मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 76 ☆ अंधार पसरला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 76 ☆ अंधार पसरला  ☆

रात्रीचा अंधार पसरला

वाट कुणाची बघतो आहे

अंधाराचे बोट धरून हा

जीव कशाला जगतो आहे

 

तारुण्याची हिरवळ होती

टाळ कधी ना धरला हाती

उतार वय हे झाले देवा

तुझी पायरी चढतो आहे

 

आकाशातील चंद्र चांदणे

नकोच त्यांच्यासाठी थांबणे

अंधारातील प्रवास माझा

पडतो आहे उठतो आहे

 

कणा पाठीचा धनुष्य झाला

देऊ काठीचा आधार त्याला

जवळच्याच या पल्ल्यासाठी

पुन्हा चालणे शिकतो आहे

 

रात्र रात्र मी उगा जागतो

कसली आहे सजा भोगतो

निद्रा घ्यावी म्हणतो तरीही

सूर्य कुठे हा ढळतो आहे ?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पोटापुरता पसा …. महाकवी ग.दि. माडगूळकर ☆ कवितेचे रसग्रहण☆ प्रस्तुति – सौ. अमृता देशपांडे

स्व गजानन दिगंबर माडगूळकर ‘गदिमा’

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जन्म – 1 ओक्टोबर 1919  मृत्यु – 14 डिसेंबर 1977 ☆

☆ कवितेचा उत्सव ☆ पोटापुरता पसा …. महाकवी ग.दि. माडगूळकर  ☆ कवितेचे रसग्रहण ☆ प्रस्तुति – सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

पोटापुरता पसा पाहिजे नको पिकाया पोळी

देणार्याचे हात हजारो दुबळी माझी झोळी

 

हवाच तितका पाडी पाऊस देवा वेळोवेळी

चोचिपुरता देई दाणा माय माऊली काळी

एकवेळच्या भुकेस पुरते तळहाताची खाळी ll

 

महाल माड्या नकोत नाथा माथ्यावर दे छाया

गरजे पुरती देई वसने जतन कराया काया

गोठविणारा नको कडाका नको उन्हाची होळी ll

 

सोसे तितुके देई याहुन हट्ट नसे गा माझा

सौख्य देई वा दु:ख ईश्वरा रंक करी वा राजा

अपुरेपणहि न लगे, न लगे पस्तावाची पाळी

 

देणा-याचे हात हजारो दुबळी माझी झोळी ll

गीतकार- महाकवी ग.दि. माडगूळकर

चित्र : साभार Gajanan Digambar Madgulkar – Wikipedia

(या कवितेचे रसग्रहण काव्यानंद मध्ये दिले आहे.)

प्रस्तुति –  सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दहकन तन मन में हुई, पारो हुई पलाश ।

देवदास के भाग्य में, एक शब्द है काश।।

 

पीत वसन मनहर हंसल, कनक कसीली  देह।

पीतांबर की प्रीतिया, बरसा मनका मेह।।

 

पुखराजी विन्यास में, सिमटा हुआ शवाब ।

एक दृष्टि में लग गया, पुष्पित पीत गुलाब।।

 

मन के सुग्गे ने किया, अपने प्रिय का ध्यान।

प्रिया पहन कर आ गई, शुक पंखी परिधान।।

 

प्रीति दिवस ने दे दिया, संजीवन उपहार ।

सांसो ने सौगंध दी, कमल माल गल हार।।

 

बौहों में भर देह को, देही हुआ विदेह।

सत्य सत्य कैसे हुआ, प्रश्नाकुल संदेह।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 28 – तुम्हारा खत… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “तुम्हारा खत … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 28– ।। अभिनव गीत ।।

☆ तुम्हारा खत … ☆

लिये हुये

मत सम्मत

आ गया

तुम्हारा खत

 

देह की विनीता

पथरीली सी भू पर

फुदके हैं रह रह कर

दूधिया कबूतर

 

पूछती

पड़ौसी छत

भूल गये

शक सम्वत?

 

हंस निकल आये

सहमकर अँधेरों से

दूँढते रहे जिनको

कई कई सबेरों से

 

जिसकी लय

उस की गत

रागदार

स्वर सम्मत

 

ऐसे आ गूँजा है

ध्वनि की तरंगों में

और दिखा मुझे स्वतः

कई धनक रंगों में

 

खोजा किया

परबत

भूल गया

शत प्रतिशत

 

लिये हुये

मत सम्मत

आ गया

तुम्हारा खत

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-11-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 74 ☆ कविता – प्रेम ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर  भावप्रवण कविता  – “प्रेम“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 74

☆ कविता – प्रेम ☆

तुम्हारा इस तरह से

पलकों पे आके बैठ जाना,

फिर पलकों में बैठकर

दिन रात आँसू बहाना,

तुम्हारा इस तरह से

पलकों में उठना बैठना,

फिर धार बन बनके

उछलते हुए बह जाना,

यादों के समंदर में

डुबकी लेकर गहराई नापना,

सुबह की धूप बनकर

मन के सोये कोने को कुरेदना,

पर ये भी याद रखना

तुम्हारा पति ही अच्छा है,

उसने तुम्हें सुरक्षा और

जीवन जीने की तरकीब दी है,

रही चाहत की बात

कि चाहत पे किसका हक है,

तुम्हारी याद आँसू बनके

मेरे आँगन में बरसती तो है,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 27 ☆ घरौंदा ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “घरौंदा ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 27 ☆ 

☆ घरौंदा

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

सपनों के पानी से उसे सींचा था,

लम्हों की मिट्टी से उसे बनाया था,

सब की नज़रों से उसे बचाया था,

एक और आशियाना बनाया था,

उसके कमरे में मेरा एक एक सपना छुपाया था।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

सच्चाईयों के समुद्र ने बहा दिया,

तेज धूप ने उसे जला दिया,

तेज आँधी ने उसे गिरा दिया,

लोगों की ठोकरों ने उसे गिरा दिया,

दुनिया के छल-कपट ने मुझे रुला दिया।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

उम्र की बढ़ती राह पर घरोंदें की सच्चाई समझ में आई है,

हर कमजोर वस्तु का भविष्य समझ में आया है,

घरोंदा छोड़ मकान का स्वपन सजाया है,

ईट गारे के साथ विश्वास से ठोस बनाया है,

हर नींव के पत्थर को अपने ऊपर विश्वास के काबिल बनाया है।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #21 ☆ जरा मुस्कुराइये ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण, विचारणीय  एवं भावप्रवण  कविता “जरा मुस्कुराइये”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 21 ☆ 

☆ जरा मुस्कुराइये ☆ 

फूलों की तरह खिलकें

खुशबू लुटाइये

जिंदगी खूबसूरत है

जरा मुस्कुराइये

जब सुनहरी किरणें चूमती है

शुभ्र हिमखंडो के भाल

आरक्त हो जातें हैं वे

जैसे गोरे गोरे गाल

जब पिघलती है बर्फ

बन जाता है जल

बहती है नदिया

कैसे कल-कल

इस पिघलती बर्फ सा

जरा पिघल जाईये

जिंदगी खूबसूरत है

जरा मुस्कुराइये

इन बहती हवाओं में

कैसी है उमंग

इन झरनों के जल में

कैसी है तरंग

शरद का आगमन

कितना मनोहारी है

बीत गई वर्षा

अब शरद ऋतु की

बारी है

इस सुहावने मौसम को

जरा और सुहावना बनाइयें

जिंदगी खूबसूरत है

जरा मुस्कुराइये

आकाश में जगमगा रही है

वो रंगीन कहकशां

धरती पर गुलाबी ठंड का

छाया है नशा

गुनगुनी रात कोई

बुन रही है कहानी

आगोश में चाँद के

खोई है चाँदनी

चाँद के हिंडोले पर

जरा आप झूल आइये

जिंदगी खूबसूरत है

जरा मुस्कुराइये

 

© श्याम खापर्डे 

भिलाई  05/12/20

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 28 ☆ दशपदी काव्य… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 28 ☆ 

☆ दशपदी काव्य… ☆

तूच सामावलेला, कृष्णा माझ्या अंतर्मनात

व्यापून राहिला बघ,  पूर्ण तनामनात… ०१

 

तुझ्या-विना नाहीच कुणी, प्राचीवर मजला

सतत मारतो हाका, हे मनोहर तुजला… ०२

 

भवसागर भारी, अन्याय सर्वत्र फोफावला

सत्य लोप पावताना, नात्याला मार बसला… ०३

 

क्षणभंगुर जीवनात, आधार ना कधी सापडला

आस केली जेव्हा, हात सर्वांनी आखडला… ०४

 

म्हणौनि सांगणे हेच देवा, केशवा माधवा श्रीधरा

अंतिम समयाला माझ्या, यावे तूच दामोदरा… ०५

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 9 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 9 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

अंदमानला जायला मिळण हा माझ्यासाठी सोनेरी क्षण होता. या सगळ्या स्मृती मी अजूनही जपून ठेवल्या आहेत.

अंदमान ला जायचं म्हणून मी जय्यत तयारी केली होती. माझ्या बाबांच्या मदतीनं सावरकरांच्या ‘जन्मठेप’ या पुस्तकाचं प्र. के अत्रे यांनी केलेलं संक्षिप्त रूप ऐकलं. त्यामुळे माझ्या मनाचे भूमिका तयार झाली. आपण नुसतं प्रवासाला जाणार नाही तर एका महान क्रांतिकारकांच्या स्पर्शानं पावन झालेल्या भूमीला मानवंदना देण्यासाठी जाणार आहोत हे पक्कं ठरवलं आणि तसा अनुभवही घेतला. आम्ही एकूण 128 सावरकर प्रेमी सावरकरांबद्दल आदर असणारे तिथे गेलो होतो. महाराष्ट्र,कर्नाटक,दिल्ली अशा विविध भागांमधून एकत्र जमलेलो होतो. जणूकाही अनेक आतून एकता निर्माण झाली होती. आम्ही सगळेजण हरिप्रिया ने पहिल्यांदा तिरुपतीला गेलो. बेळगाव स्टेशनवर सर्वांचे जंगी स्वागत झाले. सावरकरांच्या फोटोला हार घातला. छोटेसे भाषण हि झाले.घोषणांनी बेळगाव स्टेशन दुमदुमून गेले होते.. तो अनुभव सुद्धा रोमहर्षक होता.. आम्ही चेन्नई ला उतरलो. चेन्नई ते अंदमान आमचे, ‘किंग फिशर’विमान होते. माझ्याबरोबरकायम माझी बहीण होतीच. पण इतर सर्वांनी मला खूप सांभाळून घेतले. एअर होस्टेस ने पण छान मदत केली. त्या माझ्याशी हिंदीतून बोलत होत्या. विमानामध्ये पट्टा बांधला ही त्यांनी मदत केली. या प्रवासामुळे आयुष्यातली खरी मोठी उंची गाठली. विमानाचा प्रवास झाला आणि सावरकरांना त्यांच्या कैदेत असलेल्या खोलीमध्ये नमस्कार करण्याची संधी मिळाली.

अंदमानमध्ये आम्ही उतरल्यावर आम्हा सगळ्या सावरकर प्रेमींना पुन्हा एकदा सावरकर युगच अवतरले असे वाटले. आम्ही सगळ्यांनी तीन दिवस कार्यक्रम तयार केले होते. अंदमानमध्ये चिन्मय मिशन चा एक मोठा हॉल आहे. तिथे बाकी सगळ्यांचे कार्यक्रम झाले. पहिल्या दिवशी बेळगावच्या विवेक नावाचा मुलगा होता. त्याची उंची अगदी सावरकरां एवढी, तसाच बारीक. त्याच्या पायात फुलांच्या माळा, हातात माळा घालून जेल पर्यंत आम्ही मिरवणूक काढली. सावरकरांना जो ध्वज अपेक्षित होता तसा केशरी ध्वज आणि त्यावर कुंडली करून  नेला होता. तो ध्वज घेऊन सगळ्या लोकांनी मोठ्या आदराने प्रेमाने सावरकरांच्या त्या खोलीपर्यंत जाऊन त्यांना मानवंदना दिली. त्या जेलमधून फिरताना आतून हलायला होते. तो मोठा जेल, तो मोठा व्हरांडा, फाशीचा फंद, पटके देण्याची जागा, सगळे ऐकूनही मी थरारून गेले. सावरकरांना घालत असलेल्या  कोलूलामी हात लावून पाहिला तर माझ्या अंगावर काटा आला. आपल्या भारत मातेसाठी त्यांनी किती हाल सोसले, कष्ट केले, किती यातना भोगल्या, ते आठवलं तरी शहा रायला होतं. त्यांच्या त्यागाची आम्ही काय किंमत करतो असंच वाटतं.

आमच्याबरोबर दिल्लीचे श्रीवास्तव म्हणून होते. त्यांचे त्यावेळी 75 वय होते. आश्चर्य म्हणजे त्यांच्या वयाच्या बावन्न वर्षापर्यंत त्यांना सावरकर कोण हे माहिती नव्हते. त्यांचं कार्य काय हेसुद्धा ठाऊक नव्हते. पण पण एकदा त्यांच्या कार्याची व्याप्ती, खोली त्यांना समजली आणि ते इतके प्रभावित झाले की त्यांनी सावरकरांच्या कार्यावर पीएचडी मिळवली.

श्रीवास्तव आजोबांनी आम्हाला जेलच्या त्या  व्हरांड्यामध्ये सावरकरांच्या खूप आठवणी सांगितल्या. त्यातली एक सांगते. आपल्या एका तरुण क्रांतिकारकांना दुसऱ्या दिवशी फाशी द्यायची होती. बारीने त्याला विचारले, “तुझी शेवटची इच्छा काय आहे?” त्यांनी सांगितले, “मला उगवता सूर्य दाखवा.” दूर बारी छद्मीपणे हसून म्हणाला, “तुमच्या साम्राज्याचा सूर्य मीच आहे.” त्यात थेट क्रांतिकारकांनी ताठपणे सांगितले, “तुम्ही असताना चाललेला सूर्य आहात. मला उगवता सूर्य दाखवा. मला सावरकरांना पाहायचे आहे.” धन्य ते क्रांतिकारक..

तेथील हॉलमध्ये कोल्हापूरच्या पूजा जोशी ने, “सागरा प्राण तळमळला” हे गीत सादर केले. रत्नागिरीच्या लोकांनी सावरकर आणि येसूवहिनी यांच्या मधला संवाद सादर केला. म्हणून म्हटलं ना तिथं पुन्हा एकदा सावरकर युग अवतरलं होतं.

आपल्या मातृभूमीच्या पारतंत्र्याच्या बेड्या तोडून काढण्यासाठी स्वातंत्र्यवीर सावरकरांनी किती हालअपेष्टा सहन केल्या, ते आजच्या मुलांनाही समजायलाच हव्यात. त्याच साठी आपल्या सांगलीतल्या सावरकर प्रतिष्ठान चे लोक अजूनही नवीन नवीन उपक्रम राबवत आहेत.

सर्वांनी सावरकरांचे, “माझी जन्मठेप” जरूर जरूर वाचावे अशी मी कळकळीने विनंती करते.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 77 ☆ व्यंग्य – कायदे का काम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘कायदे का काम’।  वैसे काम सभी कायदे से ही होते हैं। अब यदि एहतियातन घोषणा कर दी जाये कि सभी काम कायदे से होंगे तो इतना कन्फ्यूज़न क्यों है ? भला कभी कायदे से काम हुआ भी है। इस विशिष्ट व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 77 ☆

☆ व्यंग्य – कायदे का काम

मंत्री जी ने अपने विभाग में अधाधुंध नियुक्तियाँ कीं। जब सरकार गिरी तो जाँच पड़ताल में बात सामने आयी कि लाखों का लेनदेन हुआ। पत्रकारों ने पूर्व मंत्री जी से पूछा तो उन्होंने हथेली पर तम्बाकू ठोकते हुए इत्मीनान से जवाब दिया, ‘सब बकवास है। हमने तो जनसेवा की है। हजारों लोगों को रोजगार दिया है। हवन करने में घी चुराने का आरोप लग रहा है। विरोधियों को शिकायत है तो जाँच करा लें।’

उधर पूर्व मंत्री जी के द्वारा नियुक्त नये कर्मचारियों का एक विशेष सम्मेलन हुआ जिसमें सभी ने शपथ ली कि किसी भी हालत में और किसी भी दबाव में यह स्वीकार नहीं करना है कि उन्होंने नौकरी के लिए कोई रिश्वत दी, अन्यथा लगी लगाई नौकरी छूट सकती है। सम्मेलन में पूर्व मंत्री जी को धन्यवाद दिया गया और यह कामना की गयी कि वे बार बार मंत्री बनें और बार बार इसी तरह बेरोज़गारी हटाने की मुहिम चलायें।

नये मंत्री ने शपथ लेते ही घोषणा की कि अब सब काम कायदे से और पारदर्शी तरीके से होगा और जो कर्मचारी कायदे के खिलाफ जाएगा उस पर सख्त अनुशासनात्मक कार्यवाही होगी।

घोषणा होते ही विभाग के हलकों में चर्चा शुरू हो गयी कि कायदे से काम का मतलब क्या है। अनेक टीकाकारों ने कायदे से काम के अनेक अर्थ प्रस्तुत किये। लोगों की शंका यह थी कि क्या अभी तक काम कायदे से नहीं होता था? जब फाइलें बाकायदा चली हैं और जब उनमें बाकायदा टीपें दी गयी हैं तो काम कायदे से कैसे नहीं हुआ?

तब विभाग के आला अफसर ने दोयम दर्जे के अफसरों को एक दिन बताने की कृपा की कि कायदे से काम का मतलब यह है कि नियुक्तियों और दूसरे कामों में कोई लेन-देन नहीं होगा, और जो अधिकारी या कर्मचारी मुद्रा या वस्तु के रूप में घूस लेगा उसे बिना रू-रियायत के पुलिस को सौंप दिया जाएगा, उसके बाद भले ही वह घूस देकर छूट जाए।

बात आला अफसर से चलकर नीचे तक आयी और पूरे विभाग में फैल गयी। फिर विभाग से चलकर पूरे प्रदेश में फैल गयी। चिन्तित चेहरे सड़कों पर घूमने लगे। यह कायदे का काम क्या होता है? क्या अब पुराने कायदे से काम बिलकुल नहीं होगा? विभाग के सभी दफ्तरों में लोग आ आकर पूछताछ करने लगे। जो

पढ़ने-लिखने में थोड़ा पिछड़े, लेकिन धन-संपत्ति के मामले में अगड़े हैं, उनकी नैया अब कैसे पार होगी? क्या सिर्फ योग्यता ही नौकरी का आधार बन कर रह जाएगी?
लोग विभाग के कर्मचारियों से हमदर्दी जताने लगे—‘हमें अपनी परवाह नहीं है। हमारा जो होगा सो होगा। इस विभाग में नौकरी नहीं लगी तो दूसरे में लगेगी। लेकिन आपका और आपके बाल-बच्चों का क्या होगा?’ सुनकर अधिकारियों-कर्मचारियों की आँखों से अश्रु प्रवाहित होने लगे। हमदर्द उनकी दुखती रग छू रहे थे। बहुत से काम रुके पड़े हैं। किसी को मकान की तीसरी मंजिल बनानी है तो किसी को पुत्री की शादी में दस लाख खर्च करना है। किसी ने साले के नाम से ट्रक खरीदने की योजना बनायी है। कायदे से काम हुआ तो सब काम रुक जाएंगे।

दुख का आवेग बढ़ा तो कर्मचारियों के आँसुओं से फाइलें गीली होने लगीं। विभाग ने तुरन्त आदेश जारी किया कि सभी फाइलों पर तत्काल प्लास्टिक के कवर चढ़ा दिये जाएं।

कायदे से काम वाला आदेश ज़ारी होने के एक महीने के भीतर तीन चार कर्मचारी फूलपत्र लेते हुए पकड़े गये और मुअत्तल कर दिये गये। वे ऐसे आसानी से पकड़ लिये गये जैसे कोई शिकारी घायल पक्षी की गर्दन पकड़कर ले जाता है। वजह यह थी कि उन्हें अभी कायदे से काम करना नहीं आया था। बहुत से ऐसे थे जो बुढ़ापे में राम-राम बोलना सीख ही नहीं सकते थे।

‘कायदे से काम’ लागू होने से जनता कुछ प्रसन्न हुई। चार छः जगह नये मंत्री जी का अभिनन्दन हुआ, तारीफ हुई। लेकिन विभाग की हालत चिन्ताजनक हो गयी। अफसरों-कर्मचारियों की जैसे जान निकल गयी थी। दफ्तरों में मनहूसी फैल गयी। काम करने के लिए किसी का हाथ ही नहीं उठता था। कर्मचारी उदास चेहरा लिये धीरे धीरे दफ्तर में आते और मेज़ पर सिर टिकाकर बैठ जाते। कुछ मुर्दों की तरह बाहर पेड़ों के नीचे पड़े रहते। आला अफसर परेशान थे। किस किस के खिलाफ कार्रवाई करें?कर्मचारियों से कुछ कहते तो वे आँखों में आँसू भरकर जवाब देते, ‘क्या करें सर!हाथ में जान ही नहीं रही। शरीर लुंज-पुंज हो गया है। जो सजा देनी हो दे दीजिए। जो भाग्य में होगा, भोगेंगे।

मंत्री जी के पास रिपोर्ट पहुँची कि ‘कायदे से काम’ वाला आदेश लागू होने से कर्मचारियों के मनोबल में भारी गिरावट हुई है। दफ्तरों में उत्पादकता पहले से आधी भी नहीं रह गयी है। पहले जो काम एक दिन में पूरा होता था वह अब दस दिन में भी नहीं होता। अफसरों कर्मचारियों में प्रेरणा का पूर्ण अभाव हो गया है।

मंत्री जी ने चिन्तित होकर दौरा किया तो पाया कि विभाग के ज़्यादातर कार्यालय श्मशान जैसे हो गये हैं। सब तरफ धूल अंटी पड़ी है। हवा चलती है तो सब तरफ धूल उड़ती है। फाइलों पर मकड़जाले बन गये हैं। चूहे धमाचौकड़ी मचाते घूमते हैं। कमरों में कुत्ते सोते हैं, उन्हें कोई नहीं भगाता। कोई काम न होते देख जनता ने आना बन्द कर दिया था।

मंत्री जी ने हर कार्यालय में मीटिंग की। कर्मचारी धीरे धीरे आकर सिर लटकाये बैठ गये। मंत्री जी ने ‘कायदे से काम’ के फायदे गिनाये तो वे ऐसे सिर हिलाते रहे जैसे मुर्दों में बैटरी लगी हो। मंत्री जी मुर्दों को संबोधित कर, परेशान होकर उठ गये। कर्मचारी फिर धीरे धीरे चलते हुए अपनी कुर्सियों पर सिर लटकाकर बैठ गये।

दफ्तरों की चिन्ताजनक हालत की खबर अखबारों में छपी। मुख्यमंत्री जी ने मंत्री जी को तलब किया। उनकी ‘कायदे से काम’ की योजना की बखिया उधेड़ी। जब कोई काम ही नहीं होता तो कायदे से काम का क्या मतलब?मंत्री जी को हिदायत दी गयी कि किसी भी कीमत पर विभाग की कार्यक्षमता बढ़ायी जाए, अन्यथा उनका पोर्टफोलियो बदल दिया जाएगा।

दूसरे दिन आला अफसर को गोपनीय सन्देश गया कि भविष्य में लकीर का फकीर होने के बजाय व्यवहारिक हुआ जाए और एक महीने के भीतर विभाग की कार्यक्षमता पुराने स्तर पर लायी जाए। अफसरों कर्मचारियों ने सन्देश के भीतर निहित सन्देश को पढ़ा और गुना, और फिर कुछ ही दिनों में दफ्तरों की धूल छँटने लगी। चूहों कुत्तों को अन्यत्र शरण लेने के लिए हँकाला जाने लगा। कर्मचारियों के शरीर में जान और मुख पर मुस्कान लौट आयी। जनता फिर दफ्तरों के काउंटरों पर दिखायी देने लगी।

विभाग के सभी दफ्तरों में कर्मचारियों ने मीटिंग करके मंत्री जी को अपनी नीति में व्यवहारिक परिवर्तन करने के लिए धन्यवाद दिया और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे अब निश्चिंत होकर सब कुछ कर्मचारियों पर छोड़ दें और देखें कि कर्मचारी अब विभाग को कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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