हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ। )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार☆

प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें!

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी वो एकांत जगह की तलाश में घूम रही थी कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये वहां पहुँचते ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

उसने बायें देखा तो एक शिकारी तीर का निशाना उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुड़ी तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुड़ी तो नदी में जल बहुत था।

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड़,अपने प्राथमिक उत्तरदायित्व अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी।  कुदरत का करिश्मा देखिये बिजली चमकी और तीर छोडते हुए , शिकारी की आँखे चौंधिया गयी उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा और शिकारी शेर को घायल ज़ानकर भाग गया घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश- अपयश, हार-जीत, जीवन-मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -8 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -8 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी नृत्य की यात्रा का परमोच्च बिंदू और अविस्मरणीय पल अंडमान मे स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी को जिस कमरे मे बंद किया था, वहा लिखे हुए गीत पर मेरे गुरु के साथ नृत्य करने का मुझे आया हुआ अनमोल क्षण| यह परमभाग्य का क्षण हमे मिला और हमारे जन्म का कल्याण हुआ|

२०११ वर्ष स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी के धैर्य से दौड़ने का शतक साल| इस महान साहस को उच्च कोटी का प्रणाम करने के लिए सावरकर प्रेमियों ने ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर अंडमान पदस्पर्श शताब्दी उत्सव’ चार जुलै से बारह जुलै तक इस काल में आयोजित किया था। अंडमान के उस जेल में जाकर सावरकर जी के उस कमरे को नमन करने का भाग्य जिन चुनें हुए भाग्यवान लोगों को मिला, उस में हम तीन, याने मैं, मेरी गुरु सौ. धनश्री आपटे और मेरी सहेली नेहा गुजराती थे|

मै खुद को खुशनसीब समझती हूँ कि मुझे अंडमान जाने को मिला| उसके लिये सावरकर जी के आशीर्वाद, मेरे माता पिता जी का आधार, धनश्री दीदी की मेहनत और मेरी बहन सौ. वर्षा और उसके पति श्री. विनायक देशपांडे इन सबकी मदद का लाभ मुझे मिला|

सांगली जिले में ‘बाबाराव स्मारक’ समिती है| उधर बहुत सावरकर प्रेमी लोग काम करते है| उस में से एक थे श्री बालासाहेब देशपांडे| २०११ साल स्वातंत्र्य स्वातंत्र्यवीर जी के धैर्य, साहस का सौवां साल था| अपनी भारत माता पारतंत्र्य में जकड़ी हुई थी| यह वे सह नहीं पाते थे| इस एक ध्येय के कारण ही उन्होंने एक उच्चतम पराक्रम किया| उसके कारण ही हम सब भारतीय स्वातंत्र्य का आनंद उठा रहे है, खुली सांस ले रहे है| उनकी थोडी तो याद हमें रखनी चाहिये ना? उनको अंडमान जाकर प्रणाम करना चाहिए, ऐसा इन सब लोगों ने तय किया| स्वातंत्रवीरों के गीत गाकर नृत्याविष्कार करके प्रणाम करने का तय किया था| उसके लिये मैं, धनश्री दीदी और नेहा ने नृत्य की तैयारी की थी|

लगभग दो-तीन महीने हम नृत्य की तैयारी कर रहे थे| जेल के उस कमरे में सावरकर जी ने काटों से, कीलों  से लिखी हुई कविता पेश करना तय किया| उस गीत को विकास जोशी जी ने सुर लगाकर सांगली की स्वरदा गोखले मैडम से कविता सादर की| धनश्री दीदी के कठिन प्रयास से और मार्गदर्शन से नृत्य अविष्कार पेश किया गया|

मैं खुद को बहुत खुशनसीब समझती हूँ।  हम तीनों ने सावरकर जी के उस कमरे में, जहां उनको बंद करके रखा था, उधर नृत्य पेश किया| उस कमरे का नंबर १२३ था| आश्चर्य की बात यह है कि, लोगों को, पर्यटकों को देखने के लिए वह कमरा जैसा था वैसा ही रखा हैं| हम जिस दिन उस कमरे में गए थे, वह दिन सावरकर जी ने धैर्यता से जो छलांग मारी थी, वह वही दिन था | उस दिन सावरकर जी की तस्वीर उधर रखी थी| सब कमरा फूलों से सजाया था| जिस दीवारों को सावरकर जी का आसरा मिला था उस दीवारों के ही सामने हमने सावरकर जी का अमर काव्य, अमर गान पेश किये| वह कमरा सिर्फ १०x१० इतना छोटा था| जैसे-तैसे तीन चार आदमी खड़े रह सकते हैं इतना ही था|लेकिन हमें उन्ही दीवारों को दिखाना था कि उनके ऊपर सावरकर जी ने लिखे हुए अमर, अनुपम कविताएं नृत्य के साथ उन्हें बहाल कर रहे हैं| धनश्री दीदी ने बहुत अच्छी तरह से सायं घंटा नाम का नृत्य पेश किया| उस कविता का मतलब समझ लेने जैसा है| जेल में बंदी होते थे उस समय सावरकर जी के हाथों में जंजीर डालकर बैल की तरह घुमा-घुमा कर तेल निकालना पड़ता था| बहुत ही कठिन और परेशानियों का काम था वह| उस वक्त का जेलर बहुत क्रूरता से पेश आता था| परिश्रम के सब काम खत्म होने के बाद शाम को कब घंटी बजाता है इस पर कैदियों की नजर होती थी| शाम की घंटी बज गई तो हाय! यह दिन खत्म हो गया ऐसा लगता था| वह काव्य जिस कमरे में लिखा था उसी कमरे में धनश्री दीदी ने नृत्य पेश किया| वह जेलर कैसे परेशान करता था वह उन्होंने दिखाया| उसी के साथ सावरकर जी की संवेदना अच्छी तरह से पेश की गई|

मैं और नेहा गुजराती हम दोनों ने सावरकर जी मातृभूमि की मंगल कविता मतलब “जयोस्तुते” पेश किया| बहुत बुद्धिमान ऐसे सावरकरजी ने जो महाकाव्य लिखा और मंगेशकर भाई-बहन ने बहुत ही आत्मीयता से वह भावनाएं हम तक पहुंचाई, अपने मन में बिठाई, उस नृत्य को पेश करने का भाग्य हमें मिला|

‘जयोस्तुते’ पेश करते समय मैं शिल्पा ‘भारत माता’ बनी थी|नेहा ने नकारात्मक चरित्र पेश किया था| याने वह   नकारात्मक चरित्र और भारत माता की लड़ाई हमने दिखाइ थी| तुमको बताती हूं, ‘हे अधम रक्त रंजिते’ इस पर नृत्य करते समय, मुझमें जोश आ गया था| वह नकारात्मक शक्ति लड़ते वक्त जब पैरों पर गिर गई थी, तब मुझे भी बहुत खुशी हुई थी| इस प्रकार जयोस्तुते इस जगह पर पेश करने को मिला, इसे मैं अपनी किस्मत समझती हूँ|

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 65 – शब्द पक्षी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #65 ☆ 

☆ शब्द पक्षी…! ☆ 

मेंदूतल्या घरट्यात जन्मलेली

शब्दांची पिल्ल

मला जराही स्वस्थ बसू देत नाही

चालू असतो सतत चिवचिवाट

कागदावर उतरण्याची त्यांची धडपड

मला सहन करावी लागते

जोपर्यंत घरट सोडून

शब्द अन् शब्द

पानावर मुक्त विहार करत नाहीत

तोपर्यंत

आणि

तेच शब्द कागदावर मोकळा श्वास

घेत असतानाच पुन्हा

एखादा नवा शब्द पक्षी

माझ्या मेंदूतल्या घरट्यात

आपल्या शब्द पिल्लांना सोडुन

उडून जातो माझी

अस्वस्थता

चलबिचल

हुरहुर

अशीच कायम

टिकवून ठेवण्या साठी…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 81 ☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श मोबाइल और ज़िन्दगी।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 81 ☆

☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆

ज़िन्दगी एक मोबाइल की भांति है, जिसमें अनचाही तस्वीरें, फाइलों व अनचाही स्मृतियों को डिलीट करने से उसकी गति-रफ़्तार तेज़ हो जाती है। भले ही मोबाइल ने हमें आत्मकेंद्रित बना दिया है; हम सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह गये हैं; खुद में सिमट कर रह गये हैं…संबंधों व सामाजिक सरोकारों से दूर…बहुत दूर, परंतु मोबाइल पर बात करते हुए हम विचित्र-सा सामीप्य अनुभव करते हैं।

आइए! हम मोबाइल व ज़िन्दगी की साम्यता पर चिंतन-मनन करने का प्रयास करें। सो! यदि ज़िन्दगी व ज़हन से भी मोबाइल की भांति, अनचाहे अनुभव व स्मृतियों को फ़लक से हटा दिया जाये, तो आप खुशी से ज़िन्दगी जी सकते हैं। वैसे ज़िन्दगी बहुत छोटी है तथा मानव जीवन क्षणभंगुर … जैसा हमारे वेद-शास्त्रों में उद्धृत है। कबीरदास जी ने भी—‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात/ देखत ही छिप जायेगा,ज्यों तारा प्रभात’ तथा ‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी/ फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत् कह्यो ज्ञानी’…यह दोनों पद मानव जीवन की क्षणभंगुरता व नश्वरता का संदेश देते हैं। मानव जीवन बुलबुले व आकाश के चमकते तारे के समान है। जिस प्रकार पानी के बुलबुले का अस्तित्व पल-भर नष्ट हो जाता है और वह पुनः जल में विलीन हो जाता है; उसी प्रकार भोर होते तारे भी सूर्योदय होने पर अस्त हो जाते हैं। जल से भरा कुंभ टूटने पर उसका जल, बाहर के जल में समा जाता है, जिसमें वह कुंभ रखा होता है। सो! दोनों के जल में भेद करना संभव नहीं होता। यही है मानव जीवन की कहानी अर्थात् जिस शरीर पर मानव गर्व करता है; आत्मा के साथ छोड़ जाने पर वह उसी पल चेतनहीन हो जाता है, स्पंदनहीन हो जाता है, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या होता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। परंतु बावरा मन इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि प्रभु मानव को पल-भर में अर्श से फर्श पर गिरा सकते हैं, क्योंकि जब जीवन में अहं का पदार्पण होता है, तब हमें लगता है कि हमने कुछ विशिष्ट अथवा कुछ अलग किया है। यही ‘कुछ विशेष’ हमें ले डूबता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब हम दूसरों की कही बातों व जुमलों पर विश्वास करने लगते हैं तथा उसकी गहराई तक नहीं जाना चाहते। वास्तव में ऐसे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमसे ईर्ष्या करते हैं। वे हमें उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख सहन नहीं कर पाते और तुरंत नीचे गिरा देते हैं। सो! उनसे दूर रहना ही बेहतर है, उपयोगी है, क़ारगर है।

परंतु हमें सम्मान तब मिलता है, जब दुनिया वालों को यह विश्वास हो जाता है कि आपने दूसरों से कुछ अलग व विशेष किया है, क्योंकि मानव के कर्म ही उसका आईना होते हैं। शायद! इसलिए ही इंसान के पहुंचने से पहले उसकी प्रतिष्ठा, कार्य-प्रणाली, सोच, व्यवहार व दृष्टिकोण वहां पहुंच जाते हैं। वे हमारे शुभ कर्म ही होते हैं, जो हमें सबका प्रिय बनाते हैं तथा विशिष्ट मान-सम्मान दिलाते हैं। सम्मान पाने की आवश्यक शर्त है— दूसरों की भावनाओं को अहमियत देना; उनके प्रति स्नेह, सौहार्द व विश्वास रखना, क्योंकि इस संसार में– जो आप दूसरों को देते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है…वह आस्था, श्रद्धा हो या आलोचना; प्रशंसा हो या निंदा; अच्छाई हो या बुराई। सो! महात्मा बुद्ध का यह संदेश मुझे सार्थक प्रतीत होता है कि ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी अपेक्षा आप उनसे रखते हैं।’ मधुर वाणी व मधुर व्यवहार हमारे जीवन के आधार हैं। मधुर वचन बोल कर आप शत्रु को भी अपना प्रिय मित्र बना सकते हैं और वे आपके क़ायल हो सकते हैं…आप उनके हृदय पर शासन कर सकते हैं। कटु वचन बोलने से आपका मान-सम्मान उसी क्षण मिट्टी में मिल जाता है; जो कभी लौटकर नहीं आता…जैसे पानी से भरे गिलास में आप और पानी तो नहीं डाल सकते, परंतु यदि आप आपका व्यवहार मधुर है, तो आप शक्कर या नमक की भांति सबके हृदय में अपना स्थान बना कर अपना अस्तित्व कायम कर सकते हैं। सामान्यतः नमक हृदय में कटुता व ईर्ष्या का भाव उत्पन्न करता है, परंतु शक्कर सौहार्द व माधुर्य … जो जीवन में अपेक्षित है और वह उसकी दशा व दिशा बदल देती है।

महाभारत के युद्ध का कारण द्रौपदी द्वारा उच्चरित शब्द ‘अंधे का पुत्र अंधा’ ही थे, जिसके कारण वर्षों तक उनके मन में कटुता का भाव व्याप्त रहा और वे प्रतिशोध रूपी अग्नि में प्रज्ज्वलित होते रहे। उसके अंत से तो हम हम सब भली-भांति परिचित हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में महायुद्ध हुआ और श्रीकृष्ण को गीता का उपदेश देना पड़ा; जो आज भी प्रासंगिक व सम-सामयिक है। इतना ही नहीं, विदेशी लोग तो गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में स्वीकारने लगे हैं और विश्व में ‘गीता जयंती’ व ‘योग दिवस’ बहुत धूमधाम से मनाया जाता है… परंतु यह सब हम लोगों के दिलों में पूर्ण रूप से नहीं उतर पाया। वैसे भी ‘जो वस्तु विदेश के रास्ते से भारत में आती है, उसे हम पूर्ण उत्साह व जोशो-ख़रोश से अपनाते व मान सम्मान देते हैं तथा जीवन में धारण कर लेते हैं, क्योंकि हम भारतीय विदेशी होने में फख़्र महसूस करते हैं।’ इससे स्पष्ट होता है कि हमारे मन में अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा व आस्था का अभाव है और पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करना; हमारी आदत में शुमार है। इसलिए हम ‘जीन्स-कल्चर व हैलो-हॉय’ को इतना महत्व देते हैं। ‘लिव-इन, मी टू व परस्त्री-गमन’ हमारे लिए स्टेटस-सिंबल बन गए हैं, जो हमारी पारिवारिक व्यवस्था में बखूबी सेंध लगा रहे हैं। इनके भयावह परिणाम बच्चों में बढ़ रही हिंसा, बुज़ुर्गों के प्रति पनप रहा उपेक्षा भाव व वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में हमारे समक्ष हैं। इसी कारण शिशु से लेकर वृद्ध तक अतिव्यस्त व तनाव-ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। हमारे संबंधों को दीमक चाट रही है और सामाजिक सरोकार जाने कहां मुंह छिपाए बैठे हैं। संबंधों की अहमियत न रहने से स्नेह-सौहार्द के अस्तित्व व स्थायित्व की कल्पना करना बेमानी है। सो! जहां मनोमालिन्य, स्व-पर व ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का एकछत्र साम्राज्य होगा; वहां प्रेम व सुख-शांति कैसे क़ायम रह सकती है? सो! मोबाइल जहां संबंधों में प्रगाढ़ता लाता है; दिलों की दूरियों को नज़दीकियों में बदलता है; हमें दु:खों के अथाह सागर में डूबने से बचाता है… वहीं ज़िंदगी में अजनबीपन के अहसास को भी जाग्रत करता है। इतना ही नहीं, वह उनके दिलों की धड़कन बन सदैव अंग-संग रहता है और उसके बिना जीवन की  कल्पना करना बेमानी प्रतीत होता है।

आइए! इस संदर्भ में सुख व सुविधा के अंतर पर दृष्टिपात कर लें। मोबाइल से हमें सुविधा के साथ  सुख तो मिल सकता है, परंतु शांति नहीं, क्योंकि सुख भौतिक व शारीरिक होता है और शांति का संबंध मन व आत्मा से होता है। जब मानव को मोबाइल की लत लग जाती है और वह सुविधा के स्थान पर उसकी ज़रूरत बन जाती है, तो उसके अभाव में उसका हृदय पल-भर के लिये भी शांत नहीं रह पाता; जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विदेशों में बसे लोग हैं। उनके पास भौतिक सुख-सुविधाएं तो हैं, परंतु मानसिक शांति व सुक़ून की तलाश में वे भारत आते हैं, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति अत्यंत समृद्ध है तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ अर्थात् मानव-मात्र के कल्याण की भावना से आप्लावित है। ‘अतिथि देवो भव’ का परिचय–’अरुण यह मधुमय देश हमारा/ जहां पहुंच अनजान क्षितिज को/ मिलता एक सहारा’ की भावना, हमें विश्व में सिरमौर स्वीकारने को बाध्य करती है; जहां बाहर से आने वाले अतिथि को हम सिर-आंखों पर बिठाते हैं और उनके प्रति अजनबीपन का भाव, हृदय में लेशमात्र भी दस्तक तक नहीं दे पाता। जिस प्रकार सागर में विभिन्न नदी-नाले समा जाते हैं; वैसे ही बाहर के देशों से आने वाले लोग  हमारे यहां इस क़दर रच-बस जाते हैं कि यहां रंग, धर्म, जाति-पाति आदि के भेदभाव का कोई स्थान नहीं रहता।

‘प्रभु के सब बंदे, सब में प्रभु समाया’ अर्थात् हम सब उसी परमात्मा की संतान हैं और समस्त जीव-जगत् व सृष्टि के कण-कण में मानव उसी ब्रह्म की सत्ता का आभास पाता है। आदि शंकराचार्य का यह वाक्य ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ का इस संदर्भ में विश्लेषण करना आवश्यक है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और उसके अतिरिक्त जो भी हमें दिखाई पड़ता है, मिथ्या है; परंंतु माया के कारण सत्य भासता है। सो! प्राणी-मात्र में उस प्रभु के दर्शन पाकर हम स्वयं को धन्य व भाग्यशाली समझते हैं; उनकी प्रभु के समान उपासना करते हैं। इसलिए हम हर दिन को उदार मन से उत्सव की तरह मनाते हैं और उस मन:स्थिति में दुष्प्रवृत्तियां हमें लेशमात्र भी छू नहीं पातीं।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता के भाव से ग्रस्त व्यक्ति हमें यह सोचने पर विवश कर देता है कि वह हमारे पथ की बाधा बनकर उपस्थित हुआ है और हमें उसकी रौ में नहीं बह जाना है। तभी हमारे मन में यह भाव दस्तक देता है कि हमें आत्मावलोकन कर आत्म-विश्लेषण करना होगा ताकि हम स्वयं में सुधार ला सकें। वास्तव में यह अपने गुण-दोषों के प्रति स्वीकार्यता का भाव है। जब हमें यह अनुभूति हो जाती है कि हम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उस स्थिति में हम खुद में सुधार ला सकते हैं और दूसरों को दुष्भावनाओं व दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति दिलाने में अहम् भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। वास्तव में जब तक हम अपने दोषों व अवगुणों से वाक़िफ़ नहीं होते; आत्म-परिष्कार संभव नहीं है। वास्तव में वे लोग उत्तम श्रेणी में आते हैं; जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। जो लोग अपने अनुभव से सीखते हैं, वे द्वितीय श्रेणी में आते हैं और जो लोग ग़लती करने पर भी उसे नहीं स्वीकारते; वे ठीक राह को नहीं अपना पाते। वास्तव में वे निकृष्टतम श्रेणी के बाशिंदे कहलाते हैं तथा उनमें  सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती। हां! कोई दैवीय शक्ति अवश्य उनका सही मार्गदर्शन कर सकती है। ऐसे लोग अपने अनुभव से अर्थात् ठोकरें खाने के पश्चात् भी अपने पक्ष को सही ठहराते हैं। मोबाइल के वाट्सएप, फेसबुक आदि के ‘लाइक’ के चक्कर में लोग इतने रच-बस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी वे उससे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते और वे शारीरिक व मानसिक रोगी बन जाते हैं। इस मन:स्थिति में वे स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझते।

परमात्मा सबका हितैषी है। वह जानता है कि हमारा हित किस में है…इसलिए वह हमें हमारा मनचाहा नहीं देता, बल्कि वह देता है…जो हमारे लिए हितकर होता है। परंतु विनाश काल में अक्सर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; विपरीत दिशा में चलती है और उसे सावन के अंधे की भांति सब  हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। उस स्थिति में मानव अतीत की स्मृतियों में खोया रहता है और स्वयं को उस उधेड़बुन से मुक्त नहीं कर पाता, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया है, कभी लौटकर नहीं आता। सो! उसे स्मरण कर समय व शक्ति को नष्ट करना उचित नहीं है। हमें अतीत की स्मृतियों को अपने जीवन से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि वे हमारे विकास में बाधक व अवरोधक होती हैं। हां! स्वर्णिम स्मृतियां हमारे लिए प्रेरणास्पद होती हैं, जिनका स्मरण कर हम वर्तमान की ऊहापोह से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं और उस स्थिति में हमारे हृदय में आत्मविश्वास जागृत होता है। प्रश्न उठता है कि यदि हममें पहले से ही वह सब करने की सामर्थ्य थी, तो हम पहले ही वैसे क्यों नहीं बन पाये? सो! यदि हममें आज भी साहस है, उत्साह है, ओज है, ऊर्जा है, सकारात्मकता है…फिर कमी किस बात की है? शायद जज़्बे की… ‘मैं कर सकता हूं; मेरे लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं है। ‘वह विषम परिस्थितियों में सहज रहकर उनका साहसपूर्वक सामना कर, अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकता है। मुझे याद आ रही हैं– स्वरचित अस्मिता की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां…’मुझमें साहस ‘औ’ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ हर मानव में साहस है, उत्साह है ….हां! आवश्यकता है– आत्मविश्वास और जज़्बे की…जिससे वह कठिन से कठिन कार्य कर सकता है और मनचाहा प्राप्त कर सकता है। ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद/ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो/ तबीयत से उछालो! यारो।’ आप कर सकते हैं…निष्ठा से, साहस से, आत्मविश्वास से…परंतु उस कार्य को अंजाम देने के लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है।

हां! असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और बुद्धिमान तो अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिए वह सब कुछ कर गुज़रते हैं; जो कल्पनातीत होता है और पर्वत भी उनकी राह में बाधा नहीं बन सकते। वे विषम परिस्थितियों में भी पूर्ण तल्लीनता से अपने पथ पर अग्रसर रहते हैं। वैसे भी जीवन में ग़लती को पुन: न दोहराना श्रेष्ठ होता है। सो! अपने पूर्वानुभवों से शिक्षा ग्रहण कर जीने की राह को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जीवन में केवल दो रास्ते ही नहीं होते …तीसरा विकल्प भी अवश्य होता है। उद्यमी व परिश्रमी व्यक्ति सदैव तीसरे विकल्प की ओर कदम बढ़ाते हैं और मंज़िल को प्राप्त कर लेते हैं। बनी-बनाई लीक पर चलने वाले ज़िंदगी में कुछ भी नया नहीं कर सकते और उनके हिस्से में सदैव निराशा ही आती है; जो भविष्य में कुंठा का रूप धारण कर लेती है। मुझे तो रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘एकला चलो रे’ पंक्तियों का स्मरण हो रही हैं… ‘इसलिए भीड़ का हिस्सा बनने से परहेज़ रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि शेरों की जमात नहीं होती।’ इसलिए अपनी राह का निर्माण खुद करें। मालिक सबका हित चाहता है और हमें सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है– ‘उसकी नवाज़िशों में कोई कमी न थी/ झोली हमारी में ही छेद था।’ यह पंक्तियां परमात्मा के प्रति हमारे दृढ-संकल्प व अटूट विश्वास को दर्शाती हैं व स्थिरता प्रदान करती हैं। वह करुणामय प्रभु सब पर आशीषों की वर्षा करता है तथा हमें आग़ामी आपदाओं से बचाता है। हां! कमी हममें ही होती है, क्योंकि हम पर माया का आवरण इस क़दर चढ़ा होता है कि हम सृष्टि-नियंता की रहमतों का अंदाज़ भी नहीं लगा पाते…उस पर विश्वास करना तो कल्पनातीत है। हम अपने अहं में इस क़दर डूबे रहते हैं कि हम स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ समझने का दंभ भरने लगते हैं। इसलिए हमारी  झोली हमेशा खाली रह जाती है। वास्तव में जब हम उस सृष्टि-नियंता के प्रति समर्पित हो जाते हैं; उसके प्रति आस्था, श्रद्धा व विश्वास रखने लगते हैं; तो हमारा अहं स्वत: विगलित होने  लगता है और हम पर उसकी रहमतें बरसने लगती हैं। इस स्थिति में हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि हमारा कौन-सा अच्छा कर्म, उस मालिक को भा गया होगा कि उसने हमें फ़र्श से उठाकर अर्श पर पहुंचा दिया।

यदि हम उपरोक्त स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो मानव को अपने हृदय में निहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि भावों को निकाल बाहर फेंकना होगा और उसके स्थान पर स्नेह, प्यार, त्याग, सहानुभूति आदि से अपनी झोली के छेदों को भरना होगा। इस स्थिति में आपको दूसरों से संगति व सद्भाव की अपेक्षा नहीं रहेगी। आप एकांत में अत्यंत प्रसन्न रहेंगे, क्योंकि मौन को सबसे बड़ा तप व त्याग स्वीकारा गया है; जो नव-निधियों का प्रदाता है। ‘बुरी संगति से अकेला भला’ में भी यह सर्वश्रेष्ठ संदेश निहित है। इसलिए जो व्यक्ति एकांत रूपी सागर में अवग़ाहन करता है; वह अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त कर सकता है; जिसमें उसे अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। सो! तादात्म्य की स्थिति तक पहुंचने के लिए मानव को अनगिनत जन्म लेने पड़ते हैं। हां! यदि आप अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो भी यह सच्चा सौदा है। आप सांसारिक बुराइयों अर्थात् तेरी-मेरी, राग-द्वेष, निंदा-प्रशंसा आदि दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त नहीं होंगे … आपका मन सदैव पावन, मुक्त व शून्यावस्था में रहेगा और आप प्रभु की करुणा-कृपा पाने के सुयोग्य पात्र बने रहेंगे।

आइए! अतीत की स्मृतियों को विस्मृत कर वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, ताकि सुखद व सुंदर भविष्य की कल्पना कर; हम खुशी से अपना समय व्यतीत कर सकें। ज़िंदगी बहुत छोटी है। सो! हर पल को जी लें। मुझे याद आ रही हैं… वक्त फिल्म की दो पंक्तियां ‘आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही एक पल है।’ यह पंक्तियां चारवॉक दर्शन ‘खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ’ की पक्षधर हैं। इसलिए मानव को अतीत और भविष्य के भंवर से स्वयं को मुक्त कर, वर्तमान अर्थात् आज में जीने की दरक़ार है, क्योंकि यही वह सार्थक पल है। यह सर्वविदित है कि हम ज़िंदगी भर की संपूर्ण दौलत देकर एक पल भी नहीं खरीद सकते। इसलिए हमें समय की महत्ता को जानने, समझने व अनुभव करने की आवश्यकता है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय लौट कर नहीं आता।  सो! सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा व रहमत को अनुभव कर उसके सान्निध्य को महसूस करना बेहतर है। यही वह माध्यम है…उस प्रभु को पाने का; उसके साथ एकाकार होने का; स्व-पर का भेद मिटा अलौकिक आनंद में अवग़ाहन करने का। सो! एक सांस को भी व्यर्थ न जाने दें… सदैव उसका नाम-स्मरण करें…उसे अपने क़रीब जानें और अपनी जीवन-डोर उसके हाथों में सौंप कर निर्मुक्त अवस्था में जीवन-यापन करें… यही निर्वाण की अवस्था है, जहां मानव लख-चौरासी अथवा आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है और यही कैवल्य की स्थिति और हृदय की  मुक्तावस्था है। सो! हर पल ख़ुदा की रहमत को अनुभव करें और ज़िंदगी को सुहाना सफ़र समझें, क्योंकि ‘यहां कल क्या हो…किसने जाना’ आनंद फिल्म की इन पंक्तियों में निहित जीवन संदेश… ‘हंसते, गाते जहान से गुज़र, दुनिया की तू परवाह न कर’…इसलिए ‘लोग क्या कहेंगे’ इससे बचें, क्योंकि ‘लोगों का काम है कहना; टीका-टिप्पणी व आलोचना करना।’ परंतु यदि आप उनकी ओर ध्यान नहीं देते, तभी आप अपने ढंग से ज़िंदगी जी सकते हैं, क्योंकि प्रेम की राह अत्यंत संकरी है, जिसमें दो नहीं समा सकते। जब आप पूर्ण रूप से सृष्टि-नियंता के चरणों में समर्पित हो जाते हैं, तो परमात्मा आगे बढ़ कर आपको थाम लेते हैं … अपना लेते हैं और आप अपनी मंज़िल तक पहुंच पाते हैं। इसलिए कछुए की भांति स्वयं को आत्म-केंद्रित कर, अपनी पांचों कर्मेंद्रियों को अंकुश में रखें और हंसते-हंसते इस संसार से सदैव के लिए विदा हो जाएं। इस स्थिति में आप लख चौरासी से मुक्त हो जायेंगे, जो मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 33 ☆ नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं”.)

☆ किसलय की कलम से # 33 ☆

☆ नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं ☆

परियों और राजकुमारियों के सौन्दर्य बखान करने में कवियों – शायरों – कहानीकारों ने शायद ही कोई कसर छोड़ी होगी। आदि से अब तक रूप, रंग और सुन्दरता को ही प्राय: लोकप्रियता का आधार माना जाता रहा है, भले ही उसका दूसरा पहलू प्रशंसनीय रहा हो अथवा नहीं। यही कारण है कि लोगों का झुकाव सुन्दरता की दिशा में अधिक होता गया और निश्चित रूप से जो सुन्दर नहीं है, उनके मन में कहीं न कहीं हीन भावना अपना स्थान बनाने में सफल होती गई, मगर दृढ़ता और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि ऐसा कदापि नहीं है। अनपढ़ कालिदास, अंधे सूरदास, पोलियोग्रस्त क्रिकेटर चन्द्रशेखर, संगीतज्ञ दिव्यदर्शी रवीन्द्र जैन आदि अनेक नामों को गिनाया जा सकता है, जिन्हें लोकप्रियता रंग, रूप अथवा सौन्दर्य के बलबूते नहीं मिली। इन्होंने अपनी विशेष योग्यताओं के कारण लोकप्रियता हासिल की है। आज भी कला, संगीत, अभिनय, नृत्य, गायन, खेल, समाज सेवा जैसे अनेक क्षेत्र हैं जिनमें दक्ष महिलायें अथवा पुरुष दोनों ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचकर अपने जीवन को सुखमय एवं सार्थक बनाने में सफल हो सकते हैं, फिर भी लड़कियों एवं महिलाओं में अपने रंग, रूप और सौन्दर्य को लेकर प्रतिस्पर्धा सहज ही निर्मित हो जाती है। वहीं दूसरी ओर हीन भावना भी पनपती है। यह हीन भावना उन लड़कियों में अधिक प्रभाव डालती है जो कम सुन्दर होने के साथ – साथ किसी भी अन्य क्षेत्र में निपुण नहीं होतीं। इन परिस्थितियों में स्वयं लड़कियों अथवा अभिभावकों की ज़रा सी भूल या असतर्कता उनका सारा जीवन अंधकारमय बना सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि लड़कियाँ आकर्षक अथवा सुन्दर नहीं हैं तब इसका मतलब यह कदापि नहीं होना चाहिये कि उनका तिरस्कार किया जाए। किसी न किसी बहाने अथवा मौका मिलते ही इनकी कमियों की ओर इशारा और समझाईश दी जाना चाहिए। उन लड़कियों और नवयुवतियों को भी चाहिए कि वे विवाह पूर्व इस कमी की पूर्ति हेतु अनेक कलाओं – विधाओं में दक्षता प्राप्त कर लें। यह पाया गया है कि अधिकांश लोगों का ध्यान सौन्दर्य दर्शन में ही केन्द्रित होता है और शेष गुणों की ओर अपेक्षाकृत कम प्रभावित होते हैं। यह सत्यता भी है कि सामने दिखाई देने वाले गुण प्रथम दृष्टि में ही प्रभावित कर लेते हैं, जबकि अन्य गुणों की जानकारी हेतु निकटता एवं संवाद की आवश्यकता होती है। प्राय: लड़कियों में उत्पन्न सौंदर्यबोध अभिमान का अनुभव कराने लगता है। साथ ही गैरों की टिप्पणियाँ जहाँ एक ओर आनंद की अनुभूति देती है, वहीं दूसरी ओर तनाव भी बढाती हैं, जिनसे वे लक्ष्य को पाने में आंशिक परेशानी महसूस करने लगती हैं। यहाँ कहा तो जा सकता है कि लड़कियों का दूसरा वर्ग इस तरह की परेशानियों से अछूता रहता है, फिर भी ऐसे में सुन्दरता की कमी को पूर्ण करने हेतु कोई न कोई पूरक अथवा विकल्प अत्यावश्यक होता है। यही पूरक अथवा विकल्प ही उन लड़कियों का भविष्य निश्चित करता है। उसमें कठिन परीक्षा लगन, साहस और धैर्य की आवश्यकता होती है। लगातार मेहनत और लगन उसे अच्छी गायिका, समाज सेवी, अभिनेत्री, साहित्यकार, चित्रकार अथवा किसी भी गरिमापूर्ण पद पर आसीन करा सकता है जो कि वर्तमान में आवश्यक भी है। इससे उन लड़कियों के लिए प्रतिष्ठित परिवार, सुयोग्य वर एवं सुखमय जीवन की सर्वोच्च आकांक्षा की पूर्ति के द्वार भी खुल जाते हैं।

नारी का सौंदर्य ही केवल सार्थक जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है। सुन्दरता के अतिरिक्त लड़की का एक भी अवगुण या कमी निश्चित रूप से उसका जीवन चुनौतीपूर्ण बना देती है। साथ ही उस कारण ससुराल में भी अनावश्यक कठिनाईयाँ पैदा हो सकती हैं, लेकिन लड़की यदि प्रतिभावान हो, अथवा परिवार चलाने की कला में निपुण हो, उसमें कोई उल्लेखनीय हुनर हो या फिर अच्छे ओहदे पर कार्यरत हो तो एक समझदार पति सारी जिन्दगी अपने परिवार को खुशहाल बनाए रख सकेगा और अपनी पत्नी का सदैव सम्मान भी करेगा। अत: यह बात हमारे परिवार के प्रत्येक सदस्यों को ध्यान में रखना होगी कि यदि हमारी लड़की, हमारी बहन, हमारी बहू आकर्षक अथवा सुन्दर नहीं हैं तब भी उसका तिरस्कार कदापि नहीं किया जाना चाहिए। हमें उनके अंत:करण में ऐसे बीज अंकुरित करना होंगे जो भविष्य में मीठे फलों को पैदा कर सके, जिनकी मिठास उनमें निहित कमी को भी भुला दे और परिवार के सदस्य उनकी प्रतिभा की भूरी – भूरी प्रशंसा करते रहें। यही हम सबका सार्थक प्रयास भी होना चाहिए अन्यथा महिलायें सदैव अपने भाग्य को कोसती रहेंगी, मनचाहा वर न मिलने पर स्वयं को दोषी ठहराएँगी, तब उनके लिए पश्चाताप के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं बचेगा।

आज जब नारी वर्ग शिक्षा, तकनीकि, उद्योग, अन्तरिक्ष, सैन्य सहित अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चश्व कायम करने में सफल हो रहा है। समाज और शासन भी प्राचीन दकियानूसी बातों को नकार कर उन्हें प्रोत्साहित कर रहा है, तब बहन – बेटियों को चाहिए कि वे कोई न कोई ऐसी विशेषता, कला या गुणों में निपुण होना सुनिश्चित करें जो उनके सुखद भविष्य हेतु मील का पत्थर बने।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 80 ☆ लघुकथा – सही मार्ग ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  किशोर मनोविज्ञान पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “सही रास्ता। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 80 – साहित्य निकुंज ☆

 लघुकथा – सही रास्ता

उषा का आज कॉलेज में पहला दिन था। उसे कुछ अजीब सा लग रहा था और नौकरी लगने की खुशी भी बहुत थी ।

स्टाफ रूम पहुंची सभी ने उसका स्वागत किया।

विभागाध्यक्ष ने उसे टाइम टेबिल दिया । इस वर्ष उसे फाइनल की ही क्लास मिली थी।

आज जब वह क्लास लेने गई तब बच्चों ने उसका स्वागत किया। और एक छात्र सुनील ने तो उसे गुलाब का फूल लाकर दिया और बोला “हार्दिक स्वागत है मेम ।”

उषा ने …”प्यार से थैंक्स कहा।”

उषा पढ़ाने लगी। उषा कई दिन से महसूस कर रही थी  कि सुनील का पढ़ने में मन नहीं लगता और वह केवल आंखें फाड़ करके देखता ही रहता है उसे।

रोज कॉलेज छूटने पर कॉलेज के बाहर मिलता है न जाने क्या है उसके मन में ?

शायद यह उम्र ही ऐसी है।

उषा ने सोचा .. कि कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा वरना यह बच्चा अपनी पढ़ाई से हाथ धो बैठेगा।

अगले दिन जब कॉलेज के गेट पर सुनील मिला तो उसने सुनील से कहा .. “मेरे साथ घर चलोगे।”

सुनील खुशी खुशी उषा के साथ घर चला गया।

उषा ने सुनील को बैठाया और चाय नाश्ता करवाया। तब तक उषा के बच्चे भी लौट आए स्कूल से।  आपस में मिलवाया। सुनील सभी से मिलकर बहुत खुश हो गया।

बच्चों ने पूछा मम्मी यह “भैया कौन है।”

उषा ने कहा …. “इन्हें तुम मामा कह सकते हो।”

“क्यों सुनील यह रिश्ता तुम्हें मंजूर है?”

सुनील तुरंत मैम के चरणों में झुक गया। बोला.. “आपने मुझे सही मार्ग दिखाया। आपने मेरी आंखें खोल दी।”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 70 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 70 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

ओढ़े चादर ओस की, वसुधा तकती भोर

हो कर शीतल  शिशिर में, पवन करे झकझोर

 

रद्दी में बिकने लगा, देखो अब साहित्य

जुगनू अब यह समझता, फीका है आदित्य

 

कर आराधन देश का, रखें देश हित सोच

संकट में कुर्बान हों, बिना कोई संकोच

 

अविरल धारा प्रेम की, दिल में बहती रोज

सच्चे सेवक राम के, जिनमें रहता ओज

 

उन्नत खेती कीजिये, चलें वक्त के साथ

उपज खेत की बढ़ सके, हो दौलत भी हाथ

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 73 – विजय साहित्य – आराधना .. . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 73 – विजय साहित्य – आराधना .. . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

आराध्याचे आराधन

हीच खरी आराधना

जाण ठेवूनी करावी

आदर्शाची जोपासना. . . !

 

आराधना करताना

नको मनी अहंकार

मनोमन चिंतलेली

होई कामना साकार. . . . !

 

प्रेम प्रितीमध्ये हवी

विश्वासाची आराधना.

जुळुनीया येई नाते

हवी मनी संवेदना. . . . !

 

कुणीतरी कुणासाठी

जीव जातो लावूनीया

आराधना अंतरीची

जाई श्वास होऊनीया . . . . !

 

आराधने मध्ये हवे

एक माथा, दोन हात

प्रार्थनेच्या आरंभाला

आराधना तेलवात.. . !

 

ध्येयपूर्ती  आराधना

प्रयत्नांची हवी जोड

ज्ञान मिळवोनी साधू

यशकिर्ती बिनतोड. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 59 ☆ लघुकथा – पचास पार की औरत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘पचास पार की औरत’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद सार्थक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 59 ☆

☆  लघुकथा – पचास पार की औरत ☆

सुनंदा बहुत दिनों से अनमनी सी हो रही थी,  क्यों,  यह उसे भी पता नहीं। बस मन कुछ उचट रहा था। बेटी की शादी के बाद से अक्सर  ऐसा होने लगा था। पति अपनी नौकरी में व्यस्त और  वह सारा दिन घर में अकेली। इतनी फुरसत तो आज तक कभी उसे मिली ही नहीं थी। वैसे तो परिवार में सब ठीक ठाक था, फिर भी रह-रहकर मन में निराशा और अकेलापन महसूस होता। दरअसल वह कभी घर में अकेली रही ही नहीं, अकेले घूमने–फिरने की आदत भी नहीं थी उसे। यही फुरसत और अकेलापन अब उसे खल रहा था, पर कहे किससे।

उसने कहीं पढा था कि 45 की उम्र के बाद स्त्रियों में हारमोनल बदलाव आते हैं और मन पर भी इसका असर पडता है, तो यह मूड स्विंग है क्या? वह सोच रही थी कि मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है क्या?  अपने में ही उलझी हुई सी थी कि फोन की घंटी बजी,  बेटी का फोन था – क्या कर रही हो मम्मां! बर्थडे का क्या प्लान है? कितने साल की हो गईं अब? इस प्रश्न का जबाब ना देकर वह बोली – अरे कुछ नहीं इस उम्र में क्या बर्थडे मनाना। जहाँ उम्र का काँटा 35-40 के पार गया कि फिर शरीर ही उम्र बताने लगता है बेटा। इसी के साथ विचारों का सिलसिला चल पडा, पचास की उम्र की महिलाओं की स्थिति कुछ वैसी ही होती है जैसे पंद्रह – सोलह साल की लडकियों की, जिन्हें ना छोटा समझा जाता है ना बडा। कुछ बडों जैसा बोल दिया तो डांट पडती है कि ज्यादा दादी मत बनो, और कोई काम नहीं किया तो सुनने को मिलता – इतनी बडी हो गई सहूर नहीं है, बिचारी बच्ची करे तो क्या करे? शायद वह भी आज उम्र के ऐसे ही पडाव पर है। अब पति कहते हैं – पहले कहती थी ना आराम के लिए समय  नहीं मिलता,  अब जितना आराम करना है करो। बेटी समझाती है घूमने जाइए, शॉपिंग करिए, मस्ती करिए, बहुत काम कर लिया माँ आपने। वह कैसे समझाए कि उसकी जिंदगी तो इन दोनों के इर्द- गिर्द ही घूमने की आदी है। अपने लिए कभी सोचा ही कहाँ उसने। अब एकदम से कैसे बदल ले अपने आपको? हैलो मम्मां कहाँ खो गईं? बेटी फोन पर फिर बोली। अरे यहीं हूँ, बोल ना। बताया नहीं आपने क्या करेंगी बर्थडे पर। अभी कुछ सोचा नहीं है, अच्छा फोन रखती हूँ बहुत काम हैं। फोन रखकर उसने आँसू पोंछे, ये आँखें भी ज्यादा ही बोलने लगीं हैं अब।

मुँह धोकर वह शीशे के सामने खडी हो गई। लगा बहुत समय बाद फुरसत से अपने चेहरे को देख रही है। आँखों के आसपास काले घेरे बढ गए थे,  चेहरे पर उम्र की लकीरें भी साफ दिखने लगी थीं। चेहरे को देखते – देखते शरीर पर ध्यान गया, थकने लगी है अब। थोडा सा काम बढा,  फिर दो दिन आराम करने को मन करता है। शीशे में देखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश की,  सुना था- शीशे के सामने खडे होकर मुस्कुराओ तो मन खुशी से भर जाता है। वह मुस्कुराने लगी – हाँ शायद बदल रहा है मन,  कुछ कह भी रहा है –  इस उम्र तक अपने लिए सोचा ही नहीं, पर अब तो सोचो। आधी जिंदगी परिवार में सिमटे रहो और बाकी उसकी याद में। खुद  मत बदलो और जमाने से शिकायत करते फिरो, यह तो कोई बात नहीं हुई। निकलना ही होगा उसे अपने बनाए इस घेरे से जो उसके आगे के जीवन को अपनी चपेट में ले रहा है। अब भी अपने लिए नहीं जिऊँगी तो कब? उसने कपडे बदले,  रिक्शा बुलाया और निकल पड़ी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य #92 ☆ कट चाय से उतरती मजदूर की थकान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की एक अतिसुन्दर कविता  ‘कट चाय से उतरती मजदूर की थकान’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 92 ☆

☆ कविता – कट चाय से उतरती मजदूर की थकान ☆

पापा बतलाते हैं

1940 के दशक की

उनकी स्मृतियां

जब एक गाड़ी में

किसी छोटी टँकी में

भरी हुई चाय

चौराहे चौराहे

मुफ्त बांटा करते थे

बुकब्राण्ड कम्पनी के

लोग

पीते पीते, धीरे धीरे

लत लग गई

लोगों को चाय की अब

 

चाय स्वागत पेय बन चुकी है

चाय की चुस्कियों के संग

चर्चाएं होती हैं बड़ी बड़ी

 

लड़कियों के भाग्य का

निर्णय हो जाता है

चाय पर, देख सुनकर

मिलकर तय हो जाते हैं

विवाह

 

चाय पॉलिटिकल

सिंबल बन गई है

जब से

चाय वाला

प्रधानमंत्री बन गया है

 

और शिष्टाचार यह है कि

वो अपमानित

महसूस करता है अब , जिसे

चाय के लिए तक न पूछा जाये

 

चाय के प्याले

बोन चाइना के हैं या

मेलेमाईन के

पोर्सलीन के या मिट्टी के कुल्हड़

ये तय करने लगे हैं

स्टेटस

 

चाय की पत्ती

आसाम की है या दार्जलिंग की

केरल की या कुन्नूर की

ग्रीन टी या व्हाइट टी

डिप टी बैग से बनी है या

उबाली गई है चाय

यह तय करती है कि

चाय कौन और क्यों पी रहा है ?

टाइम पास के लिए

मूड बनाने के लिए

कोई सम्भ्रांत ले रहा है चुस्कियां

या

थकान उतार रहा है कोई मजदूर

कट चाय पीकर

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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