हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 298☆ बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 299 ☆

? बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हमसै कभौं कोई कुछ कयें और हम न करें ऐसो होई न सकत. संपादक जी ने भाट्सऐप पे कई कि हमें बुंदेली में कछु लिखने ही है. काऐ से कि अभिनंदन ग्रंथ की किताब बन रई हैं बुंदेली की. अच्छो काम है, अपनी जड़ों को सींचने भोतई जरूरी और अच्छो काम है.

सो हम बुंदेली में लिखने को मन बना के बैठ तो गये, पर सच्ची कै रये, हमाओ दिमाक थोड़ो कुंद है बुंदेली में. पहले कभौं कुछ लिखोई नई हतो हमने बुंदेली में. और एक बात बतायें भले हमाई अम्मा बरी, बिजौरा, बुकनू, कचरियां बनात हैं मगर हमाए घर में हम औरें खड़ी हिन्दी में बतकई करत हैं, सो बुंदेली में लिखबे को तै करके हम बुरे फंसे. हमाओ फील्ड नई है ऐ. फिर हमने सोची कि ऐसो कौन सों अंग्रेजी में हम बड़े एक्सपर्ट हैं, पर बड़े बड़े पेपर लिखत हैं न, बोलत भी हैं, अरे दुनियां घूम आये अंग्रेजी बोल बोल के. फिर आज को जमानो तो ए आई को है, जो अगर कहीं फंसे तो इंटरनेट को आसरो है ना. तो हम कम्प्यूटर खोल के बैठ गये लिखबे को. कौनो मुस्किल नई, हम लिखहैं, आखिर हमो नरो गड़ो है न मण्डला के महलात में.

अब अगलो पाइंट जे आऔ कि आखिर लिखें तो का लिखें ? सोचे कि सबसे अच्छो ये है बुंदेली के बारे में लिख डारें. तो ऐसो है कि देस के बीचोंबीच को क्षेत्र है बुन्देलखण्ड. इते जौन लोकभाषा बोलचाल में घरबार में लोग बोलत हैं, ओही है बुंदेली. कोई लिखो भओ इतिहास नई होने से तै नई है कि बुंदेली कित्ती पुरानी बोली है. पर जे तो सौ फीसद तै है कि बुंदेली बहुतै मीठी बोली है, अरे ईमें तो गारी भी ऐसीं लगें जैसे कान में सीरा पड़ रओ. भरोसा नई हो तो कोनो सादी में बरात हो आओ. घरे पंगत में बिठाके, प्रेम से पुरी सब्जी और गुलगुले खिला खिला के ऐसी ऐसी गाली देंवे हैं लुगाईयां लम्बे लम्बे घूंघट मे कि सुन के तुम सर्मा जाओ. मगर मजाल है कि तुमे बुरो लगे. अरे ऐसी मिठास भरी संस्कृति है बुंदेली की.

हम इत्तो कै सकत हैं कि भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में सोई बुंदेली बोली का उल्लेख मिलत है, मने भौतई पुरानी है अपनी बुंदेली. कहो जा सकत है कि बुंदेली की अम्मा प्राकृत शौरसेनी भाषा रई है और संस्कृत को बुंदेली के पिता कै सकत हैं. जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचना कही जात हैं. जगनिक और विष्णुदास को बुंदेली के पहले कवि माने जात हैं. भारतेन्दु के टैम के लोककवि ईसुरी के रचे भये फाग गीत आज भी बुंदेलखंड में मन्डली वालों के रटे भए हैं. ईसुरी के गीतन में बुन्देली लोक जीवन की मिठास, अल्हड़ प्रेम की मादकता और रसीली रागिनी है. जे गीत तबियत तर करके मदमस्त कर देत हैं. पढ़बे बारों ने ईसुरी पर डाक्टरेट कर डारी हैं. उनके गीतन में जीवन को मनो बिग्यान, श्रंगार, समाज, राजनीति, भक्ति, योग, संयोग, वियोग, लौकिक शिक्षा, काया, माया सबै कुछ है. गांवन को बर्णन ईसुरी के फागों में कियो गओ है. मजे की बात जे है कि इत्ते पर भी बुंदेली को लिखो भओ बहुत कम है, सब याददास्त के जरिये सुनत कहत सासों से बहुओ और दादा से पोतों तक चल रओ है. बुंदेली में काम करबों को बहुत गुंजाइस है. बुंदेली में बारता मने गद्य में कम लिखो गओ है. गीत जादा हैं. फाग, गारी, बिबाह गीत, खेतन में काम करबे बकत गाने वाले गीत बगैरा बहुत हैं. जा भाषा सारे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय. मगर बोली के कई रूप में बोलबे को लहजा जगा के हिसाब से बदलत जात है. जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. जा हिसाब से बुंदेलखंड में बहुतई बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी, विदीशयीया( विदिशा जिला में बोली जाने वाली) बगैरा.

तो हमाओ आप सबन से हाथ जोड़ के बिनती है कि बुंदेली कि डिक्सनरी बनाई जाये, जो कहाबतें और मुहाबरे अपनी नानी दादी बोलत हैं उन्हें लिख के किताब बनाई जाए. बुंदेली गीतों को गाकर यू ट्यूब पर लोड करो जाये. जेमें अपने नाती नतरन को हम कभौं बता सकें कि हाउ स्वीट इज बुंदेली.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 218 ☆ बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 217 ☆

बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चंदा मामा, चंदा मामा

हमने सुंदर चित्र बनाए

हम लाए कुर्ता , पाजामा

तुमको पहनाकर  हरषाए।।

देखो चित्र एक अपना तो

जिसमें सूत कातती माता

गोल पूर्णिमा की आभा से

धरती का हर जीव सुहाता

 *

खीर पेट भर खा लो मामा

काजू , किशमिस फल भी लाए।।

 *

देखो एक चित्र अपना तो

चपटी लगे कछुआ – सी पीठ

कभी नारियल – से भूरे हो

कभी लगते बच्चों – से ढीठ

 *

देख तुम्हारी सूरत , मूरत

रोज – रोज ही हम मुस्काए।।

 *

तरबूजे की खाँफ सरीखे

रसगुल्ला – से लगते सफेद

रूप बनाते न्यारे – न्यारे

और न कभी तुम करते भेद

 *

रात तुम्हारी मित्र अनोखी

रोज प्रेम से तुम बतलाए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #184 – बाल कहानी – हौमेटो की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- हौमेटो की आत्मकथा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 184 ☆

बाल कहानी – हौमेटो की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सब्जियों के राजा ने कहा, ‘‘चलो ! आज मैं अपनी आत्मकथा सुनाता हूं.’’ सभी सब्जियों ने हांमी भर दी, ‘‘ ठीक है. सुनाओ. आज हम आप की आत्मकथा सुनेंगे.’’ बैंगन ने कहा.

हौमोटो ने अपनी कथा सुनाना शुरू की.

‘‘बहुत पुरानी बात हैं. उस वक्त मैं रोआनौक द्वीप पर रहता था. वहीं उगता था. वैसे मेरा वैज्ञानिक नाम बहुत कठिन है लाइको पोर्सिकोन एस्कुलेंटक. यह याद रखना बहुत कठिन है. मेरी समझ में नहीं आता है वैज्ञानिकों ने मेरा पहला नाम इतना कठिन क्यों रखा था.

इस नाम को बाद में सोलेनम लाइको पोर्सिकोन कर दिया गया. यह नाम मेरे पहले वाले नाम से बहुत ज्यादा कठिन नहीं है. मगर, मुझे क्या ? मुझे अपने काम से काम रखना है.

कहते हैं कि मेरी उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका के एंडीज नाम की जगह पर हुई थी. वहां मैं बहुतायात में पाया जाता था. मेरा हरालाल आकारप्रकार बहुत सुदंर था. इस कारण मुझे बहुत ज्यादा पसंद किया जाता था.

मैंक्सिको के मय जाति के लोग मुझे फिन्टो मेंटल कहते थे. वे मेरी इसी विशेषता के कारण मेरी खेती किया करते थे. वे मुझे मेरे कठिन नाम से नहीं पुकारते थे. ये तो वैज्ञानिक लोगों के लिए था. आम लोग तो कुछ समय बाद मुझे मेटल या हौमेटो कहते थे. बाद में यह नाम और सरल होता गया. लोग मुझे धीरेधीरे हौमेटो कहने लगे. यह हौमेटो कब टौमेटो में बदल गया पता ही नहीं चला.’’

‘‘ओह ! तो तुम हौमेटो से टौमेटो बने हो ?’’ आलू ने पूछा.

‘‘हां भाई. यह अटठारहवी शताब्दी की बात है. उस वक्त लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. मैं कमरे या दालान में सजाने के काम आता था. जैसे आज के लोग क्यारियों में फूल लगा कर अपना आंगन सजा कर रखते हैं. उसी तरह पुराने लोग मुझे क्यारियों में सजावटी पौधे के रूप में मुझे लगाते थे.

जब मैं मेरा फल यानी हौमेटो कच्चा रहता है तब वह हरा रहता था. जब यह हौमेटो पक जाता है तब लाल हो जाता है. इसलिए सजावटी क्यारियों में कहीं लाल टौमेटो होते थे कहीं हरे. इस से क्यारियां बहुत खूबसुरत लगती थी. जैसे फूलों की तरह यह नया फूल लगा हो.

इन्हें तोड़ कर कुछ व्यक्ति अपनी बैठक में मुझे सजा लिया करते थे. जैसे फूलों को गमलों में सजाया जाता है. वैसे मुझे प्लेट में सजा कर रख दिया जाता था. कालांतर में मैं  इधरउधर घुमता रहा. लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. उस समय तक मैं अखाद्य यानी नहीं खाने वाली चीज था.

मेरा उपयोग खाने में इसलिए नहीं होता था, क्यों कि लोग मुझे जहरीली चीज समझते थे. उन का मत था कि इसे कोई खा लेगा तो उस की मृत्यु हो जाएगी.  मगर, यह धारणा भी जल्दी टूट गई. इस धारण के पीछे एक व्यक्ति की जिद थी. वह व्यक्ति एक रंगसाज था.

हुआ यू कि अमेरिकी जहाज पर एक व्यक्ति काम करता था. वह जहाज को रंगरोगन व सजाने का काम करता था. यह सन 1812 के लगभग की बात है. वह मेरी खूबसूरती पर मोहित हो गया. यह चीज इतनी खूबसुरत है तो खाने में कैसी होगी ? इसलिए वह मेरा स्वाद जानना चाहता था. वह मुझे तोड़ कर खाने लगा.

उस के दोस्त भी जानते थे कि मैं एक जहरीली चीज हूं. जिसे कोई भी खाएगा वह मर जाएगा. इसलिए उस के दोस्तों ने उसे ऐसा करने से मना किया. उसे बहुत समझाया कि इसे खाने से तू मर जाएगा. मगर, वह माना नहीं. उस ने मुझे खा लिया. उसे मेरा स्वाद बहुत बढ़िया लगा.

जब उस के दोस्तों ने देखा कि मुझे खाने से वह व्यक्ति मरा नहीं. तब उन्हें यकीन हो गया कि मैं जहरीला नहीं हूं. तब उन्हों ने भी मुझे नमकमिर्ची लगा कर खाया. उन्हें मेरा स्वाद बहुत अच्छा लगा.

यह बात उस समय अचंभित करने वाली और अनोखी थी. कोई व्यक्ति जहरीला पदार्थ खा ले और मरे नहीं. यह सभी के लिए चंकित कर देने वाली होती है. फिर वही व्यक्ति कहे कि यह तो बड़ी स्वादिष्ठ चीज है. बस इसी कारण यह अनोखी घटना उस वक्त वहां के अखबार में प्रकाशित हुई थी. बात इतनी फैली कि लोगों ने मुझे खाना शुरू कर दिया . यह सब से पहली शुरूआत थी जब मैं सजावटी वस्तु से खाने वाली वस्तु में तब्दील हो गया.

कुछ एशियाई लोग मुझे हौमेटो नहीं बोल पाते थे. उन्हों ने टोमेटो कहना शुरू किया. फिर धीरेधीरे मुझे टमाटो बोलना शुरू कर दिया. कालांतर में मेरा हिन्दी नाम टमाटर पड़ गया. जो आज भी प्रचलित है.

यह बात कितना प्रमाणित है कि हिन्दी नाम टोमेटो से टमाटर कैसे पड़ा, यह मुझे पता नहीं. मगर, एशियाई देशों में मुझे टमाटर नाम से ही जाना जाता है. अंग्रेजी में मुझे आज भी टौमेटो ही कहते हैं.’’

‘‘और मैं बटाटो,’’ आलू ने कहा.

‘‘सही कहते हो भाई,’’ टमाटर ने कहना जारी रखा, ‘‘एक ओर मजेदार बात है. यह बात उस समय की है जब सन् 1812 में जेम्स नामक व्यक्ति ने सास बनाने की विधि खोज निकाली थी. वह विभिन्न चीजों को मिला कर चटनी बनाया करता था. उस समय मशरूम आदि चीजों से स्वादिष्ट चटनी बनाई जाती थी. मछली और विभिन्न चीजों की मांसाहारी चटनी उस वक्त ज्यादा प्रचलित थी.

इस व्यक्ति ने मशरूम से बनने वाली चटनी में मेरा प्रयोग करना शुरू किया. मेरे प्रयोग से चटनी का स्वाद ओर अच्छा हो गया. तब से मैं चटनी के लिए उपयोग में आने लगा.

सन् 1930 तक मेरा प्रयोग मशरूम के साथ होता रहा. जब पहली बार मेरा प्रयोग मशरूम की जगह किया गया. इस से चटनी का स्वाद ओर बढ़ गया. तब यह पहला अवसर था जब मैं चटनी के रूप में स्वतंत्र रूप से उपयेाग में आने लगा. उस वक्त मुझे स्वतंत्र खाद्यसामग्री घोषित कर दिया गया.

उस के बाद मेरे दिन चल निकले. मैं हर सब्जी में स्वाद बढ़ाने के लिए डाला जाने लगा. यह देख कर हैज कंपनी ने 1872 में पहली बार मेरा कैचअप के रूप में प्रायोगिक इस्तेमाल किया. मेरा स्वाद लोगों को इतना भाया कि मैं ने अपना स्वतंत्र रूप ले लिया. आजकल मैं विभिन्न स्वादों और रूपों में मिलने लगा हूं. पहले मेरे अंदर रस ज्यादा रहता था. आजकल मैं बिना रस का भी रहता हूं.’’

‘‘ यह मेरी छोटीसी आत्मकथा थी. सुन कर तुम्हें अच्छी लगी होगी.’’ टमाटर के यह कहते ही सभी सब्जियों ने ताली बजा दी.

‘‘ वाकई तुम्हारी आत्मकथा अच्छी थी.’’ बहुत देर से चुप बैठी आलू ने कहा, ‘‘ अगली बार हम किसी ओर की आत्मकथा सुनना चाहेंगे.’’ कहते हुए आलू चुप हो गया. 

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16.07.2018

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग २३ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग २३ ☆ श्री अरविंद लिमये

(पूर्वसूत्र – “आणखी एक. मनात आले ते बोललो नाही तर मलाच चैन पडणार नाही म्हणून सांगतो. तुम्ही काल एवढा त्रास सहन करून दत्तदर्शनासाठी वाडीला गेलात तेव्हाच तुमच्या मनातल्या भावना महाराजांपर्यंत पोचल्या आहेत. आणि त्याच महत्त्वाच्या. त्यामुळे आता परत जाऊन दिवसभर काम करून पुन्हा पौर्णिमेच्या दर्शनासाठी आज दुपारच्या बसने नृ. वाडीला यायची धडपड कराल म्हणून मुद्दाम हे सांगतोय. दगदग नका करू. “

 सासरे सांगत होते. मी आज्ञाधारकपणे मान हलवली. निरोप घेऊन पाठ वळवली. पण मन स्वस्थ नव्हतं. नकळत का होईना पण आपल्याकडून घडलेल्या चुकीमुळेच आपला संकल्प सिद्धीस जाण्यात अडथळा निर्माण झाल्याची खंत मनात घर करून राहिली होती. हातातून काहीतरी अलगद निसटून जात असल्याच्या भावनेने मन उदास झाले होते. तीच उदासी सोबत घेऊन माझा परतीचा प्रवास सुरू झाला होता!!)

एरवी सगळ्यांशीच मोजकं बोलणारे माझे सासरे आज भावनेच्या भरात कां होईना अंत:प्रेरणेने जे बोलले ते माझ्या काळजीपोटीच होते. पण त्यातही त्यांच्याही नकळत एक सूचक संदेश दत्तगुरुंनी माझ्यासाठी पेरुन ठेवला असल्याची जाणिव या परतीच्या प्रवासात माझ्या अस्वस्थ मनाला अचानक स्पर्श करुन गेली आणि मी दचकून भानावर आलो. एरवी नंतर मला कदाचित कामांच्या घाईगर्दीत जे जाणवलंही नसतं तेच ही जाणिव नेमकं मला हळूच सुचवून गेली होती!मी अक्षरश: अंतर्बाह्य शहारलो. ‘आज पौर्णिमा आहे. मी मनात आणलं तर आज पुन्हा दुपारच्या बसने नेहमीसारखं निघून नृ. वाडीला जाणं मला अशक्य नाहीय. सासऱ्यांनी जे मी करीन हे गृहित धरलं होतं त्याचा तोवर मी विचारही केला नव्हता. पण आता मात्र मी काय करु शकतो, करायला हवं याची नेमकी दिशा मला मिळाली आणि मनातल्या मनात त्याचं 

नियोजनही सुरू झालं!अर्थात ते जमेल न जमेल हे माझ्या स्वाधीन नव्हतं. जमायचं नसेल तर कांहीही होऊ शकतं. बस चुकणं, ती मिळाली तरी बंद पडणं, वाटेत अपघात होणं किंवा आज बॅंकेत पोचताच अचानक आॅडिट सुरु होणं, ए. जी. एम् अचानक ब्रॅंच व्हिजिटसाठी येणं असं कांहीही. यातल्या कोणत्याच गोष्टी माझ्या हातातल्या नव्हत्या आणि त्यापैकी कांही घडलंच तर त्याला माझा इलाजही नव्हता. अखेरच्या क्षणापर्यंत प्रयत्न करणं एवढंच मी करू शकत होतो आणि ते मी करायचं असं ठरवून टाकलं!!

त्यामुळे अर्थातच प्रवास संपताना मनातली अस्वस्थताही कमी झाली होती. ब्रॅंचला गेल्यानंतर मात्र असंख्य व्यवधानं तिथं माझीच वाटच पहात होती. त्यामुळे कामाचं चक्र लगेच सुरु झालं न् पुढे बराच वेळ श्वास घ्यायलाही फुरसत मिळाली नाही. रांजणेंच्याजवळ मनातला विचार बोलून ठेवायचंही भान नव्हतं. गर्दीचा भर ओसरला तेव्हा सहज माझं लक्ष भिंतीवरच्या घड्याळाकडे गेलं. दुपारचे दोन वाजून गेले होते. मी रांजणेना नेमक्या परिस्थितीची कल्पना दिली. सहज शक्य झालं तर आज सव्वातीनच्या बसने परत नृ. वाडीला जाऊन यायची इच्छा असल्याचंही त्यांना सांगितलं.

“अजून तुमचं जेवणही झालेलं नाहीय. मेस बंद होण्यापूर्वी तुम्ही लगेच जाऊन जेवून या. तोवर मी आधी कॅश टॅली करून ठेवतो. म्हणजे कॅश चेक करून तुम्हाला निघता येईल. बाकीची माझी कामं तुम्ही गेल्यानंतर मी केली तरी चालू शकेल. ” रांजणेंनी मला आश्वस्त केलं. त्याक्षणानंतर सगळं मार्गी लावून मी स्टॅंण्ड गाठलं. बसमधे मनासारखी जागा मिळाली. मान मागे टेकवून मी शांतपणे डोळे मिटले. आदल्या दिवशी याच बसमधे मी असाच बसलो होतो तेव्हा पुढे काय घडणाराय याबाबतीत मी पूर्णतः अनभिज्ञ होतो. त्यानंतरच्या सगळ्याच घटना माझ्या नजरेसमोरुन सरकत जात असताना मला त्या स्वप्नवतच वाटत राहिल्या.

नृ. वाडीला पोचलो तेव्हा मनातली उत्कट इच्छा फलद्रूप झाल्याचं समाधान मन उल्हसित करीत होतं!दत्तदर्शन घेताना आत्यंतिक आनंदभावनेने मन भरून येत असतानाच माझी मिटली नजर ओलावली होती!

दर्शन झाल्यानंतर हीच कृतार्थ भावना मनात घेऊन मी पायऱ्या चढून वर आलो आणि मला वास्तवाचं भान आलं. रात्रीचे दहा वाजत आले होते. इथेच मुक्काम केला तर पहाटे वेळेत सांगलीला पोचून सहाची बस मिळवणं शक्य होणार नव्हतं. त्यासाठी मुक्कामाला सांगलीला जाणं आवश्यक होतं.

सांगली स्टॅंडला बस येताच मी घाईघाईने बसमधून उतरलो. पावलं नकळत सासुरवाडीच्या घराच्या दिशेने चालू लागताच मी थबकलो. तिथे जाणं मला योग्य वाटेना. काल सासऱ्यांनी पोटतिडकीने मला जे करु नका असं सांगितलं होतं नेमकं तेच मी केलेलं होतं. ‘आता त्यांच्याकडे जायचं तर हे लक्षात येऊन त्यांचं मन दुखावलं जाऊ शकतं. तसं होऊन चालणार नाही’ असा विचार मनात आला. मी परत फिरलो. खिशातल्या पैशांचा अंदाज घेतला. केवळ दोनतीन तास पाठ टेकण्यासाठी लाॅजवर जाणं ही त्याक्षणी गरज नव्हे तर चैन ठरणार होती हे लक्षात आलं आणि पुन्हा स्टॅण्डवर आलो. ती पूर्ण रात्र सांगली स्टँडवर बसून काढली!

स्टॅंडच्या बसून रात्र जागून काढताना सलगच्या धावपळीच्या प्रवासानंतरचा अपरिहार्य असा थकवा होताच पण त्याचा त्रास मात्र जाणवत नव्हता. कारण मनातलं पौर्णिमा अंतरली नसल्याचं समाधान त्यावर फुंकर घालत होतं! त्याच मन:स्थितीत मी कधीकाळी ऐकलेले बाबांचे शब्द मला स्वच्छ आठवले.

‘दत्तसेवा अनेकांना खूप खडतर वाटते. त्यामुळेच ‘मी’ करतो असं म्हणून ती प्रत्येकालाच जमत नाही. निश्चय केला तरी त्या निश्चयापासून परावृत्त करणारे प्रसंग सतत समोर येत रहातात. तेच आपल्या कसोटीचे क्षण!जे त्या कसोटीला खरे उतरतील तेच तरतात…!’

त्या रात्री बाबांच्या या शब्दांचा नेमका अर्थ मला माझ्या त्या दिवशीच्या अनुभवाच्या पार्श्वभूमीवर खऱ्या अर्थाने समजला होता!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #245 – कविता – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – आओ फिर से गोविंद…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर एक विचारणीय कविता आओ फिर से गोविंद” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #245 ☆

☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष आओ फिर से गोविंद…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

आनन्दकन्द गोपाल, कृष्ण गिरधारी

आओ फिर से, गोविंद सुदर्शन धारी।

*

वृन्दावन में, बचपन बीता अति प्यारा

आये जो दैत्य कंस के, उन्हें सँहारा

असुरों की फौज बढ़ी, धरती पर भारी

आओ फिर से, गोविंद सुदर्शन धारी।…

*

कोमल कलियों को, कुचल रहे अन्यायी

बेटी-बहनों के साथ, करे पशुताई

पहले जैसे नहीं रहे, लोग संस्कारी

आओ फिर से, गोविद सुदर्शनधारी।…

*

कालीया नाग को, जैसे सीख सिखाई

जहरीले नाग, फुँफकार रहे हरजाई

फन कुचलो माधव, नटनागर बनवारी

आओ फिर से, गोविद सुदर्शनधारी।…

*

आतंकवाद ने, अपने पैर पसारे

जयचंद कई हैं छिपे, देश में सारे

खोजें उनको, दें दंड देश हितकारी

आओ फिर से, गोविद सुदर्शनधारी।…

*

मथुरा में जाकर, दुष्ट कंस को मारा

महाभारत में फिर, गीताज्ञान उचारा

भारत की यही पुकार, मुकुंद मुरारी

आओ फिर से, गोविद सुदर्शनधारी।…

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 68 ☆ आँखों में मधुवन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आँखों में मधुवन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 68 ☆ आँखों में मधुवन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मौसम गाए गीत नया

ऋतुगंध सुनाए सगुन

सावन विरहा मुझ पर टूटा

आए हैं दुर्दिन ।

*

यह पावस क्षण-क्षण आपस के

ख़्वाब दिखा जाये

बूँद न टूटे बूँद-बूँद के

अंग समा जाये

*

मेघ दूत लौटा दे मेरा

रंग भरा फागुन।

*

फागुन के आँगन में तुम सँग

रंग वसंत हुए

सागर बीच नहीं प्यासों के

अब तक अंत हुए

*

सावन में फागुन को देखूँ

फागुन में सावन।

*

मौसम एक अकेला राजा

ऋतुएँ सब रानी

पर लगता मन का वृंदावन

तुम बिन बेमानी

*

पलकों पर सपने तिरते हैं

आँखों में मधुवन।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 72 ☆ मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 72 ☆

✍ मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जिसमें सबक हो प्यार का ऐसी किताब दे

इंसानियत का करने मुझे इंतखाब दे

 *

मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा

काज़ी न पादरी न पुजारी खिताब दे

 *

दुश्वार जिनको ज़ीस्त है टूटे है ज़ोम से

मुरझा गए जो चहरे है उन पर शबाब दे

 *

पर्वत शज़र की दावतें  वर्षा कबूल ले

तेरा है रब निज़ाम तो सहरा को आब दे

 *

अपने लिए ही रोटी नहीं माँगता ख़ुदा

देने ज़कात मुझको मुक़म्मल निसाब दे

 *

तक़लीफ़ टूटने की सताती है उम्र भर

ताबीर जिनकी हो सके बस ऐसे ख्वाब दे

 *

इंसान आज का नहीं वंदा रहा तेरा

दुनिया का नाश करने क़यामत शिताब दे

 *

सुननी है बात प्रेम से हमको बुज़ुर्गों की

उल्टी हो बात फिर भी न उनको जबाब दे

 *

गुलशन को मेरे ख़ार अता तू करें भले

मुफ़लिस को ज़िन्दगी में महकते गुलाब दे

 *

मग़रूर आदमी की निशानी है ये बड़ी

मुझको न ज़िन्दगी में जरा भी इताब दे

 *

वो बेवफा कहें नहीं इनकार है मुझे

अपनी अरुण वफ़ा का मुझे भी हिसाब दे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 116 – दहीहांडी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  दहीहांडीकी अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 116 – दहीहांडी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सावन तो जा चुका है और रक्षाबंधन भी. इसके फिर  कृष्णजन्माष्टमी और गणेशोत्सव के पर्व आने वाले हैं. सावन के आने का इंतजार बेटियां करती हैं, बहनें करती हैं, सावन में पत्नियां और मातायें भी अपने रोल को विस्मृत कर बहनों और बेटियों में सुकून और बचपन ढूंढती हैं. सावन के जाने की प्रतीक्षा करने वाले भी महापुरुष होते हैं जो धार्मिकता और रसरंग में संतुलन बनाने की कोशिश करते हुये अपने सुराप्रेम और सामिष भोज्यप्रेम की चाहत को दबाकर रखते हैं.

आज हम इन महापुरुषों को उनके हाल पर छोड़ते हुये याद करते हैं दहीहांडी के खेल रूपी उत्सव को जो मुख्यतः महाराष्ट्र के सांस्कृतिक उत्सवों की प्राणवायु है. हम मध्यप्रदेश वासी भी अपने बचपन से इस क्रीड़ा के उत्साही दर्शक और कभी कभी इस टोली के कुशल खिलाड़ी रह चुके होंगे.

अब तो मामला पेट से लेकर दिल तक पहुंच चुका है पर फिर भी हमें दिल को चुराने वाले इस खेल के हसरती दर्शक बनने से नहीं रोक पाया है. इस खेल में भाग लेने वालों के समूह की संख्या निर्धारित करने वाला कोई नियम बना नहीं है. इस खेल में टीम नहीं बल्कि टोलियाँ भाग लेती हैं और लक्ष्य बहुत ऊपर लटकी हुई मिट्टी की हांडी होती है जिसके अंदर दही के अलावा कुछ इनामी राशि भी होती है. प्रयास करने के मौके तब तक मिलते रहते हैं जब तक की दहीहांडी सहीसलामत लटकी रहती है.

ये हमारी सांस्कृतिक आदतों से मेल करता है कि ऊपर पहुंचे हुये और अधर में लटके हुओं को फोड़कर नीचे गिराना जो हम बखूबी करते रहते हैं. पिट्टू जमाना, फिर बॉल से फोड़ना और फिर जमाने की कोशिश करते हुये खिलाड़ियों को टंगड़ी मारना नामक क्रिया, क्रीडागत कुशलता की मान्यता कई सालों से लिये हुये है. जो चुस्त और चपल होते हैं वो इन बाधाओं को पारकर विजेता बनते हैं. यही खेल हम सारी जिंदगी खेलते रहते रहते हैं, खेलते रहते हैं. हमारी जीवनयात्रा इन खेलों के बीच से गुज़रते हुये और क्रमशः तीर्थयात्रा को संपन्न करते हुये अंतिमयात्रा की ओर समाप्त होती है जो जय पराजय, यशअपयश, लाभ हानि सब विधि के हाथों में फिर से सौंपकर, इस अंतिम यात्रा के नायक के मुख पर निश्चिंतता की छवि को उकेर देती है. इस तरह के नायकों को भी हम पंचतत्वों के हवाले कर फिर से दहीहांडी के उत्सव में जीवन पाने का प्रयास करते हैं.

दहीहांडी एक टीम या समूह का खेल है. सबसे पहले या सबसे नीचे कुछ बलिष्ठ खिलाड़ी एक दूसरे को मजबूती से पकड़कर ऊपर लक्ष्य की ओर जाने का आधार बनाते हैं. यह आधार कितना मजबूत रहेगा यह इन खिलाड़ियों के तालमेल, मजबूती और आघातों को सहकर भी स्थिर रहने की क्षमता पर निर्भर होता है. ये पहला वृत्त या सर्किल होता है जो जमीन से जुड़ा और जमीन पर खड़ा होता है. बाद में इसकी स्थिरता stability के बल पर ऊपर क्रमशः छोटे सर्किल बनाये जाते हैं. ये जमीन पर तो नहीं खड़े होते पर अपनी संतुलन कला के बल पर ऊंचाई की ओर जाने में महत्त्वपूर्ण सहायक का रोल निभाते हैं. ऊपर की ओर बना हर सर्किल अपनी स्थिरता को उसी अनुपात में खोकर संतुलन कला के दम पर मंजिल पाने का मार्ग प्रशस्त करता है. अंत में वह खिलाड़ी जो सामान्यतः बालअवस्था में होता है, अर्थात “भार कम और चपलता अधिक” के अनुपात से संपन्न होता है, इन्हीं सर्किलों के सहारे ऊपर चढ़ते हुये अंतिम लक्ष्य याने दहीहांडी को फोड़कर विजय प्राप्त करता है. विजय पाने के बाद, यह टोली अपने सारा स्थायित्व, संतुलन और टीमवर्क को दरकिनार कर जीतने के जश्न में डूब कर नाचने लगती है.

सारे खिलाड़ी जीतने की खुशी में नीचे आने की प्रक्रिया भूल जाते हैं. जो गिरता है वह भी कभी कभी इन्हीं हमजोलियों के हाथों संभाल लिया जाता है और यह टोली फिर अगले चौक पर लटकी दहीहांडी को पाने के लिये आगे बढ़ जाती है. यह जीत गिरने से आई चोटों पर पेनकिलर का काम करती है.

इस विजय में, जिसे उसकी भारहीनता और चपलता, मटकी फोड़ने का अवसर देती है, वह बालक ही दर्शकों की निगाहों में नायक बन जाता है पर उसकी यह विजय सिर्फ उसकी भारहीनता याने मानवीय दुर्बलताओं की हीनता और चपलता के कारण ही नहीं बल्कि जमीन से जुड़े और संतुलन कला में निपुण साथी खिलाड़ियों के कारण भी मिलती है.

यही हमारी जीवनयात्रा में मिली सफलताओं का भी सारांश है जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षकगण, गुरुजन, कोच, संगी-साथी, मित्रगण, पत्नी, संताने, ऑफिस के सीनियर और जूनियर भी अपनी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इन्हें कभी भी भी कमतर समझना या गैर जिम्मेदार समझना, कामचोर समझना, बहुत बड़ी भूल ही कही जायेगी क्योंकि दहीहांडी फोड़ने के बाद नीचे गिरने पर, संभालने वाले हाथों की जरूरत हर विजेता को पड़ती है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 37 – ग्लानि… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ग्लानि।)

☆ लघुकथा # 37 – ग्लानि ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

अवंतिका आंटी मेरे पड़ोस में एक बुजुर्ग दंपत्ति रहा करते हैं, वह लोग सारा दिन पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, पहली रोटी गाय को कुत्ते की रोटी आदि बातों का बहुत ध्यान रखते हैं।  मोहल्ले के सारे बच्चे उन्हें दादा-दादी कहते हैं, एक दिन अचानक अवंतिका आंटी के रोने की आवाज आ रही थी।  मुझे लगा क्या हो गया है मेरे पतिदेव अभिनव ऑफिस चले गए घर पर बच्चे और मैं अकेली थे। बाहर महामारी चल रही है मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं बाहर निकलना ठीक है या नहीं परंतु मुझसे रहा नहीं गया। अपने गेट से बाहर निकली और मुंह पर दुपट्टा बांधकर। दिखी तो क्या गाय के मुंह पर कांच लगा था। मुंह से खून निकल रहा है, और आंटी रो रही थी। थोड़ी थोड़ी दूर पर सभी पड़ोसी लोग भी खड़े थे। मेरे पड़ोसी राम भैया गाय के मुंह से कांच निकाले और उसके मुंह पर भाभी हल्दी लगा रही थी। सभी पूछ रहे थे। यह कैसे हो गया।

आंटी रो रही थी। अंकल बोले कचरे वाली गाड़ी की आवाज सुनकर ये भागी भागी कचरा और गाय की रोटी भी ली थी । गाय को रोटी दी, गाय ने कचरे की थैली पर सींग मारी तुम्हारी आंटी कचरा छोड़कर भागी।

आज सुबह-सुबह बर्तन धोते समय कांच का गिलास टूट गया था, कचरे में डाल दिया और गाय सब्जियों के छिलकों के साथ और उसके मुंह पर चुभ गया, और घायल हो गई। अंकल ने कहा राम बेटा तुम भगवान बन के आए।

गाय के मुंह से खून निकल रहा था। और अंकल कहे जा रहे थे, परोपकार करो, गाय के अलावा भी सब जानवरों को खाना दिया करो। आंटी की आंख के आंसू थम ही नहीं रहे थे। 

आंटी को ग्लानि हो रही थी। और हम सब भी स्तब्ध थे…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 69 – पता मुझे है जन्नत का… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पता मुझे है जन्नत का।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 69 – पता मुझे है जन्नत का… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

हूँ बीमार, मुहब्बत का 

पता, मुझे है जन्नत का

*

सूरत, भोली-भाली है 

दीवाना हूँ, सीरत का

*

याद करूँ, दिन-रात तुम्हें 

समय कहाँ है, फुर्सत का

*

कैसे भूलूँ तुम्हें भला 

तुम हो हिस्सा, फितरत का

*

तेरे दर पर, आ न सका

डर है, तेरी इज्जत का

*

दर से खाली गया, तो क्या 

होगा, तेरी शोहरत का

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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