मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 85 ☆ भावुक नाते ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 85 ☆

☆ भावुक नाते

तारुण्याला आज धुमारे फुटले होते

काळजात या हृदय कुणाचे रुतले होते

 

फूल सोडुनी पानावरती भुंगा बसता

भुंग्यावरती फूल गुलाबी रुसले होते

 

कोकिळ गाता कैऱ्यांनी हे झाड डवरले

अन् फांदीचे खांदे थोडे झुकले होते

 

तुला पाहुनी दयाळ पक्षी शीळ घालतो

नाही वाटत त्याचे काही चुकले होते

 

नवीन वाटा तयार झाल्या भटकंतीला

हुंदडताना भान जरासे सुटले होते

 

ओली वाळू पायावरती घरटे कोमल

भावुक नाते संसाराशी जुळले होते

 

प्रेम कोरडे कधीच नव्हते या लाटांचे

वाळूखाली बरेच पाणी मुरले होते

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बालपणीच्या आठवणी…माझे बालपण भाग-5 – खजिना ☆ सौ. अमृता देशपांडे

सौ. अमृता देशपांडे

 ☆ मनमंजुषेतून ☆ बालपणीच्या आठवणी…माझे बालपण भाग-5 – खजिना ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

कोणतं साल होतं नक्की आठवत नाही,  शिवशाहीर बाबासाहेब पुरंदरे यांची छत्रपती शिवाजी महाराजांच्या जीवनावरची व्याख्याने होती. खासबान मैदानावर.रोज रात्री नऊ वाजता सुरू होत. संपून घरी परत पोचायला साडेबारा व्हायचे. तुफान गर्दी होती. आम्ही सर्वजण जात असू. शिवाजी महाराजांचे लहानपणापासूनचे प्रसंग,  छोटा शिवबा, जिजाबाई,  शहाझीराजे,  तानाजी मालुसरे, सूर्याजी, नेताजी पालकर, औरंगजेब, शाहिस्तेखान, अफझलखान, रोहिडेश्वराची शपथ, आधी लगीन  कोंढाण्याचं…..असे प्रसंग आणि व्यक्तिरेखा हुबेहूब डोळ्यासमोर उभे केले होते. आम्ही अगदी भारावून गेलो होतो.  आजच्या व्याख्यानात ऐकलेला प्रसंग दुसरे दिवशी आम्ही घरी प्रत्यक्ष नाटकरूपाने अभिनय करायचो. खूपच मजा यायची.  जिजाबाई होण्यासाठी माझी आणि बहिणीची अंजूची वादावादी व्हायची. शिवाजी होण्यासाठी दोघं भाऊ, राजू उजू.ची मारामारी व्हायची. मग आम्ही तह केला. व एकेक दिवस वाटून घेतला.

???

सर्वांत शेवटचा दिवस राज्याभिषेकाचा.

राज्याभिषेक सोहळा प्रत्यक्ष घडवून आणला होता. अनेकजण त्यात अभिनय करत होते. जे आम्ही गेले 15 दिवस घरी करत होतो, ते इथं मोठी माणसे आजचा सोहळा करत होती. प्रचंड प्रचंड गर्दी होती. श्री. बाबासाहेब पुरंदरे खास गुलाबी फेटा बांधून व्याख्यान देत होते.स्टेजवर राज्याभिषेकाचा सेट लावला होता. प्रेक्षक श्वास धरून, जीवाचे कान करून ऐकत होते,  डोळ्यांनी अनुभवत होते. काशीहून आलेल्या गागाभट्टानी मंत्रोच्चाराने सप्तसागर, सप्तसरिताचा पवित्र जलाभिषेक केला. राजवस्त्रे,  जिरेटोप  लेवून राजे सिंहासनाजवळ गेले. त्यांनी सिंहासनाला मुजरा केला. पाय न लावता आरूढ झाले.

शिंग- तुता-या निनादल्या. चौघडे ताशांचा गजर झाला. 32 मण वजनाचे सिंहासन  रोमांचित झाले. दणदणीत आवाजात घोषणा झाली,

” गडपती, गजअश्वपती,  भूपती, प्रजापती, सुवर्णरत्न श्रीपती, अष्टावधान जागृत, अष्टप्रधान वेष्टित, न्यायालंकार मंडित, शस्त्रास्त्र शास्त्र पारंगत, राजनीती धुरंधर, प्रौढप्रताप पुरंदर, क्षत्रिय कुलावतंस, सिंहासनाधीश्वर,  महाराजाधिराज, राजाशिवछत्रपती महाराज की जय!”

जमलेल्या हज्जारोंनी जयजयकार केला. प्रत्येकाची छाती अभिमानाने भरून आली होती. जयजयकाराने अवघे खासबाग मैदान दणाणून गेले होते. मैदानाच्या बाहेर हजारो लोक उभे होते. अख्खे कोल्हापूर रात्री साडे बारा वाजता जयजयकार करत होते.

दुसरे दिवशी वर्तमान पत्रात सोहळ्याचे फोटो आणि वर्णन वाचले आणि त्या सोहळ्यात आपल्याला उपस्थित रहायला मिळाले, ही गोष्ट भाग्याची,  अभिमानाची वाटली.

नंतर पुढे महिनाभर आमची शिवचरित्राची नाटके चालू होती.  परिक्षा आली म्हणून ते वेड बाजूला ठेवावं लागलं.

हे नकळत आमच्यात रुजलेले संस्कार आयुष्य भराची शिदोरी ठरले.

क्रमशः…

© सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  बसंत/वैलेंटाइन दिवस परआपके अप्रतिम दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

प्रबल शक्ति है प्रेम की, चढ़ता रंग तुरंत।

वैलेंटाइन संत का, तन मन हुआ वसंत।।

 

वैलेंटाइन नाम का, चिंताजनक प्रयोग।

प्यार पड़ा बाजार में, चल निकला उद्योग।।

 

नहीं दिखावा प्यार है, प्यार न चालू गीत।

अनहद की हद लांघता, आत्मा का संगीत।।

 

प्यार शब्द में रूप है, रसवंती है गंध।

काव्य तत्व से युक्त यह, विधि का रचा निबंध।।

 

प्यार सदा ही ऊर्ध्वमुख, अधोमुखी है ज्वार।

तन्मयता की चंचलता, उपजाती है प्यार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 37 – फिसल रहा अँधियारा… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “फिसल रहा अँधियारा… । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 37 ।। अभिनव गीत ।।

फिसल रहा अँधियारा…  ☆

सिमट चला फासला

तप्त-धूप-घाट का

झुका गई साँझ रौब

दिन के सम्राट का

 

सरक गई छाया कीं

अनगिन-किंवदंतियाँ

भूल चला दिन अपनी

परछाईं, गिनतियाँ

 

उघर चला बादल से

रिश्ता गुमनाम सा

जान सके न प्रभाव

इस समय-विराट का

 

पीलापन अम्बर की

कर्णपटह पर अटका

चेहरे पर क्षितिजा के

मेघ कोई आ भटका

 

जैसे विज्ञापन की

शर्त पर खरा उतरे

रेशमी प्रबंधन में

जिक्र नये पाट* का

 

फिसल रहा अँधियारा

सुरमई विकास से

सूरज ने कसी डोर

फिर इस विश्वास से

 

मोड़ लिये सप्त-अश्व-

घर को, प्रकाश के

खोलने बढ़ा अर्गल

रात के कपाट का

*पाट= रेशम

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

19-12-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 83 ☆ व्यंग्य – “खटिया का बजट” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  “खटिया का बजट”। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 83

☆ व्यंग्य – “खटिया का बजट” ☆

जनता का बजट है, जनता के लिए बजट है,पर सरकार कह रही है कि ये फलांने साब का लोकलुभावन बजट है।खूब सारे चेहरों को बजट के बहाने साब की चमचागिरी करने का चैनल मौका दे रहे हैं।विपक्ष अपना धर्म निभा रहा है ताकि जनता को पता चले कि विपक्ष भी होता है। गंगू किसान आन्दोलन से लौटा है, दो दिन का भूखा प्यासा खटिया पर लेटकर एक चैनल में बजट देख रहा है, चमकते माॅल में बजट बाजार लिखा है, पीछे से दुकानदार निकल निकल कर हंस रहे हैं, सजी धजी लिपिस्टिक लगी एंकर चिल्ला रही है, बजट में गांव की आत्मा दिख रही है, माॅल के कुछ लोग तालियां बजा रहे हैं।

गंगू का भूखा पेट गुड़गुड़ाहट पैदा कर रहा है, गैस बन रही है, माॅल में जो दिख रहा उसे देखना मजबूरी है। एकदम से चैनल पलटी मार कर इधर लंच के दौरान बजट पर चर्चा पर आकर रुकता है, पार्टी के बड़े पेट वाले और कुछ बिगड़े बिकाऊ पत्रकार भी बैठे हैं, लाल परिधान में लाल लाल ओंठ वाली बजट के बारे में बता रही है, सबके सामने थालियां सज गयीं हैं, थाली में बारह तेरह कटोरियां बैंठी हैं, दो दुबले-पतले खाना परोसने वाले मास्क लगाकर खाना परोस रहे हैं, इतने सारे बड़े पेट वाले बिना मास्क लगाए, स्वादिष्ट व्यंजन सूंघ रहे हैं, बजट पर चर्चा चल रही है, कुछ लोग खाने के साथ बजट खाने पर उतारू हैं। कोरोना दूर खड़ा हंस रहा है। भूखा प्यासा गंगू जीभ चाटते हुए सब देख रहा है। साब बार बार प्रगट होकर कहते हैं  बजट की आत्मा में गांव है और गांव के किसान के लिए बजट है। गंगू करवट लेने लगता है और खटिया की पाटी टूट जाती है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #30 ☆ प्रेम खुदा की नेमत है ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी  में प्रेम की हकीकत बयां करती एक भावप्रवण कविता “प्रेम खुदा की नेमत है”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 30 ☆

☆ प्रेम खुदा की नेमत है ☆ 

ओस की बूंदों सा

वो नाज़ुक पल

प्यासी आंखों को

मृगतृष्णा का छल

तपती धरा को

तृप्त करता जल

कांपती दों फांकों पर

वो चुंबन निश्चल

ये प्रेम नहीं तो क्या है ?

प्रेम ही तो है !

 

भोर का रात से

रोज मिलने का वादा

अनछुई किरणों का

क्षितिज छूने का इरादा

पुष्परज लुटाता वो

प्रणय का राजा

अल्हड इठलाती बेलोसें

समीर का जुड़ा हुआ धागा

ये प्रेम नहीं तो क्या है ?

प्रेम ही तो है !

 

वर्षा ऋतु में

नाचते मयूर का

चांदनी रात में

युगों से प्यासे चकोर का

रातरानी के तने से

लिपटे भुजंग का

उसकी लगन में मस्त

मतवाले मलंग का

ये प्रेम नहीं तो क्या है ?

प्रेम नहीं तो क्या है !

 

पर अब-

प्रेम सियासत का अंग है

प्रेम पर हो रही जंग है

प्रेमियों पर  सख्त पहरे है

लव जिहाद के

कानून काफी गहरे हैं

कैसे समझाए-

प्रेम किया नहीं जाता

हो जाता है

प्रेमी युगल अपनी

सुध-बुध खो जाता है

एक लौ हृदय में जलती है

मिल जाए तो खुशी

नहीं तो-

सारा जीवन एक टीस

हृदय में पलती है

दोस्तों,

प्रेम खुदा की नेमत है

प्रेम पर पाबंदी,

खुदा से नफ़रत है।

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 35 ☆ अनुभुती… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 35 ☆ 

☆ अनुभुती… ☆

 

स्वतःच्या चुकीतून

बोध घ्यावा मनुष्याने

नेहमी सतर्कता

बाळगावी मनुष्याने…!

 

चुकीतूनच हुशार

होतो पहा मनुष्य

स्वतःअनुभुती घेता

सुज्ञही होतो मनुष्य…!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “ते” होते म्हणून… – भाग-5 ☆ सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

 ☆ विविधा ☆ “ते” होते म्हणून… – भाग-5 ☆ सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे ☆ 

शिर्डीचे साईबाबा खूप जणांना माहिती असतात. पण त्यांचे शिष्य उपासनी महाराजांबद्दल फार कमी माहिती असते. काशिनाथ गोविंदराव उपासनी हे नाशिकमध्ये सटाणा येथे जन्मले. कर्मठ सनातनी घराण्याचे संस्कार असलेला हा मुलगा औपचारिक शिक्षणाच्या बाबतीत उदासीन होता. पण जन्मतः अलौकिकत्वाची लक्षणे घेऊन आला होता. त्यांचं सविस्तर चरित्र सांगण्याची ही जागा नाही. पण लहानपणी विवाह झाल्यावर त्यांची ती पत्नी वारली. दुसराही विवाह (जो त्यांना नको होता..) त्या पत्नीच्या निधनामुळे संपुष्टात आला आणि महाराज योगसाधना करायला मोकळे झाले. ती साधना करीत असताना श्र्वासाचा त्रास होऊ लागला. त्यांना गुरुंनी साईबाबांकडे जायला सुचवलं. पण ते मुस्लिम असल्यामुळे महाराजांनी जायला नकार दिला. पण साईबाबा येऊन उपाय सुचवून गेले. असं दोन वेळा झालं पण उपाय न करण्यामुळे त्रास वाढला. शेवटी निरुपायाने ते शिर्डिला गेले आणि साईबाबांनी त्यांना बरं केलं. यानंतरही त्यांनी शिर्डि सोडून जायचा प्रयत्न केला पण जमला नाही आणि साईबाबांच्या इच्छेनुसार ते तिथेच राहिले. चार वर्षं अत्यंत कठोर, अकल्पनीय साधना केल्यावर ते सद्गुरुपदाला पोचले.

साईबाबांनी त्यांना दिलेल्या अंत: प्रेरणेनुसार त्यांनी शिर्डिजवळच साकुरी इथे कन्याकुमारी स्थान उभं केलं. त्यांच्या पहिल्या आणि त्यांच्यानंतर गुरुपदावर बसलेल्या शिष्या म्हणजे पू.गोदावरीमाता. उपासनी बाबांनी मूळ २४ कन्यांना साकुरीत ठेवून घेऊन चारही वेद, यज्ञकर्म, पौरोहित्य शिकवलं. त्यासाठी संस्कृतचा पाया भक्कम करून घेतला. स्त्रियांमधे पावित्र्य, सहनशीलता, श्रध्दा, चिकाटी, करूणा, समर्पणभाव असे गुण असतात हे एक कारण… पण बाबांना स्त्रियांना वेदाधिकार, साधनेचा अधिकार द्यायचा होता. कडक ब्रह्मचर्याचं तेज आणि स्त्रीत्वाची कोमलता यातून एक कार्य उभं करायचं होतं. पण त्यांच्या कार्याची दिव्यता लक्षात न आल्याने त्यांच्यावर खटला भरला गेला.. विलक्षण बदनामी झाली. स्त्रियांना घेऊन केलेलं काम… त्यामुळं चारित्र्य हनन करण्याचे प्रयत्न केले गेले. पण महाराज यातून अग्नीतून झळाळत्या सोन्यानं बाहेर पडावं तसे बाहेर पडले. अत्यंत सन्मानाने त्यांना दोषमुक्त केलं गेलं आणि त्यांच्या कार्याचा गौरव झाला. पुढे आकाशवाणीवर वेदांमधले काही भाग ऐकवण्याची योजना आखली गेली. तेव्हा अत्यंत अचूक, अधिकृत वेदोच्चार करणाऱ्या फक्त उपासनी महाराजांच्या शिष्याच आहेत हे लक्षात आलं. खूप वर्षे आकाशवाणीवर “उपासनी कन्यां” चे वेदपठण /उपनिषदांचे पठण/सूक्ते ऐकवली जात असत.

हिंदू स्त्रियांना विविध क्षेत्रात विविध लोकांनी स्थान मिळवून दिले आणि हिंदू स्त्रियांनीही या संधींचा सोनं केलं. वेद पठण, पौरोहित्य यांचा अधिकार देऊन यज्ञसंस्था त्यांच्याकरवी जिवंत ठेवण्याचं काम उपासनी महाराजांनी साईबाबांनी दिलेल्या अंत:प्रेरणेनं केलं आज सनातन हिंदु धर्मातील शास्त्रशुध्द पूजाअर्चा, यज्ञयाग, वैदिक ज्ञान साकुरीमधे व्रतस्थ स्त्रिया जतन करीत आहेत.

अशा विभूतींनी हा धर्म काळाबरोबर प्रवाहित ठेवला. त्याचं डबकं होऊ दिलं नाही.

क्रमशः ….

© सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

मो – 7499729209

(लेखात व्यक्त केलेली मते लेखकाची वैयक्तिक मत आहेत.)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 16 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 16 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

सौ.अंजली गोखले 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

आई-वडिलांच्या महती विषयी आपण सगळेच जाणून आहोत. त्यांचे आपल्यावर असलेले ऋण आपण वर्णूच शकत नाही. माझ्या बाबतीतही हेच खरे आहे. मी स्वतःला भाग्यवान समजते की असे आई-बाबा मला लाभले.

माझा जन्म झाल्यानंतर पहिल्या दोन महिन्यातच माझ्या चेहऱ्यावर ती प्रतिसाद न आल्याने आईच्या मनात शंकेची आणि काळजी ची पाल चुकचुकली. त्याच वेळी आजीने मात्र अचूक ओळखले आणि माझ्या दृष्टीमध्ये काहीतरी कमी आहे हे तिला जाणवले. त्यानुसार माझ्यावर योग्य ते उपचार सुरू झाले आणि माझी जास्तच काळजी घेतली जाऊ लागली.

मी जसजशी मोठी होऊ लागले, तोपर्यंत मला काहीच कधीच दिसणार नाही हे सत्य आई-बाबांना नक्की समजून चुकले होते. पण मला दृष्टी नाही म्हणजे मी काहीच करू शकणार नाही असा विचार न करता आईने मला असा विश्वास दिला की मी माझ्या बुद्धीच्या जोरावर आणि इतर अवयवांच्या सहाय्याने सर्वकाही करू शकेन. आपली मुलगी पूर्ण अंध असताना ही तिने मला उभारी दिलीआणि स्वावलंबी बनवले. त्यामुळे मी सर्वसामान्य मुलींसारखे वावरू लागले. मोठे होऊ लागले.

नृत्यांगना म्हणून माझी ओळख झाल्यानंतर कार्यक्रम ठिकठिकाणी होत असताना, ड्रेस अप करणे, हेअर स्टाईल करणे, उत्तम मेकअप करणे, निवडक योग्य असे दागिने घालणे, यामध्ये आई इतकी एक्सपोर्ट झाली की केवळ त्याच मुळे बाहेरून ब्युटीशियन बोलावून मेकअप करून घेण्याची मला गरजच भासली नाही आणि आज पर्यंत आमचे हेच रूटीन सुरू आहे.

जशी आईनं मला साथ दिली तशीच शाळेच्या बाबतीत, अभ्यासामध्ये, नृत्य कलेमध्ये, बाबांनी मला योग्य मार्गदर्शन केले. माझ्या शिक्षणावर डोळ्यात तेल घालून लक्ष ठेवले. इतकं की मला एक प्रसंग आठवतो. बाबांची शाळा बारा ते साडेपाच होती. काम जबाबदारीचे होते. शाळेत इन्स्पेक्शन चालू होती आणि माझा नृत्याचा क्लास पाच ते सहा या वेळात होता. मधल्या वेळात वेळ काढून मला क्लासमध्ये सोडण्यासाठी बाबा आले आणि त्यांच्या त्यांच्या वेळी साहेबांपुढे फाईलही हजर केली. खरच किती अवघड होते हे काम.

अशा तऱ्हेने समाजातील इतर दिव्यांग मुलांच्या पालकांसमोर माझ्या आई-बाबांनी आदर्श घालून दिला असे म्हंटले तर ती अतिशयोक्ती होणार नाही.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 86 ☆ व्यंग्य – घिस्सू भाई की लात ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘घिस्सू भाई की लात‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 86 ☆

☆ व्यंग्य – घिस्सू भाई की लात

दरवाज़े की घंटी बजी। देखा, संतोस भाई थे। संतोष भाई अपने को ‘संतोस’ कहते थे, इसलिए वे संतोस ही हो गये थे। मैंने देखा संतोस भाई का चेहरा पके टमाटर सा लाल-लाल हो रहा था। मुँह लटका हुआ था। लगता था मुँह को लिये-दिये ज़मीन पर गिर पड़ेंगे।

संतोस भाई भीतर आकर कुर्सी पर ढेर हो गये। मैंने चिन्तित होकर पूछा, ‘क्या हुआ?’

वे बड़ी देर तक चेहरे पर हथेलियाँ रगड़ते रहे। संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘कुछ नहीं।’

मैंने कहा, ‘तुम्हारी हालत तो कुछ और कह रही है।’

वे थोड़ी देर ज़मीन की तरफ देखते रहे, फिर बोले, ‘क्या कहें? कहने लायक हो तो बतायें।’

मैंने कहा, ‘बोलो। जी हल्का हो जाएगा।’

वे कुछ क्षण सोचते रहे, फिर बोले, ‘आज साले घिसुआ ने जबरदस्त इंसल्ट कर दी।’

मेरे कान खड़े हुए, पूछा, ‘घिस्सू भाई ने? कैसी इंसल्ट कर दी?’

संतोस भाई रुआँसे हो गये, बड़ी मुश्किल से बोले, ‘लात मारी।’

मैंने साश्चर्य पूछा, ‘तुम्हें?’

वे रुँधे गले से बोले, ‘हाँ।’

मैंने पूछा, ‘कहाँ?’

वे थोड़ी देर मौन रहकर आर्त स्वर में बोले, ‘पिछवाड़े।’

मैंने कहा, ‘यह तो भारी बेइज्जती की बात हो गयी। कैसे हुआ?’

संतोस भाई थोड़ा प्रकृतिस्थ होकर बोले, ‘क्या बतायें कैसे हुआ। हम दोनों ‘नसे’ में थे। वह भाभी की तारीफ कर रहा था और मैं सुन रहा था। सुनते सुनते मेरे मुँह से निकल गया कि गुरू कुछ भी कहो, तुम भाभी के चपरासी जैसे लगते हो। बस फिर मुझे पता ही नहीं चला कि वह उठ कर कब मेरे पीछे पहुँच गया। जब लात पड़ी तभी समझ में आया। मैं मसनद पर बैठा था। मुँह के बल गद्दे पर गिरा। पीछे से वह बोला, ‘हरामजादे, औकात में रह’।’

मैंने अफसोस ज़ाहिर किया, कहा, ‘मामला गंभीर हो गया।’

वैसे बात ज़्यादा चिन्ता की नहीं थी क्योंकि संतोस भाई घिस्सू भाई के प्रधान चमचे के रूप में नगर-विख्यात थे। रोज़ ही उनका दारू-पानी दरबार में होता था और इज़्ज़त में इज़ाफे या कमी का सिलसिला भी चलता रहता था। लेकिन अभी संतोस भाई गुस्से में थे।

मैंने पूछा, ‘क्या करोगे?’

वे नथुने फुलाकर बोले, ‘मैंने तो भीम की तरह उस आदमी की जंघा तोड़ने का प्रण ले लिया है। जिस टाँग से उसने मेरी इज्जत पर प्रहार किया है उसमें मल्टीपल फ्रैक्चर पैदा किये बिना मैं चैन से नहीं बैठने वाला।’

संतोस भाई का ग़म हल्का करने के लिए उन्हें चाय पिलायी। एक घंटा तक घिस्सू भाई को कोसने और उनकी टाँग तोड़ने का प्रण कई बार दुहराने के बाद वे बड़ी मुश्किल से विदा हुए।

फिर आठ दस दिन तक संतोस भाई के दर्शन नहीं हुए। करीब दस दिन बाद नन्दू के चाय के खोखे पर चाय सुड़कते टकराये। मैंने हाल-चाल पूछा तो बोले, ‘आनन्द है।’

मैंने पूछा, ‘फिर घिस्सू भाई से मिले क्या?’

उन्होंने हाथ उठाकर जवाब दिया, ‘अरे राम कहो। मैं भला उस कुचाली के पास क्यों जाऊँ?’

मैंने विनोद में पूछा, ‘टाँग तोड़ने का प्रण अभी याद है कि भूल गये?’

वे भवें चढ़ाकर बोले, ‘भूल गये? कैसे भूल गये? इतनी बड़ी इंसल्ट को कोई भूल सकता है क्या?’

फिर वे थोड़े मौन के बाद बोले, ‘वैसे मैं उस दिन की घटना को दूसरे ढंग से ले रहा हूँ। आप किसी की गाली से इसीलिए अपमानित महसूस करते हैं क्योंकि उस गाली को ग्रहण कर लेते हैं। यदि आप गाली को स्वीकार ही न करें तो कैसा अपमान? दूसरे ने गाली दी, लेकिन हमने ली ही नहीं, तो?’

मैंने कहा, ‘लेकिन यह तो लात का मामला है। ठोस लात पड़ी है। उसे कैसे नामंज़ूर करोगे?’

संतोस भाई का मुँह उतर गया, बोले, ‘ठीक कह रहे हो। लात को अस्वीकार कैसे किया जा सकता है?’

वे चिन्ता में डूब गये और मैं उन्हें विचारमग्न छोड़ चलता बना।

चार छः दिन बाद वे फिर आ गये। दो तीन मिनट इधर उधर की बातें करने के बाद मेरी आँखों में आँखें डालकर बोले, ‘का रहीम हरि कौ गयो जो भृगु मारी लात। क्या समझे?’

मैंने कहा, ‘समझ गया प्रभु। अब समझने को क्या बाकी रह गया है?’

वे बोले, ‘बड़़े को ‘छमासील’ होना चाहिए। टुच्चई करना छोटों का काम है। ठीक कहा न?’

मैंने कहा, ‘बिलकुल दुरुस्त कहा।  तुमसे यही उम्मीद थी।’

वे मुस्कुराये। ज़ाहिर था कि वे पदाघात वाली घटना पर धूल डालने के मूड में आ गये थे।

फिर एक रात संतोस भाई आंधी की तरह मेरे घर में घुस आये। बोले, ‘माफ करना गुरू! वो घिस्सू भाई वाली बात में तुमने हमें बहुत ‘मिसगाइड’ किया। हमें बहुत बरगलाया। हम इतने दिन से बराबर सोच रहे थे कि आखिर हमारे हितचिन्तक घिस्सू भाई ने हमें लात क्यों मारी। सोचते सोचते आज दोपहर को अचानक मेरी समझ में आया। घिस्सू भाई ने पीछे से मुझे लात मारी और मैं आगे जाकर गिरा। दरअसल घिस्सू भाई ने लात मारकर मुझे ‘सन्देस’ दिया कि मैं आगे बढ़ूँ। बड़़े लोग ऐसे ही बिना बोले ‘सन्देस’ देते हैं। समझने के लिए अकल चाहिए। तुमने कई पहुँचे  हुए साधुओं को देखा होगा जो लोगों को गालियाँ देते हैं या मारने को दौड़ते हैं। वे इसी तरह लोगों का कल्याण करते हैं। घिस्सू भाई ने भी यही किया, लेकिन तुमने मुझे सही अर्थ ग्रहण नहीं करने दिया। मैं वापस अपने परम ‘हितैसी’ घिस्सू भाई की ‘सरन’ में जा रहा हूँ, लेकिन तुमको चेतावनी देकर जा रहा हूँ कि आगे किसी दोस्त के साथ ऐसी घात मत करना।’

वे मेरी तरफ चेतावनी की उँगली उठाकर आँधी की तरह ही बाहर हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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