हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 78 ☆ अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 78 ☆

☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते   ☆

पुलिस की रेड पडी थी। इस बार वह पकडी गई। थाने में महिला पुलिस फटकार लगा रही थी – ‘शर्म नहीं आती तुम्हें शरीर बेचते हुए? औरत के नाम पर कलंक हो तुम।‘ सिर नीचा किए सब सुन रही थी वह। सुन – सुनकर पत्थर सी हो गई है। पहली बार नहीं पडी थी यह लताड, ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे उसकी औकात बताई है। वह जानती है कि दिन में उसकी औकात बतानेवाले रात में उसके दरवाजे पर खडे होते हैं पर —।

महिला पुलिस की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसे अपनी बात कहने का हक  है कहाँ? यह अधिकार तो समाज के तथाकथित सभ्य समाज को  ही है। उसे तो गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वह एक कोने में सिर नीचे किए चुपचाप बैठी रही। बचपन में माँ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाती थी। एक दिन जब ऋषि कहीं बाहर गए हुए थे तब इंद्र गौतम ऋषि का रूप धरकर उनकी कुटिया में पहुँच गए। अहिल्या इंद्र को अपना पति ही समझती रही। गौतम ऋषि के वापस आने पर सच्चाई पता चली। उन्होंने गुस्से में अहिल्या को शिला हो जाने का शाप दे दिया। पर अहिल्या का क्या दोष था इसमें? वह आज फिर सोच रही थी, दंड  तो इंद्र को मिलना चाहिए।

उसने जिस पति को जीवन साथी माना था, उसी ने इस दलदल में ढकेल दिया। जितना बाहर निकलने की कोशिश करती, उतना धँसती जाती। अब  जीवन भर इस शाप को ढोने को मजबूर है। सुना है अहिल्या को राम के चरणों के स्पर्श से मुक्ति मिल गई थी। हमें मुक्ति क्यों नहीं मिलती? उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा। इंद्र तो बहुत मिल जाते हैं जीती- जागती स्त्री को बुत बनाने को, पर कहीं कोई राम क्यों नहीं मिलता?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 85 ☆ समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “समसामयिक दोहे”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 85 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

घर – घर पीड़ा देखकर, मन ने खोया चैन।

हर कोई भयभीत है, घड़ी- घड़ी दिन- रैन।।

 

खुद को आज संभालिए , मन से करिए बात।

दिनचर्या को साधिए , योग निभाए साथ।।

 

गरम नीर ही मित्र है, कभी न छोड़ें साथ।

नीम पात जल भाप लें, कोरोना को मात।।

 

दाल, सब्जियां भोज में , खाएँ सब भरपूर।

शक्ति बढ़े, जीवन सधे, आए मुख पर नूर।।

 

दुख – सुख आते जाएँगे, ये ही जीवन चक्र।

अच्छा सोचें हम सदा, कर लें खुद पर फक्र।।

 

याद रखें प्रभु को सदा, कर लें जप औ ध्यान।

दुख कट जाते स्वयं ही, हो जाता कल्यान।।

 

पेड़ हमारी शान हैं, पेड़ हमारी जान।

पेड़ों से ही जग बचे,बढ़ जाए मुस्कान।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 126 ☆ समझ लेते हैं गुफ्तगू,रिंग टोन से ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीयआलेख  ‘समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 126☆

?  समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से ?

व्हाट इज योर मोबाईल नम्बर?  जमाना मोबाईल का है.   खत का मजमूं जान लेते हैं लिफाफा देखकर वाले शेर का नया अपडेटेड वर्शन कुछ इस तरह हो सकता है कि ” समझ लेते हैं गुफ्तगू,  रिंग टोन से “. 

लैंड लाइन टेलीफोन, मोबाईल के ग्रांड पा टाइप के रिलेशन में “था ” हो गया है.  

वो टेलीफोन के जमाने की बात थी  जब हमारे जैसे अधिकारियो को भी, लोगो को छोटी मोटी नौकरी पर रख लेने के अधिकार थे. आज तो नौकरियां विज्ञापन, लिखित परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम, फिर फ़ाइनली कोर्ट केस के रास्ते मिला करती हैं, पर उन दिनो नौकरी के इंटरव्यू से पहले अकसर सिफारिशी टेलीफोन  कामन था. सेलेक्शन का एक क्राइटेरिया यह भी होता था कि सिफारिश किसकी है. मंत्री जी की सिफारिश और बड़े साहब की सिफारिश के साथ ही रिश्तेदारो की सिफारिश के बीच संतुलन बनाना पड़ता था.  ससुराल पक्ष की एक सिफारिश बड़ी दमदार मानी जाती थी । फोन की एक घंटी केंडीडेट का भाग्य बदलने की ताकत रखती थी.  

नेता जी से संबंध टेलीफोन की सिफारिशी घंटी बजवाने के काम आते थे. सिफारिशी खत से लिखित साक्ष्य के खतरे को देखते हुये सिफारिश करने वाला अक्सर फोन का ही सहारा लेता था. तब काल रिकार्डिंग जैसे खतरे कम थे.हमारे जैसे ईमानदार बनने वाले लोग रिंग टोन से अंदाज लगा लेते कि गुफ्तगू का प्रयोजन क्या होगा और “साहब नहा रहे हैं ” टाइप के बहाने बनाने के लिये पत्नी को फोन टिका दिया करते थे. तब नौकरियां आज की तरह कौशल पर नही डिग्रियों से मिल जाया करती थीं.   घर दफ्तर में फोन होना तब स्टेटस सिंबल था. आज भी विजिटिंग कार्ड का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मोबाईल और टेलीफोन नम्बर बने हुये हैं.  दफ्तर की टेबिल का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण  टेलीफोन होता है. और टेलीफोन का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है सिफारिश.न सही नौकरी पर किसी न किसी काम के लिये देख लेने, या फिर सीधे धमकी के रूप में देख लेने के काम टेलीफोन से बखूबी लिये जाते हैं.  टेलीफोन की घंटी से, टेबल के सामने साथ बैठा व्यक्ति गौण हो जाता है,और दूर टेलीफोन के दूसरे छोर का आदमी महत्वपूर्ण हो जाता है.

जिस तरह पानी ऊंचाई से नीचे की ओर प्रवाहित होता है उसी तरह टेलीफोन या मोबाईल में हुई वार्तालाप का सरल रैखिक सिद्धांत है कि इसमें हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण आदमी, कम महत्वपूर्ण आदमी को आदेशित करता है. उदाहरण के तौर पर मेरी पत्नी मुझे घर से आफिस के टेलीफोन पर इंस्ट्रक्शन्स देती है. मंत्री जी, बड़े साहब को और बड़े साहब अपने मातहतो को महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण कार्यो हेतु भी महत्वपूर्ण तरीके से मोबाईल पर ही आदेशित करते हैं. टेलीफोन के संदर्भ में एक व्यवस्था यह भी है कि  बड़े लोग अपना टेलीफोन स्वयं नहीं उठाते. इसके लिये उनके पास पी ए टाइप की कोई सुंदरी होती है जो बाजू के कमरे में बैठ कर उनके लिये यह महत्वपूर्ण कार्य करती है और महत्वपूर्ण काल ही उन तक फारवर्ड करती है. नेता जी के मोबाईल उनके विश्वस्त के हाथों में होते हैं, जो बड़े विशेष अंदाज में जरूरी काल्स पर ही नेता जी को मोबाईल देते हैं, वरना संदेशन खेती करनी पड़ती है. और राजगीर के लड्डुओ के संदेश जितने टोकनों से गुजरते हैं, हर टोकने में इतना तो झर ही जाते हैं कि एक नया लड्डू बन जाता है, इस तरह सभी को बिना गिनती कम हुये लड्डुओ का भोग चढ़ जाता है, लोगों के काम हो जाते हैं.

टेलीफोन एटीकेट्स के अनुसार मातहत को अफसर की बात सुनाई दे या न दे, समझ आये या न आये, किन्तु सर ! सर ! कहते हुये आदेश स्वीकार्यता का संदेश अपने बड़े साहब को देना होता है. जो बहुत ओबीडियेंट टाइप के कुछ पिलपिले से अफसर होते हैं वे बड़े साहब का टेलीफोन आने पर अपनी सीट पर खड़े होकर बात करते हैं. ऐसे लोगो को नये इलेक्ट्रानिक टेलीफोन में कालर आई डी लग जाने से लाभ हुआ है और अब उन्हें एक्सटेंपोर अफसरी फोन काल से मुक्ति मिल गई है, वे साहब की काल पहचान कर पहले ही अपनी मानसिक तैयारी कर सकते हैं.  यदि संभावित  गुफ्तगू के मकसद का अंदाज इनकमिंग काल के नम्बर से लगा लिया जाता  है,  तो यह पहचान बड़े काम की होती है. सावधानी में सुरक्षा निहित होती ही है. बड़े साहब का मोबाईल आने पर ऐसे लोग तुरंत सीट से उठकर चलायमान हो जाते हैं. यह बाडी लेंगुएज,उनकी मानसिक स्थिति की परिचायक होती है. एसएमएस से तो बचा जा सकता है कि मैसेज पढ़ा ही नही, पर मुये व्हाट्सअप ने कबाड़ा कर रखा है, इधर दो टिक नीले क्या हुये सामने वाला कम्पलाइंस की अपेक्षा करने लगता है. इससे बचाव के लिये अब व्हाट्सअप सैटिंग्स में परिवर्तन किया जाना  पसंद किया जाने लगा है.

हमारी पीढ़ी ने चाबी भरकर इंस्ट्रूमेंट चार्ज करके बात करने वाले  टेलीफोन के समय से आज के टच स्क्रीन मोबाईल तक का सफर अब तक तय कर लिया है. इस बीच डायलिंग करने वाले मेकेनिकल फोन आये जिनकी एक ही रिटी पिटी ट्रिन ट्रिन वाली घंटी होती थी. इन दिनो आधे कटे एप्पल वाले मंहगे  मोबाईल हों या एनड्राइड डिवाईस कालर ट्यून से लेकर मैसेज या व्हाट्सअप काल, यहां तक की व्यक्ति विशेष के लिये भी अलग,भांति भांति के सुरों की घंटी तय करने की सुविधा हमारे अपने हाथ होती है. समय के साथ की पैड वाले इलेक्ट्रानिक फोन  और अब हर हाथ में मोबाईल का नारा सच हो रहा है, लगभग हर व्यक्ति के पास दो मोबाइल या कमोबेश डबल सिम मोबाईल में दो सिम तो हैं ही. आगे आगे देखिये होता है क्या? क्योकि टेक्नालाजी गतिशील है. क्या पता कल को बच्चे को वैक्सिनेशन की तरह ही सिम प्रतिरोपण की प्रक्रिया से गुजरना पड़े. फिर न मोबाईल गुमने का झंझट होगा, न बंद होने का. आंखो के इशारे से गदेली में अधिरोपित इनबिल्ट मोबाईल से ही हमारा स्वास्थ्य, हमारा बैंक, हमारी लोकेशन, सब कुछ नियंत्रित किया जा सकेगा. पता नही इस तरह की प्रगतिशीलता से हम मोबाईल को नियंत्रित करेंगे या मोबाईल हमें नियंत्रित करेगा.

एक समय था जब टेलीफोन आपरेटर की शहर में बड़ी पहचान और इज्जत होती थी, क्योकि वह ट्रंक काल पर मिनटो में किसी से भी बात करवा सकता था. शहर के सारे सटोरिये रात ठीक आठ बजे क्लोज और ओपन के नम्बर जानने, मटका किंग से हुये इशारो के लिये इन्हीं आपरेटरो पर निर्भर होते थे.समय बदल गया है  आज तो पत्नी भी पसंद नही करती कि पति के लिये कोई काल उसके मोबाईल पर आ जाये. अब जिससे बात करनी हो सीधे उसके मोबाईल पर काल करने के एटीकेट्स हैं.पर मुझे स्मरण है उन टेलीफोन के पुराने दिनो में हमारे घर पर पड़ोसियो के फोन साधिकार आ जाते थे.बुलाकर उन्हें बात करवाना पड़ोसी धर्म होता था. तब निजता की आज जैसी स्थितियां नहीं थी, आज तो बच्चो और पत्नी का मोबाईल खंगालना भी आउट आफ एटीकेट्स माना जाता है. उन दिनो लाइटनिंग काल के चार्ज आठ गुने लगते थे अतः लाइटनिंग काल आते ही लोग किसी अज्ञात आशंका से सशंकित हो जाते थे. विद्युत विभाग में बिजली की हाई टेंशन लाइन पर पावर लाइन कम्युनिकेशन कैरियर की अतिरिक्त सुविधा होती है, जिस पर हाट लाइन की तरह बातें की जा सकती है,  ठीक इसी तरह रेलवे की भी फोन की अपनी समानांतर व्यवस्था है. पुराने दिनो में कभी जभी अच्छे बुरे महत्वपूर्ण समाचारो के लिये  लोग अनधिकृत रूप से  इन सरकारी महकमो की व्यवस्था का लाभ मित्र मण्डली के जरिये उठा लिया करते थे.

मोबाईल सिखाता है कि बातो के भी पैसे लगते हैं और बातो से भी पैसे बनाये जा सकते हैं. यह बात मेरी पत्नी सहित महिलाओ की समझ आ जाये तो दोपहर में क्या बना है से लेकर पति और बच्चो की लम्बी लम्बी बातें करने वाली हमारे देश की महिलायें बैठे बिठाये ही अमीर हो सकती हैं.अब मोबाईल में रिश्ते सिमट आये  हैं. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाईल  कैमरे के पिक्सेल वगैरह अब महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से हैं.अंबानीज ने बातो से रुपये बनाने का यह गुर सीख लिया है, और अब सब कुछ जियो हो रहा है. मोबाईल को इंटरनेट की शक्ति क्या मिली है, दुनियां सब की जेब में है.अब  कोई ज्ञान को दिमाग में नही बिठाना चाहता इसलिये ज्ञान गूगल जनित जानकारी मात्र बनकर जेब में रखा रह गया है. मोबाईल काल रिकॉर्ड हो कर वायरल हो जाये तो लेने के देने पड़ सकते हैं. काल टेपिंग से सरकारें हिल जाती हैं. मोबाईल पर बातें ही नही,फोटो, जूम मीट,  मेल,ट्वीट्स, फेसबुक, इंस्टा, खेल, न्यूज, न्यूड सब कुछ तो हो रहा है, ऐसे में मोबाइल विकी लीक्स, स्पाइंग का साधन बन रहा है तो आश्चर्य नही होना चाहिये. मोबाईल लोकेशन से नामी गिरामी अपराधी भी धर लिये जाते हैं.  बाजार में सुलभ कीमत के अनुरूप गुणवत्ता का मोबाईल चुनना और मोबाईल प्लान के ढ़ेरो आफर्स में से अपनी जरूरत के अनुरूप सही विकल्प चुनना आसान नही है. कही कुछ है तो कहीं कुछ और, आज मोबाइल का माडल अभिजात्य वर्ग में स्टेटस सिंबल है.   इतनी अधिक विविधताओं के बीच चयन करके हर हाथ मोबाईल के शस्त्र से सुसज्जित है यह सबके लिये गर्व का विषय है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 77 ☆ आरामगाह की खोज ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “आरामगाह की खोज”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 77 – आरामगाह की खोज 

दौड़भाग करके मनमौजी लाल ने एक कार्यक्रम तैयार किया किन्तु बात खर्चे पर अटक गयी । संयोजक, आयोजक, प्रतिभागी सभी तैयार थे, बस प्रायोजक को ढूंढना था।  क्या किया जाए अर्थव्यवस्था चीज ही ऐसी है, जिसके इर्द गिर्द पूरी दुनिया चारो धाम कर लेती है । बड़ी मशक्कत के बाद गुनीलाल जी तैयार हुए ,बस फिर क्या था उन्होंने सारी योजना अपने हाथों में ले ली अब तो सबके रोल फीके नजर आने लगे उन्हें मालुम था कि जैसा मैं चाहूँगा वैसा करना पड़ेगा ।

दूसरी तरफ लोगों ने समझाया कि कुछ लोग मिलकर इसके प्रायोजक बनें तभी कार्यक्रम का उद्देश्य पूरा हो सकेगा । सो यह निर्णय हुआ कि साझा आर्थिक अभियान ही चलायेंगे । कार्य ने गति पकड़ी ही थी कि दो दोस्तों की लड़ाई हो गयी, पहले ने दूसरे को खूब भला बुरा कहा व आसपास उपस्थित अन्य लोगों के नाम लेकर भी कहने लगा मेरा  ये दोस्त मन का काला है,  आप लोगों की हमेशा ही बुराई करता रहता है , मैंने इसके लिए कितना पैसा और समय खर्च किया पर ये तो अहसान फरामोश है इसे केवल स्वयं के हित के अलावा कुछ सूझता नहीं ।

वहाँ उपस्थित लोगों ने शांति कराने के उद्देश्य से ज्ञान बघारना शुरू कर दिया जिससे पहले दोस्त को बड़ा गुस्सा आया उसने कहा आप लोग पत्थर के बनें हैं क्या ? मैंने इतना कहा पर आप सबके कानों में जूँ तक नहीं रेंगी,  खासकर  मैडम जी तो बिल्कुल अनजान बन रहीं इनको कोई फर्क ही नहीं पड़ा जबकि सबसे ज्यादा दोषारोपण तो इनके ऊपर ही किया गया ।

मैडम जी ने मुस्कुराते हुए कहा मैं अपने कार्यों का मूल्यांकन स्वयं करती हूँ, आपकी तरह नहीं किसी ने कह दिया कौआ कान  ले गया तो कौआ के पीछे भागने लगे उसे अपशब्द कहते हुए, अरे भई देख भी तो लीजिए कि आपके कान ले गया या किसी और के ।

समझदारी इस बात में  नहीं है कि दूसरे ये तय करें कि हम क्या कर रहें हैं या करेंगे बल्कि इस बात में है कि हम वही करें जिससे मानवता का कल्याण हो । योजनाबद्ध होकर नेक कार्य करते रहें ,देर- सवेर ही सही कार्यों का फल मिलता अवश्य है ।

आर्थिक मुद्दे से होती हुई परेशानी अब भावनाओं तक जा पहुँची थी बस आनन फानन में दो गुट तेयार हो गए । शक्ति का बटवारा सदैव से ही कटुता को जन्म देता आया है सो सारे लोग गुटबाजी का शिकार होकर अपने लक्ष्य से भटकते हुए पुनः आरामगाह की खोज में देखे जा रहे हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 – लघुकथा – बने रहो…. ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “बने रहो….।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 ☆

☆ लघुकथा — बने रहो…. ☆ 

मोहन को चार डाक बना कर देना थी। महेश से कहा तो महेश बोला,” लाओ कागज ! अभी बना देता हूं,” कह कर  महेश ने कागज लिया। जानकारी भरी।  जोड़ लगाई ।

” 9 धन  6 बराबर 14 ।” फिर अचानक बोला, ” अरे ! यह तो गलत हो गया। 9 धन 6 बराबर 16 होता है।” कहते हुए उसने जोड़ के आंकड़े को घोटकर 14 के ऊपर 16 बना दिया।

तभी अचानक माथे पर हाथ रख कर बोला, ” साला !  दिमाग भी कहां जा रहा है ? 9 धन 6 तो 15 होते हैं।”

” हां, यह ठीक है।” जैसे ही महेश ने यह कहा तो मोहन बोला, ”  यह क्या किया सर ? जानकारी में काटपीट ?”

” कोई बात नहीं सर । एक कागज और दीजिए । अभी नई बना देता हूं, ” कह कर महेश ने दूसरा कागज लिया। कॉलम खींचे। मगर यह क्या ? एक कालम छूट गया था।

” सर!  यह क्या किया?  आपने तो एक कालम ही छोड़ दिया?”

यह सुनकर महेश बोला,” अच्छा!  देखें। कौन सा कॉलम छूटा है ?” कहकर महेश ने माथे पर हाथ रख कर कहा,” अरे! यार एक और कागज दो ।अभी बना देता हूं।”

बहुत देर से पत्रवाहक यह सब देख रहा था । वह खड़ा होते वह बोला, ”  सर!  मुझे देर हो रही है । आप डाक बनाकर भेज दीजिएगा। मैं चलता हूं।” 

” अरे! नहीं सर जी। मोहन ने हड़बड़ा कर कहा, ” आप थोड़ी देर बैठिए।  मैं स्वयं बनाकर दे देता हूं।”

मोहन के यह कहते हुए ही महेश हमेशा की तरह मुस्कुरा कर अपने तकिया कलाम वाक्य को धीरे से सीटी बजा कर दोहराने लगा, “बने रहो पगला, काम करेगा अगला।”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-09-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 87 – आई..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #87 ☆ 

☆ आई..!☆

माझ्यासाठी किती राबते माझी आई

जगण्याचे मज धडे शिकवते माझी आई

तिची कविता मला कधी ही जमली नाही

अक्षरांची ही ओळख बनते माझी आई…!

 

अंधाराचा उजेड बनते माझी आई

दु:खाला ही सुखात ठेवे माझी आई

कित्तेक आले वादळ वारे हरली नाही

सूर्या चा ही प्रकाश बनते माझी आई…!

 

देवा समान मला भासते माझी आई

स्वप्नांना ही पंख लावते माझी आई

किती लिहते किती पुसते आयुष्याला

परिस्थिती ला सहज हरवते माझी आई…!

 

ठेच लागता धावत येते माझी आई

जखमेवरची हळवी फुंकर माझी आई

तिच्या मनाचे दुःख कुणाला दिसले नाही

सहजच हसते कधी न रडते माझी आई…!

 

अथांग सागर अथांग ममता माझी आई

मंदिरातली आहे समई माझी आई

माझी आई मज अजूनही कळली नाही

रोज नव्याने मला भेटते माझी आई…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #107 – शामियाने…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता  “शामियाने…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #107 ☆

☆ शामियाने…

सजे सँवरे झिलमिलाते शामियाने

रोशनी  में  ये  नहाते,  शामियाने।

 

हो खुशी या गम, सदा तत्पर रहें ये

वक्त पर रिश्ते निभाते, शामियाने।

 

गर्मियों में धूप से हमको बचाये

बारिशों में बनें छाते, शामियाने।

 

कनातें कालीन, दरियाँ, कुर्सियाँ

करे मन की बात इनसे, शामियाने।

 

ऊँच-नीच न कोई छोटा या बड़ा

गले से सब को लगाते, शामियाने।

 

पर्व उत्सव मिलन हो या हो विदाई

स्वयं को निर्लिप्त पाते, शामियाने।

 

आपदा विपदा पड़े जब भी जहाँ भी

वहाँ पर है काम आते, शामियाने।

 

दृश्य अगणित बतकही, किस्से अनेकों

सोच, मन में मुस्कुराते, शामियाने।

 

शामियानों की जो करते हैं हिफाज़त

गृहस्थी उनकी चलाते, शामियाने।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत को भोपाल जाना था तो अपनी आदत के अनुसार सुबह सुबह की जनशताब्दी ट्रेन से जाने का त्वरित निर्णय अर्धरात्रि को लिया गया.तो सुबह सुबह की रेलगाड़ी को प्लेटफार्म पर बिना टिकट खरीदे चढ़ने का विचार उस वक्त बदलना पड़ा जब गाड़ी के आने के पहले टिकट काउंटर से टिकिट लेने के लिये समय पर्याप्त और लाईन लगभग नहीं थी.“एक हबीबगंज”असहमत ने कम शब्दों में समय की बचत की पर काउंटर पर बैठे सज्जन के पास समय ही समय था तो बोले “हबीबगंज नहीं मिलेगा”

“जनशताब्दी के लॉस्ट स्टाप का टिकिट नहीं मिलता क्या?”

“मिलता है पर कमलापति बोलो तो मिलेगा.”

असहमत अपना समय यहां बर्बाद करने की जगह सुबह की पहली चाय का रसास्वादन करना चाहता था. फिर भी बोल उठा “अच्छा कमलापति त्रिपाठी के नाम पर ही दे दो वैसे हमारा नाम असहमत है,तात्या टोपे परेशान तो नहीं करेगा?”

“ये तात्या टोपे का रेल में क्या काम, मजाक करते हो वो भी हमसे?”

असहमत : “तो शुरु किसने किया?”

काउंटर : “अरे यार कुछ पढ़ा लिखा करो,कम से कम अखबार ही बांच लो.”

असहमत: “सब डिज़िटल है,मोबाईल है न हमारा,चार्ज भर करना है बस”

काउंटर : “तो तुमको मालुम नहीं पडा़ कि विश्वस्तरीय बनने से हबीबगंज स्टेशन का नाम अब कमलापति हो गया है.”

असहमत : “अच्छा जैसे पहले कभी कोकाकोला का बदला था,शायद फर्नाडिस थे जो विदेशी के बदले स्वदेशी पेय पसंद करते थे. चलो ठीक है कमलापसंद ही दे दो एक”

काउंटर : “कमलापसंद नहीं कमलापति बोलो, रट लो नहीं तो पिट जाओगे कहीं न कहीं”

भीड़ के दबाव और समय के अन्य उपयोग की खातिर असहमत उसी मूल्य पर टिकिट लेकर लाईन से बाहर आया. छुट्टे वापसी की उम्मीद सरकारी विभागों से करना नादानी होती है और असहमत न तो नादान था न मूर्ख पर उसकी मुंहफटता उसे अक्सर फंसाती रहती थी. स्टेशन की चाय पीने से आई ताज़गी और ऊर्जा का उपयोग असहमत ने विंडो सीट पाने में किया और आराम से रात की बाकी नींद पूरी करने में लग गया. लगभग एक घंटे के पहले ही नींद खुली तो सुबह के नाश्ते की चाहत ने गोटेगांव के स्टेशन वाले पांडे जी के आलूबोंडों की याद दिला दी. स्वाभाविक रुप से समीपस्थ यात्री से पूछा : “गोटेगांव निकल गया क्या?”

सहयात्री सज्जन थे और मजाकिया भी ,बोले “भाईसाहब कितने साल बाद इस रूट पर जा रहे हैं गोटेगांव जो पहले छोटा छिंदवाड़ा भी कहलाता था अब उसका नाम बहुत पहले ही श्रीधाम हो चुका है और वो स्टेशन निकल चुका है.आपको श्रीधाम उतरना था क्या?”

असहमत : “नहीं जाना तो भोपाल है, टिकिट हबीबगंज…..” अचानक टिकिट देने वाले की सलाह याद आ गई तो फौरन भूल सुधार किया गया और हबीबगंज की जगह कमलापति हो गया.

सहयात्री पढ़े लिखे भोपाल वासी ही थे (भोपाली और पढ़ालिखा पर्यायवाची शब्द हैं) मुस्कुराते हुये बोले : “समय लगता है, होशियार हो जो हबीबगंज से सीधे कमलापति पर आ गये वरना लोग हबीबगंज से पहले कमलापसंद और फिर धीरे धीरे कमलापति पर आते हैं. हम तो जब रेलयात्रा करना हो तो ऑटो वाले को हबीबगंज ही बोलते हैं ताकि टाईम से पहुंच जायें. बंबई को मुबंई बनने में भी टाईम लगा जबकि वहां का प्रेशर तो आप समझ सकते हो.”

असहमत ने बड़े भोलेपन से दो सवाल पूछे, पहला “अब सुरक्षित और स्वादिष्ट नाश्ता किस स्टेशन पर मिल सकता है?” और दूसरा कि – “स्टेशन का सिर्फ नाम बदला है या कुछ और भी?”

सहयात्री : “बेहतर है अब भोपाल में ही पेटपूजा करें जो आपके स्वाद और सुरक्षा दोनों की दृष्टि से उपयुक्त है.आखिर प्रदेश की राजधानी है तो उसके हिसाब से इमेज़ बिल्डिंग हर भोपालवासी का परम कर्तव्य है.और जहां तक बात रेल्वेस्टेशन की है तो पूरी तरह विश्वस्तरीय बनाया गया है. अब आगे मेंटेन करने का काम सिर्फ रेल्वे का नहीं बल्कि यात्रियों का भी है, याने विश्वस्तरीय यात्रा के दौरान वांछित जागरूकता.”

नाम पर चली चर्चा पर जब बात इतिहास को गलत ढंग से पढ़ाये जाने पर आई तो असहमत बोल ही उठा: “हम तो इतिहास की पुस्तक उसी बुक स्टोर से खरीदते थे जो हमारे शिक्षक कहा करते थे.” मौजूद राजनीति के चतुर सहयात्री असहमत की मासूमियत पर मुस्कुराने लगे. अचानक किसी संगीत प्रेमी सहयात्री के मोबाइल पर ये गीत बजने लगा “नाम गुम जायेगा,चेहरा ये बदल जायेगा,मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे” तो असहमत अपनी हाज़िरजवाबी के बावज़ूद क्या भूलूं क्या याद करूं की उलझन में उलझ गया और उसकी यात्रा,”भूखे पेट न भजन गोपाला “की भावना के साथ जारी रही.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 109 ☆ मला भेटलेली दुर्गा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 109 ?

☆ मला भेटलेली दुर्गा ☆

आजचा विषय खूपच चांगला आहे, मी खूप विचार केला आणि माझी दुर्गा मला माझ्या घरातच सापडली, होय मला भेटलेली दुर्गा  म्हणजे माझी सून सुप्रिया !

माझा मुलगा अभिजित चोवीस वर्षाचा झाल्यावर आम्ही त्याच्यासाठी मुली पहायला सुरूवात केली.

कारण त्याची बदली अहमदाबाद ला झाली होती आणि त्याच्या पत्रिकेत मंगळ असल्यामुळे आम्ही पत्रिका पाहून  लग्न करायचं ठरवलं होतं, म्हणजे आमचा थोडा फार ज्योतिषशास्त्रावर विश्वास आहे. सुप्रिया तशी नात्यातलीच, माझ्या चुलत बहिणीने तिला पाहिले होते आणि ती म्हणाली होती, ती मुलगी इतकी सुंदर आहे की तुम्ही नाकारूच शकत नाही. पण ती अवघी एकोणीस वीस वर्षांची होती आणि इंजिनिअरींगला होती, तिचं शिक्षण, करिअर… तिचे आईवडील इतक्या लवकर तिचं लग्न करतील असं वाटलं नाही!

पण सगळेच योग जुळून आले आणि खूप थाटामाटात लग्न झालं!पण सुरूवातीला अभिजित अहमदाबादला आणि ती पुण्यात आमच्या जवळ रहात होती कारण तिचं काॅलेज पुण्यात… ती लग्नानंतर बी.ई.झाली फर्स्ट क्लास मध्ये! काही दिवस जाॅब केला. अभिजितची अहमदाबादहून मुंबई ला आणि नंतर पुण्यात बदली झाली, दोघेही जाॅब करत होते नंतर प्रेग्नंट राहिल्यावर तिने सातव्या महिन्यात जाॅब  सोडला. नातू झाला. तिने तिच्या मुलाला खूप छान वाढवलं आहे, पाचव्या महिन्यात बाळाला घेऊन ती माहेरहून आल्यानंतर बाळाला पायावर अंघोळ घालण्यापासून सर्वच!थोडा मोठा झाल्यावर पुस्तक वाचायची सवय तिने त्याला लावली, तो आता तेरा वर्षाचा आहे सार्थक नाव त्याचं तो खूप वाचतो आणि लिहितो ही,अकरा वर्षाचा असताना त्याने एक कादंबरी लिहिली (फॅन्टसी) ती प्रकाशितही झाली आहे, अमेझाॅनवर! ते सर्व सोपस्कार त्याने स्वतः केले! नातू लेखक आहे, कविताही केल्यात त्याने, त्याचे श्रेय लोक मला देतात पण सार्थक ला वाचनाची गोडी सुप्रिया ने लावली आणि तिच्या स्वतःमध्ये ही लेखनगुण आहेत, तिच्या फेसबुकवरच्या पोस्ट (अर्थात इंग्रजी) वाचून कविमित्र लेखक श्रीनिवास शारंगपाणी म्हणाले होते, “तुमची सून चांगली लेखिका होईल पुढे”! खरंतर मी लग्नात तिचं सुप्रिया नाव बदलून अरुंधती  ठेवलं ते बुकर पुरस्कार विजेत्या अरुंधती राॅय च्या प्रभावानेच ! असो !

सुप्रिया (माझ्यासाठी अरुंधती) काॅन्व्हेन्ट मध्ये शिकलेली तरीही मराठीचा अभिमान असलेली,फर्डा इंग्लिश बोलणारी तरीही उगाचच इंग्रजीचा वापर न करणारी चांगली, स्वच्छ मराठी बोलणारी! सर्व प्रकारचा स्वयंपाक उत्कृष्ट करणारी, खूप चांगलं,सफाईदार ड्रायव्हिंग करणारी !

माझे आणि तिचे संबंध सार्वत्रिक सासू सूनांचे असतात तसेच आहेत, कुरबुरी, भांडण ही आमच्यातही झालेली आहेत, मुळात माझ्या सूनेने माझ्या अधिपत्याखाली रहावं अशी माझी कधीच इच्छा नव्हती, तिने तिच्या आवडी निवडी जपाव्या, स्वतःतल्या क्षमता ओळखून स्वतःचा उत्कर्ष करून घ्यावा अशीच माझी सूनेबद्दल भावना, अपेक्षा कुठलीही नाही!

मला ती दुर्गा भासली तो काळ म्हणजे कोरोना चा लाॅकडाऊन काळ! त्या काळात अभिजित सिंगापूर ला गेलेला, आम्ही सोमवार पेठेत आणि सुप्रिया सार्थक पिंपळेसौदागर येथे पण लाॅकडाऊन च्या काळात ती सार्थक ला घेऊन सोमवार पेठेत आली, कामवाली बंद केली होती, घरकामाचा बराचसा भार तिने घेतला, त्या काळात सार्थकनेही न सांगता भांडी घासली, खूपच सुसह्य झालं ती आल्यामुळे!

नंतर माझं मणक्याचं ऑपरेशन, दीनानाथ मंगेशकर रुग्णालयात झालेली कोरोनाची लागण…. घरी गेल्यावर एका पाठोपाठ एक पाॅझीटीव्ह होत जाणं…. आम्हाला दोघांनाही तिनं हाॅस्पिटल मध्ये अॅडमीट करणं…. त्या काळातलं तिचं धीरोदात्त वागणं आठवलं की अजूनही डोळे भरून येतात, हे टाईप करतानाही अश्रू ओघळत आहेत, आमच्या नंतर, आम्ही हाॅस्पिटल मध्ये असताना,  ती आणि सार्थक पाॅझीटिव आले, काही दिवस ती घरीच क्वारंटाईन राहिली, दोन तीन दिवस तिचा ताप उतरेना मग ती सार्थकला  बरोबर घेऊन मंत्री हॉस्पिटल मध्ये अॅडमीट झाली तेव्हा तर ती झाशीची राणीच भासली, काही दिवस आगोदरच आम्ही मणिकर्णिका पाहिला होता ऑनलाईन, खूपजण म्हणतात ती “कंगना राणावत” सारखी दिसते! पण कंगना पेक्षा ती खूपच सुंदर आहे सूरत और सिरतमे!

लेख जरा जास्तच लांबला आहे. पण माझ्या कोरोना योद्धा सूनेबद्दल एवढं तरी लिहायलाच हवं ना अर्थात या लढाईत तिला तिच्या बहिणी आणि मेहुण्यांची महत्वाची साथ होती हे ही कृतज्ञतापूर्वक नमूद करते!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १५ – भाग १ – देखणा दुर्ग ग्वाल्हेर ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १५ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ देखणा दुर्ग ग्वाल्हेर ✈️

कार्तिकातल्या स्वच्छ निळ्या आकाशाच्या तळ्यात, अष्टमीच्या शुभ्र चंद्राची होडी विसावली होती. हवीहवीशी वाटणारी सुखद थंडी अंगावर शिरशिरी आणत होती. लांबरुंद, उतरत्या दगडी पायर्‍यांवर बसून आम्ही समोरचा, पाचशे वर्षांपूर्वीचा ग्वाल्हेरचा किल्ला निरखत होतो. तेवढ्यात दिवे मालवले गेले. त्या नीरव शांततेत सभोवतालच्या झाडीतून घोड्यांच्या टापा ऐकू येऊ लागल्या. धीर-गंभीर आवाजात, किल्ल्यावर आणि सभोवती टाकलेल्या प्रकाशझोतात इतिहासाची पाने आमच्यापुढे उलगडली जाऊ लागली.

राजा मानसिंह याने इसवीसन १४८६ ते १५१६ या काळात तांबूस घडीव दगडात या किल्ल्याचं बांधकाम केलं.( हा राजा मानसिंह, तोमर वंशातील आहे. रजपूत राजा मानसिंह, ज्याची बहीण अकबर बादशहाला दिली होती तो हा नव्हे). गुप्तकाळातील म्हणजे इसवी सन ५३० मधील शिलालेख येथे सापडला आहे. गुप्त, परमार, बुंदेले, तोमर, चौहान, लोधी, मोगल, मराठे, इंग्रज अशा अनेक राजवटी येथे होऊन गेल्या. तलवारींचे खणखणाट, सैन्याचे, हत्ती- घोड्यांचे  आवाज, राजांचे आदेश, जखमींचे विव्हळणे, शत्रूपासून शीलरक्षणासाठी राण्यांनी केलेला जोहार असा सारा इतिहास ध्वनीप्रकाशाच्या सहाय्याने जिवंत होऊन आमच्यापुढे उभा राहिला.

दुसऱ्या दिवशी सकाळी हा किल्ला पाहताना काल पाहिलेला इतिहास आठवत होता. रुंद, चढणीचा रस्ता आपल्याला किल्ल्याच्या पायथ्याशी घेऊन जातो. जवळ- जवळ तीन किलोमीटर लांब पसरलेल्या या किल्ल्याला ३५ फूट उंचीची मजबूत तटबंदी आहे. त्यात सहा अर्धगोलाकार बुरुज बांधलेले आहेत. बुलंद प्रवेशद्वारावर केळीची झाडे, बदकांची रांग, सुसरींची तोंडे, घोडे ,हत्ती अशा शिल्पाकृती आहेत. काही ठिकाणी निळ्या, पिवळ्या, हिरव्या रंगातील मीनायुक्त रंगकाम अजून टिकून आहे. किल्ल्याच्या आतील ‘मान मंदिर’ हा राजवाडा हिंदू स्थापत्यशैलीचा अजोड नमुना आहे. राजा मानसिंह याच्या कारकिर्दीमध्ये राजाश्रयामुळे गायन, वादन, नर्तन अशा सार्‍या कलांची भरभराट झाली. अशी कथा सांगतात, की राजा एकदा शिकारीला गेलेला असताना त्याने, दोन दांडग्या म्हशींची झुंज, नुसत्या हाताने सोडविणाऱ्या देखण्या गुजरीला पाहिले.  राजा गुजरीच्या प्रेमात पडला. तिलाही राजा आवडला होता. गुजरीने विवाहासाठी तीन अटी  घातल्या. एक म्हणजे ती पडदा पाळणार नाही. सदैव म्हणजे रणांगणावरसुद्धा राजाबरोबरच राहील  आणि  तिच्या माहेरच्या राई गावातील नदीचे पाणी ग्वाल्हेरमध्ये आणण्याची व्यवस्था केली पाहिजे. राजाने गुजरीच्या या तीनही अटी मान्य करून तिच्याशी विवाह केला व तिचे नाव मृगनयनी ठेवले. मृगनयनीला संगीतात उत्तम गती होती. राजाही संगीताचा मर्मज्ञ होता. शास्त्रीय संगीतात सुप्रसिद्ध असलेलं ‘ग्वाल्हेर घराणं’ या राजाच्या काळात उदयाला आलं. गानसम्राट तानसेनही इथलाच! मानसिंहाने त्याला अकबराकडे भेट म्हणून पाठविले. तानसेनचे गुरू, स्वामी हरिदास यांच्या स्मरणार्थ अजूनही इथे दरवर्षी संगीत महोत्सव साजरा होतो .

‘मान मंदिर’ या राजवाड्यात गतवैभवाची साक्ष मिरविणारे चाळीस लांबरुंद दिवाणखाने आहेत. गायन कक्षातील गाणे शिकण्यासाठी, ऐकण्यासाठी भोवतालच्या माडीमध्ये राणी वंशाची सोय केली आहे. दरबार हॉल, शयनकक्ष,मसलतखाना, पाहुण्यांची जागा अशा निरनिराळ्या कामांसाठी हे हॉल वापरले जात. भिंतीवर काही ठिकाणी हिरव्या, निळ्या रंगातील लाद्या अजून दिसतात.मीना रंगातील नाजूक कलाकुसरीची जाळी दगडातून कोरली आहे हे सांगितल्यावरच समजते. महालातील भुलभुलैया या ठिकाणच्या दगडी, अंधाऱ्या पायऱ्या गाईडच्या मदतीने उतरून तळघरात गेलो. इथे पूर्वी राण्यांच्या शाही स्नानासाठी, केशराने सुगंधित केलेल्या पाण्याचा लांबरुंद हौद होता. वरच्या दगडी छतात राण्यांच्या झुल्यांसाठी लोखंडी कड्या टांगलेल्या आहेत. झरोक्यातून वायूवीजनाची सोय तसेच ताज्या, वाहत्या पाण्याचा प्रवाह येण्याची व्यवस्था आहे. तिथे असलेले दोन पोकळ पाईप दाखवून हा पूर्वीचा टेलिफोन (संदेशवहनाचा मार्ग) आहे असे गाईडने सांगितले. आता त्या स्नानाच्या हौदाचा  बराचसा भाग लाद्यांनी आच्छादलेला आहे व फारच थोडा भाग जाळीच्या आवरणाखाली आहे.

कालचक्राची गती कशी फिरेल याचा नेम नाही. इसवीसन १५१६ मध्ये इब्राहीम लोदीने ग्वाल्हेरवर ताबा मिळविला. नंतर हा किल्ला मोगलांच्या ताब्यात गेला आणि या स्नानगृहाचा म्हणजे तळघराचा वापर चक्क अंधारकोठडी म्हणून करण्यात आला. झोपाळ्यांसाठी बसविलेल्या लोखंडी कड्यात राजकैद्यांसाठी बेड्या अडकविण्यात आल्या. औरंगजेबाचा भाऊ मुराद व मुलगा मोहम्मद, दाराचा मुलगा शिको अशा अनेकांसाठी हे मृत्युस्थान बनले. जहांगीर बादशहाने शिखांचे सहावे गुरू हरगोविंद यांनाही इथे कैदेत ठेवले होते. नंतर दोन वर्षांनी त्यांची सुटका केली. त्यावेळी त्यांनी त्यांच्या प्रयत्नांनी स्वतःबरोबर कैदेत असलेल्या ५२ हिंदू राजांचीही सुटका करविली. गुरु हरगोविंद यांच्या स्मरणार्थ बांधलेला ‘दाता बंदी छोड’ या नावाचा एक भव्य गुरुद्वारा किल्ल्याजवळच आपल्याला बघायला मिळतो.

भाग-१ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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