मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य – चिंतेचे घर मनात माझ्या… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

 कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ विजय साहित्य ☆ चिंतेचे घर मनात माझ्या..☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(गागा गागा लगाल गागा)

चिंतेचे घर मनात माझ्या

घरघर त्याची उरात माझ्या.

 

बोलत जातो तुझ्या स्मृतींशी

हळवे वारे घरात माझ्या.

 

मोठे झाले कधी लेकरू

घुटमळतो मी पदात माझ्या .

 

बांधावरती ओली बाभळ

सळसळ बोली सुरात माझ्या.

 

हाती माझ्या प्रगती पुस्तक

रेघ लाल का सुखात माझ्या.

 

निरोप नाही नसे खुशाली

शब्द तुझे का स्वरात माझ्या.

 

लेखणीस या फुटला पाझर

हरवशील तू जगात माझ्या .

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 58 ☆ लघुकथा – बीमा पॉलिसी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘बीमा पॉलिसी’।  यह सच है कि हम बीमा पालिसी के साथ ही सपने खरीद लेते हैं। उम्र के एक पड़ाव पर पहुँच कर खरीदे गए सपनों का गणित ही बदलता महसूस होता है।  एक बेहद सार्थक लघुकथा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 58 ☆

☆  लघुकथा – बीमा पॉलिसी

तिवारी जी डाइनिंग टेबिल पर इंकम टैक्स के पेपर फैलाए मन ही मन कुछ बडबडा रहे थे – हर साल का खटराग है बीमा पॉलिसी के पैसे भरो, हाउसिंग लोन के कागज दो और भी ना जाने क्या –क्या। पता नहीं क्या बचता है क्या नहीं – बहुत झुंझलाहट आ रही थी आज उन्हें, क्यों और किस पर ये उन्हें भी नहीं पता। बीमा कंपनियां भी, जिंदा रहते कुछ नहीं देती, स्वर्ग सिधारने  के बाद ही ज्यादा मिलेगा। जीवन भर घिसटते रहो, छोटी छोटी इच्छाओं को मारते रहो और पैसे भरते रहो, बस यह सोचकर कि कुछ हुआ तो बीमा पॉलिसी नैया पार लगा देगी। उन्हें बीमा एजेंट की बात याद आ रही थी – आपकी लाईफ सिक्योर है, सब ठीक ठाक चलता रहा तो बढिया है। अगर आपको कुछ हो जाता है तो पचास लाख आपकी पत्नी और बच्चों को मिल जाएगा। पता नहीं क्यों उन्हें एक झटका- सा लगा था यह सुनकर।

क्या बोल रहे हो अकेले में, सठिया रहे हो क्या, रिटायर होने में तो समय है अभी – पत्नी चाय बनाते हुए अपने व्यंग्य पर मुस्कुरा रही थी। तिवारी जी चिढ गये पर संभलकर बोले –  कुछ नहीं ये बीमा पॉलिसी के कागज देख रहा था – इसके हिसाब से तो कई साल पैसे भरना है, पॉलिसी  मैच्योर होने से पहले मैं चल बसा तो तुम लोगों को पचास लाख मिलेगा, वरना भरे हुए पैसे भी नहीं मिलेंगे। सोच रहा हूँ इसे बंद करवा दूँ, क्यों बेकार में तीन– चार लाख भरूँ, किसी और काम आएंगे – धीरे से बोले। काहे बंद करवा दो ? तीन – चार लाख के लिए तुम पचास लाख छोड रहे हो ? तुम्हारे बाद हमें और बच्चों को पैसा मिलेगा तो कुछ बुरा है क्या ? आडे वक्त में काम आएगा उनके। वे सकपका गए – नहीं – नहीं, अच्छा ही होगा। पत्नी जी पता नहीं समझी कि नहीं, पर तिवारी जी सोच रहे थे पचास लाख के लिए पॉलिसी मैच्योर होने से पहले ही स्वर्ग सिधारना पडेगा क्या?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #89 ☆ कविता – सुनीता विलियम्स की अंतरिक्ष यात्रा पर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  विचारणीय कविता  ‘सुनीता विलियम्स की अंतरिक्ष यात्रा पर’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 89 ☆

☆ कविता – सुनीता विलियम्स की अंतरिक्ष यात्रा पर ☆

 

बेटी देखो !

वह जो प्रकाशमान तारे की तरह

मंथर गति से पूर्व से पश्चिम की ओर

पृथ्वी का चक्कर लगाता प्रकाश पुंज है

वह कृत्रिम उपग्रह है

इसमें सवार है हमारी सुनीता विलियम्स

जो प्रतिनिधित्व कर रही है विश्व की बेटियों का

ब्रम्हाण्ड में

 

विश्व के कैनवास को विस्तार देकर

अंतरिक्ष में रच दी है ऐतिहासिक रांगोली

सुनीता ने

 

सुनीता

समन्वित शक्ति है सरस्वती और दुर्गा की

 

सुनीता पंड्या से

सुनीता विलियम्स बनकर

तोड डाले थे उसने संकीर्णता के कठमुल्ले दायरे

और वैश्विक सोच की लिखी थी इबारत

 

सुनीता

बे आवाज तमाचा है उनके गालो का

जो सुनिताओं को घूंघट में कैद रखना चाहते है

 

स्त्री विमर्श के जीते जागते

धारावाहिक उपन्यास है

कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स

जो इंद्रधनुष से आगे

ब्रम्हाण्ड में लिखे जा रहे है

साहस की स्याही से।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 51 ☆ आशीर्वाद बना रहे ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “आशीर्वाद बना रहे”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 51 – आशीर्वाद बना रहे☆

व्याधि, उपाधि ,समाधि इन सबको अंगीकार कर जब व्यक्ति सफलता के मद में डूबता उतराता है तभी कहीं से ये आवाज सुनाई पड़ती है।

अपनी योग्यता को बढ़ाते हुए ही तुम्हें नंबर वन बनने की आवश्यकता है। यदि नींव का पत्थर चिल्ला-चिल्ला कर ये कहे कि मेरे ऊपर ही बिल्डिंग के सारे माले का भार है परंतु ऊपरी माले के लोग मुझे पहचानते भी नहीं  तो इसका क्या उत्तर होगा ?

जाहिर सी बात है कि समय के साथ -साथ एक -एक पायदान छूटते ही जाते हैं। कई बार बता कर सम्मान पूर्वक अलग किया जाता है तो कई बार धोखे से, पर परिणाम वही रहता है। सफलता की सीढ़ियाँ होती ही ऐसी हैं, जहाँ येन केन प्रकारेण धक्का देते हुए ही लोग आगे बढ़ते हैं और अंत में जब ठोकर लगती है तब एक ही झटके में मुँह के बल नीचे आ गिरते हैं और इस समय एकदम अकेले होकर नींव की ओर देखते हैं। पर बेरुखी झेलते हुए नींव के पत्थर इस घटना को भी मूक दर्शक बन कर झेल जाते हैं।

हर कदम पर साए की तरह साथ – साथ चलते रहे, बिना कुछ कहे; हर सही गलत के न केवल साक्षी बनें वरन साथ भी दिया। फिर भी हमें लगातार उपेक्षित किया गया आखिर क्यों ? अब जो भी होगा वो तुम्हें अकेले झेलना होगा। नींव के पत्थरों ने मन ही मन फैसला करते हुए कहा।

उसने भी हाथ को जमीन में टेक कर उठते हुए कहा अभी भी मैं युवा हूँ। नए सिरे से पुनः सबको जोड़कर  सफलता के शीर्ष पर विराजित होऊँगा।

नींव ने कहा जरूर, जो परिश्रमी होता है उसे सब कुछ मिलता है , थोड़ा धैर्य रखो और सबको लेकर आगे बढ़ो।

अरे दादा , सबके सहयोग से ही बढ़ता हूँ , पर जो अनावश्यक हुज्जत करके, टांग खींचते हैं उन्हें छोड़ता जाता हूँ क्योंकि मेरे पास इतना समय नहीं है कि उनको समझाता रहूँ। वैसे भी शीर्ष पर स्थापित होना और वहाँ बने रहना कोई आसान नहीं होता।

जो भी एकाग्रता से मेहनत करेगा उसे अवश्य ही ऊपर स्थान मिलेगा। चुनौतियों का सामना करिए, ऊपर वाला उसी की परीक्षा लेता है जिसे वो कुछ देना चाहता है।

सो तो है। अबकी बार नई रणनीति से कार्य करूँगा। जो साथ चले चलता रहे , जितना सहयोग करना हो करे , जहाँ छोड़ कर जाना हो जाए। अपनी ऊर्जा बस लक्ष्य प्राप्ति की ओर ही लगाना है।

यही तो खूबी है तुम्हारी, तभी तो एक – एक कर निरन्तर बढ़ते जा रहे हो। नेतृत्व करने हेतु हृदय को विशाल करना पड़ता है। तेरा तुझको अर्पण करते हुए चलने से ही लोग जुड़ते हैं।

सो तो है। बस आधारभूत स्तम्भ बनें रहें, फिर चाहें जितने माले तैयार करते चलो कोई समस्या नहीं आती है।

रेत और सीमेंट का सही जोड़ हो और पानी की तराई भी भरपूर हो,   तभी दीवालों में मजबूती रहेगी। अन्यथा दरार पड़ते देर नहीं लगती है। पहले माले में नेह रूपी जल सींचा गया था जिससे सारे झटके सहते चले गए पर अबकी बार भगवान ही बचाए।

खैर ये सब तो जीवन का हिस्सा है। बड़ों का आशीष बना रहे और क्या चाहिए।

जबलपुर (म.प्र.)©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 74 – हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 74☆

☆ हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग ☆

दुनिया की सबसे लंबी सुरंग का रिकॉर्ड भारत के नाम है । यह उत्तर भारत के लेह और मनाली हिस्से को जोड़ती है । इसे समुद्र तल से 10000 फीट की ऊंचाई पर बनाया गया है।  इस का निर्माण ऊंचीऊंची पहाड़ी की तलहटी के नीचे 9 किलोमीटर की सुरंग खोदकर किया गया है।

इस अनोखी सुरंग की अपनी अलग विशेषताएं है। यह विशेषताएं इससे अत्याधुनिक बनाती है। 3 अक्टूबर 2020 को प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित इस सड़क मार्ग पर 60 मीटर पर हाइड्रेट, 150 मीटर पर टेलीफोन और 250 मीटर पर सीसीटीवी कैमरे की व्यवस्था की गई है। हर 2 किलोमीटर वाहन को मोड़ने की सुविधा दी गई है।

विशेष परिस्थितियों के लिए इसमें विशेष व्यवस्था की गई है। इसके हर एक 500 मीटर की दूरी पर विशेष निकासी व्यवस्था उपलब्ध है। 9.02 किलोमीटर लंबी विश्व की सबसे लंबी हाईवे टनल 3200 करोड़ रुपए की लागत से बनी है।

टनल का आकार घोड़े की नाल जैसा है। यह सीमा सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण सुरक्षित और संक्षिप्त मार्ग है । सामरिक महत्व के मार्ग ने हमें दुनिया की दृष्टि में बहुत ऊंचा उठा दिया है।

 

लेह की चोटी~

टनल में फिसली

कार में बच्चा।

 

लेह की चोटी~

सुरंग में डरकर

चींखी युवती।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-12-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 58 ☆ सीमाओं पर गोली खाते वीर हैं ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “सीमाओं पर गोली खाते वीर हैं .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 58 ☆

☆ सीमाओं पर गोली खाते वीर हैं ☆ 

नहीं करें चिन्दी-चिन्दी इस देश को।।

उत्तम भाषा ज्ञान, शान-परिवेश को।।

 

सीमाओं पर गोली खाते वीर हैं।

बैरी के सीने देते वे चीर हैं।

यही देश मेरे के सत्य समीर हैं।

इनके प्रति क्या आप हुए गंभीर हैं।

एक्य भाव से जोड़ें सारे देश को।।

उत्तम भाषा ज्ञान, शान-परिवेश को।।

 

कर साजिशें देश को, नहीं गुलाम करो।

विदेशियों की भाषा, को न प्रणाम करो।

मत अपनी संस्कृति को, तुम बदनाम करो।

बची शाख का अब मत, काम तमाम करो।

आप हटाकर मेटें सारे क्लेश को।।

उत्तम भाषा ज्ञान, शान-परिवेश को।।

 

भारत को इंडिया कहें, पर गर्व है।

गया आपसी प्रेम, कहाँ का पर्व है।

लोक-लाज कर्तव्य, न कोई धर्म है।

नित नव नाटक का ही तो यह सर्ग है।

अब दे रहे बढ़ावा, क्यों लंकेश को।।

उत्तम भाषा ज्ञान, शान-परिवेश को।।

 

जगें- जगाएँ अपने पूर्ण समाज को।

सब जानिए शिवाजी, वीर प्रताप को

मिलकर सभी मिटाएँ, इस संताप को।

शस्य श्यामला भारत भू के शाप को।

रहो बढ़ाते आगे मित्र स्वदेश को।।

उत्तम भाषा ज्ञान, शान-परिवेश को।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 63 – शेवटचं पत्र..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #63 ☆ 

☆ शेवटचं पत्र..! ☆ 

(एखादी कविता ह्या काव्य संग्रहातून)

विसरली असशील

तू मला पण मी

मी तुला विसरलो नाही

आयुष्यातलं पहिलं वहिलं प्रेम

असं विसरून

चालत नाही

आठवणीत आहेस तू

अजूनही माझ्या

नसेन आठवणीत

मी अजूनही तुझ्या

 

आठवणीत आहेत माझ्या

चार दोन भेटीगाठी

एक दोन मिठ्या

विसरली असशील तू

तेव्हाच्याच काही शपथा

आठवतही नसेल तुला

मी तुला दिलेलं गुलाबाचं फूल

मला मात्र आठवतंय

ते तू ठेवलं होतं

तुझ्या पुस्तकात जपून

 

कदाचित ते अजूनही

त्या पुस्तकातच असेल

लक्षात नाही तुझ्या म्हणून

ते पुस्तकही तू दुसरंच

कोणाला दिलं असेल,

 

जाणवतो मला अजूनही

तुझा तो हळुवार स्पर्श

लक्षात नसेल तुझ्या

तू मला दिला होतास

एक नक्षीदार शंख

जपून ठेवली नसशील

मी तुला दिलेली काही

प्रेमपत्रं..

 

अजूनही माझ्या वहीत

आहे तुझं ते शेवटचं पत्र..

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 79 – कुछ गीत अनमने से… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना कुछ गीत अनमने से…)

☆  तन्मय साहित्य  #  79 ☆ कुछ गीत अनमने से…. ☆ 

(मेरे गीत संग्रह “आरोह अवरोह” 2011 से)

कुछ गीत अनमने से कुछ गीत गुनगुने से

स्वर आरोहों अवरोहों के हमने ही चुने थे।

 

मुखड़ों की सुंदरता बेचैन अंतरे हैं

पद हैं कुछ थके थके कुछ चरण मद भरे हैं

कुछ छंद सयाने से कुछ बंद पुराने से

लय ताल राग सब तो हमने ही बुने थे

कुछ गीत अनमने से….

 

चिंताओं का चिंतन जब किया अकेले में

हम पीछे छूट गए दुनियावी मेले में

थापें भी दी हमने, सरगम छेड़ी हमने

हमने ही नृत्य किया हम बजे झुनझुने से

कुछ……

 

जग सोच रहा है क्या चिंता बस यही रही

हमसे खुश रहे सभी मन में बस चाह यही

सब के अनुरूप बने ऐसे थे कुछ सपने

मिल सके ना अर्थ सही सब शब्द अनसुने थे

कुछ……

 

सातों स्वर के ज्ञाता अनभिज्ञ स्वयं से थे

जब विज्ञ हुए कुछ तो तब दर्प अहम में थे

कुछ बीज उम्मीदों के बोए थे जीवन में

फल फूल रहे हैं वे हो रहे सौ गुने थे

कुछ…….

 

खुशबू फिर फूलों की शैशव के झूलों की

मुस्कानें बिखरेगी, भोली सी भूलों की

है इंतजार पल छिन अब बदलेंगे ये दिन

पुलकित होगा तन मन नवकृति को छूने से

कुछ….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है “कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ☆

नैनीताल के पास ही एक छोटा कस्बा है नौकुचिया ताल जहाँ हमने दो रातें  बिताई और सुबह-सबेरे हरे भरे जंगल में ट्रेकिंग का आनंद लिया । यहाँ आसपास तीन तालाब हैं, नौ किनारों वाला नौकुचिया ताल जिसे एक सिरे से देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि मानो भारत का नक्शा देख रहे हैं । गहरे नीले रंग केस्वच्छ जल से भरा  इस नौ कोने वाले ताल की अपनी विशिष्ट महत्ता है। इसके टेढ़े-मेढ़े नौ कोने हैं। इस अंचल के लोगों का विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति एक ही दृष्टि से इस ताल के नौ कोनों को देख ले तो उसे मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। परन्तु हम दोनों बहुत कोशिश करके भी कि सात से अधिक कोने एक बार में नहीं देख सके लेकिन भाग्यशाली तो हम हैं जो ऐसे सुन्दर स्थलों को देख रहे हैं और जहांगीर ने तो सौदर्य से भरपूर कश्मीर को ही स्वर्ग माना था । इस ताल की एक और विशेषता यह है कि इसमें विदेशों से आये हुए नाना प्रकार के पक्षी रहते हैं। मछली के शिकार करने वाले और नौका विहार शौकीनों की यहाँ भीड़ लगी रहती है। इसी ताल के समीप है कमल ताल, लाल कमल के बीच  तैरती बतखे मन को प्रफुल्लित करती हैं । यह भी तो ताल देखने का एक आकर्षक कारण है।

नौकुचियाताल से कोई सात आठ किलोमीटर की दूरी पर है सत्तताल, जो अपने आप में सात तालाबों को समाहित किये हुए है ।  इसमें से तीन तालाबों के नाम राम, लक्ष्मण व सीता को समर्पित है और शेष ताल के नाम  नल- दमयंती, गरुड़ पर हैं तो एक पूर्ण ताल तो दूसरा केवल बरसात में कुछ समय के लिए भरने वाला सूखा ताल ।  इसी रास्ते में पड़ता है  भीम ताल, जिसे कहते हैं कि बलशाली पांडव भीम ने अपने वनवास के समय निर्मित किया था । भीम को तो लगता है जल स्त्रोत खोजने में महारत हासिल थी, भारत भर में अनेक दुर्गम जल क्षेत्र भीम को ही समर्पित हैं । इन सभी तालों में नौकायन करते हुए विभिन्न जलचरों  और देवदार के लम्बे पेड़ों को देखने का अपना अलग ही आनंद है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 30 ☆ मृग तृष्णा ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मृग तृष्णा। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 30 ☆ मृग तृष्णा

मृग तृष्णा में भटकता रहा जीवन  भर

यहां से वहां इधर से उधर, उस मन मोहक मृग की चाह में

खेलता रहा जो हमेशा लुका छुपी का खेल

मोहक छवि कभी स्वर्ण सा कभी रजत सा दिखता रहा मृग ||

चल पड़ता अदृश्य होते मृग की खोज में

मादक अदा से बार-बार अदृश्य हो कर मुझे छलता रहा मृग

मस्तिष्क-पटल पर हमेशा अवतरित रहा मृग

भूलना चाहा पर फिर मनमोहक अदा दिखा व्याकुल कर जाता मृग ||

कभी स्वर्ण तो कभी रजत सा दिखता मृग

कभी लगती मन की कल्पना तो कभी पूर्वजन्म की अधूरी अभिलाषा

प्रकट हो लुभावनी अदा से आमंत्रित करता मृग

यौवन लील लिया मृग तृष्णा ने,कभी हासिल हो ना सका मोहक मृग ||

मृग का पीछा करते वृद्ध मार्ग तक पहुँच गया

मृग, मोहिनी अदा से सम्मोहित कर वृद्ध मार्ग पर फिर बढ़ जाता आगे

संध्या हो चली जीवन की, मन तृष्णा से व्यथित

अंधकार की और बढ़ता जीवन,चमकते नैनों से आमंत्रित करता रहा मृग ||

बार-बार मोहिनी अदा दिखा आगे बढ़ जाता

उबड़-खाबड़ दुर्गम कंटीले रास्ते पर बहुत आगे तक ले आया मुझे वो

थक कर विश्राम को बैठ गया राह में

शायद ही उसे पा सकूं मगर फिर सामने आकर मुझे रिझा जाता मृग ||

चारों और घनघोर अँधेरा, अमावस्या की स्याह रात

अब कुछ भी  नजर नहीं आ रहा सिवाय दूर चमकते दो मृग नैनों के

थक कर अब और आगे बढ़ ना पाया,

अंतिम छोर तक पहुंचा कर धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो गया मृग ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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