हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 82 ☆ अंतर्मन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  किशोर मनोविज्ञान पर आधारित एक  भावप्रवण  “अंतर्मन। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 82 – साहित्य निकुंज ☆

 अंतर्मन

मन के झरोखे

में झाँका

मन को आँका।

हुई कुछ आहट

कैसी है फड़फड़ाहट।

 

वे थे ……

अंतर्मन के पृष्ठ

जिनमें थी यादें

जिनमे है प्यार-अपार

मनाते थे ख़ुशी से हर त्यौहार

माँ खूँट कर देती थी कजलियां

साथ थी सहेलियां…..

रहता था शाम का इन्तजार

हाथ में देते थे सब ममत्वरूपी धन

खुश हो जाता था मन

घर-घर मिलता था प्यार

वो पल था कितना यादगार

मन में रहेगी सदा चाहत

न होगी उन पलों की कभी आहट।

 

इसलिये

उन पलों को सहेजकर रख देते है

जब मन हुआ खोलकर चख लेते है।

काश अंतर्मन के झरोखे खुले रहे

खुली आँखों से सब सदा देखते रहे।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 72 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 72 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

धनवानों को क्या पता, भूख-प्यास का पाठ

दर्द कभी देखा नहीं, उनके ऊँचे ठाठ

 

मोबाइल के दौर में, सिमट गए अब लोग

लेते खुद की सेल्फी, लगा नया इक रोग

 

राजनीति से बुझ रहे, जलते हुए चिराग

मधुर मोहक मधुबन में, कौन लगाता आग

 

कुत्ते ने जब भौंक कर,दी चमचे को सीख

दोनों तलवे चाटते, होकर के निर्भीक

 

बचपन में ही हो गये, बच्चे सभी जवान

मोबाइल के दौर में, कहाँ  रहे  नादान

 

रामायण का पाठ कर, खूब किया अभिमान

प्रेम, समर्पण, शीलता, पर इनसे अनजान

 

बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पाँव

वाणी ही पहिचान बन, देती सबको छाँव

 

सुख-दुख अपने कर्म से, कोउ न देवनहार

जो बोया वह ही मिले, खुद ही तारणहार

 

सद्गुण जीवन में मिलें, होता जब सत्संग

आगे जिसके सभी सुख, हो जाते हैं तंग

 

काशी,मथुरा,द्वारका, सभी प्रेम के धाम

प्रेम कभी मरता नहीं, प्रेम ईश का नाम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 75 – विजय साहित्य – सासर माहेर ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 75 – विजय साहित्य – सासर माहेर  ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कधी कधी

स्वप्न ही सासरी जातात.

सासर घरी सुखानं नांदतात.

स्वप्नांचे सासरी नांदण म्हणजे

नियतीनं वाढून ठेवलेलं सत्य

बिनबोभाट स्वीकारणं….!

मग तो अगदी त्याचा तिचा

नकार असला तरीही ….!

स्वप्नांना नांदावच लागतं ….

सासर घरी…

स्वप्न अशी नांदायला लागली ना

तरचं घरात येणं जाणं सुरू रहात

यश, कीर्ती, समृद्धी आणि

अनुभव संपन्न जीवनानुभूतींच…!

स्वप्नांनी सासरीचं रहायला हवं

तरचं मिळेल सत्याला माहेर घर

पुन्हा पुन्हा माहेरी येण्यासाठी….!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 60 ☆ ऐतिहासिक लघुकथा – वीरांगना ऊदा देवी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भूली बिसरी ऐतिहासिक लघुकथा  ‘वीरांगना ऊदा देवी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक अविमस्मरणीय ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 60 ☆

☆ ऐतिहासिक लघुकथा – वीरांगना ऊदा देवी ☆

16 नवंबर 1857 की बात है अंग्रेजों को पता  चला कि  लगभग दो हजार विद्रोही भारतीय सैनिक  लखनऊ के सिकंदरबाग में ठहरे हुए हैं। अंग्रेज  चिनहट की हार से बौखलाए हुए थे और भारतीयों से बदला लेने की फिराक में थे। अंग्रेज अधिकारी कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में  सैनिकों ने  सिकंदरबाग़ को घेर लिया। देश के लिए मर मिटनेवाले  भारतीय सैनिक आने वाले संकट से अनजान  थे। अवध के छ्ठे बादशाह वाजिद अली शाह ने महल में रानियों की सुरक्षा के लिए  स्त्रियों की एक सेना बनाई थी। ऊदा देवी  इस सेना की सदस्य थीं. अपने साहस और बुद्धिबल  से जल्दी ही नवाब की बेगम  हज़रत महल की महिला सेना की प्रमुख बना दी गईं। साहसी ऊदा जुझारू स्वभाव की थीं, डरना तो उसने जाना ही नहीं था और निर्णय लेने में तो वह एक पल भी ना गंवाती थीं।

सिकंदरबाग में  अंग्रेज सैनिक भारतीय सैनिकों के लिए काल बनकर आ रहे थे. वीरांगना ऊदा देवी हमले के वक्त वहीं थीं। देश के लिए जान न्यौछावर करनेवाले  इन वीर जवानों को वे अपनी आँखों के सामने मरते नहीं देख सकती थीं। उसने पुरुषों के कपडे पहने.  हाथ में बंदूक ली और  गोला-बारूद लेकर वह पीपल के पेड़ पर चढ़ गईं।  पेड़ पर से लगातार गोलियों से हमलाकर उसने अंग्रेज़ सैनिकों को सिकंदरबाग़ में  प्रवेश नहीं करने दिया। दरवाजे पर ही रोके रखा।

ऊदा देवी ने अकेले ही ब्रिटिश सेना के दो बड़े अधिकारियों और 36 अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। यह देखकर अंग्रेजी अधिकारी बौखला गए वे  समझ ही नहीं सके कि कौन और कहाँ से उनके सैनिकों को मार रहा है। तभी एक अंग्रेज सैनिक की निगाह पीपल के पेड़ पर गई। उसने देखा कि पेड़ की डाली पर छिपा बैठा  कोई लगातार गोलियां बरसा रहा है। बस फिर क्या था। अंग्रेज़ सैनिकों ने निशाना साधकर उस पर गोलियों की बौछार कर दी।  एक गोली ऊदा देवी को लगी और वह  पेड़ से नीचे गिर पड़ीं। अँग्रेज़ अधिकारियों को बाद में पता चला कि  सैनिक के  वेश में वह भारतीय सैनिक कोई और नहीं बल्कि वीरांगना ऊदा देवी थी। अंग्रेज़ अधिकारी ने ऊदा देवी के शौर्य  और पराक्रम  के सम्मान  में अपना हैट उतारकर उन्हें सलामी दी थी।।

 

 

—————————-

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 95 ☆ आलेख – पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय आलेख  ‘पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी  इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 95 ☆

? पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी ?

वर्तमान युग वैश्विक सोच व ग्लोबल बाजार का हो चला है. सारी दुनियां में विश्व बैंक तथा समानांतर वैश्विक वित्तीय संस्थायें अधिकांश देशों की सरकारों पर अपनी सोच का दबाव बना रही हैं. स्पष्टतः इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थानो के निर्देशानुसार सरकारें नियम बनाती दिखती हैं. पाकिस्तान जैसे छोटे मोटे देशों की आर्थिक बदहाली के कारणों में उनकी स्वयं की कोई वित्तीय सुढ़ृड़ता न होना व पूरी तरह उधार की इकानामी होना है जिसके चलते वे इन वैश्विक संस्थानो के सम्मुख विवश हैं. किंतु भारत एक स्वनिर्मित सुढ़ृड़ आर्थिक व्यवस्था का मालिक रहा है. २००८ की वैश्विक मंदी या आज २०२० की कोविड मंदी के समय में भी यदि भारत की इकानामी नही टूटी तो इसका कारण यह है कि ” है अपना हिंदुस्तान कहां ?, वह बसा हमारे गांवों में “.

हमारे गांव अपनी खेती व ग्रामोद्योग के कारण आत्मनिर्भर बने रहे हैं. नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ें तो शायद विकास की शहरी चकाचौंध न पहुंच पाने के चलते भी अप्रत्यक्षतः गांव अपनी गरीबी में भी आत्मनिर्भर रहे हैं. इस दृष्टि से किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचने की जरूरत है.

हमारे शहरों  की इकानामी की आत्मनिर्भरता में बहुत बड़ा हाथ पब्लिक सेक्टर नवरत्न सरकारी कंपनियों का है. इसी तरह यदि शहरी इकानामी में नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ी जाये तो शायद समानांतर ब्लैक मनी की कैश इकानामी भी शहरी आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारणो में एक हो सकती है.

हमारा संविधान देश को जन कल्याणकारी राज्य घोषित करता है. बिजली, रेल, हवाई यात्रा, पेट्रोलियम, गैस, कोयला, संचार, फर्टिलाइजर, सीमेंट, एल्युमिनियम, भंडारण, ट्रांस्पोरटेशन, इलेक्ट्रानिक्स, हैवी विद्युत उपकरण, हमारे जीवन के लगभग हर क्षेत्र में आजादी के बाद से  पब्लिक सेक्टर ने हमारे देश में ही नही पडोसी देशो में भी एक महत्वपूर्ण संरचना कर दिखाई है. बिजली यदि पब्लिक सेक्टर में न होती तो गांव गांव रोशनी पहुंचना नामुमकिन था. हर व्यक्ति के बैंक खाते की जो गर्वोक्ति देश दुनियां भर में करता है, यदि बैंक केवल निजी क्षेत्र में होते तो यह कार्य असंभव था.

विगत दशको में सरकारें किसी भी पार्टी की हों, वे शनैः शनैः इस बरसों की मेहनत से रची गई इमारत को किसी न किसी बहाने मिटा देना चाहती हैं. जिस पब्लिक सेक्टर ने स्वयं के लाभ से जन सरोकारों को हमेशा ज्यादा महत्व दिया है, उसे मिटने से बचाना, देश के व्यापक हित में आम भारतीय के लिये जरूरी है.  तकनीकी संस्थानो में आईएएस अधिकारियो के नेतृत्व पर प्रधानमंत्री जी ने तर्क संगत सवाल उठाया है. यह पब्लिक सेक्टर की कथित अवनति का एक कारण हो सकता है.

पब्लिक सेक्टर देश के नैसर्गिक संसाधनो पर जनता के अधिकार के संरक्षक रहे हैं. जबकि पब्लिक सेक्टर की जगह निजी क्षेत्र का प्रवेश देश के बने बनायें संसाधनो को, कौड़ियो में व्यक्तिगत संपत्ति में बदल देंगे. इससे संविधान की  ” जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा ” आधारभूत भावना का हनन होगा. चुनी गई सरकारें पांच वर्षो के निश्चित कार्यकाल के लिये होती हैं, किन्तु निजीकरण के ये निर्णय पांच वर्षो से बहुत दूर तक देश के भविष्य को  प्रभावित करने वाले हैं. कोई भी बाद की सरकार इस कदम की वापसी नही कर पायेगी.  प्रिविपर्स बंद करना, बैंको का सार्वजिककरण, जैसे कदमो का यू टर्न स्पष्ट रूप से भारतीय संविधान की मूल लोकहितकारी भावना के विपरीत परिलक्षित होता है. हमें वैश्विक परिस्थितियों में अपनी अलग जनहितकारी साख बनाये रखनी चाहिये, तभी हम सचमुच आत्मनिर्भर होकर स्वयं को विश्वगुरू प्रमाणित कर सकेंगे.

क्या उपभोक्ता अधिकार निजी क्षेत्र में सुरक्षित रहेंगे ? पब्लिक सेक्टर की जगह लाया जा रहा निजी क्षेत्र महिला आरक्षण, विकलांग आरक्षण, अनुसूचित जन जातियो का वर्षो से बार बार बढ़ाया जाता आरक्षण तुरंत बंद कर देगा. निजी क्षेत्र में कर्मचारी हितों, पेंशन का संरक्षण कौन करेगा ?  ऐसे सवालों के उत्तर हर भारतीय को स्वयं ही सोचने हैं, क्योंकि सरकारें राजनैतिक हितों के चलते दूरदर्शिता से कुछ नही सोच रही हैं.

सरल भाषा में समझें कि यदि सरकार के तर्को के अनुसार व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा ही सारे आदर्श मानक हैं और मां, बहन या पत्नी के हाथों के स्वाद, त्वरित उपलब्धता, आत्मीयता, का कोई महत्व नहीं है, हर कुछ का व्यवसायीकरण ही करना है, तब तो सब के घरों की रसोई बंद कर दी जानी चाहिये और हम सबको होटलों से टेंडर बुलवाने चाहिये. स्पष्ट समझ आता है कि यह व्यापक हित में नही है.

अतः संविधान के पक्ष में, जनता और राष्ट्र के व्यापक हित में एवं विश्व में भारत की श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये आवश्यक है कि किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचा जाये व पब्लिक सेक्टर को तोड़ने के आत्मघाती कदमो को तुरंत रोका जाये. बजट में जन हितकारी धन आबंटन हो न कि यह बताया जाये कि सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिये उसका निजीकरण किया जावेगा. सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार और सुढ़ृड़ीकरण की तरकीब ढ़ूंढ़ना जरूरी है न कि उसका निजीकरण कर उसे समाप्त करना.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 55 ☆ हीला हवाली ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “हीला हवाली”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 55 – हीला हवाली

अक्सर लोग परिचर्चा की दिशा बदलने हेतु एक नया राग ही छेड़ देते हैं। बात किसी भी विषय पर चल रही हो पर उसे  अपनी ओर मोड़ने की कला तो कोई गिरधारी लाल जी से सीखे। सारी योजना धरी की धरी रह जाती है, जैसे ही उनका प्रवेश हुआ कार्य विराम ही समझो। नयी योजना लिए हरदम यहाँ से वहाँ भटकते रहते हैं, उनके पास खुद का कुछ भी नहीं होता बस दूसरे पर निर्भर रहकर एक झटके से सब कुछ हड़पने में उन्हें महारत हासिल होती है।

पहले की बात और थी जब लोग रिश्तों, उम्र व अनुभवों का लिहाज करते थे, परंतु जब से जीवन के हर पहलुओं पर तकनीकी घुसपैठ हुई है, तब से अनावश्यक की भावनाओं पर मानो अंकुश लग गया हो। किसी के  प्रोत्साहन की बात पर तो सभी लोग सहमत होते हैं लेकिन जैसे ही ये कार्य उनके जिम्मे आता है, तो तुरंत ही सर्वेसर्वा बनकर लोगों को बड़ी तेजी से धक्का मारते नजर आते हैं। कारण पूछने पर हमेशा की तरह हीला हवाली से भरे एक ही तरह के उत्तरों की झड़ी लगा देते हैं। अब बेचारा मन इस तरह के अनुभवी उत्तरों के तैयार ही नहीं होता है, सो एक ही झटके में सारा मनोबल छूमंतर हो जाता है और गिरधारी लाल जी मन ही मुस्कुराते हुए सब कुछ लील जाने का जश्न मनाने लगते हैं। जिसने आयोजन का खर्चा किया वो चुपचाप लीलाधर की लीला देखता रह जाता है।

किसी के तीर से किसी का शिकार बस अनजान बनकर लाभ लेते रहो। ये सब सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही जा रहा था तभी खैराती लाल जी अपनी लार टपकाते हुए आ धमके। कहने लगे क्या चल रहा है,कोई मुझे भी तो बताएँ, आखिर मैं यहाँ का सबसे पुराना सदस्य हूँ। तभी चकमक लाल जी ने मौका देखकर अपना राग भी अलाप ही दिया, क्या करें? जो भी तय करो, तो ये गिरधारी लाल जी हड़प लेते हैं। अरे आपके पास भी तो अपनी टीम है वहीं माथा पच्ची कीजिए यहाँ हमारी योजनाओं पर पानी फेरने हेतु काहे पधार जाते हैं। आप की बातों पर यहाँ कोई  ध्यान नहीं देता,तो काहे ज्ञान बघार रहें हैं।

कुटिलता भरी मुस्कान के साथ गिरधारी लाल जी ने एक बार चकमक लाल जी की ओर व एक बार खैराती लाल जी की ओर देखकर गंभीर मुद्रा बनाते हुए कहा, आजकल तो भलाई का जमाना ही नहीं रहा। सब चकाचौंध में डूब कर भाषा का सत्यानाश कर रहे हैं। अरे भाई जब सब कुछ मैं मुफ्त में ही कर देता हूँ तो आप लोग काहे इधर-उधर भटकते हुए अपना धन और श्रम दोनों व्यर्थ करते हैं। जाइये चैन की बंशी बजाते हुए अपने अधिकारों हेतु आंदोलन करिए आखिर कर्तव्यों की पूर्ति हेतु आपका बड़ा भाई जोर -शोर से लगा हुआ है। सारी मेहनत हमारी टीम कर रही है, आप तो बसुधैव कुटुंबकम का पालन कर अपने साथ देश -विदेश के लोगों को जोड़िए और इसे अंतरराष्ट्रीय रूप देकर भव्य बनाइए।

चर्चा का इतना खूबसूरत अंत तो आप ही कर सकते हैं, चकमक लाल जी ने खिसियानी मुद्रा बनाते हुए अपने कदम बढ़ा बाहर की ओर बढ़ा लिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 77 – हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 77☆

☆ हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी ☆

इसे आम भाषा में बड़ी टिटोडी कहते हैं। मगर यह टिटोडी नहीं है। इसे ग्रेट थिकनी कहते हैं। यह टिटोडी से बड़ी तथा अनोखी होती है।

यह पत्थरों के बीच छूप कर अपनी जान बचाती है। इसके लिए कुदरत ने इसे अजीब क्षमता दी है। यह जिस पत्थर के बीच छुपती है अपने को उसी रंग में रंग लेती है।

इसकी इसी विशेषता के कारण इसका दूसरा नाम स्टोन कर्ली है। यह हमेशा जोड़े में रहती है।इसकी रंग बदलने की विशेषता एक कारण यह कम दिखाई देती है।

गर्म पत्थर~

सांप के हमले से

छुटी टिटोडी।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-02-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं “मिली” ☆ डॉक्टर मिली भाटिया

डॉक्टर मिली भाटिया

(सुप्रसिद्ध चित्रकार एवं लेखिका डॉ मिली भाटिया जी को बसंत पंचमी पर्व पर उनके चित्रकला विषय में  शोध “भारतीय लघुचित्रों में देवियों का अंकन” पर डॉक्टरेट से सम्मानित किये जाने पर एवं आज 18 फरवरी को आपके 35वे जन्मदिवस पर  ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। सत्रह वर्ष की आयु में माँ के निधन के पश्चातआँखों में आजीवन रहने वाले केरटोकोनस नेत्ररोग के होते हुए भी यह उपलब्धि प्रेरणास्पद है।

आज प्रस्तुत है आपकी कविता मैं “मिली”

 ☆ कविता ☆ मैं “मिली” ☆ डॉक्टर मिली भाटिया ☆ 

हवाओं से बातें करती हूँ

सपनो की दुनिया में

रंगो को भरती हूँ

मैं “मिली”

 

खोई खोई सी रहती हूँ

ज़िन्दगी से उलझती हूँ

दिल की सुनती हूँ

मैं “मिली”

 

आसमान से बातें करती हूँ

फूलों की मुस्कुराहट को

काग़ज़ पर उकेरती हूँ

मैं “मिली”

 

चिड़िया सी चहकती हूँ

चंचल-शोख़ सी थी कुछ

खामोशी से अब बातें रखती हूँ

मैं “मिली”

 

तारों से सुलझती हूँ

बादलों सी बरसती हूँ

काग़ज़ को कलम से सजाती हूँ

मैं “मिली”

 

अब भी बस

खोई खोई सी रहती हूँ………..!!

मैं “मिली”

 

© डॉक्टर मिली भाटिया

रावतभाटा-राजस्थान

मोबाइल न०-9414940513

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 66 – स्मृती चिन्ह…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #66 ☆ 

☆ स्मृती चिन्ह…! ☆ 

कविसंमेलन गाजवून

घरी गेल्यावर

माझी माय ,

माझ्या हातातल्या स्मृती चिन्हांकडे

निरखून बघते . . . !

माझ्या चेह-यावरचा आंनद

काही क्षण डोळ्यात

साठवते … !

आणि हळूच विचारते

आज तरी . .

नाक्यावरच्या वाण्याचा

उधारीचा प्रश्न मिटणार का..?

मी चेह-यावरच आनंद

तसाच ठेऊन

दहा बाय दहाच्या खोलीत

ठेवलेल्या सगळ्या स्मृती चिन्हांवर

नजर फिरवतो,

तेव्हा वाटतं

ह्या स्मृती चिन्हांच्या बदल्यात

जर वाण्याच्या उधारीचा प्रश्न

मिटला असता तर किती

बरं झाल असतं….!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०-२) – राग~मारवा, पूरिया, सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०-२) – राग~मारवा, पूरिया, सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

मारवा~पूरिया या प्रसिद्ध जोडीतील पूरिया या रागाविषयी आपण आज विचार करू या.

मागील लेखांत आपण पाहीले आहे की मारवा पूरिया सोहोनी ही एकाच कुटुंबातील सख्खी भावंडे! परंतु वादी~ संवादी स्वरांच्या भिन्नतेमुळे प्रत्येकाचे चलन स्वतंत्र, अस्त्तित्व स्वतंत्र! पूरियांत गंधार व निषाद ह्या स्वरांना अधिक महत्व आहे. रात्रीच्या प्रथम प्रहरी हा राग सादर केला जातो. मध्यम जरी तीव्र असला तरी मारव्याची उदासीनता पूरियांत नाही. मात्र ह्याची प्रकृती काहीशी गंभीरच! अधिकतर पूरिया मंद्र व मध्य सप्तकात गायिला वाजविला जातो, म्हणजेच हा पूर्वांगप्रधान राग आहे. स्वरांच्या वक्रतेमुळे हा राग मनाला मोहवितो. जसे~”नी (रे)ग, (म)ध ग(म)ग, ध नी  (म)ध ग(म)ग,” अशा प्रकारे वक्र स्वररचना आढळते. नि (रे)सा, ग(म)ध नी (रे)सा/सा नी ध (म)ग (रे)सा असे याचे आरोह/अवरोह आहेत. ‘ग, नी (रे)सा, नि ध नि (म)ध (रे) सा’ या स्वरसूमूहावरून पूरियाची तात्काळ ओळख पटते. या रागाचे पूर्ण चलनच वक्र आहे.

प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक बडे गुलाम अली खाॅं यांच्याविषयी असे सांगितले जाते की मुंबईत विक्रमादित्य संगीत परिषदेत बडे गुलाम अली यांनी अल्लादिया खाॅं, फैय्याज खाॅं, हाफीज अली खाॅं यांच्यासारख्या दिग्गज कलाकारांच्या उपस्थितीत मारवा आणि पूरिया हे दोन राग एकापाठोपाठ गायले होते, आणि त्यांचे गायन ऐकून बूजूर्ग मंडळी अगदी अवाक झाली. एका रात्रीतच बडे गुलाम अलीना मुंबईत प्रसिद्धी मिळाली.

वियोग,शृंगाररसोपयुक्त असा हा पूरिया,कारूण्यपूर्ण श्रृंगार हाच या रागाचा स्थायीभाव!

शूद्ध पूरियांतील गाणी सहसा सांपडत नाहीत, परंतु ‘सांज ये गोकुळी सावळी सावळी’, ‘मुरलीधर शाम हे नंदलाला’, ‘क्षणभर उघड नयन देवा’ ही काही भावगीते, भक्तीगीते पूरिया रागावर आधारित  म्हणून उदाहरणादाखल देता येतील. “जिवलगा राहीले दूर घर माझे” ह्या भावगीतांत पूरियाचे स्वर असले तरी त्याबरोबर धनाश्री येऊन तो पूरिया धनाश्री झाला आहे. पूरियांत नसलेला पंचम ह्यांत आहे. सूरत और सीरत या चित्रपटांतील ‘प्रेम लगन’, आई मिलनकी रात मधील कितने दिनो की बात आई सजना रात मिलनकी, ‘रंगीला मधील ‘समा ये क्या हुआ, रुत आ गयी रे रुत छा गई रे’ ही काही बाॅलीवूड गाणी पूरिया धनाश्रीची उदाहरणे सांगता येतील ह्या गाण्यांकडे पाहीले असता पूरिया हा करूणरसप्रधान शृंगार वर्णन करणारा राग असल्याचे सर्वसामान्यांच्याही लक्षात येते.

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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