हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 84 ☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 84 ☆

☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर ☆

‘यदि दूसरे आपकी सहायता करने को इनकार कर देते हैं, तो मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं, क्योंकि उनके न कहने के कारण ही मैं उस कार्य को करने में समर्थ हो पाया। इसलिए आत्मविश्वास रखिए; यही आपको उत्साहित करेगा,’ आइंस्टीन के उपरोक्त कथन में विरोधाभास है। यदि कोई आपकी सहायता करने से इंकार कर देता है, तो अक्सर मानव उसे अपना शत्रु समझने लग जाता है। परंतु यदि हम उसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें, तो यह इनकार हमें ऊर्जस्वित करता है; हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जाग्रत कर उत्साहित करता है और हमें अपनी आंतरिक शक्तियों का अहसास दिलाता है, जिसके बल पर हम कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य को भी क्रियान्वित करने तथा अंजाम देने में सफल हो जाते हैं। सो! हमें उन लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए, जो हमें बीच मंझधार छोड़ कर चल देते हैं। सत्य ही तो है कि जब तक इंसान गहरे जल में छलांग नहीं लगाता; वह तैरना कैसे सीख सकता है? उसकी स्थिति तो कबीरदास के नायक की भांति ‘मैं बपुरौ बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ’ जैसी   होगी।

सो! यह मत कहो कि ‘मैं नहीं कर सकता,’ क्योंकि आप अनंत हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति मानव में अदम्य साहस के भाव संचरित करती है; उत्साहित करती है कि आप में अनंत शक्तियां संचित हैं और आप कुछ भी कर सकते हैं। हमारे गुरुजन, आध्यात्मिक वेद-शास्त्र के ज्ञाता व विद्वत्तजन– हमें अंतर्मन में निहित अलौकिक शक्तियों से रूबरू कराते हैं और हम उन कल्पनातीत असंभव कार्यों को भी सहजता- पूर्वक कर गुज़रते हैं। इसके लिए मौन का अभ्यास आवश्यक है, क्योंकि वह साधक को अंतर्मुखी बनाता है; जो उसे ध्यान की गहराइयों में ले जाने में सहायक सिद्ध होता है। महर्षि रमण, महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर वर्द्धमान आदि ने भी मौन साधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार किया।

मौन रूपी वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं अर्थात् मौन से हमारे हृदय में सुप्त अलौकिक शक्तियां जाग्रत होती हैं, जिसके परिणाम-स्वरूप जीवन में सकारात्मकता दस्तक देती है। वास्तव में मौन जीवन का सर्वाधिक गहरा संवाद है। सो! मानव को शब्दों का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि यह महाभारत जैसे महायुद्ध के जनक भी हो सकते हैं।

स्वामी योगानंद जी के शब्दों में ‘यह हमारा छोटा-सा मुख एक तोप के समान और शब्द बारूद के समान हैं– जो पल-भर में सब कुछ नष्ट कर देते हैं। सो! व्यर्थ व अनावश्यक मत बोलें और तब तक मत बोलें; जब तक तुम्हें यह न लगे कि तुम्हारे शब्द कुछ अच्छा कहने जा रहे हैं।’ इसलिए मौन मानव की वह मन:स्थिति है, जहां पहुंच कर तमाम झंझावात शांत हो जाते हैं और मानव को विभिन्न मनोविकारों चिंता, तनाव, आतुरता व अवसाद से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए स्वामी योगानंद जी मानव-समाज को अपनी अमूल्य शक्ति व समय को व्यर्थ के वार्तालाप में बर्बाद न करने का संदेश देते हैं; वहीं वे भोजन व कार्य करते समय मौन रहने की महत्ता पर भी प्रकाश डालते हैं।

सो! जब आपके हृदय की भाव-लहरियां शांत होती हैं, उस स्थिति में आपको अच्छे विकल्प सूझते हैं; आप में आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है और आप उन लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं; जिनके कारण आप उस असंभव कार्य को अंजाम देने में समर्थ हो सकते हैं। परंतु इस समस्त प्रक्रिया में तथाकथित अनुकूल परिस्थितियों व आपकी सकारात्मक सोच का भी अभूतपूर्व योगदान होता है। इसलिए ‘मैं कर सकता हूं’ को जीवन का मूल-मंत्र बनाइए और निराशा को आजीवन अपने हृदय में प्रवेश न पाने दीजिए। इस स्थिति में दोस्त, किताबें, रास्ता व सोच अहम् भूमिका निभाते हैं। यदि वे ठीक हैं, तो मानव के लिए सहायक सिद्ध होते हैं; यदि वे ग़लत हैं, तो गुमराह कर पथ-भ्रष्ट कर देते हैं और उस अंधकूप में धकेल देते हैं; जहां से वह कभी बाहर आने की कल्पना भी नहीं पाता। इसलिए सदैव अच्छे दोस्त बनाइए; अच्छी किताबें पढ़िए; सकारात्मक सोच रखिए और सही राह का चुनाव कीजिए… राग-द्वेष व स्व-पर का त्याग कर, ‘सर्वेभवंतु: सुखीनाम्’ की स्वस्ति कामना कीजिए, क्योंकि जैसा आप दूसरों के लिए करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। सो! संसार में स्वयं पर विश्वास रखिए और सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि वे आपकी अनमोल धरोहर होते हैं; जो आपको जीते-जी मुक्ति की राह पर चलने को प्रेरित ही नहीं करते; अग्रसर कर आवागमन के चक्र से मुक्त कर देते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 36 ☆ सोशल मीडिया जनित हत्यायें और जवाबदेही ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “सोशल मीडिया जनित हत्यायें और जवाबदेही”.)

☆ किसलय की कलम से # 36 ☆

☆ सोशल मीडिया जनित हत्यायें और जवाबदेही ☆

 वैसे तो हम सोशल मीडिया पर अवांछित खबरें या चित्र छपने पर अप्रिय वारदातों को पढ़ते सुनते आ रहे हैं लेकिन वर्तमान में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक चित्र, संदेश एवं पोस्ट किए गए वीडियोज के कारण हत्याओं के बढ़ते मामले बेहद चिंता जनक हैं।

आज जिस तरह से वाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्ट्राग्राम या अन्य सोशल मीडिया के साधन लोकप्रियता पा रहे हैं, उनका उपयोग समाज को लाभ कम और हानि ज्यादा पहुँचा रहे हैं। आपराधिक प्रवृत्ति के लोग अंतरजाल की नवीनतम सुविधाओं का जिस चालाकी  से दुरुपयोग करते हैं, वह सामान्य जनता की सोच के परे होता है। लोग अन्तरजालीय तकनीकि का तीस – चालीस प्रतिशत भी उपयोग नहीं कर पाते। बैंकिंग को लेकर होने वाले अपराधों और ऑनलाइन व्यापार आदि में सबको पता है आम आदमी कितना ठगा जा रहा है। अंतरजाल पर असामाजिक तत्त्वों द्वारा अश्लीलता का परोसा जाना भी किसी से छिपा नहीं है। आज इसी मीडिया पर बने संबंध और नजदीकियाँ युवक-युवतियों को अनैतिक गतिविधियों की ओर प्रेरित कर रहे हैं। इनके बीच पनपे अवैधानिक संबंध समाज और परिवार की बेइज्जती तथा आत्महत्या के कारण बनते जा रहे हैं। आज मीडिया पर एक पोस्ट भी पक्ष और विपक्ष का विवाद, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक वबाल खड़ा करने में सक्षम हो चुका है। मीडिया से उपजी वैमनस्यता धर्म, संप्रदाय और पारिवारिक हिंसा को बढ़ावा दे रही है। पर्व, उत्सव मेले या चुनावी माहौल में एक समाचार, किसी की टिप्पणी या विज्ञापन पर सारा मीडिया गृह युद्ध का वातावरण निर्मित कर देता है। समझाइश और शांति की अपील के बजाए लोगों के अप्रिय और निरर्थक वक्तव्य आग में घी का काम करते हैं। हमारे बुजुर्ग कहा करते हैं, मतभेद रखो परंतु आपस में मन भेद नहीं रखना चाहिए। बुजुर्गों की ये सीख आज मानता ही कौन है। वर्तमान राजनीतिक क्षेत्र में क्या चल रहा है? नीति का कहीं अता-पता नहीं है। पहले युद्ध भी उसूलों और सिद्धांतों पर आधारित लड़े जाते थे।शायद यही कारण है कि आज की राजनीति किसी विशेष या परिपक्व नीति पर आधारित न होकर सामयिक बनती जा रही है। फिर भी हम कहेंगे कि राजनीतिक विचारधारा को समर्थन देना अलग बात है परंतु  यही विचारधारा यदि हत्या, आतंक अथवा देशद्रोह की ओर प्रेरित करे तो यह हमारे समाज, हमारे देश या समूचे विश्व के लिए खतरनाक है। विश्व में अंतरजालीय अपराधों के नियंत्रण संबंधी कानून और नियमावलियों की चर्चा आए दिन सुनते रहते हैं। अंतरजालीय अपराधियों एवं हैकर्स के किस्से सुनने के बाद भी ये मामले घटने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं। विश्व में नियम बन रहे हैं। सावधानियाँ बरती जा रही हैं। इस की जवाबदेही किसकी है? शायद इस ओर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है। सोशल मीडिया पर नियंत्रण संबंधी कानूनों का न होना या कठोरता से पालन न किया जाना इसका प्रमुख कारण है।शिक्षित वर्ग में जागरूकता की कमी तीसरा कारक है और शायद दिग्भ्रमित युवाओं द्वारा अंतरजालीय सुविधाओं का दुरुपयोग कर असंवैधानिक गतिविधियों में लिप्त होना भी एक कारण है। निश्चित रूप से सरकारों द्वारा सकारात्मक रुख एवं कानूनी नियंत्रण सबसे कारगर साबित हो सकता है।

आज यह हालात हमारे पूरे देश क्या पूरे विश्व में बने हुए हैं। यद्यपि हमारा देश शांतिप्रिय देशों में गिना जाता है लेकिन अन्तरजालीय मीडिया के संदेशों के कारण शुरू हुई हिंसाएँ खतरे की घंटी कही जा सकती है। हमारे देश की केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के लिए यह चिंतन और सतर्कता का समय है। इन सरकारों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में चतुर्दिश चौकस रहें और भविष्य में ऐसी किसी भी सोशल मीडिया जनित हत्यायें एवं दुर्घटनाओं को रोकने में सक्षम हों।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 83 ☆ चाँदनी ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  कविता “चाँदनी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 83 – साहित्य निकुंज ☆

☆ चाँदनी  ☆

आज

चाँदनी रात है

तुझसे मुलाकात है।

चाँद छुपा है

चाँदनी के आगोश में

चहूँ ओर फैली है चाँदनी

बिखर रही रूप की रागिनी

तेरा रूप देखकर

हूँ मैं खामोश

उड़ गये हैं होश

चाँदनी रात में

निखरा तेरा श्रृंगार

लगता है

तेरे रोम-रोम से

फूट रहा मेरा प्यार ।

तभी नजर पड़ी

चाँद पर

वह चाँदनी से कह रहा हो

तुम दूर न जाना

मेरे साथ ही रहना

तेरे साथ ही मेरा वजूद है।

तुझमें डूबना चाहता हूँ

तुझमें समाना चाहता हूँ।

तुझसे मेरा श्रृंगार है।

तू ही मेरा जन्मों का प्यार है।

तभी निहारा अपने चाँद को

उसने नजरे झुका ली

सार्थक हुई मुलाकात

प्रतीक बन गई

चाँदनी रात।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 73 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 73 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

बुरा वक्त ही कराता,  अपनों की पहचान

संकट में जो साथ दे, उसको अपना जान

 

वक्त बदलता है सदा, लें धीरज से काम

नई सुबह के साथ ही, मिलता है आराम

 

चलें वक्त के साथ हम, करें वक्त सम्मान

वक्त किसी का सगा नहिं, चलिए ऐसा मान

 

वक्त बदलते बदल गई, सबकी सारी सोच

नजर हटते ही हटा, नजरों का संकोच

 

वक्त बहुत बलवान है, क्या समझें नादान

पहिया रुके न वक्त का, होता है गतिमान

 

लगे वक्त भारी सदा, जब मुश्किल हालात

वक्त प्रबंधन कीजिये, करिये न सवालात

 

कभी हंसाता, रुलाता, अज़ब वक्त के खेल

जुदा कराता वक्त ही, वही कराता मेल

 

डर कर रहिये वक्त से, बुरी वक्त की मार

वक्त किसी का सगा नहिं, तेज वक्त की धार

 

वक्त की चक्की से पिसें, क्या राजा क्या रंक

बचे न कोई वक्त से, चलता है जब  डंक

 

वक्त की पहचान करें, समय का सदुपयोग

भोग तभी हम पाएंगे, दुनिया के सब भोग

 

साँचा संग सद्गुरु का, झूठा जग ब्यवहार

आवे काम वक्त पड़े, बुद्धि,विवेक,विचार

 

साझेदारी दर्द की, करे जो सच्चा यार

खुशियों में तो सब यहां, बनते हैं दिलदार

 

लक्ष्य तय कर बढ़े चलें, संयम नियम के संग

सफल हों”संतोष”तभी, होगी दुनिया दंग

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 76 – विजय साहित्य – जीवनाचे गीत…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 76 – विजय साहित्य – जीवनाचे गीत…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

सांजावला दिनमणी,

आता रजनीची शाल.

तुझ्या सोबतीने सरे

सुखदुःख  भवताल …!

 

असा जीवनाचा सुर

अंतरात निनादतो

आठवांच्या पाखरांनी

आसमंती विसावतो …!

 

अशा संधीकाली गाऊ

जीवनाचे गीत नवे

ऐकायला जमलेत

आपलेच स्वप्न थवे…..!

 

तने दोन, एक मन,

प्रेम प्रीती जुने नाते.

तेजोमय भविष्याची,

वाट जोगिया हा गाते …!

 

दूर करण्या अंधार,

अशी रम्य  वाटचाल

कधी ज्ञानाचा प्रकाश,

कधी प्रकाशाची शाल…!

 

सुरमयी सजे आभा,

लावू पाठीला या पाठ

स्वप्न मयी, कवडसे

बांधियली सौख्य गाठ…… !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 61 ☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर एक  हृदयस्पर्शी लघुकथा। मानव जीवन अमूल्य है और हमारी विचारधारा कैसे उसे अमूल्य से कष्टप्रद बनाती है यह पठनीय है ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक  विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆

मैं ऐसी नहीं थी, बहुत स्मार्ट हुआ करती थी अपनी उम्र में – वह हँसकर बोली। यह हमारी पहली मुलाकात थी और वह थोडी देर में ही अपने बारे में सब कुछ बता देना चाहती थी। वह खटाखट इंगलिश बोल रही थी और जता रही थी कि हिंदी थोडी कम आती है। हमारे परिवार में किसी के कहीं भी आने जाने पर कोई रोक – टोक नहीं थी, खुले माहौल में पले थे। शादी ऐसे घर में हुई जहाँ पति को मेरा घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। बहुत मुश्किल लगा उस समय, अकेले में रोती थी लेकिन क्या करती, समेट लिया अपनेआप को घर के भीतर। मेरी दुनिया घर की चहारदीवार के भीतर पति और बच्चों तक सीमित रह गई।

बच्चे बडे हो गए। बेटी की शादी कर दी और बेटा विदेश चला गया। अपनी जिम्मेदारी  पूरी कर चैन की साँस ली ही थी कि पति  एक दुर्घटना में चल बसे। जिनके इर्द- गिर्द मेरी दुनिया सिमट गई थी, वे सहारे ही अब नहीं रहे। अब  बच्चे समझाते हैं मम्मी घर से बाहर निकलो, लोगों से मिलो, बात करो, अकेली घर में बंद मत रहो। फीकी सी हँसी के साथ बोली – अब कैसे समझाऊँ इन्हें कि चालीस साल की इन बेडियों को इतनी जल्दी कैसे काटा जा सकता है ?

मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी, मेरी आँखों के सामने एक बिंब उभर रहा था चार पैरवाले पशु का, जिसके दो पैर रस्सी से बाँध दिए गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 96 ☆ कविता – बसन्त की बात ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक भावप्रवण कविता  ‘बसन्त की बात’ इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 96☆

? बसन्त की बात ?

लो हम फिर आ गये

बसन्त की बात करने ,रचना गोष्ठी में

 

जैसे किसी महिला पत्रिका का

विवाह विशेषांक हों , बुक स्टाल पर

ये और बात है कि

बसन्त सा बसन्त ही नही आता अब

अब तक

बसन्त बौराया तो है , पर वैसे ही

जैसे ख़ुशहाली आती है गांवो में

जब तब कभी जभी

 

हर बार

जब जब

निकलते हैं हम

लांग ड्राइव पर शहर से बाहर

 

मेरा बेटा खुशियां मनाता है

मेरा अंतस भी भीग जाता है

और मेरा मन होता है एक नया गीत लिखने का

 

मौसम के  बदलते मिजाज का अहसास

हमारी बसन्त से जुड़ी खुशियां बहुगुणित कर देता है

 

किश्त दर किश्त मिल रही हैं हमें

बसन्त की सौगात

क्योकि बसंत वैसे ही बार बार प्रारंभ होने को ही होता है

कि फिर फिर किसी आंदोलन

की घटा घेर लेती है बसन्त को

 

बसन्त किसी कानून में उलझ कर

अटका रह जाता है

 

मुझे लगता है

अब किसान भी

नही करते

बरसात या बसन्त का इंतजार उस व्यग्र तन्मयता से

 

क्योंकि अब वे सींचतें है खेत , पंप से

और बढ़ा लेते हैं लौकी

आक्सीटोन के इंजेक्शन से

 

 

देश हमारा बहुत विशाल है

कहीं बाढ़ ,तो कहीं बरसात बिन

हाल बेहाल हैं

जो भी हो

पर

अब भी

पहली बरसात से

भीगी मिट्टी की सोंधी गंध,

और

बसन्त के पुष्पों से

प्रेमी मन में उमड़ा हुलास

और झरनो का कलकल नाद

उतना ही प्राकृतिक और शाश्वत है

जितना कालिदास के मेघदूत की रचना के समय था

 

और इसलिये तय है कि अगले बरस फिर

होगी रचना गोष्ठी

 

और हम फिर बैठेंगे

इसी तरह

नई रचनाओ के साथ .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 56 ☆ कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 56 – कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…

साधना किसी की भी हो परन्तु आराधना तो मेरी ही होनी चाहिए। इसी को आदर्श वाक्य बनाकर लेखचन्द्र जी सदैव की तरह अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं। जो कुछ करेगा, उसे बहुत कुछ मिलेगा, ये राग अलापते हुए वे निरंतर एक से बड़े एक फैसले धड़ाधड़ लेते जा रहे हैं। और उनके अनुयायी, रहिमन माला प्रेम की जिन तोड़ो चिटकाय के रास्ते पर चलते हुए हर आदेशों को प्रेम भाव से स्वीकारते जा रहें हैं। भई विश्वास हो तो ऐसा कि आँख, कान, मुँह बंद कर भी किया जा सके। हो भी क्यों न उनके आज तक के सभी निर्णय सफल हुए हैं,ये बात अलग है कि इस सफलता के पीछे मूलभूत आधार स्तम्भों की भक्ति सह शक्ति कार्य कर रही है।

यहाँ फिर से कार्य आ धमका, आराम हराम होता है, अतः कुछ तो करना ही है सो क्यों न सार्थक किया जाए, जिससे सभी के मुँह में घी -शक्कर  हो। इतिहास गवाह है, जब- जब सबके हित में कार्य किया गया है तो अवश्य ही उम्मीद से ज्यादा लाभ कार्य शुरू करने वाले को हुआ है।

पल में तोला, पल में माशा, अपनी खुशी का रिमोट किसी के भी हाथों में देकर हम लोग नेतृत्व करने का विचार रखते हैं। अरे भई जब हमारा स्वयं पर ही नियंत्रण नहीं है तो दूसरों पर कैसे होगा। हमारा व्यवहार तो इस बात पर निर्भर करता है कि सामने वाले ने हमारे साथ कैसा आचरण किया है। इसी कड़ी में एक चर्चा और निकल पड़ी कि ऐसे लोग जो हर दल में शामिल होकर केवल मलाई खाकर ही अपना गुजर बसर चैन पूर्वक करते चले आ रहें हैं, जब वे कुछ करते हैं तो कैसे -कैसे बखेड़े खड़े हो जाते हैं। एक आयोजन में सभी दल के लोग आमंत्रित थे। एक ही आमंत्रण पत्र सारे दलों के व्हाट्सएप  पर सबके पास पहुँच गया। पार्टी में भाँति- भाँति के लोगों से खूब रौनक जमीं। सारे लोग दलगत राजनीति भूलकर एक दूसरे से गले मिलते हुए एक ही मेज पर बैठकर रसगुल्ले,चमचम उड़ा रहे थे।

इस मेल मिलाप से प्रेरित हो सारे मीडिया कर्मी भी एकजुट होकर, एक जैसी रिपोर्ट बनाकर ही प्रसारित करेंगे ये फैसला मन ही मन ले बैठे। अब तो वे एक साथ सारी बातों को समेटने लगे। अगले दिन जब खबर छपी तो इधर के नाम उधर, उधर के नाम इधर छप चुके थे। अब तो  हड़कंप मच गया। सारे दलों के मुखिया भयभीत हो अकस्मात अपने – अपने पार्टी कार्यालयों में मीटिंग करते दिखे, उन्हें ये भय सताने लगा कि कहीं सचमुच ऐसा ही तो नहीं होने वाला है क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कभी गलत हो ही नहीं सकता,आखिर आँखों देखी ही तो कहते हैं, लिखते व दिखाते हैं। मन ही मन बैचैन होकर वे लोग अंततः किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। कहीं से कोई ऑडियो वायरल होने की खबर, तो कहीं से लार टपकाते लोग दिखाई देने लगे। ये कहीं शब्द तो एकजुटता पर भारी होता हुआ प्रतीत होने लगा, तभी मुस्कुराते हुए अनुभवीलाल जी कहने लगे कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, जितना तोड़ा उतना जोड़ा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 78 – हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 78☆

☆ हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी ☆

मैं सबसे बड़ा पक्षी हूं। उड़ नहीं पाता हूं इस कारण उड़ान रहित पक्षी कहलाता हूं। मेरे वर्ग में एमु, कीवी पक्षी पाए जाते हैं। चुंकि मैं सबसे बड़ा पक्षी हूं इसलिए सबसे ज्यादा वजनी भी हूं। मेरा वजन 120 किलोग्राम तक होता है। अंडे भी सबसे बड़े होते हैं।

मैं शाकाहारी पक्षी हूं । झुंड में रहता हूं। एक साथ 5 से 50 तक पक्षी एक झुंडमें देखे जा सकते हैं। मैं संकट के समय, संकट से बचने के लिए जमीन पर लेट कर अपने को बचाता हूं । यदि छुपने की जगह ना हो तो 70 किलोमीटर की गति से भाग जाता हूं।

मेरी ऊंचाई ऊंट के बराबर होती है। मैं जिस गति से भाग सकता हूं उतनी ही गति से दुलत्ती भी मार सकता हूं। मेरी दुलत्ती से दुश्मन चारों खाने चित हो जाता है।

मैं अपने खाने के साथ-साथ कंकर भी निकल जाता हूं। यह कंकरपत्थर मेरे खाने को पीसने के काम आते हैं। इसी की वजह से पेट में खाना टुकड़ोंटुकड़ों में बढ़ जाता है।

क्या आप मुझे पहचान पाए हैं ?  यदि हां तो मेरा नाम बताइए ? नहीं तो मैं बता देता हूं। मुझे शुतुरमुर्ग कहते हैं।

अफ्रीका वन~

दुलत्ती से उछला

वजनी शेर।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-01-210

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 62 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वितीय अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है प्रथम अध्याय।

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 63 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वितीय अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए द्वितीय अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

धृतराष्ट्र के सारथी संजय ने धृतराष्ट्र से सैन्यस्थल का आँखों देखा हाल कुछ इस तरह कहा।

अर्जुन ने श्री कृष्ण से , किया शोक संवाद।

नेत्र सजल करुणामयी ,तन-मन भरे विषाद।। 1

 

श्री कृष्ण भगवान उवाच

प्रिय अर्जुन मेरी सुनो, सीधी सच्ची बात।

यदि कल्मष हो चित्त में, करता अपयश घात।। 2

 

तात नपुंसक भाव है, वीरों का अपमान।

उर दुर्बलता त्यागकर, अर्जुन बनो महान।। 3

 

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा

हे!मधुसूदन तुम सुनो, मेरे मन की बात।

पूज्य भीष्म,गुरु हनन से, उन पर करूँ न घात।। 4

 

पूज्य भीष्म,गुरु मारकर, भीख माँगना ठीक।

गुरुवर प्रियजन श्रेष्ठ हैं, ये हैं धर्म प्रतीक।। 5

 

ईश नहीं मैं जानता,क्या है जीत-अजीत।

स्वजन बांधव का हनन, क्या है नीक अतीत।। 6

 

कृपण निबलता ग्रहण कर, भूल गया कर्तव्य।

श्रेष्ठ कर्म बतलाइए, जो जीवन का हव्य।। 7

 

साधन अब दिखता नहीं, मिटे इन्द्रि दौर्बल्य।

भू का स्वामी यदि बनूँ, नहीं मिले कैवल्य।। 8

 

संजय ने धृतराष्ट्र से इस तरह भगवान कृष्ण और अर्जुन का संवाद सुनाया

मन की पीड़ा व्यक्त कर, अर्जुन अब है मौन।

युद्ध नहीं प्रियवर करूँ, ढूंढ़ रहा मैं कौन।। 9

 

सेनाओं के मध्य में, अर्जुन करता शोक।

महावीर की लख दशा, कृष्ण सुनाते श्लोक।। 10

 

श्री भगवान ने अर्जुन को समझाते हुए कहा

 

पंडित जैसे वचन कह, अर्जुन करता शोक।

जो होते विद्वान हैं, रहते सदा अशोक।। 11

 

तेरे-मेरे बीच में,जन्मातीत अनेक।

युद्ध भूमि में जो मरे, लेता जन्म हरेक।। 12

 

परिवर्तन तन के हुए, बाल वृद्ध ये होय।

जो भी मृत होते गए, नव तन पाए सोय।। 13

 

सुख-दुख जीवन में क्षणिक,ऋतुएँ जैसे आप।

पलते इन्द्रिय बोध में, धैर्यवान सुख- पाप।। 14

 

पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन सुनो, सुख-दुख एक समान।

जो रखता समभाव है, मानव वही महान।। 15

 

सार तत्व अर्जुन सुनो, तन का होय विनाश।

कभी न मरती आत्मा, देती सदा प्रकाश।। 16

 

अविनाशी है आत्मा, तन उसका आभास।

नष्ट न कोई कर सके, देती सदा उजास।। 17

 

भौतिकधारी तन सदा, नहीं अमर सुत बुद्ध।

अविनाशी है आत्मा, करो पार्थ तुम युद्ध।। 18

 

सदा अमर है आत्मा , सके न हमें लखाय।

वे अज्ञानी मूढ़ हैं, जो समझें मृतप्राय।। 19

 

जन्म-मृत्यु से हैं परे, सभी आत्मा मित्र।

नित्य अजन्मा शाश्वती, है ईश्वर का चित्र।। 20

 

जो जन हैं ये  जानते, आत्म अजन्मा सत्य।

अविनाशी है शाश्वत, कभी ना होती मर्त्य।। 21

 

जीर्ण वस्त्र हैं त्यागते, सभी यहाँ पर लोग।

उसी तरह ये आत्मा, बदले तन का योग।। 22

 

अग्नि जला सकती नहीं, मार सके न शस्त्र।

ना जल में ये भीगती, रहती नित्य अजस्र।। 23

 

खंडित आत्मा ही सदा, है ये अघुलनशील।

सर्वव्याप स्थिर रहे, डुबा न सकती झील।। 24

 

आत्मा सूक्ष्म अदृश्य है, नित्य कल्पनातीत।

शोक करो प्रियवर नहीं, भूलो तत्व अतीत।। 25

 

अगर सोचते आत्म है, साँस-मृत्यु का खेल।

नहीं शोक प्रियवर करो, यह भगवन से मेल।। 26

 

जन्म धरा पर जो लिए, सबका निश्चित काल।

पुनर्जन्म भी है सदा,ये नश्वर की चाल।। 27

 

जीव सदा अव्यक्त है, मध्य अवस्था व्यक्त।

जन्म-मरण होते रहे, क्यों होते आसक्त।। 28

 

अचरज से देखें सुनें, गूढ़ आत्मा तत्व।

नहीं समझ पाएं इसे, है ईश्वर का सत्व।। 29

 

सदा आत्मा है अमर, मार सके ना कोय।

नहीं शोक अर्जुन करो, सच पावन ये होय।। 30

 

तुम क्षत्रिय हो धनंजय, रक्षा करना धर्म।

युद्ध तुम्हारा धर्म है, यही तुम्हारा कर्म।। 31

 

क्षत्री वे ही हैं सुखी, नहीं सहें अन्याय।

युद्धभूमि में जो मरे, सदा स्वर्ग वे पाय।। 32

 

युद्ध तुम्हारा धर्म है, क्षत्रियनिष्ठा कर्म।

नहीं युद्ध यदि कर सके, मिले कुयश औ शर्म।। 33

 

अपयश बढ़कर मृत्यु से, करता दूषित धर्म।।

हर सम्मानित व्यक्ति के, धर्म परायण कर्म।। 34

 

नाम, यशोलिप्सा निहित, चिंतन कैसा मित्र।

युद्ध भूमि से जो डरे, वह योद्धा अपवित्र।। 35

 

करते हैं उपहास सब,निंदा औ’ अपमान।

प्रियवर इससे क्या बुरा, जाए उसका मान।।36

 

यदि तुम जीते युद्ध तो, करो धरा का भोग।

मिली वीरगति यदि तुम्हें, मिले स्वर्ग का योग।।37

 

सुख-दुख छोड़ो मित्र तुम, लाभ-हानि दो छोड़।

विजय-पराजय त्यागकर, कर्म करो उर ओढ़।।38

 

करी व्याख्या कर्म की, सांख्य योग अनुसार।

मित्र कर्म निष्काम हो, उसका सुनना सार।।39

 

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का महत्व बताया

कर्म करें निष्काम जो, हानि रहित मन होय।

बड़े-बड़े भय भागते, जीवन व्यर्थ न होय।।40

 

दृढ़प्रतिज्ञ जिनका हृदय, वे ही पाते लक्ष्य।

मन जिनका स्थिर नहीं, रहते सदा अलक्ष्य।।41

 

वेदों की आसक्ति में, करें सुधीजन पाठ।

जीवन चाहे योगमय, ऐसा जीवन काठ।।42

 

इन्द्रिय का ऐश्वर्य तो, नहीं कर्म का मूल।

करें कर्म निष्काम जो, मानव वे ही फूल।।43

 

सुविधाभोगी जो बनें, इन्द्रि भोग की आस।

ईश भक्त ना बन सकें, रहता दूर प्रकाश।।44

 

तीन प्रकृति के गुण सदा,करते वेद बखान।

इससे भी ऊँचे उठो, अर्जुन बनो महान।।45

 

बड़ा जलाशय दे रहा, कूप नीर भरपूर।

वेद सार जो जानते, वही जगत के शूर।।46

 

करो सदा शुभ कर्म तुम,फल पर ना अधिकार।

फलासक्ति से मुक्त उर, इस जीवन का सार।।47

 

त्यागो सब आसक्ति को , रखो सदा समभाव।

जीत-हार के चक्र में, कभी न दो प्रिय घाव।।48

 

ईश भक्ति ही श्रेष्ठ है, करो सदा शुभ काम।

जो रहते प्रभु शरण में, होता यश औ नाम।।49

 

भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, रहता जीवन मुक्त।

योग करे, शुभ कर्म भी, वह ही सच्चा भक्त।।50

 

ऋषि-मुनि सब ही तर गए, कर-कर प्रभु की भक्ति।

जनम-मरण छूटे सभी, कर्म फलों से मुक्ति।।51

 

मोह त्याग संसार से, तब ही सच्ची भक्ति।

कर्म-धर्म का चक्र भी, बन्धन से दे मुक्ति।।52

 

ज्ञान बढ़ा जब भक्ति में, करें न विचलित वेद।

हुए आत्म में लीन जब, मन में रहे न भेद।।53

 

श्रीकृष्ण भगवान के कर्मयोग के बताए नियमों को अर्जुन ने बड़े ध्यान से सुना और पूछा–

अर्जुन बोला कृष्ण से, कौन है स्थितप्रज्ञ।

वाणी, भाषा क्या दशा, मुझे बताओ सख्य।।54

 

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को फिर कर्म और भक्ति का मार्ग समझाया

मन होता जब शुद्ध है, मिटें कामना क्लेश।

मन को जोड़े आत्मा, स्थितप्रज्ञ नरेश।।55

 

त्रय तापों से मुक्त जो, सुख – दुख में समभाव।

वह ऋषि मुनि-सा श्रेष्ठ है, चिंतन मुक्त तनाव।।56

 

भौतिक इस संसार में, जो मुनि स्थितप्रज्ञ।

लाभ-हानि में सम दिखे , वह ज्ञानी सर्वज्ञ।।57

 

इन्द्रिय विषयों से विलग, होता जब मुनि भेष।

कछुवा के वह खोल-सा, जीवन करे विशेष।।58

 

दृढ़प्रतिज्ञ हैं जो मनुज, करे न इन्द्रिय भोग।

जन्म-जन्म की साधना, बढ़े निरंतर योग।।59

 

सभी इन्द्रियाँ हैं प्रबल, भागें मन के अश्व ।

ऋषि-मुनि भी बचते नहीं, यही तत्व सर्वस्व।।60

 

इन्द्रिय नियमन जो करें, वे ही स्थिर बुद्धि।

करें चेतना ईश में, तन-मन अंतर् शुद्धि।61

 

विषयेन्द्रिय चिंतन करें, जो भी विषयी लोग।

मन रमताआसक्ति में, बढ़े काम औ क्रोध।।62

 

क्रोध बढ़ाए मोह को, घटे स्मरण शक्ति।

भ्रम से बुद्धि विनष्ट हो, जीवन दुख आसक्ति।। 63

 

इन्द्रिय संयम जो करें , राग द्वेष हों दूर

भक्ति करें जो भी मनुज, ईश कृपा भरपूर।। 64

 

जो जन करते भक्ति हैं, ताप त्रयी मिट जायँ।

आत्म चेतना प्रबल हो, सन्मति थिर हो जाय।। 65

 

भक्ति रमे जब ईश में, बुद्धि दिव्य मन भव्य।

शांत चित्त मानस बने, शांति मिले सुख नव्य।। 66

 

यदि इंद्रिय वश में नहीं, बुद्धि होती है क्षीण।

अगर एक स्वच्छंद है, तन की बजती बीन।।67

 

इन्द्री वश में यदि रहें, वही श्रेष्ठ है जन्य।

और बुद्धि स्थिर रहे, मिले भक्ति का पुण्य।।68

 

आत्म संयमी है सजग, तम में करे प्रकाश।

आत्म निरीक्षक मुनि हृदय, मन हो शून्याकाश।।69

 

पुरुष बने सागर वही, नदी न जिसे डिगाय।

इच्छाओं से तुष्ट जो, वही ईश को पाय।। 70

 

इच्छा इंद्री तृप्ति की, करे भक्त परित्याग।

अहम, मोह को त्याग दे, मिले शांति का मार्ग।। 71

 

आध्यात्मिक जीवन वही, मानव करे न मोह।

अंत समय यदि जाग ले, मिले धाम ही मोक्ष।।72

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय ” गीता का सार” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ (समाप्त)।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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