(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण गीतिका “हम जो समझ रहे अपना है…”। )
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सिर्फ हंसने के लिये है.
बहुत दिनों के बाद असहमत की मुलाकात बाज़ार में चौबे जी से हुई, चौबे जी के चेहरे की चमक कह रही थी कि यजमानों के निमंत्रणों की बहार है और चौबे जी को रोजाना चांदी की चम्मच से रबड़ी चटाई जा रही है. वैसे अनुप्रास अलंकार तो चटनी की अनुशंसा करता है पर चौबे जी से सिर्फ अलंकार ज्वेलर्स ही कुछ अनुशंसा कर सकता है. असहमत के मन में भी श्रद्धा, ?कपूर की भांति जाग गई. मौका और दस्तूर दोनों को बड़कुल होटल की तरफ ले गये और बैठकर असहमत ने ही ओपनिंग शाट से शुरुआत कर दी.
चौबे जी इस बार तो बढिया चल रहा है,कोरोना का डर यजमानों के दिलों से निकल चुका है तो अब आप उनको अच्छे से डरा सकते हो,कोई कांपटीशन नहीं है.
चौबे जी का मलाई से गुलाबी मुखारविंद हल्के गुस्से से लाल हो गया. धर्म की ध्वजा के वाहक व्यवहारकुशल थे तो बॉल वहीँ तक फेंक सकते थे जंहां से उठा सकें. तो असहमत को डपटते हुये बोले: अरे मूर्ख पापी, पहले ब्राह्मण को अपमानित करने के पाप का प्रायश्चित कर और दो प्लेट रबड़ी और दो प्लेट खोबे की जलेबी का आर्डर कर.
असहमत: मेरा रबडी और जलेबी खाने का मूड नहीं है चौबे जी, मै तो फलाहारी चाट का आनंद लेने आया था.
चौबे जी: नासमझ प्राणी, रबड़ी और जलेबी मेरे लिये है, पिछले साल का भी तो पेंडिंग पड़ा है जो तुझसे वसूल करना है.
असहमत: चौबे जी तुम हर साल का ये संपत्ति कर मुझसे क्यों वसूलते हो, मेरे पास तो संपत्ति भी नहीं है.
चौबे जी: ये संपत्ति टेक्स नहीं, पूर्वज टेक्स है क्योंकि पुरखे तो सबके होते हैं और जब तक ये होते रहेंगे, खानपान का पक्ष हमारे पक्ष के हिसाब से ही चलेगा.
असहमत: पर मेरे तो पिताजी, दादाजी सब अभी इसी लोक में हैं और मैं तो घर से उनके झन्नाटेदार झापड़ खाकर ही आ रहा हूं, मेरे गाल देखिये, आपसे कम लाल नहीं है वजह भले ही अलग अलग है.
चौबेजी: नादान बालक, पुरखों की चेन बड़ी लंबी होती है जो हमारे चैन का स्त्रोत बनी है. परदादा परदादी, परम परदादा आदि आदि लगाते जाओ और समय की सुइयों को पीछे ले जाते जाओ. धन की चिंता मत कर असहमत, धन तो यहीं रह जायेगा पर ब्राह्मण का मिष्ठान्न भक्षण के बाद निकला आशीर्वाद तुझे पापों से मुक्त करेगा. ये आशीर्वाद तेरे पूर्वज तुझे दक्षिणा से संतुष्ट दक्षिणमुखी ब्राह्मण के माध्यम से ही दे पायेंगे.
असहमत बहुत सोच में पड़ गया कि पिताजी और दादाजी को तो उसकी पिटाई करने या पीठ ठोंकने में किसी ब्राह्मण रूपी माध्यम की जरूरत नहीं पड़ती.
उसने आखिर चौबे जी से पूछ ही लिया: चौबे जी, हम तो पुनर्जन्म को मानते हैं, शरीर तो पंचतत्व में मिल गया और आत्मा को अगर मोक्ष नहीं मिला तो फिर से नये शरीर को प्राप्त कर उसके अनुसार कर्म करने लगती है तो फिर आपके माध्यम से जो आवक जावक होती है वो किस cloud में स्टोर होती है. सिस्टम संस्पेंस का बेलेंस तो बढता ही जा रहा होगा और चित्रगुप्तजी परेशान होंगे आउटस्टैंडिंग एंट्रीज़ से.
चौबे जी का पाला सामान्यतः नॉन आई.टी. यजमानों से पड़ता था तो असहमत की आधी बात तो सर के ऊपर से चली गई पर यजमानों के लक्षण से दक्षिणा का अनुमान लगाने की उनकी प्रतिभा ने अनुमान लगा लिया कि असहमत के तिलों में तेल नहीं बल्कि तर्कशक्ति रुपी चुडैल ने कब्जा जमा लिया है.तो उन्होंने रबड़ी ओर जलेबी खाने के बाद भी अपने उसी मुखारविंद से असहमत को श्राप भी दिया कि ऐ नास्तिक मनुष्य तू तो नरक ही जायेगा.
असहमत: तथास्तु चौबे जी, अगर वहां भी मेरे जैसे लोग हुये तो परमानंद तो वहीं मिलेगा और कम से कम चौबेजी जैसे चंदू के चाचा को नरक के चांदनी चौक में चांदी की चम्मच से रबड़ी तो नहीं चटानी पड़ेगी.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १४ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
✈️ भूतान – सौंदर्याची सुरेल तान – भाग २ ✈️
पुनाखा व्हॅली इथे जाताना दहा हजार फूट उंचीवरील दो_चुला पास (खिंड ) इथे उतरलो. इथले चार्टेन मेमोरियल म्हणजे छोटे गोलाकार १०८ स्तूप सैनिकांचे स्मारक म्हणून उभारलेले आहेत. इथून हिमालयाच्या बर्फाच्छादित शिखरांचे नयनमनोहर दर्शन होते. पुढे घाटातून उतरत जाणारा वळणावळणांचा रस्ता लागला. छोट्या छोट्या घरांचे पुंजके दरीभर विखुरलेले आहेत. पुनाखा ही १६३७ पासून १९३७ पर्यंत म्हणजे अडीचशे वर्षाहून अधिक काळ भूतानची राजधानी होती.फोचू आणि मोचू या दोन नद्यांच्या संगमावर वसलेले हे सुरम्य स्थान आहे. इथे मोनेस्ट्री व त्याला जोडून लाकडी बांधणीचा कलाकुसरीने सजलेला देखणा राजवाडा आहे. अजूनही राजघराण्यातील विवाह इथे संपन्न होतात. इथली थांका म्हणजे रेशमी कापडावर धार्मिक रीतिरिवाजांचे चित्रण करणारी चित्रे अजूनही आपले रंग टिकवून आहेत. जपान, कोरिया, बँकॉक अशा अनेक देशातील प्रवासी बुद्ध दर्शनासाठी आले होते. छोटी मुले भिक्षू वेष परिधान करून बौद्ध धर्माचे शिक्षण घेत होती. नद्यांच्या संगमावर कलापूर्ण लाकडी पूल उभारला आहे.
पुनाखाहून पारो व्हॅलीला जाताना वाटेत अनेक ठिकाणी संत्री, लाल सोनेरी सफरचंद आणि याकचे चीज विक्रीला होते. या पारो व्हॅलीमध्ये भाताचे उत्तम पीक येते. जोरदार पावसाला सुरूवात झाली होती. उंचावरील हॉटेलच्या पायऱ्या चढून गेलो. गरम- गरम जेवण मिळाले. सकाळी एका पक्ष्याच्या मधुर आवाजाने जाग आली. हिरवागार कोट आणि बर्फाची हॅट घातलेली पर्वत शिखरे कोवळ्या उन्हात चमकत होती. आवरून पारो एअरपोर्ट पॉईंटवर पोचलो. आम्ही उभे होतो त्या उंच कड्यावरून संपूर्ण एअरपोर्ट दिसत होता. कड्याखाली पारो-चू नदी खळाळत वाहत होती. नदीकाठाला समांतर सिमेंट कॉंक्रिटचा दहा फूट रुंद रस्ता होता. त्याला लागून असलेल्या हिरवळीच्या लांबट पट्ट्यावर एअरपोर्ट ऑफिसच्या दोन लहान इमारती होत्या. त्यांच्या पुढ्यात छोटासा रनवे. पलीकडील हिरव्या लांबट पट्ट्यावर असलेल्या दोन- तीन छोट्या इमारती, त्यांच्यामागच्या डोंगर उतरणीला टेकून उभ्या होत्या.
‘वो देखो, आ गया, आऽऽगया’ ड्रायव्हरने दाखविलेल्या दिशेने आमच्या नजरा वळल्या. उजवीकडील दोन डोंगरांच्या फटीतून प्रखर प्रकाशझोत टाकीत एक विमान एखाद्या पंख पसरलेल्या परीसारखे अवतीर्ण झाले आणि एका मिनिटात डावीकडील दोन डोंगरांच्या फटीत अदृश्य झाले. आश्चर्याने डोळे विस्फारलेले असतानाच, यू टर्न घेऊन ते विमान माघारी आले आणि पारो एअरपोर्टच्या छोट्याशा धावपट्टीवर अलगद टेकले. घरंगळत थोडेसे पुढे जाऊन विसावले. उत्स्फूर्तपणे टाळ्या वाजवून आम्ही वैमानिकाच्या कौशल्याला दाद दिली. चारी बाजूंच्या हिरव्या- निळ्या डोंगररांगांच्या तळाशी विमान उतरले तेव्हा एखाद्या हिरव्या कमळावर पांढरेशुभ्र फुलपाखरू पंखावरील, पोटावरील लाल काळे ठिपके मिरवत डौलदारपणे बसल्यासारखे वाटले.
पारोच्या खोल दरीतील हा आंतरराष्ट्रीय विमानतळ आशियातील सर्वात लहान विमानतळ आहे. प्रवासी वाहतुकीच्या दृष्टीने हा विमानतळ सर्व जगात आव्हानात्मक समजला जातो. एकच छोटा रनवे असलेल्या या विमानतळावर ‘ड्रक एअर’ या भूतानच्या मालकीच्या विमानकंपनीची दिवसभरात फक्त तीन ते चार विमाने बँकॉक, नेपाळ, कलकत्ता, मुंबई इथून येतात. सर्व उड्डाणे दिवसाउजेडीच करण्याचा नियम आहे. एअरपोर्ट ऑफिस दुपारी तीनला बंद होते. या विमानांचे पायलट विशेष प्रशिक्षित असतात. जवळजवळ आठ हजार फूट उंचीवर हा विमानतळ आहे. अठरा हजार फूट उंच पर्वतरांगातून विमान अलगद बाहेर काढून ते डोंगरांच्या तळाशी १९८० मीटर्स एवढ्याच लांबीच्या रनवेवर उतरविणे आणि तिथून उड्डाण करणे हे निःसंशय बुद्धीकौशल्याचं, धाडसाचं काम आहे.जगभरातील फक्त आठ-दहा पायलट्सना इथे विमान चालविण्याचा परवाना आहे. वर्षभरात साधारण तीस हजार प्रवाशांची वाहतूक होते आणि अर्थातच या सेक्टरचे विमान तिकिटही या साऱ्याला साजेसे महाग असते.
एक चित्तथरारक घटना चक्षूर्वैसत्यम अनुभवून आम्ही गाडीत बसण्यासाठी वळलो. विमान उतरत असतानाच रिमझिम पावसाला सुरुवात झाली होती. तसा तो काल संध्याकाळपासून थांबून थांबून पडतच होता. पावसामुळे बोचरी थंडी वाढली होती. डोळे भरून समोरचे दृश्य मनात, कॅमेऱ्यात साठवून आम्ही गाडीत बसणार तो काय आश्चर्य, लागोपाठ दुसरे विमान आले. त्याचे स्वर्गावतरण होऊन ते हँगरला जाईपर्यंत तिसरे विमानसुद्धा आले. आनंदाश्चर्यात आम्ही बुडून गेलो.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है सजल “सीमा पर प्रहरी खड़े…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह “जीवन वीणा” – की समीक्षा।
पुस्तक चर्चा
पुस्तक :जीवन वीणा ( काव्य संग्रह)
कवियत्री : सुश्री अनीता श्रीवास्तव
प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज
मूल्य : १५० रु
पृष्ठ : १५०
आई एस बी एन ९७८.९३.८८५५६.१२.५
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆
जीवन सचमुच वीणा ही तो है. यह हम पर है कि हम उसे किस तरह जियें. वीणा के तार समुचित कसे हुये हों, वादक में तारों को छेड़ने की योग्यता हो तो कर्णप्रिय मधुर संगीत परिवेश को सम्मोहित करता है. वहीं अच्छी से अच्छी वीणा भी यदि अयोग्य वादक के हाथ लग जावे तो न केवल कर्कश ध्वनि होती है, तार भी टूट जाते हैं. अनीता श्रीवास्तव कलम और शब्दों से रोचक, प्रेरक और मनहर जीवन वीणा बजाने में नई ऊर्जा से भरपूर सक्षम कवियत्री हैं.
उनकी सोच में नवीनता है… वे लिखती हैं
” घड़ी दिखाई देती है, समय तू भी तो दिख “.
वे आत्मार्पण करते हुये लिखती हैं…
” लो मेरे गुण और अवगुण सब समर्पण, ये तुम्हारी सृष्टि है मैं मात्र दर्पण, …. मैं उसी शबरी के आश्रम की हूं बेरी, कि जिसके जूठे बेर भी तुमको ग्रहण “.
उनकी उपमाओ में नवोन्मेषी प्रयोग हैं. ” जीवन एक नदी है, बीचों बीच बहती मैं…. जब भी किनारे की ओर हाथ बढ़ाया है, उसने मुझे ऐसा धकियाया है, जैसे वह स्त्री सुहागन और पर पुरुष मैं “.
गीत, बाल कवितायें, क्षणिकायें, नई कवितायें अपनी पूरी डायरी ही उन्होने इस संग्रह में उड़ेल दी है. आकाशवाणी, दूरदर्शन में उद्घोषणा और शिक्षण का उनका स्वयं का अनुभव उन्हें नये नये बिम्ब देता लगता है, जो इन कविताओ में मुखरित है. वे स्वीकारती हैं कि वे कवि नहीं हैं, किन्तु बड़ी कुशलता से लिखती हैं कि “कविता मेरी बेचैनी है, मुझे तो अपनी बात कहनी है “.
कहन का उनका तरीका उन्मुक्त है, शिष्ट है, नवीनता लिये हुये है. उन्हें अपनी जीवन वीणा से सरगम, राग और संगीत में निबद्ध नई धुन बना पाने में सफलता मिली है. यह उनकी कविताओ की पहली किताब है. ये कवितायें शायद उनका समय समय पर उपजा आत्म चिंतन हैं.
उनसे अभी साहित्य जगत को बहुत सी और भी परिपक्व, समर्थ व अधिक व्यापक रचनाओ की अपेक्षा करनी चाहिये, क्योंकि इस पहले संग्रह की कविताओ से सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी की क्षमतायें स्पष्ट दिखाई देती हैं. जब वे उस आडिटोरियम के लिये अपनी कविता लिखेंगी, अपनी जीवन वीणा को छेड़कर धुन बनायेंगी जिसकी छत आसमान है, जिसका विस्तार सारी धरा ही नहीं सारी सृष्टि है, जहां उनके सह संगीतकार के रूप में सागर की लहरों का कलरव और जंगल में हवाओ के झोंकें हैं, तो वे कुछ बड़ा, शाश्वत लिख दिखायेंगी तय है. मेरी यही कामना है.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “सोलह श्रृंगार ”। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 101 ☆
लघुकथा – सोलह श्रृंगार
आज करवा चौथ है। और शाम को बहुत ढेर सारे काम है। ब्यूटी पार्लर भी जाना हैं। रसोई में देखना है कि बाई आज क्या बना रही है।
श्रेया मेम साहब सोचते – सोचते अपनी धुन पर बोले जा रही थीं। सुबह के नौ बज गए हैं महारानी (काम वाली बाई) अभी तक आई नहीं है। उसी समय दरवाजे की घंटी बजी।
जल्दी से दरवाजा खोल वह बाई को अंदर आने के लिए कहतीं हैं। मेम साहब नमस्ते ? किचन में जाते -जाते बाई कमला ने आवाज लगाई।
श्रेया मेम की नजर बाई पर पड़ी तो वह उसे देखते ही रह गई, कान में झुमके, पांव में पायल, हाथों में कांच की चुडिंयों के साथ सुंदर चमकते कंगन। वह दूसरे दिन से बहुत अलग और सुंदर लग रही थी।
वह आवाक हो बोल उठी… क्या बात है कमला आज तो… बीच में बात काटकर कमला बोली… मेरा आदमी सही बोल रहा था… हम गरीब हैं तो क्या हुआ आज तुम इन नकली गहनों में बहुत सुन्दर लग रही हो । बहुत प्यार करता है मुझे आज मेरे लिए व्रत भी रखा है।
हम गरीबों के पास एक दूसरे का साथ ही होता है। मेम साहब जीने के लिए। सच बताऊँ मेरे पति ने रोज की अपनी कमाई से महिने भर थोड़ा थोड़ा बचा कर चुपचाप आज मेरे लिए ठेले वाले से ये सब लिया है।
मै भी सोलह श्रंगार कर शाम को पूजन करुंगी। उसने मुझे सुबह से पहना दिया। बहुत खुश हो वह बोले जा रहीं थीं। श्रेया को लाखों के जेवर और ब्यूटी पार्लर जाकर भी इतनी खुशी नहीं मिलती, जितना आज कमला नकली जेवर पहन चहक रही है।
श्रेया मेम साहब की आंखों से आंसू बहनें लगे, पेपर से मुंह छिपाते दूसरे कमरे में जाकर फोन करने लगी। शायद अपने पति देव को जिनसे महीनों से कोई बात नहीं हुई थी।
दोनों अपनी – अपनी सोसाइटी और दिखावे पर गृहस्थी चला रहे थें। उन्हें कमला की बातें सुनाई दे रही थी.. मेरा पति मुझे बहुत प्यार करता है मेम साहब!!!!!!!
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
? जीवेम शरदः शतम ?
? वरिष्ठतम साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार सुमित्र जी को उनके 83वें जन्मदिवस पर सादर प्रणाम एवं हार्दिक शुभकामनाएं ?