कुचल, युग पा ले संत्रास।।

*

उठे, बरस, बह फिर उठे, यही ‘सलिल’ की रीत।

दंभ-द्वेष से दूर दे, विमल प्रीत को प्रीत।।

*

स्नेह संतुलन साधकर, ‘सलिल’ धरा को सींच।

बह जाता निज राह पर, सुख से आँखें मींच।।

*

क्या पहले क्या बाद में, घुली कुँए में भंग।

गाँव पिए मदमस्त है, कर अपनों से जंग।।

*

जो अव्यक्त है, उसी से, बनता है साहित्य।

व्यक्त करे सत-शिव तभी, सुंदर का प्रागट्य।।

*

नमन नलिनि को कीजिए, विजय आप हो साथ।

‘सलिल’ प्रवह सब जगत में, ऊँचा रखकर माथ।।

*

हर रेखा विश्वास की, शक-सेना की हार।

सक्सेना विजयी रहे, बाँट स्नेह-सत्कार।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #98 ☆ -हिंदूधर्माचरण एक   संस्कारित  भारतीय जीवनशैली- ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 98 ☆ -हिंदूधर्माचरण एक   संस्कारित  भारतीय जीवनशैली- ☆

हमारा देश भारतवर्ष  पौराणिक कथाओं तथा धार्मिक मतों के अध्ययन के अनुसार आर्यावर्त के जंबूद्वीप  के एक खंड का हिस्सा है जिसे अखंडभारत  के नाम से पहचाना जाता है। जिसका सीमा विस्तार काफी लंबा था आर्य जहां निवास करते थे ऋग्वेद के अनुसार उस जगह को सप्तसैंधव अर्थात् सात नदियों वाले स्थान के नाम चिंन्हित किया गया। ऋग्वेद नदी सूक्त ( 1075 ) के अनुसार जिस जगह आर्य निवास किए वहां सात नदियां बहती थी, जिसमें 1कुंभा(काबुल नदी) 2- क्रुगु (कुर्रम)3–गोमती(गोमल)4–सिंधु

5–परूष्णी(रावी)6–सुतुद्री(सतलज)7–वितस्ता(झेलम) के अलावा गंगा यमुना सरस्वती तक था इनके आस-पास सीमा क्षेत्र में आर्य रहते थे। लेकिन जल प्रलय के समय आर्यो ने खुद को त्रिविष्टप( तिब्बत) जैसे ऊंचे क्षेत्र में खुद को सुरक्षित कर लिया।जल प्रलय के बाद उन्होंने दक्षिणी एशिया तक अपने देश का सीमा विस्तार किया।

स्वामी दयानंद सरस्वती इसी आधार पर आर्यों को तिब्बत का निवासी मानते हैं। ऋग्वेद काल में धरती का विस्तार से अध्ययन मिलता है उस समय आर्यो का एक समूह उन सात नदी क्षेत्रो तक फैला हुआ था , इतिहास कारों का मानना है कि वैदिक भारतीय जन समूह वहीं से घूमते हुए अन्य जगहों पर पहुंचा। तथा राजा प्रचेतस के जिनका वर्णन पांच पुराणों में आता है,वे प्रचेतस वंशजों के रूप में वे भारत के उत्तर पश्चिमी दिशाओं में फैल कर अपने राज्य स्थापित कर सीमा विस्तार किया। जानकारी स्रोत (बेव दुनिया डांट काम) से—

राजा दुष्यंत के महाप्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।  लेकिन हमारे अध्ययन के अनुसार देश में तीन भरत चरित्र हमारे सामने है जो सामूहिक रूप से हमारे देश हमारी संस्कृति तथा हमारे समाज  के आचार विचार व्यवहार तथा मानवीय गुणों की आदर्श तथा अद्भुतछवि विश्व फलक पर प्रस्तुत करता है।

जिसमें समस्त मानवीय मूल्यों आदर्शों की छटा समाहित है जो हमें हमारे सांस्कृतिक संस्कारों की याद दिलाता रहता है, जो इंगित करता है कि बिना संस्कारों के संरक्षण के कोई समाज उन्नति नहीं कर सकता। संस्कार विहीन समाज टूट कर बिखर जाता है और अपने मानवीय मूल्य को देता है  वैसे तो हर धर्म और संस्कृति के लोग अपने देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने अपने संस्कारों के अनुसार व्यवहार करते है  लेकिन हमारा समाज  सोडष  संस्कारों की आचार संहिता से आच्छादित है जिसमें मुख्य रूप से  1–गर्भाधान संस्कार 2–पुंशवन संस्कार 3–सीमंतोन्नयन संस्कार 4–जातकर्म संस्कार 5–नामकरण संस्कार 6–निष्क्रमण संस्कार 7–अन्नप्राशन संस्कार 8–मुण्डन संस्कार 9–कर्णवेधन संस्कार 10-विद्यारंभ संस्कार 11-उपनयन संस्कार 12-वेदारंभ संस्कार 13-केशांत संस्कार 14-संवर्तन संस्कार 15–पाणिग्रहण अथवा विवाह संस्कार 16-अंतेष्टि संस्कार।

इनमें से हर संस्कार का‌ मूलाधार आदर्श कर्मकांड पर  टिका हुआ है। हमारे आदर्श ही हमारी संस्कृति की जमा-पूंजी है , यही तो हर भरत चरित्र हम भारतवंशियो की आचार-संहिता की चीख चीख कर दुहाई देता है जिसका आज पतन होता दीख रहा है आज जहां भाई ही भाई के खून का प्यासा है। वहीं त्रेता युगीन भरत चरित भ्रातृप्रेम तथा स्नेह की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता है, तो द्वापरयुगीन भरत चरित सूर वीरता शौर्य तथा साहस की भारतीय परम्परा की गौरवगाथा की जीवंत  झांकी दिखाता है।

वहीं जड़भरत का चरित्र हमारी आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा को स्पर्श करता दीखता  है ये नाम हर भारतीय से आदर्श आचार संहिता की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज की आन बान शान के मर्यादित आचरण की कसौटी है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-3 ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-3।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-3 ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

बीसवीं सदी के साहित्य के इतिहास को खंगालना है, तो बहुत कुछ चकित करने वाली चीज मिल जाती हैं वैसे इतिहास समय का दस्तावेज होता है..वह होना चाहिए, पर होता नहीं है. इतिहास में अधिकतर राजनीतिक उतार-चढ़ाव, उथल पुथल राज्योत्थान पतन का अधिक महत्व दिया जाता जा रहा है. इतिहास मे जीवन मूल्यों, मानवीय संवेदना और सामाजिक परिवर्तन परिदृश्य नहीं के बराबर होता है. समाजशास्त्र भी सामाजिक गतिविधियों और परिवर्तन पर अधिक बात करता है. यहाँ पर मानवीय संवेदना छूट जाती हैं. एक साहित्य ही है. जो मानवीय सरोकारों, चिंताओं, परिवर्तन के परिदृश्य  समय के साथ समाज के समक्ष रखता है .साहित्य सदा  समकालीनता की बात करता है.समकालीन सरोकार चिंताएं, चरित्र, साहित्य ही लेकर आगे बढ़ता है. अगर विभिन्न समय के साहित्य का अध्ययन करें. तब उस समय की सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों का दृश्यावलोकन  करने मिल जाता है.

साहित्य के इतिहास को अधिक खनन से बहुत सी चीजें हमारे हाथ लग जाती हैं. जिसकी हम  कल्पना नहीं करते हैं. कबीर के समय की स्थितियां, विसंगतियां, प्रवृत्तियां, धार्मिक अंधविश्वास आदि कबीर के साहित्य में से ही मिलते हैं. कबीर के साहित्य को पढ़ने से उस समय की सामाजिक स्थितियां का ज्ञान हो जाता है. इसी प्रकार हम भारतेंदु हरिश्चंद्र को पढ़ते हैं. तो उस समय का राजनीतिक, सामाजिक और शासन व्यवस्था की अराजकता का पता चल जाता है. 20 वीं सदी का प्रारंभिक काल अंग्रेजी शासन का अराजकता का काल था. पर इसके साथ अंग्रेजी शासन को उखाड़ने के लिए  स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत भी हो गई थी. भारत में ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक बनावट, आर्थिक संरचना, सामंती और जमींदारों के अत्याचारों आदि को नजदीक से परखना है. तो आपको उस समय के समकालीन साहित्य से गुजरना ही होगा. तब उस समय के निर्विवाद  प्रमुख साहित्यकार हैं कहानीकार उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद..जिनकी रचनाओं में गांव के उबड़खाबड़ रास्ते, संकुचित विचारों, रीति रिवाजों, जातिवाद आदि की गलियां सहजता से मिल जाएंगी. मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों, उपन्यासों आदि में अपने समय की गरीबी, भुखमरी अंधविश्वास, छुआछूत, पाखंड,जमींदारी प्रथा, महाजनी कुचक्र पाठक के सामने निश्चलता,निडरता से सामने उभारा हैं. पर हां इसके साथ ही समाज में और व्यक्ति में नैतिक मूल्यों में ईमानदारी, ग्रामीणों का भोलापन, आदि आपको सहजता से मिल जाएगा. बानगी की तौर पर उनकी कुछ रचनाओं पर बात की जा सकती है.

मुंशी प्रेमचंद की अपने समय की प्रतिनिधि और चर्चित कहानी “ठाकुर का कुआं” है, जिसमें उस समय का परिदृश्य एक आईने के समान नजर आता है. उस समय की गरीबी और छुआछूत का भयावह दृश्य हमें सोचने को मजबूर कर देता है. उस समय गांव में ठाकुर ब्राह्मण, दलित के कुएँ अलग अलग होते थे. दलित अपने कुएं के अलावा किसी अन्य कुएं से पानी नहीं भर सकते था. अन्य कुएँ  से पानी भरने पर दलित की सजा तय थी और सजा को सोचने से शरीर के रुएँ खड़े हो जाते हैं. दलित के कुएं में जानवर मर गया है. पानी में बदबू आ रही है. गंगी का बीमार पति जब पानी पीता है. बदबू से उसका स्वाद कसैला हो जाता है.पति को प्यास लगी है. गंगी आश्वस्त करती है कि रात के अंधेरे में वह उसके लिए ठाकुर के कुएंँ से पानी ले आएगी. ऊंची जाति का आतंक इतना भयभीत करने वाला होता था कि वह कोशिश करने के बावजूद पानी लेकर नहीं आ सकी और उसे अपनी बाल्टी और रस्सी को कुएंँ में छोड़कर भागना पड़ा. अन्यथा  शायद उसकी जान को को भी खतरा हो सकता था.और गंगी का पति राजकुमार प्यास से बेहाल हो कर बदबूदार पानी पीने को विवश था. इस रचना में उस समय की जातिगत व्यवस्था अत्यंत खतरनाक बिंदु पर थी. इस रचना में छुआछूत और गरीबी का भयावह जो दृश्य हमें दिखाई देता है उसकी आज के समय में हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.  पर आज समाज में जातिगत, छुआछूत वर्ण व्यवस्था  की बुराईयों /विडम्बना में काफी कुछ बदलाव देखने में आया है.

आज हमें ऐसे दृश्य कम देखने मिलते हैं. फिर भी आंचलिक गांव के लोगों की मानसिकता जस का तस दिख जाती है. आज भी ऊंची जाति वर्ग के लोगों का अत्याचार दलित वर्ग पर यदा-कदा सुनाई पड़ जाता है. इसी तरह एक और कहानी का उल्लेख करना जरूरी है “बेटी का धन” यह ऐसी रचना है जिसमें छल, प्रपंच, स्वाभिमान, और उच्चतर मूल्य  समाहित  है. प्रेमचंद ने अपने साहित्य में समय के साथ जिया है. बीसवीं सदी के प्रारंभिक चालीस साल के तत्कालीन साहित्य में भारत के जनजीवन में  सामाजिक वर्ण संरचना, जातिगत व्यवस्था सामंती और जमींदारी प्रथा, छुआछूत, गरीबी भुखमरी के साथ साथ भारतीय संस्कृति जीवन मूल्यों का दर्शन भी दिखाई पड़ते हैं.वह मानवीय मूल्यों और संवेदनाओ का संवेदनहीन समय था. पढ़कर और सुनकर हम चकित रह जाते हैं.  ग्रामीण  परिवेश की तुलना आज के समय से करेंगे तो हमारी आंखें खुली हो जाती है आज का समय इतना बदल गया है कि पुराने समय से उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती है. प्रेमचंद का साहित्य समय के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की चिंताओं से रूबरू  कराने वाला है. उनकी अनेक कहानियां ‘पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा, बड़े भाई साहब, पूस की रात, कफन, बेटी का धन, शराब की दुकान, ईदगाह, बूढ़ी काकी, तावान, दो बैलों की जोड़ी,आदि रचनाएं अपने समय का प्रतीक प्रतिनिधित्व करती हैं.

इन रचनाओं के माध्यम से उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों, गतिविधियों को बहुत आसानी से समझ सकते हैं. अगर हम राजनीति की बात करें, तो उस समय कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता का आंदोलन तो कर रही थी. उसी समय काँग्रेस भारत के दबे कुचले लोगों का जीवन सुधारने हेतू समाज में व्याप्त अंधविश्वास, भुखमरी, छुआछूत, जातिगत वर्ग भेद की विसंगतियों और सामंती, जमीदारी अत्याचारों के कुचक्र को तोड़ने के लिए भी प्रतिबद्धता के साथ निचले स्तर पर काम कर रही थी. उस समय की कांग्रेस और आज की कांग्रेस में जमीन आसमान का अंतर पाते हैं. साहित्य में समय के  अंतर्संबंध में किसी राजनीतिक दल इस तरह जान रहे हैं. यह साहित्य के समय के संबंध से ही संभव है. मुंशी प्रेमचंद का साहित्य समय के साथ सदियों से चले आ रही  सामाजिक कुरीतियाँ,अंधविश्वास को व्यक्त करने वाला है. जो उस समय की मार्मिक कुरीतियाँ पर सोचने को मजबूर करता है. इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है और इसके निवारण के लिए राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक उपक्रम क्या हो सकते थे या अब हो रहे हैं यह प्रश्न अभी भी जिंदा है. उस समय की भारतीय राजनीतिक संस्थाएं अपने ढंग से जूझ रही थी. तभी तो आज सामाजिक स्तर पर इतना बड़ा बदलाव देख रहे हैं. शायद इसके मूल के पार्श्व में मुख्य कारण लेखक और साहित्यकार  का अपने समय से जुड़ना है. यह जुड़ाव ही मानवीय संवेदना के साथ मनुष्य को बेहतर बनाने के लिए तत्पर है.

क्रमशः….. ( शेष अगले अंको में.)

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 5 – “हालात” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।  आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हालात”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 5 – “हालात” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

सर-ए-आईना सच्ची बात रखना,

मुवक्किल हो सही हालात रखना।

 

माना बहुत रोशन दिमाग़ हो तुम,

जिरह के वास्ते वकील साथ रखना। 

 

आँसुओं पर क्यों हो पाबंदियाँ,

दिल हल्का करने बरसात रखना।

 

बड़ा ख़ुराफ़ाती बच्चा होता दिल,

उसकी शरारतों की ख़ैरात रखना।

 

खुलकर बाँटो ख़ुशियाँ जमाने को,

ख़ुशनुमा लम्हों की सौगात रखना।

 

बुज़ुर्गों की बातें नश्तर सी चुभतीं हैं,

तुम धीरे से अपनी  बात रखना।

 

दिल्लगी ज़िंदगी आसान करती है,

मुस्कान होंठों पर बेबात रखना।

 

भले ही चाँद छुप रहा हो बादल में,

“आतिश” तुम उजले जज़्बात रखना।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 56 ☆ गजल – विसंगतियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 56 ☆ गजल – विसंगतियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

हैं उपदेश कुछ किन्तु आचार कुछ है।

हैं आदर्श कुछ किन्तु व्यवहार कुछ है।

 

सड़क उखड़ी-उखड़ी है चलना कठिन है

जरूरत है कुछ किन्तु उपचार कुछ है।।

 

नये-नये महोत्सव लगे आज होने

बताने को कुछ पर सरोकार कुछ है।।

 

हरेक योजना की कहानी अजब है

कि नक्शे हैं कुछ किन्तु आकार कुछ है।।

 

समस्याओं के हल निकल कम ही पाते

हैं इच्छायें कुछ किन्तु आसार कुछ है।।

 

है घर एक ही, बाँट गये पर निवासी

जो आजाद कुछ है गिरफ्तार कुछ है।।

 

सदाचार, संस्कार, बीमार दिखते

है उद्येश्य  कुछ जब कि आधार कुछ है।।

 

यहाँ  आदमी द्वंद्व में जी रहा है

हैं कर्तव्य कुछ किन्तु व्यापार कुछ है।।

 

जमाने को जाने कि क्या हो गया है

नियम-कायदे कुछ है, व्यवहार कुछ है।।

 

अब अखबार इस बात के साक्षी है

कि घटनायें कुछ हैं, समाचार कुछ है।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #68 – कर्म फल ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #68 – कर्म फल ☆ श्री आशीष कुमार

पुराने समय में एक राजा था। वह अक्सर अपने दरबारियों और मंत्रियों की परीक्षा लेता रहता था। एक दिन राजा ने अपने तीन मंत्रियों को दरबार में बुलाया और तीनो को आदेश दिया कि एक एक थैला लेकर बगीचे में जायें और वहाँ से अच्छे अच्छे फल तोड़ कर लायें। तीनो मंत्री एक एक थैला लेकर अलग अलग बाग़ में गए। बाग़ में जाकर एक मंत्री ने सोचा कि राजा के लिए अच्छे अच्छे फल तोड़ कर ले जाता हूँ ताकि राजा को पसंद आये। उसने चुन चुन कर अच्छे अच्छे फलों को अपने थैले में भर लिया। दूसरे मंत्री ने सोचा “कि राजा को कौनसा फल खाने है?” वो तो फलों को देखेगा भी नहीं। ऐसा सोचकर उसने अच्छे बुरे जो भी फल थे, जल्दी जल्दी इकठ्ठा करके अपना थैला भर लिया। तीसरे मंत्री ने सोचा कि समय क्यों बर्बाद किया जाये, राजा तो मेरा भरा हुआ थैला ही देखेगे। ऐसा सोचकर उसने घास फूस से अपने थैले को भर लिया। अपना अपना थैला लेकर तीनो मंत्री राजा के पास लौटे। राजा ने बिना देखे ही अपने सैनिकों को उन तीनो मंत्रियों को एक महीने के लिए जेल में बंद करने का आदेश दे दिया और कहा कि इन्हे खाने के लिए कुछ नहीं दिया जाये। ये अपने फल खाकर ही अपना गुजारा करेंगे।

 अब जेल में तीनो मंत्रियों के पास अपने अपने थैलो के अलावा और कुछ नहीं था। जिस मंत्री ने अच्छे अच्छे फल चुने थे, वो बड़े आराम से फल खाता रहा और उसने बड़ी आसानी से एक महीना फलों के सहारे गुजार दिया। जिस मंत्री ने अच्छे बुरे गले सड़े फल चुने थे वो कुछ दिन तो आराम से अच्छे फल खाता रहा रहा लेकिन उसके बाद सड़े गले फल खाने की वजह से वो बीमार हो गया। उसे बहुत परेशानी उठानी पड़ी और बड़ी मुश्किल से उसका एक महीना गुजरा। लेकिन जिस मंत्री ने घास फूस से अपना थैला भरा था वो कुछ दिनों में ही भूख से मर गया।

 दोस्तों ये तो एक कहानी है। लेकिन इस कहानी से हमें बहुत अच्छी सीख मिलती है कि हम जैसा करते हैं, हमें उसका वैसा ही फल मिलता है। ये भी सच है कि हमें अपने कर्मों का फल ज़रूर मिलता है। इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हमें अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। एक बहुत अच्छी कहावत हैं कि जो जैसा बोता हैं वो वैसा ही काटता है। अगर हमने बबूल का पेड़ बोया है तो हम आम नहीं खा सकते। हमें सिर्फ कांटे ही मिलेंगे।

 मतलब कि अगर हमने कोई गलत काम किया है या किसी को दुःख पहुँचाया है या किसी को धोखा दिया है या किसी के साथ बुरा किया है, तो हम कभी भी खुश नहीं रह सकते। कभी भी सुख से, चैन से नहीं रह सकते। हमेशा किसी ना किसी मुश्किल परेशानी से घिरे रहेंगे।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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