हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 76 ☆ भारत की भी सोचो, भाई ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है प्रवासी भारतीय विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा भारत की भी सोचो, भाई ! डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 76 ☆

☆ लघुकथा – भारत की भी सोचो, भाई ! ☆

वह अमेरिका से कई साल बाद भारत वापस आया है। मुंबई  से बी.ई. करने के बाद एम.एस. करने के लिए अमेरिका चला गया था। माता-पिता ने अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च किया था  उसे विदेश भेजने में। जी-जान लगा दी उन्होंने, बीस लाख फीस और रहने-खाने का खर्च अलग से। नौकरी करनेवालों के लिए इतना खर्च उठाना आसान नहीं होता फिर भी यह सोचकर कि विदेश जाएगा तो उसका भविष्य संवर जाएगा, भेज दिया। भारत में आजकल यही चल रहा है, घर-घर की कहानी है – बच्चे विदेश में और माता-पिता अकेले पड़े बुढ़ापा काट रहे हैं। इंजीनियरिंग पूरी करो, बैंक तैयार बैठे हैं लोन देने के लिए, लोन लो और एम.एस. के लिए विदेश का रुख, फिर डॉलर में सैलरी और प्रवासी-भारतीय बन जाओ।

उसे देखकर अच्छा लगा – रंग निखर आया था और शरीर भी भर गया था। उसकी माँ भी बहुत खुश थी, बार-बार कहतीं- “अमेरिका में धूल नहीं है ना ! इसे डस्ट से एलर्जी है, यहाँ था तो बार-बार बीमार पड़ता था। जब से अमेरिका पढ़ने गया है बीमार ही नहीं पड़ा, हेल्थ भी इंप्रूव हो गई। वहाँ घर, कॉलेज हर जगह एअरकंडीशन रहता  है, हीटिंग सिस्टम है, बहुत पॉश है सब कुछ वहाँ।” बेटा भी धीरे से बोला- आंटी ! यहाँ तो आए दिन बिजली, पानी की समस्या से ही जूझते रहो। ट्रैफिक में  घुटन होने लगती हैं उफ् कितनी भीड है इंडिया में !

बात अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था पर होने लगी। मैंने कहा- अमेरिकी राष्ट्रपति  ने अपने भाषण में कहा था कि  अमेरिकी  युवा उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर रहे हैं। जबकि दूसरे देशों के विद्यार्थी यहाँ से पढ़कर जाते हैं।                                              

वह बोला- हाँ आँटी ! अमेरिका में अधिकतर चीन, जापान, भारत तथा अरब देशों के ही विद्यार्थी हैं। इनसे अमेरिका को आर्थिक लाभ बहुत होता है।

मैंने कहा- हाँ ये तो ठीक है पर — वह तपाक से बोला- चिंता की कोई बात नहीं है। मेरे जैसे जो भारतीय विद्यार्थी वहाँ हैं, वे अमेरिका में ही बस जाएंगे। उनके बच्चे होंगे तो उनकी भारतीय सोच अलग होगी, वे पढेंगे, उच्च शिक्षा भी प्राप्त करेंगे। धीरे-धीरे अमेरिका की यह समस्या खत्म हो जाएगी। बोलते समय वह बड़े आत्मविश्वास के साथ मुस्कुरा रहा था।

अमेरिका की समस्या को सुलझाने में तत्पर आज के भारतीय युवक  अपने देश की समस्याओं के बारे में कभी कुछ सोचते भी हैं ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 122 ☆ रायल होटल भवन, जबलपुर, जहां कभी ‘इंडियन्स नाट एलाउड’ का बोर्ड लगा रहता था ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय आलेख  ‘रायल होटल भवन, जबलपुर, जहां कभी इंडियन्स नाट एलाउड का बोर्ड लगा रहता था । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 122 ☆

?  रायल होटल भवन, जबलपुर, जहां कभी ‘इंडियन्स नाट एलाउड’ का बोर्ड लगा रहता था ?

19वीं शताब्दी में , १८५७ की क्रांति के लगभग तुरंत बाद जबलपुर के एक बड़े टिम्बर मर्चेन्ट डा बराट जो एक एंग्लो इंडियन थे, ने  इस तत्कालीन शानदार भवन का निर्माण करवाया था। बाद में यह भवन  तत्कालीन राजा गोकुलदास के आधिपत्य में आ गया , क्योकि डा बराट राजा गोकुलदास के सागौन के जंगलो से ही लकड़ी का  व्यापार करते थे। राजा गोकुलदास ने  अपनी नातिन राजकुमारी को यह भवन दहेज में दिया था। जिन्होंने इस भवन को रॉयल ग्रुप को बेच दिया गया। ग्रुप ने इसे एक आलीशान होटल में तब्दील कर दिया।

यह होटल सिर्फ ब्रिटिशर्स और यूरोपीयन लोगों के लिए बनाया गया था। ब्रिटिशर्स भारतीयों पर हुकूमत कर रहे थे। अपने समय में होटल की भव्यता के काफी चर्चे थे। होटल के गेट पर ही ‘इंडियंस नॉट अलाउड’ का बोर्ड लगा हुआ था।  रॉयल होटल ब्रिटिशकाल में अंग्रेजों की एशगाह रही । खास बात यह है कि भारत में होने के बावजूद भारतीयों को इस महल के आस-पास फटकने की भी इजाजत नहीं थी। यहां तक की होटल के सुरक्षा गार्ड और कर्मचारी भी ब्रिटिशर्स या यूरोपियन ही होते थे।

यूरोपियन शैली का निर्माण

रॉयल होटल इंडो-वेस्टर्न के साथ-साथ यूरोपियन शैली में बना है।  इस होटल के हॉल की चकाचौंध देखकर ही लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे। इसके साथ ही अंग्रेजों के आराम के लिए बड़े-बड़े कमरे बनाए गए थे। जिसमें एशो-आराम की सारी सुविधाएं मौजूद थीं। होटल की बनावट ऐसी थी कि कमरों में वातानुकूलित व्यवस्था जैसा अहसास होता था। अंग्रेजों की प्राइवेसी का भी यहां खास ध्यान रखा जाता था।

भवन में लगे सेनेटरी फिटिंग , झाड़ फानूस आदि इंग्लैंड , इटली आदि देशो से लाये गये थे। अभी भी जो चीनी मिट्टी के वेस्ट पाइप टूटी हुई अवस्था में भवन में लगे हुये हैं , उनके मुहाने पर शेर के मुंह की आकृति है। जो मेंगलूर टाइल्स छत पर हैं वे भी चीनी मिट्टी के हैं।

अब खंडहर में तब्दील हो गया होटल

स्वतंत्रता के बाद इस महल में बिजली विभाग का दफ्तर चला। कुछ समय बाद यहां एनसीसी की कन्या बटालियन का कार्यालय बनाया गया। लेकिन, अब यह महल खंडहर में तब्दील हो चुका है। प्रदेश सरकार ने इसे संरक्षित इमारत घोषित किया है लेकिन इसके रखरखाव पर अब तक ध्यान नहीं दिया गया है।

जबलपुर का रायल होटल राज्य शासन संरक्षित स्माकर बनेगा। राज्य के संस्कृति विभाग ने इस संबंध में मप्र एन्शीएन्ट मान्युमेंट एण्ड आर्कियोलाजीकल साईट्स एण्ड रिमेंस एक्ट,1964 के तहत इस प्राचीन स्मारक को ऐतिहासिक पुरातत्व महत्व के प्राचीन स्मारक को राज्य संरक्षित करने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी है और इस संबंध में अधिसूचना जारी कर दी है। यह राजस्व खण्ड सिविल लाइन ब्लाक नं। 32 प्लाट नं। 11-12/1 में स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल 14144-05 वर्गफुट है। फिलहाल इसका स्वामित्व एमपी इलेक्ट्रिक बोर्ड जबलपुर रामपुर के पास लीज के तहत है।

रायल होटल बंगला राज्य संरक्षित घोषित होने के बाद इसके सौ मीटर आसपास किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य प्रतिबंधित रहेगा तथा इस सौ मीटर के और दो सौ मीटर व्यास में रेगुलेट एरिया रहेगा जिसमें किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य विहित प्रावधानों के तहत आयुक्त पुरातत्व संचालनालय की अनुमति से ही हो सकेगा, उक्त प्राचीन होटल के बारे में राज्य सरकार की राय है कि इसे विनष्ट किये जाने, क्षतिग्रस्त किये जाने, परिवर्तित किये जाने, विरुपित किये जाने,हटाये जाने, तितर-बितर किये जाने या उसके अपक्षय होने की संभावना है जिसे रोकने के लिये इसे संरक्षित किया जाना आवश्यक हो गया है।

अब समय आ गया है कि इस पुरातन भवन को संग्रहालय के रूप में इस तरह विकसित किया जावे कि कभी भारतीयो को अपमानित करने वाला भवन का द्वार हर भारतीय नागरिक को ससम्मान आमंत्रित करते हुये हमारी पीढ़ियों को हमारे इतिहास से परिचित करवाये।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 74 ☆ व्यस्तता के चलते ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “व्यस्तता के चलते”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 74 – व्यस्तता के चलते

आजकल जिसे देखो वही व्यस्त है। कभी फोन खुद   कह उठता है, इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं। कल  मैंने 10 जगह फोन लगाया, मजे की बात सारे लोगों ने फोन उठाते, यही कहा, बस एक मिनट में बात करते हैं। दरसल वे कहीं न कहीं बातों में व्यस्त थे। हालाकि सभी ने 5 मिनट के भीतर फोन लगाया भी किन्तु दिल ये सोचने पर विवश हो गया कि क्या सचमुच हम लोगों का मोबलाइजेशन हो गया है। मोबोफ़ोबिया से केवल नई पीढ़ी ही नहीं हम सब भी ग्रसित हो चुके हैं। 

डिजिटल होना अच्छी बात है किंतु आपसी मेलजोल के बदले फोन पर ही मिलना- मिलाना किस हद तक उचित कहा जा सकता है। ये सही है कि लोगों के पास समय की कमीं है, अब महिलाएँ भी दोहरी भूमिका निभा रहीं हैं इसलिए मेहमान नवाजी से उन्होंने भी थोड़ी दूरी बना ली है। हम लोग केवल किसी कार्यक्रम में ही मिल पाते हैं जहाँ केवल औपचारिक बातें होती हैं। इन सबसे वो अपनापन कम होता जा रहा है जो पहले दिखाई देता था। 

सारे मुद्दे फोन पर बातचीत से निपटने लगे हैं। भाव – भावनाओं की पूछ – परख कम होती दिखाई देती है। बस मतलबी रिश्तों में उलझता हुआ व्यक्ति उसी के साथ संवाद कायम रखना चाहता है जिससे कुछ लाभ हो। लाभ की बात चले और हानि की तरफ ध्यान न जाए ऐसा हो नहीं सकता। हम सब केवल अपने फायदे का आकलन करते हुए झट से अपनी राय सामने वाले पर थोप देते हैं। जरा ये भी तो सोचिए कि एक के लिए जो अच्छा हो वो जरूरी नहीं कि दूसरे को अच्छा लगे। हम लोग अपनेपन की बातें करते हैं पर निभाने के समय दूसरे के व्यवहार व स्टेटस के अनुरूप आचरण करते हैं।

सम्बंधों को बनाए रखने हेतु समय- समय पर मिलते रहना चाहिए। मन से कार्य करते रहिए बिना फल की आशा किए। याद रखिए कि यदि आम का बीज आपने बोया है, तो आम  मिलेगा बस सही समय का इंतजार करना होगा।

हममें से अधिकांश लोग नेह रूपी बीज तो बोते हैं, पर अंकुरण होते  ही  फल की आशा में जड़  खोदने लग जाते हैं , अरे मूल ही तो आधार है वृक्ष का इसकी मजबूती पर ही तो तना व शाखाएँ निर्भर हैं। यही बात रिश्तों पर भी लागू होती है उसे समझने के लिए त्याग और वक्त देना पड़ता है तभी मिठास आती है।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 93 – लघुकथा – असली वनवास ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “असली वनवास।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 93 ☆

☆ लघुकथा — असली वनवास ☆ 

सीता हरण, लक्ष्मण के नागपोश और चौदह वर्ष के वनवास के कष्ट झेल कर आते हुए राम की अगवानी के लिए माता पूजा की थाली लिए पलकपावड़े बिछाए बैठी थी. रामसीता के आते ही माता आगे बढ़ी, ” आओ राम ! चौदह वर्ष आप ने वनवास के अथाह दुखदर्द सहे हैं. मैं आप की मर्यादा को नमन करती हूं.” कहते हुए माता ने राम के मस्तिष्क पर टीका लगाते हुए माथा चुम लिया.

मगर, राम प्रसन्न नहीं थे. वे बड़ी अधीरता से किसी को खोज रहे थे, ” माते ! उर्मिला कहीं दिखाई नहीं दे रही है ?”

”क्यों पुत्र ! पहले मैं आप लोगों की आरती कर लूं. बाद में उस से मिल लेना.”

यह सुनते ही राम बोले, ” माता ! असली वनवास तो उर्मिला और लक्ष्मण ने भोगा है इसलिए सब से पहले इन दोनों की आरती की जाना चाहिए.” यह कहते हुए राम ने सीता को आरती की थाल पकड़ा दी.

यह सुनते ही लक्ष्मण का गर्विला सीना राम के चरण में झुक  गया, ” भैया ! मैं तो सेवक ही हूं और रहूंगा. ”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

06-03-2018

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 83 ☆ गीत – काम अच्छा ही अच्छा करो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण गीत  काम अच्छा ही अच्छा करो

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 83 ☆

☆ गीत – काम अच्छा ही अच्छा करो ☆ 

मुश्किलों से कभी मत डरो।

  काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 

जिंदगी है बड़े काम की।

       श्याम की, बुद्ध की , राम की।

अनगिनत इसमें सदियाँ लगीं।

      बोलियाँ प्रेम की भी पगीं।

 

याद कर लो शहीदों के दिल

      देश हित में जिओ और मरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।।

    काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 

जाग जाओ बहुत सो लिए।

     पाप सिर पर बहुत ढो लिए।

कुछ हँस लो , हँसा लो यहाँ

    जन्म से अब तलक रो लिए।

 

गलतियों से सदा सीख ले

      कुछ घड़े पुण्य के भी भरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।

      काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 

आदमी देवता और असुर ।

    स्वयं ही ये बनता चतुर।

सहज जीवन तो जी ले जरा,

     प्रेम फागों से बन ले हरा।

 

साँस पूरी लिखीं हैं वहाँ पर

       पाप की गठरियाँ मत भरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।

    काम अच्छा ही अच्छा करो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 85 – फराळ..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #85 ☆ 

☆ फराळ..! ☆ 

(दिवाळी निमित्त खास छोट्या दोस्तांसाठी.. बालकविता…!)

आई म्हंटली दिवाळीला

फराळ करू छान

फराळात चकलीला

देऊ पहिला मान..!

 

गोल गोल फिरताना

तिला येते चक्कर

पहिलं कोण खाणार

म्हणून घरात होते टक्कर..!

 

करंजीला मिळतो

फराळात दुसरा मान

चंद्रासारखी दिसते म्हणून

वाढे तिची शान..!

 

एकामागून एक करत

करंजी होते फस्त

फराळाच्या डब्यावर

आईची वाढे गस्त..!

 

साध्या भोळ्या शंकरपाळीला

मिळे तिसरा मान

मिळून सा-या एकत्र

गप्पा मारती छान…!

 

छोट्या छोट्या शंकरपाळ्या

लागतात मस्त गोड

दिसत असल्या छोट्या तरी

सर्वांची मोडतात खोड..!

 

बेसनाच्या लाडूला

मिळे चौथा मान

राग येतो त्याला

फुगवून बसतो गाल..!

 

खाता खाता लाडूचा

राग जातो पळून

बेसनाच्या लाडू साठी

मामा येतो दूरून..!

 

चटपटीत चिवड्याला

मिळे पाचवा मान

जरा तिखट कर

दादा काढे फरमान..!

 

खोडकर चिवडा कसा

मुद्दाम तिखटात लोळतो

खाता खाता दादाचे

नाक लाल करतो…!

 

दिवाळीच्या फराळाला

सारेच एकत्र  येऊ

थोडा थोडा फराळ आपण

मिळून सारे खाऊ..!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत के पिताजी के दोस्त थे  शासन के उच्च पद पर विराजमान. जब तक कुछ बन नहीं पाये तब तक दोस्त रहे, बाद में बेवफा क्लासफेलो ही रहे. असहमत उन्हें प्यार से अंकल जी कहता था पर बहुत अरसे से उन्होंने असहमत से ” सुरक्षित दूरी ” बना ली थी. कारण ये माना जाता था कि शायद उच्च पदों के प्रशिक्षण में शिक्षा का पहला पाठ यही रहा हो या फिर  असहमत के उद्दंड स्वभाव के कारण लोग दूरी बनाने लगे हों पर ऐसा नहीं था .असली कारण असहमत का उनके आदेश को मना करने  का था और आदेश भी कैसा “आज हमारा प्यून नहीं आया तो हमारे डॉगी को शाम को बाहर घुमा लाओ ताकि वो “फ्रेश ” हो जाय.मना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि प्यून की जगह असहमत का उपयोग किया जा रहा है बल्कि असहमत के मन में कुत्तों के प्रति बैठा डर था. डर उसे सिर्फ कुत्तों से लगता था बाकियों को तो वो अलसेट देने के मौके ढूंढता रहता था.

अपेक्षा अक्सर घातक ही होती है अगर वह गलत वक्त पर गलत व्यक्तियों से की जाय और न तो न्याय संगत हो न ही तर्कसंगत. जहाँ तक साहब जी की मैडमकी बात है तो पुत्र का चयन भी राष्ट्रीय स्तर की प्रशासनिक परीक्षा में होने से उनके आत्मविश्वास, रौब और रुआब में कोई कमी नहीं आई थी. नारी जहां अपनी सोच और अपने रूखे व्यवहार का स्त्रोत बदलने में देर नहीं लगातीं वहीं पुरुष का आत्मविश्वास और ये सभी दुर्गुण उसके पदासीन होने तक ही रह पाते हैं पर हां आंच ठंडी होने में समय लगता है जो व्यक्ति के अनुसार ही अलग अलग होता है. तो साहब को सरकारी बंगले से सरकारी वाहन , सरकारी ड्राईवर, माली और प्यून के बिना खुद के घर में रहने के शॉक से गुजरना पड़ा. वो सारे रीढ़विहीन जी हुजूरे अब कट मारने लगे और मोबाइल भी इस तरह खामोश हो गया जैसे उनकी पदविहीनता को मौन श्रद्धांजलि दिये जा रहा हो. ये समय उन…

डॉक्टर, साहब जी की बीमारी समझ गये और अवसाद याने depression का पहले सामान्य इलाज ही किया. पर नतीजा शून्य था क्योंकि अवसाद की जड़ें गहरी थीं. थकहारकर एक्सपेरीमेंट के नाम पर सलाह दी कि “सर आप अपने घर के एक शानदार कमरे को ऑफिस बना लीजिए और वो सब रखिये जो आपके आलीशान चैंबर में रहा होगा. AC, heavy curtains, revolving chair, teakwood large table, two or three phones, intercoms, etc. etc. जब ये सब करना पड़ा तो किया गया और फिर सब कुछ उसी तरह सज गया सिर्फ कॉलबेल या इंटरकॉम को अटैंड करने वाले को छोड़कर. अंततः ऐसे मौके पर भूले हुए क्लासफेलो याद आये. सादर आमंत्रित किया गया. मालुम था कि असहमत को इस काम के लिये दोस्ती के नाम पर यूज़ किया जा सकता है. असहमत के पिता जी भी इंकार नहीं कर पाये, क्योंकि इस कहावत पर उनका विश्वास था कि कुछ भी हो, निवृत्त हाथी भी सवा लाख…

असहमत के ज्वाईन करते ही साहब का डमी ऑफिस शुरु हो गया. असहमत का रोल मल्टी टास्किंग था, पीर बावर्ची भिश्ती, खर सब कुछ वही था, सिर्फ आका का रोल साहब खुद निभा रहे थे.इस प्रयोग ने काफी प्रभावित किया, साहब को लगी अवसाद याने डिप्रेशन की बीमारी को और धीरे धीरे असहमत साहब का प्रिय विश्वासपात्र बनता गया.असहमत भी मिल रही importance और चाय, लंच, नाश्ते के कारण काफी अच्छा महसूस कर रहा था पर जो एक जगह रम जाये वो जोगी और असहमत नहीं और अभी तो बहुत कुछ घटना बाकी था जिसमें असहमत का हिसाब बराबर करना भी शामिल था. साहब भी बिना मलाई के अफसरी करते करते बोर भी हो गये थे और अतृप्त भी. चूंकि अपने मन की हर बात वो अब असहमत से शेयर करने लगे थे तो उन्होंने उससे दिल की बात कह ही डाली कि “वो अफसर ही क्या जो सिर्फ तनख्वाह पर पूरा ऑफिस चलाये ” और इसी बात पर ही असहमत के फ़ितरती दिमाग को रास्ता सूझ गया हिसाब बराबर करने का. तो अगले दिन इस डमी ऑफिस में कहानी के तीसरे पात्र का आगमन हुआ जो बिल्कुल हर कीमत पर अपना काम करवाने वाले ठेकेदारनुमा व्यक्तित्व का स्वामी था. साहब भी भूल गये कि ऑफिस डमी है और लेन देन का सौदा असहमत की मौजूदगी में होने लगा. आगंतुक ने अपने डमी रुके हुये बिल को पास करवाने की पेशगी रकम पांच सौ के नोटो की शक्ल में पेश की और साहब ने अपनी खिली हुई बांछो के साथ फौरन वो रकम लपक ली, थोड़ा गिना, थोड़ा अंदाज लगाया और जेब में रखकर हुक्म दिया “जाओ असहमत जरा इनकी फाईल निकाल कर ले आओ. फाईल अगर होती तो आती पर फाईल की जगह आई “एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम”. साहब हतप्रभ पर टीम चुस्त, पूरी प्रक्रिया हुई, हाथ धुलवाते ही पानी रंगीन और साहब का चेहरा रंगहीन. ये शॉक साहब को वास्तविकता के धरातल पर पटक गया और उन्होंने आयुक्त को समझाया कि सर ये सब नकली है और हमारे ऑफिस ऑफिस खेल का हिस्सा है. पर आयुक्त मानने को तैयार नहीं, कहा “पर नोट तो असली हैं, शिकायत भी असली है और शिकायतकर्ता भी असली है. आपका पुराना कस्टमर है और शायद पुराना हिसाब बराबर करने आया है. फिर उन्होंने रिश्वतखोर अफसर को अरेस्ट करने का आदेश दिया.

अरेस्ट होने की सिर्फ बात सुनकर ही साहब की सारी हेकड़ी निकल गई और अपने साथ साथ ले गई साहबी, अकड़, लालच, संवेदनहीनता, उपेक्षा करने की आदत, सब कुछ होने के बाद भी असंतुष्टि और साथ ही डिप्रेशन की बीमारी भी. सारा रौब पलायन होने के बाद व्यक्तित्व में आ गई निचले दर्जे की विनम्रता जिसे गिड़गिड़ाना भी कह सकते हैं. ये वह अवस्था होती है जब अपने अलावा उपस्थित हर व्यक्ति महत्वपूर्ण लगने लगता है. अंततः साहब को जो इलाज चाहिए था वो इस शॉक थेरैपी से मिल गया और असहमत के फितूरी दिमाग से रचे गये इस नाटक ने न केवल नाटक का पटाक्षेप किया बल्कि अपने हिसाब बराबर करने का मौका भी पाया. साहब की बीमारी के निदान और उनके हृदय परिवर्तन की खुशी में असहमत ने फिर अपने नकली बॉस को असली ऑर्डर दिया ” अंकल जी, जाइये इस पूरी टीम को और इसके नायक याने मेरे लिये, घर की बनी कड़क चाय और लजी़ज नाश्ते का इंतजाम कीजिये. कहानी यहीं खत्म हुई साहब भी अवसादहीन और प्रफुल्लित हुये और असहमत ने भी चाय नाश्ते के बाद घर की राह पकड़ी.

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 6 – दीप पर्व विशेष – दीपावली का पर्व यह …☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  दीप पर्व पर विशेष कविता  “दीपावली का पर्व यह …”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 6 – दीप पर्व विशेष – दीपावली का पर्व यह … ☆ 

 

मातु लक्ष्मी कृपा कर, सरस्वती दे ज्ञान ।

गणपति से आशीष ले, सभी बने विद्वान ।।

 

फुलझड़ियां मुस्कान की, जगमग जलते दीप।

खुशियों के बम फूटते, पाकर मोती सीप।।

 

दीपक घर घर में जलें, दूर हटे अज्ञान ।

तमस सभी मन के मिटें, सबका हो कल्यान।।

 

रंग बिरंगी रोशनी, झूम उठेगी शाम।

राम अयोध्या आ गए, सँबरे सबके काम।।

 

दीपावली का पर्व यह, फिर आया इस बार ।

हंसी-खुशी सब साथ में, सुखमय हो संसार।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

 

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 121 ☆ कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक ज्ञानवर्धक आलेख  ‘कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 121 ☆

?  कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा ?

घने ऊँचे वृक्षों के बीच से सूरज की रोशनी कुछ इस तरह से झर रहीं थीं मानो स्वर्ण किरणें सीधे स्वर्ग से आ रही हों. हम खुली जीप पर सवार थे. जंगल की नमी युक्त, महुये की खुशबू से सराबोर हवा हमें एक मादक स्पर्श से अभीभूत कर रही थी.गर्मी के मौसम में भी हल्की ठंड का अहसास हो रहा था,मानो प्रकृति ने एारकंदीशनर चला रखा हो. पत्तों की कड़खड़ाहट भी हमें चौंका देती थी, लगता था कि अगले ही पल कोई वन्य जीव हमारे सामने होगा. मेरे बच्चों की जिज्ञासा हर पल एक नया सवाल लेकर मेरे सम्मुख थी. मिलिट्री कलर की ड्रेस में ग्राम खटिया का रहने वाला मूलतः आदिवासी गौंड़, हमारा गाइड मुन्नालाल बार बार बच्चों को शांत रहने का इशारा  कर रहा था जिससे वह किसी आसन्न जानवर की आहट ले सके. बिटिया चीना ने खाते खाते चिप्स का पैकेट खाली कर दिया था, और उसने पालीथिन के उस खाली पैकेट को अपने बैग में रख लिया जंगल में घुसने से पहले ही हमें बताया गया था कि जंगल नो पालीथिन जोन है. जिससे कोई जानवर पालिथिन गलती से न खा  ले, जो उसकी जिंदगी की मुसीबत बन जाये. कान्हा का अभयारण्य क्षेत्र ईकोलाजिकल फारेस्ट के रूप में जाना जाता है. जंगल में यदि कोई पेड़ सूखकर गिर भी जाता है तो यहां की विशेषता है कि उसे उसी स्थिति में प्राकृतिक तरीके से ही समाप्त होने दिया जाता है. यही कारण है कि कान्हा में जगह जगह उँचे  बड़े दीमक के घर “बांमी” देखने को मिलते हैं.

पृथ्वी पर पाई जानें वाली बड़ी बिल्ली की प्रजातियों में से सबसे रोबीला, अपनी मर्जी का मालिक और खूबसूरत है,भारत का राष्ट्रीय पशु – बाघ. जहां एक बार भारत के जंगलों में 40,000 से अधिक बाघ थे, पिछले दशक में ऐसा लगा मानो यह प्रजाति विलुप्त  होने की कगार पर है.  शिकार के कारण तथा जंगलों की अंधा धुंध कटाई के चलते भारत के वन्य क्षेत्रों में बाघों की संख्या घट कर 2000 से भी कम हो गई थी. समय रहते सरकार और पर्यावरण विदो ने सक्रिय भूमिका निभाई. कान्हा जैसे वन अभयारण्यों में पुनः बाघों को अपना घर मिला और प्रसन्नता का विषय है कि अब बाघो की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है.  बाघों को तो चिड़ियाघर में भी देखा जा  सकता है,  परंतु जंगल में मुक्त विचरण करते बाघ देखने का रोमांच और उत्साह अद्भुत होता है. वन पर्यटन हेतु प्रदेश टूरिज्म डिपार्टमेंट ने   कान्हा राष्ट्रीय उद्यान,  बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान आदि में बाघ सफारी हेतु इंतजाम किये हैं. इन वनो में हम भी शहरी आपाधापी छोड़कर जंगल के नियमों और प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुये, बिना वन्य प्राणियो को नुकसान पहुंचाये उन्हें निहार सकते हैं. इन पर्यटन स्थलो के वन संग्रहालयो में पहुंचकर वन्य प्राणियो के जीवन चक्र को समझ सकते हैं, और लाइफ टाइम मैमोरीज के साथ ही प्राकृतिक छटा में, अविस्मरणीय फोटोग्राफ लेकर एक रोचक, रोमांचक अनुभव कर सकते हैं.

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान व बाघ अभयारण्य मध्य प्रदेश राज्य के मंडला एवम्‌ बालाघाट जिलों में स्थित है. कान्हा में हमें बाघों व अन्य वन्य जीवों के अलावा पृथ्वी पर सबसे दुर्लभ हिरण प्रजातियों में से एक -हार्ड ग्राउंड बारहसिंगा को भी देखने का मौका मिलता हैं. समर्पित स्टाफ व उत्कृष्ट बुनियादी पर्यटन ढांचे के साथ कान्हा भारत का सबसे अच्छा और अच्छी तरह से प्रबंधित अभयारण्य हैं. यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य, हरे भरे साल और बांस के सघन जंगल, घास के मैदान तथा शुद्ध व शांत वातावरण पर्यटक को सम्मोहित कर लेता हैं. कान्हा पर्यटकों, प्राकृतिक इतिहास,वन्य जीव फोटोग्राफरों, बाघ और वन्यजीव प्रेमियों के साथ बच्चो और आम लोगों के बीच बड़े पैमाने पर प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि लेखक श्री रुडयार्ड किपलिंग को ‘जंगल बुक’ नामक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास लिखने के लिए इसी जंगल से प्रेरणा मिलीं थी.  किपलिंग रिसार्ट नामक एक परिसर उनकी स्मृतियां हर पर्यटक को दिलाता रहता है. बाघ व बारह सिंगे के सिवाय कान्हा में  तेंदुआ, गौर (भारतीय बाइसन), चीतल, हिरण, सांभर, बार्किंग डीयर, सोन कुत्तों के झुंड, सियार इत्यादि अनेक स्तन धारी जानवरों, तथा कुक्कू, रोलर्स, कोयल, कबूतर, तोता, ग्रीन कबूतर, रॉक कबूतरों, स्टॉर्क, बगुलों, मोर, जंगली मुर्गी, किंगफिशर, कठफोड़वा, फिन्चेस, उल्लू और फ्लाई कैचर जैसे पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियों, विभिन्न सरीसृपों और हजारों कीट पतंगे हम यहाँ  देख सकते हैं. प्रकृति की सैर व वन्य जीवों को देखने के अलावा बैगा और गोंड आदिवासीयो की संस्कृति व रहन सहन को समझने के लिए भी पर्यटक यहाँ देश विदेश से आते हैं.

भारत में सबसे पुराने अभयारण्य में से एक, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान को 1879 में आरक्षित वन तथा 1933 में अभयारण्य घोषित किया गया, 1973 में इसे वर्तमान स्वरूप और आकार में अस्तित्व में लाया गया था, लेकिन इसका इतिहास महाकाव्य रामायण के समय से पहले का हैं. कहा जाता हैं कि अयोध्या के महाराज दशरथ ने कान्हा में स्थित श्रवण ताल में ही श्रवण कुमार को हिरण समझ के शब्द भेदी बाण से मार दिया था तथा श्रवण कुमार का अंतिम संस्कार श्रवण चित्ता में हुआ था. आज भी वर्ष में एक दिन जब श्रवण ताल में आदिवासियो का मेला भरता है, सभी को वन विभाग द्वारा कान्हा वन्य क्षेत्र में निशुल्क प्रवेश दिया जाता है. 

इस क्षेत्र में पायी जाने वाली रेतीली अभ्रक युक्त  मिट्टी जिसे स्थानीय भाषा में ‘कनहार’ के नाम से जाना जाता है, के कारण इस वन क्षेत्र में कान्हा नामक वन्य ग्राम था जिसके नाम पर ही इस जंगल का नाम कान्हा पड़ा. एक अन्य प्रचलित लोक गाथा के अनुसार कवि कालिदास जी द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में वर्णित ऋषि कण्व यहां के निवासी थे तथा उनके नाम पर इस क्षेत्र का नाम कान्हा पड़ा.

कान्हा राष्ट्रीय पार्क के चारों ओर बफर क्षेत्र में आदिवासी संस्कृति और जीवन स्तर को देखने के लिए गांव का भ्रमण तथा जंगल को पास से देखने व समझने के लिए एवम्‌ पक्षियो को  निहारने के लिए सीमित क्षेत्र में पैदल जंगल भ्रमण किया जा सकता हैं. कान्हा के प्राकृतिक परिवेश और शांत वातावरण में स्वास्थ्यप्रद भोजन, योग और ध्यान के साथ स्वास्थ्य पर्यटन का आनंद भी लिया जा सकता है. कान्हा क्षेत्र बैगा और गोंड आदिवासियों का निवास रहा है. बैगा आदिवासियों को भारतीय उप महाद्वीप के सबसे पुराने निवासियों में से एक के रूप में जाना जाता है। वे घुमंतू खेती किया करते थे और जंगल से शहद, फूल, फल, गोंद, आदि लघु वनोपज एकत्र कर के अपना जीवन यापन करते थे. स्थानीय क्षेत्र और वन्य जीवन का उनको बहुत गहरा ज्ञान है. बांस के घने जंगल कान्हा की विशेषता हैं. यहां के स्थानीय ग्रामीण बांस से तरह तरह के फर्नीचर व अन्य सामग्री बनाने में बड़े निपुण हैं. मण्डला में कान्हा सिल्क के नाम से स्थानीय स्तर पर कुकून से रेशम बनाकर हथकरघा से रेशमी वस्त्रो का उत्पादन इन दिनों किया जा रहा है. आप कान्हा से लौटते वक्त सोवेनियर के रूप में बांस की कोई कलाकृति, वन्य उपज जैसे शहद, चिरौंजी, आंवले के उत्पाद या रेशम के वस्त्र अपने साथ ला सकते हैं, जो बार बार आपको प्रकृति के इस रमणीय सानिध्य की याद दिलाते रहें.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 102 – लघुकथा – धनलक्ष्मी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “धनलक्ष्मी । इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 102 ☆

? लघुकथा – धनलक्ष्मी ?

लगातार व्यापार में मंदी और घर के तनाव से आकाश बहुत परेशान हो उठा था। घर का माहौल भी बिगड़ा हुआ था। कोई भी सही और सीधे मुंह बात नहीं कर रहा था। सभी को लग रहा था कि आकाश अपनी तरफ से बिजनेस पर ध्यान नहीं दे रहा है और घर का खर्च दिनों दिन बढ़ता चला जा रहा है।

आज सुबह उठा चाय और पेपर लेकर बैठा ही था कि अचानक आकाश के पिताजी की तबीयत खराब होने लगी घर में कोहराम मच गया। एक तो त्यौहार, उस पर कड़की और फिर ये हालात। किसी तरह हॉस्पिटल में भर्ती कराया। घर आकर पैसों को लेकर वह बहुत परेशान था कि पत्नी उमा आकर बोली… चिंता मत कीजिए सब ठीक हो जाएगा। मैं और तीनों बेटियों ने कुछ ना कुछ काम करके कुछ रुपये जमा कर रखा है, जो अब आपके काम आ सकता है। बेटियों ने ट्यूशन और सिलाई का काम किया है।

पिताजी का इलाज आराम से हो सकता है। आकाश अपनी तीनों बेटियों और पत्नी से नफरत करने लगा था। क्योंकि उसे तीन बेटियां हो गई थी। रुपयों से भरा बैग देकर उमा ने कहा… आपका ही है, आप पिताजी को स्वस्थ  कर घर ले कर आइए।

आकाश अपनी पत्नी और बेटियों का मुंह देखता ही रह गया। सदा एक दूसरे को कोसा करते थे परिवार में सभी लोग। परंतु आज वह रुपए लेकर अस्पताल गया, मां समझ ना सकी कि इतने रुपए कहां से लाया।

मां ने समझाया… आज धनतेरस है शाम को मैं तेरे बाबूजी के साथ रह लूंगी। घर जा कर पूजा कर लेना।

पूजा का सामान लेकर वह घर पहुंचा। पत्नी ने सारी तैयारी कर रखी थी और तीनों बेटियों को लेकर एक जगह बैठ गई थी। आकाश ने पूजा शुरू की और आज सबसे पहले अपनी धनलक्ष्मी और धनबेटियों को पुष्प हार पहना, तिलक लगाकर वह बहुत प्रसन्न था।

मन ही मन सोच रहा था सही मायने में आज तक मैं लक्ष्मी का अपमान करता रहा आज सही धनतेरस की पूजा हुई है। उमा और तीनों बेटियां बस अपने पिताजी को देखे जा रही थी। घर दीपों से जगमगा रहा था। बेटियों ने बरसों बाद अपने पिताजी को गले लगाया और माँ के नेत्र तो आंसुओं से भीगते चले जा रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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