हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 64 ☆ अजीजन बाई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्वतंत्रता संग्राम की एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित प्रेरक लघुकथा अजीजन बाई। यह लघुकथा हमें हमारे इतिहास के एक भूले बिसरे  स्त्री चरित्र की याद दिलाती है।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 64 ☆

☆ अजीजन बाई ☆

वह प्रसिद्ध नर्तकी थी, उसे घुंघरू पहना दिए गए थे। महफिल में उसका नृत्य देखने दूर – दूर से लोग आया करते थे। बात सन् 1857 की है जब स्वतंत्रता सेनानी मातृभूमि की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा रहे थे। अजीजन बाई उदास थी, तबले की थाप और  घुंघरुओं की आवाज अब उसे अच्छी नहीं लग रही थी।  उसने घुंघरू उतार दिए। जहाँ कभी महफिलें गुलजार हुआ करती थीं, वहाँ  अजीजन क्रांतिकारियों के साथ मिलकर स्वाधीन भारत के सपने संजोने लगी। उसका प्रेम अब देशभक्तों पर लुट रहा था। उसने अपने बेशकीमती गहने, धन-दौलत सब भारत माता के आँचल में खुशी -खुशी न्यौछावर कर दिए।

अजीजन की मस्तानी टोली अंग्रेजों की छावनी में जाकर उनका मनोरंजन करने के बहाने वहां की गुप्त सूचनाएं स्वतंत्रता सेनानियों तक पहुंचाया करती थी। वे घायल क्रांतिकारियों की देखभाल करतीं, उन्हें भोजन और जरूरी सामान पहुँचातीं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बिठूर के युद्ध में हार जाने  पर नाना साहब और तात्या टोपे तो बच निकले, अजीजन पकड़ी गई। अंग्रेज अधिकारी ने शर्त रखी कि यदि वह स्वतंत्रता सेनानियों की योजनाओं के बारे में बता दे तो उसे माफ कर दिया जाएगा। अजीजन मुस्कुराते हुए बोली – जानकारी देने का तो सवाल ही नहीं है और माफी तो अंग्रेजों को हमारे देशवासियों से मांगनी चाहिए जिन पर उन्होंने अत्याचार किए हैं। हम तो अपनी मातृभूमि का कर्ज उतार रहे हैं बस। इतना सुनते ही अपमान से तिलमिलाए अंग्रेज अधिकारी ने अजीजन के शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया।

अजीजन पूरे भारत देश की अज़ीज़ हो गईं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 61 ☆ जुगाड़ की संस्कृति ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जुगाड़ की संस्कृति”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 61 – जुगाड़ की संस्कृति

भागने और भगाने का खेल करते- करते सोहमलाल जी अपने सारे कार्य पूरे करवा ही लेते हैं। हर बार एक नए बहाने के साथ उनका भाषण सुनने को मिल जाता है। अच्छी- अच्छी सोच, समझदारी भरी बातें किसी को भी आसानी से अपने जाल में फसाने के लिए काफी होती हैं। बस एक खूबी है, जिससे वो आज तक अपना परचम फहरा रहे हैं कि सब को साथ लेकर चलना है। जो जिस लायक हो उससे वैसा कार्य करवाना, साथ ही साथ सीखना और सिखाना।

खैर ये दुनिया तो किसी के लिए नहीं रुकती है , बस चलते रहो तो एक न एक दिन अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाओगे। इसी मंत्र को लेकर संभावना जी लगातार प्रचार – प्रसार में लगी हुई हैं। किसी भी तरह से पोस्टर की रौनक बनना है। शहर की लगभग सभी होर्डिंग उनकी तस्वीर के बिना पूरी होती ही नहीं है। इस सब के जुगाड़ में वो दिन- रात बस चरैवेति- चरैवेति की धुन को अलापते हुए बढ़ती जा रही हैं। जो कोशिश करेगा वो तो जीतेगा ही। उच्च पद पर विराजित सोहमलाल जी व संभावना जी दोनों में यही समानता है कि वे एक पल के लिए भी मोबाइल अपने से दूर नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके सारे कार्यों का हमराज यही स्मार्टफोन ही तो है। उनके दिमाग मे क्या चल रहा है , ये उनसे पहले ही जान जाता है। दरसल दोनों लोग अपने दिमाग़ से नहीं किसी और के सपनों को पूरा करने के लिए दूसरे के अनुसार कार्य करते हैं।

अच्छा यही कारण है कि पल में तोला पल में मासा उनके व्यवहार से झलकता है। वे लोग अपने कहे हुए कथनों में अडिग नहीं रह पाते हैं। जैसे ही उनको नया संदेश मिला तो तुरंत पुरानी बातों को बदलते हुए नए सुर को पकड़ लेते हैं। सुर और साज का तो पुराना नाता है। राग और वैराग्य दोनों को एक साथ सम्हाल के चलना बिल्कुल ऐसे ही, जैसे रस्सी पर सधा हुआ व्यक्ति चल कर दिखाता। ऐसे कुशल लोगों को तालियाँ तो खूब मिलती हैं किंतु जब बात पैसों की हो तो वहाँ चमक- दमक ही आगे विराजित होकर सम्मानित होती हुई नज़र आती है। सम्मान के बारे में जितना कहा जाए वो कम होगा क्योंकि इसे तो उनकी ही गोद पसंद होती है जो हरे भरे नोटों से सजी रहती हो। पैसा आते ही जहाँ एक तरफ चेहरे की रौनक बढ़ती है तो दूसरी तरफ बोलने का अंदाज भी आसमान छूने लगता है।

कहते हैं कि आजकल तो वस्तुओं के भाव ही इसकी बराबरी कर सकते हैं। करें भी क्यों न?  दोनों जगह लक्ष्मी की ही पूजा जो होती है। भाव व प्रभाव का गहरा नाता है। प्रभाव बढ़ते ही भाव का बढ़ना लाजिमी होता है। छोटी- छोटी बातों को तूल देते हुए झगड़ पड़ना संभावना जी की आदतों में शुमार है। एक छोर इधर से और दूसरा उधर से इसे जोड़ने की नाकाम कोशिश करते हुए सोहमलाल जी अक्सर अपना आपा खोने लगते हैं। जुगाड़ की संस्कृति न जाने कितने घरों को बर्बाद कर चुकी है।  ऐसे व्यक्ति  न तो घर के न ही देश के सगे होते हैं ये तो बस येन केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने पर ही विश्वास रखते हैं। बस समय पास करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको बलगराते  रहते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 81 – हाइबन- ओस्प्रे ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- ओस्प्रे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 81 ☆

☆ हाइबन-ओस्प्रे ☆

ओस्प्रे को समुद्री बाज भी कहते हैं। इसे समुद्री हॉक, रिवर हॉक, फ़िश हॉक के नाम से भी जाना जाता है। 7 सेंटीमीटर लंबा और 180 सेंटीमीटर पंखों की फैलाव वाला यह पक्षी मछलियों का शिकार करके खाता है।

यूरोपियन महाद्वीप में बहुतायत से पाया जाने वाला यह पक्षी भारत में भ्रमण के लिए आता रहता है। 1 से 2 किलोग्राम के वजन का यह पक्षी तैरती हुई मछली को झपट कर पंजे में दबा लेता है। इस के पंजों के नाखून गोलाई लिए होते हैं। एक बार मछली पंजे में फंस जाए तो निकल नहीं पाती है।

इसके करिश्माई पंजे के गोलाकार नाखून ही कभी-कभी इसकी मौत के कारण बन जाते हैं। वैसे तो यह अपने वजन से दुगुने वजन की मछली का शिकार कर लेता है। फिर उड़ कर अपने प्रवासी वृक्ष पर आकर उसे खा जाता है। मगर कभी-कभी अनुमान से अधिक वजनी मछली पंजे में फंस जाती है। इस कारण इसकी पानी में डूबने से मृत्यु हो जाती है।

इस पक्षी का सिर और पंखों के निचले हिस्से भूरे और शेष भाग हल्के काले रंग के होते हैं। इसे हम सब बाज के नाम से भी जानते हैं।

शांत समुद्र~

ओस्प्रे डूबने लगा

मछली संग।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 68 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है सप्तम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 68 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का सप्तम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

भगवद ज्ञान

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सरल शब्दों में इस तरह भगवद ज्ञान दिया।

पृथापुत्र मेरी सुनो,भाव भरी सौगात।

मन मुझमें आसक्त हो, करो योगमय गात।। 1

 

दिव्य ज्ञान मेरा सुनो, सरल,सहज क्या बात।

व्यवहारिक यह ज्ञान ही, जीवन की सौगात।। 2

 

यत्नशील सिधि-बुद्धि हित, सहस मनुज में एक।

सिद्धि पाय विरला मनुज, करे एक अभिषेक।। 3

 

अग्नि, वायु, भू, जल, धरा; बुद्धि, मनाहंकार।

आठ तरह की प्रकृतियाँ, अपरा है संसार।। 4

 

पराशक्ति है जीव में, यह ईश्वर का रूप।

यही प्रकृति है भौतिकी, जीवन के अनुरूप।। 5

 

उभय शक्तियाँ जब मिलें, यही जन्म का मूल।

भौतिक व आध्यात्मिकी, उद्गम, प्रलय त्रिशूल।। 6

 

परम श्रेष्ठ मैं सत्य हूँ, मुझसे बड़ा न कोय।

सुनो धनंजय ध्यान से, सब जग मुझसे होय।। 7

 

मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूरज-चन्द्र-प्रकाश।

वेद मन्त्र में ओम हूँ , ध्वनि में मैं आकाश।। 8

 

भू की आद्य सुगंध हूँ, ऊष्मा की मैं आग।

जीवन हूँ हर जीव का, तपस्वियों का त्याग।। 9

 

आदि बीज मैं जीव का, बुद्धिमान की बुद्धि।

मनुजों की सामर्थ्य मैं, तेज पुंज की शुद्धि।। 10

 

बल हूँ मैं बलवान का, करना सत-हित काम।

काम-विषय हो धर्म-हित, भक्ति भाव निष्काम।। 11

 

सत-रज-तम गुण मैं सभी, मेरी शक्ति अपार।

मैं स्वतंत्र हर काल में, सकल सृष्टि का सार।। 12

 

सत,रज,तम के मोह में, सारा ही संसार।

गुणातीत,अविनाश का, कब जाना यह सार।। 13

 

दैवी मेरी शक्ति का, कोई ओर न छोर

जो शरणागत आ गया, जीवन धन्य निहोर।। 14

 

मूर्ख, अधम माया तले, असुर करें व्यभिचार।

ऐसे पामर नास्तिक, पाएँ कष्ट अपार।। 15

 

ज्ञानी, आरत लालची, या जिज्ञासु उदार।

चारों हैं पुण्यात्मा, पाएँ नित उपहार।। 16

 

ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है, करे शुद्ध ये भक्ति।

मुझको सबसे प्रिय वही, रखे सदा अनुरक्ति।। 17

 

ज्ञानी सबसे प्रिय मुझे, मानूँ स्वयं समान।

करे दिव्य सेवा सदा, पाए लक्ष्य महान।। 18

 

जन्म-जन्म का ज्ञान पा, रहे भक्त शरणार्थ।

ऐसा दुर्लभ जो सुजन, योग्य सदा मोक्षार्थ।। 19

 

माया जो जन चाहते, पूजें देवी-देव।

मुक्ति-मोक्ष भी ना मिले, रचता चक्र स्वमेव।। 20

 

हर उर में स्थित रहूँ, मैं ही कृपा निधान।

कोई पूजें देवता, कोई भक्ति विधान।। 21

 

देवों का महादेव हूँ, कुछ जन पूजें देव।

जो जैसी पूजा करें, फल उपलब्ध स्वमेव।। 22

 

अल्प बुद्धि जिस देव को,भजते उर अवलोक।

अंत समय मिलता उन्हें, उसी देव का लोक।। 23

 

निराकार मैं ही सुनो,मैं ही हूँ साकार।

मैं अविनाशी, अजन्मा, घट-घट पारावार।। 24

 

अल्पबुद्धि हतभाग तो, भ्रमित रहें हर बार।

मैं अविनाशी, अजन्मा, धरूँ रूप साकार।। 25

 

वर्तमान औ भूत का, जानूँ सभी भविष्य।

सब जीवों को जानता, जाने नहीं मनुष्य।। 26

 

द्वन्दों के सब मोह में, पड़ा सकल संसार।

जन्म-मृत्यु का खेल ये, मोह न पाए पार।। 27

 

पूर्व जन्म, इस जन्म में, पुण्य करें जो कर्म।

भव-बन्धन से मुक्त हों,करें भक्ति सत्धर्म।। 28

 

यत्नशील जो भक्ति में, भय-बंधन से दूर।

ब्रह्म-ज्ञान,सान्निध्य मम्,पाते वे भरपूर।। 29

 

जो भी जन ये जानते, मैं संसृति का सार।

देव जगत संसार का , मैं करता उद्धार।। 30

 

इस प्रकार श्रीमद्भागवतगीता सातवाँ अध्याय,” भगवद ज्ञान ” का भक्तिवेदांत का तात्पर्य पूर्ण हुआ।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 73 – मी… ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #73 ☆ 

☆ मी… ☆ 

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदीकिनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी.

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १४ ) – राग~जौनपूरी/जीवनपूरी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १४ ) – राग~जौनपूरी/जीवनपूरी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

सूर संगत~राग~जौनपूरी/जीवनपूरी

मागील आठवड्यांत आसावरी थाटांतील दरबारी कानडा रागाविषयीच्या विवेचनानंतर त्याच आसावरी थाटांतील राग जौनपूरी किंवा जीवनपूरी या रागाविषयी लिहावे असे मला वाटते.

आपल्याला माहीतच आहे की सर्वसाधारणपणे थाटातील स्वरांप्रमाणेच त्या त्या थाटोत्पन्न रागांतील स्वर रचना असतात. आसावरी  थाटात गंधार,धैवत व निषाद कोमल म्हणून दरबारी कानडा आणि जौनपूरी दोन्ही रागांत ग ध नी कोमल! हे सर्व स्वर सारखे असूनही दोन राग भिन्न का बरे वाटतात? त्याचे कारण रागांचे चलन!

षाडव ~ संपूर्ण जातीचा हा राग आरोही रचनेत सरळ मार्गी आहे तर अवरोही रचना मात्र वक्र स्वरूपाची असल्याचे आपल्या लक्षांत येते.

सा रे म प(ध)(नी) सां ~ आरोह

सां रें (नी)(ध)प (ध)म प (ग) रे सा.~असा वक्र स्वरूपी अवरोह.

असे असले तरी काही लोक सां (नी)(ध)प म (ग) रे सा असा सरळ अवरोहही घेतात.मात्र वक्रतेमुळे आणि गंधार व धैवताच्या आंदोलनामुळे रागाचे माधूर्य अधिक वाढते.तसेच तीच या रागाची ओळख आहे.

धैवत वादी व गंधार संवादी मानून हा राग सादर करायचा असतो. वादी धैवत हा उत्तरांगांतील स्वर असल्यामुळे याची बढत मध्य व तार सप्तकांतच केली जाते.रियाजासाठी मात्र मंद्र सप्तकांतही गाणे आवश्यक आहे.

आसावरी हा जनक राग प्राचीन आहे.जौनपूरी आणि आसावरी या दोहोत तसा फारसा फरक नाही.जौनपूरीत आरोही निषाद आहे तर आसावरीत आरोहात निषाद वर्ज्य आहे येवढाच काय तो फरक!हिंदुस्तानी संगीतातला आसावरी हा राग दक्षिणेकडे गायला जातो,पण ते जीवनपूरी व आसावरीचे मिश्रण असते.उत्तर हिंदुस्तानी संगीतातही हे दोन राग वेगळे ठेवणे बर्‍याचदां शक्य होत नाही.

मंगेश पाडगांवकरांच्या “दूर आर्त सांग कुणी छेडिली आसावरी” ह्या कवितेला यशवंत देव यांनी जी संगीत रचना केली आहे ते आसावरी व जीवनपूरी यांच्या मिश्रणाचे उत्तम उदाहरण आहे.

दिवसा सादर होणारा हा राग मधूर तर आहेच,पण खेळकर वृत्तीचाही आहे.किशोरीताई अमोणकर यांची “छुम छननन बिछुवा बाजे”किंवा अश्विनी भिडे यांनी गायिलेली “अब पायल बाजन लागी रे” या बंदिशी ऐकल्या की जौनपूरीतला खेळकरपणा आपल्या डोळ्यासमोर साकार होतो, आणि मनाची सगळी मरगळ झटकून नवचैतन्य निर्माण झाल्याचा भास होतो.

मायकेल राॅबीन्सन या अमेरिकेतील संगीतप्रेमी माणसाने जौनपूरी ऐकल्यानंतर एखाद्या मादक आणि सुंदर स्त्रीचे चित्र डोळ्यासमोर उभे रहाते असे उद्गार काढले आहेत.

मानापमान नाटकांतील”प्रेमभावे जीव जगी या नटला”हे जौनपूरीतील पद असेच चेतना जागृत करणारे आहे.भक्तिरचनाही ह्या रागात गोड आणि भावपूर्ण वाटतात.याचे उदाहरण म्हणजे अभिषेकीबुवांनी गाजविलेला संत गोरा कुंभार या नाटकातील

“अवघे गरजे पंढरपूर/चालला नामाचा गजर”हा अभंग,तसेच “देवा तुझा मी सोनार”ही भक्तीरचना!सी रामचंद्र यांनी सरगम या चित्रपटांतील”छेड सखी सरगम”हे गाणे जीवनपूरी/आसावरी ह्या मिश्रणांतूनच संगीतबद्ध केले आहे.टॅक्सी ड्रायव्हरमधील”जाये तो जाये कहाॅं,मुघलेआझममधील”मुहब्बतकी झूठी कहानीपे रोये” ह्या गाण्यांवर जौनपूरीची छाप आहे असे जाणवते.

जौनपूर या गांवाच्या नावावरून जौनपूरी हे नाव आले असावे व नंतर त्याचे जीवनपूरी झाले असे काहींचे मत आहे.सुलतान शर्की या अमीर खुश्रोच्या शिष्याने हा राग बनविला असेही मानतात.

तानसेन वंशाचे गायक मात्र या रागाचे अस्तित्व नाकारतात.काहीही वाद असले तरी भारतीय संगीतात जौनपूरी अथवा जीवनपूरी या रागाला निश्चितपणे स्वतंत्र अस्तित्व आहे.

क्रमशः ….

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 89 – बाल कविता – चोर-सिपाही, राजा-रानी…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी बाल कविता चोर-सिपाही, राजा-रानी…..। )

☆  तन्मय साहित्य  #89 ☆

 ☆ बाल कविता – चोर-सिपाही, राजा-रानी….. ☆

चोर सिपाही राजा रानी

मची हुई थी खींचातानी।

 

चोर कहे, चोरी नहीं की है

कहे सिपाही अलग कहानी।

 

रानी जी को गुस्सा आया

राजा ने भी, भृकुटी तानी।

 

फिर न्यायाधीश को बुलवाया

करी सिपाही ने अगवानी।

 

न्यायाधीश ने समझाया कि,

सही बोल, मत कर मनमानी।

 

झूठ कहा तो, दंड मिलेगा

हवा जेल की पड़ेगी खानी।

 

हाँ साहब जी, भूल हो गई

चोर ने अपनी गलती मानी।

 

अब न करुँगा आगे चोरी

माफ करो मेरी नादानी।

 

तंग गृहस्थी और गरीबी

नरक हुई मेरी जिंदगानी।

 

न्यायाधीश को रहम आ गया

चिंतित भी थी सुनकर रानी।

 

राजा को भी दया आ गई

थोड़ी सजा की मन में ठानी।

 

गर्मी के मौसम भर तुम्हें

पिलाना है प्यासों को पानी।

 

खत्म हो गई यहाँ कहानी

एक था राजा एक थी रानी।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -10 – बिनसर वन अभ्यारण”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ 

बिनसर वन अभ्यारण, अल्मोड़ा जिले में स्थित है । एक ऊंची पहाड़ी चोटी में हरे भरे वृक्षों से आच्छादित यह स्थल लगभग 200 प्रजातियों की वनस्पतियों और 150 किस्म के पक्षियों का घर है । स्थानीय भाषा में इस पहाड़ी को झांडी ढार  कहते हैं लेकिन बिनसर का अर्थ है नव प्रभात और इस पहाड़ी से सुबह सबरे नंदा देवी पर्वत शिखर में सूर्योदय देखना अनोखा अनुभव प्रदान करता है । सूर्य की प्रथम किरण जब नंदा देवी पर पड़ती है तो 300 किलोमीटर की यह पर्वतमाला गुलाबी रंग से सरोबार हो उठती है और फिर ज्यों ज्यों सूर्य की रश्मियाँ अपने यौवन की ओर बढ़ती हैं तो पूरी पर्वत श्रंखला रजत हो उठती है । यद्दपि हमने पिछली बार कौसानी से सूर्योदय के समय गुलाबी होते हिम शिखर के दर्शन किये थे पर इस सौभाग्य से हम बिनसर में तीन दिन तक रुकने के बाद भी वंचित ही रहे । प्रकृति के एक अन्य रूप, जल शक्ति के प्रतीक वरुण देवता ने धुंध और बादलों का ऐसा जाल बिछाया कि हिम शिखर का दिखना तो दूर , हिमालय की निचली पहाड़ियां भी लुकाछिपी का खेल खेलती रही । इस ऊँची पहाड़ी पर कुमायूं विकास मंडल ने एक सुन्दर होटल का निर्माण किया है । मेरी पुत्री को इंटरनेट के माध्यम से कुछ कार्य करना था और वाई-फाई की आशा में हम इस होटल के प्रबंधक से मिले । उन्होंने हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया । हमारे ड्राइवर महाशय होटल का एक चक्कर लगा आये और उनसे हमें पता चला कि यहाँ से हिम दर्शन हो रहे हैं, फिर क्या था हम होटल द्वारा निर्मित व्यू पॉइंट की ओर चले गए और वहाँ से हिमालय को निहारते रहे । बर्फ की श्वेत चादर से ढका  नंदा देवी पर्वत माला की चोटियों हमें  रुक रुक कर दिखने लगी । जब कभी बादलों के बीच से सूर्य देव अपनी छटा इन चोटियों पर बिखेरते तो अचानक ही हिम शिखर चांदी जैसा चमकने लगता । हम इस अद्भुत दृश्य को निहार ही रहे थे कि होटल प्रबंधक ने हमारे लिए गर्मागर्म चाय भिजवा दी । चाय की ट्रे लिए बेयरे ने हमारे अनुरोध को अनमने ढंग से स्वीकार करते हुए त्रिशूल से लेकर नेपाल तक फैली हिम चोटियों की दिशा बताई और साथ ही यह सूचना भी दी की मुख्य  शिखर बादलों की ओट में छिपे हुए हैं यह सब कुछ पर्वत माला का निचला हिस्सा है । लेकिन हमें इस सूचना से कोई सरोकार न था हम तो चाय की चुस्कियों के साथ हिमालय को निहारते रहे । कोई आधे घंटे में पुत्री ने  भी अपना काम निपटा लिया और हम सब बिनसर वन अभ्यारण में ट्रेकिंग के लिए निकल गए । मौसम खराब होने के कारण पर्यटक भी नहीं थे और गाइड भी गायब थे । मैंने वनस्पति शास्त्र के अपने अल्प ज्ञान का प्रयोग कर कुछ वनस्पतियों जैसे देवदार, चीड़, ओक आदि की पहचान की तो वाहन चालक ने हमें बांज, उतीस, बुरांश  के पेड़ दिखाए । देवदार एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे, हरे रंग के और कुछ लाली लिए हुए होते है और कुछ गोलाई लिये होते हैं तथा लकड़ी मजबूत किन्तु हल्की और सुगंधित होती है। संस्कृत साहित्य में इसका बड़ा गुणगान किया गया है और इसका प्रयोग  औषधि व यज्ञादि में होता है । ओक या सिल्वर ओक की खासियत यह है कि इसके पत्ते खाँचेदार होते हैं। पेड़ की पहचान इसके पत्तों और फलों से होती है। सिल्वर ओक की लकड़ी सुन्दर होती  है और उससे बने फर्नीचर उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। एक समय जहाजों के बनाने में इस्सका काष्ठ ही प्रयुक्त होता था। बुरांश, जिसे हमारे वाहन चालक ने पहचाना,  हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के पेड़ों पर मार्च-अप्रैल माह में लाल सूर्ख रंग के फूल खिलते हैं। बुरांस के फूलों का इस्तेमाल दवाइयों में किया जाता है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल स्रोतों को यथावत रखने में बुरांस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय-रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत बनाया जाता है, वहीं इसकी लकड़ी का उपयोग कृषि यंत्रों के हैंडल बनाने में किया जाता है। हमें ऐसी जानकारी थी कि बिनसर वन्य जीव अभयारण्य में तेंदुआ पाया जाता है। इसके अलावा हिरण और चीतल तो आसानी से दिखाई दे जाते हैं। पर अभ्यारण्य में एक भी पशु नहीं दिखा हाँ लौटते वक्त एक लंगूर अवश्य दिख गया । यहां 150 से भी ज्यादा तरह के पक्षी पाये जाते हैं। इनमें उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल सबसे प्रसिद्ध है पर इन विभिन्न पक्षियों की  मधुर आवाज तो हमें सुनाई दी पर दर्शन किसी के न हुए ।  इस दो किलोमीटर की ट्रेकिंग का अंत जीरो प्वाइंट पर होता है । यह इस पहाड़ी की  सबसे उंचा शिखर है और यहाँ से हिम शिखर के दर्शन होते हैं ।  अधिक सर्दी पड़ने पर यहाँ बर्फबारी भी हो जाती है ।

जब हम पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे तो एक पुरानी कोठरी पर मेरी निगाह पड गई । पत्थरों  से निर्मित    यह जल स्त्रोत 120 वर्ष पुराना है जिसका जीर्णोदार कैम्पा योजना के तहत अभी कोई दो बर्ष पहले किया गया था । सदियों पुरानी पेयजल की यह व्यवस्था कुमाऊं के गांवों में नौला व धारे के नाम से जानी जाती है। यह  नौले और धारे यहां के निवासियों के पीने के पानी की आपूर्ति किया करते थे। इस व्यवस्था को अंग्रेजों ने भी नहीं छेड़ा था। नौला भूजल से जुड़ा ढांचा है। ऊपर के स्रोत को एकत्रित करने वाला एक छोटा सा कुण्ड है। इसकी सुंदर संरचना देखने लायक होती है। ये सुंदर मंदिर जैसे दिखते हैं। इन्हें जल मंदिर कहा जाय तो ज्यादा ठीक होगा। मिट्टी और पत्थर से बने नौले का आधा भाग जमीन के भीतर व आधा भाग ऊपर होता है।नौलों का निर्माण केवल प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्थर व मिट्टी से किया जाता है।नौला की छत चौड़े किस्म के पत्थरों  से ढँकी रहती है। नौला के भीतर की दीवालों पर किसी-न-किसी देवता की मूर्ति विराजमान रहती है।  हमारे वाहन चालक ने हमें बताया कि शादी के बाद जब नई बहू घर में आती है तो वह घर के किसी कार्य को करने से पहले नौला पूजन के लिए जाती है और वहां से अपने घर के लिए पहली बार स्वच्छ जल भरकर लाती है। यह परंपरा आज तक भी चली आ रही है। विकास की सीढ़ियों को चढ़ते हुए अब लोगों ने इस व्यवस्था को भुला देना शुरू कर दिया है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 40 ☆ कांटों भरी डाल ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘कांटों भरी डाल। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 40 ☆

कांटों भरी डाल

 

माना मैं कांटों भरी डाल हूँ ,

मगर यकीन करिये दिल से मैं गुलाब हूँ ||

बेशक कांटों भरी चुभन हूँ,

मगर सबके लिए खुशबू भरा अहसास हूँ ||

नहीं आती मुझे दुनियादारी,

गलती हो जाए कभी तो अपनी गलती तुरंत मानता हूँ ||

सबको खुश रखना मेरे बस की बात नहीं,

मगर सबको खुश रखने की कोशिश पूरी करता हूँ ||

मैं कोई मजबूत ड़ोर नहीं,

कच्चा धागा हूँ थोड़ा सा खींचने से ही टूट जाता हूँ ||

प्यार सबका पाने को आतुर हूँ,

धागा बन सबको माला में पिरोये रखने की तमन्ना रखता हूँ ||

माना मैं कांटों भरी डाल हूँ,

मगर यकीन करिये दिल से मैं गुलाब हूँ ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 92 ☆ सावळ बाधा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 92 ☆

☆ सावळ बाधा ☆ 

(वृत्त-वररमणी)

हे गोविंदा तुझ्याच साठी जन्म घेतला नवा कितीदा या भूमीवरती

अवचित आले भान असे की,तशीच आहे विरहवेदना याही जन्मांती

 

वादळवेडी अभिसाराची प्रतिमा आहे तुझ्या प्रीतिच्या डोहामधली मी

अनंत वेळा तुझीच झाले,घरदाराला सोडुन सारे कोळुन प्यालेली

 

या देहाच्या किती कामना, अभिलाषा की म्हणू मागण्या तारूण्याच्या या

पिसे लागले तुझे जिवाला या संसारी चित्त रमेना जळते ही काया

 

श्रीरंगा मी तुझीच राधा जन्मोजन्मी एकच बाधा श्यामल रंगाची

तुझे सावळे रूप मनोहर पुरुषोत्तम तू माझा ईश्वर व्याख्या प्रेमाची

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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