हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 77 ☆ संतुलन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 77 – संतुलन☆

मुंबई में हूँ और सुबह का भ्रमण कर रहा हूँ। यह इलाका संभवत: ऊँचे पहाड़ को काटकर विकसित किया गया है। नीचे समतल से लेकर ऊपर तक अट्टालिकाओं का जाल। अच्छी बात यह है कि विशेषकर पुरानी सोसायटियों के चलते परिसर में हरियाली बची हुई है। जैसे-जैसे ऊँचाई की ओर चलते हैं, अधिकांश लोगों की गति धीमी हो जाती है, साँसें फूलने लगती हैं। लोगों के जोर से साँस भरने की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही हैं।

लम्बा चक्कर लगा चुका। उसी रास्ते से लौटता हूँ। चढ़ाव, ढलान में बदल चुका है। अब कदम ठहर नहीं रहे। लगभग दौड़ते हुए ढलान से उतरना पड़ता है।

दृश्य से उभरता है दर्शन, पार्थिव में दिखता है सनातन। मनुष्य द्वारा अपने उत्थान का प्रयास, स्वयं को निरंतर बेहतर करने का प्रवास लगभग ऐसा ही होता है। प्रयत्नपूर्वक, परिश्रमपूर्वक एक -एक कदम रखकर, व्यक्ति जीवन में ऊँचाई की ओर बढ़ता है। ऊँचाई की यात्रा श्रमसाध्य, समयसाध्य होती है, दम फुलाने वाली होती है। लुढ़कना या गिरना इसके ठीक विपरीत होता है।  व्यक्ति जब लुढ़कता या गिरता है तो गिरने की गति, चढ़ने के मुकाबले अनेक गुना अधिक होती है। इतनी अधिक कि अधिकांश मामलों में ठहर नहीं पाता मनुष्य। मनुष्य जाति का अनुभव कहता है कि ऊँचाई की यात्रा से अधिक कठिन है ऊँचाई पर टिके रहना।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, विषयभोगों के पीछे भागने की अति, धन-संपदा एकत्रित करने  की अति, नाम कमाने की अति। यद्यपि कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, तथापि अति अनंत है। हर पार्थिव अति मनुष्य को ऊँचाई से नीचे की ओर धकेलती है और अपने आप को नियंत्रित करने में असमर्थ मनुज गिरता-गिरता पड़ता रसातल तक पहुँंच जाता है।

विशेष बात यह है कि ऊँचाई और ढलान एक ही विषय के दो रूप हैं। इसे संदर्भ के अनुसार समझा जा सकता है। आप कहाँ खड़े हैं, इस पर निर्भर करेगा कि आप ढलान देख रहे हैं या ऊँचाई। अपनी आँखों में संतुलन को बसा सकने वाला न तो ऊँचाई  से हर्षित होता है,  न ढलान से व्यथित। अलबत्ता ‘संतुलन’ लिखने में जितना सरल है, साधने में उतना ही कठिन। कई बार तो लख चौरासी भी इसके लिए कम पड़ जाते हैं।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 33 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 33 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 33) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 33☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

लोग लम्हों में ही

ज़िंदा  रहते  हैं

वक़्त अकेला सिर्फ

इसी  सबब  से  है…!

 

People  live  mere

in the   moments

Time is aloof due

to this reason only…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रिश्तों  का  नूर  तो

मासूमियत  से  है…

ज़्यादा समझदारियों से…

रिश्ते  फ़ीके पड़ने लगते हैं…

 

Effulgence of relationships

resides just in innocence

Relationships begin to fade

with excess of wiseness!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सर  पर  ताज  रखते  ही,

दुश्मन तो मिल ही जायेंगे

पहले  दोस्त  तो  ढूँढ़  लूँ,

लिबास पहनकर फकीरी का..!

 

Inevitably many enemies will

be found with the coronation,

Let me first find the friends

donning the garb of a fakir..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अक्सर  वही  दीये

हाथों को जला देते हैं,

जिन्हें  हम  हवा  से

बचा  रहे  होते  हैं..!

 

Often,  the  same lamps

only  burn  the  hands,

whom we keep protecting

from  the  gust  of  wind!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 34 ☆ हर विचार का स्वागत … ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  कविता हर विचार का स्वागत …। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 34☆ 

☆ हर विचार का स्वागत …☆ 

आकर भी तुम आ न सके हो

पाकर भी हम पा न सके हैं

जाकर भी तुम जा न सके हो

करें न शिकवा, हो न शिकायत

*

यही समय की बलिहारी है

घटनाओं की अय्यारी है

हिल-मिलकर हिल-मिल न सके तो

किसे दोष दे, करें बगावत

*

अपने-सपने आते-जाते

नपने खपने साथ निभाते

तपने की बारी आई तो

साये भी कर रहे अदावत

*

जो जैसा है स्वीकारो मन

गीत-छंद नव आकारो मन

लेना-देना रहे बराबर

इतनी ही है मात्र सलाहत

*

हर पल, हर विचार का स्वागत

भुज भेंटो जो दर पर आगत

जो न मिला उसका रोना क्यों?

कुछ पाया है यही गनीमत

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ ख्वाहिश ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा  ख्वाहिश।  

☆ लघुकथा – ख्वाहिश ☆

हम दोनों पक्की सहेलियां थीं। मेरे कपड़े और खिलौने उसके कपड़े और खिलौनों से ज्यादा महंगे होते थे क्योंकि उसके पिता मेरे पिता के यहाँ काम करते थे।

नीलू को पढ़ने के साथ-साथ कॉपी किताबें और अपना सामान करीने से रखने का बहुत शौक था पिताजी से उसने एक छोटी सी पेटी की ख्वाहिश भी रखी थी।

उसके जन्मदिन के दिन उसके घर में पेटी आई भी पर उसके पिता ने कहा… “कि नहीं यह तो तुम्हारी पक्की सहेली याने मेरे साहब की बेटी के लिए है, क्योंकि कल उसका  जन्मदिन  है। तुम्हें अगले जन्मदिन पर खरीद देंगे।”

पूरे साल भर नीलू पेटी में कॉपी किताबें सजाने के सपने देखती रही जन्मदिन आया लेकिन पेटी नहीं आई। पिताजी 2 दिन के दौरे के लिए शहर से बाहर चले गए उसने राह देखी शायद लौटकर पेटी लेकर आएं लेकिन पेटी फिर भी नहीं आई। नीलू जब भी मेरे घर आती मेरी पेटी को हसरत भरी निगाहों से देखती। उसे हाथों में उठाती है पर उसका इंतजार प्रेमचंद के गबन उपन्यास की नायिका को चंद्रहार मिलने की आतुरता जैसा  कट रहा था।

साल पे साल बीतते गए पर पेटी फिर भी नहीं आई। आखिरकार उसकी शादी के दिन जब दहेज के सामानों में एक पेटी रखी थी उसे देखकर उसने सभी कीमती जेवरात और सामानों को छोड़कर उस पेटी को गोद में उठा लिया और उसकी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – एक आत्मकथा – वतन की मिटटी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का एक भावप्रवण आलेख “ एक आत्मकथा – वतन की मिटटी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  एक आत्मकथा – वतन की मिटटी

मैं घर से परदेश चला था, रोजी-रोटी की तलाश में। रेलवे स्टेशन पर‌ पहुँच कर मैंने एक सुराही तथा एक मिटृटी का गिलास लिया, रास्ते में शीतल जल  पीने के लिए और सफ़र कटता गया। उस सुराही के जल से साथ चल रहे सहयात्रियों की प्यास बुझाई। मुझे अपने सत्कर्मो पर गर्वानुभूति हो चली थी।  मुझे भी जोर की प्यास लगी थी। जैसे ही मैंने पानी से भरे  मिट्टी के गिलास को हाथ में उठा होंठों लगाना चाहा तभी वह सिसकती हुई मिट्टी बोल पड़ी “मै भारत देश की महान धरती के एक अंश  से बनी हूं। मैं तुम्हारे वतन की मिट्टी हूँ। मेरे संपूर्ण अस्तित्व को अनेकों नामों से संबोधित किया जाता है। मुझे लोग धरती, धरणी, वसुंधरा, रत्नगर्भा, महि‌, भूमि आदि न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। मैं बार बार  राजाओं महाराजाओं  की लोलुपता का शिकार हुई हूँ। मुझे प्राप्त करने की‌ इक्षा‌ रखने वाले राजाओ की गृहयुद्ध ‌की साक्षी भी मैं ही हूँ।

यह उस जमाने की बात है, जब प्लास्टिक का चलन शुरू ही  हुआ था लेकिन मिट्टी ने  भविष्य में आने वाले खतरे को भाँप लिया था।

वह मुझसे संवाद कर उठी –“उसने कहा ओ परदेशी  पहचाना मुझे, मैं तेरे वतन की मिट्टी हूँ। जब तू परदेश के लिए चला था, तभी से मैं तेरा साथ छूटने पर दुखी थी। मैं तुझे इसलिए बुला रही थी कि तुझे अपनी राम कहानी सुना सकूँ। लेकिन तूने मेरी सुनी कहाँ, तू मेरी वफ़ा को देख। मैंने फिर भी तेरा साथ नहीं छोड़ा और सुराही के रूप में चल पड़ी हूँ तेरे साथ तेरी प्यास बुझाने तथा तेरे साथ चल रहे इंसान की प्यास बुझाने के लिए। मुझे धरती खोद कर निकाल कर कुंभार अपने घर लाया। फिर मुझे रौंदा गया, मुझे रौंदे जाते देख मेरे एक पुत्र कबीर से मेरी दुर्दशा देखी न गई, उन्होंने मुझे माध्यम बना कुंभार को चेतावनी भी दे डाली और यथार्थ समझाते हुए कहा कि-

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे ।
इक दिन ऐसा आयेगा, मैं रुन्दूगी तोहे।।

लेकिन कुम्हार ने जिद नहीं छोड़ी। उसने मुझे आग में तपा दिया और गढ़ दी अनेकों आकृतियां अपनी आवश्यकता के अनुरूप। मैने एक दिन उसे भी अपनी गोद में जगह दे दिया वह सदा के लिए मुझमें समा गया। लेकिन मेरी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई और मैं दुकान से होती जीवन यात्रा तय करती तुमसे आ टकराई।  मैं आशंकित हूँ अपने भविष्य के प्रति। एक दिन तेरा स्वार्थ पूरा होते ही तू मुझे तोड़ कर फेंक देगा। काश मैं सुराही न होकर प्लास्टिक कुल में पैदा थर्मस होती तो यात्रा पूरी करने के बाद भी तेरे घर के कोने में शान से रहती।

याद रख मैं कृत्रिम नहीं हूँ।  मैं तेरी सभ्यता संस्कृति का वाहक तो हूँ ही, मुझसे ही तेरी पहचान भी है। मैं युगों-युगों से देवता और दानव कुल के बीच चल रहे संघर्षों की भी साक्षी रही हूँ। मैंने पारिवारिक पृष्ठभूमि के  युध्द देखे। आततायियों को धराशाई होते देखा। वीरों को वीरगति को प्राप्त होते देखा। मैं भी नारी कुल से पैदा हुई धरती माँ का अंश हूँ। मैंने सीता जैसी कन्या को अपनी कोख से पैदा किया तो उसकी व्यथा सुनकर अपने आँचल में समेटा भी। मैंने ही जीवन यापन करने के लिए लोगों को फल-फूल, लकड़ी-चारा, जडी़ बूटियां, खनिज दिया।

मैं न रही तो प्लास्टिक का ढेर तेरी पीढ़ियों को खा जायेगा। फिर तुझे किसी को पिंडदान करने के लिए भी नहीं छोड़ेगा। हर तरफ करूण क्रंदन ही क्रंदन होगा।

मुझे अपने भविष्य का तो कुछ भी पता नहीं है। लेकिन तेरा भविष्य मैं जानती हूँ। तू पैदा हुआ है, मेरे सीने पर खेला भी, मेरी गोद में तू मरेगा भी। मेरी आँचल की छांव में और  चिरनिंद्रा में  सोने पर तुझे अपनी गोद में  जगह  भी मैं ही दूंगी। क्योंकि, मैं तेरे वतन की पावन मिट्टी हूँ। तुम्हारे ही भाईयों ने अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए विभाजन की अनेक सीमा रेखायें खींच दी। मुझे दुख और क्षोभ भी हुआ। लेकिन, दूसरे बेटे के कर्म पर गर्व भी है, जिसने मुझे अपने माथे से  लगा कर मेरी आन-बान-शान की रक्षा में अपनी जान देने की कसम खा रखी है। आज भी देश भक्त मेरी ‌मिट्टी से  अपने माथे का  तिलक लगाकर अपनी जान दे देते । उनका जीना भी मेरी खातिर और मरना भी मेरी खातिर। लेकिन, उनका क्या, जो मेरे नाम पर देश का भाग्य विधाता बन अपने अपने सत्ता सुख के लिए ‌मुद्दो की तलाश में हर बार विभाजन की एक और लकीर मेरे सीने पर और खींच देते हैं जातिवाद क्षेत्रवाद, भाषावाद, और अब तो संप्रदायवाद के दंश से‌ मै दुखी महसूस कर रही हूँ। उन भाग्यविधाताओं से मेरे वे सपूत अच्छे है जहां जाति, धर्म/का कोई भेद नहीं। सच्ची देशभक्ति, प्रजातंत्र के मंदिर में नहीं दिखती। वहाँ अब अपने अपने मतलब के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम होता है। मैंने प्रजातंत्र के मंदिर में अवांछित शब्दों के प्रयोग से लेकर मार पीट भी‌ होते देखा है। काश कि वहां पर हितचिंतन की बातें करते जनहित के मुद्दों पर स्वार्थ रहित बहस करते। संसद चलने देते तो मेरी आत्मा निहाल हो जाती। काश, कोई सरहद पे जाता और देखता जहां बिना जाति, धर्म मजहब की परवाह किए  मेरा जवान लाल मेरे लिए ही जीता है मेरे लिए ही मरता है  तभी तो उनकी जहां चिता जलती है वहां की माटी भी आज पूजी जाती है। तभी तो किसी शायर ने कहा कि—–

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होंगा।।

तभी तो किसी रचना कार ने  फूल की इच्छा का चित्रण करते हुए लिखा जो यथार्थ के दर्शन ‌कराता है–

मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक

तभी कोई भोजपुरी रचना कार कह उठता है–

जवने माटी जनम लिहेस उ, उ ,माटी भी धन्य हो गइल।
जेहि जगह पे ओकर जरल चिता, काबा काशी उ जगह हो गईल।

भला मेरे सम्मान करने वालों का इससे‌ बढ़िया उदाहरण और कहाँ ?  … और तुम भी उनमें से ही एक हो। तुम्हारी यात्रा और ज़रूरतें पूरी हो जायेगी और तुम मुझे कहीं भी उपेक्षित फेंक दोगे। काश कि अपनी जरूरत पूरी कर किसी गरीब जरूरतमंद को दे देते तो मेरा जन्म सुफल हो जाता। इस तरह संवाद करते करते उसकी आँखें भर आईं थी और मेरा दिल भी भर आया था। मैं मिट्टी का गिलास ओंठो से लगाना भूल गया था। आज मुझे अपने वतन की माटी की पीड़ा कचोट रही थी और अपने वतन की माटी से प्यार हो आया था।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 20 ☆ किसके कैसे कर्म हैं देख रहे भगवान ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  संस्कारधानी जबलपुर शहर पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “किसके कैसे कर्म हैं देख रहे भगवान।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 20 ☆

☆  किसके कैसे कर्म हैं देख रहे भगवान 

जन्म मरण के मध्य है जीवन एक प्रवाह

जिसे नहीं मालूम कहां उसकी जग में राह

 

मौसम और परिवेश का जिस पर प्रबल प्रभाव

अनजाने नये क्षेत्र में जिसका सतत बहाव

 

आने वाले कल का नित जिसको है ज्ञान

कई झंझट झंझाओं में उलझे रहते प्राण

 

कोई नहीं अनुमान कब मिले नया आदेश

जाना होगा कब कहां और कौन से देश

 

केवल उसके साथ है खुद अपना विश्वास

मन की दृढ़ता बांधती रहती नित नई आश

 

साहस संयम नियम ही जीवन के आधार

दिशा मार्ग शुभ दिखलाते खुद के सोच विचार

 

पाने अपने लक्ष्य को जिसको नित परवाह

जहां पहुंचना है वहां की पा जाता है राह

 

निश्चल निर्मल भावना ही पाती वरदान

किसके कैसे कर्म हैं देख रहे भगवान

 

साहस रख विश्वास से लड़ जीवन संग्राम

सतत साधना श्रम से सब पूरे होते काम

 

कर सकते जो निडर हो निर्णय युग अनुसार

वह ही पाते विजय नित कभी ना होती हार

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 75 ☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं, मैं और सिर्फ़ मैं यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 75 ☆

☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆

‘कोई भी इंसान खुश रह सकता है, बशर्ते वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ कहना छोड़ दे और स्वार्थी न बने’ मैथ्यू आर्नल्ड का यह कथन इंगित करता है कि मानव को कभी फ़ुरसत में अपनी कमियों पर अवश्य ग़ौर करना चाहिए… दूसरों को आईना भी दिखाने की आदत स्वत: छूट जाएगी।

मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, आजीवन दूसरों के दोष-अवगुण खोजने में व्यस्त रहता है। उसे अपने अंतर्मन में झांकने का समय ही कहां मिलता है? वह स्वयं को ही नहीं, अपने परिवारजनों को भी सबसे अधिक विद्वान, बुद्धिमान अर्थात् ख़ुदा से कम नहीं आंकता। सो! उसके परिवारजन सदैव दोषारोपण करना ही अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकारते हैं। इसलिए न परिवार में सामंजस्यता की स्थिति आ सकती है, न ही समाज में समरसता। चारों ओर विश्रंखलता व विषमता का दबदबा रहता है, क्योंकि मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में लिप्त रहता है और अपनी अहंनिष्ठता के कारण वह सबकी नज़रों से गिर जाता है। आपाधापी भरे युग में मानव एक- दूसरे को पीछे धकेल आगे बढ़ जाना चाहता है, भले ही उसे दूसरों की भावनाओं को रौंद कर ही आगे क्यों न बढ़ना पड़े। सो! उसे दूसरों के अधिकारों के हनन से कोई सरोकार नहीं होता। वह निपट स्वार्थांध मानव केवल अपने हित के बारे में सोचता है और अपने अधिकारों के प्रति सजग व अपने कर्त्तव्यों से अनभिज्ञ, दूसरों को उपेक्षा भाव से देखता है, जबकि अन्य के अधिकार तभी आरक्षित-सुरक्षित रह सकते हैं, जब वह अपने कर्त्तव्य व दायित्वों का सहर्ष निर्वहन करे। मैं, मैं और सिर्फ़ मैं की भावना से आप्लावित मानव आत्मकेंद्रित होता है…केवल अपनी अहंतुष्टि करना चाहता है तथा उसके लिए वह अपने संबंधों व पारिवारिक दायित्वों को तिलांजलि देकर निरंतर आगे बढ़ता चला जाता है, जहां उसकी काम-वासनाओं का अंत नहीं होता… और संबंधों व सामाजिक सरोकारों से निस्पृह मानव एक दिन स्वयं को नितांत अकेला अनुभव करता है और ‘मैं’ ‘मैं’ के दायरे व व्यूह से बाहर आना चाहता है, स्वयं में स्थित होना चाहता है और प्रायश्चित करना चाहता है…परंतु अब किसी को उसकी व उसकी करुणा-कृपा की दरक़ार नहीं होती।

इस दौर में वह अपनी कमियों पर ग़ौर कर अपने अंतर्मन मेंं झांकना चाहता है…आत्मावलोकन करना चाहता है। परंतु उसे अपने भीतर अवगुणों, दोषों व बुराइयों का पिटारा दिखाई पड़ता है और वह स्वयं को काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में लिप्त पाता है। इन विषम परिस्थितियों में वह उस स्वनिर्मित जाल से बाहर निकल, संबंधों व सरोकारों का महत्व समझ कर लौट जाना चाहता है; उन अपनों में … अपने आत्मजों में, परिजनों में… जो अब उसकी अहमियत नहीं स्वीकारते, क्योंकि उन्हें उससे कोई अपेक्षा नहीं रहती। वैसे भी ज़िंदगी मांग व पूर्ति के सिद्धांत पर निर्भर है। हमें भूख लगने पर भोजन तथा प्यास लगने पर पानी की आवश्यकता होती है…और यथासमय स्नेह, प्रेम, सहयोग व सौहार्द की। सो! बचपन में उसे माता के स्नेह व पिता के सुरक्षा-दायरे की ज़रूरत व उनके सानिध्य की अपेक्षा रहती है। युवावस्था में उसे अपने जीवन- साथी, दोस्तों व केवल अपने परिवारजनों से अपेक्षा रहती है, माता-पिता के संरक्षण की नहीं। सो! अपेक्षा व उपेक्षा भाव दोनों सुख-दु:ख की भांति एक स्थान पर नहीं रह सकते, क्योंकि प्रथम भाव है, तो द्वितीय अभाव और इनमें सामंजस्य ही जीवन की मांग है।

जीवन जहां संघर्ष का पर्याय है, वहीं समझौता भी है, क्योंकि संघर्ष से हम वह सब नहीं प्राप्त कर पाते, जो प्रेम द्वारा पल-भर में प्राप्त कर सकते हैं। आपका मधुर व्यवहार ही आपकी सफलता की कसौटी है, जिसके बल पर आप लाखों लोगों के प्रिय बन, उन के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। विनम्रता हमें नमन सिखलाती है, शालीनता का पाठ पढ़ाती है, और विनम्र व्यक्ति विपदा-आपदा के समय पर अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता… सदैव धैर्य बनाए रखता है। अहं उसके निकट जाकर भी उसे छूने का साहस नहीं जुटा पाता अर्थात् वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ के शिकंजे से सदैव मुक्त रहता है और आत्मावलोकन कर ख़ुद में सुधार लाने की डगर पर चल पड़ता है। वह अपनी कमियों को दूर करने का भरसक प्रयास करता है और कबीरदास जी की भांति ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसों बुरा न कोय’ अर्थात्  पूरे संसार में उसे ख़ुद से बुरा व कुटिल कोई अन्य दिखाई नहीं पड़ता। इसी प्रकार सूर, तुलसी आदि को भी स्वयं से बड़ा पातकी-पापी ढूंढने पर भी दिखायी नहीं पड़ता, क्योंकि ऐसे लोग स्वयं को बदलते हैं, संसार को बदलने की अपेक्षा नहीं रखते।

कंटकों से आच्छादित मार्ग से सभी कांटो को चुनना अत्यंत दुष्कर कार्य है। हां! आत्मरक्षा के लिए पांवों में चप्पल पहन कर चलना अधिक सुविधाजनक व कारग़र है। सो! समस्या का समाधान खोजिए; ख़ुद मेंं बदलाव लाइए और दूसरों को बदलने में अपनी ऊर्जा नष्ट मत कीजिए। जब आपकी सोच व दुनिया को देखने का नज़रिया बदल जाएगा, आपको किसी में कोई भी दोष नज़र नहीं आयेगा और आप उस स्थिति में पहुंच जाएंगे… जहां आपको अनुभव होगा कि जब परमात्मा की कृपा के बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता, तो व्यक्ति किसी का बुरा करने की बात सोच भी कैसे सकता है? सृष्टि-नियंता ही मानव से सब कुछ कराता है… इसलिए वह दोषी कैसे हुआ? इस स्थिति में आपको दूसरों को आईना दिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

मानव ग़लतियों का पुतला है। यदि हम अपने जैसा दूसरा ढूंढने को निकलेंगे, तो अकेले रह जाएंगे। इस लिए दूसरों को उनकी कमियों के साथ स्वीकारना सीखिये … यही जीवन जीने का सही अंदाज़ है। वैसे भी आपको जीवन में जो भी अच्छा लगे, उसे सहेज व संजोकर रखिए और शेष को छोड़ दीजिए। इस संदर्भ में आपकी ज़रूरत ही महत्वपूर्ण है और ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ तथा ‘जहां चाह, वहां राह… यह है जीने का सही राह।’ यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्मविश्वासी है, तो वह नवीन राह  ढूंढ ही लेता है और इस स्थिति में उसका मंज़िल पर पहुंचना अवश्यंभावी हो जाता है। सो! साहस व धैर्य का दामन थामे रखिए, मंज़िल अवश्य प्राप्त हो जायेगी।

हां! अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, आपको सत्य की राह पर चलना होगा, क्योंकि सत्य ही शिव है, कल्याणकारी है…और जो मंगलकारी है, वह सुंदर तो अवश्य ही होगा। इसलिए सत्य की राह सर्वोत्तम है। सुख-दु:ख तो मेहमान की भांति आते- जाते रहते हैं। एक की अनुपस्थिति में ही दूसरा दस्तक देता है। सो! इनसे घबराना व डरना कैसा? इसलिए जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं और ‘जो ज़िंदगी में होता है, हमें भाता नहीं’… वही हमारे दु:खों का मूल कारण है। जिस दिन हम दूसरों को बदलने की भावना को त्याग कर, ख़ुद में सुधार लाने का मन बना लेंगे, दु:ख,पीड़ा,अवमानना, आलोचना, तिरस्कार आदि अवगुण सदैव के लिए जीवन से नदारद हो जाएंगे। इसलिए ‘परखिए नहीं, समझिए’ … यही जीने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि ‘जब चुभने लगें, ज़माने की नज़रों मेंं/ तो समझ लेना तुम्हारी चमक बढ़ रही है’ अर्थात् महान् व बुद्धिमान मनुष्य की सदैव आलोचना व निंदा होती है और वे सामान्य लोगों की नज़रों में कांटा बन कर खटकने लगते हैं। इस स्थिति में मानव को कभी भी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रसन्नता से स्वयं को ग़ौरवान्वित अनुभव करना चाहिए कि ‘आपकी बढ़ती चमक व प्रसिद्धि देख, लोग आपसे ईर्ष्या करने लगे हैं।’ सो! आपको निरंतर उसी राह पर अग्रसर होते रहना चाहिए।

ज़िंदगी जहां हर पल नया इम्तहान लेती है, वहीं वह  एक सुहाना सफ़र है। कौन जानता है, अगले पल क्या होने वाला है? इसलिए चिंता, तनाव व अवसाद में स्वयं को झोंक कर, अपना जीवन नष्ट नहीं करने का संदेश प्रेषित है। स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में–’उठो! आगे बढ़ो और तब तक न रुको, जब तक आप मंज़िल को नहीं पा लेते तथा उस स्थिति में मन में केवल वही विचार रखो, जो तुम जो पाना चाहते हो और केवल उसे ही हर दिन दोहराओ…आपको उस लक्ष्य के प्राप्ति आपको अवश्य हो जाएगी।’

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि ‘सिर्फ़ मैं’ के भाव का दंभ मत भरो। आत्मावलोकन कर अपने अंतर्मन में झांको, दोष-दर्शन कर अपनी कमियों को सुधारने में प्रयास-रत रहो… आप स्वयं को अवगुणों की खान अनुभव करोगे। दूसरों से अपेक्षा मत करो और जब आपके हृदय में दैवीय गुण विकसित हो जाएं और आप लोगों की नज़रों में खटकने लगें, तो सोचो… आपका जीवन, आपका स्वभाव आपके कर्म उत्तम हैं, श्रेष्ठ हैं, अनुकरणीय हैं। सो! आप जीवन में अपेक्षा-उपेक्षा के जंजाल से मुक्त रहो…कोई बाधा आपकी राह नहीं रोक पायेगी। यही मार्ग है खुश रहने का… परंतु यह तभी संभव होगा, जब आप स्व-पर से ऊपर उठ कर, नि:स्वार्थ भाव से परहित के कार्यों में स्वयं को लिप्त कर, उन्हें दु:खों से मुक्ति दिला कर सुक़ून अनुभव करने लगेंगे। सो! दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा ख़ुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और मानव-मात्र के मनोरथ पूरे होंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 27 ☆ सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य)

☆ किसलय की कलम से # 27 ☆

☆ सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य ☆

पिछले तीन-चार दशक से सम्मान एवं पुरस्कारों की बाढ़ सी आ गई है। समाचार पत्रों, टी.वी. चैनलों और मीडिया की खबरें हम तक पहुँच रही हैं। आमंत्रण पत्र भी उबाऊ लगने लगे हैं। हर चौराहे सभागारों या मैदानों में आए दिन समारोह देखे जा सकते हैं। यहाँ पहुँचने वालों में स्वजन, स्वार्थी एवं सम्मान पिपासुओं के अलावा मात्र आयोजकों की उपस्थिति दिखाई देती है। यदि किसी बड़े नेता या धनाढ्य द्वारा कार्यक्रम आयोजित किया गया हो तो निजी वाहनों से ढोकर श्रोता जुटाए जाते हैं और यदि सभोज समारोह हुआ तो बिना बुलाए ही श्रोताओं की भीड़ जुट जाती है। कभी आपने सोचा है कि ये कार्यक्रम क्यों और कैसे आयोजित होते हैं? इतने सम्मान कैसे लिए और दिए जाते हैं? वर्तमान समय में इन सम्मानों और पुरस्कारों का औचित्य क्या है?

आदिकाल से ही संसार में किसी श्रेष्ठ कार्य अथवा उपलब्धि पर लोगों को प्रोत्साहित करने की परम्परा चली आ रही है। पहले लोग इसे अपने सौभाग्य और शुभकर्मों का प्रतिफल मानते थे। उत्तरदायित्व की विराटता समझते थे। समाज में इन लोगों की प्रतिष्ठा और पूछ-परख होती थी। लोग उनके कृतित्व एवं चरित्र का अनुकरण करते थे। पूर्व की तुलना में आज सम्मान और पुरस्कारों का बाहुल्य होते हुए भी लोगों का किसी से कोई लेना-देना नहीं होता। आज के अधिकांश सम्मान एवं पुरस्कार श्रम, सेवा और समर्पण से नहीं अर्थ, स्वार्थ और पहुँच से प्राप्त किए जाते हैं। परस्पर आदान-प्रदान की एक नई परिपाटी जन्म ले चुकी है। देखा गया है कि छोटे सम्मान की बदौलत बड़ा सम्मान मिलता है। पैसों से सम्मान और पुरस्कार प्राप्त करना आज आम बात हो गई है, लेकिन योग्यता, ईमानदारी और समर्पण से सम्मान या पुरस्कार वर्तमान में टेढ़ी खीर हो गए हैं। आज हम पहुँच और पैसों से खरीदे सम्मानों की सूची अपने बायोडाटा में देने लगे हैं। राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कारों के लिए गणमान्य लोगों से अनुशंसायें लिखवाते हैं। ऐसी उपलब्धि क्या हमारी दशा और दिशा बदल पायेगी? क्या हम अपेक्षित सामाजिक उत्तरदायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर पायेंगे? शायद नहीं, क्योंकि हम मात्र समाज के सामने श्रेष्ठ बनने और अपना उल्लू सीधा करने के लिए इतना ताना-बाना बुनते हैं। अधिकतर लोगों का सामाजिक सरोकारों से कोई लेना नहीं होता। अपने धन, वैभव और पहचान का अनुचित प्रयोग कर ऊँची से ऊँची आसंदी पर स्वयं को देखना चाहते हैं, लेकिन आज भी ऐसे बहुतेरे योग्य, ईमानदार और समर्पित लोग समाज में दिखाई देते हैं जो समाज सेवा और राष्ट्र के उत्थान हेतु अपना सर्वस्व खपाने का संकल्प लिए नि:स्वार्थ भाव से निरन्तर सक्रिय हैं, उन्हें किसी सम्मान, पुरस्कार या अभिनन्दन की लालसा नहीं होती। ऐसा माना जाता है कि समाज के इन्हीं 10-20 प्रतिशत लोगों के कारण ही समाज में ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा जीवित है। क्या हम और हमारी सरकार इन ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठों की उपेक्षा कर इनके संकल्पित हृदय को आहत नहीं कर रही है। क्या झूठे प्रमाण-पत्र, अनुशंसाएँ एवं प्रशस्ति-पत्र आज प्रतिष्ठित सम्मानों, पुरस्कारों के साक्ष्य तथा मानक बनते रहेंगे? क्या हम बिना आदर्श-सत्यापन के, बिना काबिलियत के इसी तरह सम्मान और पुरस्कार देते रहेंगे, क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि आम आदमी की बगैर मध्यस्थता वाली अनुशंसायें एवं प्रस्ताव आमंत्रित कर पारदर्शिता के साथ सम्मान एवं पुरस्कार सुयोग्य व्यक्तित्व को दिया जाये।

सम्मान, अलंकरण पुरस्कार अथवा अभिनन्दन समारोह मानवीय मूल्यों की पूजा के समतुल्य होता है। अत: समाज को ऐसे सम्मानों एव पुरस्कारों के विकृत अस्तित्व को नकारने का उत्तरदायित्व लेना चाहिए, क्योंकि यह छद्म उपलब्धि व  वाहवाही समाज के लिए घातक परम्परा का रूप ले सकती है।

बिना परिश्रम, बिना दृढ निश्चय एवं बिना योग्यता के किसी भी कार्य, सेवा या चलाये जा रहे अभियान की वास्तविक पूर्णता सम्भव ही नहीं है। खोखली बातों से समाज और देश नहीं चलता। इसलिए हमें अपनी अन्तरात्मा और सच्चाई की आवाज सुनना होगी। योग्यता, कर्त्तव्यनिष्ठा और परमार्थभाव को ही पूजना होगा। यही सच्ची मानवसेवा है, जो हमें और हमारे समाज को आदर्श बनाने में सहायक होगी। हमें उम्मीद है कि आज के शिक्षित तथा सुसंस्कृति को जानने वाले मानव द्वारा अब तथाकथित झूठी और प्रदर्शित की जा रही योग्यता को नकार दिया जायेगा।इसके पश्चात ही सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य सही साबित होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 73 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 73 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

देखो अब तुम जिधर भी,

पनप रहा उद्योग।

यंत्रों के निर्माण कर,

लगे कमाने लोग।

 

तरह तरह के बिक रहे,

कितने ही परिधान।

साड़ी में ही हो रहा,

नारी का सम्मान।

 

हिंसा नफरत बैर नहीं,

करो सभी से प्यार।

रिश्तों को समझो अगर,

मिले तभी अधिकार।।

 

पाना है यदि लक्ष्य तो,

खूब करो संधान ।

मिलती है मंजिल अगर,

करो  नहीं अभिमान।।

 

कोरोना के काल में,

कितने हुए अनाथ।

मुश्किल की इस घड़ी में,

रहते कितने  साथ।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 63 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 63 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

राजनीति अब आज की, बनी एक उद्योग

मुश्किल से ही छूटता, सत्ता सुख का भोग

 

काम जाल फैला रहे, नव युग के परिधान

विज्ञापन की दौड़ में, नारी  से पहिचान

 

कलियुग में होने लगी, हिंसा की भरमार

सदाचार खोने लगा, हिंसक हुए विचार

 

नव पीढ़ी गर तय करे, अपना जीवन लक्ष्य

बढ़कर पा ले लक्ष्य तब, ऐसा सबका कथ्य

 

सेवा करें अनाथ की, यही नेक है काम

पर हित जो करते सदा, उनका है श्रीधाम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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