हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 33 – विचलित सी धुन …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “विचलित सी धुन… । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 33 ।। अभिनव गीत ।।

☆ विचलित सी धुन … ☆

इस मैली दीप्ति

का उलाहना-

“मँहगा है जी

इज्जत उगाहना”

 

नीम तले आतप

से उद्घाटित

धूप पवन के झोंकों

से बाधित

 

विचलित सी धुन

कई विचारों की

नहीं सुनती गगन

का कराहना

 

चोटियाँ गूँथती

विस्थापित है

आँख में अर्थ में

स्थापित है

 

यों सहज करती

रही स्तवन में

दबी जुबाँ इसकी

ही सराहना

 

बादलों के शाल

में लपेट कर

दिन के संथाल

को समेटकर

 

संध्या ही है जो

समझती है

जानती कैसे

इसे निबाहना

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-01-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 17 ☆ व्यंग्य ☆ ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 17 ☆

☆ व्यंग्य – ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆

आर्यावर्त का नागरिक श्रीमान, रिश्वत देकर दुखी नहीं है – रिश्वत देकर भी काम नहीं होने से दुखी है. उस दिन दादू मुझे भी अपने साथ ले गया, दफ्तर में सीन कुछ इस तरह था.

“गज्जूबाबू, आपने ही थर्टी थाउजन्ड की कही थी. अब पाँच और किस बात के ? पहली बार में आपने जित्ते की कही उत्ते पूरे अडवांस में गिन दिये हैं हम.”

“अरे तो तो कौन सा एहसान कर दिया यार ? काम के बदले में ही तो दिये हो ना. लाइसेन्स फिरी में बनते हैं क्या ? सत्तर टका तो साहब को ही शेयर करना पड़ता है. बाँटने-चुटने के बाद हमारे पास बचेगा क्या..” – वे ‘बाबाजी का कुछ’ जैसा बोलना चाह रहे थे मगर रुक गये.

“हमने आपसे मोल-भाव तो करा नहीं, कि आदरणीय गजेंद्र भाई साब दो हजार कम ले लीजिये, प्लीज……जो अपने कही सोई तो हमने करी, अब आप आँखे तरेर रहे हो ?”

“अरे तो दफ्तर में जिस काम का जो कायदा बना है सो ही तो लिया है. रेट उपरवालों ने बढ़ा दिये तो क्या मैं अपनी जेब से भुगतूंगा?”

सारी हील-हुज्जत दफ्तर में, वर्किंग-डे में, गज्जूबाबू की डेस्क पर ही चल रही थी. ब्रॉड-डे लाईट में ब्लैक डील. मीटर भर के रेडियस में बैठे सहकर्मी और कुछ आगंतुक सुन तो पा रहे थे मगर असंपृक्त थे, मानों कि आसपास कुछ भी असामान्य नहीं घट रहा है. नियम कायदे से गज्जूबाबू सही हैं और नैतिक रूप से दादू. ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा.

“पर जुबान की भी कोई वेलू होती है गज्जूबाबू.”

“तुम कुँवर गजेंद्रप्रताप सिंह की जुबान को चैलेंज करोई मती” – तमतमा गये वे – “जो गज्जूबाबू ने ठेकेदारों की कुंडलियाँ बांचनी शुरू की ना तो सबकी जुबान को फ़ालिज मार जायेगा.”

“नाराज़ मत होईये आप. इस बार थर्टी में कर दीजिए, अगली बार बढ़ाकर ले लेना.”

“यार तुम ऐसा करो, वापस ले जाओ एडवांस, हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. यहाँ दस लोग लाईन लगाकर पैसे देने को तैयार खड़े हैं, और तुमसे ज्यादा देने को तैयार हैं.”

मैंने धीरे से समझाया – “दादू, देश में पूरे एक सौ तीस करोड़ लोग रिश्वत दे कर काम कराने का मन बना चुके हैं. कॉम्पटीशन लगी पड़ी है, कौन ज्यादा देकर काम करा ले जाता है. इसी काम के कैलाश मानके चालीस देने को तैयार है, कह रहा था एक बार एंट्री मिल जाये बस.”

“ठीक है गज्जूबाबू. नाराज़ मत होईये, पाँच और दिये देते हैं, आप तो लायसेंस निकलवा दीजिये.”

“नहीं, अब हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. वो तो तुम ठहरे मनख हमारे गाँव-दुआर के, सो तुम्हें लिफ्ट दे दी…….वरना कमी है क्या काम करानेवालों की. तुम तो अपना एडवांस वापस ले जाओ.” – कहकर वे जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने की एक्शन करने लगे, मानो कि लौटा ही देंगे एडवांस.

“गुस्सा मत करिये भाई साब, गाँव-दुआर के लानेई रिक्वेस्ट करी आपसे.” – दादू ने मानिकचंद का पाउच खोलकर ऑफर किया जो स्वीकार कर लिया गया. भरे मुँह से कुछ देर और ज़ोर करवाया गज्जू बाबू ने, फिर डेस्क के नीचे की डस्टबिन में गुटका और गुस्सा दोनों थूक कर पूरे पाँच जेब के हवाले किये. टेबल के नीचे से नहीं, न ही बाहर चाय के ठेले पर कोडवर्ड के साथ. ग्राउंड जीरो पर ही.

हम इस सुकून के साथ बाहर निकले कि रिश्वत के एरियर भुगतान भी कर दिया है, अब तो शायद काम हो ही जाये. निकलते निकलते मैंने कहा – “दादू आप लक्की हो, बक़ौल ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के ‘द इंडिया करप्शन सर्वे 2019’ के आप देश के उन 51 फीसदी लोगों में शुमार हो जो जिन्होने बीते एक बरस में रिश्वत देने का काम किया है. अब ये जो बचे 49 फीसदी लोग हैं ना, ये भी देना तो चाहते थे बस गज्जू बाबूओं तक पहुँच नहीं पाये.”

-x-x-x-

और सीसीटीवी ? कमाल करते हैं आप – देश और दफ्तर दोनों के खराब पड़े हैं.

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शांतिलाल जैन.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 79 ☆ व्यंग्य – कोहरे की करामत ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य “कोहरे की करामत“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 79

☆ व्यंग्य – कोहरे की करामत☆

मत कहो आकाश में कोहरा घना है…. क्यों न कहें भाई। कोहरे ने दिक्कत दे कर रखी है। ऐसा कोहरा तो कभी नहीं देखा।

गांव की सर्द कोहरे वाली सुबह में बाबू फूंक फूंक कर चाय पी रहा था और उधर गांव भर में हल्ला मच गया कि कोहरे के चक्कर में गंगू की बहू बदल गई। पांच-छै दिन पहले शादी के बाद बिदा हुई थी।शादी के नेंग- ढेंग निपटने के बाद बाबू को थोड़ा चैन आया था। कड़ाके की ठंड में अभी चार रात बीती थी, और पांचवें दिन सुबह सुबह शर्माते हुए गंगू ने ये बात बतायी कि बहू गैर जात की है, बाबू सुनके दंग रह गया ….. बाबू को याद आया कोहरे के चक्कर में सब गाड़ियां बीस – बाईस घंटे लेट चल रहीं थीं और कई तो रद्द हो गई थीं। स्टेशन पर धकापेल भीड़ और आठ – दस बरातों के बराती थे उस दिन…….

भड़भड़ा के गाड़ी आ गई थी तो जनरल बोगी में रेलमपेल भीड़ के रेले में घूंघट काढ़े तीन चार बहूएं भीड़ में फंस गई और गाड़ी चल दी…दौड़ कर गंगू बहू को पकड़ के शौचालय के पास बैठा दिया और खुद शर्माते हुए बाबू के पास बैठ गया । गांव की बारात और गांव की बहू। चार पांच स्टेशन के बाद गंगू की बारात उतर गई। क्या करे कोई यात्रियों और बारातियों की बेहिसाब भीड़ थी उस दिन…………

बाबू के काटो तो खून नहीं अपने आप को समझाया । खैर, अब क्या किया जा सकता है भगवान तो जोड़ी बनाकर भेजता है। अग्नि को साक्षी मानकर फैरे हुए थे 14 वचन हुए थे , हाय रे निर्लज्ज कोहरा तुमने ये क्या कर दिया….। अब क्या हो सकता है चार रात भी गुजर गईं…. हार कर बाबू घूंघट और कोहरे की कलाबाजी को कोसता रहा। गांव वालों ने कहा बेचारा गंगू भोला भाला है शादी के पहले गंगू को लड़की दिखाई नहीं गई, नाऊ और पंडित ने देखी रही अच्छा घर देख के जल्दबाजी में शादी हो गई गंगू की गलती नहीं है गंगू की हंसी नहीं उड़ाई जानी चाहिए। गंगू निर्दोष है।

थोड़ा सा कुहरा छटा तो सबने सलाह दी कि शहर के थाने में सारी बातें बता देनी उचित रहेगी…. सो बाबू गंगू को लेकर शहर तरफ चल दिए। थाने पहुंच कर सब हालचाल बताए तो पुलिस वाले ने गंगू को बहू चोरी के जुर्म में बंद कर दिया। बाबू ने ईमानदारी से बहुत सफाई दी कि कोहरे के कारण और सब ट्रेनों के लेट होने से ऐसा धोखा अनजाने में हुआ,  उस समय कोहरा और ठंड इतनी अधिक थी कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। पुलिस वाला एक न माना कई धाराएं लगा दीं। बाबू बड़बड़ाया ईमानदारी का जमाना नहीं रह गया जे कोहरे ने अच्छी दिक्कत दे दी और नये लफड़ेबाजी में फंस गए, ऊपर से कई लाख के सोना चांदी पहने असली बहू भी न जाने कहाँ चली गई।

कोहरे के कुहासे में एक सिपाही बाबू को एक किनारे ले जाकर जेब के सब पैसे छुड़ा लिये। बाबू को फिर से पूछताछ के लिए इस बार थानेदार ने अपने चेम्बर में बुलाया।

इस तरफ अंगीठी में आग तापते कई सिपाही बतखाव लगाए थे कोहरा और ठंड के साथ सरकार को गालियां बक रहे थे। कोहरे की मार से सैकड़ों ट्रेनों के लेट होने की चर्चा चल रही थी रेल वाले सुपर फास्ट का पैसा लेकर गाड़ी पैदल जैसी चला रहे हैं हजारों बेरोजगार लड़के-लड़कियां इन्टरव्यू देने से चूक रहे थे, शादी विवाह के मुहूर्त निकल रहे थे, कोहरे से हजारों एक्सीडेंट से बहुत मर रहे थे और थाने में ज्यादा केस आने से काम बढ़ रहा था…. बाबू चुपचाप खड़ा सुन रहा था और गंगू अंगीठी की आग देखकर सुहागरात और रजाई की याद कर रहा था। बाबू से नहीं रहा गया तो दहाड़ मार के रोने लगा…… एक सिपाही ने उठकर बाबू को दो डण्डे लगाए और चिल्ला कर बोला – कोहरे की मार से सूरज तक नहीं बच पा रहा है और तुम कोहरे का बहाना करके अपराध से बचना चाहते हो, अपराधी और निर्दोष का अभी सवाल नहीं है फंसता वही है जो मौके पर हाथ आ जाए और ठंड में बड़े साहब का खुश होना जरूरी है हमें तुम्हारी परेशानी से मतलब नहीं है हमें तो साहब की खुशी से मतलब है। बाबू कुकर के चुपचाप बैठ गया।

शाम हो चुकी थी कोहरा और गहरा गया था, थानेदार मूंछों में ताव देकर खुश हो रहा था।  थानेदार ने सिपाही को आदेश दिया – भले रात को कितना कुहरा फैल जाए पर बहू को बयान देने के लिए बंगले में उपस्थित कराया जाय………..

कोहरा सिर्फ कोहरा नहीं होता, कोहरा जब किल्लत बन जाता है तो बहुत कुछ हो जाता है। बाबू कोहरे को लगातार कोसे जा रहा है और बड़बड़ाते हुए कह रहा है ये साला कोहरा तो हमारे लिए थानेदार बन गया। और थानेदार कोहरे और ठंड में रजाई के सपने देख रहा था बहू को बंगले में कोहरा और ठंड के साथ बुलवाने का बहाना कर रहा है। बयान देने के बहाने बहू को थानेदार के बंगले पहुंचाया गया। बाबू चुपचाप देखता रहा, गंगू मार खाने के डर से कुछ नहीं बोला …. बहुत देर बाद एक सिपाही से बाबू बोला – गरीबों का भगवान भी साथ नहीं देता, ऊपर वाला दुखियों की नहीं सुनता रे………..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #26 ☆ मकर संक्रांति ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी की हकीकत बयां करती एक भावप्रवण कविता “मकर संक्रांति”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 26 ☆ 

☆ मकर संक्रांति ☆ 

सुर्य उत्तरायण में आया

एक संदेशा संग-संग लाया

अब कम होगा अंधियारा

बढ़ता जायेगा प्रकाश

पतझड़ बीतेगा पल पल

जगेगी नव जीवन की आस

फूलों के मेले लगेंगे

यौवन के रेले लगेंगे

महकेगा हर आंगन आंगन

चहकेगा हर प्रांगण प्रागंण

ठिठुरन भरा शिशीर जायेगा

रंग बिखेरता बसंत आयेगा

 

देश के हर एक प्रांत में

खुशीयों की भरमार है

भिन्न भिन्न प्रथायें

भिन्न भिन्न त्योहार है

कहीं लोहिड़ी, कहीं पोंगल

कहीं मनी मकर संक्रांति

तिड़-गुड़, मुंगफली बांटकर

मिटा रहे हैं मनकी भ्रांति

तिड़ गुड़ खाओ, मीठा बोलो

बंद दिल के दरवाजे खोलो

गांठें खोलो गले लगाओं

मकर संक्रांति दिल से मनाओ

 

आओ मिलकर पतंग उड़ाये

आसमान में हम छा जाये

रंग बिरंगी अपनी पतंगें

हमारी संस्कृति को दर्शाये

जिसका होगा प्रेम का धागा

स्नेह का मांझा सीदा-सादा

सपनों की उड़ती हुई पतंग

नीलगगन से

करती हो मिलने का वादा

कितने रंगों में रची बसी है

यह मकर संक्रांति

तिलों में तेल बहुत हैं

फिर भी है शांति

हवायें मदहोश है

तिनकों में भी जोश है

कहीं यह फैला ना दे

चारों तरफ अशांति

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 33 ☆ आजचा युवक…… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 33 ☆ 

☆ आजचा युवक… ☆

आजचा युवक कसा असावा ?

याचा जेव्हा प्रश्न पडावा

विवेकानंदाचा तेव्हा

आदर्श सर्वांनी घ्यावा…१

 

काय त्यांचे तेज

कसे त्यांचे विचार

त्यांच्या विचाराचे

आपण करावे सुविचार…२

 

आजचा युवक

व्यसनाधीन झाला

आजचा युवक

कर्जबाजारी बनला…३

 

आजचा युवक

लाचार आणि बेकार

आजच्या युवक

दारू खर्रा खाण्यात हुशार…४

 

आजचा युवक

गुंडगिरी करतो

आजचा युवक

आईला छळतो…५

 

आजच्या युवकाने

खूप बेकार कृत्य केले

जन्मदात्या आई-बापाला

वृद्धाश्रमात पहा डांबले…७

 

माणुसकी लोप पावली

काळिमा नात्यास लागली

आपल्याच हाताने युवकाने

नात्याची राखरांगोळी केली…८

 

सख्खी बहीण याला भिते

वासनांध हा झाला

वासनेच्या भरात याने

ऍसिडचा हल्ला केला…९

 

सात्विक आपला भारत

आपण त्याचे रहिवासी

कसे आपण राहावे

न कळत बनला वनवासी…१०

 

हे सर्व थांबले पाहिजे

युवक जागृती महत्वाची

माणूस म्हणून युवकाला

भाषा कळावी आपुलकीची…११

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 12 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 12 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

सौ.अंजली गोखले 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

माझी एम ए अभ्यासाची घोडदौड सुरु झाली, पण मला एंट्रन्स ची परीक्षा पास झाल्याशिवाय एम ए ला प्रवेश मिळणार नव्हता.. ताईंनी माझी कसून तयारी करून घेतली आणि मी एन्ट्रन्स ही पास झाले.माझ्या मनामध्ये संमिश्र प्रकारच्या भावना होत्या. एका बाजूला उत्सुकता आणि आनंद र दुसर्‍या बाजूला अभ्यासाची जबाबदारी.एकीकडे आई-बाबांच्या तब्येतीची खूपच काळजी लागून राहिली होती.तसं बघायला गेलं तर ताईंना आणि मला ना हे शिवधनुष्य पेलायचे होतं आणि आम्ही ते यशस्वीपणे पेललही !

नृत्याच्या सुरूवातीच्या दिवसातला आणि आत्ता चा अभ्यास,रियाज यामध्ये जमीन अस्मानाचा फरक होता.आता शारीरिक आणि मानसिक हालचालींच्या माध्यमांमधून प्रेक्षकांपर्यंत भावभावना पोहोचवायच्या होत्या.शारीरिक हालचाली म्हणजे अंग, प्रत्यांग आणि उपांग.अर्थात हात पाय मस्तक ही अंगे,हाताचे पंजे बोटे कोपरे खांदे ही प्रत्यां गेआणि डोळे डोळे पापण्या ओठ, नाक, हनुवटी ही उपांगे.यांच्या हलचाली मधून आणि आणि मनामध्ये उठणाऱ्या भावतरंग यांमधून अभिनय सहज आणि सोप्या माध्यमातून मला प्रेक्षकांपर्यंत पोचवायचा होता.अर्थातच हे माझ्यासाठी खूप कठीण होते आणि त्यामध्ये मनाच्या एकाग्रतेची गरज होती.

नृत्याच्या सुरुवातीच्या काळामध्ये ताई मला स्पर्शाने मुद्रा शिकवत असत.त्याचे एक सांकेतिक भाषा ठरलेली असे. स्पर्शाने मुद्रा जाणून हे मी सहज आत्मसात केले होते आणि ती सवय माझ्या अंगवळणी पडली होती. आता मात्र मला नृत्यातल्या, अभिनयाचे कौशल्य, त्यातली खुबी अधिक सफाईदारपणे प्रेक्षकांच्या मनावर बिंबेलअशा पद्धतीने मांडायची होती आणि तीही संगीताचा आधार घेऊन.कारण नृत्याच्या सुरुवातीच्या काळामध्ये एखादी शेजारी उभी असणारी व्यक्ती मला दोन हात बाजूला करून, नुसते बोट दाखवूनही दाखवता येत असे. पण आता मात्र या दोन्ही बरोबर मान आणि नजर त्या बाजूला चेहऱ्यावरील हावभाव सहित प्रेक्षकांना ती दाखवायची होती. माझ्या बाबतीत नजर हा मुद्दा नव्हताच मुळी. फोन मला परीक्षक आणि प्रेक्षक यांना ही गोष्ट अजिबात जाणवू न देता माझी कला, नृत्य सादर करायचे होते. त्यातही मी बाजी मारली.

माझ्या या अभ्यासाला मला सर्वात जास्त आवडलेली रचना म्हणजे अभिनयावर आधारित असलेले “कृष्णा  नी बेगनी बारू” (कन्नड – अर्थ – कृष्णा तू माझ्याकडे ये.) या रचनेमध्ये मला यशोदेच्या मनातील भाव, मातृत्वाच्या भावभावना, बालकृष्णाच्या अवखळ लीलाअभिनयातून रंगवायच्या होत्या. यात बालकृष्ण रुसलेला आहे आणि त्याला मनविण्यासाठी यशोदा माता कधी लोण्याचा गोळा दाखवते तर कधी झेंडू खेळायला बोलावते. तर बाल कृष्ण तिला आपल्या अवखळपणानी

सतावतो आणि शेवटी त्याच्याच मुखात तिला म्हणजे मातेला विश्वदर्शन ही घडवतो. या दोन्ही भावभावना वेगळेपणाने दाखवणे ही माझ्यासाठी तारेवरची कसरत होती. मी ती नृत्यामध्ये रंगून जाऊन, तन मन अर्पून केली आणि त्या  अभिनयासाठी फक्त परिक्षकानीच नाही तर प्रेक्षकांनी सुद्धा भरभरून दाद दिली.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 82 ☆ व्यंग्य – चला-चली का खेला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘चला-चली का खेला ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 82 ☆

☆ व्यंग्य – चला-चली का खेला

नगर की जानी-मानी सांस्कृतिक संस्था ‘हंगामा’ ने सुराचार्य का संगीत कार्यक्रम आयोजित किया। ‘सांस्कृतिक’ शब्द बड़ा व्यापक है। उसमें घटिया से लेकर बढ़िया तक सब कार्यक्रम खप जाते हैं। ‘हंगामा’ सचमुच हंगामा ही था। उसके सदस्य बड़े उत्सव-प्रेमी थे। हास्य व्यंग्य के कवि-सम्मेलन से लेकर जादू प्रदर्शन, संगीत, सब चलता था। कुछ हो जाए,पोस्टर लग जाएं, अखबारों में सदस्यों के नाम और फोटो -वोटो छप जाएं तो सदस्यों को लगता था कि जीवन सार्थक हो गया।

सुराचार्य जी के पोस्टर नगर में जगह जगह लगे। टिकिट रखे गए सौ रुपये, दो सौ रुपये और पाँच सौ रुपये। फटेहाल संगीत-प्रेमियों ने रेट देखा तो ठंडी साँस भरी। वैसे भी ज्यादातर टिकिट बिक गये क्योंकि संगीत-प्रेमियों की कमी भले ही हो,मालदारों की कमी नहीं है। पाँच सौ रुपये का टिकिट खरीद कर ठप्पे से कार्यक्रम में जाने का मज़ा ही और है। मंहगा टिकिट खरीदने से कल्चर्ड होने का प्रमाणपत्र मिलता है, फिर भले ही कुर्सी पर बैठे ऊँघते रहो और मालकौस को भैरवी समझते रहो। पाँच सौ रुपये वाली सीट से दो सौ और सौ रुपये वाली सीटों पर बैठे लोग अधम लगते हैं। उनसे भी अधम वे होते हैं जिनकी ऐसे कार्यक्रम में घुसने की हिम्मत ही नहीं पड़ती।

तो धन इकट्ठा हो गया और सुराचार्य जी पधार गये। रात को कार्यक्रम हुआ। टिकिटों के खरीदार ऐसे सजे-धजे आये जैसे किसी बरात में जा रहे हों। मैं भी अपनी हैसियत के खिलाफ पाँच सौ रुपये वाली सीट पर डटा था। वजह यह थी कि पत्रकार होने के नाते आयोजकों ने ससम्मान बुलाया था, इस उम्मीद पर कि फोकट में  पाँच सौ रुपये की सीट का आनंद लेकर अखबार में कार्यक्रम की जयजयकार करूँगा।

सुराचार्य जी रेशमी कुर्ते-पायजामे में थे। ऊपर से शाल। भव्य लग रहे थे। हारमोनियम के सुर छेड़कर उन्होंने दो तीन हल्की फुल्की गज़लें सुनायीं। उसके बाद शुरू किया ‘दो दिन का जग में मेला, सब चला चली का खेला। ‘

थोड़ी देर में वातावरण विषादमय हो गया। लोग भावविभोर हो रहे थे। सबके सिर दाहिने-बायें ऐसे घूम रहे थे जैसे चाबी वाले बबुओं के घूमते हैं। सुराचार्य जी सबमें श्मशान-वैराग्य जगा रहे थे।

मेरे बगल में बैठे एक अधेड़ सज्जन आँखें मूँदे इस तरह सिर हिला रहे थे जैसे उन पर हाल आने वाला हो। थोड़ी देर बाद वे आँखें खोलकर मेरी तरफ देखकर बड़े दुखी भाव से बोले,’सच है जी। संसार सब झूठा है। आदमी की जिंदगी पानी का बुलबुला है। पल में फूट जायेगा जी। सब बेकार है। ‘

फिर वे और दुखी भाव से बोले,’मैंने भी बोत गल्त तरीके से पैसा कमाया जी। आतमा को बेच दिया। बोतों को रिश्वत खिलायी। बोतों को धोखा दिया। बोत झूठ बोला। आज बड़ा पछतावा हो रहा है। ‘

उन्होंने कानों को हाथ लगाया। मैं घबराया कि अब वे जीवन भर का संचित तत्व ज्ञान मुझे देंगे। कहीं भाग भी नहीं सकता था क्योंकि आसपास कोई सीट खाली नहीं दिखी। सौभाग्य से वे फिर आँखें मूँद कर पश्चाताप में डूब गये।

सुराचार्य जी अब भी ‘चला चली का खेला’ की रट लगाये थे ओर वातावरण ऐसा भारी हो रहा था कि हर एक के ऊपर मनों और टनों के हिसाब से बैठ रहा था। सब श्रोता आँखें बंद किये ठंडी सांसें भर रहे थे। मुझे लग रहा था कि आज इनमें से आधे खुदकुशी कर लेंगे और बाकी कल सबेरे कमंडल लेकर हिमालय की तरफ निकल जायेंगे। मेरी समझ में इतने लोग समाज से खारिज हो गये थे।

थोड़ी देर में ‘चला चली का खेला’ खत्म हुआ और सुराचार्य जी ने एक खासी रोमांटिक गज़ल छेड़ दी,जिसमें नायिका से कहा गया था कि उसका चाँदी जैसा रंग और सोने जैसे बाल हैं इसलिए वही एकमात्र धनवान है, बाकी सब कंगाल हैं। मुझे याद नहीं कि चाँदी जैसा रंग और सोने जैसे बाल बताये गये थे या सोने जैसा रंग और चाँदी जैसे बाल। बहरहाल अब उसाँसें बंद हो गयीं थीं और लोग फिर से चैतन्य होकर दिमाग से श्मशान की भस्म झाड़ रहे थे।

मेरी बगल वाले सज्जन उठकर खड़े हो गये। अब वे एकदम प्रफुल्लित, चतुर और चौकस दिख रहे थे।

मैंने पूछा,’कहाँ चले जी?’

वे बोले, ‘दुकान पर छोटे लड़के को बैठा आया हूँ जी। थोड़ा चालू है। मौका मिल जाता है तो चालीस पचास रुपये दबा लेता है। आधा प्रोग्राम देख लिया तो समझिए ढाई सौ रुपये तो वसूल हो गये। बाकी आधे धंधे के नुकसान खाते में डाल देंगे। ‘

थोड़ी देर बाद कार्यक्रम खत्म हुआ। मैं स्टेज के भीतर गया तो वहाँ आयोजक करम पर हाथ धरे बैठे थे। मैंने उनकी मिजाज़पुरसी की तो एक बिफरकर बोला, ‘सुराचार्य पूरे चालीस हजार की माँग कर रहा है। टस से मस नहीं हो रहा है। बात ज़रूर चालीस की हुई थी लेकिन इतना पैसा इकट्ठा नहीं हुआ। पैंतीस हजार दे दिये। घंटे भर से हाथ जोड़ रहे हैं लेकिन दो हजार भी छोड़ने को तैयार नहीं है। ‘

दूसरा आयोजक दाँत पीस कर बोला, ‘हमको चला चली का खेला सुनाता है और खुद चालीस हजार पर अड़ा हुआ है। चला चली का खेला है तो पैसे क्या छाती पर रख कर ले जायेगा?’

मेरे पास उनके लिए सांत्वना के शब्द नहीं थे। सुराचार्य जी अब भी तख्त पर जमे आग्नेय दृष्टि से आयोजकों को भस्म कर रहे थे।

इतने में कुछ और खलबली मची। पता चला, एक्साइज वाले आ गये हैं और आयोजकों की धरपकड़ हो रही है। मामला मनोरंजन-कर की चोरी का बन गया था। अब आयोजक गश खाने की हालत में आ गये थे और सुराचार्य जी पहलू बदलकर भागते भूत की लंगोटी स्वीकार करने की मुद्रा में आयोजकों को बुलावे पर बुलावे भेज रहे थे। लेकिन अब आयोजकों के पास उनकी बात पर कान देने का वक्त नहीं था।

कुल मिलाकर वातावरण खासा दुनियादारी का हो गया था और ‘चला चली का खेला’ वाले मूड की चिन्दी भी अब वहाँ ढूँढ़े नहीं मिल सकती थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 81 ☆ पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 81 ☆ पिंजरा ☆

मानवीय मनोविज्ञान के अखंडित स्वाध्याय का शाश्वत गुरुकुल है सनातन अध्यात्मवाद।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कहता है-गृहस्थ यदि सौ अंत्येष्टियों में जा आए तो संन्यासी हो जाता है और यदि संन्यासी सौ विवाह समारोहों में हो आए तो गृहस्थ हो जाता है।

वस्तुतः मनुष्य अपने परिवेश के अनुरूप शनैः-शनैः ढलता है। इर्द-गिर्द जो है, उसे देखने, फिर अनुभव करने, अंततः जीने लगता है मनुष्य।

जीने से आगे की कड़ी है दासता। आदमी अपने परिवेश का दास हो जाता है, ओढ़ी हुई स्थितियों को  सुख मानने लगता है।

परिवेश की इस दासता को आधुनिक यंत्रवत जीवन जीने की पद्धति से जोड़कर देखिए। विराट अस्तित्व के बोध से परे सांसारिकता के बेतहाशा दोहन में डूबा मनुष्य अपने चारों ओर खुद कंटीले तारों का घेरा लगाता दिखेगा।

उसकी स्थिति जन्म से पिंजरा भोगनेवाले सुग्गे या तोते-सी हो गई है।

सुग्गे के पंखों में अपरिमित सामर्थ्य, आकाश मापने की अनंत संभावनाएँ हैं किंतु निष्काम कर्म बिना, आध्यात्मिक संभावना उर्वरा नहीं हो पाती।

निरंतर पिंजरे में रहते-रहते एक पिंजरा मनुष्य के भीतर भी बस जाता है। परिवेश का असर इस कदर कि पिंजरा खोल दीजिए, पंछी उड़ना नहीं चाहता।

वर्षों पूर्व लिखी अपनी एक कविता स्मरण हो आई है-

पिंजरे की चारदीवारियों में/ फड़फड़ाते हैं मेरे पंख/ खुला आकाश देखकर / आपस में टकराते हैं मेरे पंख / मैं चोटिल हो उठता हूँ /अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ / अपनी असहायता को  / आक्रोश में बदल देता हूँ / चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ / अपलक नीलाभ निहारता हूँ / फिर थक जाता हूँ /टूट जाता हूँ / अपनी दिनचर्या के / समझौतों तले बैठ जाता हूँ / दुख कैद में रहने का नहीं / खुद से हारने का है / क्योंकि / पिंजरा मैंने ही चुना है / आकाश की ऊँचाइयों से डरकर / और / आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ / इस कैद से ऊबकर../ एक साथ, दोनों साथ / न मुमकिन था, न है / इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ / खुले बादलों का आमंत्रण देख / पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ / फिर बिन उड़े / पिंजरे में मिली रोटी देख / पंख समेट लेता हूँ../अनुत्तरित-सा प्रश्न है / कैद किसने, किसको कर रखा है?

वास्तविक प्रश्न यही है कि कैद किसने, किसको कर रखा है?

प्रश्न यद्यपि समष्टिगत है किंतु व्यक्तिगत उत्तर से ही समाधान की दिशा में यात्रा आरंभ हो सकती है।….आरंभ करें!

हे, यही अपरंपार संसार का सार है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 37 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 37 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 37) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 37☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

इक तुम्हारा ख्याल

ही  मुकम्मल  है…

वो कितना खुशनसीब

जिसे तू हासिल है…

 

Your thought alone is

unblemishedly complete

How lucky is that person

who possesses you..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जब भी तुम मुझे ढूँढना

चाहो, तो  सुन  लो…

मेरी  पसंदीदा  जगहों में,

एक  तुम्हारा  दिल  है…

 

Listen, whenever you’re

desirous of finding me …

Among my most favorite

places, one is your heart..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तुम लिख कर लाना हर फ़िक्र

एक कोरे कागज़ पर, फिर हम

सिखाऐंगे तुम्हे कि कैसे जहाज

बनाकर उनको उडाया जाता है…

 

Bring in writing every worry

on a  blank  paper, then I’ll

teach  you  how  to make

aeroplane and fly them…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तैरना तो आता था हमें,

पर  जब  उसने  हाथ…

ही  नहीं  पकडा़  तो डूब

जाना  ही  अच्छा  लगा…

 

I did know swimming,

But when he didn’t hold

My hand, I preferred it

Better to get drowned..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 38 ☆ नवगीत – सड़क पर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘नवगीत – सड़क पर ’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 38 ☆ 

☆ नवगीत – सड़क पर ☆ 

फ़िर सड़क पर

भीड़ ने दंगे किए

.

आ गए पग

भटकते-थकते यहाँ

छा गए पग

अटकते-चलते यहाँ

जाति, मजहब,

दल, प्रदर्शन, सभाएँ,

सियासी नेता

ललच नंगे हुए

.

सो रहे कुछ

थके सपने मौन हो

पूछ्ते खुद

खुदी से, तुम कौन हो?

गए रौंदते जो,

कहो क्यों चंगे हुए?

.

ज़िन्दगी भागी

सड़क पर जा रही

आरियाँ ले

हाँफ़ती, पछ्ता रही

तरु न बाकी

खत्म हैं आशा कुंए

.

झूमती-गा

सड़क पर बारात जो

रोक ट्रेफ़िक

कर रही आघात वो

माँग कन्यादान

भिखमंगे हुए

.

नेकियों को

बदी नेइज्जत करे

भेडि.यों से

शेरनी काहे डरे?

सूर देखें

चक्षु ही अंधे हुए

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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