हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर” (कथा संग्रह) – लेखक : सुश्री उपासना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर” (कथा संग्रह) – लेखक : सुश्री उपासना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

समीक्ष्य पुस्तक : एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर।

कथाकार : उपासना।

प्रकाशक :लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।

पृष्ठ : 184

मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक)

☆ “जीवन और समाज के अंधेरे उजालों की कहानियां” – कमलेश भारतीय ☆

भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार व वनमाली विशिष्ट कथा सम्मान से सम्मानित युवा कथाकार उपासना का कथा संग्रह ‘एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर’ जीवन व समाज के अंधेरे वर्ष उजालों की कहानियां लिए हुए है। ‌ऐसा प्रसिद्ध कथाकार प्रियंवद का आंकलन है और उनकी नज़र में उपासना एकाग्रता, गंभीरता और निष्ठा के साथ कहानियां लिखने में विश्वास करती हैं । कथा संग्रह में आधा दर्जन कहानियां हैं और इनमें ‘कार्तिक का पहला फूल’ को छोड़कर बाकी पांच लम्बी कहानियां हैं, जिन्हें पढ़ते समय हम पुराने कस्बों और पुराने प्रेम के दिनों में सहज ही पहुंच जाते हैं । कथा संग्रह की शीर्षक कथा ‘एक ज़िंदगी.. एक स्क्रिप्ट भर’ एक ऐसी शांत, खामोश सी प्रेम कथा है पुराने समय की, जो कभी देवदास तो कभी किसी और नायक की दशा बयान करती है

‌गीता और शंकर का  किशोर प्रेम कितने शानदार ढंग से वयक्त किया है कि भुलाये नहीं भूलेगा! वह साइकिल पर बिठाना और बहुत धीमे से यह कहना कि हम तुम्हें प्यार करते हैं, सच में पुराने समय की ओर ले जाता है । फिर थोड़ा युवा होने पर अभिभावकों द्वारा घास और फूस को अलग रखने और गीता की शादी अनायक यानी अमरीश पुरी स्टाइल व्यक्ति से करने और ससुराल में सास व‌ ननद के तानों की शिकार गीता को अपना प्यार बहुत याद आता है और फिर अंत ऐसा कि गीता लौटती है अपने मायके और बस में शंकर मिल जाता है तब वह उतरते समय बहन को कहती है कि किसी से मत कहना कि शंकर हमको बस में मिला था! कितना कुछ कह जाता है यह वाक्य ! यह प्रेम स्क्रिप्ट बहुत खूबसूरत है। कथा संग्रह की सबसे छोटी कथा है ‘कार्तिक का पहला फूल’ ! ओझा जी सेवानिवृत्त हैं और फूल पौधों की निराई गुड़ाई कर अपना समय व्यतीत करते हैं। इसी में खुश रहते हैं और हर पौधे पर ध्यान देते हैं। अड़हुल पर पहला फूल आने वाला है और वे इंतज़ार में हैं लेकिन एक सुबह देखते हैं कि फूल तो तोड़ लिया गया है और पूछने पर पता चलता है कि बहू ने  एकादशी की पूजा के लिए तोड़ लिया है ! ओझा जी का मन रोने रोने को हो आता है । अड़हुल की वह सूनी डाल अब भी कार्तिक के झोंके से अब भी झूम रही थी ।

तीसरी कहानी ‘एमही सजनवा बिनु ए राम’ में सिलिंडर और रतनी दीदिया के मुख्य चरित्रों के माध्यम से ग्रामीण परिदृश्य में होने वाली छोटी से छोटी बातों को बहुत मन से लिखा गया है और कैसे दूसरों के घरों में आग लगाई जाती है, कैसे सिलिंडर द्वारा रतनी दीदिया को बर्फ खिला भर देने से बात फेल जाती है और किस प्रकार से आखिर कहानी रतनी दीदिया के जीवन के दुखांत तक ले जाने और व्यक्त करने में सफल हो जाती है, यह जादू उपासना की कलम में है ।

“नाथ बाबा की जय कहानी कैसे धीरे धीरे साम्प्रदायिक उन्माद की ओर बढ़ जाती है, यह भी बहुत ही सहजता से लिखी कहानी है और अपनी गुमटी को उन्मादियों द्वारा तोड़े जाने के बाद गुस्से में खुद ही अलगू मेहर तोड़ डालता है और उसकी पत्नी चुपचाप चूल्हे से उठता धुआं देखती रह जाती है!

‘टूटी परिधि का वृत्त’ और ‘अनभ्यास का नियम’ भी लम्बी कहानियां हैं लेकिन अपना जादू और आकर्षण बनाये रखती हैं। जो कार्य लम्बे समय तक किया या दोहराया नहीं जाता है, वह भूल जाता है। इसी को अनभ्यास का नियम कहते हैं! इस तरह नियम स्पष्ट कर कथाकार आगे बढ़ती है ।

भाषा बहुत ही मोहक है, जिसके कुछ उदाहरण ये हैं :

औरत की मांग में पीला सिंदूर था, मायका था, आदमी के मां बाप थे, गली कूचे, मोहल्ले थे, महिमामय सारा भारतवर्ष था और इस सबके बीच औरत का एकतरफा प्यार था!

…..

दुपट्टा फरफराता है… शंकर के हाथ पर…!

यह कोमल स्पर्श शंकर की उपलब्धि है। उन्होंने चा़द की ठंडाई को छू लिया है।

…..

प्रेम करने वाला कभी पछताने की स्थिति में रहता ही नहीं । प्रेम हमेशा हर हालत में पाता है । यह अलग बात है कि यह ‘पा लेना’ कभी समझ में आ जाता है और कभी नहीं आता!

…..

रतनी दीदिया सोचती थी कि हम चीज़ें नहीं यादें पहनते थे । हाथों में चूड़ियां नहीं, यादें खनकती थीं। बालों में रबर नहीं, याद बंधी थी! सीने पर दुपट्टा नहीं, याद फैली थी!

ऐसे अनके उदाहरण हैं। ‌उपासना की कहानियों में ताज़गी है, कहने में रवानगी है और पुराने दृश्यों को जीवंत कर देने की कला! संग्रह पठनीय है और सहेज कर रखने लायक ! लोकभारती प्रकाशन का साफ सुथरा प्रकाशन है यह कथा संग्रह!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #252 – 137 – “ज़िंदगी जीता चल यारों की सोहबत में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल ज़िंदगी जीता चल यारों की सोहबत में…” ।)

? ग़ज़ल # 137 – “ज़िंदगी जीता चल यारों की सोहबत में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी जीने का बस एक ही असूल है,

पर्वत  पर अकड़ कर चढ़ाई फ़ज़ूल है।

*

काटते जाओ जितना चाहो मन से तुम,

खूब  बढ़ेगा दिल मेरा कँटीला बबूल है।

*

चाहे  जितना  माल ओ असबाब जुगाड़ो,

क़ीमत इसकी वक्त ए रुखसत निर्मूल है।

*

ज़िंदगी जीता चल यारों की सोहबत में,

दोस्तों  के साथ गुज़रा वक्त हुसूल है।

*

इश्क़ करके निभाना मेरी तासीर जो ठहरी

जो सज़ा मुक़र्रर हो दिल से वह क़बूल है।

*

दारुल हर्ब कर बनाये रखिए मार काट से,

क्या चिंता जहन्नुम में बैठा तेरा रसूल है।

*

तीर  तलवार  ले आ  जा मैदान ए ज़ंग,

हाथ में आतिश के बल्लम और त्रिशूल है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 130 ☆ राजभाषा दिवस विशेष – ॥ सजल – मेरा अभिमान है हिंदी ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 130 ☆

राजभाषा दिवस विशेष – ॥ सजल – मेरा अभिमान है हिंदी ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

(सामांत – आन, पदांत – है हिंदी)

[1]

मेरी जान हिंदी, मेरा अभिमान है हिंदी।

हम सब की   इक़ पहचान है    हिंदी।।

[2]

हिंदी में ही बसते हैं प्राण  हम सबके।

हम सब का एक   ही नाम    है हिंदी।।

[3]

वेदशास्त्र पुराण संस्कारऔर संस्कृति।

एक अथाह सागर सा   ज्ञान है हिन्दी।।

[4]

सबकी बोली सबकी भाषा मन भाये।

कितना कहें कि बहुत महान है  हिंदी।।

[5]

प्रेम की भाषाऔर प्यार की बोली यह।

घृणा और नफरत सेअनजान है हिंदी।।

[6]

पुरातन काल के अविष्कारों का गौरव।

पूर्ण तकनीकी ज्ञान   विज्ञान है  हिंदी।।

[7]

संस्कृत भाषा से ही जन्मी हिंदी भाषा।

ऋषि मुनियों का गहन विधान है हिंदी।।

[8]

वसुधैव कुटुम्बकम का भाव    निहित।

जानो कि ऐसा एक   परिधान है हिंदी।।

[9]

विश्व एकता शांति की   अग्रदूत भाषा।

अमन चैन संदेश का अभियान है हिंदी।।

[10]

हर धर्म जाति भाषा  को जोड़ने वाली।

यूँ समझो हंस पूरा  हिंदुस्तान है हिंदी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 194 ☆ श्री गणेश वंदना ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “श्री गणेश वंदना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 194 ☆ श्री गणेश वंदना ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

☆ 1 ☆

सिध्दिदायक  गजवदन

जय गणेश गणाधिपति प्रभु 

सिध्दिदायक  गजवदन

विघ्ननाशक कष्टहारी हे परम आनन्दधन

दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है

धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है

हर हृदय में वेदना आतंक का अंधियार है

उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है

दीजिये सद्बुध्दि का वरदान हे करूणा अयन

जय गणेश गणाधिपति प्रभु 

सिध्दिदायक  गजवदन

☆ 2 ☆ 

☆  गणेश वंदना

आदि वन्द्य मनोज्ञ गणपति

सिद्धिप्रद गिरिजा सुवन

पाद पंकज वंदना में नाथ

तव शत-शत नमन

व्यक्ति का हो शुद्ध मन

सदभाव नेह विकास हो

लक्ष्य निश्चित पंथ निश्कंटक आत्मप्रकाश हो

हर हृदय आनंद में हो

हर सदन में शांति हो

राष्ट्र को समृद्धि दो हर विश्वव्यापी भ्रांति को

सब जगह बंधुत्व विकसे

आपसी सम्मान हो

सिद्ध की अवधारणा हो

विश्व का कल्याण हो

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #249 ☆ प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 249 ☆

☆ प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड ☆

‘प्रतिभा प्रभु-प्रदत्त व जन्मजात मनोवृत्ति होती है। ख्याति समाज से मिलती है, आभारी रहें, लेकिन मनोवृत्ति व घमंड स्वयं से मिलता हैं, सावधान रहें’ में सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय  संदेश निहित है। प्रभु सृष्टि-नियंता है, सृष्टि का जनक, पालक व संहारक है। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह ईश्वर द्वारा मिलता है और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पतियाँ आदि सब सर्व-सुलभ हैं। इनके लिए हमें कोई मूल्य चुकाना नहीं पड़ता। इसी प्रकार प्रतिभा भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानव में संचरित होती है। सो! हमें उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहना चाहिए।

ख्याति मानव को समाज द्वारा प्राप्त होती है। चंद लोगों को यह उनके श्रेष्ठ व शुभ कार्यों के एवज़ में प्राप्त होती है, जिन्हें युग-युगांतर तक तक स्मरण रखा जाता है। परंतु आजकल विपरीत चलन प्रचलित है। आप पैसा खर्च करके दुनिया की हर वस्तु प्राप्त कर सकते हैं, ऊंचे से ऊंचे मुक़ाम पर पहुंच सकते हैं। इसके लिए न आप में देवीय गुणों की आवश्यकता है, ना परिश्रम की दरक़ार है। आप पैसे के बल पर शौहरत पा सकते हैं, ऊँचे से ऊँचे पद पर आसीन हो सकते हैं तथा सारी दुनिया पर राज्य कर सकते हैं।

पैसा अहं पूर्ति का सर्वोत्तम साधन है। यदि आपको अपने गुणों के कारण समाज में ख्याति प्राप्त हुई है, तो आपको उनका आभारी रहना चाहिए। परंतु आजकल लोग रातों-रात स्टार बनना चाहते हैं; प्रसिद्धि प्राप्त कर दूसरों को नीचा दिखा संतोष पाना चाहते हैं। वास्तव में इसमें स्थायित्व नहीं होता। यह पलक झपकते समाप्त हो जाती है और मानव अर्श से फर्श पर आन गिरता है। एक अंतराल के पश्चात् जब लोग उसके निहित स्वार्थ व माध्यमों से अवगत होते हैं तो वे स्वत: अपनी नज़रों से गिर जाते हैं और लोगों की घृणा का पात्र बनते हैं। वैसे भी जो वस्तु हमें बिना परिश्रम के सुलभ हो जाती है, उसका मूल्य नहीं होता और हम उसके महत्व को नहीं स्वीकारते। सो! जीवन में जो कुछ हमें अथक परिश्रम से प्राप्त होता है, वह अक्षुण्ण होता है और हमें उसके एवज़ में समाज में अहम् स्थान प्राप्त होता है। वैसे भी समय से पहले व भाग्य से अधिक हमें कुछ भी उपलब्ध नहीं होता व समय से पूर्व अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। माली सींचत सौ घड़ा, ऋतु आय फल होय अर्थात् अधिक सिंचन करने से भी हमें यथासमय फल की प्राप्ति होती है।

सो! निष्काम कर्म करते रहिए, क्योंकि फल की इच्छा करना कारग़र नहीं  होता।आत्म-संतोष सर्वश्रेष्ठ है और जिस व्यक्ति के पास यह अमूल्य संपदा है, वह कभी दुष्कर्म अर्थात् कुकृत्य की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकता। वह सत्य की राह पर चलता रहता है। सत्य का प्रभाव लंबे समय तक जलता रहता है, भले ही परिणाम देरी से प्राप्त हो। यह शुभ व कल्याणकारी होता है। जो सत्य व शिव है, दिव्य सौंदर्य से आप्लावित होता है और सुंदर होता है। उसमें केवल भौतिक व क्षणिक सौंदर्य नहीं होता, अलौकिक सौंदर्य से भरपूर होता है। वह केवल हमारे नेत्रों को ही नहीं, मन व आत्मा को भी परितृप्त करता है। इसलिए हमें सदैव ईश्वर के सम्मुख नतमस्तक रहना चाहिए, सर्वगुण-संपन्न है और किसी भी पल कोई भी करिश्मा दिखा सकता है। वैसे इंसान को ख्याति प्रभु कृपा से प्राप्त होती है, परंतु इसमें समाज का योगदान भी होता है। सो! हमें उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।

जहाँ तक मनोवृति व घमंड का संबंध है, उसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी होते हैं। हमारी सोच हमारे भविष्य को निर्धारित करती है, क्योंकि हम अपनी सोच के अनुकूल कार्य करते हैं, लोगों के बारे में निर्णय लेते हैं, जो राग-द्वेष के अनुकूल कार्य करते हैं; लोगों के बारे मेएं निर्णय लेते हैं, जो सदैव स्व-पर की निकृष्ट भावनाओं में लिप्त रहते हैं। संसार में हर चीज़ की अति बुरी होती है। आवश्यकता से अधिक प्रेम व ईर्ष्या-द्वेष भी  हमें पतन की ओर ले जाते हैं और अधिक धन व  प्रतिष्ठा हमें पथ-विचलित कर देते हैं। अहं हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। इसका त्याग करने पर ही हम सामान्य जीवन जी सकते हैं। इसके लिए सकारात्मक अपेक्षित है। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’  अर्थात् सौंदर्य देखने वाले की नज़रों में होता है। वह व्यक्ति या वस्तु में नहीं होता। अहं हमारे मन के उपज है। इससे हमारे अंतर्मन में दूसरों के प्रति उपेक्षा व घृणा भाव उपजता है तथा यह हमें निपट अकेला कर देता है। इस स्थिति में कोई भी हमारे साथ रहना पसंद नहीं करता। पहले हम अहंनिष्ठ दूसरों के प्रति उपेक्षा भाव दर्शाते हैं; एक अंतराल के पश्चात् उनके पास हमारे लिए समय नहीं होता, जो हमें आजीवन एकांत की त्रासदी झेलने को विवश कर देता है।

आधुनिक युग में एकल परिवार व्यवस्था में पति-पत्नी में अति-व्यस्तता के कारण उपजता अजनबीपन का एहसास बच्चों को माता-पिता के प्यार प्यार-दुलार से महरूम कर देता है। वे नैनी के आश्रय में पलते-बढ़ते हैं और युवावस्था में उनके कदम ग़लत राहों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। वे अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाते हैं तथा संबंध-सरोकारों की परिभाषा से अनजान रहते हैं। इन विषम स्थितियों में माता-पिता के पास प्रायश्चित् के अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं होता। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि जो प्रभुकृपा से प्राप्त है, सत्यम् शिवम् सुंदरम् से आप्लावित है, मंगलकारी होता है, अनुकरणीय होता है और जो हमारे बपौती नहीं होता है। वह हमें उस दोराहे व अंधी गली पर लाकर खड़ा कर देता है, जहां से लौटने का कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता। सो! परमात्मा की स्जित प्रकृति में आक्षेप व व्यवधान उत्पन्न करना सदैव विनाशकारी होता है, जो हमारे समक्ष है। जंगलों को काटकर कंक्रीट के भवन बनाना, कुएँ, बावरियों, तालाबों व नदियों को प्लास्टिक आदि से प्रदूषण करना, मानव को स्वयं को सुप्रीम सत्ता समझ दूसरों के अधिकारों का हनन करना तथा आधिपत्य जमाना– उनका परिणाम हर दिन आने वाले तूफ़ान, सुनामी की दुर्घटनाएं ग्लोबल वार्मिंग आदि के रूप में हमारे समक्ष हैं, जिसका समाधान प्रकृति की ओर लौट जाने में निहित है। आत्मावलोकन करना, सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना, सबको समान दृष्टि से देखना, हम को विलीन करने आदि से हम समाज व विश्व में समन्वय व संमजस्यता ला सकते हैं। अंत में सिसरो के इस कथन द्वारा ‘मानव की भलाई के सिवाय और किसी अन्य कर्म द्वारा मनुष्य ईश्वर के इतने निकट नहीं पहुँच सकते ।’परहित सरिस धर्म नहीं कोई’ को हमें जीवन के मूलमंत्र के रूप में अपनाना चाहिए।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद – सम्पादक- डॉ. केशव फालके ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 13 ?

?राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद – सम्पादक- डॉ. केशव फालके ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद

विधा- लेख संग्रह

सम्पादक- डॉ. केशव फालके

? प्रसंगवश  श्री संजय भारद्वाज ?

ऑफलाइन से ऑनलाइन तक नित तकनीक की क्राँति उगलती इक्कीसवीं सदी में किसी पुस्तक का प्रकाशन मशीनी दृष्टि से सामान्य प्रक्रिया है। पुस्तकों के इस ढेर में किसी महत्वपूर्ण विषय पर भिन्न-भिन्न विचारधारा के विद्वानों के विचारों का तटस्थ सम्पादक द्वारा किया गया संग्रह हाथ लगना पुस्तक को ‘ग्रंथ’ तथा प्रकाशन को ‘प्रसंग’ बनाता है। यही कारण है कि पुस्तकों की भूमिका / समीक्षा ‘रूटीन-वश’ लिखती कलम महत्वपूर्ण ग्रंथ पर ‘प्रसंगवश’ लिखती है।

‘राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद’ सतही तौर तैयार किया गया ‘एक और ग्रंथ’ मात्र नहीं है। ध्यान आकृष्ट करने की ग्रंथिवश सम्पादित किया गया ग्रंथ भी नहीं है। वस्तुतः यह राष्ट्र-राज्य के तंत्रिका तंतुओं और मज्जा- रज्जु को स्पंदित तथा संतुलित करने वाला ईमानदार प्रयास है। इसे अनेक विशेषताओं और छटाओं से सम्पन्न ग्रंथ कहा जा सकता है।

रसायनविज्ञान में एक शब्द है- ‘कैटेलिस्ट।’ हिंदी में हम इसे उत्प्रेरक कहते हैं। किसी भी रासायनिक प्रक्रिया में भाग न लेते हुए प्रक्रिया को तीव्र या मंद कर उससे वांछित परिणाम प्राप्त करने की भूमिका कैटेलिस्ट की होती है। इस ग्रंथ के सम्पादक डॉ. केशव फालके ने इसी भूमिका का वहन करते हुए ग्रंथ के लिए प्राप्त लेखों में कहीं कोई वैचारिक हस्तक्षेप नहीं किया। यह बहुत महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि ग्रंथ में आपको समान सोच वाले विचार पढ़ने मिलेंगे तो घोर विपरीत ध्रुवों की तार्किकता /अतार्किकता, मंथन के दर्शन भी होंगे। विश्वास किया जाना चाहिए कि यह ग्रंथ न केवल पाठकों को समृद्ध करेगा, अपितु विपरीत धुरी के विद्वानों को भी एक-दूसरे के विचार समझने में सहायता करेगा।

‘राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद’ इस विषय के बहुआयामी स्वरूप पर सम्पादक ने गम्भीर चिंतन किया है। प्रातः उठने से रात सोने तक जीवन के जितने पहलू हो सकते हैं, सृष्टि पर आगमन से लेकर सृष्टि से गमन तक जितने आयाम हो सकते हैं, भारत के संदर्भ में एकता के जितने सरोकार हो सकते हैं, अपनी सीमा में अधिकांश तक प्रत्यक्ष या परोक्ष पहुँचने का प्रयत्न लेखक ने किया है। संविधान, नागरिक, स्त्री, लोक, धर्म, संस्कृति, संत-दर्शन, त्योहार, युवा, शिक्षक, सृजेता, कलाकार, ललित कला, संगीत, भक्ति संगीत, संगीत नाटक अकादेमी, साहित्य अकादेमी, सिनेमा, भारतीय नृत्य, अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वद्यालय, शांतिनिकेतन, संग्रहालय, खेल, सेना, विज्ञान, राजनीति, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रसारण-प्रचारण जैसे विभिन्न संदर्भों और परिप्रेक्ष्यों में भारत की राष्ट्रीय एकता पर विचार किया गया है। एक धारणा है कि ‘फूट डालो और राज करो’ राजनीति की बुनियाद होती है। राष्ट्रीय एकता में राजनीति की सकारात्मक भूमिका का विवेचन भी तत्सम्बंधी लेख द्वारा यह ग्रंथ करता है। दिल्ली को शासन का केंद्र मानकर इर्द-गिर्द के कुछ प्रदेशों को ही देश का प्राण समझ लेने की एक भ्रांत धारणा मुगलों-अँग्रेजों से लेकर स्वाधीन भारत के सत्ताधारियों में दीखती रही है। इसे उनकी क्षमता और दृष्टि का परावर्तन भी कह सकते हैं। राष्ट्रीय एकता में सुदूर पूर्वोत्तर भारत और द्रविड़ दक्षिण के योगदान की चर्चा इस ग्रंथ की परिधि को विस्तृत करती है।

अँग्रेजी में कहावत है- ‘कैच देम यंग।’ राष्ट्रीय एकता के बीज देश के युवा नागरिकों में रोपित करने में ‘राष्ट्रीय सेवा योजना’ की भूमिका उल्लेखनीय है। सम्पादक अपने सेवाकाल में एन.एस.एस. के राज्य सम्पर्क अधिकारी और विशेष कार्य-अधिकारी रहे। स्वाभाविक है कि उन्होंने योजना के प्रभाव और परिणाम निकट से देखे, जाने हैं। राष्ट्रीय सेवा योजना पर ग्रंथ में समाविष्ट लेख, विषय के एक महत्वपूर्ण आयाम पर प्रकाश डालता है।

सम्पादक ने यह ग्रंथ राष्ट्रीय एकता के अनन्य पैरोकार महात्मा गांधी को समर्पित किया है। गांधीजी के राजनीतिक निर्णयों या व्यक्तिगत जीवन के पक्षों से सहमति या असहमति रखनेवाले भी उनके सामाजिक और मानवीय सरोकारों में आस्था रखते हैं। यही कारण है कि गांधी दर्शन ने व्यापक स्वीकृति पाई और अनुकरणीय बन सका। एकता को साधने की साधना में जीवन होम करनेवाले महात्मा को यह ग्रंथ समर्पित करना इसके उद्देश्य और ध्येय को सम्मान प्रदान करता है।

व्यापक विषय पर व्यापक दृष्टि और व्यापक स्तर पर काम करते समय सामना भी व्यापक समस्याओं से करना होता है। सम्पादक ने इस ग्रंथ को लगभग चार वर्ष दिए हैं। विषय के विविध आयामों को न्याय देने के लिए लेख मंगवाए गए है, केवल इतना भर नहीं है। अधिकांश लेख सम्बंधित विषय के ज्ञाता/ विद्वान/शोधार्थी/अभ्यासक ने लिखे हैं। यह बहुत अच्छी बात है। किंतु विषय का विजिगीषु कलम का भी धनी हो, यह आवश्यक नहीं। फलतः पाठकों को कतिपय लेख किसी शोध प्रबंध का भाग लग सकते हैं, कुछ सरकारी नीतिगत वक्तव्य-से तो कुछ सम्पादक का आग्रह न ठुकरा पाने की विवशता में लिखे गए। तब भी इनमें से प्रत्येक में जानकारी और ग्राह्य तत्व तो हैं ही।

अलबत्ता ग्रंथ की जान हैं वे लेख जो विषय को जीनेवालों द्वारा लिखे गए हैं। डूबकर लिखे गए ये लेख ऐसे हैं कि उनसे उबरने का मन न हो- गहरे और गहरे जाने की इच्छा करे। प्रस्तुत ग्रंथ का ऐसे लेखों के रिक्थ से सम्पन्न होना इसकी समृद्धि में चार चाँद लगाता है।

सम्पादक ‘बन-जारा’ लोक साहित्य के मर्मज्ञ हैं। बंजारा का अपना स्थायी ठौर नहीं होता। वन-प्रांतर का भटकाव उसकी अनुभव पूँजी को समृद्ध करता है। स्थितप्रज्ञ ऐसा कि मोह से मुक्त अपनी यात्रा जारी राखता है। दातृत्व ऐसा कि एक क्षेत्र का अनुभव दूसरे और तीसरे चौथे तक पहुँचाता है। जन-संचेतना, लोक ज्ञान, उपचार, लोक औषधियों का संवाहक होता है वह। ‘बन-जारा’ से बढ़कर राष्ट्रीय एकता का मूर्तिमान प्रतीक दूसरा भला कौन होगा ?

सहज था कि सम्पादक के भीतर बसा यह ‘बन-जारा’ उनसे राष्ट्रीय एकता के सरोकारों पर विविध विचारों को संकलित करवाता। उनका पिछला ग्रंथ भी इसी विषय के एक आयाम ‘राष्ट्रीय एकता की कड़ी: हिंदी भाषा और साहित्य’ पर प्रकाशित हुआ है। जब आग लगी हो तो आग के विरोध में मोर्चे निकालना, नारेबाजी करना, धरना-प्रदर्शन में सम्मिलित होना, हाथ में हाथ धरकर मानव शृंखला बनाने के मुकाबले बेहतर है दौड़कर एक घड़ा पानी लाना और आग पर डालना। डॉ केशव फालके यही कर रहे हैं।

विध्वंस की लंका के विनाश के लिए सद्भाव के सेतु के रूप में ‘राष्ट्रीय एकता के भारतीय सरोकार : एक राष्ट्रीय सनद’ की भूमिका महनीय सिद्ध होगी, इसका विश्वास है।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #249 ☆ भावना के दोहे – अम्मा ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – अम्मा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 249 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – अम्मा  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

अम्मा जाती खेत में, करने को वो काम।

दिन भर काटे धान वो, करे नहीं आराम।।

*

नंगे पाँव वो चलती, है मटकी का भार।

पगडंडी का रास्ता, सहे धूप की मार।।

*

अंबवा की डाली हिले, बैठे इसकी छाँव।

मस्त -मस्त बयार चले, है प्यारा ये  गाँव।।

*

हरियाली को देखकर, मन में बसता चित्र।

सखियां आती याद हैं, बिछड़े सारे मित्र।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #21 – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ

? रचना संसार # 21 – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

तीरगी में प्यार का ऐसा दिया रौशन करें

हो उजाला जिसका हर सू वो वफ़ा रौशन करें

 *

लुत्फ़ आता ही कहाँ है ज़िन्दगी में आजकल

मौत आ जाए तो फिर जन्नत को जा रौशन करें

 *

मतलबी है ये जहाँ क़ीमत वफ़ा की कुछ नहीं

हुस्न से कह दो न हरगिज़ अब अदा रौशन करें

 *

आलम -ए- वहशत में हूँ और होश मुझको है नहीं

वो तो ज़ीनत हैं कहो वो मयकदा रौशन करे

 *

इंतिहा- ए- तिश्नगी कोई मिटा सकता नहीं

कह दो बीमार-ए-मुहब्बत की दवा रौशन करें

 *

किस क़दर है आज कल खुद पर गुमां इन्सान को।

मीर कह दूँ मैं उन्हें गर वो फ़ज़ा रौशन करें

 *

रोज़ ही किरदार पे उठती रही हैं उँगलियॉं

कोई  उल्फ़त का नया अब सिलसिला रौशन करें

 *

हो गया मीना मुकम्मल ज़िन्दगी का ये सफ़र

टूटती साँसे कहें चल मक़बरा रौशन करें

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #231 ☆ कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति… आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 230 ☆

☆ कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राजनीति की कैद में, आये सब अखबार

सबका अपना नजरिया, सबका कारोबार

*

ख़बरें अब अपराध की, घेर रहीं अखबार

राजनीतिक उठापटक, छपे रोज भरमार

*

मीडिया चेनल बढ़ रहे, खबरें होतीं कैद

जहां लाभ मिलता वहां, होता वह मुस्तैद

*

कला, धर्म अरु संस्कृति, छपने को बैचेन

इन पर चलती कतरनी, लगे कभी भी बैन 

*

छपने का जिनको लगा, छपकू रोग महान

उनसे होती आमदनी, मिले बहुत सा दान

*

पहले सा मिलता नहीं, पढ़ने में संतोष

खबरों की इस होड़ में, दें किसको हम दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १३ — क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग — (श्लोक २१ ते ३४) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १३ — क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग — (श्लोक २१ ते ३४) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान् गुणान् ।

कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २१ ॥

*

अधिष्ठित होऊन प्रकृतीत पुरुष गुणा भोगितो

गुणसंयोग अनुसार योनीत भिन्न जन्म घेतो ॥२१॥ 

*

उपद्रष्टाऽनुमंता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ २२ ॥

*

पुरुष भिन्न प्रकृती भिन्न पुरुष श्रेष्ठ परमात्मा

देहरूपी क्षेत्रात बद्ध प्रकृती कार्य साक्षात्मा

क्षेत्राचे करुनीया पोषण सुखदुःखा भोगितो

प्रकृतीच्या या क्रीडेचा सूत्रधार तो असतो ॥२२॥

*

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २३ ॥

*

पुरुष निर्गुण सगुण प्रकृती जया जाहले ज्ञान

कर्म करी वर्तमानात तया पुनरपि ना जन्म ॥२३॥

*

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।

अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ २४ ॥

*

ध्यानाद्वारे योगी पाहत हृदयांतरी आत्मा

ज्ञानयोगे वा कर्मयोगेही प्राप्त होत आत्मा ॥२४॥

*

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते ।

तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ २५ ॥

*

नसेल ज्यांच्या ठायी याचे कसलेही ज्ञान

तरती मृत्यू उपासनेने श्रवण करोनी ज्ञान ॥२५॥

*

यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥ २६ ॥

*

स्थावर-जंगम वा काही निर्मिती जगात

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ संयोगाने जाणुनी घे भारत ॥२६॥

*

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्र्वरम् ।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २७ ॥

*

अंतरी सर्व भूतांच्या वास समान परमेश

नाश जाहला भूतांचा तरी तयाचा न नाश

या तत्वाला जो जाणी तोचि खरा ज्ञानी

प्रज्ञा त्याची जागृत झाली तोची ब्रह्मज्ञानी ॥ २७॥

*

समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २८ ॥

*

समप्रज्ञेने जाणतो सर्वत्र ईश्वर समान व्यापितो

आत्मघात ना होतो त्यासी श्रेष्ठ गतीला तो पावतो ॥२८॥

*

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ २९ ॥

*

प्रकृती समस्त कर्मांची कर्ता आत्मा हा अकर्ता

ऐसे ज्ञान जया जाहले तत्वज्ञानाचा तो ज्ञाता ॥२९॥

*

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ ३० ॥

*

भिन्न भूतांची रूपे एक तयांचा आत्मा

ज्ञानाने ऐश्या होई प्राप्त तयासी ब्रह्मात्मा ॥३०॥

*

अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्माऽयमव्ययः ।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३१ ॥

*

आदि न अंत निर्गुण तथा निर्विकारी हा परमात्म

देहस्थ जरी तो कौन्तेया अकर्मी गुणांपासुनी अलिप्त ॥३१॥

*

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३२ ॥

*

सूक्ष्मत्वाने चराचरात जरी आकाश कुठे ना लिप्त

तद्वत् समस्त देह व्यापूनी आत्मा गुणासि ना लिप्त ॥३२॥

*

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । 

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशति भारत ॥ ३३ ॥

*

रवि एक प्रकाशितो विशाल समस्त या जगताला

एक क्षेत्रज्ञ प्रकाशितो अगणित साऱ्या क्षेत्राला ॥३३॥

*

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।

भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४ ॥

*

ज्ञानचक्षुने अवलोकिले क्षेत्र-क्षेत्रज्ञामधील भेद

भूतप्रकृती मोक्ष जाणुनी प्राप्त तयासी परमपद ॥३४॥

*

॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ‘ क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगो ‘ नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥

*

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित त्रयोदशोऽध्याय संपूर्ण ॥१३॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares