हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 98 – साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक) ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  म प्र साहित्य अकादमी के मासिक प्रकाशन  “साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक)” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक)

अंक ४८५..४८६ संयुक्तांक नवम्बर दिसम्बर

म प्र साहित्य अकादमी का मासिक प्रकाशन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 98 – साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक) ☆ 

साक्षात्कार का संभवतः पहला प्रयास है , अंक ४८५..४८६ संयुक्तांक नवम्बर दिसम्बर २०२० जो बाल साहित्य पर केंद्रित है, तथा इतनी महत्वपूर्ण शोध सामग्री बाल साहित्य की उपयोगिता, लेखन, बच्चों के लिये साहित्य लेखन में नवाचार, वैज्ञानिक दृष्टि, सकारात्मकभावनाओ का विकास जैसे बहुविध विषय समेटे हुये है.

३०० पृष्ठो से ज्यादा की विशद सामग्री निश्चित ही शोधार्थियो हेतु  संग्रहणीय है. यह निर्विवाद है कि बच्चो के कोरे मन पर बाल साहित्य वह पटकथा लिखता है, जो भविष्य में उनका व्यक्तित्व व चरित्र गढ़ता ह . बच्चो को विशेष रूप से गीत तथा कहानियां व नाटिकायें अधिक पसंद आती हैं. बाल साहित्य रचने के लिये बड़े से बड़े लेखक को बाल मनोविज्ञान को समझते हुये बच्चे के मानसिक स्तर पर उतर कर ही लिखना पड़ता है तभी वह रचना बाल उपयोगी बन पाती है.

हिन्दी में जितना कार्य बाल साहित्य पर आवश्यक है उससे बहुत कम मौलिक नया कार्य हो रहा है, पीढ़ीयो से वे ही बाल गीत पाठ्य पुस्तको में चले आ रहे हैं, जबकि वैज्ञानिक सामाजिक परिवर्तनो के साथ नई पीढ़ी का परिवेश बदलता जा रहा है.  

बाल कवितायें जहां जीवन पर्यंत स्मरण में रहती हैं व किंकर्तव्यविमूढ़ स्थोति में पथ प्रदर्शन करती हैं वहीं बचपन में पढ़ी गई कहानियां अवचेतन में ही व्यक्तित्व बनाती हैं. बाल कथा के नायक बच्चे के संस्कार गढ़ते हैं.

मैं इस अंक के साठ से अधिक लेखको को और उन सब को साक्षात्कार के एकल मंच पर सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत करने के लिये संपादक डा विकास दवे जी को हृदय से शुभकामनायें देता हूँ व इस महती कार्य के लिये आभार व्यक्त करता हूँ.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 96 – लघुकथा – बूंदी के लड्डू ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भाईचारे का सन्देश देती अतिसुन्दर लघुकथा  “बूंदी के लड्डू। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 96 ☆

 ? लघुकथा – बूंदी के लड्डू?

गणेश उत्सव का माहौल। घर और पास पड़ोस मोहल्ले में बहुत ही धूमधाम से गणेश उत्सव मनाया जा रहा था। पंडाल पर गणपति जी विराजे थे। राजू अपने दादा- दादी से रोज कुछ ना कुछ गणपति जी के बारे में सुनता था।

दादा जी आज उसे बूंदी के लड्डू की महिमा बता रहे थे कि क्यों पसंद है गणेश जी को लड्डू? बेसन से अलग-अलग मोती जैसे तलकर शक्कर की चाशनी में सब एक साथ पकड़कर लड्डू बनता है। गणेश जी भी सभी को मिला कर रखना चाहते हैं। उनकी पूजन का अर्थ भी यही है कि सभी मनुष्य आपस में प्रेम से रहें और बूंदी के लड्डू की तरह मीठे और मिलकर रहे।

राजू कुछ देर सुनता रहा फिर दौड़कर पड़ोस के अंकल- आंटी देशमुख के घर गया और छोटे से हाथ से निकालकर बूंदी का लड्डू उनके हाथ पर दे दिया। और कहा-” गणपति जी ने कहा है बूंदी के लड्डू की तरह रहना सीखें” और दौड़ कर फिर अपने घर के ऊपर के कमरे में बैठे अपने पापा को भी लड्डू दिया। और कहा कि – “गणपति ने कहा है कि हमें लड्डू जैसा रहना चाहिए।

थोड़ी देर पापा और देशमुख अंकल सोचते रहे। तब तक मोहल्ले में पंडाल से गणपति की आरती की आवाज आने लगी। दोनों अपने-अपने घर से डिब्बों में लड्डू लेकर पहुंचे और फिर क्या था। ‘साॅरी, मुझे माफ करना’, ‘नहीं सॉरी मैं बोलता हूँ मुझे माफ करना’, एक दूसरे को कहने लगे।

कुछ दिनों से जो मनमुटाव चल रहा था। अचानक सब मिलजुल कर ठहाका लगाने लगे।

दादा जी को समझ नहीं आया कि कल तक जो देशमुख के नाम से चिढ़ता था। आज अपने हाथ में हाथ पकड़े खड़े हैं। उन्हें क्या पता था कि बूंदी के लड्डू कितने मीठे हैं जिन्हें किसी ने अपने छोटे – छोटे हाथों से सब जगह बांट दिया है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 104 ☆ पावलांचे ठसे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 104 ☆

☆ पावलांचे ठसे ☆

कालच तर

आपल्या सुखी पावलांचे ठसे

विस्तीर्ण सागरी किनाऱ्यावर

मखमली वाळूत

एकमेकांना मिठ्या मारत होते

 

सागरातून चार लाटा काय येतात

मिटवू पाहतात सारं अस्तित्व

पण त्यांना माहीत नाही

ते ठसे आम्ही डोळ्यांत जतन केलेत

आयुष्यभरासाठी

 

ते शोधण्यासाठी

आता समुद्र किनारी यायची गरज नाही

कोरलेत ते काळजाच्या आत

समुद्रा पेक्षा मोठा तळ आहे त्याचा

आमच्या दोघांखेरीज

तो तळ कुणालाच दिसणार नाही

 

तुम्ही आत उतरायचा प्रयत्न करू नका

बरमूडा ट्रायंगल सारखी परिस्थिती होईल

म्हणूनच सांगतो

तुम्ही तुमच्या जगात रहा

आम्हाला आमच्या जगात राहुद्या

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#56 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #56 –  दोहे 

 

पागल कैसा हो गया, रहा सोचता काश।

नदी कहां रुकती भला, तोड़ गई भुजपाश।।

 

संयम की सीमा कहां, जहां तुम्हारा रूप।

रूप तुम्हारा लग रहा ,संयम के अनुरूप।।

 

मृत्युवरण की साधना, जीवन का विनियोग।

पुण्यवान को प्राप्त हो, दुर्लभतम संयोग।।

 

मृत्यु वरण क्यों किसलिए, वापस क्यों अनुदान।

हमने तो चाहा नहीं, मिला अयाचित दान।।

 

तुम्हें देखकर याचना, हो जाती उध्दाम।

अपनी यौवन सुरभि को, कर दें किसके नाम।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत /संदर्भ/पुराण # 55 – इक्ष्वाकु के वंशज !! ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक अत्यंत मनोरम अभिनवगीत – “इक्ष्वाकु के वंशज !!। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 55 ☆।। अभिनव-गीत /संदर्भ/पुराण ।। ☆

☆ इक्ष्वाकु के वंशज !!

तुम सुनो !

इक्ष्वाकु के वंशज !!

मैं सिरहाने रोज रखती हूँ तुम्हारी

त्राण देने को नियत पद-रज ।।

 

इन गहन पौराणिका –

बारीकियों में ।

खोजती आयी समय

को सीपियों में ।

 

जहाँ से आये

हमारे पूर्वज ।।

 

किस तरह बिखरी

हमारी परिस्थितियाँ ।

वाध्य दिखती सभी

अनुगामी  समितियाँ ।

 

जो उठाये थीं हमारे

सब जयी ध्वज ।।

 

नहीं बजती है हमारी

सुधा -सरगम। 

टूटता दिखने लगा है

विवश संयम ।।

 

दुखी बैठे हैं सभी

पंचम – षड़ज ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

07-09-2018

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘हम न मरब)  

☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कानों को सुनाई पड़ा कि मैं थोड़े देर पहले मर चुका हूं। फिर किसी ने कहा कि मुझे मरे काफी देर हो चुकी है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वास्तव में मर चुका हूं। सब मजाक कर रहे थे कि मैं इतने जल्दी नहीं मर सकता। डाक्टर बुलाया गया, उसने हाथ पकड़ा फिर नाड़ी देखी और बोला कि ये मरने के करीब पहुंच गए हैं, उधर से आवाज आई डाक्टर झूठ बोल रहा है, उनको मरे बहुत देर हो गई है।

मेरे हर काम में लोग शक करते हैं और अड़ंगा डालते हैं, कुछ लोगों ने मुझे मरा घोषित कर दिया है और कुछ लोग मानने तैयार नहीं हैं कि मैं वैसा ही मर चुका हूं जैसे सब मर जाते हैं, दरअसल मित्र लोग खबर मिलने पर अंतिम दर्शन को आ रहे हैं पर हाथी जैसे डील-डौल वाले शरीर को कंधा देने में कतरा रहे हैं और मजाक करते हुए यहां से कन्नी काट कर यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि मैं मर नहीं सकता।

 गलती मेरी भी है कि मैं  जीवन भर से हर बात पर नखरे करता रहा, पहिचान कर भी अनजान बनने का नाटक करता रहा, पहिचान था पर ऐन वक्त नाम भूल जाता था।  धीरे धीरे शरीर फैलता रहा,वजन बढ़ता गया,वजन कम करने का प्रयास नहीं किया। मुझे नहीं मालूम था कि हाथी जैसे डील-डौल वाले को मरने के बाद कंधा देने चार आदमी भी नहीं मिलते।

जिनको बहुत पहले हजारों रुपए उधार दिये थे उनमें से तीन  खुशी खुशी कंधा देने तैयार हुए पर चौथा आदमी नहीं मिल रहा था। जब वे तीन कंधा देने तैयार हुए तो मुझे लगा कि अब उधारी दिया पैसा डूब जायेगा, क्योंकि ये तीनों जल्दी मचा रहे हैं और कंधा देने वाले चौथे आदमी की तलाश में हैं ताकि मरे हुए को जल्दी मरघट पहुंचाया जा सके। मैं सचमुच मर चुका हूं मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि बीच-बीच में वसूली के मोह में सांस लौट लौट कर आ-जा रही थी।वे तीनों ने आते- जाते अनेक लोगों से मदद माँगी।किसी के पास समय नहीं था। चौथे आदमी को ढूंढने में विलंब इतना हो रहा था कि  मैं डर गया कि कहीं ये तीन भी धीरे धीरे कोई बहाना बना कर भाग न जाएं, इसलिए मैंने अपनी दोनों आंखें हल्की सी खोल दीं ताकि उन तीनो को थोड़ी राहत महसूस हो, मेरी आंखें खुलते ही वे तीनों इस बात से डर गये कि कहीं उधारी वाली चर्चा न चालू हो जाए, और वे तीनों भी धीरे-धीरे खिसक गये। मैं फिर बेहोश हो गया, फिर मैंने तय किया कि अब मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए, हालांकि मैं मरना नहीं चाहता था पर आखिरी समय में दुनियादारी के इस तरह के चरित्र को देखकर मर जाना ही उचित समझा,  मैंने सोचा उधारी वसूल हो न हो,अच्छे दिन आयें चाहें न आयें….. कम से कम वे तीनों मुझे ठिकाने लगाने में ईमानदारी बरत रहे हैं, बाकी करीब के लोग दूर भाग रहे हैं, ऐसे समय जरूरी है कि मुझे तुरंत मर जाना चाहिए….  और मैं मर गया।

मैं अभी भी मरा हुआ पड़ा हूं, काफी देर हो गई है पर अभी भी कोई मानने तैयार नहीं है , और कंधा देने में आनाकानी कर रहे हैं। बड़ी मुश्किल है, वे तीनों भी फिर से आने में डर रहे होंगे क्योंकि नेताओं ने इन दिनों  ऐसा माहौल बनाकर रखा है कि लोगों के समझ नहीं आ रहा है कि सच क्या है और झूठ क्या है…..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #46 ☆ कटघरा ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# कटघरा #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 46 ☆

☆ # कटघरा # ☆ 

आज हर कोई व्यस्त है

अपने आप में मस्त है

खुली आंखों से सब देखकर

वो अस्वस्थ है,पस्त है

झोपड़ियाँ उजाड़कर

महल बन रहे हैं

जंगल विस्फोटों से

दहल रहे हैं

पर्यावरण आँसू

बहा रहा है

बाढ़, तूफान

सब कुछ निगल रहे हैं

 

भूख और प्यास

रास्ते में खड़े है

अधनंगे से

मरणासन्न पड़े है

इनकी सुध

किसी को नहीं है

गरीबी के मुकुट में

सदियों से जड़े हैं

कभी कभी हक के लिए

रास्ते पे उतरते हैं

अपनी जायज मांगों के लिए

आंदोलन करते

फिर अचानक एक

सैलाब आता है

आंदोलन टूटता है

लोग बे मौत मरते है

ऐसे वाकयों से अख़बार

भरे पड़े है

न्याय की आंख पर पट्टी,

मुंह पर ताले जड़े हैं

अब इंसाफ पिंजरे में

बंद है

और हम सब

सभ्य, शिक्षित लोग

समाज के

कटघरे में खड़े है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 48 ☆ फुलपाखरू… Butterfly ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 48 ? 

☆ फुलपाखरू… Butterfly ☆

फुलपाखरू… किती निर्मळ आणि स्वच्छंदी जीवन असतं त्याचं…, जीवशास्त्र हे सांगतं की फुलपाखराचे आयुमान फक्त चौदा दिवसाचं असतं… तरी सुद्धा ते किती आनंदात जगतांना आपल्याला दिसतं… या फुलावरून त्या फुलावर लीलया उडतं, जीवन कसं जगावं याचा परिपाठ जणू ते सर्वांना शिकवत असतं…आपल्याच विश्वात रममाण असणारं हे फुलपाखरू खरेच एक आदर्शवादी कीटक आहे… वास्तविकता त्याला पण खूप शत्रू परंपरा लाभलेली आहे, तरी सुद्धा तो आपला जीवनक्रम विना तक्रार पूर्ण करतं… या उलट शंभर वर्ष वयाचा गर्व असणाऱ्या माणसाला नेहमीच आपल्या कार्याचा, आपल्या नावाचा, आपल्या पदाचा गर्व असतो, तो त्या गर्वातच संपून सुद्धा जातो… अहो शंभर वर्ष आयुष्य जरी माणसाचं असलं, तरी मनुष्य तितका जगतो का…? यदाकदाचित एखादा जगला तरी… ” वात, कफ, पित्त…”  हे त्रय विकार त्याला शांत जीवन जगू देतात का…? अगणित विकार उद्भवुन लवकर मरण यावे म्हणून हा मनुष्य देवाला साकडं घालत असतो… मग काय कामाचं ते शंभर वर्षाचं आयुष्य. आणि म्हणून मला फुलपाखरू खूप आणि खूपच आवडतं… *( short but sweet life… )

एक चांगला गुरू म्हणून मी त्याकडे नेहमी पाहतो, जीवन जगण्याची कला मी त्याकडूनच अवगत केलीय… जेव्हा जेव्हा मी उदास होतो, मला कंटाळा येतो, तेव्हा मी फुलपाखराला आठवतो… मला एक लहानपणी कविता होती, फुलपाखरू छान किती दिसते, फुलपाखरू… आणि तेव्हापासून त्याची आणि माझी घट्ट मैत्री झाली आहे…

My dear friend the butterfly… forever 

शेवटी एकच सांगावे वाटते की इथे आपले काहीच नाही, सर्व सोडावे लागणार आहे, मग कशाला उगाचच व्यर्थ गर्व करून रहावं… प्रेम द्या प्रेम घ्या, आणि प्रेमानेच मग मार्गस्थ ही व्हा…!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #105 ☆ व्यंग्य – साहब लोग का टॉयलेट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहब लोग का टॉयलेट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 105 ☆

☆ व्यंग्य –  साहब लोग का टॉयलेट

उस दफ्तर में दो टॉयलेट हैं। एक साहब लोगों का है और दूसरा क्लास थ्री और फ़ोर के लिए। साहब लोग भूलकर भी दूसरे टॉयलेट में नहीं जाते, और साहबों को छोड़कर दूसरों को पहले टॉयलेट में जाने की सख़्त मुमानियत है। क्लास थ्री या फ़ोर का कोई रँगरूट अगर भूल से साहब लोग के टॉयलेट में चला जाए तो उसकी ख़ासी लानत- मलामत होती है। ख़ुद बड़े बाबू उसकी क्लास लेते हैं।

कभी एक और दफ्तर में जाना हुआ था। वहाँ टॉयलेट के दरवाज़े पर एक पट्टिका लगी थी जिसका कुछ हिस्सा दरवाज़े के पल्ले से छिपा था। पट्टिका पर लिखा दिखायी पड़ा— ‘शौचालय अधिकारी’। देखकर चमत्कृत हुआ। यह कौन सा पद निर्मित हो गया? थोड़ा आगे बढ़ा तो पूरी पट्टिका दिखी। पूरी इबारत थी—‘शौचालय अधिकारी वर्ग’, यानी अधिकारी वर्ग के लिए आवंटित टॉयलेट था।

पहले जिन टॉयलेट्स की बात की उसके बड़े साहब अपने वर्ग के टॉयलेट में कुछ सुधार चाहते हैं। वे कहीं ऐसे नल देख आये हैं जिनमें हाथ नीचे लाते ही अपने आप पानी गिरने लगता है और हाथ हटाने पर अपने आप बन्द हो जाता है। नल खोलने या बन्द करने की ज़रूरत नहीं होती। बड़े साहब तत्काल अपने टॉयलेट में ऐसे ही नल लगवाना चाहते हैं। लगे हाथ वे पुराने फर्श को तोड़कर चमकदार टाइल्स भी लगवाना चाहते हैं ताकि टॉयलेट साहब लोग के स्टेटस के अनुरूप हो जाए। बड़े साहब की इच्छा को छोटे साहबों ने ड्यूटी के रूप में ग्रहण किया और तत्काल ठेकेदार को काम सौंप दिया गया।

लेकिन समस्या यह आयी कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक साहब लोग ‘रिलीफ़’ पाने के लिए किधर जाएँगे। बड़े साहब का आदेश ज़ारी हुआ कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक सभी अफ़सरान थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में ही राहत पायेंगे। चार छः दिन की तो बात है।

लेकिन यह फ़रमान सुनते ही साहब लोगों के मुख मुरझा गये। थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में कैसे जाएँगे?क्या अब साहब लोगों और निचली क्लास के लोगों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रहेगा? ‘रबिंग शोल्डर्स विथ देम!’

एक दो दिन के अनुभव के बाद साहबों के बीच भुनभुन होने लगी।’इन लोगों में एटीकेट नहीं है। टॉयलेट में एक दूसरे से बात करेंगे या एक दूसरे पर हँसेंगे। एक दूसरे का मज़ाक उड़ायेंगे। वो धनीराम तो वहाँ जोर जोर से गाने लगता है। टॉयलेट का भी कुछ एटीकेट होता है। वहाँ हम इनके बगल में खड़े होते हैं तो बहुत ‘एम्बैरैसिंग’ लगता है।’रिलीफ़’ का काम भी ठीक से नहीं हो पाता। उस पर साइकॉलॉजी का असर होता है।’

टॉयलेट का काम शुरू होने के दो दिन बाद दास साहब बड़े साहब के पास जाकर बैठ गये हैं। कहते हैं, ‘सर, मेरी रिक्वेस्ट है कि लंच ब्रेक आधा घंटा बढ़ा दिया जाए।’रिलीव’ होने के लिए सिविल लाइंस तक जाना पड़ता है। यहाँ बहुत ‘अनकंफर्टेबिल’ ‘फ़ील’ होता है।’एडजस्ट’ करने में दिक्कत होती है। अटपटा लगता है। ऑफ़िस में हम साथ साथ बैठ सकते हैं, लेकिन टॉयलेट में आजू-  बाजू खड़ा होना बहुत मुश्किल है।’इट इज़ ए डिफ़रेंट फ़ीलिंग ऑलटुगैदर।’ लगता है जैसे हमारी साइज़ कुछ छोटी हो गयी हो।’
बड़े साहब सहानुभूति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘आई कैन अंडरस्टैंड इट। यू कैन टेक मोर टाइम आफ़्टर लंच। आई वोन्ट माइंड इट। तीन चार दिन की बात है।’
दास साहब संतुष्ट होकर उठ जाते हैं। फिर भी दफ्तर में हल्का टेंशन रहता है। ज़्यादातर साहब लोग ‘रिलीव’ होने के लिए बाहर भागते हैं, लेकिन डायबिटीज़ वालों को मजबूरन दफ्तर में ही ‘रिलीव’ होना पड़ता है।

छः दिन में टॉयलेट का सुधार संपन्न हो गया। साहब लोगों ने राहत की साँस ली। बड़े साहब ने सबसे पहले नये ‘गैजेट्स’ का इस्तेमाल किया और फिर बाकी साहब लोगों ने भी उनका आनन्द लिया। छः दिन बाद आखिरकार वो ‘डिस्टर्बिंग फ़ीलिंग’ ख़त्म हो गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆

भोर का समय है। लेखन में मग्न हूँ। एकाएक कुछ नगाड़ों के स्वर कानों में गूँजने लगते हैं। विचार करता हूँ कि आज श्री गणेशोत्सव का नौवाँ दिन है। अपवादस्वरूप ही इस दिन विसर्जन होता है। फिर इस वर्ष भी सार्वजनिक गणपति की स्थापना नहीं हुई है। ऐसे में सुबह-सुबह नगाड़ों का स्वर कहाँ से आ रहा है? जिज्ञासा के शमन के लिए बाहर निकलता हूँ और देखता हूँ कि गाजे-बाजे के साथ एक मुनिवर का आगमन हो रहा है। भक्तों की भीड़ मुनिवर के आगे और पीछे पैदल चल रही है। सबसे आगे नगाड़ा बजाने वाले चल रहे हैं। अवलोकन करता हूँ कि हर भक्त बेहद महंगे वस्त्र धारण किये है। पदयात्रा में भव्यता और प्रदर्शन है। इन सबके बीच केवल मुनिवर हैं जो सारे प्रदर्शन से अनजान चिंतन और दर्शन में डूबे हैं। सच्चे निस्पृही, सच्चे अपरिग्रही।

अपरिग्रह भाव मानसपटल पर फ्रीज़ होता है और चिंतन की लहरें उठने लगती हैं। याद आता है एक फक्कड़ साधू महाराज का प्रसंग। महाराज जी के पास ठाकुर जी का अत्यंत सुंदर विग्रह था। वे ठाकुर जी की दैनिक रूप से सेवा करते। स्नान कराते, वस्त्र बदलते, पूजन करते। फिर महाराज जी भिक्षाटन के लिए निकलते। भिक्षा में जो कुछ मिलता, पहले ठाकुर जी को भोग लगाते, पीछे आप ग्रहण करते।

एक रात ठाकुर जी ने स्वप्न में दर्शन दिए और बोले, ” महाराज जी, हर रोज सूखी रोटी खाते-खाते थक गया हूँ। कभी थोड़ा घी भी चुपड़ दिया न करो। माखन और गुड़ की कभी-कभार व्यवस्था कर लिया करो।”

महाराज जी नींद से उठकर बैठ गये। सोचने लगे, मेरा ठाकुर तो लोभी निकला! क्रोध में भरकर ठाकुर जी से बोले, ” तुम्हारा यह चटोरापन नहीं चलेगा। ऐसे तो मेरा अपरिग्रह ही नष्ट हो जायेगा।”

चेले को बुलाकर महाराज जी ने ठाकुर जी उसे सौंपते हुए कहा,” इन्हें ले जाओ और किसी मंदिर में विधिवत स्थापित कर दो। सेठों की बस्ती के किसी मंदिर में बैठाना जहाँ इन्हें रोज जी भर के मिष्ठान, पकवान मिल सकें। मेरे पास तो सूखे टिक्कड़ के सिवा और कुछ मिलने से रहा।”

तात्पर्य है कि अपरिग्रह का इतना कठोर पालन कि ठाकुर जी भी छोड़ दिये। वस्तुत: प्रदर्शन, अनावश्यक संचय की जड़ है। दर्शन में सुविधा से ‘प्र’ उपसर्ग जड़कर चैतन्य समाज जड़ हो चला है। अपने ही हाथों खड़े किये इस एकाक्षरी भस्मासुर से मुक्त हो पाना मनुष्य के लिए टेढ़ी खीर सिद्ध हो रहा है।

अंतिम बात, ‘टेढ़ी खीर’ का अर्थ कठिन होता है लेकिन ‘कठिन’ का अर्थ ‘असंभव’ नहीं होता।…विचार कीजिएगा।

 

© संजय भारद्वाज

अपराह्न 4:34 बजे, 18 सितम्बर 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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