हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 89 ☆ ककनमठ (उपन्यास) – पंडित छोटेलाल भारद्वाज ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  उपन्यास  “ककनमठ ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – उपन्यास – ककनमठ  # 89 ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – उपन्यास  – ककनमठ 

लेखक –  पंडित छोटेलाल भारद्वाज

पृष्ठ – 180

मूल्य – 500 रु

☆ पुस्तक चर्चा ☆ उपन्यास – ककनमठ  –  पंडित छोटेलाल भारद्वाज ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

विक्रम संवत 1015 से 1025 के मध्य काल में अद्भुत विशाल कच्छप घात राजवंश के शैव संप्रदाय में राजा कीर्तिराज और रानी कंगनावती के प्रेम की परिणीति के स्मारक के रूप में भगवान शंकर का विशाल लगभग 115 फिट ऊंचा मंदिर ककनमठ का निर्माण कराया गया था,  जो आज भी मुरैना जिले के अश्व नदी के किनारे महमूद ग़ज़नवी, अल्तमश और अन्य सिकंदर लोदी जैसे आक्रांताओं के प्रहारों को सहने के कारण क्षत-विक्षत स्वरूप में ही भले हो पर अपना गौरवशाली इतिहास समेटे हुए मीलों दूर से उच्च मीनार जैसा दिखने वाला शिल्प समुच्चय  आज भी मौजूद है । राजा कीर्तिराज और कंकण की प्रेम कहानी की अमरता का यह आध्यात्मिक  प्रतीक बना । प्रेम के आध्यात्मिक परिणीति की हमारी पुरातन संस्कृति का यह स्मारक खजुराहो, कोणार्क जैसे भव्य मंदिरों श्रृंखला में एक कम चर्चित पर पौराणिक स्थल है।

लेखक ने इस पुरातात्विक स्मारक के ऐतिहासिक मूल्यों की रक्षा  करते हुए जनश्रुतियों के आधार पर कहानी को बुना है।  सरल भाषा में यह ऐतिहासिक विषय वस्तु का उपन्यास पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है।

यह महमूद गजनवी  जैसे आक्रांता पर राजा कीर्तिराज की वीरता पूर्ण जीत का भी गवाह है। जिसके कारण गजनवी केवल लूटपाट करके ही इस क्षेत्र से भाग गया था।

उपन्यास में वर्णन के माध्यम से लेखक ने अनेक शाश्वत मूल्य को भी स्थान दिया है उदाहरण के तौर पर गुरु हृदय शिव राजा से कीर्ति राज से कहते हैं “वत्स राज्य संचालन के लिए हृदय की जिस गरिमा की आवश्यकता है वही देश की रक्षा के लिए भी आवश्यक है संकुचित है ना स्वयं की रक्षा कर पाता है और ना अपने देश की”

यह ऐतिहासिक आंचलिक कथावस्तु पर आधारित उपन्यास वीरता व प्रेम का दस्तावेज भी है, जो तब तक प्रासंगिक बना रहेगा जब तक ककनमठ के क्षतिग्रस्त अवशेष भी हमारी धरोहर बने रहेंगे।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 77 – लघुकथा – लाइक्स वाली दादी…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर विनोदपूर्ण लघुकथा  “लाईक वाली दादी….। आज सोशल मीडिया हमारे जीवन में हावी हो गया है।  हम सब  सोशल मीडिया की दुनिया में सीमित होते जा रहे हैं और आपसी मेलजोल की जगह लाइक्स और कमैंट्स लेते जा रहे हैं। इस लघुकथा के माध्यम से  सोशल मीडिया से उपजे विनोद का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘लाईक वाली दादी’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 77 ☆

? लघुकथा – लाईक वाली दादी …. ?

सकारात्मक सोच जीवन में नई ऊर्जा भर देती है। ऐसे ही कोरोना काल में पड़ोस में रहने वाली दीप्ति को बिटिया हुई। देखभाल के लिए उसके मम्मी पापा लखनऊ ले गए।

लगभग आठ महीने के बाद बच्ची को लेकर दीप्ति बहू घर आई। क्योंकि, उसकी सासु माँ का अचानक अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ। तब तक आवागमन के साधन नहीं शुरू हुए थे। घर में आना-जाना शुरु हो गया। सासु माँ की सहेलियां, पड़ोस की सभी मिलने आने लगी। बच्ची सभी को देखते ही ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती। यहां तक कि उसकी और सगी दादी को भी वह देखकर रोती थी।

मोहल्ले में चर्चा का विषय बन गया। ‘हाय बाई! कैसे देखन जाएं उसकी मोड़ी तो जाते ही रोने लगती है।’ सासू माँ की एक सहेली जिसका आना जाना तो कम होता था परंतु समय के अनुसार वह मोबाइल और फेसबुक के कारण सभी समाचार प्राप्त कर लेती थी।

वे थोड़ी आधुनिक विचार की थी। दीप्ति की शादी से लेकर डिलीवरी तक का हालचाल वह व्हाट्सएप और फेसबुक पर ही शेयर और लाइक करती। दीप्ति भी बच्ची की तस्वीर लगातार दो चार दिनों में डालती रहती। सभी में लाइक और गुड कमेंट लिखा करती थी सहेली आंटी।

वह देखने घर पहुंच गई। दीप्ति बच्ची को उस समय खाना खिला रही थी। सासु माँ बोली – “अभी ये रोना शुरु कर देगी। बात भी नहीं करने देगी।” परंतु यह क्या बच्ची तो सहेली आंटी को देखते ही खिल – खिलाकर हंसने लगी।

सभी आश्चर्य से देखने लगे। लिटाए हुए बेबी को सहेली ने गोद में उठा कर लेना चाहा। सभी ने मना किया। परंतु वह गोद में ले कर हंसते हुए स्वयं खिलखिलाती बच्ची को गोद में उठाकर कहने लगी- “इसको मालूम है मैं फेसबुक में सबसे ज्यादा लाइक करने वाली दादी हूँ। इसको भी पता है लाइक नहीं करुंगी तो???”

सभी का मुँह खुला का खुला ही रह गया। भाई साहब जो अब तक चुप थे कहने लगे- “मैं भी आज फ्रेंड रिक्वेस्ट जल्द ही भेज रहा हूँ। एक बार फिर हंसी फूट पड़ी। ??

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

व्रत टूटे तप भंग हो, किया नहीं कुछ यत्न।

बिखरे जाने किस तरह, संबंधों के रत्न ।।

 

संयम की सिल हृदय पर, भावों का उपवास।

विवश कामना पढ़ रही, आंसू का इतिहास ।।

 

नहीं रूप है आपका, नहीं वेश विन्यास ।

किंतु आपके हृदय का, बहुत बड़ा है व्यास ।।

 

नाराजी क्या आपकी, जल पर खींची लकीर।

खुश होने पर सौंप दी, सांसों की जागीर ।।

 

नखत सरीखे आप हैं, अपना धरती वास।

रेत भरी है मुट्ठियां, जुगनू सा विश्वास।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 35 – क्या कोई अधिशेष … ?☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “क्या कोई अधिशेष … ? । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 35 ।। अभिनव गीत ।।

☆ क्या कोई अधिशेष … ? ☆

डर कर छिपी किसी

चिड़िया के झीने पर में

आ बैठे जैसे उड़ान

फिर किसी नजर में

 

झुका-झुका सा लगा

चाँद का – टेढ़ा चेहरा

बाँध थका बादल का

टुकड़ा ऐसा सेहरा

 

जो न दे सका साथ

रात के किसी प्रहर में

 

खिड़की से जा सटे

पूछते सारे तारे

“क्या कोई अधिशेष

बचा है अभी हमारे-

 

खाते में, विश्वास व

उजियारा चादर में?”

 

थकी रात को,

आसमान हाथों में थामे

चिड़िया व उड़ान का

होना जिसके नामे

 

था आया वह सुबह

हमारे इसी शहर में

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-12-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 81 ☆ लघुकथा – आपदा  में  अवसर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “आपदा  में  अवसर“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 81

☆ लघुकथा – आपदा  में  अवसर ☆

राधा बाई को हाथ पैर में सूजन की शिकायत होने पर पति रामप्रसाद ने अस्पताल में भर्ती करवा दिया। कोविड के मरीजों से अस्पताल हाऊसफुल था। बेड खाली नहीं थे। एक रात जमीन पर लिटाया गया, सुबह कोरोना मरीज की मृत्यु से एक बेड खाली हुआ तो उस बिस्तर में राधा बाई को लिटा दिया गया। राधा बाई को कोरोना नहीं था पर बेड मिलने से अस्पताल के सब लोग उससे भी कोविड मरीज की तरह व्यवहार करने लगे, रात भर राधा कराहती रही और दूसरी रात राधा की मृत्यु हो गई। प्रोटोकॉल के तहत रामप्रसाद को लाश नहीं दी गई। राधा बाई की मौत किन परिस्थितियों में कब और क्यों हुई, किसी को नहीं मालूम।

बेरहम व्यवस्था ने रामप्रसाद को पत्नी की मुखाग्नि देने के अधिकार से वंचित कर दिया। एक महीने भटकने के बाद मुक्ति धाम से मिले डेथ सर्टिफिकेट में मौत की तारीख़ 25 अगस्त लिखी थी, और अस्पताल से मिले डेथ सर्टिफिकेट में मौत की तारीख़ 28 अगस्त लिखी देख रामप्रसाद को राधा पर दया आ गई, बेचारी अभागी राधा दो बार मरी, पर दोनों बार नेगेटिव रिपोर्ट के साथ मरी। प्रोटोकॉल के तहत लाश ठिकाने लगाने वाले ठेकेदार को राधा फायदा करा गई, उसे राधा के नाम पर दो बार पेमेंट हुआ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #28 ☆ पतन ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी की हकीकत बयां करती एक भावप्रवण कविता “पतन”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 28 ☆ पतन ☆ 

इस सर्द मौसम में

हमारे शरीर का खून भी

जम सा गया है

नाड़ियों  में

रक्त का प्रवाह

धीरे धीरे

थम सा गया है

अब गर्मी हो या सर्दी

धूप हो या बारिश

हमें फर्क नहीं पड़ता है

हमारा निर्जीव शरीर

अब कहां लड़ता है

आंखें पथरा सी गई है

कान सुन्न है

जिव्हा लकवाग्रस्त है

लगता है जीते जी

हमारे जीवन का सूर्य

हो रहा अस्त है

हर रोज हमारा शरीर

एक नया जख्म खा रहा है

जख्म से खून के साथ

मवाद भी

बाहर आ रहा है

हम इसे चुपचाप

सह रहे हैं

सदा की तरह

किसी से कुछ नहीं

कह रहे हैं

शायद,

हम मर तो

कब के चुके हैं

पर हमें जीवित

होने का भरम है

सांसें तो

कब की थम चुकी है

पर शरीर अब भी गरम है

हमारा जीवन मूल्यों को बचाने

यह व्यर्थ जतन है

क्योंकि,

हर पल

हर घड़ी

यहां पर

जीवन मूल्यों का

हो रहा पतन है ।

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 84 ☆ व्यंग्य – पापी आत्माओं का दुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘पापी आत्माओं का दुख‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 84 ☆

☆ व्यंग्य – पापी आत्माओं का दुख

आजकल नरक में भारी भीड़भाड़ और धक्कमधक्का है। तिल धरने की जगह नहीं है। जहाँ देखें, मर्त्यलोक से आयी आत्माओं की भीड़ ठाठें मार रही है। यमराज परेशान हैं। भीड़ को सँभालना मुश्किल हो रहा है।’ लॉ एण्ड ऑर्डर’ की समस्या हो गयी है। ख़ास वजह यह है कि मर्त्यलोक से आयी हुई पच्चानवे प्रतिशत आत्माएं नरक पहुँच रही हैं। स्वर्ग वाली लाइन में मुश्किल से दो चार लोग खड़े दिखायी देते हैं। नरक की भीड़ रोज़ बढ़ती है। मर्त्यलोक में अब पापी ही ज़्यादा बचे हैं, पुण्यवान उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। मंत्री, अफसर, कर्मचारी, व्यापारी, पंडे, महन्त, सब लाइन में लगे हैं। नरक के कर्मचारी काम बढ़ता देख क्षुब्ध हैं। उनमें असन्तोष फैलने की संभावना बन रही है।

नरक में संख्यावृद्धि का एक कारण यह भी है कि पहले ईमानदार आदमी अन्त तक ईमानदार रहता था। अब ईमानदार का ईमान चार छः साल में डगमगाने लगता है। ईमानदार आदमी की घर में भी इतनी लानत-मलामत होती है कि वह बीच में ‘कन्वर्ट’ हो जाता है। कई पुण्यवान लोग रिटायरमेंट के कगार पर आकर पलटी मार जाते हैं और अन्त में कोई लम्बा हाथ मारकर समाधि-धारण की अवस्था में आ जाते हैं।

न में खड़ी कुछ ऊँचे अफसरों की आत्माएं भारी कष्ट में हैं। उनकी शिकायत है कि उन्हें ऐसे मामूली क्लर्कों और व्यापारियों की आत्माओं के साथ एक ही लाइन में खड़ा कर दिया गया है जिनसे उन्होंने कभी सीधे मुँह बात नहीं की। उनके ख़याल से यह उनकी बेइज्ज़ती है। लेकिन वहाँ उनकी सुनने वाला कोई नहीं। अलबत्ता उनकी बात सुनकर कुछ क्लर्क कह रहे हैं कि ओहदे में वे भले ही कम रहे हों, लेकिन कमाई के मामले में वे अफसरों से कभी पीछे नहीं रहे।

नरक की लाइन में कुछ ऐसी आत्माएं भी हैं जिन्हें ज़िन्दगी भर सदाचारी और स्वर्ग का अधिकारी समझा जाता रहा। उन्हें कुछ आत्माएँ नसीहत दे रही हैं कि ज़रूर कुछ गड़बड़ हुई है `और वे आगे बढ़कर अपने रिकॉर्ड की जाँच करवा लें। लेकिन सब तथाकथित सदाचारी ठंडी आहें भरते, मुँह लटकाये खड़े हैं। कहते हैं, ‘अब रिकॉर्ड देख कर क्या करेंगे?जब महाराज जुधिष्ठिर नरक भोगने से नहीं बचे, तो हमारी क्या हस्ती। जो प्रारब्ध में लिखा है, झेलेंगे।’  उन्हें पता है कि रिकॉर्ड खुलवाने से मामला गड़बड़ हो जाएगा। यहाँ सब की कारगुज़ारियों की पक्की ‘मानिटरिंग’ होती है।

खड़े खड़े ऊबकर अनेक आत्माएँ अलग अलग गोल बनाकर बैठ गयी है और मन बहलाने के लिए गाने बजाने में लग गयी हैं। कहीं से ‘माया महा ठगिनि हम जानी’ की धुन उठ रही है तो कहीं से ‘अरे मन मूरख जनम गँवायो’ की। एक अफसर की आत्मा अलग बैठी दुखी स्वर में गुनगुना रही है—‘सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया।’

नरक का दंडविधान भी शुरू हो गया है। पापियों को अपने किये की सज़ा मिल रही है। यमराज के गण पूरी निष्ठा से अपने काम में लगे हैं।

लेकिन कुछ आत्माएँ इस सबसे तटस्थ, व्याकुल घूम रही हैं। ये कुछ नेता-टाइप आत्माएँ हैं जो किसी बात को लेकर व्यथित हैं। वे जुगाड़ में हैं कि किसी तरह यमराज तक उनकी बात पहुँच जाए और उनसे बात करने का मौका मिल जाए। बड़ी कोशिश के बाद अन्ततः उन्हें सफलता मिल गयी और यमराज तक खबर पहुँच गयी कि पन्द्रह बीस आत्माएँ अपनी ख़ास व्यथा उनके सामने रखना चाहती हैं।

यमराज आत्माओं की बात सुनने को राज़ी हो गये। बारह पन्द्रह दुखी आत्माएँ उनके सामने हाज़िर हुईं। एक आत्मा, जो किसी राजनीतिज्ञ की थी, बोली, ‘प्रभु, हम अपनी व्यथा आपके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित हुए हैं। जैसा कि आपके रिकॉर्ड से स्पष्ट है, हमने ज़िन्दगी भर पाप करके खूब दौलत बटोरी और उसी की सज़ा भोग रहे हैं। लेकिन हमारा हृदय यह देखकर विदीर्ण हुआ जा रहा है कि जिस दौलत के लिए हम पापी बने और नरक की सज़ा पायी, उसी दौलत के बल पर हमारे सपूत ऐश कर रहे हैं और गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। प्रभु, यह कैसा अन्याय है कि जिस दौलत के लिए हमें सज़ा मिली उसी का हमारे वंशधर सुख लूट रहे हैं। हम यह कैसे बर्दाश्त करें?’

एक आत्मा मर्त्यलोक की ओर इशारा करके बोली, ‘देखिए, देखिए, अभी हमें रुख्सत हुए महीना भर भी नहीं हुआ और हमारे बड़े सपूत पेरिस पहुँचकर वहाँ नाइट क्लब में बिराजे हैं। सामने मँहगी दारू का जाम रखा है। और उधर हमारे दूसरे नंबर के सपूत फाइवस्टार होटल में दोस्तों के साथ बोतल खोले बैठे हैं। तीसरा जो है वह कोई ड्रग लेकर अपने बिस्तर पर बेहोश पड़ा है। प्रभु, क्या इसीलिए हमने पाप करके दौलत कमायी थी?’

यमराज ने लाचारी में सिर हिलाया, कहा, ‘हे पापी आत्माओ,हम इसमें क्या कर सकते हैं?आपकी दौलत का अन्ततः यही हश्र होना था। जब आपके वंशज यहाँ आएंगे तब उनका भी खाता देखा जाएगा। उन्हें भी उनके कर्मों का परिणाम भोगना होगा।’

नेताजी बोले, ‘प्रभु, हम एक विशेष निवेदन करने आये हैं। हमारा निवेदन यह है कि चूँकि हमारी सारी दौलत हमारी कमायी है इसलिए उसका ट्रांसफर यहीं एक बैंक बनाकर कर दिया जाए। अब तो मर्त्यलोक में भी आसानी से मनी ट्रांसफर हो जाता है।’

यमराज हँसे,बोले, ‘यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। फिर यहाँ आपकी मुद्रा का कोई उपयोग नहीं है।’

नेताजी बोले, ‘उपयोग भले ही न हो, लेकिन हमारी आँख के सामने तो रहेगी। कम से कम दूसरे उसे उड़ायेंगे तो नहीं।’

यमराज बोले, ‘यदि आपको अपनी दौलत अपने वंशजों को नहीं देनी थी तो उसे किसी ज़रूरतमन्द व्यक्ति या संस्था को दान कर देते।’

नेताजी ने लम्बी आह भरी,बोले, ‘यह मुश्किल था। ज़िन्दगी भर की पाप की कमाई किसी को देने में हमारा कलेजा न फट जाता?’

यमराज बोले, ‘अब धन-संपत्ति को भूल जाइए। सब माया है। अन्त में धन संपत्ति किसी के काम नहीं आती। इतना तो अब आप समझ ही गये होंगे।’

नेताजी और दुखी होकर बोले, ‘हमारे निवेदन को इतनी सरलता से मत टालिए, प्रभु। हम सचमुच बहुत संतप्त हैं। यदि आप हमारे पैसे को यहाँ नहीं मँगवा सकते तो हमारा सुझाव है कि जिस प्रकार सत्यनारायण की कथा का प्रसाद ग्रहण न करने के कारण साधु बानिया की सारी संपत्ति लता-पत्र में बदल गयी थी, उसी तरह हमारी सारी संपत्ति भी लता-पत्र में बदल दें। वह हमारे काम भले ही न आये, कम से कम हमारे सुपुत्र बिगड़ने से बच जाएंगे।’

यमराज हँसकर बोले, ‘हम आपकी बात पर विचार करेंगे। फिलहाल आपकी दंड- प्रक्रिया का दूसरा सत्र शुरू हो गया है। कृपया वहाँ पधारें और अपने पापों का प्रायश्चित करें।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 83 ☆ अंगद का पाँव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 83 ☆ अंगद का पाँव ☆

प्रातः भ्रमण के बाद कुछ समय के लिये उद्यान में बैठा। दृष्टि उठाकर देखा तो स्वयं को डेकोरेटिव प्रजाति के दो-चार पेड़ों से घिरा पाया। चिकनी-चुपड़ी छाल, आसमान छूने की जल्दबाज लोलुपता, किसी के काम न आनेवाली ऊँची टहनियाँ, धरती के भीतर जाकर अधिकाधिक जल अवशोषित करने को आतुर जड़ें, अपनी ही सूखी डाल को खटाक से नीचे फेंक देनेवाला पेड़। देखा कि इस पेड़ से निर्वासित सूखी डालियाँ भी दूसरे पेड़ों की डालियों पर आसन जमाये बैठी हैं।

विचार उठा कि साहित्य हो या राजनीति, ब्यूरोक्रेसी या कोई अन्य सार्वजनिक क्षेत्र, मनुष्य के भीतर भी एक डेकोरेटिव प्रजाति है जो निरंतर फलती-फूलती जा रहा है। साम, दाम, दंड या भेद से येन केन प्रकारेण सारा कुछ अवशोषित करने की स्वार्थलोलुप प्रवृत्ति वाली प्रजाति। दुर्भाग्य यह कि आजकल इसी प्रजाति एवं प्रवृत्ति का रोपण तथा विकास किया जाता है। मन खिन्न हो गया।

खिन्न विचारों की सुस्त धारा में एकाएक उमंग की कुछ लहरें उठने लगीं। एक बुजुर्ग महिला आती दिखीं। कुछ दूर खड़े पीपल की जड़ों में उन्होंने एक लोटा जल अर्पित किया। फिर दीया चासा। प्रज्ज्वलित दीपक से उठती लौ ने मानो नयी दृष्टि दी। दृष्टि आगे बढ़ी तो मन्नत के धागों से लिपटा किसी ऋषि-सा वटवृक्ष खड़ा था।…और विस्तार किया तो पाया कि उद्यान की सीमा पर विशालकाय नीम पहरा दे रहे हैं। सघन पेड़ों में अपने घरौंदे बनाये बैठे पंछियों के स्वर अब कानों में अमृत घोल रहे हैं।

सीमित आयु वाले निरुपयोगी डेकोरेटिव या सैकड़ों वर्ष की आयु वाले पीपल, बरगद, नीम! मनुष्य के पास विकल्प है- अस्थायी दिखावटी चमक से इतराने या चराचर के लिए घनी छाया देकर प्रकृति की स्मृति में अंगद के पाँव-सा डटने का।…सदा की तरह अंतिम बात, अपने विकल्प का चयन स्वयं करो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 39 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 39 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 39) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 39☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

इश्क था इसलिए

सिर्फ तुझसे किया,

फरेब  होता  तो

सबसे किया होता…

 

It  was  love, that’s why

Just  did  it  with  you  only ,

If it was a fraud, then would

have done it with everyone!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मेरे  दिल से निकलने का

रास्ता भी ना ढूंढ पाये वो…

और कहते थे कि तेरी

रग-रग से वाकिफ हैं हम…

 

Could not even find a way

To come out of my heart…

Who used to claim to be

Knowing me inside out…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

गिरते रहे सजदों में हम

अपनी ही हसरतों की ख़ातिर

इश्क़ ए ख़ुदा में गिरे होते तो

कोई हसरत ही बाक़ी ना रहती..

 

Kept on falling in  prostration

For the sake  of own  desires

Had only fallen in love of God

No desires would ever be left

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

पैर में कांटा क्या चुभा,

ये तस्सली सी बंध गई

कि इस अनजान गली में,

ज़रूर कोई  गुलाब  होगा…

 

With a prick of thorn in foot,

it was more of tranquil relief

That, of course, in this street,

There must be living a rose..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 40 ☆ पुस्तक चर्चा – जिजीविषा (कहानी संग्रह) – डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा  पुस्तक चर्चा  ‘जिजीविषा (कहानी संग्रह) – डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 40 ☆ 

☆ ☆ पुस्तक चर्चा – जिजीविषा (कहानी संग्रह) – डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव ☆ 

[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]

जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।

सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का  अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती।

जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों – घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- ‘इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।’

जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

‘पुनर्नवा’ की कादम्बिनी और नव्या, ‘स्वयंसिद्धा’ की निरमला, ‘ऊष्मा अपनत्व की’ की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। ‘कक्का जू’ का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती  ‘खामियाज़ा’ कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम  उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में  सामने आता है। ‘बीरबहूटी’ जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। ‘या अल्लाह’ पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। ‘प्रीती पुरातन लखइ न कोई’ के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है।

संग्रह की शीर्षक कथा ‘जिजीविषा’ कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं।

सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द  भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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