(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तक… पर्यटन। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “विस्तार है गगन में…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 211 ☆देखो दो दो मेघ बरसते… ☆
दोस्ती, रिश्ता, व्यवहार बराबरी में ही करना चाहिए। जब तक एक स्तर नहीं होगा तो विवाद खड़े होंगे। हमारे बोलचाल में अंतर होने से समझने की क्षमता भी अलग होगी। जब भी सच्चे व्यक्ति को जान बूझकर नीचे गिराने का प्रयास होगा तो दोषी व्यक्ति को ब्रह्मांडअवश्य ही दण्ड देता है।
तकदीर बदल परिदृश्य तभी
बदलेंगे क़िस्मत के लेखे।
श्रम करना होगा मनुज सभी
जब स्वप्न विजय श्री के देखे।।
पत्थरों के जुड़ने से पहाड़ बन सकता है, बूंदो के जुड़ने से समुद्र बन सकता है तो यदि हम नियमित थोड़ा – थोड़ा भी परिश्रम करें तो क्या अपनी तकदीर नहीं बदल सकते हैं। अब चींटी को लीजिए किस तरह अनुशासन के साथ क्रमबद्ध होकर असंभव को भी संभव कर देती है।
जहाँ चार बर्तन होते हैं वहाँ नोक – झोक कोई बड़ी बात नहीं। कुछ लोगों को आधी रोटी पर दाल लेने में आनंद आता है ऐसा एक सदस्य ने विवाद को बढ़ाने की दृष्टि से कहा।
तो दूसरे ने मामले को शान्त करवाने हेतु कहा – जिंदगी के हर रंगों का आनन्द लेना भी एक कला है जिसे सभी को आना चाहिए तभी जीवन की सार्थकता है।
सबसे समझदार व अनुभवी सदस्य ने कहा क्या हुआ आप प्रेम का घी और डाल दिया करिये दाल व रोटी दोनों का स्वाद कई गुना बढ़ जायेगा।
ये तो समझदारी की बातें हैं जिनको जीवन में उपयोग में लाएँ, लड़ें – झगड़े खूब परन्तु शीघ्र ही बच्चों की तरह मनभेद मिटा कर एक हो जाएँ तभी तो हम अपने भारतीय होने पर गौरवान्वित हो सकेंगे।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चोरों की फैक्ट्री: उज्ज्वल भविष्य की गारंटी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 19 – चोरों की फैक्ट्री: उज्ज्वल भविष्य की गारंटी☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
एक छोटे से कस्बे में, रात के अंधेरे में, एक अजीबोगरीब स्कूल का उद्घाटन हुआ। कोई शासकीय स्कूल नहीं, कोई अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं, बल्कि यह था ‘चोरों की पाठशाला’। यहां का नारा था, “प्लेसमेंट गारंटी, परमानेंट जॉब्स!” फीस सिर्फ 2 से 3 लाख रुपए, और उम्र की सीमा? बस 12 से 13 साल। यह वह स्कूल था जहां ‘चोर बनने का सपना’ देखा जाता था, और उसे हर कीमत पर पूरा किया जाता था।
पाठशाला के दरवाजे पर कदम रखते ही छात्रों के चेहरे पर एक अलग चमक दिखाई देती है। कोई कक्षा के भीतर कुर्सी तोड़ रहा है, तो कोई दरवाजा। शिक्षक भी कम नहीं, उन्हें 20 साल का अनुभव था, लेकिन वह किसी विद्यालय में नहीं, बल्कि पुलिस के हवालात में। उनकी एक ही सीख थी, “शादी-ब्याह के मौके पर चुराना है तो हाथ में चूड़ी पहनना जरूरी है, ताकि ध्वनि सुनकर पता चल सके कि कंगन की आवाज कितनी मीठी है।”
पहली कक्षा में दाखिल होते ही विद्यार्थी सीखते हैं, “सिल्क की साड़ी कैसे पहचानें और कैसे उसे तेजी से गायब करें।” दूसरी कक्षा में उन्हें यह सिखाया जाता है कि “जेवर कैसे पहचानें और कैसे उसे जेब में डालें।” यहां किताबें नहीं, बल्कि तिजोरियों की नकली चाबियां और ताले होते हैं। बच्चों को सिखाया जाता है कि, “सफल चोर वही है जो खुद चोरी करता है और चोरी का इल्जाम दूसरों पर डालता है।”
शिक्षा का स्तर ऐसा था कि पाठशाला के विद्यार्थियों के लिए कोई भी शास्त्र अपरिचित नहीं था। संस्कृत के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ को उन्होंने ‘सर्वे भवन्तु चोरीनः’ में बदल दिया था। शिक्षक अपने विद्यार्थियों को सिखाते, “किसी भी शादी में दूल्हे की बहन का हार सबसे महंगा होता है, इसलिए पहले उसी पर हाथ साफ करो।”
कक्षा के अंत में एक वरिष्ठ विद्यार्थी ने उठकर कहा, “गुरुजी, अगर किसी शादी में हमारे अपने रिश्तेदार हों तो क्या करना चाहिए?” गुरुजी ने हंसते हुए जवाब दिया, “बेटा, रिश्तेदारों से ही शुरुआत करो, ताकि तुम सीख सको कि धोखा क्या होता है।”
फिर आया प्लेसमेंट का समय। यह वह क्षण था जब हर विद्यार्थी का सपना साकार होने जा रहा था। हर विद्यार्थी के चेहरे पर गर्व की भावना थी, क्योंकि 100 प्रतिशत प्लेसमेंट गारंटी के साथ वह अब एक प्रोफेशनल चोर बनने जा रहे थे। नौकरी की पहली पेशकश नामी गिरामी शहर में थी। पहला वेतन पैकेज? रुपए 5 लाख। गुरुजी ने कहा, “बेटा, अब तुम उड़ने के लिए तैयार हो। याद रखना, जीवन में ईमानदारी सिर्फ पुलिस की डायरी में ही अच्छी लगती है।”
एक दिन, पाठशाला के एक शिक्षक ने एक नया अध्याय शुरू किया, “किसी भी विवाह में मौजूद लोगों का ध्यान कैसे बांटना है?” उन्होंने बताया, “बेटा, जब दूल्हा और दुल्हन फेरे ले रहे हों, तो तुम चुपके से दूल्हे की जेब से उसका पर्स निकालो। अगर तुम यह कर सके, तो समझो तुम्हारी डिग्री पूरी हो गई।”
एक और विद्यार्थी ने पूछा, “गुरुजी, अगर पकड़े गए तो क्या करें?” गुरुजी ने अपनी मुठ्ठी बांधते हुए कहा, “बेटा, अगर तुम पकड़े गए तो यही तुम्हारा फाइनल एग्जाम होगा। याद रखना, जमानत पर बाहर आना कोई बड़ी बात नहीं, बड़ी बात यह है कि जेल से बाहर आकर अगले दिन फिर से शादी में चुराने जाना।”
दिन ब दिन, यह पाठशाला पूरे प्रदेश में मशहूर हो गई। लोग दूर-दूर से अपने बच्चों को यहां भेजने लगे। वैसे भी किस माता-पिता का सपना नहीं होता कि उनका बच्चा भी ‘सफल’ हो?
इस पाठशाला की एक छात्रा ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, “यहां आकर मुझे एहसास हुआ कि जीवन में सफल होने के लिए सिर्फ मेहनत की जरूरत नहीं होती, बल्कि सही मौके की भी। शादी में जाने के लिए अब मैं तैयार हूं, और मुझे यकीन है कि मैं वहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगी।”
इस पाठशाला के शिक्षकों की यही सीख थी, “सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता, लेकिन चोरी करना एक बेहतरीन शॉर्टकट है।”
पाठशाला के हर छात्र ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन से साबित कर दिया कि वह यहाँ सिर्फ चोर बनने नहीं, बल्कि ‘मास्टर चोर’ बनने आए थे। आखिरकार, जब शादी में सैकड़ों लोग मौजूद हों, तो कौन सोचता है कि उनमें से एक-दो चोर भी होंगे?
यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। पाठशाला के एक विद्यार्थी ने, जिसने हाल ही में अपनी डिग्री प्राप्त की थी, किसी बड़ी शादी में चोरी की। उसने अपने शिक्षक की बताई हुई हर बात को ध्यान में रखा। जैसे ही वह शादी के समापन पर जा रहा था, उसने अपनी जेब से एक चूड़ी निकाली, और मुस्कुराते हुए बोला, “गुरुजी सही कहते थे, जीवन में असली मजा चुराने में है, पकड़े जाने में नहीं।”
इस कहानी का अंत क्या होगा? यह तो समय ही बताएगा, लेकिन एक बात तो तय है, इस पाठशाला के हर छात्र ने साबित कर दिया कि वह असली चोर है, और किसी भी शादी में जाने से पहले उन्हें याद रखना चाहिए, “सावधान! चोरों की पाठशाला के छात्र आ रहे हैं।”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – दुनियां एक रंगमंच।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 299 ☆
बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हमसै कभौं कोई कुछ कयें और हम न करें ऐसो होई न सकत. संपादक जी ने भाट्सऐप पे कई कि हमें बुंदेली में कछु लिखने ही है. काऐ से कि अभिनंदन ग्रंथ की किताब बन रई हैं बुंदेली की. अच्छो काम है, अपनी जड़ों को सींचने भोतई जरूरी और अच्छो काम है.
सो हम बुंदेली में लिखने को मन बना के बैठ तो गये, पर सच्ची कै रये, हमाओ दिमाक थोड़ो कुंद है बुंदेली में. पहले कभौं कुछ लिखोई नई हतो हमने बुंदेली में. और एक बात बतायें भले हमाई अम्मा बरी, बिजौरा, बुकनू, कचरियां बनात हैं मगर हमाए घर में हम औरें खड़ी हिन्दी में बतकई करत हैं, सो बुंदेली में लिखबे को तै करके हम बुरे फंसे. हमाओ फील्ड नई है ऐ. फिर हमने सोची कि ऐसो कौन सों अंग्रेजी में हम बड़े एक्सपर्ट हैं, पर बड़े बड़े पेपर लिखत हैं न, बोलत भी हैं, अरे दुनियां घूम आये अंग्रेजी बोल बोल के. फिर आज को जमानो तो ए आई को है, जो अगर कहीं फंसे तो इंटरनेट को आसरो है ना. तो हम कम्प्यूटर खोल के बैठ गये लिखबे को. कौनो मुस्किल नई, हम लिखहैं, आखिर हमो नरो गड़ो है न मण्डला के महलात में.
अब अगलो पाइंट जे आऔ कि आखिर लिखें तो का लिखें ? सोचे कि सबसे अच्छो ये है बुंदेली के बारे में लिख डारें. तो ऐसो है कि देस के बीचोंबीच को क्षेत्र है बुन्देलखण्ड. इते जौन लोकभाषा बोलचाल में घरबार में लोग बोलत हैं, ओही है बुंदेली. कोई लिखो भओ इतिहास नई होने से तै नई है कि बुंदेली कित्ती पुरानी बोली है. पर जे तो सौ फीसद तै है कि बुंदेली बहुतै मीठी बोली है, अरे ईमें तो गारी भी ऐसीं लगें जैसे कान में सीरा पड़ रओ. भरोसा नई हो तो कोनो सादी में बरात हो आओ. घरे पंगत में बिठाके, प्रेम से पुरी सब्जी और गुलगुले खिला खिला के ऐसी ऐसी गाली देंवे हैं लुगाईयां लम्बे लम्बे घूंघट मे कि सुन के तुम सर्मा जाओ. मगर मजाल है कि तुमे बुरो लगे. अरे ऐसी मिठास भरी संस्कृति है बुंदेली की.
हम इत्तो कै सकत हैं कि भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में सोई बुंदेली बोली का उल्लेख मिलत है, मने भौतई पुरानी है अपनी बुंदेली. कहो जा सकत है कि बुंदेली की अम्मा प्राकृत शौरसेनी भाषा रई है और संस्कृत को बुंदेली के पिता कै सकत हैं. जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचना कही जात हैं. जगनिक और विष्णुदास को बुंदेली के पहले कवि माने जात हैं. भारतेन्दु के टैम के लोककवि ईसुरी के रचे भये फाग गीत आज भी बुंदेलखंड में मन्डली वालों के रटे भए हैं. ईसुरी के गीतन में बुन्देली लोक जीवन की मिठास, अल्हड़ प्रेम की मादकता और रसीली रागिनी है. जे गीत तबियत तर करके मदमस्त कर देत हैं. पढ़बे बारों ने ईसुरी पर डाक्टरेट कर डारी हैं. उनके गीतन में जीवन को मनो बिग्यान, श्रंगार, समाज, राजनीति, भक्ति, योग, संयोग, वियोग, लौकिक शिक्षा, काया, माया सबै कुछ है. गांवन को बर्णन ईसुरी के फागों में कियो गओ है. मजे की बात जे है कि इत्ते पर भी बुंदेली को लिखो भओ बहुत कम है, सब याददास्त के जरिये सुनत कहत सासों से बहुओ और दादा से पोतों तक चल रओ है. बुंदेली में काम करबों को बहुत गुंजाइस है. बुंदेली में बारता मने गद्य में कम लिखो गओ है. गीत जादा हैं. फाग, गारी, बिबाह गीत, खेतन में काम करबे बकत गाने वाले गीत बगैरा बहुत हैं. जा भाषा सारे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय. मगर बोली के कई रूप में बोलबे को लहजा जगा के हिसाब से बदलत जात है. जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. जा हिसाब से बुंदेलखंड में बहुतई बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी, विदीशयीया( विदिशा जिला में बोली जाने वाली) बगैरा.
तो हमाओ आप सबन से हाथ जोड़ के बिनती है कि बुंदेली कि डिक्सनरी बनाई जाये, जो कहाबतें और मुहाबरे अपनी नानी दादी बोलत हैं उन्हें लिख के किताब बनाई जाए. बुंदेली गीतों को गाकर यू ट्यूब पर लोड करो जाये. जेमें अपने नाती नतरन को हम कभौं बता सकें कि हाउ स्वीट इज बुंदेली.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “हौमेटो की आत्मकथा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 184 ☆
☆ बाल कहानी – हौमेटो की आत्मकथा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
सब्जियों के राजा ने कहा, ‘‘चलो ! आज मैं अपनी आत्मकथा सुनाता हूं.’’ सभी सब्जियों ने हांमी भर दी, ‘‘ ठीक है. सुनाओ. आज हम आप की आत्मकथा सुनेंगे.’’ बैंगन ने कहा.
हौमोटो ने अपनी कथा सुनाना शुरू की.
‘‘बहुत पुरानी बात हैं. उस वक्त मैं रोआनौक द्वीप पर रहता था. वहीं उगता था. वैसे मेरा वैज्ञानिक नाम बहुत कठिन है लाइको पोर्सिकोन एस्कुलेंटक. यह याद रखना बहुत कठिन है. मेरी समझ में नहीं आता है वैज्ञानिकों ने मेरा पहला नाम इतना कठिन क्यों रखा था.
इस नाम को बाद में सोलेनम लाइको पोर्सिकोन कर दिया गया. यह नाम मेरे पहले वाले नाम से बहुत ज्यादा कठिन नहीं है. मगर, मुझे क्या ? मुझे अपने काम से काम रखना है.
कहते हैं कि मेरी उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका के एंडीज नाम की जगह पर हुई थी. वहां मैं बहुतायात में पाया जाता था. मेरा हरालाल आकारप्रकार बहुत सुदंर था. इस कारण मुझे बहुत ज्यादा पसंद किया जाता था.
मैंक्सिको के मय जाति के लोग मुझे फिन्टो मेंटल कहते थे. वे मेरी इसी विशेषता के कारण मेरी खेती किया करते थे. वे मुझे मेरे कठिन नाम से नहीं पुकारते थे. ये तो वैज्ञानिक लोगों के लिए था. आम लोग तो कुछ समय बाद मुझे मेटल या हौमेटो कहते थे. बाद में यह नाम और सरल होता गया. लोग मुझे धीरेधीरे हौमेटो कहने लगे. यह हौमेटो कब टौमेटो में बदल गया पता ही नहीं चला.’’
‘‘ओह ! तो तुम हौमेटो से टौमेटो बने हो ?’’ आलू ने पूछा.
‘‘हां भाई. यह अटठारहवी शताब्दी की बात है. उस वक्त लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. मैं कमरे या दालान में सजाने के काम आता था. जैसे आज के लोग क्यारियों में फूल लगा कर अपना आंगन सजा कर रखते हैं. उसी तरह पुराने लोग मुझे क्यारियों में सजावटी पौधे के रूप में मुझे लगाते थे.
जब मैं मेरा फल यानी हौमेटो कच्चा रहता है तब वह हरा रहता था. जब यह हौमेटो पक जाता है तब लाल हो जाता है. इसलिए सजावटी क्यारियों में कहीं लाल टौमेटो होते थे कहीं हरे. इस से क्यारियां बहुत खूबसुरत लगती थी. जैसे फूलों की तरह यह नया फूल लगा हो.
इन्हें तोड़ कर कुछ व्यक्ति अपनी बैठक में मुझे सजा लिया करते थे. जैसे फूलों को गमलों में सजाया जाता है. वैसे मुझे प्लेट में सजा कर रख दिया जाता था. कालांतर में मैं इधरउधर घुमता रहा. लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. उस समय तक मैं अखाद्य यानी नहीं खाने वाली चीज था.
मेरा उपयोग खाने में इसलिए नहीं होता था, क्यों कि लोग मुझे जहरीली चीज समझते थे. उन का मत था कि इसे कोई खा लेगा तो उस की मृत्यु हो जाएगी. मगर, यह धारणा भी जल्दी टूट गई. इस धारण के पीछे एक व्यक्ति की जिद थी. वह व्यक्ति एक रंगसाज था.
हुआ यू कि अमेरिकी जहाज पर एक व्यक्ति काम करता था. वह जहाज को रंगरोगन व सजाने का काम करता था. यह सन 1812 के लगभग की बात है. वह मेरी खूबसूरती पर मोहित हो गया. यह चीज इतनी खूबसुरत है तो खाने में कैसी होगी ? इसलिए वह मेरा स्वाद जानना चाहता था. वह मुझे तोड़ कर खाने लगा.
उस के दोस्त भी जानते थे कि मैं एक जहरीली चीज हूं. जिसे कोई भी खाएगा वह मर जाएगा. इसलिए उस के दोस्तों ने उसे ऐसा करने से मना किया. उसे बहुत समझाया कि इसे खाने से तू मर जाएगा. मगर, वह माना नहीं. उस ने मुझे खा लिया. उसे मेरा स्वाद बहुत बढ़िया लगा.
जब उस के दोस्तों ने देखा कि मुझे खाने से वह व्यक्ति मरा नहीं. तब उन्हें यकीन हो गया कि मैं जहरीला नहीं हूं. तब उन्हों ने भी मुझे नमकमिर्ची लगा कर खाया. उन्हें मेरा स्वाद बहुत अच्छा लगा.
यह बात उस समय अचंभित करने वाली और अनोखी थी. कोई व्यक्ति जहरीला पदार्थ खा ले और मरे नहीं. यह सभी के लिए चंकित कर देने वाली होती है. फिर वही व्यक्ति कहे कि यह तो बड़ी स्वादिष्ठ चीज है. बस इसी कारण यह अनोखी घटना उस वक्त वहां के अखबार में प्रकाशित हुई थी. बात इतनी फैली कि लोगों ने मुझे खाना शुरू कर दिया . यह सब से पहली शुरूआत थी जब मैं सजावटी वस्तु से खाने वाली वस्तु में तब्दील हो गया.
कुछ एशियाई लोग मुझे हौमेटो नहीं बोल पाते थे. उन्हों ने टोमेटो कहना शुरू किया. फिर धीरेधीरे मुझे टमाटो बोलना शुरू कर दिया. कालांतर में मेरा हिन्दी नाम टमाटर पड़ गया. जो आज भी प्रचलित है.
यह बात कितना प्रमाणित है कि हिन्दी नाम टोमेटो से टमाटर कैसे पड़ा, यह मुझे पता नहीं. मगर, एशियाई देशों में मुझे टमाटर नाम से ही जाना जाता है. अंग्रेजी में मुझे आज भी टौमेटो ही कहते हैं.’’
‘‘और मैं बटाटो,’’ आलू ने कहा.
‘‘सही कहते हो भाई,’’ टमाटर ने कहना जारी रखा, ‘‘एक ओर मजेदार बात है. यह बात उस समय की है जब सन् 1812 में जेम्स नामक व्यक्ति ने सास बनाने की विधि खोज निकाली थी. वह विभिन्न चीजों को मिला कर चटनी बनाया करता था. उस समय मशरूम आदि चीजों से स्वादिष्ट चटनी बनाई जाती थी. मछली और विभिन्न चीजों की मांसाहारी चटनी उस वक्त ज्यादा प्रचलित थी.
इस व्यक्ति ने मशरूम से बनने वाली चटनी में मेरा प्रयोग करना शुरू किया. मेरे प्रयोग से चटनी का स्वाद ओर अच्छा हो गया. तब से मैं चटनी के लिए उपयोग में आने लगा.
सन् 1930 तक मेरा प्रयोग मशरूम के साथ होता रहा. जब पहली बार मेरा प्रयोग मशरूम की जगह किया गया. इस से चटनी का स्वाद ओर बढ़ गया. तब यह पहला अवसर था जब मैं चटनी के रूप में स्वतंत्र रूप से उपयेाग में आने लगा. उस वक्त मुझे स्वतंत्र खाद्यसामग्री घोषित कर दिया गया.
उस के बाद मेरे दिन चल निकले. मैं हर सब्जी में स्वाद बढ़ाने के लिए डाला जाने लगा. यह देख कर हैज कंपनी ने 1872 में पहली बार मेरा कैचअप के रूप में प्रायोगिक इस्तेमाल किया. मेरा स्वाद लोगों को इतना भाया कि मैं ने अपना स्वतंत्र रूप ले लिया. आजकल मैं विभिन्न स्वादों और रूपों में मिलने लगा हूं. पहले मेरे अंदर रस ज्यादा रहता था. आजकल मैं बिना रस का भी रहता हूं.’’
‘‘ यह मेरी छोटीसी आत्मकथा थी. सुन कर तुम्हें अच्छी लगी होगी.’’ टमाटर के यह कहते ही सभी सब्जियों ने ताली बजा दी.
‘‘ वाकई तुम्हारी आत्मकथा अच्छी थी.’’ बहुत देर से चुप बैठी आलू ने कहा, ‘‘ अगली बार हम किसी ओर की आत्मकथा सुनना चाहेंगे.’’ कहते हुए आलू चुप हो गया.
(पूर्वसूत्र – “आणखी एक. मनात आले ते बोललो नाही तर मलाच चैन पडणार नाही म्हणून सांगतो. तुम्ही काल एवढा त्रास सहन करून दत्तदर्शनासाठी वाडीला गेलात तेव्हाच तुमच्या मनातल्या भावना महाराजांपर्यंत पोचल्या आहेत. आणि त्याच महत्त्वाच्या. त्यामुळे आता परत जाऊन दिवसभर काम करून पुन्हा पौर्णिमेच्या दर्शनासाठी आज दुपारच्या बसने नृ. वाडीला यायची धडपड कराल म्हणून मुद्दाम हे सांगतोय. दगदग नका करू. “
सासरे सांगत होते. मी आज्ञाधारकपणे मान हलवली. निरोप घेऊन पाठ वळवली. पण मन स्वस्थ नव्हतं. नकळत का होईना पण आपल्याकडून घडलेल्या चुकीमुळेच आपला संकल्प सिद्धीस जाण्यात अडथळा निर्माण झाल्याची खंत मनात घर करून राहिली होती. हातातून काहीतरी अलगद निसटून जात असल्याच्या भावनेने मन उदास झाले होते. तीच उदासी सोबत घेऊन माझा परतीचा प्रवास सुरू झाला होता!!)
एरवी सगळ्यांशीच मोजकं बोलणारे माझे सासरे आज भावनेच्या भरात कां होईना अंत:प्रेरणेने जे बोलले ते माझ्या काळजीपोटीच होते. पण त्यातही त्यांच्याही नकळत एक सूचक संदेश दत्तगुरुंनी माझ्यासाठी पेरुन ठेवला असल्याची जाणिव या परतीच्या प्रवासात माझ्या अस्वस्थ मनाला अचानक स्पर्श करुन गेली आणि मी दचकून भानावर आलो. एरवी नंतर मला कदाचित कामांच्या घाईगर्दीत जे जाणवलंही नसतं तेच ही जाणिव नेमकं मला हळूच सुचवून गेली होती!मी अक्षरश: अंतर्बाह्य शहारलो. ‘आज पौर्णिमा आहे. मी मनात आणलं तर आज पुन्हा दुपारच्या बसने नेहमीसारखं निघून नृ. वाडीला जाणं मला अशक्य नाहीय. सासऱ्यांनी जे मी करीन हे गृहित धरलं होतं त्याचा तोवर मी विचारही केला नव्हता. पण आता मात्र मी काय करु शकतो, करायला हवं याची नेमकी दिशा मला मिळाली आणि मनातल्या मनात त्याचं
नियोजनही सुरू झालं!अर्थात ते जमेल न जमेल हे माझ्या स्वाधीन नव्हतं. जमायचं नसेल तर कांहीही होऊ शकतं. बस चुकणं, ती मिळाली तरी बंद पडणं, वाटेत अपघात होणं किंवा आज बॅंकेत पोचताच अचानक आॅडिट सुरु होणं, ए. जी. एम् अचानक ब्रॅंच व्हिजिटसाठी येणं असं कांहीही. यातल्या कोणत्याच गोष्टी माझ्या हातातल्या नव्हत्या आणि त्यापैकी कांही घडलंच तर त्याला माझा इलाजही नव्हता. अखेरच्या क्षणापर्यंत प्रयत्न करणं एवढंच मी करू शकत होतो आणि ते मी करायचं असं ठरवून टाकलं!!
त्यामुळे अर्थातच प्रवास संपताना मनातली अस्वस्थताही कमी झाली होती. ब्रॅंचला गेल्यानंतर मात्र असंख्य व्यवधानं तिथं माझीच वाटच पहात होती. त्यामुळे कामाचं चक्र लगेच सुरु झालं न् पुढे बराच वेळ श्वास घ्यायलाही फुरसत मिळाली नाही. रांजणेंच्याजवळ मनातला विचार बोलून ठेवायचंही भान नव्हतं. गर्दीचा भर ओसरला तेव्हा सहज माझं लक्ष भिंतीवरच्या घड्याळाकडे गेलं. दुपारचे दोन वाजून गेले होते. मी रांजणेना नेमक्या परिस्थितीची कल्पना दिली. सहज शक्य झालं तर आज सव्वातीनच्या बसने परत नृ. वाडीला जाऊन यायची इच्छा असल्याचंही त्यांना सांगितलं.
“अजून तुमचं जेवणही झालेलं नाहीय. मेस बंद होण्यापूर्वी तुम्ही लगेच जाऊन जेवून या. तोवर मी आधी कॅश टॅली करून ठेवतो. म्हणजे कॅश चेक करून तुम्हाला निघता येईल. बाकीची माझी कामं तुम्ही गेल्यानंतर मी केली तरी चालू शकेल. ” रांजणेंनी मला आश्वस्त केलं. त्याक्षणानंतर सगळं मार्गी लावून मी स्टॅंण्ड गाठलं. बसमधे मनासारखी जागा मिळाली. मान मागे टेकवून मी शांतपणे डोळे मिटले. आदल्या दिवशी याच बसमधे मी असाच बसलो होतो तेव्हा पुढे काय घडणाराय याबाबतीत मी पूर्णतः अनभिज्ञ होतो. त्यानंतरच्या सगळ्याच घटना माझ्या नजरेसमोरुन सरकत जात असताना मला त्या स्वप्नवतच वाटत राहिल्या.
नृ. वाडीला पोचलो तेव्हा मनातली उत्कट इच्छा फलद्रूप झाल्याचं समाधान मन उल्हसित करीत होतं!दत्तदर्शन घेताना आत्यंतिक आनंदभावनेने मन भरून येत असतानाच माझी मिटली नजर ओलावली होती!
दर्शन झाल्यानंतर हीच कृतार्थ भावना मनात घेऊन मी पायऱ्या चढून वर आलो आणि मला वास्तवाचं भान आलं. रात्रीचे दहा वाजत आले होते. इथेच मुक्काम केला तर पहाटे वेळेत सांगलीला पोचून सहाची बस मिळवणं शक्य होणार नव्हतं. त्यासाठी मुक्कामाला सांगलीला जाणं आवश्यक होतं.
सांगली स्टॅंडला बस येताच मी घाईघाईने बसमधून उतरलो. पावलं नकळत सासुरवाडीच्या घराच्या दिशेने चालू लागताच मी थबकलो. तिथे जाणं मला योग्य वाटेना. काल सासऱ्यांनी पोटतिडकीने मला जे करु नका असं सांगितलं होतं नेमकं तेच मी केलेलं होतं. ‘आता त्यांच्याकडे जायचं तर हे लक्षात येऊन त्यांचं मन दुखावलं जाऊ शकतं. तसं होऊन चालणार नाही’ असा विचार मनात आला. मी परत फिरलो. खिशातल्या पैशांचा अंदाज घेतला. केवळ दोनतीन तास पाठ टेकण्यासाठी लाॅजवर जाणं ही त्याक्षणी गरज नव्हे तर चैन ठरणार होती हे लक्षात आलं आणि पुन्हा स्टॅण्डवर आलो. ती पूर्ण रात्र सांगली स्टँडवर बसून काढली!
स्टॅंडच्या बसून रात्र जागून काढताना सलगच्या धावपळीच्या प्रवासानंतरचा अपरिहार्य असा थकवा होताच पण त्याचा त्रास मात्र जाणवत नव्हता. कारण मनातलं पौर्णिमा अंतरली नसल्याचं समाधान त्यावर फुंकर घालत होतं! त्याच मन:स्थितीत मी कधीकाळी ऐकलेले बाबांचे शब्द मला स्वच्छ आठवले.
‘दत्तसेवा अनेकांना खूप खडतर वाटते. त्यामुळेच ‘मी’ करतो असं म्हणून ती प्रत्येकालाच जमत नाही. निश्चय केला तरी त्या निश्चयापासून परावृत्त करणारे प्रसंग सतत समोर येत रहातात. तेच आपल्या कसोटीचे क्षण!जे त्या कसोटीला खरे उतरतील तेच तरतात…!’
त्या रात्री बाबांच्या या शब्दांचा नेमका अर्थ मला माझ्या त्या दिवशीच्या अनुभवाच्या पार्श्वभूमीवर खऱ्या अर्थाने समजला होता!!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर एक विचारणीय कविता “आओ फिर से गोविंद…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #245 ☆
☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – आओ फिर से गोविंद…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आँखों में मधुवन…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 68 ☆ आँखों में मधुवन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆