हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 90 ☆ अवस्था का मौन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 90 ☆ अवस्था का मौन ☆ 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में ज़मीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं।

इस मौन में अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की एक यूनिवर्सिटी समाहित है। उनके पास बैठना, उनके मौन को सुनना ही उनकी सबसे बड़ी सेवा  है।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

जो व्यक्ति अभिवादनशील है अर्थात दूसरों का मान करना जानता है, दैनिक रूप से वृद्धों की सेवा करता है/ उनके मौन को सुनता-समझता है,  आशीर्वादस्वरूप उसके आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है।

क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन?

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 46 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 46 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 46) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 46☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सुई की फितरत तो बस

सिर्फ चुभने  की  ही  थी

क्या साथ मिला धागे का,

बस फितरत ही बदल गई!

 

The nature of needle

was  just  to  prick…

In the company of thread

Its attribute got changed!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जैसा भी  हूँ  खुद  के

लिये  बेमिसाल  हूँ  मैं…

किसी को भी हक नहीं

दिया कि मेरी परख करे…!

 

Whatever I  am, I  am

unmatched for myself…

Haven’t  given  anyone

the right to judge me..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

इश्क़  करने  से  पहले

आ बैठ फैसला कर लें…

सुकूँ किसके हिस्से होगा,

बेक़रारी किसके हिस्से…!

 

Before  falling  in  the  love,

Let’s sit together and decide

Who’ll be entitled to solace

who’ll share restlessness!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

फिर  मुझे  कुछ  ऐसे

भी  आज़माया गया

पंख  काटे  गए  और

आसमाँ में उड़ाया गया…

 

Then I was also

tried  like  this…

With wings chopped,

made to fly in the sky

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 47 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘मुक्तिका’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 47 ☆ 

☆ मुक्तिका ☆ 

*

कहाँ गुमी गुड़धानी दे दो

किस्सोंवाली नानी दे दो

 

बासंती मस्ती थोड़ी सी

थोड़ी भंग भवानी दे दो

 

साथ नहीं जाएगा कुछ भी

कोई प्रेम निशानी दे दो

 

मोती मानुस चून आँख को

बिन माँगे ही पानी दे दो

 

मीरा की मुस्कान बन सके

बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२७-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 79 – गौरैया दिवस विशेष – संकल्प से सिद्धि☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  गौरैया दिवस पर एक भावपूर्ण रचना  “गौरैया दिवस । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 79 ☆ गौरैया दिवस विशेष – संकल्प से सिद्धि ☆

नील गगन की छांव में,

सघन बृक्ष की छांव में।

वो तिनका तिनका चुनती थी,

सुन्दर नीड़ बनाने का

वो ताना बाना बुनती थी।

दिनभर कठिन परिश्रम करते,

हार नहीं मानी थी वह।

अपना घर बार बसाने का,

दृढनिश्चय मन में ठानी थी वह।।1।।

 

जाड़े वर्षा  में भीगी थी,

गर्मी तन मन झुलसाती थी।

पर राह डिगा न सकी उसकी,

सुन्दर घोंसला बनाती थी।

सपनों से प्यारा नीड़ देख,

वह मन ही मन मुस्काई थी।

बैठ घोंसलों के भीतर ,

वह राग-विहाग सुनाई थी।।2।।

 

उस नीड़ के भीतर उसने दो,

बच्चे सुंदर बच्चे जाये थे।

उन्मुक्त गगन में उड़ने की,

ले चाह पंख फैलाए थे।

पर हाय विधाता! क्या लिखा भाग्य में,

ना जाने कैसा दिन आया।

नीड़ उजाड़ा बच्चे मारा,

बिल्ले ने तांडव दिखलाया।

पंख नोच खा गया उन्हें,

फिर खों-खों करता चिल्लाया।।३।।

 

घर चमन उजड़नें की पीड़ा,

उसके मन में समाई थी ।

वो  छोटी नीरीह प्राणी ,

कुछ भी ना कर पाई थी।

बच्चों की अल्पायु मौत पर,

उसकी ममता रोई थी।

कुछ करना बस में न था उसके,

वह अपनी सुध बुध खोइ थी।

उन दुखी पलों की बन साक्षी ,

रो रो कर सांझ बिहान किया,

टूटे नीड़ से ममता छूटी,

टूटा दिल ले प्रस्थान किया।4।।

 

उस निरीह प्राणी को देखो,

उसका एक ही नारा है।

संकल्प से सिद्धि मिलती है,

सबका यही सहारा है।

जाते जाते संदेश दे गई,

उम्मीद का दामन थाम लिया।

उन्मुक्त गगन में उड़ने का ,

उसने नव संकल्प लिया।

दुख आता है दुख जाता है,

पर हिम्मत अपनी मत हारो।

उम्मीद का दामन मत छोड़ो

फिर उडो़ गगन में पंख पसारो।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 63 – सुट्टीला या तोड नाही ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 63 – सुट्टीला या तोड नाही ☆

परसात फुललेली फुलबाग ही आगळी।

सुगंधात धुंद कशी चंद्रमोळी झोपडी ।।२।।

 

भेटायला येते मला चिऊ काऊ मनी माऊ

सारेच तृप्त  कसे खावूनीया गोड खाऊ।

आजीच्या या हाताला अमृताची  असे गोडी ।।३।।

 

चिंचा बोरे फळे सारी रानमेवा अंत नाही ।

ऊस केळी डाळिंबाला खावे किती गणती नाही।

सोबतीला फौज अशी जमती सारे खेळगडी ।। ४।।

 

नाचू खेळू गोष्टी गाणी चिंता मुळीच नसे काही ।

अभ्यासाची कुरघोडी इथे मुळी चालत नाही।

स्वर्ग सुखा परि सारी सुट्टीला या तोड नाही।।५।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग – २२) – ‘सुरसकथा’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग – २२) – ‘सुरसकथा’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

वाद्यवर्गीकरणपद्धतीनुसार वाद्यांचे विभाजन कोणत्या प्रकारांमधे होते हे आपण गेल्या दोन-तीन भागांत पाहिले. वाद्यांच्या बाबतीत आणखी थोडा मागोवा घेत गेलो तर जुन्या ग्रंथकारांच्या कृपेने काही मनोरंजक गोष्टी हाती लागतात. भगवान शंकरांचा डमरू हे सर्वात प्राचीन वाद्य मानलं गेलं आहे. त्रिपुरासुराचा वध केल्यानंतर शंभू महादेव नृत्य करू लागले. त्याला तालसंगत करण्यासाठी ब्रम्हदेवाने एका अवनद्ध वाद्याची निर्मिती केली. त्याचा वाजवायचा भाग अर्थातच कातड्यानं मढवलेला होता. मात्र ढाचा मातीचा होता म्हणून त्या वाद्याला मृद्‌+अंग म्हणजे मृदंग म्हटलं गेलं. शिवपुत्र श्रीगणेशांनी हे वाद्य त्यावेळी वाजवलं. मृदंगाच्या उत्पत्तीची अशीआख्यायिका आहे. आणखी एका कथेनुसार वृत्तासुराला मारल्यानंतर आनंदित झालेले भगवान शंकर तांडवनृत्य करू लागले. त्यांच्या नृत्याला तालसंगत करण्यासाठी गणपतीने जमिनीत एक खड्डा खणला, त्यावर मृत वृत्तासुराचं कातडं पांघरलं आणि त्यावर तो ताल वाजवू लागला.

भगवान शंकरांच्याच बाबतीत आणखी एक कथा आढळून येते. ते कैलास पर्वतावर तप करत असताना मुरजासुर नावाच्या राक्षसाने त्यांना त्रास देऊन त्यांचा तपोभंग केला. त्यामुळं क्रोधित झालेल्या शंकरांचं त्याच्याशी तुंबळ युद्ध होऊन त्यात मुरजासुर मारला गेला. हात-पाय-मुंडकं तुटलेल्या अवस्थेतलं त्याचं शव तिथून गिधाडांनी उचलून नेलं. त्यांनी ते पंजांत धरून त्यातलं मांस बऱ्यापैकी खाल्लं. मात्र जास्ती वजनामुळं ते शरीर त्यांच्या पंजातून सुटून खाली एका झाडावर पडलं. काही काळानंतर ते शरीर पूर्ण वाळून त्याचा फक्त वाळक्या ताठरलेल्या कातड्याचा पोकळ सांगाडा झाडावर शिल्लक राहिला.

एके दिवशी जोरात वारं सुटल्यामुळं झाड्याच्या फांद्या त्या कातड्यावर आपटून सुंदर नाद निर्माण होऊ लागला. वनभ्रमण करत असलेल्या शंकरांनी तो सुंदर नाद ऐकला आणि उत्सुकतेपोटी त्या आवाजाच्या दिशेने येत त्या झाडाजवळ पोहोचले. ते कातडं पाहून त्यांना घडलेली सगळी घटना आठवली. त्यांनी त्या कातडी ढाचाच्या एका बाजूला डाव्या हातानं आघात केल्यावर ‘ता’ हा बोल उत्पन्न झाला आणि दुसऱ्या बाजूला उजव्या हाताच्या आघाताने ‘घी’ हा बोल उत्पन्न झाला. त्यापुढंही ते दोन्ही हातांनी त्यावर आघात करत राहिले तसे वेगवेगळे बोल उत्पन्न झाले. थोड्यावेळानं शंकर तिथून निघून गेले.

त्यानंतर एकदा ते पार्वतीसोबत पर्णकुटीत बसले असताना पावसाचे थेंब कुटीच्या वाळलेल्या पानांवर पडू लागले तसा सुंदर नाद उत्पन्न झाला. तो नाद पार्वतीला खूपच आवडल्यानं तिनं शंकरांना विनंती केली कि त्यांनी अशा प्रकारचं काही वाद्य तयार करावं ज्यातून अशा सुंदर नादांची निर्मिती होईल. तेव्हां त्यांनी तिला मुरजासुराची कथा सांगितली आणि त्यातून उत्पन्न होणऱ्या विविध वर्णांचं विस्तृत वर्णन केलं. पुढं असं जे अवनद्ध वाद्य अस्तित्वात आलं त्याला ‘मुरज’ हे नाव मिळालं. मात्र दुसऱ्या एका ग्रंथातील वर्णनानुसार ‘मर्दल’ नावाच्या वाद्याची निर्मिती ही ‘मुरज’ नावाच्या राक्षसाच्या मृत शरीरातून झाली आणि ती श्रीकृष्णांनी केली.

अवनद्ध वाद्यांची माहिती घेताना सरोवरातील कमळाच्या पानांवर पडणाऱ्या पावसाच्या थेंबांमुळे निर्माण होणारा कर्णप्रिय नाद ऐकून स्वाती नामक ऋषींना तालवाद्यनिर्मितीची प्रेरणा मिळाली हे आपण पाहिलं. त्यापुढची कथा म्हणजे तो सुंदर नाद त्यांनी आपल्या मनात अगदी साठवून घेतला आणि मग ते आपल्या आश्रमात परतले. तिथं त्यांनी विश्वकर्म्याला हा वृत्तांत सांगून त्या सुंदर नादाचं वर्णनही केलं आणि त्याला असा नाद निर्माण करणारं वाद्य तयार करायला सांगितलं. त्यांनी सांगितलेल्या नादांचं वर्णन मनात ठेवून तसे नाद निर्माण होतील असं मातीचा ढाचा असलेलं जे वाद्य विश्वकर्मानं तयार केलं ते ‘पुष्कर’ ह्या नावानं ओळखलं गेलं. कालमानानुसार ह्याच वाद्याच्या आधाराने लाकूड, धातू इ.. गोष्टींचा वापर करत प्रयोग होत राहिले आणि त्यातूनच मृदंग, पटह, दर्दुर अशा वाद्यांची निर्मिती  झाली.

रामायणकाळात आजच्या रागसंगीतासारख्या शैलीला गंधर्वगान म्हटलं जायचं. प्रभू श्रीरामचंद्र स्वत: गंधर्वगानप्रवीण होते आणि त्यांचे दोन्ही सुपुत्र लव-कुशही संगीतज्ञ असल्याचा उल्लेख आढळतो. रावणही मोठा संगीतज्ञ होता. त्यानं निर्माण केलेल्या रावणास्त्र किंवा रावणहस्त ह्या तंतुवाद्याचा उल्लेख प्राचीन वाद्यांमधे आढळून येतो. लंका आणि भारताच्या काही भागात आजही हे वाद्य कालानुसार होत गेलेल्या परिवर्तित स्वरूपात उपलब्ध आहे. वीणेच्या प्रकारांमधेही ‘रावणी’ नावाच्या वीणेचा उल्लेख आढळतो. आपल्याकडील राजस्थान प्रांतातलं रावणहाथा हे वाद्य ह्याच ‘रावणहस्त’चं परिवर्तित रुपडं असावं जे पुढं आजच्या सुप्रसिद्ध व्हायोलिन ह्या वाद्याचा आधार मानलं जातं.

भगवान श्रीकृष्णांच्या केवळ मानवालाच नाही तर निसर्गातील प्रत्येक पशु-पक्षी, वृक्षवेलींना किंबहुना अवघ्या विश्वालाच संमोहित करणाऱ्या जादुई बासरीवादनाविषयी तर आपल्याला कितीतरी सुरस कथा वाचायला मिळतात. श्रीकृष्ण हे महान संगीतज्ञ होते आणि त्यांच्यासारखा श्रेष्ठ बासरीवादक पुन्हा कधीच पृथ्वीवर अवतरला नाही. महाभारतात उल्लेखिलेले श्रीकृष्णाचा ‘पांचजन्य’नामक शंख आणि अर्जुनाचा ‘देवदत्त’नामक शंख हे मुख्यत्वे युद्धाच्यावेळी काही संकेत देण्यासाठी वापरले गेले तेही एक प्रकारचं सुषीर वाद्यच! जसे श्रीकृष्ण सर्वोत्तम बासरीवादक तसाच अर्जुन हा सर्वोत्कृष्ट वीणावादक असल्याचं मानलं जातं. अर्जुनही उत्तम संगीतज्ञ होता. पांडवांच्या अज्ञातवासाच्या काळात अर्जुनानं बृहन्नडा नावानं स्त्रीरूप धारण करून विराट राजाची कन्या उत्तरा हिला संगीतशिक्षण देण्याचं काम पत्करलं होतं. अर्जुनाचं वीणावादनही समोरच्याला भान विसरायला लावायचं आणि ह्या कालखंडातील संगीताच्या विकासाचं मोठं श्रेय अर्जुनाकडं जातं, असं मानलं गेलं आहे.

बनारस घराण्याचे शहनाईवादक शहनाईची उत्पत्ती श्रीमहादेवांच्याच शृंग किंवा सींग ह्या सुषीर वाद्यातून झाली असं मानतात. ह्या वाद्याचं वादन पहिल्यांदा शिव-पार्वतीमीलनाच्या शुभसमयी झाल्याचंही मानलं जातं.  विवाहादि शुभकार्यप्रसंगी शहनाईवादनाची प्रथा आजतागायत आपल्याला पाहायला मिळते. त्या पद्धतीचं मूळ दर्शविणारी ही कथा जुन्या ग्रंथांमधे आढळून येते.

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 34 ☆ रे मन तू बन मुरली ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “रे मन तू बन मुरली“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 34 ☆

☆ रे मन तू बन मुरली  ☆

रे मन तू बन मुरली के समान

जिसके सुर सुनने को उत्सुक सबके कान

 

सीधी सरल पोंगरी खाली

सबके चित को सबके हरने वाली

रस से भरी सदा सुखदाई जिसकी मीठी तान

रे मन तू बन मुरली के समान …

 

जिसकी मधुर सुखद स्वर लहरी

छू जाती हर मन को गहरी

हर पावन प्रसंग को देती रही जो सुख सम्मान

रे मन तू बन मुरली के समान …

 

जिसमें भरा अकथ आकर्षण

जो हर्षित करता हर जन मन

सबको मोद और अधरों को देती जो मुस्कान

रे मन तू बन मुरली के समान …

 

लय स्वर पीड  प्रीति उपजाते

अनजाने की मीत बनाते

सबको सहसा ही दे जाते बिन मांगे पहचान

रे मन तू बन मुरली के समान …

 

सुख दुख नित आते जाते हैं

दिन आगे बढ़ते जाते हैं

बीता युग न साथ दे पाता इतना तो तू जान

रे मन तू बन मुरली के समान

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ – ग़ालिब का दोस्त ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है पहली बेहतरीन कहानी – ग़ालिब का दोस्त )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ – ग़ालिब का दोस्त ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

मशहूर शायर और फ़िल्मकार गुलज़ार साहब ने मिर्ज़ा ग़ालिब की वीरान हवेली को उनका स्मारक बनाया है। उन्होंने इस हवेली का पता शायराना अन्दाज़ में कुछ यूँ बयाँ किया हैं।

बल्ली-मारां  के  मोहल्ले  की  वो पेचीदा  दलीलों की  सी  गलियाँ, सामने  टाल  की  नुक्कड़  पे बटेरों  के  क़सीदे,

गुड़गुड़ाती  हुई  पान  की  पीकों में  वो  दाद  वो  वाह-वाह, चंद  दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे,

एक बकरी के मिम्याने  की  आवाज़  और  धुँदलाई  हुई  शाम के  बे-नूर  अँधेरे  साए  दीवारों  से  मुँह  जोड़  के चलते  हैं  यहाँ। चूड़ी-वालान  कै  कटरे  की  बड़ी-बी  जैसे  अपनी  बुझती  हुई  आँखों  से  दरवाज़े टटोले,

इसी  बे-नूर  अँधेरी  सी गली-क़ासिम  से एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ  होती है, एक क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुलता है, असदुल्लाह-ख़ाँ-ग़ालिब  का  पता  मिलता  है।

जब ग़ालिब ज़िंदा थे उस ज़माने की बात है। उनके उसी घर के दरवाज़े के सामने एक घोड़ागाड़ी आकर रुकी। उसमें से बंसीधर उतरे, आगे से कोचवान बिद्दु मियाँ हाँकनी को बग़ल में खोंसकर कूदा। बंसीधर यात्रा की थकान को अंगड़ाई से उतार रहे थे तभी घर का मुआयना करते हुए बिद्दु मियाँ ने हैरानी से पूछा – “लाला जी, आपके दोस्त असद इस घर में रहते हैं क्या?”

बंसीधर ने उपेक्षा पूर्वक “हाँ, यही रहते हैं।” कहते हुए, उसे घोड़ागाड़ी से सब्ज़ियों का टोकरा उतारने को कहा। बिद्दु मियाँ टोकरा उतारते हुए भी घर को तिरछी निगाह से देखते बोला “यह मकान उनके आगरा वाले “कलाँ महल” की तुलना में बहुत छोटा नहीं लगता?”

बंसीधर – “क्या तुम मिर्ज़ा को आगरा से जानते हो”

बिद्दु मियाँ – “हाँ लाला जी, जब आप दोनों मिलकर राजा बलवंत सिंह की पतंग काटते थे, तब हम दोस्तों के साथ मँज्जा लूटने का लुत्फ़ उठाया करते थे।”

तब तक मिर्ज़ा के घर की नौकरानी वफ़ादार दरवाज़ा खोलकर बंसीधर के नज़दीक पहुँच दुआ सलाम करके खड़ी हो गई तो बंसीधर ने पूछा- क्या मिर्ज़ा घर पर हैं? वफ़ादार ने बताया वे गुसलखाने में मशगूल हैं। बंसीधर ने हिदायत दी “ठीक है, यह टोकरा अंदर रखवा लो और हमारी भाभी जान को हमारे आने की खबर कर दो।”

थोड़ी देर में मिर्ज़ा की बेग़म उमराव जान उदासी के झीने नक़ाब के पीछे से दरवाज़े पर आकर बोलीं – “आदाब, लाला जी भाई”

बंसीधर – “आदाब भाभी जान, आप कैसी हैं?”

बेग़म – “अल्लाह का करम है, भाई साहब।”

बंसीधर – “और असद कैसा है, क्या वह दिल्ली से दिलजोई में इतना भी भूल गया कि आगरा में उसको दिल से चाहने वाला बचपन का एक दोस्त भी रहता है।”

बेग़म – “नहीं ऐसा नहीं है भाई साहब, अभी कल ही वे बचपन के क़िस्से सुनाकर आपको बहुत याद कर रहे थे।”

बंसीधर – “और बताइए, असद की क़िले में दाख़िले और दरबार में हाज़िरी की कोई जुगत बनी क्या?”

बेग़म ने कोई जबाव  नहीं दिया, वे चुपचाप दरवाज़े पर चमगादड़ से लटके फटेहाल पर्दे के किनारे को देखती खड़ी रहीं। बंशीधर ने पूछा “क्या बात है, भाभी जान, आपकी चुप्पी नाख़ुशी के साये में लिपटी है।”

बेग़म – “आप अपने दोस्त के अक्खड़ मिज़ाज और ज़िद से वाक़िफ़ ही हैं, उन्हें क़र्ज़ लेकर ज़िंदगी गुज़ारने में कोई परेशानी नहीं लेकिन किसी के नीचे काम करने में दिक्कत है। इतना काफ़ी नहीं था तो ऊपर से जुए और शराब की लत के खर्चे। क्या यह सब ठीक है?”

बंशीधर अपने दोस्त की आदतों को जानते थे, वे ज़मीन में आँखें गड़ाये खड़े रहे।

बेग़म थोड़ी देर रुककर बोलीं – “आप उनके बचपन के दोस्त हैं, दिल के मलाल आपसे भी न कहें तो किससे कहें, जब तक हमारे अब्बा मियाँ ज़िंदा थे, ज़्यादा दिक्कत नहीं थी।”

तभी मिर्ज़ा ग़ालिब पहले माले का दरवाज़ा खोलकर नमूदार हुए और बालकनी से नीचे झांकते हुए मुस्करा कर बोले : “बंशी, तुम फ़रियादी को सुन चुके हो तो इस आरोपी को ये बताओ कहाँ थे, इतने दिनों ?”

बंसीधर – “अच्छा, तुम तो जैसे रोज़ आगरा मिलने आते रहे हो। मैं तो चार महीनों में दो बार आ चुका हूँ।”

असद : “और हर बार यह सब लौकी भाजी क्यों भर लाते हो, भाई।”

बंसीधर: “तुम्हारे दिमाग़  की तर्ज़ पर साल के बारह महीनों तो आम नहीं बौराता न।”

बेग़म दोनों दोस्तों को घुलते देख पर्दे के पीछे गुम हो गईं। मिर्ज़ा ने बंशीधर को ऊपर आने का इशारा किया। बंशीधर सीढ़ी चढ़कर मिर्ज़ा से गले मिले। एक दूसरे के कंधों को पकड़ कर देर तक एक दूसरे को देखते रहे। दिलों की प्यास बरास्ते नज़र बुझाकर दोनों दीवान के दो छोर पकड़ मसनदों के सहारे एक दूसरे की तरफ़ मुँह करके बैठ गए। तब तक घर का नौकर कल्लू एक तश्तरी में भुने काजू-पिश्ता और रूह अफ़जा शरबत से भरे दो गिलास रख गया। शरबत की चुस्कियों के बीच यारों में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा।

बंशीधर – “यार असद, भाभी जान की बात पर ध्यान क्यों नहीं देते? वो सही कह रहीं हैं। थोड़ा समय घर के लिए भी निकाला करो, यार।”

असद – “बंशी, हमारा पहला बच्चा गर्भ में ही ख़त्म हो गया और दूसरा पैदाइश के कुछ ही महीनों में हमें छोड़ गया। वह ख़ुदा को मानने वाली जनानी है। हमेशा गोद भरने की अरदास में लगी रहती है। उसका मुरझाया चेहरा मुझ से नहीं देखा जाता है। उसकी आँखों में उठता ग़म का समंदर मेरे अंदर तूफ़ान खड़ा कर देता है।”

बंशीधर – “और तुम्हारी कमाई का कोई ज़रिया बना कि नहीं?”

असद – “कहीं नौकरी का कोई ज़रिया बनता नहीं दिखता। फ़िरंगी क़िले के ओहदेदारों तक की तनख़्वाह और बादशाह तक का वज़ीफ़ा कम करते जा रहे हैं इसलिए क़िले पर भी कोई उम्मीद बर नज़र नहीं आती। फिरंगियों से मिलने वाली पेंशन रुकी या कहो अंग्रेज़ी हुकूमत के खातों में जमा हो रही है।”

बंशीधर – “यार, फिर तुम्हारा समय कैसे कटता है?”

असद – “यार, दिन का कुछ समय चाँदनी चौक पर हाजी मीर की दीनी-इल्मी-अदबी किताबों की दुकान पर सफ़े पलट कर बिताता हूँ, लौटते समय कुछ जुआरियों के अड्डों पर दाव लगते और चाल चलते देखता हूँ। तुम तो जानते हो कि मैं बचपन से ही दाव बड़े बेहतरीन लगाता हूँ। एक दिन मेरा भी दाव ज़रूर लगेगा, तब मैं सारी रक़म समेट बेगम का दामन भरकर उनकी बलैयाँ लूँगा।”

बंशीधर – “यार, मैंने सोचा था कि जब तुम्हारे ससुर का देहांत हुआ था तब तुम दिल्ली छोड़कर आगरा का रुख़ करोगे, वहाँ कुछ न कुछ व्यवस्था हो जाती। लेकिन तुम दिल्ली में ही रम गए।”

मिर्ज़ा मसनद पर गर्दन टिकाए कुछ देर सोचते रहे फिर बोले:-

“है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ‘असद’,

हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खाएँगे क्या?”

(अब तो इस शहर से प्रेम करने वाले दुःख की इंतिहा पल रही है। माना कि दिल्ली में रहकर क्या खाएँगे?)

थोड़ी देर बाद ख़ादिम कल्लू दीवान के सामने दस्तरखान बिछा कर दोपहर का खाना ले आया। रोटियों के ढ़ेर के साथ मटनकरी, कबाब, दाल और पीले रंग में पके चावल खाते-खाते  दोनों दोस्त एक घंटा बतियाते रहे, फिर बंशीधर दीवान पर और मिर्ज़ा सामने के कमरे में आराम फ़रमाते ऊँची आवाज़ में बातें करते नींद के झोंके में समा गए।

शाम पाँच बजे दोनों दोस्त उठे। तह किए कपड़े निकाले, इत्र फुलेल से रंग-ओ-बू हो घर से निकल कर गली क़ासिम पर चलते हुए बल्लीमाराँ रास्ते से दाहिनी तरफ़ चाँदनी चौक तरफ़ मुड़ गए। आसमान में हल्की धुँध के साये को मुँह चिढ़ाती रंग बिरंगी पतंगे इठला रही थीं। जामा मस्जिद की मीनारों से मगरिब की अज़ान बुलंद हो रही थी। चलते-चलते सामने मुग़लिया शान का प्रतीक लालक़िला दिखने लगा। मिर्ज़ा को लालक़िला निहारते देख बंशीधर बोले, इसी क़िले की महफ़िल में पहुँचना तुम्हारा ख़्वाब है न, असद।

असद ने हाँ में सर हिलाकर अपनी छड़ी से ज़मीन को सहलाया। दोनों दोस्त चाँदनी चौक पर गर्मागरम केसरिया जलेबियों का रस यारी की चाशनी में लिपटी ऊँगलियों को चाटते रहे, फिर बग़ल वाले दही-बड़े वाले से पाँच-पाँच मुलायम गुल्ले गले के नीचे उतार, यारों का सफ़र वापस क़ासिम गली की तरफ़ मुड़ गया।

दूसरे दिन सुबह कोचवान बिद्दु मियाँ घोड़ागाड़ी सहित मिर्ज़ा के दरवाज़े पर हाज़िर था। दोनों दोस्त नाश्ता निपटाकर मोटे किवाड़ों के कोने खिसकाकर बाहर आए।

असद दोनों हाथ बंशीधर के कंधों पर रखकर बोले – “यार, ऐसे ही आ ज़ाया करो लाला।”

बंशीधर : “यार, आगरा भी कोई समंदर किनारे नहीं है, मैं तो छै महीनों में तशरीफ़ ले ही आता हूँ। तुमको तो एक अरसा हुआ आगरा में नमूदार हुए। एक मुद्दत हुई तुम्हें मेह्मां किए हुए। हाँ, तुम्हारी यह रक़म तुम्हारे छोटे भाई को पहुँचा दूँगा।”

असद – “हाँ! उसे भी देखे एक अरसा हो चला है। यहाँ दिल्ली में गुज़ारे का ज़रिया ज़म जाए, तो आगरा आऊँगा।”

बंशीधर – “असद, एक बात कहूँ बुरा न मानना। ईश्वर की कृपा से मेरी माली हालत बहुत अच्छी है। मैं कुछ रक़म लाया हूँ। तुम्हारा इंतज़ाम होने तक रख लो, बाद में लौटा देना।”

असद – “छोड़ यार, तुझसे पतंग-हिचका-धागे के वास्ते बचपन में रुपए उधार लिए थे, वे अभी तक मयसूद  न जाने कितने चढ़ चुके होंगे। इतना मत कर कि वक्त-ए-रूखसत जनाजा इतना भारी हो जाए कि पालकी बरदार उसे उठा भी सकें, और फिर बाज़ार के सूदख़ोरों का धंधा चौपट करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।”

बंशीधर – “जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, बात तुम्हारी ख़ुद्दारी की है, मैं जानता हूँ, तुम बचपन से ऐसे ही हो।”

गले मिलकर दोनों दोस्त बिदा हुए। आँखों से ओझल होने तक एक दूसरे को देखते रहे।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 87 ☆ रिश्तों की तपिश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख रिश्तों की तपिश।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 87 ☆

☆ रिश्तों की तपिश ☆

‘सर्द हवा चलती रही/ रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा किया हमने’– गुलज़ार की यह पंक्तियां समसामयिक हैं; आज भी शाश्वत हैं। रिश्ते कांच की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं, जिसका कारण है संबंधों में बढ़ता अजनबीपन का एहसास, जो मानसिक संत्रास व एकाकीपन के कारण पनपता है और उसका मूल कारण है…मानव का अहं, जो रिश्तों को दीमक की भांति चाट रहा है। संवादहीनता के कारण पनप रही आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता मधुर संबंधों में सेंध लगाकर अपने भाग्य पर इतरा रही है। सो! आजकल रिश्तों में गर्माहट कहां रही है?

विश्व में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव हर कीमत पर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए उसे चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न जाना पड़े? रिश्ते आजकल बेमानी हैं उनकी अहमियत रही नहीं। अहंनिष्ठ प्राणी अपने स्वार्थ-हित उनका उपयोग करता है। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘मुसीबत में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।’ आजकल रिश्ते स्वार्थ साधने का मात्र सोपान हैं और अपने ही, अपने बनकर अपनों को छल रहे  हैं अर्थात् अपनों की पीठ में छुरा घोंपना सामान्य-सी बात हो गयी है।

प्राचीन काल में संबंधों का निर्वहन अपने प्राणों की आहुति देकर किया जाता था… कृष्ण व सुदामा की दोस्ती का उदाहरण सबके समक्ष है; अविस्मरणीय है…कौन भुला सकता है उन्हें?  सावित्री का अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा के लिए यमराज से उलझ जाना; गंधारी का पति की खुशी के लिए अंधत्व को स्वीकार करना; सीता का राम के साथ वन-गमन; उर्मिला का लक्ष्मण के लिए राज महल की सुख- सुविधाओं का त्याग करना आदि तथ्यों से सब अवगत हैं। परंतु लक्ष्मण व भरत जैसे भाई आजकल कहां मिलते हैं? आधुनिक युग में तो ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ का प्रचलन है। सो! पति-पत्नी का संबंध भी वस्त्र-परिवर्तन की भांति है। जब तक अच्छा लगे– साथ रहो, वरना अलग हो जाओ। संबंधों को ढोने का औचित्य क्या है? आजकल  तो चंद घंटों पश्चात् भी पति-पत्नी में अलगाव हो जाता है। परिवार खंडित हो रहे हैं। सिंगल पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। बच्चे इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा भुगतने को विवश हैं। एकल परिवार व्यवस्था के कारण बुज़ुर्ग भी वृद्धाश्रमों में आश्रय पा रहे हैं। कोई भी संबंध पावन नहीं रहा, यहां तक कि खून के संबंध, जो परमात्मा द्वारा बनाए जाते हैं, उनमें इंसान का तनिक भी योगदान नहीं होता…वे भी बेतहाशा टूट रहे हैं।

परिणामत: स्नेह, सौहार्द, प्रेम व त्याग का अभाव चहुंओर परिलक्षित है। हर इंसान निपट स्वार्थी हो गया है। विवाह-व्यवस्था अस्तित्वहीन हो गई है। पति-पत्नी भले ही एक छत के नीचे रहते हैं, परंतु कहां है उनमें समर्पण व स्वीकार्यता का भाव? वे हर पल एक-दूसरे को नीचा दिखा कर सुक़ून पाते हैं। सहनशीलता जीवन से नदारद होती जा रही है। पति-पत्नी दोनों दोधारी तलवार थामे, एक-दूसरे का डट कर सामना करते हैं। आरोप-प्रत्यारोप करना तो सामान्य प्रचलन हो गया है। बीस वर्ष तक साथ रहने पर भी वे पलक झपकते अलग होने में जीवन की सार्थकता स्वीकारते हैं, जिसका मुख्य कारण है…लिव-इन व विवाहेतर संबंधों को कानूनी मान्यता प्राप्त होना। जी हां! आप स्वतंत्र हैं। आप निरंकुश होकर अपनी पत्नी की भावनाओं पर कुठाराघात कर पर-स्त्री गमन कर सकते हैं। ‘लिव-इन’ ने भी हिन्दू विवाह पद्धति की सार्थकता व अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कैसा होगा आगामी पीढ़ी का चलन? क्या परिवार- व्यवस्था सुरक्षित रह पायेगी?

मैं यहां ‘मी टू’ पर भी प्रकाश डालना चाहूंगी, जिसे कानून ने मान्यता प्रदान कर दी है। आप पच्चीस वर्ष पश्चात् भी किसी पर दोषारोपण कर, अपने हृदय की भड़ास निकालने को स्वतंत्र हैं।  हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों को होम करने को स्वतंत्र हैं। सो! इस तथ्य से तो आप सब परिचित हैं कि अपवाद हर जगह मिलते हैं।  कितनी महिलाएं कहीं दहेज का इल्ज़ाम लगा व ‘मी टू’ के अंतर्गत किसी की पगड़ी उछाल कर, उनकी खुशियों को मगर की भांति लील रही हैं।

इन विषम परिस्थितियों में आवश्यक है–  सामाजिक विसंगतियों पर चर्चा करना। बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण जीवन- मूल्य खण्डित हो रहे हैं और उनका पतन हो रहा है। सम्मान-सत्कार की भावना विलुप्त हो रही है और मासूमों के प्रति दुष्कर्म के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। नब्बे प्रतिशत बालिकाओं का बचपन में अपनों द्वारा शीलहरण हो चुका होता है और उन्हें मौन रहने को विवश किया जाता है, ताकि परिवार विखण्डन से बच सके। वैसे भी दो वर्ष की बच्ची व नब्बे वर्ष की वृद्धा को मात्र उपभोग की वस्तु व वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारा जाता है। हर चौराहे पर दुर्योधन व दु:शासनों की भीड़ लगी रहती है, जो उनका अपहरण करने के पश्चात् दुष्कर्म कर अपनी पीठ ठोकते हैं। इतना ही नहीं, वे उसकी हत्या कर सुक़ून पाते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि वे सबूत के अभाव में छूट जायेंगे। सो! वे निकल पड़ते हैं–नये शिकार की तलाश में। हर दिन इन घटित हादसों को देख कर हृदय चीत्कार कर उठता है और देश के कर्णाधारों से ग़ुहार लगाता है कि हमारे देश में सऊदी अरब जैसे कठोर कानून क्यों नहीं बनाए जाते, जहां पंद्रह मिनट में आरोपी को खोज कर सरेआम गोली से उड़ा दिया जाता है; जहां राजा स्वयं पीड़िता से मिल तीस मिनट में अपराधी को उल्टा लटका कर भीड़ को सौंप देते हैं ताकि लोगों को सीख मिल सके और उनमें भय उत्पन्न हो सके। इससे दुष्कर्म के हादसों पर अंकुश लगना स्वाभाविक है।

इस भयावह वातावरण में हर इंसान मुखौटे लगा कर जी रहा है; एक-दूसरे की आंखों में धूल झोंक रहा है। आजकल महिलाएं भी सुरक्षा हित निर्मित कानूनों का खूब फायदा उठा रही हैं। वे बच्चों के लिए पति के साथ एक छत के नीचे रहती हैं, पूरी सुख-सुविधाएं भोगती हैं और हर पल पति पर निशाना साधे रहती हैं। वे दोनों दुनियादारी के निर्वहन हेतू पति-पत्नी का क़िरदार बखूबी निभाते हैं, जबकि वे दोनों इस तथ्य से अवगत होते हैं कि यह संबंध बच्चों के बड़े होने तक ही कायम रहेगा। जी हां, यही सत्य है जीवन का…समझ नहीं आता कि पुरुष इन पक्षों को अनदेखा कर, कैसे अपनी ज़िंदगी गज़ारता है और वृद्धावस्था की आगामी आपदाओं का स्मरण कर चिंतित नहीं होता। वह बच्चों की उपेक्षा व अवमानना का दंश झेलता अपने अहं में जीता रहता है। पत्नी सदैव उस पर हावी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि उसे  उसके अधिकार से कोई भी बेदखल नहीं कर सकता। हां! अलग होने पर मुआवज़ा, बच्चों की परवरिश का खर्च आदि मिलना उसका संवैधानिक अधिकार है। इसलिए महिलाएं अपने ढंग से जीवन-यापन करती हैं।

यह तो सर्द रातों में बुझते हुए दीयों की बात हुई।

जैसे सर्द हवा के चलने पर जलती आग के आसपास बैठ कर तापना बहुत सुक़ून देता है और इंसान उस तपिश को अंत तक महसूसना चाहता है, जबकि वह जानता है कि वे संबंध स्थायी नहीं हैं, पल भर में ओझल हो जाने वाले हैं। इंसान सदैव सुक़ून की तलाश में रहता है, परंंतु वह नहीं जानता कि आखिर सुक़ून उसे कहाँ और कैसे प्राप्त होगा? इसे आप रिश्तों को बचाने की मुहिम के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि मानव खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ में विश्वास रखता है। वह आज को जी लेना चाहता है; कल के बारे में चिन्ता नहीं करता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 39 ☆ कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है”.)

☆ किसलय की कलम से # 39 ☆

☆ कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है ☆

कन्या भ्रूणहत्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है। सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं, संगठनों, आम तथा खास सभी को भ्रूणहत्या पता लगाने एवं रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। आज भी अशिक्षित व पिछड़े समाज में महिलाओं के प्रति नकारात्मक सामाजिक सोच के फलस्वरूप उस वर्ग की बेटियों में शिक्षा का वांक्षित स्तर नहीं बढ़ सका है। ऐसा यदा कदा अन्यत्र भी देखने मिल जाता है। दहेजप्रथा कन्या भ्रूणहत्या का मूल कारक माना जा सकता है। इसके विरुद्ध कठोर एवं प्रभावी कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। बेटियों के प्रति माता-पिता के जेहन में असुरक्षा की भावना भी एक कारण है जिसके कारण बेटियों का घर से बाहर निकलना, विद्यालयों में आये दिन अश्लील हरकतों का प्रकाश में आना, अस्पतालों में चिकित्सकों से डर, सड़कों पर दोपाये  जानवरों की कुत्सित भावनाएँ, सरकारी एवं गैर सरकारी कार्य के दौरान अभिभावकों  में शंका- कुशंकाओं को जन्म देता है।

आज लक्ष्मी, मैत्रेयी, गार्गी, महादेवी जैसी विलक्षण महिलाओं के देश में बेटियों का पैदा होना चिंता का विषय बन जाता है, जबकि हमें स्वयं को गर्वित होना चाहिए कि बेटों की अपेक्षा बेटियाँ माँ-बाप से भावनात्मक रूप से अधिक जुड़ी होती हैं। घर एवं समाज में बेटियों की अहमियत से सभी भलीभाँति परिचित हैं। आज के बदलते परिवेश में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बेटियों का सुनहरा भविष्य उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। बेटा-बेटी में फर्क करने से सबसे पहले ममतामयी माँ का हृदय ही आहत होता है। ऐसे समय में माँ की दृढता, आत्मविश्वास एवं जवाबदेही और बढ़ जाती है। उसे समाज, परिवार और स्वयं पर भी जीत हासिल करना होगी। जब बेटियों को समाज और शासन आगे बढ़ने का मौका देने लगा है तब यह भेद कैसा? यह तो सृष्टि से बगावत ही कहा जाएगा। आज हमें स्वीकारना ही होगा कि कन्या भ्रूणहत्या, बेटों की चाह के अलावा और कुछ भी नहीं है जिसे पुरुष प्रधान समाज में बड़ी अहमियत के तौर पर देखा जाता है तथा बेटियों के विषय में हीनभावना के परिणाम स्वरूप कन्या भ्रूणहत्या की जाती है। यह तय है कि पुरुष प्रधान समाज में इस भावना की जड़ें अभी तक जमी हुई हैं।

यूनिसेफ के अनुसार भारत में करोड़ों बेटियाँ एवं स्त्रियाँ गायब हैं। विश्व के अधिकतर देशों से तुलना की जाये तो भारत में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या कम होती जा रही है। भारत में आज भी प्रतिदिन हजारों कन्या भ्रूण हत्याएँ अवैध रूप से होती हैं, जिससे बाल अत्याचार, विवाहेत्तर यौन सम्बन्ध तथा यौनजनित हिंसा को बढ़ावा मिला है। यह एक विकासशील राष्ट्र के लिए बुरा संकेत है। देश की पिछली जनगणनाओं में सामने आये आँकड़ों में कम शिशु लिंगानुपात ने देश की चिंता बढ़ा दी है। ऐसे में इस समस्या के निराकरण हेतु विशेष कार्ययोजना की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।

जिस देश का इतिहास स्त्रियों की सेवा-भावना, त्याग और ममता से भरा पड़ा हो वहाँ अब उसी वर्ग के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना पुरुषों के लिए लज्जा की बात है। हीन विचारधारा एवं रूढ़िवादी प्रथाओं के कम होने पर भी कन्या भ्रूणहत्या का प्रतिशत बढ़ना हमारे समाज के लिए घातक हो सकता है। वंश परम्परा का प्रतिनिधित्व, बुढ़ापे में सहारा की निश्चिन्तता एवं आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए परिवार में बेटों को प्रधानता दी जाती है। इसी सोच ने धीरे-धीरे अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं।

अब शिक्षा के सुधरते स्तर से इस कुप्रथा को उखाड़ फेकने की संभावना बढ़ी है परन्तु यह भावना अभी ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग तक पहुँचना शेष है। परमात्मा यदि सृष्टि निर्माता है तो नारी संतान का निर्माण करती है, जिससे समाज का अस्तित्व जुड़ा है, फिर बिना नारी के समाज का बढ़ना क्या संभव है?

वर्तमान में नारी का आत्मनिर्भर होते जाना, सकारात्मक योगदान एवं घर-बाहर सामान रूप से अपनी योग्यता का लोहा मनवाना क्या हमारे लिए प्रामाणिक तथ्य नहीं है? फिर कन्या भ्रूणहत्या किस मानसिकता का द्योतक है? कन्या विरोधी मानसिकता केवल अशिक्षित एवं पिछड़े वर्ग में ही बलवती नहीं है, इसकी जड़ में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं दैविक मान्यताओं तथा रूढ़िवादी प्रथाओं का ज्यादा हस्तक्षेप समझ में आता है। हमें इन विद्रूपताओं से निपटने के लिए अब आगे आना बेहद जरूरी हो गया है। पारिवारिक कार्यों में सहभागिता, व्यवसाय-भागीदारी में विश्वसनीयता एवं उत्तराधिकार के साथ साथ बुढ़ापे में सहारे के रूप में बेटियों की अपेक्षा बेटों को ही समाज में मान्यता प्राप्त है। लड़का घर की उन्नति में सहयोग एवं श्रीवृद्धि करता है, जबकि बेटियाँ पढ़ाई-लिखाई और पालन-पोषण के खर्च के बाद एक दिन माता-पिता को दहेज के बोझ से दबा कर पराये घर चली जाती हैं। इन सबके अतिरिक्त धार्मिक कार्यों में हिन्दु प्रथाओं के अनुसार केवल बेटे ही सहभागी बन सकते हैं। आत्मा की शान्ति हेतु बेटे द्वारा ही माता-पिता को मुखाग्नि देने की मान्यता है। ऐसे अनेक तथ्य गिनाए जा सकते हैं जो कन्या भ्रूणहत्याओं को बढ़ावा देने में सहायक बनते हैं।

ऐसा नहीं है कि शासन के प्रयास कम हैं, परन्तु उनके क्रियान्वयन में कहीं न कहीं कमी के चलते अपेक्षित परिणाम हमारे सामने नहीं आ पाते। वहीं हमारे समाज की उदासीनता भी आड़े आती है। समाज का इस विषय पर जागरूक होना अब अत्यावश्यक हो गया है। शासन के दहेज विरोधी कानून, शिशुलिंग की जानकारी के विरुद्ध कानून, बेटी की पैतृक संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी के कानून एवं बेटियों के अधिकार के कानून लागू किये जाना इसके उदाहरण समाज के सामने हैं। यह मिशन तब सफल होगा जब नेता, अफसर और आम जनता में एक समन्वय स्थापित होगा।

पश्चिमी देशों के अंधानुकरण से भारत में भी अत्याचार, नारी अपमान, यौन शोषण की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। गांधी, बुद्ध और महावीर के देश में अब आध्यात्म एवं अहिंसा ने भी किनारा कर लिया है। कन्या भ्रूणहत्या एक अमानवीय तथा क्रूर कृत्य है। अहिंसा-प्रधान देश में कलंक है। यह सब हमारे दिमाग से उपज कर समाज में फैली कुप्रथाओं-परम्पराओं का कुपरिणाम कहा जा सकता है। हम कन्या जनित अपमान, बेबसी, दहेज, असुरक्षा जैसे कारकों से प्रभावित हो गए हैं, जो अब शिक्षित समाज से खत्म होना चाहिए। आज अत्याधुनिक तकनीकि ने कन्याभ्रूण परीक्षण के उपरान्त कन्या भ्रूणहत्या का औसत बढ़ा दिया है। यहाँ दुःख की बात यह भी है कि वह नारी समाज जो नारी अस्मिता, फ़िल्मी कल्चर, ब्यूटी काम्पटीशन, कालगर्ल एवं वेलेंटाइन कल्चर का पुरजोर समर्थन करता है, वही कन्या भ्रूणहत्या से जुड़े सवाल पर सकारात्मक तथा कड़ा प्रतिरोध क्यों नहीं करता ?

बेटी बचाओ अभियान के सन्दर्भ में कहा जाता है कि केन्द्र व राज्य सरकारें इस अभियान को सफल बनाने में जुटी हैं। अभी भी यह देखना बाकी है कि इस अभियान की रूप-रेखा, दिशा-निर्देश और कार्यान्वयन कितना कारगर हो पाता है। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि सर्वप्रथम शासकीय, अशासकीय एवं देश की जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु भी कार्य योजना पर समग्र दृष्टिपात करना चाहिए।

बेटियों के सम्मान एवं भेदभाव की समाप्ति हेतु देश में व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है। कन्या भ्रूणहत्या के प्रति लोगों को हतोत्साहित करना इस मिशन का मुख्य मकसद है। यह ‘हतोत्साह’ समाज में कैसे और किन-किन सुविधाओं तथा कानून से संभव है। यह काम सरकार को प्रमुखता से करना होगा। पिछड़ी एवं गरीब जनता को सामाजिक सुरक्षा, सहायता, बेटियों की विकासपरक योजनायें कारगर हो सकती हैं। जब तक समाज कन्याओं को बोझ समझना बंद नहीं करेगा, तब तक इस मिशन पर अनवरत कार्य करने की आवश्यकता है।

जानकार सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि कन्या भ्रूणहत्या की दर बढ़ रही है। केवल डॉक्टरों पर अंकुश लगाने से इस भ्रूणहत्या का ग्राफ कम होने से रहा। कन्या भ्रूणहत्या करने वाले, कराने वाले तथा प्रत्यक्ष दर्शियों पर भी नज़र रखने हेतु शासन को कठोर कदम उठाने की जरूरत है। वैसे हम यह भी कह सकते हैं कि यदि यह कुप्रथा नहीं बढ़ रही होती तो बेटी का लिंगानुपात क्यों कम होता। कन्या-क्रच, स्ट्रिंग ऑपरेशन ग्रुप रैलियाँ, कन्या दिवस, लाड़ली लक्ष्मी योजना या फिर विभिन्न प्रोत्साहन योजनाओं को क्यों चलाना पड़ता। इसका सीधा सा अर्थ है कि अभी तक हम कन्या भ्रूणहत्या पर वांछित अंकुश लगाने में असमर्थ रहे हैं।

भारत की 2001 एवं इसके बाद  की जनगणनाओं में सामने आये तथ्यों में बेटियों के घटते लिंगानुपात से चिंतित होकर शासन ने इस दिशा में अपने प्रयास तभी तेज कर दिए थे, फिर भी नई-नई भ्रूण परीक्षण की सुविधाओं एवं बच्चियों के प्रति उदासीनता के चलते इस अनुपात में गिरावट जारी है। अब तो मात्र 5 सप्ताह के भ्रूण का लिंग परीक्षण करने वाले अत्याधुनिक रक्त परीक्षण किट ‘बेबी जेंडर केंडर’ के चलन से कन्या भ्रूण हत्या और भी आसान हो गई है। ऐसे परीक्षणों पर हमेशा प्रतिबंध रहना चाहिए।

आज जब बेटियाँ अनेक क्षेत्रों में बेटों से भी आगे निकल चुकी हैं, तब ऐसे में बेटा बेटी में भेदभाव समाप्त हो जाना चाहिए और माँ-बाप को निश्चिन्त होकर हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी से सहमत होना चाहिए। बेटे के जन्म की तरह ही जब तक बेटी के जन्म पर समाज हर्षित नहीं होगा तब तक हमारे समाज का समग्र विकास संभव नहीं है। हमारे  देश के विशेषज्ञों तथा शीर्षस्थों का भी कहना है कि कन्या भ्रूणहत्या अस्वीकार्य अपराध है, जिसे व्यापक रूप से नवीन तकनीकों के दुरुपयोग से बढ़ावा मिल रहा है तथा जिसका विचारहीन व्यापारिक दुरुपयोग रुकना चाहिए।

हमें भी अपनी मानसिकता को बदलना होगा और याद रखना होगा कि भ्रूण में भी जीव होता है जिसकी हत्या करना हिन्दु धर्मानुसार पाप माना गया है। इस पाप की सहज स्वीकृति परिवार के सारे सदस्य कैसे दे सकते हैं? अंधविश्वास, पाखण्ड एवं सामाजिक कुरीतियों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों एवं समाज की जागरूक जनता भी परस्पर समन्वय स्थापित करे। अभी तक बेटियों की स्थिति ज्यादा सुदृढ़ नहीं हो पाई है। आज भी पिता होने का मतलब अपना सिर झुकाना ही कहलाता है। बेटियों के विवाह में आर्थिक बोझ पड़ता ही है। कभी-कभी तो विवशता में बेटी, पिता, माँ, भाई तक आत्महत्या तक करते पाए गए हैं।

वक्त धीरे धीरे बदल रहा है। भ्रूण हत्या के साक्षी होने पर हमें आगे आकर प्रतिरोध और कानूनी कार्यवाही में अपना सहयोग प्रदान करना चाहिए। केवल अफसोस भर करके चुप नहीं बैठना चाहिए। डॉक्टरों को चंद पैसों की लालच में कंस नहीं बनाना चाहिए। भ्रूण हत्या करने वाले परिवारों का समाज द्वारा बहिष्कार किया जाना चाहिए। इसलिए अब समय की यही पुकार है कि हम सब एक सचेतक की भूमिका का निर्वहन करें, तभी हम इस कन्या भ्रूणहत्या के घिनोने कृत्य पर अंकुश लगाने में सफल होंगे। केवल बयानबाजी, भाषणबाजी, नारेबाजी, सभाओं, कार्यशालाओं से कुछ नहीं होने वाला। मेरे विचार से बेटी बचाओ अभियान सहित कन्या भ्रूणहत्या रोकने वाले समस्त प्रयासों को प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, सोशल मीडिया, ब्लॉग्स, नुक्कड़ नाटक, रैलियाँ, नारालेखन, पेम्पलेट्स, एस.एम.एस. के माध्यम से व्यापक प्रचारित-प्रसारित कर सफल बनाया जा सकता है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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