हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #92 ☆ # क्या रावण जल गया? # ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण कविता  “#क्या रावण जल गया?#। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #92 ☆ # क्या रावण जल गया? # ☆

हर साल जलाते हैं रावण को,

फिर भी अब-तक जिंदा है।

वो लंका छोड़ बसा हर मन में,

मानवता शर्मिंदा हैं।

हर साल जलाते रहे उसे,

फिर भी वो ना जल पाया।

जब हम लौटे अपने घर को,

वो पीछे पीछे घर आया।

शहर गांव ना छूटा उससे,

सबके मन में समाया।

मर्यादाओं की चीर हरे वो,

मानवता चित्कार उठी।

कहां गये श्री राम प्रभु,

सीतायें  उन्हें पुकार उठी।

अब हनुमत भी लाचार हुए,

निशिचरों ने उनको  फिर बांधा।

निशिचर  घूम रहे गलियों में,

है कपट वेष अपना‌ साधा।,

कामातुर जग में घूम रहे,

आधुनिक बने ये  नर-नारी।

फिर किसे दोष दे हम अब,

है फैशन से सबकी यारी।

आधुनिक बनी जग की नारी

कुल की मर्यादा लांघेगी।

फैशन परस्त बन घूमेगी,

लज्जा खूंटी पर टांगेगी।

जब लक्ष्मण रेखा लांघेगी,

तब संकट से घिर जायेगी।

फिर हर लेगा कोई रावण,

कुल में दाग लगायेगी।

कलयुग के  लड़के राम नहीं,

निशिचर,बन सड़क पे ‌घूम रहे।

अपनी मर्यादा ‌भूल गये,

नित नशे में वह अब झूम रहे।

रावण तो फिर भी अच्छा था,

राम नाम अपनाया था।

दुश्मनी के चलते ही उसने,

चिंतन में राम बसाया था।

श्री रामने अंत में इसी लिए,

शिक्षार्थ लखन को भेजा था।

सम्मान किया था रावण का,

अपने निज धाम को भेजा था।

अपने चिंतन में हमने क्यों,

अवगुण रावण का बसाया है।

झूठी हमदर्दी दिखा दिखा,

हमने अब तक क्या पाया है।

उसके रहते  अपने मन में ,

क्या राम दरस हम पायेंगे।

फिर कैसे पीड़ित मानवता को

न्याय दिला हम पायेंगे।

इसी लिए फिर ‌बार‌ बार ,

मन के रावण को मरना होगा।

उसकी पूरी सेना का,

शक्तिहरण अब करना ‌होगा।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

18-8-2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #6 – व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #6 – व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य ,साहित्य की वह महत्वपूर्ण विधा है.जो मानवीय और सामाजिक सरोकारों से सबसे अधिक नजदीक महसूस की जाती है. व्यंग्य ही समाज में व्याप्त विसंगतियांँ, विडंबनाएँ पाखंड, प्रपंच, अवसरवादिता, ठकुरसुहाती अंधविश्वास आदि विकृतियों, कमियों को उजागर करने में सक्षम विधा है। वैसे साहित्य में कहानी, उपन्यास और कविता आदि अन्य विधा भी उक्त विकृतियों को अनावृत करती है, किंतु उसका प्रभाव समुचित ढंग से समाज में नहीं दिखता, जितना कि व्यंग्य विधा के माध्यम से. इसके पीछे व्यंग्य का फॉर्मेट, भाषा,शिल्प और विषय है. जो उसको मुकम्मल रूप से  जिम्मेदार ठहराता हैं. व्यंग्य की प्रकृति अपनी बुनाव, बनाव से सीधे-सीधे जनमानस पर प्रभाव डालता हैं. समाज और राजनीति में व्याप्त विसंगतियाँ  समाज में घुन की तरह काम करती हैं. यदि  समय रहते इसे उजागर ना किया जाए तो वह समाज में नासूर बन जाती हैं. कभी-कभी यह भी देखा गया है. कि अनेक व्यक्तियों में पाई जाने वाली प्रवृत्तियाँ भी समाज की नैतिकता चाल-ढाल रहन सहन जीवन शैली आदि को प्रभावित करती है. यह प्रवृत्तियाँ  सामाजिक, मानवीय पतन की ओर सीधे-सीधे संकेत करती हैं. यहाँ एक बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि व्यक्तिगत कमजोरियाँ भी हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं. इन प्रवृत्तियों का मानवीय और सामाजिक जीवन में परोक्ष रूप से तो नहीं पर अपरोक्ष रुप से प्रभाव गहन होता है. इसे कमतर नहीं आँका जा सकता है. पूर्व के व्यंग्यकारों ने तो प्रवृत्तियों पर धड़ल्ले से लिखा है. उसी परम्परा का अनुसरण करते हुए समकालीन व्यंग्यकार भी प्रवृत्तियों पर प्रमुखता से लिख रहे हैं. यह प्रवृत्ति मूलक लेखन ने व्यंग्य को नई दिशा देने का काम किया है. प्रवृत्तियों पर लिखे गए व्यंग्य ने पाठक को चकित तो किया है और चमत्कृत भी. इस प्रकार की लेखन ने बरसात के प्रारंभिक दिनों की झड़ी से भींगी मिट्टी की सौगंध का अनुभव दिया है. यह प्रवृत्ति निंदा की हो सकती है. ठकुर सुहाती की हो सकती है. अन्याय, प्रपंच के पक्ष में चुप रहने की भी हो सकती है. इस प्रकार की प्रवृत्ति अन्याय प्रपंच निंदा आदि करने वालों से अधिक खतरनाक होती है. इनके पक्ष में चुप रहना .इन को प्रोत्साहित करने के समान होता है. इससे उन शक्तियों को बल मिलता है और वे बल पाकर अधिक दमदार होकर समाज को ऋणात्मक रुप से  प्रभावित करती है. अगर प्रारंभ में ही इन विकृति जन्य  प्रवृत्तियों को कुचल दिया जाए तो समाज और मनुष्य को बचाने में अधिक कारगर हुआ जा सकता हैं. इस कारण  प्रवृति पर बहुतायत से व्यंग्य लिखा जा रहा है पाठक इसे पसंद भी कर रहे हैं. इसका लाभ यह दिख रहा है कि पाठक विकृतियों से अपने को बचाकर भी रखना चाह रहे है.

प्रवृत्ति में व्यंग्य लेखन कब से प्रारंभ हुआ. यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है. पर हरिशंकर परसाई ने प्रचुर मात्रा में लिखा और इस प्रकार के व्यंग्य को सामाजिक संदर्भ में जोड़कर देखने का नया आयाम दिया. इसमें पाठक की भी रूचि बढ़ी. पत्र-पत्रिकाओं ने इसे हाथों हाथ लिया है .पाठक और पत्र-पत्रिकाओं में इस नई दृष्टि को आधारशिला के समान गंभीरता से लिया. जो प्रवृत्ति पर लेखन के लिए सहायक सिद्ध हुई. इस कारण अधिकांश व्यंग्य लेखकों ने अन्य विषयों की अपेक्षा इसे सहज सरल और प्रभावशाली माना. इसे प्रवृत्ति मूलक लेखन का प्रभाव ही कहा जा सकता है. हरिशंकर परसाई जी की चर्चित रचना “पवित्रता का दौरा “से अच्छे से समझ सकते हैं. वे लिखते हैं..

‘इधर ही मोहल्ले में सिनेमा बनने वाला था तो शरीफों ने बड़ा हल्ला मचाया. शरीफों का मुहल्ला है. यहाँ  शरीफ स्त्रियां रहती हैं. और यहाँ सिनेमा बन रहा है. गोया सिनेमा गुंडों के मोहल्ले में बनना चाहिए ताकि इनके घरों की शरीफ औरतें सिनेमा देखने गुंडों के बीच में जाएँ. मुहल्ले में एक आदमी कहता है. उससे मिलने की एक स्त्री आती है. एक सज्जन कहने लगे – ‘यह शरीफों का मुहल्ला है. यहाँ  यह सब नहीं होना चाहिए. देखिए फलां के पास एक स्त्री आती है.’ मैंने कहा – ‘साहब शरीफों का मुहल्ला है. तभी तो वह स्त्री पुरुष मित्र से मिलने की बेखटके आती है. वह क्या गुंडों के मुहल्ले में उससे मिलने जाती है.’

इस शरीफ दिखने दिखाने का ढोंग करने वाले व्यक्ति सब जगह मिल जाएंगे. जो सदा दूसरों से बेहतर दिखने का नाटक करते हैं. यहाँ पर प्रवृत्ति अनावश्यक रूप से द्वेष पैदा करती है. इस प्रवृत्ति वाले हर जगह अड़ंगा दिखाते मिल जाएंगे. शरद जोशी की एक अद्भुत रचना है ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’, शासकीय कार्यालयों में खुशामदी प्रवृत्ति पर तीखा व्यंग्य है. वैयक्तिक प्रवृत्ति पर प्रभावशाली व्यंग्य है. यह सीधे-सीधे मानवीय प्रवृति पर चोट करता है इस प्रवृत्ति मूलक व्यंग्य से समाज प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं होता है, पर खुशामदी प्रवृत्ति शासकीय व्यक्ति या अफसरों के निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करने में सक्षम होती है. जिसका प्रभाव बाद में समाज में परिलक्षित होता देख सकते है. आरंभ में प्रवृत्तियां प्रत्यक्ष रूप में समाज को प्रभावित करने वाली नहीं दिखती है. पर शनैः शनैः इसका प्रभाव ऋणात्मक रूप से सामने आ जाता है. शरद जोशी की इस रचना ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं.’ में वे लिखते हैं

वे सचिवालय के तबादलों की ताजी खबरें सुनाते दुकान में घुस गए

सोमवार को फाइल बगल में दाबे  छोटा अफसर बड़े अफसर के कक्ष में घुसा और ‘गुड मॉर्निंग’ करने के बाद बोला- कल की पिक्चर कैसी रही! सर.

बड़ा अफसर एक मिनट गंभीर रहा. सोचता रहा क्या कहें फिर उसने कंधे उचकाए और बोल’ इट वाज ए नाइस मूवी’! ऑफ कोर्स !

दोपहर को छोटे अफसर ने अगासे को बताया कि बड़े साहब को पिक्चर पसंद आई. वह कह रहे थे कि’ इट वाज ए नाइस मूवी’

दोपहर बाद एकाएक सभी लोग ‘हु इज अफ्रेड आफ वर्जिनिया वूल्फ’ की तारीफ करने लगे .

क्यों भाई! कल की पिक्चर कैसी लगी. ‘इट वाज ए नाइस मूवी’ जवाब मिला

यह अफसरों में खुशामदी का बढ़िया उदाहरण है. यह ठकुरसुहाती की प्रवृत्ति अफसरों के निर्णय को प्रभावित करती है. जिससे अपरोक्ष रूप से समाज प्रभावित होता है. आज यह प्रवृत्ति  राजनीति क्षेत्र में बहुत आसानी से देखी जाती है. राजीव गांधी के समय में यह कहा जाता था कि वे काकस से घिरे रहते थे.

प्रवृत्तियों पर लिखे गए व्यंग्य वैयक्तिक होते हैं पर उनका शिल्प और भाषा की संरचना ऐसा होती है कि वे सर्व सामान्य से दिखने लगती हैं. आजकल प्रवृति मूलक व्यंग्य रचनाओं में एक विसंगति उभर कर आ गई है. रचना वैयक्तिक व्यंग्य की होती  है. आजकल प्रवृत्ति लिखे जा रहे व्यंग्य में व्यक्तिगत विसंगतियां अधिक है.जिन्हें लेखक प्रवृत्ति मूलक व्यंग्य कह रहा है. जबकि वह किसी व्यक्ति को केंद्र में लिखी गई हैं. कभी-कभी अनायास यह संयोग जुड़ जाता है कि व्यक्तिगत प्रवृत्तियां भी अनेक लोगों में संयोगवश  मिल जाती है.जिन्हें भी प्रवृति वाला व्यंग्य कह जाते हैं. जबकि वे व्यंग्य व्यक्तिगत खुन्नस वाले होते है. जो पढ़ने में रोचक लग सकते हैं. पर पाठक पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है जबकि प्रवृत्तिजनक व्यंग्य में सावधानी रखना जरूरी होता है. इस तरह का व्यंग्य का विषय/प्रवृत्ति  सार्वजनिक और सामाजिक जीवन में दिखने वाला होना चाहिए. अनेक व्यक्तियों की कुछ आदतें ऐसी होती हैं जो अन्यत्र नहीं दिखती हैं. तब इस पर लिखा व्यंग्य वैयक्तिक हो जाएगा. पर परसाई जी की अनेक रचनाएं व्यक्तिगत परिपेक्ष में लिखी रचनाएं हैं. पर उनका प्रस्तुतिकरण आम प्रवृत्ति का रूप ले लिया है. उनकी एक रचना ‘वैष्णव की फिसलन’  वैयक्तिक प्रवृत्ति की रचना है.एक व्यक्ति की प्रवृत्ति पर लिखी गई है आज जब उसे हम पढ़ते हैं तो लगता है कि यह अनेक लोगों में अलग-अलग ढंग से देखी जा सकती है. यहाँ पर वैयक्तिक प्रवृत्ति समान्य  व्यक्ति में परिणित हो गई है. यह व्यंग्यकार और व्यंग्य का कौशल है जो उसे सर्वजन हिताय बना दे. प्रवृत्ति पर लिखा लेखन मूल रूप से समाज और मानवीय जीवन में पनप रही प्रवृत्ति/विकृति को उजागर कर मनुष्य और मनुष्यता को बेहतर करने का पहला कदम है.

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 50 ☆ गीत – मुझे नही आता है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 49 ☆गीत – मुझे नही आता है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

लिखता तो हूँ । पर विवाद में पड़ना मुझे नही आता है

सीधी सच्ची बाते आती, गढ़ना मुझे नही आता है।

देखा है बहुतों को मैने पल-पल रंग बदलते फिर भी

मुझे प्यार अच्छा लगता है, लड़ना मुझे नहीं आता है।।

 

लगातार चलना आता है, अड़ना मुझे नही आता है

फल पाने औरो के तरू पर चढ़ना मुझे नही आता है।

देखा औरो की टांगे खीच स्वयं बढ़ते बहुतों को।

पर धक्के दे गिरा किसी को बढ़ना मुझे नहीं आता है।।

 

अपने सुख हित औरों के सुख हरना मुझे नही आता है

अपना भाग्य सजाने श्रम से डरना मुझे नहीं आता है।

देखा है देते औरों को दोष स्वयं अपनी गल्ती को

पर अपनी भूले औरों पर गढ़ना मुझे नही आता है।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…5”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

“मैं” को संसार में बांधे रखने का काम मोह करता है परंतु यह जाने-अनजाने मन का एक विकार भी बन जाता है। जब लगाव गिने-चुने लोगों से होता है, हद में होता है, सीमित होता है, तब मोह सहायक रसों का नियामक होता है। जीवन में रस घोलता है। लेकिन हितों के अटलनीय संघर्ष में मोह घना होकर “मैं” को किंकर्तव्यविमूढ़ करके कर्तव्य पथ से विच्युत करता है।

जीवन के सबसे बड़े संघर्ष में अर्जुन की यही दशा है। अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने विरोध में खड़े सभी सगे-संबंधियों को देखकर हथियार डाल दिए हैं। उसका मोह ग्रसित “मैं” कर्मपथ पर अग्रसित हो उसे युद्ध नहीं करने दे रहा है। अर्जुन पितामह, गुरु, परिजनों को सामने देख मोहग्रस्त होकर अस्त्र डाल देता है। मूल्यों के संघर्ष में वह कुछ लोगों से सम्बंधों के वशीभूत मोहग्रस्त है। मानवता कल्याण हेतु नए मूल्यों की स्थापना में संघर्ष से हिचकिचाता है। नियत कर्तव्य से पीछा छुड़ाना चाहता है।

जब “मैं” को जीवन का पहला खिलौना मिलता है तब उसमें स्वामित्व का भाव आता है। “मैं” का मेरा निर्मित होता है। यह स्वामित्व भाव ही मोह की प्रथम सीढ़ी है। फिर वह वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थान सभी से मोहग्रस्त होने लगता है। मोह के संस्कार “मैं” के चित्त में इकट्ठा होते रहते है, जिससे इसकी जड़ें पक्की हो जाती हैं और कई बार चाहकर भी वह मोह को नहीं छोड़ पाता। वह मोह को ही प्रेम मान लेता है, जैसे युवक-युवती आपस में आसक्ति को प्रेम कहते हैं, जबकि वह प्रेम नहीं, मोह है।

मां-बाप जब अपने बच्चे को प्रेम करते हैं तो वह भी मोह कहलाता है। मोह का मतलब होता है आसक्ति, जो गिने-चुने उन लोगों या चीजों से होती है जिन्हें हम अपना बनाना चाहते हैं, जिनके पास हम ज्यादा-से-ज्यादा समय गुजारना चाहते हैं। अपना स्वामित्व स्थापित करके उनकी आज़ादी छीनना शुरू कर देते हैं। पति पत्नियों में भी अक्सर ऐसा होता है।

मोह भेद पैदा करता है। मोह वहां होता है जहां हमें सुख मिलने की उम्मीद हो या सुख मिलता हो। वहाँ मैं और मेरे की भावना प्रबल रहती है। एक होता है “लौकिक प्रेम” यानी सांसारिक प्रेम और दूसरा होता है “अलौकिक प्रेम” यानी ईश्वरीय प्रेम। सांसारिक प्रेम मोह कहलाता है और ईश्वरीय प्रेम साधना कहलाता है। संसारी प्रेम च्युइंग सा चिपकाव है, चबाते रहो तब भी मोह जैसा का तैसा बना रहता है। इसी मोह की वजह से व्यक्ति कभी सुखी, तो कभी दुखी होता रहता है। जबकि ईश्वरीय प्रेम समर्पण द्वारा “मैं” की पूर्ण स्वतंत्रता।

मोह से “मैं” में संग्रह की प्रवृत्ति आती है वही प्रवृत्ति धीरे-धीरे परिग्रह में बदलने लगती है। “मैं”  ज़रूरत से अधिक संग्रह के प्रपंच में पड़ने लगता है। इस तरह “मैं” आसक्ति के चक्रव्यूह में फँस जाता है। व्यग्र बेचैन अस्थिर चित्त “मैं” की मोहग्रस्त प्रकृति हो जाती है।

मोह जन्म-मरण का कारण है क्योंकि इसके संस्कार बनते हैं, लेकिन ईश्वरीय प्रेम के संस्कार नहीं बनते बल्कि वह तो चित्त में पड़े संस्कारों के विनाश के लिए होता है। ईश्वरीय प्रेम का अर्थ है मन में सबके लिए एक जैसा भाव। जो सामने आए, उसके लिए भी प्रेम, जिसका ख्याल भीतर आए, उसके लिए भी प्रेम। परमात्मा की बनाई हर वस्तु से एक जैसा प्रेम। जैसे सूर्य सबके लिए एक जैसा प्रकाश देता है, वह भेद नहीं करता। जैसे हवा भेद नहीं करती, नदी भेद नहीं करती, ऐसे ही हम भी भेद न करें। मेरा-तेरा छोड़कर सबके साथ सम भाव में आ जाएं। अपने स्नेह को बढ़ाते जाओ। इतना बढ़ाओ कि सबके लिए एक जैसा भाव भीतर से आने लगे। फिर वह कब ईश्वरीय प्रेम में बदल जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। यही अध्यात्म का गूढ़ रहस्य है।

“मैं” के सामने प्रश्न उठता है कि मोह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ा है, जैसे स्वयं की देह, देह के दैहिक सुख, मानसिक सुख, बौद्धिक सुख, सम्मान के सुख, धन की कामना के सुख, व्यक्ति और स्थान की चाहत के सुख इत्यादि। क्या इन सारे सुखों में सन्निहित मोह से मुक्त होकर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे के पड़ाव पर पहुँच सकता है।

जीवन निर्वाह हेतु इन सभी सुख कारक अवयवों की अनिवार्यता थी। मोह के बग़ैर जीवन सम्भव ही नहीं था। सनातन परम्परा में वानप्रस्थ मोह से निकलने की तैयारी का आश्रम होता है और सन्यास मोह को त्याग देने का।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #62 – धीरे चलो ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #62 – धीरे चलो ☆ श्री आशीष कुमार

नदी के तट पर एक भिक्षु ने वहां बैठे एक वृद्ध से पूछा “यहां से नगर कितनी दूर है?

सुना है, सूरज ढलते ही नगर का द्वार बंद हो जाता है।

अब तो शाम होने ही वाली है। क्या मैं वहां पहुंच जाऊंगा?’

वृद्ध ने कहा “धीरे चलो तो पहुंच भी सकते हो।” भिक्षु यह सुनकर हैरत में पड़ गया।

वह सोचने लगा कि लोग कहते हैं कि जल्दी से जाओ, पर यह तो विपरीत बात कह रहा है।

भिक्षु तेजी से भागा। लेकिन रास्ता ऊबड़-खाबड़ और पथरीला था। थोड़ी देर बाद ही भिक्षु लड़खड़ाकर गिर पड़ा।

किसी तरह वह उठ तो गया लेकिन दर्द से परेशान था।

उसे चलने में काफी दिक्कत हो रही थी। वह किसी तरह आगे बढ़ा लेकिन तब तक अंधेरा हो गया।

उस समय वह नगर से थोड़ी ही दूर पर था। उसने देखा कि दरवाजा बंद हो रहा है। उसके ठीक पास से एक व्यक्ति गुजर रहा था। उसने भिक्षु को देखा तो हंसने लगा। भिक्षु ने नाराज होकर कहा, “तुम हंस क्यों रहे हो?”

उस व्यक्ति ने कहा, ‘आज आपकी जो हालत हुई है, वह कभी मेरी भी हुई थी। आप भी उस बाबा जी की बात नहीं समझ पाए जो नदी किनारे रहते हैं।’

भिक्षु की उत्सुकता बढ़ गई। उसने पूछा “साफ साफ बताओ भाई।”

उस व्यक्ति ने कहा “जब बाबाजी कहते हैं कि धीरे चलो तो लोगों को अटपटा लगता है। असल में वह बताना चाहते हैं कि रास्ता गड़बड़ है, अगर संभलकर चलोगे तो पहुंच सकते हो

कथा का तात्पर्य

जिंदगी में सिर्फ तेज भागना ही काफी नहीं है। सोच-समझकर संभलकर चलना ज्यादा काम आता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 103 ☆ मौन : एक संजीवनी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन : एक संजीवनी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 103 ☆

☆ मौन : एक संजीवनी ☆

‘व्यर्थ न कर अपने अल्फाज़, हर किसी के लिए/ बस ख़ामोश रह कर देख, तुझे समझता कौन है’… ओशो का यह कथन महात्मा बुद्ध की भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान कर शब्दबद्ध करता है, उजागर करता है कि हमारी समस्या का समाधान सिर्फ़ हमारे पास है; दूसरे के पास तो केवल सुझाव होते हैं। ओशो ने मानव से मौन रहने का आग्रह करते हुए कहा है कि किसी से संवाद व जिरह करने का औचित्य नहीं, क्योंकि सब आपकी भावनाओं को समझते नहीं। इसीलिए ऐ! मानव तू प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर; ख़ामोश रहकर उनके व्यवहार को देख, तुम्हें सब समझ में आ जाएगा अर्थात् तू इस तथ्य से अवगत हो जाएगा कि कौन अपना व पराया कौन है? सो! दूसरों के बारे में सोचना व उनके बारे में टीका-टिप्पणी करना व्यर्थ है, निरर्थक है। वे लोग आपके बारे में अनर्गल चर्चा करेंगे, दोषारोपण करेंगे और आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। इसलिए प्रतीक्षा करना सदैव बेहतर है तथा सभी समस्याओं का समाधान इनमें ही निहित है।

मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि ख़ामोश रहने व प्रत्युत्तर न देने से समस्या जन्म ही नहीं लेती। सो! ‘न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ अर्थात् जब समस्या होगी ही नहीं, तो समाधान की अपेक्षा कहां रहेगी? इसके दूसरे पक्ष पर भी चर्चा करना यहां आवश्यक है…जब समस्या होगी ही नहीं, तो स्पष्टीकरण देने व अपना पक्ष रखने की ज़रूरत कहां महसूस होगी? वैसे भी सत्य का अनुसरण करने वाले को कभी भी स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह आपको जहां दुर्बल बनाता है; वहीं आप पर अंगुलियां भी उठने लगती हैं। वह आपको पथ-विचलित करता है और आपका ध्यान स्वत: भटक जाता है। लक्ष्य-पूर्ति न होने की स्थिति में जहां आपका अवसाद की स्थिति में पदार्पण करना निश्चित हो जाता है; वहीं आपको सावन के अंधे की भांति, सब हरा ही हरा दिखाई पड़ने लगता है। फलत: मानव इस भंवर से चाहकर भी नहीं निकल पाता और वह उसके जीवन की प्रमुख त्रासदी बन जाती है।

प्रश्न उठता है, जब हमारी समस्या का समाधान हमारे पास है, तो उद्वेलन व भटकाव क्यों … दूसरों से सहानुभूति की अपेक्षा क्यों… प्रशंसा पाने की दरक़ार क्यों? दूसरे तो आपको सलाह-सुझाव दे सकते हैं; समस्या का हल नहीं, क्योंकि ‘जाके पैर न फूटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ अर्थात् जूता पहनने वाला ही जानता है कि जूता कहां काटता है? जिसे कांटा लगता है, वही दर्द महसूसता है। जो पीड़ित, दु:खी व परेशान होता है, वह अनुभव करता है कि उसका मूल स्त्रोत अर्थात् कारण क्या है? विज्ञान भी कार्य-कारण संबंध पर प्रकाश डाल कर ही परिणाम पर पहुंचता है। सो! हमें कभी भी हैरान-परेशान नहीं होना चाहिए…. न ही किसी से व्यर्थ की उम्मीद करनी चाहिए। जब आप सक्षम हैं और अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोज कर उसका निवारण करने में समर्थ हैं, तो विपत्ति काल में इधर-उधर झांकने व दूसरों से सहायता की भीख मांगने की दरक़ार क्यों?

यह सार्वभौमिक सत्य है कि विपदा के साथी होते हैं …विद्या, विनय, विवेक। सो! सबसे पहले ज़रूरत है, उसका उद्गम तलाशने की, क्योंकि जब हमें उसके मूल कारण के बारे में ज्ञान प्राप्त हो जाता है; समाधान स्वत: हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाता है। इसलिए हमें किसी भी परिस्थिति में अपना आपा नहीं खोना चाहिए अर्थात् ‘विद्या ददाति विनयम्’– विद्या हमें विनम्रता सिखाती है। वह मानव की सबसे बड़ी पूंजी है, जिसके माध्यम से हम जीवन की हर आपदा का सामना कर सकते हैं। विनम्रता करुणा की जनक है। करुणाशील व्यक्ति में स्नेह, प्रेम, सौहार्द, सहानुभूति, सहनशीलता आदि गुण स्वत: प्रकट हो जाते हैं। विनम्र व्यक्ति कभी किसी का बुरा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। बड़े से बड़े क्रूर, निर्दयी व आततायी भी उसका अहित व अमंगल नहीं कर सकते, क्योंकि जब उन्हें प्रत्युत्तर अथवा प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं होती, तो वे भी यही सोचने लगते हैं कि व्यर्थ में क्यों माथा फोड़ा जाए अर्थात् अपना समय नष्ट किया जाए? वे स्वयं उससे दरकिनार कर सुक़ून पाते हैं, क्योंकि उन्हें तो दूसरे को नीचा दिखा कर व प्रताड़ित करके ही आनंद की प्राप्ति होती है। परंतु जब तक विनम्र व्यक्ति शांत रहता है, निरुत्तर रहता है, तो उसे संघर्ष की सार्थकता ही अनुभव नहीं होती और समस्या का स्वत: अंत हो जाता है। विद्या से विवेक जाग्रत होता है, जिससे हमें मित्र-शत्रु, उचित-अनुचित, लाभ-हानि, उपयोगी-अनुपयोगी आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है और हम सच्चाई के मार्ग पर चलते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं। सत्य का मार्ग कल्याणकारी होता है; सुंदर होता है; सबका प्रिय होता है। इसलिए हम ख़ामोश रह कर ही अपने इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

यदि हम प्रतिपक्ष का अवलोकन करें, तो वह हमारे पथ में अवरोधक होता है; राह में कांटे बिछाता है;  निंदा कर हमें उलझाता है, ताकि हम अपनी मंज़िल पर न पहुंच सकें। सो! इन अप्रत्याशित परिस्थितियों में आवश्यकता होती है– विवेक से सोच-समझ कर कार्य को अंजाम देने की, ताकि हम अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएं। विवेक हमें निंदा-स्तुति के व्यूह में नहीं उलझने देता। ज्ञानी व विवेकशील व्यक्ति सदैव समझौता करने विश्वास करता है.. मौन उसका आभूषण होता है और धैर्य सच्चा साथी; जिसका दामन वह कभी नहीं छोड़ता। आत्मकेंद्रितता व एकांत उसके लिए संजीवनी अर्थात् रामबाण होते हैं, जो उसकी तमाम कठिन व विकट समस्याओं का समाधान करते हैं। एकांत हमें आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करता है, तथा उस पावन-सलिला में अवगाहन कर हम श्रेय-प्रेय रूपी अनमोल रत्नों को प्राप्त करने में सक्षम हो सकते हैं। सो! हमें शांत भाव से परिस्थितियों का अवलोकन करना चाहिए। इसी संदर्भ में इस विषय पर भी चर्चा करना अहम् है कि ‘सब्र और सच्चाई एक ऐसी सवारी है, जो अपने शह़सवार को कभी नहीं गिरने देती… न किसी के कदमों में, न किसी की नज़रों में’ अर्थात् सब्र, संतोष  व संतुष्टि पर्यायवाची शब्द हैं। मझे याद आ रही है, रहीम जी के दोहे की वह पंक्ति ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ अर्थात् संतोष रूपी धन प्राप्त करने के पश्चात् जीवन में कोई तमन्ना शेष नहीं रह जाती। सांसारिक प्रलोभन व माया-मोह के बंधन मानव को उलझा नहीं सकते। सो! वह सदैव शांत भाव में रहता है, जहां केवल आनंद ही आनंद होता है। इसके लिए ज़रूरी है… सत्य की राह पर चलने की, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे से भी प्रकट होने की सामर्थ्य रखता है। सत्य का अनुयायी अकारण दूसरों की प्रशंसा व चाटुकारिता में विश्वास नहीं करता, क्योंकि उन्हें प्रसन्न करने के लिए व्यक्ति को तनाव, चिंता व अवसाद से गुज़रना पड़ता है।

यह कोटिशः सत्य है कि मन-चाहा न होने पर हम हताश-निराश व हैरान-परेशान रहते हैं और वह स्थिति तनाव की जनक व पोषक है। वह हमें गहन चिंता-रूपी सागर के अथाह जल में लाकर छोड़ देती है; जहां से निकल पाना मानव के लिए असंभव हो जाता है। अवसाद-ग्रस्त व्यक्ति आत्मविश्वास खो बैठता है और उसे समस्त संसार में अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ता है। ऐसा व्यक्ति सदैव किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में रहता है; सब उसे शत्रु-सम भासते हैं, और वह स्वयं को असहाय, विवश व मजबूर अनुभव करता है। उस स्थिति से उबरने के लिए आवश्यकता होती है… मानव को नकारात्मक सोच को त्याग, सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की …जो आस्था व विश्वास से उपजता है। परमात्मा में आस्था व अंतर्मन में निहित दैवीय शक्तियों पर विश्वास रखने से ही वह आगामी आपदाओं से लोहा ले सकता है।

छोटी सोच, शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को। ‘सुनना सीख लो, सहना स्वत: सीख जाओगे।’ इसके निमित्त हमें अपनी सोच को बड़ा बनाना होगा; उदार-हृदय बनना होगा, क्योंकि छोटी सोच का दायरा बहुत संकुचित होता है और व्यक्ति कूप-मंडूक बन उसी भंवर में गोते लगाता रहता है और प्रसन्न रहता है। उसके अतिरिक्त न वह कुछ जानता है, न ही जानने की इच्छा रखता है। वह इसी भ्रम में जीता है कि उससे अधिक बुद्धिमान कोई है ही नहीं। सो! वह कभी भी दूसरे की सुनना पसंद नहीं करता; अपनी-अपनी डफली बजाने व राग अलापने में सुक़ून का अनुभव करता है। दूसरे शब्दों में वह केवल अपनी-अपनी हांकता है और शेखी बघारता है। उसे न किसी से कोई संबंध होता है, न ही सरोकार। परंतु समझदार व सफल मानव दूसरे की सुनता अधिक है, अपनी कहता कम है। सो! डींगें हांकने वाला व्यक्ति सदैव मूर्ख कहलाता है। उसे अभिमान होता है, अपनी विद्वत्ता पर और वह स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी समझता है। वह सारा जीवन उसी भ्रम में व्यर्थ नष्ट कर देता है। जीवन के अंतिम क्षणों में वह लख चौरासी से भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

ग़ौरतलब है कि हर समस्या के केवल दो विकल्प नहीं होते…परंतु मूर्ख व्यक्ति इसी भ्रम में रहता है और तीसरे विकल्प की ओर उसका ध्यान कदापि नहीं जाता। यदि उसकी सोच का दायरा विशाल होगा, तो समस्या का समाधान अवश्य निकल जाएगा। उसे आंसू नहीं बहाने पड़ेंगे, क्योंकि संसार दु:खालय नहीं, बल्कि सुख और दु:ख तो हमारे अतिथि हैं; आते-जाते रहते हैं। एक के जाने के पश्चात् दूसरा स्वयमेव प्रकट हो जाता है। उनमें से कोई भी स्थायी नहीं है। इसलिए वे कभी इकट्ठे नहीं आते। मानव को दु:ख, आपदा व विपत्ति में कभी भी घबराना नहीं चाहिए और न ही सुख में फूलने का कोई औचित्य है। दोनों स्थितियां भयावह हैं और घातक सिद्ध हो सकती हैं। इसलिए इनमें समन्वय व सामंजस्य रखना आवश्यक है। जो इनसे ऊपर उठ जाता है; उसका जीवन सफल हो जाता है; अनुकरणीय हो जाता है और वह महान् विभूति की संज्ञा प्राप्त कर विश्व में गौरवान्वित अनुभव करता है। उसे भौतिक व सांसारिक सुख, प्रलोभन आदि आकर्षित नहीं कर सकते, क्योंकि वे उसे नश्वर भासते हैं। ऐसा नीर-क्षीर विवेकी मानव हर स्थिति में सम रहता है, क्योंकि वह सृष्टि के परिवर्तनशीलता के सिद्धांत से अवगत होता है। वह जानता व समझता है कि ‘जो जन्मता है, मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है। इसलिए उसका शोक क्यों?’ ऐसे व्यक्ति के मित्र व शत्रु नहीं होते। वह अजातशत्रु कहलाता है। वह सबके हित व मंगल की कामना करता है; किसी के प्रति ईर्ष्या व द्वेष भाव नहीं रखता और स्व-पर से बहुत ऊपर उठ जाता है। सब उसकी प्रशंसा करते हैं तथा उसका साथ पाने को आकुल-व्याकुल रहते हैं। सो! वह सबकी आंखों का तारा हो जाता है और सब उससे स्नेह करते हैं; उसकी वाणी सुनने को लालायित व व्यग्र रहते हैं तथा उसका सान्निध्य पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

वह मौन को नव-निधि स्वीकारता है और इस तथ्य से अवगत रहता है कि नब्बे प्रतिशत समस्याओं का समाधान मौन रहने तथा तत्काल उत्तर देने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से हो जाता है। जीवन में समस्याओं से उसका दूर का नाता भी नहीं रहता। ‘एक चुप, सौ सुख’ बहुत पुरानी कहावत है, जो कल भी सत्य व सार्थक थी; आज भी है और कल भी रहेगी। इसलिए मानव को जो घटित हो रहा है; उसे साक्षी भाव से देखना चाहिए। उन परिस्थितियों में सहजता बनाए रखनी चाहिए तथा संबंधों की अहमियत स्वीकारनी चाहिए। रिश्ते हमारे जीवन को हर्ष, उल्लास, उमंग व उन्माद से आप्लावित व  ऊर्जस्वित करते हैं तथा मौन में वह संजीवनी है, जिसमें सभी असाध्य रोगों का शमन करने की शक्ति है, क्षमता है, सामर्थ्य है। सो! एकांत व ख़ामोशी को अपना साथी समझ मौन को जीवन में धारण करना श्रेयस्कर है, क्योंकि यही अलौकिक आनंद व जीते जी मुक्ति पाने का उपादान है, सोपान है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 102 ☆ विजयदशमी पर्व विशेष – भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं विजयदशमी पर्व पर विशेष  “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 102 – साहित्य निकुंज ☆

☆ विजयदशमी पर्व विशेष – भावना के दोहे ☆

कोरोना ने ले लिए, सभी पर्व त्यौहार।

है दशहरा धूम नहीं, नहीं जश्न इस बार।।

 

सत्य सदा ही जीतता, कहते ग्रंथ महान।

नहीं मानते सत्यता, विरले लोग जहान।।

 

नवरात्रि की अष्टमी, मना रहे है लोग।

सब करते पूजन हवन, हलवा पूरी भोग।।

 

शरद काल के चरण ही, देते शुभ संदेश।

खानपान अच्छा मिले, बदला है परिवेश।।

 

परंपरा से मन रहा, गरबा की है धूम।

नौ देवी के सामने,  नाच रहे है झूम।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 91 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 91 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

घर आँगन की नींव में, प्रेम और विश्वास।

बंधन केवल रक्त का, रखता कभी न पास

 

मात-पिता से ही मिला, सुंदर घर परिवार

रिश्तों की इस डोर में, खूब पनपता प्यार

 

महल अटारी को नहीं, समझें घर संसार

घर सच्चा तो है वही, जहाँ परस्पर प्यार

 

पगडंडी में सो रहे, कितने जन लाचार

मजदूरों की सोचिए, जो हैं बेघर बार।

 

वक्त आज का देखिए, नव पीढ़ी की सोच

रखते जो माँ बाप को, वशीभूत संकोच।।

 

घर की शोभा वृद्ध हैं, इनका रखिए मान

रौनक इनसे ही बढ़े, खूब करो सम्मान

 

साँझे चूल्हे टूटकर, गाते निंदा राग

नई सदी के दौर में, खत्म हुआ अनुराग

 

पिता गए सुरलोक को, सब कुछ अपना त्याग

संबंधों के द्वार पर, बँटवारे की आग

 

कलियुग में सीमित हुए, आज सभी परिवार

घर बन गए मकान सब, सिमट गया संसार

 

रहें परस्पर प्रेम से, यह जीवन का कोष

मुट्ठी बाँधे चल पड़ो, गर चाहें “संतोष”

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! मोरूचा आगाऊ दसरा ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? ? मोरूचा आगाऊ दसरा ?

“नमस्कार पंत !”

“नमस्कार, नमस्कार ! काय रे मोरू, आज बरेच दिवसांनी शुक्राची चांदणी…..”

“काय पंत, मी तुम्हाला चांदणी वाटलो की काय ?”

“सॉरी सॉरी मोरू, अरे पेपर मधे तो आपला चांदणी बार……”

“आपला चांदणी बार ?”

“अरे तसं म्हणायची एक पद्धत असते मोरू, आपला या शब्दाचा अर्थ तसा शब्दशः घ्यायचा नसतो !”

“ते माहित आहे मला, पण तुमच्या त्या चांदणी बारच काय ?”

“मोऱ्या, माझा कुठला आलाय चांदणी बार, आम्ही सगळे…… “

“अरे हो, मी विसरलोच पंत, तुमचे ‘खाऊ पिऊ मजा करू’ हे पेन्शनरांचे मित्र मंडळ दर महिन्याला वेगवेगळ्या बार मधे जाते ना !”

“अरे हळू बोल गाढवा, हिच्या कानावर गेलं, तर आत्ता दिवसा ढवळ्या मला चांदण्या दाखवायला कमी करणार नाही ही !”

“ओके, पण त्या चांदणी बारच काय सांगत होतात तुम्ही पंत ?”

“काही नाही रे मोरू, त्या बारची एक बातमी आली आहे पेपरात, ती वाचत असतांना नेमका तू टपकलास, म्हणून चुकून तुला चांदणी म्हटलं एव्हढच !”

“कसली बातमी पंत, हॅपी अवर्सचा टाइम वाढवला की काय ?”

“मोरू एक काम कर, आता घरी जाताना हा पेपर घेवून जा आणि सावकाश चांदण्या बघत… सॉरी सॉरी.. सावकाश सगळ्या बातम्या वाचून, संध्याकाळी आठवणीने तो परत आणून दे ! आणि आता मला सांग इतक्या दिवसांनी, सकाळी सकाळी शुचिर्भूत होऊन किमर्थ आगमन ?”

“काही नाही पंत, सोनं द्यायला आलो होतो !”

“कमाल आहे तुझी मोरू, तू दुबईला गेलास कधी आणि आलास कधी ? चाळीत कोणाला पत्ता नाही लागू दिलास !”

“तसं नाही पंत, मी काय म्हणतोय ते जरा…. “

“आणि तुझ ही बरोबरच आहे म्हणा, तिकडे जायला वेळ तो कितीसा लागतो, फक्त अडीच तासाचा काय तो प्रवास ! अरे इथे हल्ली लोकांना दादर ते वाशी जायला तीन….. “

“पंत, सोनं काय फक्त दुबईला मिळत ?”

“तसंच काही नाही, पण दुबईला स्वस्त असतं असं म्हणतात आणि सध्या IPL पण चालू आहे ना, म्हणून म्हटलं तू एका दगडात दोन….. “

“पंत, खरं सोनं देण्या इतका मी अजून ‘सुरेश अंधानी’ सारखा श्रीमंत नाही झालो !”

“आज ना उद्या होशील मोरू, माझे आशीर्वाद आहेत तुझ्या पाठीशी !”

“पंत, नुसते आशीर्वाद असून चालत नाहीत, त्यासाठी कापूस  बाजारात उभे राहून, सूत गुंड्या विकणाऱ्या बापाच्या पोटी, मोठा मुलगा म्हणून जन्मावं लागत, त्याला एक धाकटा निक्कमा भाऊ असावा लागतो, जो परदेशातल्या भर कोर्टात हात वर करून, मी कफल्लक आहे, असं अर्मानी सूट बूट घालून छाती ठोक पणे सांगू शकेल आणि…. “

“अरे मोरू, तू सोन्या वरून एकदम अँटिलीया… सॉरी सॉरी… भलत्याच सत्तावीस मजली अँटिनावर चढलास की !”

“पंत, आता तुम्ही विषयच असा काढलात, मग मी तरी किती वेळ …. “

“बरं बरं, पण तू ते सोनं का काय ते…. “

“हां पंत, हे घ्या सोनं, नमस्कार करतो !”

“मोरू, अरे ही तर आपट्याची पानं, यांना सोन्याचा मान दसऱ्याच्या…… “

“दिवशी, ठावूक आहे मला पंत !”

“आणि अजून नवरात्र यायचे आहे, संपायचे आहे आणि तू आत्ता पासूनच हे का वाटत फिरतोयसं ?”

“अहो पंत, त्या दिवशी यांची किंमत खऱ्या सोन्यापेक्षा कितीतरी जास्त असते ना, म्हणून !”

“धन्य, धन्य आहे तुझी मोरू !”

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 74 ☆ भँवर ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा भँवर । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 74 ☆

☆ लघुकथा – भँवर ☆

रोज की तरह वह बस स्टैंड पर आ खडी हुई, शाम छ: बजे की बस में यहीं से  बैठती है। काम निपटाकर सुबह पाँच बजे वापस आ जाती है। बस अभी तक नहीं आई। आज घर से निकलते समय ही मन बैचैन हो रहा था। मिनी बडी हो रही है। रंग भी निखरता जा रहा है। दूसरी माँएं अपनी लडकी की सुंदरता देख खुश होती हैं, वह डरती है।

आज निकलते समय पास का ढाबेवाला मुस्कुराकर बोला —  ‘तेरी लडकी बडी हो गई  है अब ‘।  उसने अनसुना तो कर दिया पर गर्म लावे सा पडा था कानों में यह वाक्य।  मन में उथल- पुथल मच गई  – इस तरह क्यों बोला यह मिनी के बारे में? कहीं इसकी नजर तो मिनी पर  —-?  इसे मेरे बारे में कुछ पता तो नहीं चल गया ?   मिनी को इस नरक में ना ढकेल दे कोई। नहीं – नहीं ऐसा नहीं हो सकता।

आज बस क्यों नहीं आ रही है? वह बेचैन हो रही थी। इतने साल हो गए यह काम करते हुए, पता नहीं आज मन  अतीत  क्यों कुरेद रहा है? घरवाले ने साथ दिया होता तो यह  नरक ना भोगना पडता। ना मालूम कहाँ चला गया दुधमुँही बच्ची को गोद में छोडकर। बच्ची को लेकर दर- दर की ठोकरें खाती रही।  गोद में बच्ची को देखकर कोई मजदूरी भी नहीं देता। खाने के लाले पड गए थे उसके। मरती क्या ना करती?  आँसू टपक पडे।  नहीं —  उसे तो अब रोने का भी हक नहीं है।  देह- व्यापार  करनेवाली औरतों के  आँसुओं का कोई  मोल नहीं?  पुरुष यहाँ से भी बेदाग निकल जाता है, कडवाहट भर गई मन में, वहीं थूक दिया उसने।

देर हो रही है, मालिक आफत कर देगा। तभी बस आती दिखाई दी,उसने राहत की साँस ली | बस में चढने के लिए एक पैर रखा ही था कि उसके दिमाग में ढाबेवाले का वाक्य फिर से गूंजने लगा –‘ तेरी लडकी बडी हो गई  है अब।‘  — क्या करूँ? मिनी अकेली  है घर में  —  हर दिन, हर पल, एक भँवर  है?  एक पैर अभी नीचे ही था, वह झटके से बस से उतर गई। देखनेवाले हैरान थे इतनी देर से बस का इंतजार कर रही थी, इसे क्या हुआ। एक बदहवास माँ अपने घर की ओर दौडी जा रही थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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