हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 76 – लघुकथा – लाल पालक…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “लाल पालक….। अपार्टमेंट्स  के परिवार प्रत्येक पर्व घर के पर्व जैसे मिल जुलकर मनाते हैं।  इस लघुकथा के माध्यम से रोजमर्रा की जिंदगी  के बीच उत्सव के माहौल का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 76 ☆

? लघुकथा – लाल पालक …. ?

गणतंत्र दिवस के लिए अपार्टमेंट सज रहा हैं ।

अपार्टमेंट का बड़ा सुंदर नजारा रहता है और वह भी जहां लगभग चालिस  परिवार एक ही छत के नीचे फ्लैटों में रहते हैं।

एक पूरा परिवार बन चुका होता है। सुबह हुआ कि अलग-अलग पेपर वाले, दूध वाले, हार्न बजाते कोई मोबाइल में गाना बजाते और कामवाली बाईयों का आना-जाना।

बस इन सभी के बीच लगातार रद्दी वालों की आवाज वह भी नहीं चूका आने के लिए!! कोई आ रहा कोई जा रहा।

बच्चों की टोली धूप में क्रिकेट खेल रही कुछ बच्चे मोबाइल कान में लगाए छत पर धूप सेंकते नजर आते। कुछ पढ़ाई करते भी दिख जाते हैं।

साथ साथ बड़े बूढ़ों की हिदायत भी चलती रहती है। कहीं पेपर पढ़ रहे हैं। कहीं सब्जी भाजी लिया जा रहा है। कुल मिलाकर बहुत सुंदर माहौल रहता है।

जया कामवाली बाई। बहुत बात करती है। माता – पिता की गरीबी की वजह से किश्चन से शादी कर ईसाई धर्म अपना ली हैं। और बातें भी “आता है” “जाता है” करती है। अपार्टमेंट में एक रिटायर्ड अफसर के यहाँ काम करती है।

सब्जी वाला अपार्टमेंट के अंदर जैसे ही आया उसने आवाज लगाईं।  झाड़ू हाथ में लेकर जया बाहर निकली। बालकनी से सीधा झाड़ू लिए ही बोली “हरी पालक है क्या?”

सब्जी वाला कुछ परेशान था। (पता चला रात में कोई बीमार चल रहा था उसके घर) उसने जोर से बोला… “नहीं पीली पालक हैं चाहिए क्या??”

इतना सुनना था, आजू-बाजू की बालकनी से सभी के खिलखिलाने की आवाज जोर हो गई। “उडा़ लो हंसी” गुस्से से जया लाल पीली हो गई और भुनभुनाते जाने लगी।

गणतंत्र दिवस के लिए मानू बिटिया के साथ कुछ बच्चे अपार्टमेंट्स सजा रहे थे।

बिटिया ने हंसकर कहा.. “जया आंटी गुस्सा मत करो हरी पालक, पीली पालक और जब वह बनेगा तो उसका रंग लाल होगा। यही तो पालक का गुण है।”

जया भी हाँ में हाँ मिलाने लगी। सच ही तो है। आखिर पालक खून भी तो बढाता है।

एक बार फिर जया के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। जय जय जया की लाल पालक!!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 82 ☆ भिती ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 82 ☆

☆ भिती ☆

मला सूर्याची भिती वाटते

आग ओकत असतो डोक्यावर

पत्र्याच्या घरात जीव घाबरतो

बाहेर सावलीला जावं तर

झाडांची बेसुमार कत्तल झालेली

कुठल्याही लढाईखेरीज

आणि कत्तल करणारे पहुडलेल

एसी लावून गादीवर…

उष्माघाताने जीव जातात

तुमच्या माझ्यासारख्यांचे

आणि सूर्याला त्याचं देणं घेणंही नसतं…

 

तशीच ही थंडी, कुठून येते ते कळतच नाही

वाजते पण आवाज करत नाही

घरात हिटर आहे ना ?

मग काळजी कशाची ?

बाहेर थंडीत कुडकुडणाऱ्यांची काळजी करायला

परमेश्वर आहेच ना !

कधीकधी परमेश्वर, दानशूराच्या रुपात

वाटतो गरिबांना, काही शाली काही ब्लँकेट्स

तरी मरतातच काही कुडकुडून

या थंडीच्या त्रासदीने…

 

पाणी घुसतं झोपडपट्यांमधे

चाळीत आणि बंगल्यात सुद्धा

सुनामीच्या लाटा उध्वस्त करतात किनारे

वाहू लागतात निर्जीव वाहनांसोबत

प्राणी आणि माणसं सुद्धा

कशासाठी हा कोप, कशासाठी हे तांडव

अरे जीव जगवण्यासाठी हवी

थोडी मायेची उब,

तहान लागली तर घोटभर पाणी आणि

प्रसन्न राहण्यासाठी छान गुलाबी थंडी…

पण किती या दुःखाच्या डागण्या

फक्त सुखाची किंमत कळण्यासाठी…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

कुछ भी रचता है नहीं, यह कैसा है दौर ।

नाम बहुत से ले लिए, मन कहता है और ।।

 

जूठन खाकर आपने, किया बड़ा अहसान ।

मुझे बनाया भीलनी, आप बने भगवान।।

 

ऐसा था सोचा नहीं, किया नहीं  अहसास ।

सागर ने भी कंठ में, जमा रखी है प्यास।।

 

सफर बहुत ही कम हुआ, छुआ न कोई छोर।

गर चाहे तो खींच ले, कठपुतली की डोर।।

 

है विशेष क्या मानना, शब्द हुए असमर्थ।

शायद वे भी सोचते, कहना भी है व्यर्थ।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 34 – सभी अधूरी इच्छायें …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “सभी अधूरी इच्छायें… । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 34 ।। अभिनव गीत ।।

☆ सभी अधूरी इच्छायें … ☆

वह विस्थापित हँसी

पोपले मुँह में थी अटकी

जहाँ झुर्रियों को टटोलती

उम्र दिखी लटकी

 

सभी अधूरी इच्छायें

आँखों के गिर्द खड़ीं

संवेदन के साथ याद-

की थीं पंक्तियाँ बडीं

 

फिसल-फिसल जाती है

हाथों से, हिसाब ढोती

छड़ी स्वयम्‌ शब्दार्थ

खोजती, है भटकी-भटकी

 

रहे-सहे बालों से उलझे

वायुजनित झोंके

जहाँ याद आते हैं

रह-रह बीत चुके मौके

 

जो मूरत भविष्य की

गढ़ कर बड़े हुये सपने

वहीं लग रही समय गये

है वह चटकी- चटकी

 

इसी असंभव के विरुद्ध

जीवन भर लड़ा किये

और अँधेरों में बाले हैं

लाखों-लाख दिये

 

पड़े चारपाई पर बाकी

दिन गिनते-गिनते

जिसे देखने बेटे क्या

छाया तक ना फटकी

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-12-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 3☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए चार भागों में क्रमबद्ध प्रस्तुत है पराक्रम दिवस के अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का विशेष  ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणास्पद आलेख महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस। )  

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☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 3 ☆

(केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है– संजय भारद्वाज )

फरवरी 1942 में जापान ने सिंगापुर को युद्ध में परास्त कर दिया। स्थिति को भांपकर नेताजी ने 15 फरवरी 1942 को आजाद हिंद रेडिओ के माध्यम से ब्रिटेन के विरुद्ध सीधे युद्ध की घोषणा कर दी। द्वितीय विश्वयुद्ध में धुरिराष्ट्र, मित्र राष्ट्रों पर भारी पड़ रहे थे। पर 22 जून 1941 को जर्मनी ने अकस्मात् अपने ही साथी सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। यहीं से द्वितीय विश्वयुद्ध का सारा समीकरण बिगड़ गया। एक नीति के तहत सोवियत संघ युद्ध को शीतॠतु में होनेवाले नियमित हिमपात तक खींच ले गया। स्थानीय स्तर पर सोवियत सैनिक हिमपात में भी लड़ सकने में माहिर थे, पर जर्मनों के लिए यह अनपेक्षित स्थिति थी। फलतः नाजी सेना पीछे हटने को विवश हो गई।

बदली हुई परिस्थितियों में जर्मनी द्वारा विशेष सहायता मिलते न देख नेताजी ने जर्मनी छोड़ने का निर्णय किया। वे बेहतर समझते थे कि भारत को मुक्त कराने का यह ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ का समय है।

नेताजी ने अब जापान से सम्पर्क किया। उनकी जर्मनी से जापान की यात्रा किसी चमत्कार से कम नहीं थी। संकल्प और साहस की यह अदम्य गाथा है। नेताजी 9 फरवरी 1943 को जर्मनी के किएल से जर्मन पनडुब्बी यू-180 से गुप्त रूप से रवाना हुए। यू-180 ने शत्रु राष्ट्र ग्रेट ब्रिटेन के समुद्र में अंदर ही अंदर चक्कर लगाकर अटलांटिक महासागर में प्रवेश किया। उधर जापानी पनडुब्बी आई-29 मलेशिया के निकट पेनांग द्वीप से 20 अप्रैल 1943 को रवाना की गई। 26 अप्रैल 1943 को मेडागास्कर में समुद्र के गहरे भीतर दोनों पनडुब्बियां पहुँची। संकेतों के आदान-प्रदान और सुरक्षा सुनिश्चित कर लेने के बाद 28 अप्रैल 1943 को रबर की एक नौका पर सवार होकर नेताजी तेजी से जापानी पनडुब्बी में पहुँचे। जर्मनी से जापान की यह यात्रा पूरी होने में 90 दिन लगे। साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध में एक पनडुब्बी से दूसरी पनडुब्बी में किसी यात्री के स्थानातंरण की यह विश्व की एकमात्र घटना है।

जापान में नेताजी, वहाँ के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो से मिले। तोजो उनके व्यक्तित्व, दृष्टि और प्रखर राष्ट्रवाद से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने नेताजी का विशेष भाषाण जापान की संसद ‘डायट’ के सामने रखवाया।

जापान में ही वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी रासबिहारी बोस भारतीय स्वाधीनता परिषद चलाते थे। रासबिहारी ने सुभाषबाबू से मिलकर उनसे परिषद का नेतृत्व करने का आग्रह किया। 27 जून 1943 को दोनों तोक्यो से सिंगापुर पहुँचे। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के फरेर पार्क में हुई विशाल जनसभा में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वाधीनता परिषद (आई.आई.एल.) का नेतृत्व नेताजी को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री तोजो भी यहाँ आई.आई.एल.की परेड देखने पहुँचे थे। यहीं आजाद हिन्द फौज की कमान भी विधिवत नेताजी को सौंपने की घोषणा हुई। कहा जाता है कि इस जनसभा में जो फूलमालाएं नेताजी को पहनाई गईं, वे करीब एक ट्रक भर हो गई थीं। इन फूल मालाओं की नीलामी से लगभग पचीस करोड़ की राशि अर्जित हुई। विश्व के इतिहास में किसी नेता को पहनाई गई मालाओं की नीलामी से मिली यह सर्वोच्च राशि है।

इस सभा में अपने प्रेरक भाषण में नेताजी ने कहा- ‘भारत की आजादी की सेना के सैनिकों !…आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। प्रसन्न नियति ने मुझे विश्व के सामने यह घोषणा करने का सुअवसर और सम्मान प्रदान किया है कि भारत की आजादी की सेना बन चुकी है। यह सेना आज सिंगापुर की युद्धभूमि पर-जो कि कभी ब्रिटिश साम्राज्य का गढ़ हुआ करता था- तैयार खड़ी है।…

एक समय लोग सोचते थे कि जिस साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता, वह सदा कायम रहेगा। ऐसी किसी सोच से मैं कभी विचलित नहीं हुआ। इतिहास ने मुझे सिखाया है कि हर साम्राज्य का निश्चित रूप से पतन और ध्वंस होता है। और फिर, मैंने अपनी आँखों से उन शहरों और किलों को देखा है, जो गुजरे जमाने के साम्राज्यों के गढ़ हुआ करते थे, मगर उन्हीं की कब्र बन गए। आज ब्रिटिश साम्राज्य की इस कब्र पर खड़े होकर एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य अब एक बीती हुई बात है।…

मैं नहीं जानता कि आजादी की इस लड़ाई में हममें से कौन-कौन जीवित बचेगा। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अन्त में हम लोग जीतेंगे और हमारा काम तब तक खत्म नहीं होता, जब तक कि हममें से जीवित बचे नायक ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दूसरी कब्रगाह-पुरानी दिल्ली के लालकिला में विजय परेड नहीं कर लेते।…

जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा, आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। गुलाम के लिए इससे बड़े गर्व, इससे ऊँचे सम्मान की बात और क्या हो सकती है कि वह आजादी की सेना का पहला सिपाही बने। मगर इस सम्मान के साथ बड़ी जिम्मेदारियाँ भी उसी अनुपात में जुड़ी हुई हैं और मुझे इसका गहराई से अहसास है। मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि अँधेरे और प्रकाश में, दुःख और खुशी में, कष्ट और विजय में मैं आपके साथ रहूँगा। आज इस वक्त में आपको कुछ नहीं दे सकता सिवाय भूख, प्यास, कष्ट, जबरन कूच और मौत के। लेकिन अगर आप जीवन और मृत्यु में मेरा अनुसरण करते हैं, जैसाकि मुझे यकीन है आप करेंगे, मैं आपको विजय और आजादी की ओर ले चलूँगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश को आजाद देखने के लिए हममें से कौन जीवित बचता है। इतना काफी है कि भारत आजाद हो और हम उसे आजाद करने के लिए अपना सबकुछ दे दें। ईश्वर हमारी सेना को आशीर्वाद दे और होनेवाली लड़ाई में हमें विजयी बनाए।… इंकलाब जिन्दाबाद!…आजाद हिन्द जिन्दाबाद!’

क्रमशः … भाग – 4

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 80 ☆ व्यंग्य कविता – आटा, डाटा और टाटा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  कविता “आटा, डाटा और टाटा“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 80

☆ व्यंग्य कविता – आटा, डाटा और टाटा☆

देखिए एक रोटी का आटा

गरीब का,

जियो जी भर कर दे रही डाटा

अमीर का,

देखिए हो रहा है ये घाटा

जनता का,

देखिए कर रहे हैं आंटा-सांटा

नेताओं का,

देखिए हर दम मिले चांटा

बाबाओं का,

देखिए मंत्री कर रहे हैं टाटा

हर काम का,

देखिए हो रहा है ये घाटा

अपने देश का,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 34 ☆ माझीया प्रियाला प्रीत कळेना… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 34 ☆ 

☆ माझीया प्रियाला प्रीत कळेना… ☆

 

माझीया प्रियाला प्रीत कळेना

मज तया वांचून रहावेना

काहीच काम करवेना…

 

माझीया प्रियाला प्रीत कळेना

व्याकुळ मन, भान हरपले

त्याने माझी चित्त चोरले…

 

माझीया प्रियाला प्रीत कळेना

दिवस माझा, जाता जाईना

आता काहीच, बोलवेना…

 

माझीया प्रियाला प्रीत कळेना

शब्दाला आकार येईना

डोळ्यातील नीर, थांबेना…

 

माझीया प्रियाला प्रीत कळेना

अबोल भावना, काळ क्षेपवेना

अन्यत्र लक्ष, कसेच लागेना…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 13 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 13 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

सौ.अंजली गोखले 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

प्रात्यक्षिक परीक्षेची माझी तयारी जोमाने सुरु होती.  माझी त्या  बद्दलची मनातली भीती ही पूर्ण निघून गेली. केव्हा एकदा परीक्षक येतात आणि माझी परीक्षा घेतात याची मला उत्सुकता लागून राहिली.

मनामध्ये लेखी परीक्षेची मात्र धाकधूक होतीच. आत्तापर्यंत पूर्ण दृष्टी गेल्यानंतर चौथी ते बीए पर्यंतच्या सगळ्या परीक्षा मी खालच्या वर्गातील लेखनिक अर्थात रायटरच्या मदतीने यशस्वीपणे पार पाडल्या होत्या. आता मात्र एम ए या परीक्षेसाठी असणारा अभ्यास, हा वरच्या पातळीवरचा होता. त्यासाठी मला संदर्भग्रंथ ही वाचून घ्यावे लागणार होते. त्यासाठी रोज दुपारी गोखले काकून बरोबर तीन ते साडेचार पर्यंत जोरदार वाचन सुरू झाले होते. आमची खरी कसरत होती ती तत्त्वज्ञानाचे गाढे, जाडजूड पुस्तक वाचताना आणि ऐकताना. त्यामधली गूढ तत्वे, अवघड विचार बोजड नावे आणि त्यातल्या संकल्पना मधली जटिलता डोक्यात लवकर शिरू शकत नव्हती. आम्हाला हे जड जाते,  लवकर लक्षात येत नाही हे समजल्यावर आम्हा दोघींनाही हसू येत होते. पण नेटाने वाचन मात्र आम्ही सुरुच ठेवले. हा किचकट अभ्यास सुरू असताना अधेमधे कधी आई,  तर कधी बाबा आम्हाला वेलची घातलेला चहा, आल घातलेलं थंडगार लिंबू सरबत देऊन आम्हाला उत्साही करत असत. गोखले काकू जेव्हा वाचन करत असत, त्यावेळी मी माझ्या टेप रेकॉर्ड वर त्याच्या कॅसेट्स बनवून घेत असे आणि मला वेळ मिळाल्यावर ते ऐकून माझ्या मेंदूमध्ये मी सेव्ह करून ठेवत होते. असा सगळ्या विषयांचा माझा अभ्यास वेग घेत होता.

टी म वी म्हणजे ज्या विद्यापीठाचे परीक्षा देत होते त्यांचेही सहकार्य मला खूप लाभले होते. पेपर मध्ये प्रश्नांचा अंदाज येण्यासाठी, मी फोन करून आधीच्या परीक्षांचे पेपर्स मागवून घेत असे.  ते हि ते लगेच पाठवून देत. थोड्या वेळ झाला तरी माझा फोन लगेच गेलाच म्हणून समजा. त्यांनाही माझा आवाज ओळखीचा झाला होता. मी पूर्ण अंध असूनही स्वतः फोन करते याचे कौतुक वाटून ते मला त्वरित मदत करत असत.

प्रत्यक्ष परीक्षा देण्याकरता, मला रायटर ची जुळवाजुळव आधीच करून ठेवावी लागणार होती. मला लेखनिक असा हवा होता की त्याचे अक्षर चांगले असेल, जो मी  सांगितल्या सांगितल्या त्याच वेगाने भरभर लिहून काढेल. तो किंवा ती माझ्यापेक्षा वयाने आणि शिक्षणाने लहान असेल. परमेश्वर कृपेने श्रद्धा म्हस्कर नावाची मुलगी मला भेटली, माझी मैत्रीण झाली आणि तिने माझे पेपर्स, माझ्या मनाप्रमाणे उत्तम तऱ्हेने लिहून काढले. लेखी परीक्षा अशी कडक होती ज्यामध्ये मी आणि श्रद्धा हॉलमध्ये दोघीच असू आणि परीक्षक आमच्या मागेच बसलेले असत. मी सांगते ती प्रत्येक ओळ न् ओळ, शब्दन शब्द श्रद्धा लिहिते ना,  आणखी दुसरे काही वाचत तर नाही ना,  यावर त्यांची कडक नजर असे. अशा तऱ्हेने माझी.  प्रात्यक्षिक आणि लेखी परीक्षा उत्तम रित्या पार पडली.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 83 ☆ व्यंग्य – लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी  ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी  ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 83 ☆

☆ व्यंग्य – लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी

बैंक के वरिष्ठ क्लर्क लफड़े बाबू के यहाँ सबेरे से ही गहमागहमी है। बरामदे में आठ दस कुर्सियाँ डाल दी गयी हैं। दोस्त-रिश्तेदार सहानुभूति जताने और लफड़े बाबू के डिपार्टमेंट को कोसने के लिए बारी बारी से आकर उन पर बैठ रहे हैं। बीच में चेहरे पर भारी शिकायत का भाव लिये खुद लफड़े बाबू विराजमान हैं।

वजह यह थी कि लफड़े बाबू पिछले दिन बैंक में पैसों की हेराफेरी करने के मामले में सस्पेंड कर दिये गये थे। कुछ खातों में बरसों से जमाकर्ताओं के लाखों रुपये पड़े थे जिन्हें निकालने कोई नहीं आ रहा था। लफड़े बाबू से पैसों का यह दुरुपयोग नहीं देखा गया, सो उन्होंने अपने बीस पचीस साल के अनुभव का सदुपयोग करते हुए उस पैसे को निकाल लिया और उसे प्रत्यक्ष रूप से अपने विकास में और परोक्ष रूप से देश के विकास में लगा दिया। यह काम धीरे धीरे तीन चार साल में संपन्न हुआ, लेकिन कुछ विघ्नसंतोषी लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया और लफड़े बाबू खामखां सस्पेंड हो गये।

अब लफड़े बाबू हर आने वाले के सामने कैफ़ियत दे रहे थे—-‘ज़माना खराब है। सही काम का गलत नतीजा निकलता है। ठीक है, हमने हेराफेरी की। लेकिन हमारी नीयत और हमारा इरादा तो देखिए। लाखों रुपये बेमतलब खाते में पड़े हैं। कोई धनी-धोरी नहीं। हमने सोचा इस बेकार पड़े पैसे को किसी काम में लगा दिया जाए तो क्या गलत किया?आखिर उससे चार आदमियों को धंधा रोजगार मिला। उनका भला हुआ। बताइए क्या गलत किया?’

सामने बैठे शुभचिन्तक सहमति में सिर हिलाते हैं।

लफड़े बाबू दुख और शिकायत के भाव से कहते हैं, ‘पचीस साल की सर्विस पर एक मिनट में पानी फेर दिया। ठीक है, आप एक्शन लीजिए, लेकिन आदमी की पोज़ीशन और उसकी सीनियरिटी पर भी गौर कीजिए। गधे घोड़े सब बराबर कर दिये। आज आखिर मेरी क्या इज्ज़त रह गयी स्टाफ के सामने? अखबार वालों को देखिए, वे अलग मज़ा लेने में लगे हैं।’

शुभचिन्तक फिर सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘ठीक कहते हैं। बहुत गलत हुआ। बड़ा अन्याय है। ‘

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘डिपार्टमेंट वालों को भी क्या दोष दें। ये जो सब कायदे कानून हैं, सब बाबा आदम के ज़माने के बने हुए हैं। आदमी का कसूर देखा और छपी छपाई सज़ा दे दी। अब ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया तो ये नियम कायदे भी बदलना चाहिए। अगर आदमी हेराफेरी कर रहा है तो यह देखना चाहिए कि उसका इरादा और उद्देश क्या है। अगर इरादा अच्छा है तो सज़ा की क्या तुक है? लेकिन सब लकीर के फकीर हैं, पढ़े-लिखे मूरख। इनको कैसे समझाया जाए? हमारी सारी पोज़ीशन एक मिनट में धो कर धर दी।

‘डिपार्टमेंट कहता तो हम एक मिनट में सारा पैसा लौटा देते। जब कर नहीं तो डर काहे का? लेकिन कुछ समझना-पूछना ही नहीं है तो हम क्या करें भई?’
हमदर्द फिर सहानुभूति में सिर हिलाते हैं।

लफड़े बाबू फिर दुखी हो जाते हैं। कहते हैं, ‘सब कुछ ऐसा बढ़िया चल रहा था। खामखां लोगों ने परेशानी पैदा कर दी। यह सब कारस्तानी उस मिचके बाबू की है।’
हमदर्द पूछते हैं, ‘कौन मिचके बाबू?’

लफड़े बाबू जवाब देते हैं, ‘है एक। चश्मे के पीछे आँखें मिचकाता रहता है, इसलिए सब मिचके बाबू कहते हैं। अपने को बड़ा ईमानदार समझता है। जब देखो तब फाइलों में घुसा रहता है। एक फाइल से निकलेगा, दूसरी में घुस जाएगा। उसी की करतूत है। उसी ने फाइलों में घुसकर हमें फँसाया है।’

शुभचिन्तक कहते हैं, ‘बड़ा गड़बड़ आदमी है। आपको बेमतलब चक्कर में डाल दिया।’

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘बड़ा घटिया आदमी है। इसी ने भिंगे बाबू को भी फँसाया था। बेचारे आठ-दस साल से धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा पैसा खा रहे थे। किसी को हवा नहीं थी, लेकिन इसने सूँघ लिया और सीधे-सादे आदमी का कैरियर चौपट कर दिया। बेचारे को जेल हो गयी। अंधेर है।’

शुभचिन्तक फिर अपनी सहमति जताते हैं।

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘इस आदमी को ठीक ज़रूर करूँगा। साले का हुलिया बिगाड़ दूँगा। ज़रा इस मामले से बरी हो जाऊँ फिर देखता हूँ। बना बनाया कैरियर बिगाड़ दिया।’

शुभचिन्तक विदा लेने के लिए खड़े होते हैं। हाथ जोड़ते हुए कहते हैं, ‘यह आपकी परीक्षा की घड़ी है, लफड़े बाबू। आप इससे तप कर, सोना बनकर निकलेंगे, ऐसा हमारा पक्का विश्वास है।’

लफड़े बाबू भी हाथ जोड़ते हैं, कहते हैं, ‘हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद। इस परीक्षा से मैं निश्चय ही तप कर, बेहतर बन कर निकलूँगा। आप देखना, इससे मेरी पर्सनैलिटी में और निखार आएगा। जो होता है, अच्छे के लिए होता है। अपनी नीयत ठीक रखना चाहिए।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 82 ☆ अपरिग्रह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 82 ☆ अपरिग्रह ☆

नये वर्ष के आरंभिक दिवस हैं। एक चित्र प्राय: देखने को मिलता है। कोई परिचित  डायरी दे जाता है। प्राप्त करनेवाले को याद आता है कि बीते वर्षों की कुछ डायरियाँ ज्यों की त्यों कोरी की कोरी पड़ी हैं। लपेटे हुए कुछ कैलेंडर भी हैं। डायरी, कैलेंडर जो कभी प्रयोग ही नहीं हुए। ऐसा भी नहीं है कि यह चित्र किसी एक घर का ही है। कम या अधिक आकार में हर घर में यह चित्र मौज़ूद है।

मनुष्य से अपेक्षित है अपरिग्रह। मनुष्य ने ‘बाई डिफॉल्ट’ स्वीकार कर लिया अनावश्यक  संचय। जो अपने लिये भार बन जाये वह कैसा संचय?

विपरीत ध्रुव की दो घटनायें स्मरण हो आईं। हाउसिंग सोसायटी के सामने की सड़क पर रात दो बजे के लगभग दूध की थैलियाँ ले जा रहा ट्रक पेड़ से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। भय से ड्राइवर भाग खड़ा हुआ। आवाज़ इतनी प्रचंड हुई कि आसपास के 500 मीटर के दायरे में रहनेवाले लोग जाग गये। आवाज़ से उपजे भय के वश कुत्ते भौंकने लगे। देखते-देखते इतनी रात गये भी भीड़ लग गयी।  सड़क दूध की फटी थैलियों से पट गयी थी। दूध बह रहा था। कुछ समय पूर्व भौंकने वाले चौपाये अब दूध का आस्वाद लेने में व्यस्त थे और दोपाये साबुत बची दूध की थैलियाँ हासिल करने की होड़ में लगे थे। जिन घरों में रोज़ाना आधा लीटर दूध ख़रीदा जाता है, वे भी चार, छह, आठ जितना लीटर हाथ लग जाये, बटोर लेना चाहते थे। जानते थे कि दूध नाशवान है, टिकेगा नहीं पर भीतर टिक कर बैठा लोभ, अनावश्यक संचय से मुक्त होने दे, तब तो हाथ रुके!

खिन्न मन दूसरे ध्रुव पर चला जाता है। सर्दी के दिन हैं। देर रात फुटपाथ पर घूम-घूमकर ज़रूरतमंदों को यथाशक्ति कंबल बाँटने का काम अपनी संस्था के माध्यम से हम करते रहे हैं। उस वर्ष भी मित्र की गाड़ी में कंबल भरकर निकले थे। लगभग आधी रात का समय था। एक अस्पताल की सामने की गली में दाहिने ओर के फुटपाथ पर एक माई बैठी दिखी। एक स्वयंसेवक से उन्हें एक कंबल देकर आने के लिए कहा। आश्चर्य! माई ने कंबल लेने से इंकार कर दिया। आश्चर्य के निराकरण की इच्छा ने मुझे सड़क का डिवाइडर पार करके उनके सामने खड़ा कर दिया था। ध्यान से देखा। लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था। संभवत: किसी मध्यम परिवार से संबंधित जिन्होंने जाने किस विवशता में फुटपाथ की शरण ले रखी है।… ‘माई! आपने कंबल नहीं लिया?’ वे स्मित हँसी। अपने सामान की ओर इशारा करते हुए साफ भाषा में स्नेह से बोलीं, ‘बेटा! मेरे पास दो कंबल हैं। मेरा जीवन इनसे कट जायेगा। ज़्यादा किसलिये रखूँ? इसी सामान का बोझ मुझसे नहीं उठता, एक कंबल का बोझ और क्यों बढ़ाऊँ? किसी ज़रूरतमंद को दे देना। उसके काम आयेगा!’

ग्रंथों के माध्यम से जिसे समझने-बूझने की चेष्टा करता रहा, वही अपरिग्रह साक्षात सामने खड़ा था। नतमस्तक हो गया मै!

कबीर ने लिखा है, “कबीर औंधि खोपड़ी, कबहुँ धापै नाहि/ तीन लोक की सम्पदा, का आबै घर माहि।”

पेट भरा होने पर भी धापा हुआ अथवा तृप्त अनुभव न करो तो यकीन मानना कि अभी सच्ची यात्रा का पहला कदम भी नहीं बढ़ाया है। यात्रा में कंबल ठुकराना है या दूध की थैलियाँ बटोरते रहना है, पड़ाव स्वयं तय करो।

© संजय भारद्वाज

शनि. 23 जनवरी, अपराह्न 2:10 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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