हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 8 – ….दिखे नहीं हैं ऐसे मित्र ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “… दिखे नहीं हैं ऐसे मित्र। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 8 – … दिखे नहीं हैं ऐसे मित्र ☆ 

सजल

समांत- इत्र

पदांत- —

मात्राभार- 14

 

पढ़ा सुदामा-कृष्ण चरित्र।

दिखे नहीं हैं ऐसे मित्र।।

 

दीवारों में टांँग रहे,

फ्रेम जड़ा कर उनका चित्र।

 

बुरे लोग भी चाह रहे,

सदा मिले संबंध पवित्र।

 

ज्ञानी होकर मूर्ख बने,

यही बात है बड़ी विचित्र।

 

खुद छलिया का रूप धरें,

किंतु चाहते हैं सौमित्र।

 

धरती ने श्रृंगार किया,

उभरा है अनुपम सुचित्र।

 

ईश्वर का यह रूप दिखा,

बिखरे दिकदिगंत यह इत्र ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 125 ☆ जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक ऐतिहासिकआलेख  ‘जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा। इस विचारणीय  एवं ऐतिहासिक आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 125☆

?  जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा  ?

आज रांची झारखंड की राजधानी है. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था .  यह तब की बात है जब  ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी फौज के पहुंचने से पहले ही ईसाइयत के प्रचार के लिये गहन तम भीतरी क्षेत्रो में पहुंच जाया करती थीं . वे गरीबों, वनवासियों की चिकित्सकीय व शिक्षा में मदद करके उनका भरोसा जीत लेती थीं. और फिर धर्मान्तरण का दौर शुरू करती थीं. बिरसा मुंडा भी शिक्षा में तेज थे. उनके पिता सुगना मुंडा से लोगों ने कहा कि इसको जर्मन मिशनरी के स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मिशनरीज के स्कूल में पढ़ने की शर्त हुआ करती थी, पहले आपको ईसाई धर्म अपनाना पड़ेगा. बिरसा का भी नाम बदलकर बिरसा डेविड कर दिया गया.

1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में जहां बिरसा रहते थे ,अकाल पड़ा , लोग हताश और परेशान थे. बिरसा को अंग्रेजों के धर्म परिवर्तन के अनैतिक स्वार्थी व्यवहार से चिढ़ हो चली थी. अकाल के दौरान बिरसा ने पूरे जी जान से अकाल ग्रस्त लोगों की अपने तौर पर मदद की. जो लोग बीमार थे, उनका अंधविश्वास दूर करते हुये उनका इलाज करवाया. बिरसा का ये स्नेह और समर्पण देखकर लोग उनके अनुयायी बनते गए . सभी वनवासियों के लिए वो धरती आबा हो गए, यानी धरती के पिता.
अंग्रेजों ने 1882 में फॉरेस्ट एक्ट लागू किया था जिस से सारे जंगलवासी परेशान हो गए थे, उनकी सामूहिक खेती की जमीनों को दलालों, जमींदारों को बांट दिया गया था. बिरसा ने इसके खिलाफ ‘उलगूलान’ का नारा दिया . उलगूलान यानी जल, जंगल, जमीन के अपने अधिकारों के लिए लड़ाई. बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ एक और नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’, यानी अपना देश अपना राज. करीब 4 साल तक बिरसा मुंडा की अगुआई में जंगलवासियों ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. अंग्रेजी हुक्मराम परेशान हो गए, उस दुर्गम इलाके में बिरसा के गुरिल्ला युद्ध का वो तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे थे. लेकिन भारत जब जब हारा है , भितरघात और अपने ही किसी की लालच से , बिरसा के सर पर अंग्रेजो ने बड़ा इनाम रख दिया . किसी गांव वाले ने बिरसा का सही पता अंग्रेजों तक पहुंचा दिया. जनवरी १८९० में गांव के पास ही डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा को घेर लिया गया, फिर भी 1 महीने तक जंग चलती रही, सैकड़ों लाशें बिरसा के सामने उनको बचाते हुए बिछ गईं, आखिरकार 3 मार्च वो भी गिरफ्तार कर लिए गए. ट्रायल के दौरान ही रांची जेल में उनकी मौत हो गई.

लेकिन बिरसा की मौत ने न जाने कितनों के अंदर क्रांति की ज्वाला जगा दी. और अनेक नये क्रांतिकारी बन गये . राष्ट्र ने उनके योगदान को पहचाना है . आज भी वनांचल में बिरसा मुंडा को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उनके नाम पर न जाने कितने संस्थानों और योजनाओं के नाम हैं, और न जाने कितनी ही भाषाओं में उनके ऊपर फिल्में बन चुकी हैं. पक्ष विपक्ष की कई सरकारों ने जल जंगल और जमीन के उनके मूल विचार पर कितनी ही योजनायें चला रखी हैं .उनकी जयंती पर इस आदिवासी गुदड़ी के लाल को शत शत नमन . 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 112 ☆ चंदन जळले ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 112 ?

☆ चंदन जळले

आयुष्याची झाली माझ्या बघ रांगोळी

चंदन जळले प्रेताखाली कुठे दिवाळी

 

सारा सागर होता माझ्या रे बापाचा

फेरा चुकला कुणास आहे हा नशिबाचा

जाळ्यामधली आज जाहले मी मासोळी

चंदन जळले प्रेताखाली कुठे दिवाळी

 

ग्रीष्म ऋतूचा कंटाळा ना कधीच केला

घामाचे हे अत्तर पुसले या देहाला

मेघ बरसले कधीतरी मग संध्याकाळी

चंदन जळले प्रेताखाली कुठे दिवाळी

 

वर्षा झाली आज निघाले पुरती न्हाउन

दुःखांचे गाठोडे नेले त्याने वाहुन

जीव जाळला तेव्हा तेव्हा झाली होळी

चंदन जळले प्रेताखाली कुठे दिवाळी

 

दिशा उजळल्या घरात माझ्या सूर्य न आला

सोबत केली कशी सोडु मी काळोखाला

मिठी मारली अंधाराने कातरवेळी

चंदन जळले प्रेताखाली कुठे दिवाळी

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 64 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 64 –  दोहे 

राम सिया की रुदन का, ज्ञात नहीं इतिहास।

संभव आँसू स्वयं ही, चले गए वनवास।।

 

आँसू जिनकी आँख में ,पाते नहीं पनाह।

व्यर्थ जिंदगी हो गई, अगर ना निकली आह।।

 

आँसू शिशु की आँख के, गंगा सदृश पवित्र।

निर्मल मन से देख लो, अपने मन का चित्र।।

 

आँसू निकले रूप के, गात हुआ कश्मीर ।

हार चुका में खोज कर, मिली ना एक नजीर।।

 

पीड़ा के संतान का, आँसू रक्खा नाम।

जो भी इसको दे बदल ,कह पाए इनाम।।

 

आँसू ने अपनी तरह, अपना किया निबाह।

सब थे अपनी तरह के, गए बदल कर राह।

 

आँसू शबनम एक से ,अलग अलग है वंश।

एक चाह की चाशनी, दूजा देता दंश।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 64 – बादल की क्या रही बिसात …..…..☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बादल की क्या रही बिसात ….. । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 64 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || बादल की क्या रही बिसात ….. || ☆

बादल की क्या रही बिसात

मौसम जब कोतवाल था

शायद यह बंदिश-सीमाओं का

बचा -खुचा भूतकाल था

 

दीनहीन थी नहीं कभी

लेकिन थी विवेक शील भी

जिसे झुका न पायी कोई कई

प्रयत्नों के भी बाद कभी

 

लँगड़ी कुबड़ी परिस्थितियाँ

खोजने जुटी थीं अस्तित्व

प्रकृतिके सूचना वाहक

बताने जुटे थे व्यक्तित्व

 

ऐसीभी निकष योजनाओं की

जिसका चंचल सा परिहास

विद्युतके कोणों पर आ ठहरा

अहोरात्र देखभाल था

 

जीवन की संसद में चुना हुआ

दैहिक अनुताप का समीकरण

अनुत्तरित प्रश्नों सा दिखा हमें

प्रस्तावो का यह प्रथम चरण

 

जिसका अभिप्राय टिप्पणियों

सजग प्रतीत हुआ ऐसे

प्रश्नावलियों में सभासद

दिखे श्वेत वस्त्र में जैसे

 

पश्चिम की क्षीणकाय

तिथियाँ स्मरण कराती हैं

कभी हमारा दिखा सबको

उन्नत जो विजय भाल था

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

31-10-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 110 ☆ हम है बिजूका …. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  ‘हम है बिजूका ….’ )  

☆ संस्मरण # 110 ☆ हम है बिजूका….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सोचने को बहुत कुछ है, 

कि हम पानी से पैदा हुए, 

और धूल धूसरित बड़े हुए, 

हवा ने कहा हम है साथ-साथ, 

जब देखो प्रकाश ही प्रकाश, 

पांच तत्वों का घरेलू उत्पाद, 

लो दौड़ने लगा बाजार बाजार  

सोचने को तो बहुत है यार, 

करो तो कभी जीवन से प्यार, 

सुगंध- सुमन को करो याद, 

आओ मिल जाऐं बार बार।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #54 ☆ # बसेरा # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बसेरा #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 54 ☆

☆ # बसेरा # ☆ 

जीवन की भाग दौड़ में

जीवन-पथ के हर मोड़ में

तुम मुस्कुराओगी

तो सवेरा होगा

कभी कभी छोटी छोटी बातों में

दूर विरह की रातों में

रूठ जाओगी अगर

तो जीवन में अंधेरा होगा

 

तुम्हारी प्यारी प्यारी बातों में

यूं ही रोज मुलाकातों में

मैं तो सब कुछ हार गया

ना जाने ये दिल

कब मेरा होगा

 

तुम्हारा झीना झीना आंचल

आंखों का भीगा भीगा काजल

दीवाना कर रहा है मुझे

ना जाने कब

हाथ में हाथ तेरा होगा

 

तेरे अंग अंग की दहक

केवड़े की फूल सी महक

बेधुंद  नागिन सी तेरी काया

होश में कैसे

यह सपेरा होगा

 

मैं हूँ रात्रि का आखिरी प्रहर

तू है रात की नई सहर

मिल जाये गर हम दोनों

कितना अद्भुत

यह बसेरा होगा

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – 21 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – 21 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

 

[१०१]

कभिन्न ढगांमधून

साकळलेल्या

विक्राळ अंधकाराचे

प्रकाशाच्या ओठांनी

चुंबन घेतले

आणि

ढगांची फुलं झाली

स्वर्गीय रंगांनी

ओसंडणारी

 

[१०२]

अमर्याद सत्तेच्या मातीत

असत्याचं रोप वाढवलं

म्हणून काही त्याला  

सत्याचं फळ नाही येत …..

 

[१०३]

तलवारीच्या पात्यानं

आपल्याचा मुठीला

बोथट म्हणून चिडवावं?

 

[१०४]

जीवनाच्या

या प्रकाशमय बेटाभोवती

चारी बाजूंनी

उसळत आहे अहोरात्र

मृत्यूचे दर्यागीत

अखंड…. अनंत ….

 

मूळ रचना – स्व. रविंद्रनाथ टैगोर 

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #113 ☆ व्यंग्य – वी. आई. पी. श्मशान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘वी. आई. पी. श्मशान ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 113 ☆

☆ व्यंग्य – वी. आई. पी. श्मशान  

सरजू भाई उस दिन अपने फ्रेंड, फ़िलॉसॉफ़र एंड गाइड बिरजू भाई को आख़िरी विदाई देने लाव-लश्कर के साथ श्मशान पहुँचे थे। बिरजू भाई की तरह सरजू भाई राजनीति के सयाने, तपे हुए खिलाड़ी थे। बिरजू भाई के चरणों में बैठकर उन्होंने राजनीति का ककहरा सीखा था। अब उनके जाने से वे अनाथ महसूस कर रहे थे।

वहाँ बैठे,दुखी मन से वे श्मशान की व्यवस्था देखते रहे। सब तरफ गन्दगी और बदइन्तज़ामी थी। इधर-उधर फेंके हुए चादर,बाँस और घड़ों के टुकड़े पड़े थे। शेडों के नीचे कुत्ते घूम या सो रहे थे। श्मशान का कर्मचारी गन्दी लुंगी लपेटे अपने काम को अंजाम दे रहा था। बैठने के लिए बनी पत्थर की बेंचों पर धूल जमी थी। शोकसभा के लिए माकूल जगह नहीं थी।

वहाँ का दृश्य देखते देखते सरजू भाई का दिल बैठने लगा। वे खुद पचहत्तर के हो गये थे। कभी भी चार के कंधे पर लदकर यहाँ आना पड़ सकता था। लेकिन क्या इतने सुख उठाने के बाद उनका यही हश्र होना था?हमेशा ए.सी.में, गुदगुदे गद्दों पर सोये, कभी अपने हाथ से लेकर पानी नहीं पिया, लक्ज़री गाड़ियों में घूमे, हवाई जहाज में उड़े, और अन्त में यह फजीहत। घोड़े-गधे, राजा- रंक,सब बराबर। सोच सोच कर सरजू भाई का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगा।

घर लौटे तो अपने तीन-चार प्रमुख चमचों को बुलाया। बोले, ‘भैया, हमें श्मशान की दशा देखकर बड़ी चिन्ता हुई। कल के दिन हमें भी वहाँ जाना है,तो क्या हमें भी फजीहत झेलनी पड़ेगी? आप लोग एक प्रस्ताव तैयार करके नगर निगम जाओ और एक अलग भव्य श्मशान के लिए राज्य सरकार से फंड की माँग करो। हमें अब अपनी हैसियत के हिसाब से एक सर्वसुविधायुक्त स्मार्ट श्मशान चाहिए।

‘इसके लिए लम्बा-चौड़ा क्षेत्र हो जहाँ सुन्दर फूलों वाले पौधे और शानदार पेड़ हों, दो चार सौ लोगों के बैठने के लिए आरामदेह, गद्देदार सीटें हों, साफ-सुथरी यूनिफॉर्म वाले ट्रेन्ड कर्मचारी हों और वातावरण ऐसा हो कि वहाँ पहुँचने वालों को गर्व हो। जब ताजमहल मकबरा होते हुए भी जगत-प्रसिद्ध हो सकता है तो हमारा श्मशान क्यों नहीं हो सकता? कम से कम अपने देश में तो हो ही सकता है।

‘नये श्मशान में सौ पचास कारों की पार्किंग व्यवस्था हो, जिन्हें सँभालने के लिए यूनिफॉर्म-धारी कर्मचारी हों। विज़िटर्स को बाहर ही गाउन, मास्क और टोपी दी जाए जो पूरी तरह सैनिटाइज़्ड हों, जैसी वीआईपीज़ को अस्पतालों में दी जाती हैं।

‘इसके अलावा वहाँ एक हैलीपैड भी हो ताकि वीवीआईपी बेझिझक आ सकें। जो दिवंगत राजकीय सम्मान के हकदार हों उनके लिए बैंड और पुलिस की टुकड़ियों के खड़े होने के लिए अलग पट्टियाँ बनायी जाएं। इसके अलावा एक भव्य विशाल शोकसभा हॉल बनाया जाए जहाँ दिवंगत के सम्मान में लोग आराम से अपने विचार प्रकट कर सकें। अभी तो जो हालत है उसमें लोग जल्दी भागने की फ़िराक में रहते हैं।

‘वीआईपी श्मशान में रोशनी का बढ़िया इन्तज़ाम होना चाहिए ताकि वह रात में भी जगमगाता रहे। कुल मिलाकर ऐसी व्यवस्था हो कि मरने वाले को मौत सुहानी लगने लगे। श्मशान इतना बढ़िया बने कि लोग उसे देखने आयें। भाड़े पर रोने वालों की एक परमानेंट टीम भी तैयार की जानी चाहिए।

‘लेकिन एक बात का ध्यान रखना होगा कि जनता को यह न लगे कि यह वीआईपी श्मशान है। उनसे कहेंगे कि उन्हें असुविधा और भीड़-भाड़ से बचाने के लिए ही यह इन्तज़ाम किया गया है।’

सरजू भाई आगे बोले, ‘इस प्रस्ताव को जल्दी आगे भिजवाओ। प्रस्ताव ऊपर पहुँच जाये तो मैं अपने रसूख का इस्तेमाल करके मंजूरी के लिए दबाव डलवाऊँगा। इस उम्र में पता नहीं कब ऊपर से सम्मन आ जाए। इसी एक चीज पर हमारा बस नहीं है, बाकी कोई कष्ट नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 113 ☆ आत्मबोध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 113 ☆ आत्मबोध ☆

आत्म, शुचिता का सूचक है। आत्म आलोकित और पवित्र है। गंगोत्री के उद्गम की तरह, जहाँ किसी तरह का कोई मैल नहीं होता। मैल तो उद्गम से आगे की यात्रा में जमना शुरू होता है। ज्यों-ज्यों यात्रा आगे बढ़ती है, यात्रा के छोटे-बड़े पड़ाव मनुष्य में आत्म-मोह उत्पन्न करते हैं। फिर आत्म-मोह, अज्ञान के साथ मिलकर अहंकार का रूप देने लगता है। जैसे पेट बढ़ने पर घुटने नहीं दिखते, वैसे ही आत्म-मोही की भौंहे फैलकर अपनी ही आँखों में प्रवेश कर जाती हैं। इससे दृष्टि धुंधला जाती है। आगे दृष्टि शनै: शनै: क्षीण होने लगती है और अहंकार के चरम पर आँखें दृष्टि से हीन हो जाती हैं।

दृष्टिहीनता का आलम यह कि अहंकारी को अपने आगे दुनिया बौनी लगती है। वह नाममात्र जानता है पर इसी नाममात्र को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ज्ञानी की अवस्था पूर्ण भरे घड़े की तरह होती है। वह शांत होता है, किसी तरह का प्रदर्शन नहीं करता। अज्ञानी की स्थिति इसके ठीक विरुद्ध होती है। वह आधी भरी मटकी के जल की तरह उछल-उछल कर अपना अस्तित्व दर्शाने के हास्यास्पद प्रयास निरंतर करता है। इसीलिए तो कहा गया है, ‘अधजल गगरी छलकत जाए।’

लगभग चार दशक पूर्व  एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी। नायक दुर्घटनावश एक ऐसे कस्बे में पहुँच जाता है जहाँ जीवन जीने के तौर-तरीके अभी भी अविकसित और बर्बर हैं। नायक को घेर लिया जाता है। कस्बे का एक योद्धा, नायक के सामने तलवार लेकर खड़ा होता है। तय है कि वह तलवार से नायक को समाप्त कर देगा। अपने अहंकार का मारा कथित योद्धा, नायक का सिर, धड़ से अलग करने से पहले तलवार से अनेक करतब दिखाता है। भारी भीड़ जुटी है। एक ओर नायक स्थिर खड़ा है। दूसरी ओर से तलवारबाजी करता कथित योद्धा नायक की ओर बढ़ रहा है। योद्धा के हर बढ़ते कदम के  साथ शोर भी बढ़ता जाता है। अंततः दृश्य की पराकाष्ठा पर योद्धा ज्यों ही तलवार निकालकर नायक की गर्दन पर वार करने जाता है, अब तक चुप खड़ा नायक, जेब से पिस्तौल निकालकर उसे ढेर कर देता है। भीड़ हवा हो जाती है। ज्ञान के आगे अज्ञान की यही परिणति होती है।

अज्ञान से मुक्ति के लिए आत्म-परीक्षण करना चाहिए। आत्म-परीक्षण होगा, तब ही आत्म-परिष्कार होगा। आत्म-परिष्कार होगा तो मनुष्य आत्म-बोध के दिव्य पथ पर अग्रसर होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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