मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 101 ☆ उदासवाणे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 101 ☆

☆ उदासवाणे ☆

मुठीत होते उदासवाणे जीवन धरले

मूठ उघडता पक्षी सारे हवेत उडले

 

नाचावेसे मला वाटले आनंदाने

आनंदाश्रू फक्त नाचले मला न जमले

 

रावण होता पराक्रमी तरि तुटून पडलो

अन् सीतेला वाचवताना पंखच तुटले

 

फिनिक्स पक्षी होणे नाही नशिबी माझ्या

राखेमधुनी उठणे होते त्याला जमले

 

सुख दुःखाच्या झाडावरती घरटे होते

फांदी हलता मनात माझ्या वादळ उठले

 

म्हणून घेतो मीच स्वतःला इथे कविश्वर

कबीर लिहितो तसे कुठे मज दोहे सुचले 

 

मला स्वतःचा निषेध करता आला नाही

कुठे बरोबर कोठे चुकलो नाही कळले

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#54 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #54 –  दोहे ✍

सबका मन निर्मल रहे, मन शंका निर्मूल ।

ललित लालसा से परे, रहे विजन के फूल।।

 

देह और मन का मिलन, सिरज रहा संसार।

तन मन का ही समर्पण, कहलाता है प्यार।।

 

दूर-दूर तन से रहो, हो पर मन के पास ।

आती जाती है हवा, देती है एहसास।।

 

भाई चिंता व्याकुल करें, रखे दूर ही दूर ।

अच्छा वैसा करेंगे, जैसे कहे खजूर।।

 

गाल फुलाना, रूठना, सब कुछ आता याद।

दीवारें हैं सामने,  एकाकी संवाद।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 53 – कितने दिन बाकी है …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “बहुत दिनों तक …। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 53 ☆।। अभिनव गीत ।।

☆ कितने दिन बाकी है …  ☆

सुनो !  कितना मीठा,

हो तुम्हरी राय में

कहो, शकर उतने

चम्मच डालूँ चाय में

 

कितनी कडुआहटें

घुली हुईं जीवन में

उधड़ गये टाँके सब

बचे छेद सीवन में

 

भोजन नहीं सम्भव

छोटी सी आय में

 

किश्तों में पनपी है

इस घर को बीमारी

मुंहबाये खडी हुई

है सबकी लाचारी

 

कुछ तो हो सम्भव

इस आखिरी उपाय में

 

वक्त जुटा करने

को है अपनी ऐयारी

हंस कर रहा बेशक

उड़ने की तैयारी

 

कितने दिन बाकी है

रहना सराय में

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-09-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 100 ☆ लेंब्रेटा का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ‘लेंब्रेटा का लफड़ा)  

☆ व्यंग्य # 100 ☆ लेंब्रेटा का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सपने में आज वो पुराना लेंब्रेटा स्कूटर क्यों आया, समझ न आया, सपने में आया तो आया पर ये क्या है कि दिन भर हर बात में याद आया।  हालांकि अपने जमाने में लेंब्रेटा स्कूटर के जलवे थे। कितनी सारी फिल्मों में हीरो हीरोइन गीत गाते लहराते,आंख मिलाते निकल जाते थे। कल्लू की शादी प्रदर्शनी की फोटो की दुकान में रखी पुराने लेंब्रेटा के ऊपर बैठकर उतरवायी फोटो को देखकर ही हो पाई थी। ऊंचे लोगों के लिए लेंब्रेटा बढ़िया ‌ स्कूटर थी, छकौड़ी बताता था कि लेंब्रेटा के कारण अभिताभ हीरो बन पाये थे। इस तरह लेंब्रेटा दिन भर कोई बहाने दिमाग में बैठी रही। पुराने लेंब्रेटा स्कूटर ने दिन भर इतना तंगाया कि मित्र को फोन करना ही पड़ा।  मित्र को वो टूटी फूटी बेकार सी लेंब्रेटा स्कूटर दहेज में मिली थी। तीस साल से वे धो -पोंछ कर उस स्कूटर को चकाचक रखते थे, ऊपर से चमकती थी अंदर से टीबी पीड़ित थी, हर बार स्टार्ट करने में दो बाल्टी पसीना बहा देती थी, कभी कभार स्टार्ट होती थी तो गन्नाके भगती थी, कभी कभी मित्र मेरे को भी पीछे बैठाकर घुमा देते थे, पर उस समय ये बात समझ नहीं आयी कि मित्र की पत्नी के बैठते ही वो अंगद का पांव बन जाती थी। मित्र की पत्नी जीवन भर उसमें बैठकर घूमने के लिए तरसती रही, पर जब वो बैठतीं तुंरत बंद हो जाती।  लाख कोशिशों के बाद भी स्टार्ट न होती। ये बात अलग है कि उसके घर में घुसते ही एक बार चिढ़ाने के लिए स्टार्ट होती फिर फुस्स हो जाती। उस पुरानी लेंब्रेटा ने पति-पत्नी के खूब झगड़े कराये, उसके कारण पति को कई दिन भूखे रहना पड़ता था।

अंत में हारकर मित्र ने औने-पौने दाम में कबाड़ के भाव एक कबाड़ी को बेच दिया था। हमने सोचा कि वो लेंब्रेटा में हम कभी कभी बैठ लेते थे इसलिए प्रेमवश सपने में धोखे से आ गयी हो,मन नहीं माना तो  मित्र को फोन लगाया।  वहां से आवाज आई, मित्र अभी पत्नी से लड़ाई चल रही है, उसने दहेज में दिये लेंब्रेटा स्कूटर को मुख्य मुद्दा बना लिया है और उसी लेंब्रेटा स्कूटर की वापसी की मांग कर रही है।अब आप बताओ कि कि इतने साल पहले कबाड़ के भाव लेकर कबाड़ी क्या उसे वापस करेगा। कबाड़ी कौन था, कहां से आया था,ये भी तो याद नहीं…… मित्र पूछ रहा है कि आप बताएं कि इस समस्या का समाधान कैसे होगा ?

हम सबके ऊपर छोड़ रहें हैं कुछ बढ़िया सा लिखकर बताएं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #44 ☆ बोझ ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बोझ #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 44 ☆

☆ # बोझ # ☆ 

हमारा जगतू

जब रिटायर हुआ

विदाई समारोह ने

सबके मन को छूआ

गले में फूलों की माला

ओढ़ा हुआ कीमती दुशाला

परिवार के लिए

डिब्बा भर मिठाई

सहकर्मियों द्वारा

बधाई हो बधाई

इतना स्नेह, प्यार, अपनापन,

सम्मान देखें

उसे तो जमाना हुआ

खुशी से डबडबाई

आंखों के साथ

वो अपने घर को

रवाना हुआ

घर के सब लोगों ने

उसका सत्कार किया

पैर छुए

आशिर्वाद लिया

पत्नी ने आस पड़ोस में

बांटी मिठाइयां

सबने दी, पति-पत्नी को

बधाईयां

 

भोजन के पश्चात

जगतू ने परिवार को

रिटायरमेंट के बाद

मिली राशि दिखाई

देखकर सबके चेहरे पर

निराशा छाई

इतनी कम?

क्यों? कैसे?

क्या कोई गड़बड़ है?

या आपका

बाहर कोई चक्कर है?

 

जगतू के ये सुनते ही

उड़ गये होश

अपने ही लगा रहे हैं

उस पर दोष

जगतू ने भारी मन से

मुंह खोला

अंदर से

द्रवित होकर बोला-

इस छोटी सी तनख्वाह में

तुम सबको ख़ुशी ख़ुशी पाला

खुद आधी रोटी खाई

तुम्हें खिलाया पूरा निवाला

पढ़ाया, लिखाया

काबिल बनाया

तीन लड़कियों की

और तुम्हारी शादी की

तुम्हारे एजूकेशन लोन की

किस्तें दी

होम लोन, वाहन लोन

और सभी लोन

चुकता करके आया हूं

बची हुई राशि का चेक

तुम्हारे लिए लाया हूं

फिर भी आप सब नाराज़ है

शायद मेरी

किस्मत ही खराब है

 

सुबह पत्नी ने

अनमने मन से

चाय पिलाई

जैसे रात भर में

वो हो गई हो पराई

बहू-बेटे ने मुंह फेर लिया

जगतू को भविष्य की

चिंताओंने घेर लिया

 

आजकल

जगतू सुबह उठकर

खुद चाय बनाकर पीता है

फिर सुबह-शाम की सैर

दिनभर अपने मर्जी से

जीता है

आज सुबह पार्क के

बेंच पर बैठ कर

एकांत में

कुछ सोच रहा है

माथे पर आये पसीने को

रूमाल से पोंछ रहा है

मै अब घर में अनवांटेड

रोज बन गया हूं

शायद परिवार के लिए

तो अब एक

बोझ बन गया हूं

बोझ बन गया हूं /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 46 ☆ आयुष्याची संध्याकाळ… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 46 ? 

☆ आयुष्याची संध्याकाळ… ☆

आयुष्याची संध्याकाळ

खूप भयाण ठरते

आपले असून सर्व काही

मिळत काहीच नसते…!!

 

आयुष्याची संध्याकाळ

विचार करायला लावते

तुरुंगवास की, अज्ञातवास

कोडे कधीच नं सुटते…!!

 

आयुष्याची संध्याकाळ

सर्व पर-स्वाधीन सर्व होते

राहून सामोर पाणी तरी

घशाला नित, कोरड येते…!!

 

आयुष्याची संध्याकाळ

एकटे आपण सदैव असतो

चौघांच्या खांद्यावर जातांना

घरात गरम गरम भात शिजतो…!!

 

आयुष्याची संध्याकाळ

प्रत्येकाला भोगावी लागते

कितीही कमवा धन परंतू

शेवटी आमंत्रण “निधन” असते

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #103 ☆ व्यंग्य – बड़े साहब, छोटे साहब….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘बड़े साहब, छोटे साहब…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 103 ☆

व्यंग्य –  बड़े साहब, छोटे साहब

बड़े साहब अपने कमरे में चीख रहे थे और उनकी चीखें कमरे को पार करके पूरे दफ्तर में गूँज रही थीं। सुनकर दूसरे साहब लोग एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्करा रहे थे और बाबू लोग फाइल में नज़र गड़ाये मुस्कान दबा रहे थे।

बात यह थी कि एक नासमझ आदमी अपने काम को लेकर साहब के कमरे में घुस गया था और उसने दफ्तर की परंपरा के अनुसार नोटों का एक बंडल साहब की सेवा में प्रस्तुत कर दिया था। साहब इसी बात पर भड़क कर चीख रहे थे। कह रहे थे, ‘मुझे रिश्वत देता है? मुझे भ्रष्ट समझता है? अभी पुलिस को बुलाता हूँ। जेल में सड़ जाएगा। मुझे समझता क्या है?’

आदमी पसीना पोंछता हुआ बाहर निकला। उसे शायद अपना कसूर समझ नहीं आ रहा था। पसीना पोंछते वह बाहर के दरवाजे की तरफ बढ़ गया। तभी छोटे साहब के कमरे से निकलकर चपरासी उसकी तरफ लपका। पास जाकर आदमी से मीठे स्वर में बोला, ‘परेशान मत होइए। सब ठीक हो जाएगा। आपको छोटे साहब बुलाते हैं।’
छोटे साहब ने आदमी को प्रेमपूर्वक कुर्सी पर बैठाया। चपरासी ने ठंडा पानी पेश किया। छोटे साहब बोले, ‘शान्त हो जाइए। आराम से बैठिए। हम तो बड़े साहब का बिहेवियर देखकर बहुत दुखी हैं।जनता के साथ यह कैसा बिहेवियर है? जनता बड़ी उम्मीद लेकर आती है, उसकी उम्मीद पर पानी नहीं फेरना चाहिए। आपने कुछ पैसे- वैसे का ऑफर दे दिया तो भड़कने की कौन सी बात है? उनको नहीं चाहिए तो भलमनसाहत से मना कर देना चाहिए। इसमें चिल्लाने की क्या जरूरत है?’

छोटे साहब आगे बोले, ‘यह साहब अभी पन्द्रह दिन पहले ही आये हैं, इसीलिए आप धोखा खा गये। साहब अपने को ईमानदार समझते हैं। इसी ईमानदारी के चक्कर में तीस साल की नौकरी में पैंतीस ट्रांसफर झेल चुके हैं। शटलकॉक बने हुए हैं। यहां भी छः महीने से ज्यादा नहीं टिकेंगे। हम कब तक ऐसे अफसर को झेलेंगे? पूरे दफ्तर का वातावरण बिगड़ जाता है। वर्क कल्चर पर असर पड़ता है।’

साहब थोड़ा रुककर फिर बोले, ‘वो हरयाना में एक आईएएस खेमका जी हैं। उनके भी चौबीस साल की सर्विस में इक्यावन ट्रांसफर हो चुके हैं, यानी एक जगह औसतन छः महीने भी नहीं टिक पाये। हर सरकार उनसे छड़कती है। उन्हें भी ईमानदारी की बीमारी है। हमारे साहब को उन्हीं का भाई समझो। यह लोग अपने को राजा हरिश्चंद्र समझते हैं। अब राजा हरिश्चंद्र बनोगे तो राजा हरिश्चंद्र की तरह फजीहत भी भोगोगे।’

साहब फिर बोले, ‘ऐसे ही लोगों के लिए गोस्वामी जी ने लिखा है— सकल पदारथ हैं जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं। इनके सामने मौके ही मौके हैं, लेकिन इनके हाथ खाली के खाली हैं। मुट्ठी बाँधे आये थे और हाथ पसारे चले जाएँगे। बाल-बच्चे कोसेंगे कि इतने बड़े पद पर रहते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं किया। नाते- रिश्तेदार भी भकुरे रहते हैं क्योंकि उनका कुछ भला नहीं होता। दफ्तर वाले दिन गिनते रहते हैं कि कब उनका ट्रांसफर या रिटायरमेंट हो। अब बताइए, ऐसी ईमानदारी से क्या फायदा?’
साहब आगे बोले, ‘भैया, आईएएस, आईपीएस का पद बड़े भाग्य से मिलता है। इसे ईमानदारी के चक्कर में ‘वेस्ट’ नहीं कर देना चाहिए। अपना उसूल है सेवा करो और मेवा खाओ। अपने देश की धरती रत्नगर्भा है। यहां रत्न भरे पड़े हैं, लेकिन रत्नों को पाने के लिए जमीन को खुरचना पड़ता है। सही ढंग से खुरचोगे तो झोली हमेशा भरी रहेगी।’
अन्त में साहब बोले, ‘आप निश्चिंत होकर जाइए। आपका काम कराने की गारंटी मैं लेता हूँ। जो नोट आप बड़े साहब को दे रहे थे वे इस तरफ सरका दें। हम दस बीस कागजों के बीच आपका कागज रखकर बड़े साहब के दस्तखत करा लेंगे। उन्हें भनक भी नहीं लगेगी। हमारा चपरासी इस काम में एक्सपर्ट है। और जो खर्चा लगेगा, आपको बता देंगे। पैसे का ज्यादा मोह मत रखिएगा। पैसे को हाथ का मैल समझिए। त्याग की भावना हो तो कोई काम रुकता नहीं। इस बात को सब लोग समझ लें तो कोई दिक्कत न हो। आप अब यहाँ मत आइएगा, आर्डर आपके घर पहुँच जाएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 102 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – तस्मै श्रीगुरवै नम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 102 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – तस्मै श्रीगुरवै नम: ☆

गुरु ऐसा शब्द जिसके उच्चारण और अनुभूति के साथ एक प्रकार की दिव्यता जुड़ी है, सम्मान की प्रतीति जुड़ी है। गुरु का शाब्दिक अर्थ है अंधकार को दूर करने वाला।

प्रायः हरेक के मन में यह प्रश्न उठता है कि क्या जीवन में एक ही गुरु हो सकता है? इसका उत्तर दैनिक जीवन के क्रियाकलापों और सांस्कृतिक परम्पराओं में अंतर्भूत है।

वैदिक संस्कृति में भिन्न-भिन्न गुरुकुलों में अध्ययन की परंपरा रही। गुरुकुल में शिक्षा और विचार की भिन्नता भी मिलती है। इन्हें विभिन्न- ‘स्कूल्स ऑफ थॉट’ कहा जा सकता है। वर्तमान में मुक्त शिक्षा का मॉडल काम कर रहा है। छात्र, विज्ञान के साथ कला और वाणिज्य का विषय भी पढ़ सकते हैं। शिक्षा ग्रहण करते हुए कभी भी अपना ‘स्कूल ऑफ थॉट’ बदल सकते हैं।

वर्णमाला का उच्चारण विद्यार्थी के.जी. में सीखता है। प्री-प्राइमरी में वर्ण लिखना सीखता है। शिक्षा के बढ़ते क्रम के साथ शब्द, तत्पश्चात शब्द से वाक्य, फिर परिच्छेद जानता है, अंततोगत्वा धाराप्रवाह लिखने लगता है। के.जी. से पी.जी. तक के प्रवास में कितने गुरु हुए? जिनसे के.जी. में पढ़ा, उन्हीं से पी.जी. में क्यों नहीं पढ़ते? उलट कर भी देख सकते हैं। जिनसे पी.जी. में पढ़ा, उनसे ही के.जी. में पढ़ाने के लिए क्यों नहीं कहते? यही नहीं भाषा की शिक्षा के लिए अलग शिक्षक, चित्रकला के लिए अलग, शारीरिक शिक्षा, विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र हर एक के लिए अलग शिक्षक। उच्च शिक्षा में तो विषय के एक विशिष्ट भाग में स्पेशलाइजेशन किया हुआ शिक्षक होता है। कोई एम.डी.मेडिसिन, कोई स्त्रीरोग विशेषज्ञ, कोई हृदयरोग विशेषज्ञ तो एम.एस. याने शल्य चिकित्सक।

काव्य में कोई गीत का विशेषज्ञ है, कोई ग़ज़ल कहने का व्याकरण बताता है तो कोई मुक्त कविता में लयबद्ध होकर बहना सिखाता है। सभी विधाएँ एक ही से क्यों नहीं सिखी जा सकती? खननशास्त्र का ज्ञाता, गगनशास्त्र नहीं पढ़ा सकता, हवाई जहाज उड़ाने का प्रशिक्षण देनेवाला, पानी का जहाज चलाना नहीं सिखा सकता। भरतनाट्यम, कथक, कुचिपुड़ी, मणिपुरी की साधना एक ही नृत्यगुरु के पास नहीं साधी जा सकती।

गुरु और शिक्षक की भूमिका को लेकर भी अनेक के मन में ऊहापोह होता है। यह सच है कि एक समय गुरु और शिक्षक में अंतर था। शिक्षक अपना पारिश्रमिक स्वयं निर्धारित करता था जबकि गुरु को प्रतिदान शिष्य देता था। कालांतर में बदलती परिस्थितियों ने इस अंतर-रेखा को धूसर कर दिया। वर्तमान में गुरु और शिक्षक न्यूनाधिक पर्यायवाची हैं। शिक्षक, जीवन को अक्षर और व्यवहार के ज्ञान का प्रकाश देनेवाला गुरु है।

गुरुदेव दत्त अर्थात भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव का अवतार माना जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समन्वित अवतार की यह आस्था अनन्य है। उन्होंने चौबीस गुरु बनाये थे। राजा यदु को इन गुरुओं की जानकारी देते हुए भगवान दत्तात्रेय ने आत्मा को सर्वोच्च गुरु घोषित किया। साथ ही बताया कि चौबीस चराचर को गुरु मानकर उनसे जीवनदर्शन की शिक्षा ग्रहण की है। भगवान के ये चौबीस गुरु हैं, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र, अजगर, कपोत, पतंगा, मछली, हिरण, हाथी, मधुमक्खी, शहद निकालने वाला, कुरर पक्षी, कुमारी कन्या, सर्प, बालक, पिंगला नामक वैश्या, बाण बनाने वाला, मकड़ी, और भृंगी कीट। प्रत्येक गुरु से उन्होंने जीवन का भिन्न आयाम सीखा।

बहुआयामी ज्ञानदाता माँ प्रथम गुरु होती हैं। माँ प्रथम होती हैं अर्थात द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम गुरु भी होते हैं। इनमें से कोई किसीका स्थान नहीं ले सकता वरन हरेक का अपना स्थान होता है।

आज शिक्षक दिवस के संदर्भ में विनम्रता से कहता हूँ कि प्रत्येक का मान करो। ज्ञान को धारण करो, जिज्ञासानुसार एक अथवा अनेक गुरु करो।..तस्मै श्रीगुरवै नम:।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 56 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 56 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 56) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 56 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

परिंदे  शुक्रगुजार  हैं

पतझड़ के भी , दोस्तों

तिनके कहाँ  से  लाते,

अगर सदा, बहार रहती…

 

Birds are grateful to

the autumn too,

Where else from would

they bring straws,

if spring remained

there  forever…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दिखाई कब दिया करते हैं

बुनियाद के पत्थर…

जमीं में जो दब गए, इमारत

उन्हीं पे तो क़ायम है…

 

When have the foundation

stones ever been seen…

Buried in the ground, they

only hold the building…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

नए  रिश्ते  बने  ना  बनें

इसका मलाल मत करना

कहीं पुराने  टूट ना जाएँ

बस इसका ख़्याल रखना…

 

Don’t regret whether new

relations are made or not

Just  make  sure  that

old ones aren’t broken!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

होगी तुमको लाख

समझ  इश्क़  की,

हमारी  इश्क़  में

नादानी ही अच्छी…

 

You may have a deep

understanding of love,

But my imprudence in

love, only is all fine..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 57 ☆ जबलपुर में शुभ प्रभात ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  रचित  भावप्रवण रचना ‘जबलपुर में शुभ प्रभात । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 57 ☆ 

☆ जबलपुर में शुभ प्रभात ☆ 

*

रेवा जल में चमकतीं, रवि-किरणें हँस प्रात।

कहतीं गौरीघाट से, शुभ हो तुम्हें प्रभात।।१।।

*

सिद्धघाट पर तप करें, ध्यान लगाकर संत।

शुभप्रभात कर सूर्य ने, कहा साधना-तंत।।२।।

*

खारी घाट करा रहा, भवसागर से पार।

सुप्रभात परमात्म से, आत्मा कहे पुकार।।३।

*

साबुन बिना नहाइए, करें नर्मदा साफ़।

कचरा करना पाप है, मैया करें न माफ़।।४।।

*

मिलें लम्हेटा घाट में, अनगिन शिला-प्रकार।

देख, समझ पढ़िये विगत, आ आगत के द्वार।।५।।

*

है तिलवारा घाट पर, एक्वाडक्ट निहार।

नदी-पाट चीरे नहर, सेतु कराए पार।।६।।

*

शंकर उमा गणेश सँग, पवनपुत्र हनुमान।

देख न झुकना भूलना, हाथ जोड़ मति मान।।७।।

*

पोहा-गरम जलेबियाँ, दूध मलाईदार।

सुप्रभात कह खाइए, कवि हो साझीदार।।८।।

*

धुआँधार-सौन्दर्य को, देखें भाव-विभोर।

सावधान रहिए सतत, फिसल कटे भव-डोर।।९।।

*

गौरीशंकर पूजिए, चौंसठ योगिन सँग।

भोग-योग संयोग ने, कभी बिखेरे रंग।।१०।।

*

नौकायन कर देखिये, संगमरमरी रूप।

शिखर भुज भरे नदी को, है सौन्दर्य अनूप।११।।

*

बहुरंगी चट्टान में, हैं अगणित आकार।

भूलभुलैयाँ भुला दे, कहाँ गई जलधार?।१२।।

*

बंदरकूदनी देख हो, लघुता की अनुभूति।

जब गहराई हो अधिक, करिए शांति प्रतीति।।१३।।

*

कमल, मगर, गज, शेर भी, नहीं रहे अब शेष।

ध्वंस कर रहा है मनुज, सचमुच शोक अशेष।।१४।।

*

मदनमहल अवलोकिए, गा बम्बुलिया आप।

थके? करें विश्राम चल, सुख जाए मन-व्याप।।१५।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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