हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 213 ☆ निज आघात सहे मन कैसे ?… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना निज आघात सहे मन कैसे ?। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 213 ☆ निज आघात सहे मन कैसे ?…

समय- समय पर सभी के सामने चुनौतियाँ आतीं हैं, कुछ लोग इनका सामना एक अवसर के रूप में करते हैं वहीं कुछ लोग ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है कह कर रोना रोने लगते हैं।

अब सीधी सी बात है जिसे अवसर का लाभ लेना नहीं आता, समय को अपने अनुकूल करने की कला नहीं होती।

सच्चाई तो ये है कि जितना तनाव सहने की क्षमता होती उतना ही व्यक्ति सफल होगा। बिना संघर्ष के कुछ नहीं मिलता, उचित- अनुचित तथ्यों के परखने का गुण आपकी जीत को सुनिश्चित करता है। स्वयं पर पूर्ण विश्वास रखने वाले की जीत होती है।

इस संदर्भ में छोटी सी कहानी है, एक शिष्य बहुत दुःखी होकर अपने गुरु के सम्मुख रुदन करते हुए कहने लगा कि मैं आपके शिष्य बनने के काबिल नहीं हूँ, हर परीक्षा में जितने अंक मिलने चाहिए वो मुझे कभी नहीं मिले इसलिए मैं अपने घर जा रहा हूँ वहाँ पिता के कार्य में हाथ बटाऊँगा, गुरु जी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पर वो अधूरी शिक्षा छोड़ कर अपने गाँव चला गया।

किसी के जाने का दुःख एक दो दिन तो सभी करते हैं पर जल्दी ही उस रिक्त स्थान की पूर्ति हो जाती है। गुरुजी सभी शिष्यों को पढ़ा रहे थे तभी उन्हें वहाँ कुछ पक्षी उड़ते हुए दिखे उनका मन भी सब कुछ छोड़ हिमालय की ओर चला गया कि कैसे वो अपने गुरु के सानिध्य में वहाँ रहते थे, तो गुरुदेव ने भी तुरन्त अपने प्रिय शिष्य को जिम्मेदारी दी और चल दिये।

ये किस्सा एक बार का नहीं जब मन करता गुरुदेव कहीं न कहीं अचानक चल देते सो उनके शिष्य भी उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए अधूरे ज्ञान के साथ जब जी आता अपनी पढ़ाई छोड़ कर चल देते कुछ वापस भी आते। इस पूरी कहानी का उद्देश्य यही है, पानी पीजे छान के गुरू कीजे जान के। जैसे गुरु वैसे चेले होंगे ही।

कोई भी व्यक्ति या वस्तु पूर्ण नहीं होती है ये तो सर्वसत्य है, हमें उसके गुण दोषों को स्वीकार करने की समझ होनी चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 301 ☆ आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 301 ☆

? आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

राष्ट्र की प्रगति में तकनीकज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सच्ची प्रगति के लिये अभियंताओ और वैज्ञानिकों का राष्ट्र की मूल धारा से जुड़ा होना अत्यंत आवश्यक है। हमारे देश में आज भी तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। इस तरह अपने अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर हम उन्हें न केवल जन सामान्य से दूर कर रहे हैं वरन अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिको को पश्चिमी राष्ट्रों का रास्ता भी दिखा रहे हैं।

अंग्रेजी क्यो ? इसके जवाब मे कहा जाता है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड़ दी तो हम दुनिया से कट जायेगें। किंतु क्या रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान, चीन इत्यादि देश वैज्ञानिक प्रगति मे किसी से पीछे हैं ? क्या ये राष्ट्र  विश्व के कटे हुये हैं। इन राष्ट्रों मे तो तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा उनकी अपनी राष्ट्रभाषा मे ही होती है। अंग्रेजी मे नहीं। आज इतने सुविकसित अंतर्भाषा टूल्स बन चुके हैं कि विश्व संपर्क वाला यह तर्क बेमानी है ।

वास्तव मे विश्व संपर्क के लिये केवल कुछ बडे राष्ट्रीय संस्थान एवं केवल कुछ वैज्ञानिक व अभियंता ही जिम्मेदार होते हैं जो उस स्तर तक पहुचंते पहुंचते आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। देश के केवल उच्च तकनीकी संस्थानों में वैकल्पिक रूप से अंग्रेजी को तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकारा जा सकता है । किंतु वर्तमान स्थितियों में हम व्यर्थ ही सारे विद्यार्थियों को उनके अमूल्य 6 वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने में व्यस्त रखते हैं। जबकि आाज राष्ट्र भाषा हिन्दी में तकनीकी शिक्षण हेतु किताबें उपलब्ध कराई जा चुकी हैं । यदि कोई कमी है भी तो उसे दूर करने के लिये पर्याप्त संसाधन और बुद्धिजीवी सक्रिय हैं ।  दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत से कही अधिक संख्या में अभियंता तथा वैज्ञानिक विदेशों मे जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का एक बहुत बडा कारण उनका अंग्रेजी मे प्रशिक्षण भी है।

हमारे देश में शिक्षा की जो वर्तमान स्थिति है उसमें गांव गांव में भी अंग्रेजी माध्यम की शालायें खुल रही हैं , क्योकि अंग्रेजी भाषा के माध्यम को रोजगार तथा व्यक्तित्व निर्माण के साधन के रूप में स्वीकार कर लिया गया है . इसके पीछे अंग्रेजो का देश पर लम्बा शासन काल तो जिम्मेदार है ही साथ ही देश में भाषाई विविधता के चलते भाषाई आधार पर राज्यो के विभाजन की राजनीति भी जबाबदार लगती है . जिसके कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो दिया गया पर उसे राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार नही किया गया और इसका लाभ अंग्रेजी को मिलता गया ,विशेष रूप से तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में यही हुआ .

हिंदी को कठिन बताने के लिये प्रायः रेल के लिये लौहपथगामनी जैसे शब्दों के गिने चुने दुरूह उदाहरण लिये जाते है , पर यथार्थ है कि हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः ऐसे कुछ शब्द नागरी लिपि में लिखते हुये हिंदी मे यथावत अपनाये  जा सकते है। हिंदी शब्द तकनीक के लिये यदि अंग्रेजी वर्णमाला का प्रयोग करे तो हम अंग्रेजी अनुवाद टेक्नीक के बहुत निकट है।  संत के लिये सेंट, अंदर के लिये अंडर, नियर के लिये निकट जैसे ढेरों उदाहरण है। शब्दों की उत्पत्ति के विवाद मे न पड़कर यह कहना उचित है कि हिंदी क्लिष्ट नही है।

हमने एक गलत धारणा बना रखी है कि नई तकनीक के जनक पश्चिमी देश ही  होते है। यह सही नहीं है। पुरातन ग्रंथों में भारत विश्व गुरू के दर्जे पर था। हमारे वैज्ञानिको एवं तकनीकज्ञों में नवीन अनुसंधान करने की क्षमता है। तब प्रश्न उठता है कि क्यों हम अंग्रेजी ही अपनाये। क्यों न हम दूसरों की अन्वेषित तकनीक के अनुकरण की जगह अपनी क्षेत्रीय स्थितियों के अनुरूप स्वंय की जरूरतों के अनुसार स्वंय अनुसंधान करे जिससे उसे सीखने के लिये दूसरों को हिंदी अपनाने की आवश्यकता महसूस हो।

जब अत्याधुनिक जटिल कार्य करने वाले कप्यूटरों की चर्चा होती है तो आम आदमी की भी उनमें सहज रूचि होती है एवं वह भी उनकी कार्यप्रणाली समझना चाहता है। किंतु भाषा का माध्यम बीच में आ जाता है और जन सामान्य वैज्ञानिक प्रयोगों को केवल चमत्कार समझ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर लेता है। इसकी जगह यदि इन प्रयोगों की विस्तृत जानकारी देकर हम लोगो की जिज्ञासा को और बढा सके तो निश्चित ही नये नये अनुसंधान को बढावा मिलेगा। इतिहास गवाह है कि अनेक ऐसे खोजे हो चुकी है जो विज्ञान के अध्येताओं ने नही किंतु आवश्यकता के अनुरूप अपनी जिज्ञासा के अनुसार जनसामान्य ने की है।

यह विडंबना है कि ग्रामीण विकास के लिये विज्ञान जैसे विषयो पर अंग्रेजी मे बडी बडी संगोष्ठियां तो होती हैं किंतु इनमें जिनके विकास की बातें होती हैं वे ही उसे समझ नही पाते। मातृभाषा में मानव जीवन के हर पहलू पर बेहिचक भाव व्यक्त करने की क्षमता होती है। क्योंकि बचपन से ही व्यक्ति मातृभाषा मे बोलता पढ़ता लिखता और समझता है। फिर विज्ञान या तकनीक ही मातृभाषा मे नही समझ सकता ऐसा सोचना नितांत गलत है।

आज हिंदी अपनाने की प्रक्रिया का प्रांरभ त्रैमासिक या छैमाही पत्रिका के प्रारंभ से होता है जो दो चार अंकों के बाद साधनों के अभाव में बंद हो जाती है। यदि हम हिंदी अपनाने के इस कार्य के प्रति ऐसे ही उदासीन रहे तो भावी पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी। हिंदी अपनाने के महत्व पर भाषण देकर या हिंदी संस्थानों के कार्यक्रमों में हिंदी दिवस मनाकर हिंदी के प्रति हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो सकती। हमें सच्चे अर्थों में प्रयोग के स्तर पर हिंदी को अपनाना होगा। तभी हम मातृभाषा हिंदी को उसके सही स्थान पर पहुंचा पायेंगे।

हिंदी ग्रंथ अकादमी हिंदी मे तकनीकी साहित्य छापती है। बडी बडी प्रदर्शनियां इस गौरव के साथ लगाई जाती है कि हिंदी में तकनीकी साहित्य उपलब्ध है। किंतु इन ग्रंथो का कोई उपयोग नहीं करता। यहां तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण तक छप नहीं पाते। क्योंकि विश्वविद्यालयों में तकनीकी का माध्यम अंग्रेजी ही है। यह स्थिति चिंता जनक है। हिंदी को प्रायः साम्प्रदायिकता क्षेत्रीयता एवं जातीयता के रंग में रंगकर निहित स्वार्थों वाले राजनैतिक लोग भाषाई ध्रुवीकरण करके अपनी रोटियां सेंकते नजर आते हैं। हमें एक ही बात ध्यान में रखनी है कि हम भारतीय हैं। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है यदि राष्ट्रीयता की मूल भावना से हिंदी को अपनाया जावेगा तो यही हिंदी राष्ट्र की अखंडता और विभिन्नता में एकता वाली हमारी संस्कृति के काश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले विभिन्न रूपों को परस्पर और निकट लाने में समर्थ होगी।

यही हिंदी भारतीय ग्रामों के सच्चे उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक को जन्म देगी। हमें चाहिये कि एक निष्ठा की भावना से कृत संकल्प होकर व्यवहारिक दृष्टिकोण से हिंदी को अपनाने में जुट जावे। अंग्रेजी के इतने गुलाम मत बनिये कि कल जब आप हिंदी की मांग करने निकले तो चिल्लाये कि वी वांट हिंदी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

बी ई सिविल, पोस्ट ग्रेजुएशन फाउंडेशन, सर्टीफाइड इनर्जी मैनेजर

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #186 – व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 186 ☆

☆ व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग ‘फेसबुक’ का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्रपत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर ‘फेसबुक’ पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है मगर उसकी चर्चा ‘फेसबुक’ पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पेस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज 5 से 7 घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है।

कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वह छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकना उन्हें नहीं आता है। वे ‘फेसबुक’ से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है।जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा ‘फेसबुक’ पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में ‘फेसबुक’ पर बने रहते हैं। ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है जितनी रचना छप जाती है। उसे ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘फेसबुक’ के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह ‘फेसबुक’ पर अपना ‘फेस’ चमकाते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना महंगाई भगाओ अभियान।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गजबपुरिया देश की सरकार महंगाई जैसी महामारी से त्रस्त थी। उन्होंने कटौती स्थली के मस्तकलाल देश की सरकार से मदद मांगी। मस्तकलाल देश का हाल तो वही है, जहाँ तोंद बाहर निकाले बाबाओं और पुजारियों की एक टीम हर काम की एक्सपर्ट होती है। गजबपुरिया सरकार ने लिखा, “हमने सुना है कि आपके यहाँ टोटके और तंत्र-मंत्र से महामारी भगाई जाती है। हमारे यहाँ मौत का आँकड़ा आपके देश की धार्मिक किताबों में दी गई कहानियों जितना बढ़ रहा है। हमारा धैर्य आपके देश की लोकतंत्र जितना कम हो गया है।”

मस्तकलाल देश की सरकार ने मदद देने की हामी भर दी। वहां के बाबा और तांत्रिकों की टीम ने अपनी ‘धार्मिक दवाइयों’ के बंडल तैयार करने का आदेश दिया। ये दवाइयाँ गंगा जल, गोबर, गोमूत्र और कुछ विशेष मंत्रों से बनाई गई थीं। जैसे ही इन दवाइयों को पता चला कि इन्हें गजबपुरिया भेजा जाना है, वे सारे बंडल से भागने लगे। एक नेत्री ने कहा, “हमें वहाँ क्यों भेजा जा रहा है? हम तो यहीं की जनता का मानसिक शोषण करने में व्यस्त थे।”

बाबा लोग तो पहले ही किसी घने जंगल में अपनी कुटिया बनाकर गायब हो गए थे। दवाइयों के थोक और फुटकर विक्रेताओं ने भी अपनी-अपनी दुकानें बंद कर ली और भूमिगत हो गए। आखिरकार, मस्तकलाल सरकार ने सख्ती से इन्हें पकड़ा और बंडल में पैक किया।

एक अधिकारी ने पूछा, “यहां क्या चल रहा है?” एक साधु ने उत्तर दिया, “हम देख रहे हैं कि हम अपनी दवाइयों से दूसरे देश में भी हमारा उल्लू सीधा कर सकते हैं या नहीं।” अधिकारी ने कहा, “यहाँ उल्लू नहीं बल्कि धर्म का कारोबार चल रहा है, समझे?”

मस्तकलाल देश की सरकार ने भारी मशक्कत से उन दवाइयों के बंडल बनाए और उन्हें एक विशेष विमान में लादकर गजबपुरिया भेजा। गजबपुरिया में, मेडिकल विशेषज्ञ और सुरक्षा एजेंसियां सतर्क थीं। विमान के लैंड करते ही, एक बंडल उतारते समय ही मजदूर आपस में लड़ने लगे। गालियों का आदान-प्रदान होने लगा, जाति-धर्म की बातों पर बवाल मच गया।

मेडिकल विशेषज्ञ ने तुरंत सबको सतर्क किया और दुग्गल साहब को फोन कर सारी स्थिति बताई। उन्होंने कहा, “देखो, ये दवाइयाँ हैं। इनका उपयोग महंगाई को मिटाने की जगह नफरत और अंधविश्वास का वायरस फैलाने में उपयोग में लाया जा सकता है। यदि यह फैल गया तो अगले पाँच साल तक आपका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता है। ये वायरस लोगों को मानसिक गुलाम बना देता है।”

दुग्गल साहब ने कहा, “इन्हें तुरंत हमारे गुर्गों के बीच भेजो और मस्तकलाल देश की इस अद्भुत सद्भावना को धन्यवाद कहना।” एक बड़ा सा स्टिकर “ये दवाई केवल धार्मिक मूर्खों के लिए है” लिखकर उस विमान की सारी दवाई अंधभक्तों के बीच बटवा दी गई।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 219 ☆ बाल गीत – कितने प्यारे रंग भर दिए… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 219 ☆ 

बाल गीत – कितने प्यारे रंग भर दिए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

कितने प्यारे रंग भर दिए

चिड़ियों के ‘पर’ में किसने।

नव-नूतन संसार बनाया

क्या सचमुच ही ईश्वर ने।।

बड़ी मनोहर चिड़ियाँ आएँ

प्रतिदिन अपने बागों में।

साथ सदा मिलकर हैं रहतीं

गाएँ नूतन रागों में।।

 *

इनकी चोंच नुकीली अतिशय

मन भी देख लगा रमने।।

 *

काला , पीला , लाल ,सुनहरा

सजे परों के मोहक रंग।

खाएँ दाना बड़ी मगन हों

खेलें ,उड़ें करें न तंग।।

 *

रखना जल से भरे पात्र सब

धरा लगी लू से तपने ।।

 *

पेड़ लगेंगे , चिड़ियाँ चहकें

नीड़ बनेंगे विटपों के।

हरी-भरी सब धरती होगी

जल पीएँ भर मटकों के।

 *

सरल ,सहज सब जीवन जीएँ

सृष्टि लगेगी खुद सजने।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग २५ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग २५ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- महाबळेश्वरला फॅमिली शिफ्ट करेपर्यंतचा साधारण एक वर्षाचा काळ आम्हा उभयतांच्या दृष्टीने खरंच कसोटी पहाणारा होता. माझ्यापेक्षाही जास्त माझ्या बायकोसाठी. रोजचं कॉलेज, प्रॅक्टिकल्स, अभ्यास या सगळ्याचं श्वास घ्यायलाही फुरसत नसणारं ओझं आणि शिवाय लहान मुलाची जबाबदारी! आमच्या मुलाचा, सलिलचा जन्म झाल्यानंतर तशीच परिस्थिती निर्माण झाली तेव्हा बालसंगोपनाला प्राधान्य देत कर्तव्यभावनेने तिने तिची राष्ट्रीयकृत बँकेतली नोकरी सोडली होती. तिला शैक्षणिक क्षेत्राची आवड होती आणि सलिल थोडा सुटवांगा झाला की त्यादृष्टीने प्रयत्न करण्याचे तिने ठरवले होते. त्यानुसार यावर्षी तिला सरकारी बीएड कॉलेजमधे ऍडमिशनही मिळाली होती. आणि या पार्श्वभूमीवरची माझी महाबळेश्वरला झालेली बदली! 

या सगळ्याचा आत्ता पुन्हा संदर्भ आला तो तिच्या करिअरला आणि आमच्या संसारालाही विलक्षण कलाटणी देणाऱ्या आणि त्यासाठी माझी महाबळेश्वरला झालेली बदलीच आश्चर्यकारकरित्या निमित्त ठरलेल्या, सुखद असा चमत्कारच वाटावा अशा एका घटनेमुळे)

त्याकाळी इंग्रजी हा मुख्य विषय घेऊन एम. ए. बी एड् झाल्यानंतर कोल्हापूरमधे शाळाच नव्हे तर कॉलेजमधेही सहज जॉब उपलब्ध होऊ शके. पण तिने पुढे काय करायचे याचा विचार त्या क्षणी तरी आमच्या मनात नव्हताच. त्यातच माझी महाबळेश्वरला बदली झाल्यामुळे एप्रिलमध्ये तिची परीक्षा संपताच कोल्हापूर सोडायचे हे गृहितच होते. कौटुंबिक स्वास्थ्य आणि मुलाचे संगोपन यालाच सुदैवाने तिचेही प्राधान्य होतेच. तरीही जिद्दीने एवढे शिकून आणि इच्छा असूनही तिला आवडीचे कांही करता आले नाही तर तिच्याइतकीच माझ्याही मनात रुखरुख रहाणार होतीच. पण ते स्विकारुन पुढे जायचे याशिवाय दुसरा पर्याय होताच कुठे? 

या पार्श्वभूमीवर भोवतालचा मिट्ट काळोख अचानक आलेल्या लख्ख प्रकाशझोताने उजळून निघावा अशी एक अनपेक्षित घटना घडली आणि आरतीच्या करिअरला आणि अर्थातच आमच्या संसाराला ध्यानीमनी नसताना अचानक प्रकाशवाटेकडे नेणारी दिशा मिळाली! हे सगळंच अनपेक्षित नव्हे तर अकल्पितच होतं. त्या क्षणापुरता कां होईना चमत्कार वाटावा असंच!

कोल्हापूर सोडून आम्ही सर्व घरसामान महाबळेश्वरला हलवलं. बी. एड्. चा रिझल्ट लागायला अजून कांही दिवस असूनही महाबळेश्वरला आरतीला हवी तशी एखादी चांगली नोकरी मिळण्याच्या कणभर शक्यतेचा विचार मनात आणणंही एरवी हास्यास्पदच ठरलं असतं, अशा परिस्थितीत महाबळेश्वरच्या घरी आल्यानंतरच्या चारपाच दिवसात लगेचच इंग्रजी विषयाची शिक्षिका म्हणून महाबळेश्वरच्या सरकारमान्य माध्यमिक शाळेत आरती कायमस्वरुपी रुजूही झाली!!

हा आमच्यासाठी अनपेक्षित असा सुखद धक्काच होता! यामागचा कार्यकारणभाव समजून घेतला तर ही घटनाच नव्हे तर त्या घटीतामागचं परमेश्वरी नियोजन त्याक्षणापुरतं तरी चमत्कारच वाटत राहिलं. ‘देता घेशील किती दोन कराने’ या शब्दांमधे लपलेल्या चमत्कृतीची ती प्रचिती खरंच थक्क व्हावं अशीच होती!

महाबळेश्वरस्थित ‘गिरिस्थान हायस्कूल’ आणि ‘माखरिया हायस्कूल’ या दोन्ही माध्यमिक शाळांकडून आरतीसाठी इंग्रजी शिक्षक म्हणून नवीन नोकरीच्या संधीची दारं अनपेक्षितपणे उघडली जाणं हेच मला अविश्वसनीय वाटलं होतं. बी एड् चा निकालही लागलेला नसताना, आरतीने अर्ज करणं सोडाच तिथे अशी एखादी व्हेकन्सी असल्याची पुसटशीही कल्पना नसतानाही या शाळांकडून परस्पर असाकांही प्रस्ताव येणं हे एरवीही कल्पनेच्या पलीकडचंच होतं.

या दोन्ही शाळांची मुख्य खाती स्टेट बँकेत असल्याने माझा बँक-मॅनेजर म्हणूनही त्या शाळांशी त्या अल्पकाळात ओझरताही संपर्क आलेला नव्हता. दोन्ही शाळांमधे बी. ए बी. एड् इंग्रजी शिक्षकाची एकेक जागा व्हेकेट होती आणि त्यासाठी दिलेल्या जाहिरातींना नवीन शालेय वर्ष सुरू व्हायची वेळ येऊनही कांहीच प्रतिसाद आलेला नव्हता. गिरिस्थान हायस्कूलच्या मुख्याध्यापकांनी त्यांना मिळालेल्या माहितीची शहानिशा करुन आमच्याशी संपर्क साधला आणि नोकरीसाठी लगेच अर्ज करायला सांगितलं. ही चर्चा सुरू असतानाच त्यांनी ‘व्हेकन्सी बी. ए बी. एड्’ ची असल्याने त्या एम. ए. बी एड असल्या तरी स्केल मात्र मी बी. ए. बी. एड्चंच मिळेल याची पूर्वकल्पनाही दिली. अर्थात आमच्या दृष्टीने त्याक्षणी तरी तो महत्त्वाचा मुद्दा नव्हताच. आश्चर्य म्हणजे तिथे अर्ज करण्यापूर्वीच ‘माखरिया हायस्कूल’चे मुख्याध्यापक श्री. तोडकरसर यांनी आमच्याशी त्वरीत संपर्क साधून ‘एम. ए बी. एड्’ चं स्केल द्यायची तयारी दाखवली व तसा अर्जही घेतला आणि दुसऱ्या दिवसापासूनच नोकरीवर हजर व्हायची विनंती केली. अर्थात बी. एड्चा रिझल्ट लागेपर्यंत मस्टरवर सही न करता मुलांना त्यांचं नुकसान होऊ नये म्हणून मोफत शिकवण्याची त्यांची विनंती होती!

त्यांचं एकंदर मोकळं, प्रामाणिक, स्पष्ट न् आत्मविश्वासपूर्ण बोलणं आणि स्थानिक जनमानसात त्यांना असलेला आदर याचा विचार करून आम्ही त्यांचा प्रस्ताव मनापासून स्वीकारला आणि महाबळेश्वरला आल्यानंतर लगेचच आरतीचं माझ्याइतकंच बिझी शेड्यूल सुरुही झालं!

या सगळ्याच घडामोडींना स्वतः साक्षी असूनही मला हे सगळं स्वप्नवतच वाटत राहिलं होतं! 

पुढे पंधरा दिवसांनी जेव्हा बी. एड्चा रिझल्ट आला तेव्हा फर्स्ट-क्लास मिळाल्याच्या आनंदापेक्षाही इतक्या अकल्पितपणे शैक्षणिक क्षेत्रात कायमस्वरुपी कार्यरत रहायला मिळणार असल्याचा आनंद आरतीसाठी खूप मोठ्ठा होता!!

महाबळेश्वरला बदली झाल्याची आॅर्डर माझ्या हातात आली होती तो दिवस आणि मनाला कृतार्थतेचा स्पर्श झालेला हा दिवस या दोन दिवसांदरम्यानचा प्रत्येक क्षण न् क्षण पुन्हा जिवंत झाला माझ्या मनात! त्या त्या वेळचे कसोटी पहाणारे क्षण, वेळोवेळी तात्पुरता फायदा पाहून किंवा नाईलाजाने नव्हे तर अंत:प्रेरणेने आम्ही घेतलेले निर्णय, क्षणकाळापुरती कां असेना पण अनेकदा अनिश्चिततेपोटी मनात निर्माण झालेली अस्वस्थता,.. आणि नंतर ‘त्या’चा विचार मनात येताच मन भरुन राहिलेली निश्चिंतता सग्गळं सग्गळं याक्षणी मनात जिवंत झालं पुन्हा. या सगळ्याच घटीतांच्या रुपात प्रत्येकवेळी ‘मी आहे’ हा ‘तो’ देत असलेला दिलासा मला आश्वस्त करीत होता..!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #246 – लघुकथा – अनूठी बोहनी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा अनूठी बोहनी” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #246 ☆

☆ लघुकथा – अनूठी बोहनी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ होने को आई किन्तु आज एक पैसे की बोहनी तक नहीं हुई रामदीन की।

बाँस एवं उसकी खपच्चियों से बने फर्मे के टंग्गन में गुब्बारे, बाँसुरियाँ, और फिरकी, चश्मे आदि करीने से टाँग कर वह रोज सबेरे घर से निकल पड़ता है।

गली, बाजार, चौराहे व घरों के सामने कभी बाँसुरी बजाते, कभी फिरकी घुमाते और कभी फुग्गों को हथेली से रगड़ कर आवाज निकालते ग्राहकों/ बच्चों का ध्यान अपनी ऒर आकर्षित करता है रामदीन बच्चों के साथ छुट्टे पैसों की समस्या के हल के लिए वह अपनी  बाईं जेब में घर से निकलते समय ही कुछ चिल्लर रख लेता है। दाहिनी जेब आज की बिक्री के पैसों के लिए खाली होती।

आज कोई बिक्री न होने से खिन्न मन  रामदीन अँधेरा होने से पहले घर लौटते हुए रास्ते में एक पुलिया पर कुछ देर थकान मिटाने के लिए बैठकर बीड़ी पीने लगा। उसी समय सिर पर एक तसले में कुछ जलाऊ उपले और लकड़ी के टुकड़े रखे मजदुर सी दिखने वाली एक महिला एक हाथ से ऊँगली पकड़े एक बच्चे को लेकर उसी पुलिया पर सुस्ताने लगी।

गुब्बारों पर नज़र पड़ते ही वह बच्चा अपनी माँ से उन्हें दिलाने की जिद करने लगा। दो-चार बार समझाने के बाद भी बालक मचलने लगा, तो उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए उसे डाँटने लगा दी कि,

“दिन भर मजूरी करने के बाद जरा सी गलती पर ठेकेदार ने आज पूरे दिन के पैसे हजम कर लिए और तुझे फुग्गों की पड़ी है।” बच्चा रोने लगता है।

पुलिया के एक कोने पर बैठे रामदीन का इन माँ-बेटे पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही था।

वह उठा और रोते हुए बच्चे के पास गया। एक गुब्बारा, एक बाँसुरी और एक फिरकी उसके हाथों में दे कर सर पर हाथ रख उसे चुप कराया। फिर अपनी बाईं जेब में हाथ डालकर  उसमें से इन तीनों की कीमत के पैसे निकाले और अपनी दाहिनी जेब में रख लिए।

अचानक हुई इस अनूठी और सुखद बोहनी से प्रसन्न मन मुस्कुराते हुए रामदीन घर की ओर चल दिया।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 70 ☆ मन बावरा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “तुमसे हारी हर चतुराई…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 70 ☆ मन बावरा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

बाँसुरी पर किसी ने

अधर रख दिए

भोर का मन खिला

बावरा हो गया।

*

देह गोकुल हुई

साँस का वृंदावन

फिर महकने लगा

गंध राधा का मन

*

रास रचती रहीँ

कामना गोपियाँ

सारा मधुवन छवि

साँवरा हो गया।

 * 

तट तनुजा के

हैं खिलखिलाने लगे

वृक्ष सारे ही

जल में नहाने लगे

*

चोंच भर ले

उजाले की पहली किरन

बृज का आँगन

पावन धरा हो गया।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 74 ☆ शराफ़त का उतारो तुम न जेवर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भावप्रवण विचारणीय रचना “शराफ़त का उतारो तुम न जेवर...“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 74 ☆

✍ शराफ़त का उतारो तुम न जेवर... ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

हमेशा तौलिए हर बात लोगो

करे दिल पर बड़ा आघात लोगो

 *

नदी तालाब दरिया और सागर

सभी कतरे की है सौगात लोगो

 *

ख़ुशी खाँसी खुनस मदिरा मुहब्बत

छुपा सकते नहीं ज़ज़्बात लोगो

 *

बचा सकते हैं तन मन बारिशों से

भिगो दे आँखों की है बरसात लोगो

 *

शराफ़त का उतारो तुम न जेवर

कोई दिखलाय जब औकात लोगो

 *

सबेरे पर यकीं रखिये वो होगा

नहीं रहना है गम की रात लोगो

 *

न इनका दीन औ ईमान कोई

नहीं हैवान की है जात लोगो

 *

यकीं है जीत पर मुझको मिलेगी

हुई शह है नहीं ये मात लोगो

 *

अरुण आनंद लेता इनको गाकर

भजन प्रेयर या होवें नात लोगो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 45 ☆ व्यंग्य – “स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” ।)

☆ शेष कुशल # 45 ☆

☆ व्यंग्य – “स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” – शांतिलाल जैन 

दुःखी मन से स्मृति शेष लिखने बैठा हूँ. पत्रकारिता के अवसान की घटना सामान्य नहीं है. अभी समाज को उसकी जरूरत थी, दुःखद है कि वह अब हमारे बीच नहीं रही.

यूँ तो आर्यावर्त में लगभग दो सौ साल का जीवन जिया था उसने लेकिन उसके असमय चले जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति कर पाना मुश्किल है. हालाँकि कुछ सिरफिरे और जिद्दी पत्रकार टाईप लोग यू ट्यूब और इन्टरनेट पर उसकी याद को जिलाए रखने की कोशिश कर रहे हैं मगर वे इन्फ्लुएंस नहीं कर पा रहे. और जो इन्फ्लुएंसर हैं उन्होंने उसका पुनर्जन्म नहीं होने देने की सुपारी ले रखी है. उसने आर्यावर्त में, कलकत्ता में, 1826 में जन्म लिया मगर दम तोड़ा नई दिल्ली के बहादुरशाह ज़फर मार्ग की प्रेसों में, मंडी हाउसों में, नॉएडा के स्टूडियोज़ में.

बीमार थी. दो तीन दशकों से. पिछले एक दशक में कुछ ज्यादा सीरियस हो गई थी. डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था. रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर्स की पैथ लैब से जाँच करवाई. रिपोर्ट में फ्रीडम का लेवल 180 आया. ये जानलेवा मानक से काफी ऊपर था और बढ़ता ही जा रहा था. फॉरेन तक के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया. पेशेंट के तौर पर वह बिलकुल कोऑपरेट नहीं कर रही थी. टॉक्सिक्स अन्दर ही अन्दर बढ़ते जा रहे थे. निज़ाम ने ईलाज के जो इंतज़ामात किए उससे दाल और पतली होती चली गई. समझ में नहीं आया कि निज़ाम तबीयत ठीक करने में लगा है कि बिगाड़ने में.

बहरहाल, सिम्पटम्स तो बहुत समय पहले से उभरने लगे थे. पाठकों की अखबारों में, समाचार चैनलों में घटती रूचि, छीजता भरोसा, समाचारों की शक्ल में परोसे गए विज्ञापन, खरीदे गए न्यूज स्पेस के गोल गोल लाल चकते पूरे शरीर पर उभर आए थे. लग रहा था कि अब ये बचेगी नहीं. शरीर अलग पीला पड़ता जा रहा था. यलो जर्नालिज्म डायग्नोस हुआ. दुलीचंद बैद से चूने के पानी में संपादकों के हाथ धुलवाए, संवाददाताओं को सलीम मियाँ से झड़वाया, फोटो जर्नलिस्ट को तेजाजी महाराज की पाँच जात्रा करवाई, मगर कोई फायदा नहीं हुआ. हेपेटाईटिस वायरस के पॉलिटिकल वेरियंट ने उसका लीवर इतना खराब कर दिया था कि होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, यूनानी कोई पैथी काम नहीं आई. एडिटर्स गिल्ड के मंदिर में ले गए, मन्नत मानी, न्यूज ब्रॉडकास्टर एंड डिजिटल एसोसिएशन के दरबार में ले गए वहाँ भी कृपा नहीं बरसी. कोई मंदिर, ओटला, मज़ार, बाबाजी का दरबार नहीं छोड़ा जहाँ ले नहीं गए. बिगड़ती सेहत का असर उसके दिमाग पर भी आ गया था. फिर उसे हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगे. रात नौ बजते ही वो जोर जोर से चिल्लाने लगती. प्राईम टाईम में बेसिरपैर के सवाल पूछती, आधे सच्चे आधे झूठे फेक्ट्स रखने लगती. कभी कभी पैनलिस्टों से गाली गलौच पर उतर आती. लोगों का मानना था कि उस पर निज़ाम की प्रेत-छाया है. किसी ने बताया प्रेस परिषद् के ओटले पे ले जाओ. बाबाजी कोड़े मार कर ऊपरी हवा का ईलाज करते हैं. ले गए साहब, वहाँ भी कुछ नहीं हुआ. प्रेस परिषद् के पास कोड़ा था ही नहीं, ‘कंडेम’ करने का परचा लिख कर उनने घर भेज दिया.

एक बार उसको दिमाग के डॉक्टर को भी दिखाया. मनोचिकित्सक. उसने बताया कि वो डर गई है. जब निज़ाम ने कुछ को अन्दर किया, कुछ के विज्ञापन रोक दिए, कुछ के मोबाइल, लैपटॉप जब्त किए तो किसी किसी को जहन्नुम का रास्ता दिखाया तब फियर सायकोसिस का शिकार हो गई. इस कदर कि उसने ‘फेक्ट’ और ‘फेक’ में अपने विवेक का इस्तेमाल करना छोड़ दिया, पॉवरफुल का ‘फेक’ भी ‘फेक्ट’नुमा आने लगा और पॉवरलेस का ‘फेक्ट’ भी ‘फेक’ की शक्ल में.  मुझे याद है एक बार आईसीयू में थोड़ा सा एकांत पाकर उसने कहा था कि वह ईमानदार काम करना चाहती है मगर कर नहीं पा रही. थोड़ी ईमानदार कोशिश की, ‘गोंजो पत्रकारिता’ करने से इंकार कर दिया तो उसे हैक, प्रेस्टीट्यूट और न जाने क्या क्या कहा गया. बड़ा सदमा तब लगा जब उसे कंटेंट राइटर, कंटेंट मैनेजर कहा गया. शायद यही उसके डीप-डिप्रेशन में जाने की वजह रही होगी.

जितने मुँह उतनी बातें साहब. कोई कोई कहते कि रोज़मर्रा की खुराक की जिम्मेदारी बदलने से उसकी सेहत बिगड़ी. कभी उसे खाना-खुराक स्वतंत्र मिडिया हाऊस दिया करते थे, फिर यह जिम्मा कार्पोरेट्स से होते हुए कांग्लोमरेट्स तक आ गया. उसके बाद से उसकी सेहत तेज़ी से बिगड़ी. खाना-खुराक में कमी और प्रॉफिट लाने के दबाव में वह बीमार होती चली गई. गांधी, अंबेडकर, नेहरू के शुरू किए गए अखबारों से मिला खून कब का पानी हो चुका था. गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी तक बहुत कुछ ठीक चला. कष्ट तो उसने जीवनभर सहे मगर दम नहीं तोड़ा था. इमरजेंसी में मौत के मुँह में जाकर वापस आ गई. लेकिन इस बार बीमार पड़ी तो ऐसी कि संभली ही नहीं. एक समय वह इतनी तंदुरुस्त, हौंसलामंद और साहसी थी कि अकबर इलाहाबादी के बोल ने नारे की शक्ल अख्तियार कर ली – ‘जब तोप हो मुकबिल तो अख़बार निकालो.’ बीते दिनों दुर्बलता इतनी आ गई थी कि मामूली से नेता-प्रवक्ता ‘टॉय-गन’ की आवाज़ से डरा लेते. एक दो बार उसने पीठ में दर्द की शिकायत की तो आकाओं ने उसकी रीढ़ की हड्डी ही निकलवा दी. दरबार में रेंग-रेंग कर चलते चलते उसकी ठुड्डी, कोहनी, घुटनों, पर घाव पड़ गए थे, उसमें पेड-न्यूज का मवाद रिसने लगा था. एक बार वो रेंगने की मुद्रा में आई तो फिर खड़ी कभी नहीं हो पाई.

अन्दर की बात तो ये साहब कि उसको नशे लत लग गई थी. प्रॉफिट के नशे में रहने के लिए उसने टीआरपी नाम का ड्रग लेना शुरू कर दिया था. एडिक्ट हो गई थी. वो चौबीस घंटे टीआरपी की तलाश में रहती. थोड़ा भी नशा उतरा कि फिर जोर जोर से चिल्लाने लगती, वायलेंट हो जाती, हाथ पैर मारने लगती, पुड़िया खरीदने के लिए नैतिक अनैतिक कुछ नहीं देखती. नशा खरीदने के लिए उसने अपनी कलम तक गिरवी रख दी. पैथोलॉजिस्ट ने कहा कि टीआरपी के नशे की लत से उसका मस्तिष्क गल गया है. तो मरना तो था ही. मल्टीपल ऑर्गन फेल्योर हो चुकने के बाद भारी मन से उसे मृत घोषित करना पड़ा.

उसके अवसान की वजह एक रही हो या एक से ज्यादा, सच तो यह है कि वह अब हमारे बीच नहीं हैं. दो शताब्दी पूर्व आर्यावर्त के नभ पर जिस ‘उदंत मार्तण्ड’ का उदय हुआ था वह अब अस्त हो गया है. हमारी सेहत का दारोमदार उसके स्वास्थ्य पर टिका था. पता नहीं लोकतान्त्रिक समाज के तौर पर उसके बिना हम स्वस्थ कैसे रह पाएँगे? उसे विनम्र श्रद्धांजलि.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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